एक असंगत लेख की शव-परीक्षा
-सत्येन्द्र सिंह आर्य
आर्य जगत् की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘परोपकारी’ पाक्षिक के वर्ष 2015 के दिसबर (प्रथम) अंक में ‘‘ईश्वर की सिद्धि में प्रमाण है’ ’शीर्षक के अन्तर्गत किन्हीं श्री राजेन्द्र प्रसाद शर्मा का एक लेख प्रकाशित हुआ है। लेख का शीर्षक तो ऐसा आकर्षक है, जैसे लेखक कोई वेदज्ञ विद्वान् हो और साधना-पथ का पथिक हो, परन्तु जब लेख पढ़ा तो पाया कि यहाँ-वहाँ थोथे शबद जाल के अतिरिक्त असंगत बातें ही अधिक हैं। खोदा पहाड़ निकला चूहा!
प्रथम पैराग्राफ में लिखा है- ‘‘पूर्व में जो तपस्वी/ संन्यासी /महात्मा हुए उन्होंने ईश साक्षात्कार किया है- जैसे गोस्वामी तुलसीदास ने‘ तिलक देत रघुवीर’ लिखा है। एक सन्त को गधे में भगवान् के दर्शन हुए। ये घटित घटनाएँ हैं।’’ रामचरित मानस में लिखी बात‘ तिलक देत रघुवीर’ का ईश्वर साक्षात्कार से क्या लेना-देना? यदि तिलक लगाने से ईश साक्षात्कार होता तो भज-भज मण्डली वाले करोड़ों तिलकधारियों को अब तक ईश्वर साक्षात्कार हो गया होता। ‘‘सन्त को गधे में भगवान के दर्शन हुए’’-यह तो बुद्धि के दिवालियेपन की बात है। ईश्वर तो आत्मा की भी आत्मा है, अतः ईश्वर की अनुभूति तो अन्दर ही हो सकती है। गधे में भगवान के दर्शन करने का दावा करनेवाला कोई भांग-चरस आदि का नशैड़ी (मद्यप) होगा।
लेखक आगे लिखता है कि ‘‘रामेश्वरम् में गंगा जल चढ़ाने वाला हृदय में गंगा जल की धार’’ जैसा अनुभव करता है। यह कपोल कल्पना है। गंगा की धार हृदय में कहाँ से पहुँच गयी। ‘‘वेद के सूक्तों के जितने मन्त्र दृष्टा ऋषि हुए हैं।’’ इस विषय में तथ्य यह है कि वेद मन्त्रों के साथ जिन ऋषियों का नाम लिखा मिलता है, वे वेद –मन्त्रार्थ दृष्टा ऋषि हैं, वेद मन्त्र दृष्टा नहीं। वेद-मन्त्र दृष्टा तो चार ऋषि सृष्टि के आदि में हुए हैं- अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा, जिन्हें ईश्वर से वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ।
लेखक ने आगे योग के सिलसिले में अँधेरे में तीर चलाये हैं। लिखा है- ‘‘साधना आगे बढ़ने पर रीढ़ में कष्ट होना, कुण्डलिनी जागरण-ये सब स्थितियाँ होती हैं।’’ अच्छा होता यदि लेखक इस विषय में योग, वेदान्त, सांयदर्शन का कोई सूत्र उद्धृत करते। अनर्गल बात लिखने का क्या लाभ?
लेखक इतना लिख कर ही नहीं रुका। आगे लिखा है – ‘‘इसी समय आत्म साक्षात्कार होता है, हृदय से स्पष्ट आवाज आती है- मैं यहाँ हूँ। फिर कुण्डलिनी जागरण ऊपर की ओर होता है, तब मस्तिष्क में घण्टियों जैसी आवाज होती है। इसे वेदों में अनाहत नाद कहा गया है। जब कुण्डलिनी जागरण सहस्राधार चक्र तक होता है तथा मस्तिष्क में पानी झरने जैसा अनुभव होता है। मस्तिष्क में ढक्कन खुलने, बन्द होने जैसा अनुभव होता है। इस दौरान एकाएक नींद खुलना, रीढ़ की हड्डी में भयंकर कष्ट होना, ये सब बातें होती हैं। तब ध्यान करने पर शिवजी, ब्रह्माजी अथवा विष्णु भगवान स्पष्ट दिखाई देते हैं। आँखें बन्द होते ही उनसे मानसिक बातचीत भी होती है। यही ईश-साक्षात्कार है।’’ ये सब बेसिर-पैर की बेतुकी बातें हैं।न यम, नियमों का पालन, न तप, न ज्ञान-प्राप्ति और हो गया सीधे ईश -साक्षात्कार। यह तो ऐसा ही है जैसा कादियां के मियाँ (मिर्जा गुलाम अहमद) की खुदा से भेंट होती रहती थी। ऐसी बेसिर-पैर की बेतुकी बातों का ईश्वर-साक्षात्कार से कुछ भी लेना-देना नहीं है।
जो ईश्वर के स्वरूप को, गुण,कर्म, स्वभाव को नहीं जानता वह उसे कैसे प्राप्त कर सकता है? वेद तो स्पष्ट कहता है- ‘‘यस्तन्नवेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते। ’’ब्रह्मा, विष्णु, महेश की काल्पनिक आकृतियों को देखने वाला और उन से बातचीत करने का दमभ करने वाले का ईश्वर-साक्षात्कार से क्या लेना-देना? परमात्मा से मिलना तो बहुत दूर की बात है, पहले उसे जानना आवश्यक है। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। वेद के अनुसार तो जिस ऋग्वेदादि वेद मात्र से प्रतिपादित नाश रहित उत्तम आकाश के बीच व्यापक परमेश्वर में समस्त पृथिवी सूर्यादि देव आधेय रूप से स्थित होते हैं, जो उस परब्रह्म परमेश्वर को नहीं जानता, वह चार वेद से क्या कर सकता है और जो उस परमब्रह्म को जानते हैं, वे ही अच्छे प्रकार ब्रह्म में स्थित होते हैं। बिना उसे जाने ईश-साक्षात्कार तो दिवा-स्वप्न ही रहेगा।
प्रसंगाधीन लेख की इस प्रकार की सभी बातें असंगत हैं, सिद्धान्त-विरुद्ध हैं और भ्रामक हैं।
-जागृति विहार, मेरठ