डॉ0 अम्बेडकर ने कई स्थलों पर प्राचीन काल में वर्णपरिवर्तन के अवसरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। वर्णपरिवर्तन का स्पष्ट अभिप्राय है कर्मणा वर्णव्यवस्था, और कर्मणा वर्णव्यवस्था का अभिप्राय है जन्मना जातिवाद का अस्तित्व न होना। इस प्रकार वैदिक और मनु की वर्णव्यवस्था में कहीं भी आपत्ति करने की गुंजाइश नहीं रहती है। वे लिखते हैं-
(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 170)
इस सन्दर्भ के अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर र ने ऊपर तथा अन्य उन उद्धृत श्लोकों के अर्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है जिनमें मनु ने वर्णपरिवर्तन का विधान किया है। इसका अभिप्राय यह निकला कि वे श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र को सिद्धान्त रूप में मान्य हैं-
(ख) ‘‘जिस प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मणत्व को और कोई ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न भी प्राप्त होता है।’’ (मनुस्मृति 10.65) (वही, खंड 13, पृ0 85)
(ग) ‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ (मनुस्मृति 9.335)(वही, खंड 9, पृ0 117)
मनु की वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र वर्णपरिवर्तन करके उच्च वर्ण प्राप्त कर सकते थे, मनु के इस सिद्धान्त का डॉ0 अम्बेडकर र स्पष्ट समर्थन कर रहे हैं। मनु आपत्तिरहित सिद्धान्त के प्रदाता हैं, फिर भी मनु का विरोध क्यों? अपने इस परस्परविरोध का उत्तर डॉ0 अम्बेडकर र को देना चाहिए था किन्तु उन्होंने कहीं नहीं दिया क्या अब डॉ0 साहब के अनुयायी या अन्य मनुविरोधी, शूद्र-सबन्धी परस्परविरोधों का उत्तर देने का साहस करेंगे?
संविधान पूर्व युग में कहि गई बातो का संविधान युग में क्या महत्व बाकी है .आप अपनी मनु आधारित मानसिकता ओ को भुला नही पाये या इस संविधान युग की महत्ता को अज्ञान वश समझ नही पाये . संविधान की नजर में मनुस्मृति मृत घोषित हो चुकी है उसे पुनः जीवित करना अश्क्यप्राय है .वैसे ब्रिटिश काल में मनुस्मृति का कानून लागू नही था कोई भी ब्रिटिश न्यायाधीश वर्ण या जाती व्यवस्था को ध्यान में रखकर अंतिम न्याय नही देते थे. २५ दिसम्बर १९२७ को अम्बेडकर साहब ने मनुस्मुती को इस लिए जलाया क्यूकी उस वक्त की सामाजिक व्यवहार की नींव या सोच विचार की मानसिकता मनु व्यवस्था पर आधारित थी उसे हिन्दुओ के एक वर्ग का समर्थन था लिहाजा उसे ध्वस्त करना जरूरी था .
१९२७ से पहले पांच बार’ मनुस्मृति का दहन’ देश के अलग अलग जगह पर हो चुका था एक जगह स्वत: आर्य समाजीष्ट आचार्य ईश्वरदत्त मेधार्थी उपस्थित भी थे तथा बाद में उन्होने बौद्ध धर्म अपनाया था पर जिसी कारण वह पुनः आर्य समाजिष्ट बन गए .
प्रकांड पण्डित दयानंदजी ने भी मनुस्मृति को प्रक्षेपित का शिकार कहाँ था .
मनु विधान एक विष समान है जिसका उपयोग कई प्रकार से विषरोधक भी साबित होता है पर ऐसा होते हुए मनुस्मृति कभी भी अमृत का स्थान प्राप्त नही कर सकती .
विधान क्या है सभी तो समान अधिकार यही श्रेष्ठ विधान है तो मनु में प्रतिपादित है
This is not original manu smriti it’s fake and try to show there is no hate speech for shudra I read original manu smriti dhol gawar pashu aurat sab taran ke adhikari this manu smriti is written by another bahman to safe manusmruti hate speech book for ladies and shudras