वर्तमान समय में देश का दुर्भाग्य है कि हमारे समाज में शिक्षक की भूमिका नगण्य मानी जाती है। कुछ समय पहले तक ग्रामीण समाज के लोग शिक्षक के कार्य को कार्य ही नहीं मानते थे। इसके दो उदाहरण स्मरण आ रहे हैं एक- हरियाणा में मुयमन्त्री बंशीलाल भाषण दे रहे थे- गाँव की सभा में लोगों ने अपने गाँव में विद्यालय खोलने की माँग की, तो मुयमन्त्री का उत्तर था- तुम सड़क बनवा लो, बिजली लगवा लो, गाँव के लिये बस की व्यवस्था करवा लो, जितने भी काम उत्पादकता से जुड़े हैं, उन्हें करने में मैं देर नहीं करुँगा परन्तु विद्यालय जैसे कार्य मेरी प्राथमिकता में नहीं है। इस प्रकार गाँव के एक चौधरी ने बाहर काम कर रहे एक युवक से गाँव में लौटने पर, भेंट के प्रसंग में पूछा- भाई कोई नौकरी मिली या अभी मास्टरी ही कर रहे हो। ये दो उदाहरण हमारी सामाजिक सोच के लिए पर्याप्त हैं। यह ठीक है कि इधर के वर्षों में शिक्षा को लेकर सोच बदला है परन्तु यह सोच भी सही दिशा में नहीं जा रहा। प्रथम तो समाज में शिक्षा दो भागों में विभाजित हो गई है। एक कुलीन व सपन्न समझे जाने वाले वर्ग के बच्चों को जो शिक्षा मिलती है। ये बच्चे जिन विद्यालयों में जिन अध्यापकों से पढ़ते हैं, वहाँ शिक्षा के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता है, इन बालकों में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा भी रहती है। इनको अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन करने का पर्याप्त अवसर मिलता है जिनके परिणाम और उपलधियों को देख कर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें लगता है कि भारत में शिक्षा का स्तर ऊँचा है, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन्हीं मेधावी युवकों के कारण भारत की प्रतिष्ठा बढ़ रही है। ये तो भारत के प्रकाशमान भाग का दृश्य है।
भारत की शिक्षा का एक अन्धकारपूर्ण पक्ष है। जहाँ निर्धनता, दरिद्रता के कारण उक्त शिक्षा संस्थानों तक उन बालकों की पहुँच नहीं हो पाती। इन स्थानों पर जो गाँव हैं, ये स्थान नगरों से दूर, नगर की सुविधाओं से वञ्चित अज्ञान, अशिक्षा, निर्धनता से त्रस्त और शिक्षा के अवसरों से वञ्चित हैं। जहाँ मनुष्य मजदूरी, काम के अभाव में या उसकी विवशता में शिक्षा की बात भी नहीं सोच सकता। इन स्थानों पर शिक्षा के लिये किये गये सरकारी प्रयास सरकार की भांति दुर्दशा से ग्रस्त हैं। प्रथमतः इन क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था और सुविधा उपलध ही नहीं है। यदि कहीं उपलध है तो इन विद्यालयों में कहीं भवन नहीं, कहीं शिक्षक नहीं, कहीं शिक्षा के उपकरण नहीं। सब कुछ तो, सभव है, इन क्षेत्रों में कहींाी न मिले। हमारी सरकारी शिक्षा-व्यवस्था की दशा इस बात से जानी जा सकती है कि व्यक्ति अध्यापन का सेवा-कार्य राजकीय विद्यालयों में करने का आग्रह करता है परन्तु यदि उसको अपने बच्चों को पढ़ाने का का अवसर मिलता है तो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाता है। इससे निजी और सरकारी विद्यालयों की शिक्षा का अन्तर समझना सरल है।
शिक्षा के इन केन्द्रों की समस्या यह है कि सरकार ने छात्र बीच में शिक्षा को छोड़कर न जाये, इस विचार से पाँचवी से आठवीं तक छात्रों को अनुत्तीर्ण न करने का निर्देश दिया हुआ है। इसका परिणाम है कि राजकीय विद्यालयों में छात्र न पढ़ते हैं और जो आते भी हैं तो वे पढ़ना नहीं चाहते। आज सुधार के नाम पर विद्यालयों की ऐसी दुर्दशा हो गई है। अध्यापक न पढ़ने पर, विद्यालय न आने पर, पाठ न सुनाने पर छात्रों को डांट भी नहीं सकता। यदि किसी अध्यापक ने कुछ प्रयास किया तो बात माता-पिता से होकर पुलिस तक पहुँच जाती है। ऐसी परिस्थिति में अध्यापक अपने प्रयासों को छोड़ देता है। सरकार पिछड़ी जातियों के लिए छात्रवृत्ति एवं छात्रावास की सुविधा देती है परन्तु घर और विद्यालयों का वातावरण शिक्षा के अनुकूल न होने के कारण अधिकांश छात्र इन सुविधाओं का सदुपयोग नहीं कर पाते।
शिक्षा की दशा समझने के लिये एक उदाहरण पर्याप्त होगा। जैसा ऊपर बताया गया कि व्यक्ति शिक्षा की नौकरी तो राजकीय चाहता है परन्तु विद्यालय का स्तर न अध्यापक, न अधिकारी, न सरकार ही सुधारना चाहती है। उदाहरण दिल्ली प्रदेश का है। शीला सरकार ने एक बार विचार किया कि राजकीय विद्यालयों का परीक्षा परिणाम सन्तोषजनक नहीं रहता तो अच्छा होगा इन विद्यालयों का प्रबन्ध निजी हाथों में सौंप दिया जाय। यह तो अध्यापकों के लिए खतरे की घण्टी थी। राजकीय विद्यालयों ने इस समस्या का तत्काल समाधान खोज लिया। जब दसवीं की परीक्षा हुई, मुयाध्यापकों के निर्देशन में अध्यापकों ने छात्रों के साथ भरपूर सहयोग किया और उस वर्ष का राजकीय विद्यालयों का परिणाम सुधर गया। अध्यापकों पर लटक रही तलवार हट गई। शिक्षा का स्तर भी सुधर गया, समस्या का हल भी हो गया। अब विचारने की बात है कि दिल्ली जैसे प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ऐसी है तो शेष देश की क्या परिस्थिति होगी?
यहाँ तक ही शिक्षा की समस्या का अन्त नहीं होता। यथार्थ तो यह है कि शिक्षा की वास्तविक समस्या यहाँ से प्रारभ होती है। शिक्षा इस देश में अनेक प्रकार की है। एक महंगी शिक्षा, दूसरी सस्ती शिक्षा। महंगी शिक्षा वाले लोग अपने को इस देश का प्रथम श्रेणी का नागरिक मानते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को दूसरी श्रेणी के बच्चों से बराबरी नहीं करने देना चाहते। प्रथम प्रयास में महंगी शिक्षा की तुलना में सस्ती शिक्षा में पढ़ा हुआ छात्र अपने आप पिछड़ जाता है तथा अपने को पिछड़ा मान लेता है। इससे आगे इस देश की सरकार ने शिक्षा को एक बाधा दौड़ बना रखा है। जो बालक पहली महंगी-सस्ती बाधा दौड़ किसी प्रकार पार कर लेता है, अपनी प्रतिभा से किसी सामाजिक, सरकारी, व्यक्तिगत सहायता से इस बाधा को पार कर लेता है, उसके सामने आगे की पढ़ाई के लिये दूसरी मुय बाधा भाषा की आती है। इन तथाकथित सभ्रान्त विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से ग्रामीण और सरकारी विद्यालयों के बालक प्रतिभा सपन्न होने पर भी वे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़े छात्रों की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं। अधिकांश को अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर, अन्य क्षेत्रों में आजीविका अपनानी पड़ती है। देश की बहुसंयक जनता के बालकों के साथ हो रहे अन्याय को कोई अनुभव नहीं करना चाहता, उपाय करना तो दूर की बात है।
उच्च शिक्षा के सारे पाठ्यक्रम अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाये जाते हैं, जो व्यक्ति डॉक्टर, वकील, इञ्जीनियर, प्रशासक, व्यवस्थापक, अध्यापक, अनुसन्धानकर्त्ता कुछ भी बनना चाहे वह अंग्रेजी के बिना बन ही नहीं सकता। जो लोग हिन्दी या देश भाषा को पिछड़ा मानते हैं या कहते हैं, वे यह क्यों छिपाते हैं कि स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी को बढ़ाने का जितना यत्न किया गया, उससे अधिक प्रयत्न हिन्दी को और प्रान्तीय भाषाओं को दबाने का किया गया। फिर एक बात सोचने की है, क्या पराधीन रहते बहुत दिन हो गये हों तो स्वतन्त्रता के विषय में विचार करना, स्वाधीनता के लिये प्रयत्न करना छोड़ देना चाहिए? जो स्वतन्त्रता की बात देश के लिए की जाती है, वह देश की भाषा के लिए क्यों नहीं की जानी चाहिए, क्या भाषा की स्वतन्त्रता के बिना देश को स्वतन्त्र कहना आत्म प्रवचञ्चना नहीं है? आज जब इस देश के प्रशासन की भाषा, न्यायालयों की भाषा, संसद व विधान मण्डलों की भाषा, विदेशी कपनियों के कारण व्यवसाय की भाषा अंग्रेजी है, ऐसी परिस्थिति में इस देश की जनता के पास गूंगा-बहरा बने रहने के अतिरिक्त क्या विकल्प शेष बचता है। आज की नई सामाजिक व्यवस्था के कारण सभी बातों का व्यावसायीकरण हो रहा है, बहुत कुछ हो गया है। ऐसी स्थिति में शिक्षा का जिस व्यापक रूप में व्यवसायीकरण हो रहा है उसके चलते हम सामान्य बालक को शिक्षित करने की बात सोच भी नहीं सकते। शिक्षा कई अर्थों में आजीविका से भी महत्त्वपूर्ण है। किसी को आजीविका देने मात्र से शिक्षित नहीं किया जा सकता परन्तु शिक्षित कर देने से आजीविका पाने योग्य मनुष्य स्वतः बन जाता है। इस भाषा और साधन, सुविधा, शिक्षक के अभाव में देश की नई पीढ़ी को शिक्षा से वञ्चित करना उसकी बौद्धिक हत्या करने के समान है। भले ही इस हत्या के लिए आपके संविधान में किसी दण्ड का विधान न हो परन्तु पाप होने के कारण इस अपराध को करने वाले परमेश्वरीय दण्ड विधान से नहीं बच सकते। देश के स्वतन्त्र होने के बाद, इस देश का प्रधानमन्त्री और सरकार अंग्रेजों की कृतज्ञ रही है। अंग्रेज की रीति-नीति, भाषा-भूषा, कार्यशैली सभी कुछ वही अपनाया गया। जो विद्यालय ईसाई चर्च के द्वारा चलते थे उन्हीं को आदर्श मान लिया। सरकारी अधिकारियों ने अपने बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ा कर उनका भविष्य सुरक्षित कर लिया। जिस प्रकार कांग्रेस के नेताओं ने अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाकर अंग्रेजों का प्रिय पात्र बनाया और अंग्रेज जाते-जाते ऐसे लोगों के हाथ में इस देश के शासन का सूत्र सौंप गये जिसका परिणाम है कि यह देश आज तक भी पराधीनता के चंगुल से मुक्त नहीं हो सका है। किसी भी देश की आत्मा उस देश की भाषा में बसती है और उसका संस्कार शिक्षा में। आज देश को शिक्षा और शिक्षक के महत्व को समझने की आवश्यकता है। ट्यूशन पढ़ाकर पैसा कमाने वाले अध्यापक ऊँची फीस लेकर शिक्षा की दुकान चलाने वाले शिक्षा के व्यापारी इस बात को नहीं समझ सकते हैं, इस देश के लोग कह सकते हैं भाषा या साधनहीनता मनुष्य के लिये बाधक नहीं बन सकती जैसे कलाम के लिए या नरेन्द्र मोदी के लिये, परन्तु यह हम क्यों भूल जाते हैं कि मोदी या कलाम अपवाद से बनते हैं, नियम से नहीं। इससे अच्छा ऐसा अवसर कौन सा हो सकता है कि हम एक ऐसे व्यक्ति को श्रद्धाञ्जलि दे रहे हैं जो एक बुद्धिमान् वैज्ञानिक था, निष्ठावान देशभक्त था, स्वभाव से संवेदनशील था, पद से देश का पूर्व राष्ट्रपति था और प्रवृत्ति से अध्यापक था। राष्ट्रपति पद छोड़ने के अगले दिन और जीवन के अन्तिम दिन कक्षा में उपस्थित रहा। जिसका प्राणान्त पढ़ाते हुए हुआ, जिसे अध्यापक होने में प्रसन्नता का अनुभव होता था और अध्यापक कहलाने में गर्व। जिनका जीवन सबके लिये प्रेरणाप्रद है। कलाम ने शिक्षकों के लिये जो शपथ बनाई है, उसमें उनकी एक आदर्श अध्यापक वृत्ति लक्षित होती है-
- 1. सबसे पहले मैं शिक्षण से प्रेम करुँगा। शिक्षण मेरी आत्मा होगी।
- 2. मैं महसूस करता हूँ कि मैं न सिर्फ छात्रों को अपितु प्रज्वलित युवाओं को आकार देने के लिये जिमेदार हूँ, जो पृथ्वी के नीचे, पृथ्वी पर और पृथ्वी के ऊपर सबसे शक्तिशाली संसाधन हैं। मैं शिक्षण के महान मिशन के लिए सपूर्ण रूप से प्रतिबद्ध हो जाऊँगा।
- 3. मैं स्वयं को एक महान् शिक्षक बनाने के लिये विचार करुँगा, जिससे मैं अपने विशिष्ट शिक्षण के माध्यम से औसत स्तर के बालक का उत्थान सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिये कर सकता हूँ।
- विद्यार्थियों के साथ मेरा कार्य व्यवहार एक माँ, बहन, पिता या भाई की तरह दयावान और स्नेह पूर्ण रहेगा।
- 5. मैं अपने जीवन को इस प्रकार से संगठित एवं व्यवहृत करुँगा कि मेरा जीवन स्वयं ही मेरे विद्यार्थियों के लिये एक सन्देश बने।
- 6. मैं अपने विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने तथा उनमें जिज्ञासा की भावना को विकसित करने को प्रोत्साहित करुँगा ताकि वे रचनात्मक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में विकसित हो सके।
- 7. मैं सभी विद्यार्थियों से एक समान व्यवहार करूँगा तथा धर्म, समुदाय या भाषा के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का समर्थन नहीं करुंगा।
- 8. मैं लगातार अपने शिक्षण में क्षमता निर्माण करुँगा ताकि मैं अपने छात्रों को उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान कर सकूँ।
- 9. मैं अत्यन्त आनन्द के साथ अपने छात्रों की सफलता का जश्न मनाऊँगा।
- 10. एक शिक्षक होने के नाते मैं अहसास करता हूँ कि राष्ट्रीय विकास के लिये की जा रही सभी पहल में मैं एक महत्वपूर्ण योगदान कर रहा हूँ।
- 11. मैं लगातार मेरे मन को महान् विचारों से भरने तथा चिन्तन व कार्य व्यवहार में सौयता का प्रसार करने का प्रयास करुँगा।
- 12. हमारा राष्ट्रीय ध्वज मेरे हृदय में फहराता है तथा मैं अपने देश के लिये यश लाऊँगा।
डॉ. कलाम के हृदय की देश के छात्रों के प्रति संवेदनशीलता और राष्ट्र निष्ठा का इससे बड़ा क्या उदाहरण हो सकता है। इसी प्रकार कलाम के जीवन की बहुत सारी घटनाओं में से एक घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। तमिलनाडु के वेल्लौर जिले की एक छात्रा सुदारकोडी सुकुमार ने एक बार कलाम से पूछा था- आप इन तीन विशेषणों में से किसको अपने लिये उपयुक्त समझेंगे। प्रथम– आप एक वैज्ञानिक है, दूसरा- आप भारतीय तमिल हैं, तीसरा- आप एक मनुष्य हैं। तब कलाम ने उत्तर दिया था- यदि मैं मनुष्य हूँ तो शेष दो मेरे अन्दर स्वतः आ जायेंगे। इतना ही नहीं इस छात्रा को कलाम ने स्मरण रखा और उसके प्रश्न को अपनी आत्मकथा का शीर्षक बनाकर पुस्तक विमोचन के समय उसको बुलाया।
ऐसे व्यक्ति के लिए सच्ची श्रद्धाञ्जलि देश अपने सभी नागरिकों को उच्च शिक्षा का अधिकार देकर उसका प्रबन्ध कर उसकी प्रतिभा को विकसित करने के लिये शिक्षा को बालक की मातृभाषा में सुलभ करके ही दे सकता है अन्यथा तो यह श्रद्धाञ्जलि पाखण्ड मात्र है। डॉ. कलाम जैसे गुरु के लिये ही कहा जा सकता है-
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानानञ्जनशलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।
– धर्मवीर
प्रो0 धर्मवीर जी की कलाम को श्रद्धाञ्जलि स्तुत्य है। लेख में शिक्षा और शिक्षक की स्थिति पर क्षोभ भी है। इससे सहमत होना प्रत्येक भारतीय मनीषा के चिन्तक का दायित्व है। आर्यसमाज इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभा सकता था, आरम्भ में निभाई भी। पर कष्ट, DAV तो पहले ही अपने कर्तव्यों को भूल गया, ऐसे में गुरुकुलों पर यह दायित्व था तो उन्हें भी आर्यसमाज के तथाकथित कर्णधार निगल गये या ध्यान नहीं दिया और सैंकड़ों गुरुकुल अन्तिम श्वास ले चुके या ले रहे हैं।हाय, गुरुकुलों की उपयोगिता हम समाज को न बता पाये। अब शेष?