आश्चर्य रूप से सृष्टि का वर्णन वेदों में उपलब्ध होता है । वेदों में कथा-कहानी नहीं है । अन्यान्य ग्रन्थों के समान वेद ऊटपटांग नहीं बकते । मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रथम इस अति गहन विषय में विविध प्रश्न करते हैं । वेदार्थ – जिज्ञासुओं को और वेदों के प्रेमियों को प्रथम वे प्रश्न जानने चाहिए जो अतिरोचक हैं और उनसे ऋषियों के आंतरिक भाव का पूरा पता लगता । वे मन्त्र हम लोगों को महती जिज्ञासा की ओर ले जाते हैं, जिज्ञासा ही ने मनुष्य जाति को इस दशा तक पहुँचाया है, जिस देश में खोज नहीं वह मृत है । कभी अपनी उन्नति नहीं कर सकता । मन्त्र द्वारा ऋषिगण क्या-क्या विलक्षण प्रश्न करते हैं। प्रथम उनको ध्यानपूर्वक विचारिये ।
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत् स्वित् कथासीत् । यतो भूमिं जनयन् विश्वकर्म्मा विद्यामौर्णोत् महिना विश्वचक्षा ॥
– ऋ०१०।८१ । ३
लोक में देखते हैं कि जब कोई कुम्भकार तन्तुवाय वा तक्षा घट, पट, पीढ़ी आदि बनाना चाहता है तब वह पहले सामग्री लेता है और कहीं एक स्थान में बैठ कर घड़ा आदि पात्र बनाता है। अब जैसे लोक में व्यवहार देखते हैं वैसे ही ईश्वर के भी होने चाहिए । अतः प्रथम विश्वकर्मा ऋषि प्रश्न करते हैं कि (स्वित्) वितर्क मैं वितर्क करता हूँ कि ( अधिष्ठानम्) अधिष्ठान अर्थात् बैठने का स्थान (किम्+आसीत्) उस परमात्मा का कौन सा था ? (आरंभणम् + कतमत्) जिस सामग्री से जगत् बनाया है वह आरम्भ करने की सामग्री कौन सी थी ? (स्वित्) पुन: मैं वितर्क करता हूँ (कथा + आसीत् ) बनाने की क्रिया कैसी थी ( यतः ) जिस काल में (विश्वचक्षाः ) सर्वद्रष्टा (विश्वकर्मा) सर्वकर्त्ता परमात्मा (भूमिम् + जनयन्) भूमि को ( द्याम्) और द्युलोक को उत्पन्न करता हुआ (महिना) अपने महत्व से (वि + और्णोत्) सम्पूर्ण जगत को आच्छादित करता है । उस समय इसके समीप कौन सी सामग्री और अधिष्ठान था ? यह एक प्रश्न है । विश्वचक्षा:- विश्व – सब, चक्षा = देखनेहारा । विश्वकर्मा = सर्वकर्ता । पुनः वही ऋषि प्रश्न करते हैं-
किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्य दध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् ॥
ऋ० १०।८१ /४
लोक में देखते हैं कि वन में से वृक्ष काट अनेक प्रकार के भवन बना लेते हैं । ईश्वर के निकट कौन सा वन है ? (स्वित्) मैं वितर्क करता हूँ, (किम्+ वनम् ) कौन सा वन था ? (क: + उ + सः + वृक्ष + आस ) कौन सा वह वृक्ष था ? ( यतः ) जिस वन और वृक्ष से ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और पृथिवी को (निष्टतक्षुः ) काटकर बहुत शोभित बनाता है । ( मनीषिणः) हे मनीषी कविगण ! ( मनसा) मन से अच्छी प्रकार विचार ( तत् + इत् + उ ) उसको भी आप सब पूछें कि (भुवनानि + धारयन्) सम्पूर्ण जगत को पकड़े हुए वह (यद् + अधि + अतिष्ठत्) जिसके ऊपर स्थित है। इस ऋचा के द्वारा ऋषि दो प्रश्न करते हैं, एक जगत् बनाने की सामग्री कौन सी है और दूसरा सबको बनाकर एवं पकड़े हुए वह कैसे खड़ा है ।
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वत- स्पात्। सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देवएकः ॥
ऋ० १०1८१ । ३
अब स्वयं वेद भगवान् उत्तर देते हैं कि वह परमात्मा (विश्व- तश्चक्षुः ) सर्वत्र जिसका नेत्र है जो सब देख रहा है, (विश्वतोबाहुः ) सर्वत्र जिसका बाहु है ( उत) और ( विश्वतस्पात्) सर्वत्र जिसका पैर है जो (एक: + देव:) एक महान् देव है, वह प्रथम ( बाहुभ्याम्) बाहु से ( संधमति) सब पदार्थ में गति देता है । तब ( पतत्रैः ) पतनशील व्यापक परमाणुओं से ( द्यावाभूमि) द्युलोक और भूमि को (संजनयन्) उत्पन्न करता हुआ ।
एक देव निराधार विद्यमान है । द्वितीय प्रश्न का उत्तर तो यह है कि जब परमात्मा सर्वव्यापक है तब इसके आधार का विचार ही क्या हो सकता है जो एक देशीय होता है वह आधार की अपेक्षा करता है । इस दृश्यमान संसार में वह ऊपर, नीचे, चारों तरफ और अभ्यंतर जब पूर्ण है । तब यह प्रश्न कैसा ? अब प्रथम प्रश्न का उत्तर यह दिया जाता है कि पतत्र = अर्थात् पतनशील-अतिचंचल गतिमान पदार्थ सदा रहता ही है, न वह कभी उत्पन्न हुआ, न होता, न होगा, वह शाश्वत पदार्थ है । उन्हीं पत्र में गति देकर अपनी निरीक्षण यह सारी सृष्टि रचा करता है । इस मन्त्र से सिद्ध है कि परमात्मा इस जगत् का निमित्त कारण है । जीवात्मा और प्रकृति भी नित्य अज वस्तु है । इन्हीं दोनों की सहायता से वह ब्रह्म सृष्टि रचा करता है ।