(वेदगोष्ठी 2013 के अवसर पर प्रस्तुत निबन्ध)
उपर्युक्त विषय चारवाक दर्शन का सिद्धान्त है। बौद्ध और जैन मतों की भांति चारवाक भी नास्तिक मत है। ये सृष्टिकर्त्ता ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने वैदिक धर्म के सिद्धान्तों की चर्चा अपने अमरग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में प्रथम दश समुल्लासों में की है। तथा वाममार्गियों सहित आर्यावर्त्तीय (वेद विरुद्ध) मत पंथों की समालोचना एकादश समुल्लास में और बौद्ध, जैन व नास्तिक मतों की समालोचना द्वादश समुल्लास में है। महर्षि की यह मान्यता थी कि पाँच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई भी मत न था क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण महाभारत युद्ध हुआ । इनकी अप्रवृत्ति से अविद्या अन्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया, वैसा मत चलाया। उन सब मतों में चार मत अर्थात् जो वेदविरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी और कुरानी सभी मतों के मूल हैं, वे क्रम से एक के पीछे दूसरा-तीसरा-चौथा चला है। अब इन चारों की शाखा एक सहस्र (यह संया तो महर्षि जी के समय की है, अब तो लपट बापुओं, बाबाओं, व्यापारी गुरुओं और गुरुमाँओं की आई बाढ़ के कारण यह संया कई सहस्र हो गयी होगी) से कम नहीं है। उन्हीं में से एक यह चारवाक मत है।
चारवाक मत की चर्चा आरा करते हुए ऋषिवर लिखते हैं- ‘‘कोई एक बृहस्पति नामा’’ पुरुष हुआ था जो वेद, ईश्वर और यज्ञादि उत्तम कर्मों को भी नहीं मानता था। उनका मत –
यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।
(सर्वदर्शनसंग्रह चारवाकदर्शन)
कोई मनुष्यादि प्राणी मृत्यु के अगोचर नहीं है अर्थात् सबको मरना है इसलिए जब तक शरीर में जीव रहै, तब तक सुख से रहै। जो कोई कहे कि ‘‘धर्माचरण से कष्ट होता है, जो धर्म को छोड़ें तो पुनर्जन्म में बड़ा दुःख पावें।’’ उसको चारवाक उत्तर देता है कि अरे भोले भाई! जो मरे के पश्चात् शरीर भस्म हो जाता है कि जिसने खाया पिया है, वह पुनः संसार में न आवेगा। इसलिए जैसे हो सके वैसे आनन्द में रहो, लोक में नीति से चलो, ऐश्वर्य को बढ़ाओ और उससे इच्छित भोग करो। यही लोक समझो, परलोक कुछ नहीं । देखो! पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इन चार भूतों के परिणाम से यह शरीर बना है, इसमें इनके योग से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे मादक द्रव्य खाने-पीने से नशा उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जीव शरीर के साथ उत्पन्न होकर शरीर के नाश के साथ आप भी नष्ट हो जाता है, फिर किसको पाप-पुण्य का फल होगा।
तच्चैतन्यविशिष्टदेह एव आत्मा
देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात्।।
– चारवाक दर्शन
इस शरीर में चारों भूतों के संयोग से जीवात्मा उत्पन्न होकर उन्हीं के वियोग के साथ ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि मरे पीछे कोई भी जीव प्रत्यक्ष नहीं होता। हम एक प्रत्यक्ष ही को मानते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष के बिना अनुमानदि होते ही नहीं। इसलिए मुय प्रत्यक्ष के सामने अनुमानादि गौण होने से उनका ग्रहण नहीं करते। सुन्दर स्त्री के आलिङ्गन से आनन्द का करना पुरुषार्थ का फल है।
उपरिलिखित चर्चा से स्पष्ट है कि चारवाक मत नास्तिकता का पर्यायवाची है। नास्तिक तो बौद्ध और जैन भी हैं, क्योंकि चारवाकों के समान वे भी ईश्वर और वेद की निन्दा करते और जगद्रचना के लिए किसी चेतन सत्ता के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। परन्तु वे जीवन, चेतन, पुनर्जन्म, परलोक और मुक्ति के साथ प्रत्यक्षादि प्रमाणों को भी मानते हैं।
वैदिक धर्म जहाँ त्रैतवाद (तीन अनादि नित्य सत्ताओं की अवधारणा) को मानता है, वहीं चारवाक ईश्वर की सत्ता को नकारता है, जीव को शरीर के साथ उत्पन्न होने वाला और शरीर के साथ ही नष्ट होने वाला मानता है। पुनर्जन्म और पाप-पुण्य , परलोक आदि के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं है, प्रमाणों में केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही चारवाक को स्वीकार्य है। पंच महाभूतों में भी उसने आकाश को गायब कर दिया, विषयभोग को पुरुषार्थ का फल घोषित कर दिया। उसकी विचारधारा की नींव ‘खाओ, पियो और मौज करो’ श्वड्डह्ल, ष्ठह्म्द्बठ्ठद्म ्नठ्ठस्र क्चद्ग रूद्गह्म्ह्म्ब् की नीति पर टिकी है। यह सब बातें वेद की उस मान्यता के विपरीत बैठती हैं जहाँ कहा है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
– यजुः 40/2
अर्थात् मनुष्य इस संसार में सौ वर्ष तक वेदोक्त, धर्मानुसार, निष्काम कर्म करते हुए जीने की इच्छा करे।
जिस यज्ञ को चारवाक नहीं मानता, वैदिक मान्यता के अनुसार जो धर्म के तीन स्कन्ध- विद्याध्ययन, यज्ञ और दान माने गए हैं, उनमें यज्ञ है। यहाँ तो पक्षपातरहित न्यायाचरण, सत्यभाषणादि ईश्वराज्ञा जो वेदों से अविरुद्ध है, उसी को धर्म की संज्ञा दी गयी है। यज्ञ उसका अङ्ग है।
चारवाक की बातों का ऋषिवर ने युक्तियुक्त उत्तर दिया है। वे लिखते हैं- ‘‘ये पृथिव्यादि भूत जड़ हैं, उनसे चेतन की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। जैसे अब माता-पिता के संयोग से देह की उत्पत्ति होती है, वैसे ही आदि सृष्टि में मनुष्यादि शरीरों की आकृति परमेश्वर कर्त्ता के बिना कभी नहीं हो सकती। मद के समान चेतन की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता, क्योंकि मद चेतन को होता है, जड़ को नहीं। पदार्थ ‘‘नष्ट’’ अर्थात् अदृष्ट होते हैं, परन्तु अभाव किसी का नहीं होता, इसी प्रकार अदृश्य होने से जीव कााी अभाव न मानना चाहिए। जब जीवात्मा सदेह होता है तभी उसकी प्रकटता होती है। जब शरीर को छोड़ देता है, तब वह शरीर जो मृत्यु को प्राप्त हुआ है, वह जैसा चेतनयुक्त पूर्व था वैसा नहीं हो सकता। इस बात की पुष्टि में महर्षि दयानन्द जी बृहदारण्यक का वह वचन उद्धृत करते हैं जिसमें याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयि से कहते हैं कि ‘‘आत्मा अविनाशी है जिसके योग से शरीर चेष्टा करता है।’’ जब जीव शरीर से पृथक् हो जाता है तब शरीर में ज्ञान कुछ भी नहीं रहता। आत्मा देह से पृथक् है, इसी कारण शरीर में उसके संयोग से चेतनता और वियोग से जड़ता होती है।
महर्षि जी ने आगे स्पष्ट किया कि जो सुन्दर स्त्री के साथ समागम ही को पुरुषार्थ का फल मानो तो क्षणिक सुख और उससे दुःख भी होता है, वह भी पुरुषार्थ ही का फल होगा। जब ऐसा है तो स्वर्ग की हानि होने से दुःख भोगना पड़ेगा। इससे मुक्ति सुख की हानि हो जाती है, इसलिए यह पुरुषार्थ का फल नहीं।
चारवाक– जो दुःख-संयुक्त सुख का त्याग करते हैं, वे मूर्ख हैं। जैसे धान्यार्थी धान्य का ग्रहण और भुस का त्याग करता है, वैसे इस संसार में बुद्धिमान् सुख का ग्रहण और दुःख का त्याग करें। क्योंकि इस लोक के उपस्थित सुख को छोड़ के अनुपस्थित स्वर्ग के सुख की इच्छा कर, धूर्तकथित वेदोक्त अग्निहोत्रादि कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड का अनुष्ठान परलोक के लिए करते हैं, वे अज्ञानी है। जो परलोक है ही नहीं, तो उसकी आशा करना मूर्खता का काम है। क्योंकि-
अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः।।
(चारवाक दर्शन)
चारवाक मत प्रचारक ‘बृहस्पति’ कहता है कि- ‘‘अग्निहोत्र, तीन वेद, तीन दण्ड और भस्म का लगाना बुद्धि और पुरुषार्थ रहित पुरुषों ने जीविका बना ली है।’’ किन्तु काँटे लगने आदि से उत्पन्न हुए दुःख का नाम ‘नरक’, लोकप्रसिद्ध राजा ‘परमेश्वर’ देह का नाश होना ‘मोक्ष’ है, अन्य कुछ भी नहीं है।
चारवाक की घोषणाका उत्तर देते हुए महर्षि जी ने कहा कि- ‘‘विषयरूपी सुखमात्र को पुरुषार्थ का फल मानकर विषयदुःख निवारणमात्र में कृतकृत्यता और स्वर्ग मानना मूर्खता है। अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना, उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है, उसको न जानकर, वेद और वेदोक्त धर्म की निन्दा करना धूर्तों का काम है। जो त्रिदण्ड और भस्मधारण का खण्डन है, सो ठीक है।’’
‘‘यदि कण्टकादि से उत्पन्न ही दुःा का नाम नरक हो तो उससे अधिक महारोगादि नरक क्यों नहीं? यद्यपि राजा को ऐश्वर्यवान् और प्रजापालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें तो ठीक है परन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो, जो उसको भी परमेश्वरवत्् मानते हो, तो तुहारे जैसा कोई भी मूर्ख नहीं। शरीर का विच्छेद होना मात्र मोक्ष है तो गदहे, कुत्ते आदि और तुममें क्या भेद रहा, किन्तु आकृति ही मात्र भिन्न रही।’’
द्वादश समुल्लास में निर्दिष्ट चारवाक और बौद्धमत का विवरण सायणाचार्य विरचित ‘सर्वदर्शन संग्रह’ पर ही प्रधान रूप से आश्रित है क्योंकि उस समय इन दोनों मतों के अन्य पुस्तक उपलध न थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने चारवाक दर्शन की मुय-मुय बातों को दर्शाने के लिए उनके निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किये हैं-
अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथाऽनिलः।
केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः।। 1।।
न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रि याश्च फलदायिकाः ।। 2।।
पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।
स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।। 3।।
मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेतृप्तिकारणम्।
गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्।। 4।।
स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः।
प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते।। 5।।
यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। 6।।
यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः।
कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः।। 7।।
ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह।
मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्।। 8।।
त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः।
जर्फ रीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।। 9।।
(चारवाक दर्शन, श्लोक 1 से 9)
चारवाक, आभाणक, बौद्ध और जैन भी जगत् की उत्पत्ति स्वभाव से मानते हैं। जो-जो स्वाभाविक गुण हैं, उस-उससे द्रव्य संयुक्त होकर सब पदार्थ बनते हैं, कोई जगत् का कर्त्ता नहीं ।। 1।।
परन्तु इनमें से चारवाक ऐसा मानता है। किन्तु परलोक और जीवात्मा बौद्ध-जैन मानते हैं, चारवाक नहीं। शेष इन तीनों का मत कोई-कोई बात छोड़ के एक सा है।
न कोई स्वर्ग, न कोई नरक और न कोई परलोक में जाने वाला आत्मा है। और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है।। 2।।
जो यज्ञ में पशु को मार होम करने से वह स्वर्ग को जाता हो, तो यजमान अपने पिता आदि को मार यज्ञ में होम करके स्वर्ग को क्यों नहीं भेजता।। 3।।
जो मरे हुए जीवों को श्राद्ध और तर्पण तृप्तिकारक होता है तो परदेश में जाने वाले मार्ग में निर्वाहार्थ अन्न, वस्त्र, धन को क्यों ले जाते? क्योंकि जैसे मृतक के नाम से अर्पण किया हुआ स्वर्ग में पहुँचता है, तो परदेश में जाने वालों के लिए उनके सबन्धी घर में अर्पण कर देशान्तर में पहुँचा देवें । जो यह नहीं पहुँचता, तो स्वर्ग में क्यों कर पहुँच सकता है? ।। 4।।
जो मर्त्यलोक में दान करने से स्वर्गवासी तृप्त होते हैं, तो नीचे देने से घर के ऊपर स्थित पुरुष तृप्त क्यों नहीं होता? ।। 5।।
इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीेवे। जो घर में पदार्थ न हो तो ऋण करके आनन्द करे,ऋण देना नहीं पड़ेगा। क्योंकि जिस शरीर में जीव ने खाया पिया है, उन दोनों का पुनरागमन न होगा, फिर किससे कौन माँगे और देवेगा?।। 6।।
जो लोग कहते हैं कि मृत्यु समय जीव शरीर से निकलके परलोक को जाता है, यह बात मिथ्या है, क्योंकि जो ऐसा होता, तो कुटुब के मोह से बद्ध होकर पुनः घर में क्यों नहीं आ जाता?।।7।।
इसलिए यह सब ब्राह्मणों ने अपनी जीविका का उपाय किया है। जो दशगात्रादि मृतक क्रिया करते हैं, यह सब उनकी जीविका की लीला है।।8।।
वेद के करने हारे भांड, धूर्त्त और राक्षस ये तीन हैं। ‘जर्फरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं।। 9।।
इन सब बातों का बुद्धि संगत उत्तर ऋषिवर ने बिन्दुवार दिया है। इनमें जो कुछ बातें ठीक थीं, उनको अखण्डनीय कहा है, यह स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज का ऋषित्व है।
विना चेतन परमेश्वर के निर्माण किये जड़ पदार्थ आपस में स्वभाव से नियमपूर्वक मिलकर उत्पन्न नहीं हो सकते। इस वास्ते सृष्टि का कर्त्ता अवश्य होना चाहिए। जो स्वभाव से हों तो द्वितीय पृथिवी, सूर्य,चन्द्र आप से आप क्यों नहीं होते।। 1।।
‘स्वर्ग’ सुखभोग और ‘नरक’ दुःखभोग का नाम है। जो जीवात्मा न होता तो सुख-दुःख का भोक्ता कौन हो सके? जैसे इस समय सुख-दुःख का भोक्ता जीव है, वैसे परजन्म में भी होता है। क्या सत्य भाषणादि दया आदि क्रिया भी वर्णाश्रमियों की निष्फल होंगी? कभी नहीं।। 2।।
पशु मार के होम करना वेद में कहीं नहीं है, इसलिए यहाण्डन अखण्डनीय है और मृतकों का श्राद्ध भी कपोलकल्पित होने से वेद विरुद्ध पुराण मत-वालों का मत है।। 3,4,5।।
जो वस्तु है उसका अभाव कभी नहीं होता। तो विद्यमान जीव का अभाव कभी नहीं हो सकता। देह भस्म हो जाता है, जीव नहीं। जीव तो दूसरे शरीर में जाता है, इसलिए जो ऋणादि से सुख भोग करेगा, वह दूसरे जन्म में अवश्य भोगेगा।। 6।।
देह से निकल के जीव स्थानान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त होता है। उसको पूर्वजन्म का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता, इसलिए पुनश्च कुटुब में नहीं आता।। 7।।
हाँ ब्राह्मणों ने प्रेत का कर्म जीविका के लिए किया है, वेदोक्त नहीं।। 8।।
जो चारवाक आदि ने असल वेद देखे होते, तो वेद की निन्दा कभी न करते। भाँड, धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुष टीकाकार हुए हैं, उन्हीं की धूर्त्तता है, वेद की नहीं। परन्तु शोक है चारवाक, आभाणक ,बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल वेद भी न सुने, न देखे और न किसी विद्वान् से पढ़े, इसलिए भ्रष्ट टीका और वाममार्गियों की लीला देख के वेदों से विरोध करके, नष्ट -भ्रष्ट बुद्धि होकर वेदों की निन्दा करने लगे हैं। यही वाममार्गियों की दुष्ट चेष्टा चारवाक, बौद्ध और जैनों के होने का कारण है, क्योंकि चारवाक आदि भी वेदों का सत्य अर्थ नहीं जान सके।। 9।।
ऋषिवर ने चारवाक शब्द का अर्थ किया है- जो बोलने में प्रगल्भ और विशेषातार्थ वैतण्डिक होता है। उनकी पहचान है नास्तिकता, वेद और ईश्वर की निन्दा पर मत द्वेष, यज्ञ का विरोध और जगत् का कर्त्ता कोई नहीं मानना आदि। चारवाक ने वर्णाश्रम व्यवस्था की भी निन्दा की है। जबकि सत्य यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के बिना कोई समाज नहीं चल सकता। भले ही ब्राह्मण को बुद्धि जीवी, अध्यापक, विधायक, उपदेशक, पुरोहित । (ढ्ढठ्ठह्लद्गद्यद्यद्गष्ह्लह्वड्डद्यह्य, ञ्जद्गड्डष्द्धद्गह्म्ह्य, ष्टद्यद्गह्म्द्दब्, छ्वह्वस्रद्दद्ग, ष्ठशष्ह्लशह्म्) आदि नामों से पुकारा जाये, क्षत्रिय को पुलिस, सेना, सुरक्षाबल आदि नाम दे दिये जाएं, वैश्य को व्यापारी (क्चह्वह्यद्बठ्ठद्गह्यह्यद्वड्डठ्ठ, ञ्जह्म्ड्डस्रद्गह्म्, ढ्ढठ्ठस्रह्वह्यह्लह्म्द्बड्डद्यद्बह्यह्ल) आदि नामों से अभिहित किया जाए और शूद्र को श्रमिक, मजदूर या लेबरर (रुड्डड्ढशह्वह्म्द्गह्म्) कहा जाय। इसी प्रकार ब्रह्मचारी को विद्यार्थी, गृहस्थ को (॥शह्वह्यद्ग-॥शद्यस्रद्गह्म्) और वानप्रस्थ संन्यासी को अवकाश प्राप्त (क्रद्गह्लद्बह्म्द्गस्र शह्म् क्कद्गठ्ठह्यद्बशठ्ठद्गह्म्) जैसे नाम दिये जायें। प्राचीन ऋषियों ने इस प्रकार के विभाजन को ही वर्णाश्रम के रूप में व्यवस्थित कर दिया था। इनके पालन से होने वाले लाभों से कौन इनकार कर सकता है?
वेदों के कर्त्ता धूर्त्त–यजुर्वेद के 23 वें अध्याय के 19से 31 तक के मन्त्रों का महीधर ने इतना अश्लील अर्थ किया है कि उसे देखकर कोई भी यही कहेगा कि ‘‘त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्त्त निशाचराः।’’ वैसा करने पर महीधर स्वयं ग्लानि अनुभव कर 32 वें मन्त्र का अर्थ करते हुए कहते हैं- ‘‘अश्लील भाषणेन दुर्गन्धं प्राप्तानि अस्माकं मुखानि सुरभीणि करोत्वित्यर्थः।’’ अर्थात् इस अश्लील भाषण से जो हमारे मुख अश्लील हो गये हैं, उन्हें यज्ञ सुगन्धित कर दे। मन्त्रों में न अश्लील शब्द हैं और न मन्त्रार्थ में कोई अश्लीलता है। स्वयं ही पहले जानबूझकर अश्लीलता आरोपित कर दी और स्वयं ही उस अपराध के लिए प्रायश्चित की बात कह दी। महीधर का अर्थ मात्र इसलिए त्याज्य नहीं कि वह अश्लील और बेहूदा है अपितु इसलिए कि मन्त्रों का वह अर्थ है ही नहीं।
जर्फरी तुर्फरी- इन शदों से निर्दिष्ट मन्त्र इस प्रकार है-
सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका।
उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु।।
– ऋ ग्वेद 10/106/6
यह मन्त्र (13/5 निरुक्त में) इस प्रकार व्यायात है-
(सृण्या इव जर्भरी तुर्फरीतू) हे द्यावा पृथिवी के स्वामी जगदीश्वर। तू दात्री की तरह भर्त्ता और हन्ता है। (नैतोशा इव तुर्फरी पर्फ रीका) तू शत्रुहन्ता राजकुमार की तरह दुष्टों को शीघ्र नष्ट करने वाला और उन्हें फाड़ने वाला है, (उदन्यजा इव जेमना मदेरु) और तू चान्द्रमस अथवा सामुद्ररत्न की तरह मन को जीतने वाला अर्थात् अपनी ओर खींचने वाला तथा प्रसन्नताप्रद है, (ता मे मरायु जरायु) हे अश्वी! वह तू मेरे मरणधर्मा शरीर को (अजरम्) बुढ़ापे से रहित कर।
इससे स्पष्ट है कि वेदमन्त्रों के वास्तविक अर्थों को न जानने वाले ही वेदों के रचयिता को धूर्त्तादि नामों से पुकार सकते हैं। यदि चारवाक मत के संस्थापक ने वेदों का प्रामाणिक अर्थ शतपथब्राह्मणादि के आधार पर किया गया देखा होता तो वेदों के सबन्ध में उनकी विचारधारा इतनी दूषित न होती। वे बिना विचारे वेदों की निन्दा करने पर तत्पर हुए। उनमें इतनी विद्या ही नहीं थी जो सत्यासत्य का विचार कर सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन करते। वास्तव में वाममार्गियों ने मिथ्या कपोल कल्पना करके वेदों के नाम से अपना प्रयोजन सिद्ध करना अर्थात् यथेष्ट मद्यपान मांस खाने और परस्त्री गमन करने आदि दुष्ट कामों की प्रवृत्ति होने के अर्थ वेदों को कलङ्कित किया। इन्हीं बातों को देखकर चारवाक वेदों की निन्दा करने लगे और पृथक् एक वेद विरुद्ध अनीश्वरवादी अर्थात् नास्तिक मत चला दिया।
– जागृति विहार, मेरठ