हम सभी मनुष्य जीवात्मायें हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा से मानव शरीर मिला है। जीवात्मा के दो प्रमुख गुण है। पहला गुण इसका ज्ञान की क्षमता से युक्त होना है और दूसरा अपने ज्ञान के अनुरूप सत्यासत्य कर्मों में प्रवृत्त रहना है। अतः जहां ज्ञान व कर्म दोनों गुणों की अभिव्यक्ति हो वहां आत्मा की सत्ता विद्यमान होती है। मनुष्य जन्म लेने से पूर्व हम एक जीवात्मा थे और उससे पूर्व हम कहीं मनुष्यादि अनेक योनियों में से किसी एक योनि में जीवन व्यतीत कर रहे थे। वहां मृत्यु होने तक हमने जो कर्म किये थे वा जिन कर्मों का फल भोगना शेष था, उन पाप-पुण्य रूपी कर्मों के आधार पर ईश्वर ने हमें हमारे वर्तमान जीवन में मनुष्य जन्म दिया है। इस मनुष्य जीवन में हमें पूर्व जन्म के किये हुए अवशिष्ट कर्मों के फलों को भोगना भी है और अगले जन्म के लिये नये कर्म भी संचित करने हैं। सुख-दुःख भोगते व नये कर्मों को करते हुए हमें अपने ज्ञान में वृद्धि भी करनी है। ज्ञान दृश्य व अदृश्य सभी पदार्थों का करना होता है। दृश्य पदार्थों में मुख्यतः सृष्टिगत समस्त भौतिक पदार्थ आते हैं व अदृश्य पदार्थों में अनेक सूक्ष्म भौतिक पदार्थों सहित मुख्य रूप से ईश्वर व जीवात्मा आते हैं। परमात्मा ने सृष्टि की आदि में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद इन चार वेदों का ज्ञान दिया है। यदि हम वेदों के व्याकरण अष्टाध्यायी महाभाष्य पद्धति का अध्ययन कर लें और वेदों के विद्वान आचार्यों की संगति करें तो हम वेदों में निहित अभौतिक व भौतिक अथवा परा व अपरा विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर अपने मनुष्य जीवन को अधिक उपयोगी व लक्ष्य के अनुरुप कार्यक्षम बना सकते हैं। आर्ष ग्रन्थों के हिन्दी भाष्यों को पढ़कर भी लाभान्वित हुआ जा सकता है।
प्रश्न है कि ईश्वर क्या है? इसका एक उत्तर यह है कि जिससे यह संसार बना है, जो इसका पालन कर रहा है तथा जिसने हमें व हमारी ही तरह अन्य सभी जीवात्माओं को जन्म दिया है, उसे परमात्मा कहते हैं। यहां धर्म की दर्शन शास्त्र विहित परिभाषा भी देख लेते हैं जिसमें बताया गया है कि जिन कर्मों वा आचरण को करने से मनुष्य का अभ्युदय अर्थात् शारीरिक व सामाजिक उन्नति हो तथा मृत्यु होने पर जन्म–मरण से छूटकर निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो उसे धर्म कहते हैं। मनुष्य की शारीरिक व सामाजिक उन्नति व निःश्रेयस की प्राप्ति कराने वाली सत्ता का नाम ईश्वर है। ईश्वर ने जीवात्माओं को अतिशय सुख देने वा दुःखों की सर्वथा निवृत्ति करने के लिए ही इस संसार को बनाया है। ईश्वर को जानने के लिए महर्षि दयानन्द वर्णित ईश्वर का स्वरुप विशेष लाभकारी है। वह अपने लघुग्रन्थ ‘स्वमंन्तव्यामन्तव्य प्रकाश’ व आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताते हैं कि ईश्वर, ब्रह्म वा परमात्मा सच्चिदानन्द लक्षण युक्त है। उसके गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्मिान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता व सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है।
स्तुति क्या होती है यह भी सभी मनुष्यों को जानना अभीष्ट है। स्तुति किसी पदार्थ या सत्ता के गुण कीर्तन, गुणों के श्रवण और सत्ता के यथार्थ ज्ञान को कहते हैं। ईश्वर की स्तुति के सन्दर्भ में ईश्वर के गुणों का कीर्तन, ईश्वर के गुणों का श्रवण व ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान यह सभी ईश्वर स्तुति में सम्मिलित हैं। ईश्वर की स्तुति करने से उसके प्रति प्रेम वा प्रीति होती है, यह ईश्वर स्तुति का फल है। स्तुति हम केवल ईश्वर की ही नहीं अपने माता-पिता, आचार्य, विद्वानों व परोपकारी पुरूष यथा सच्चे साधु व महात्माओं आदि की भी किया ही करते हैं। इससे उनके प्रति सम्मान, प्रेम व प्रीति उत्पन्न होती है जिससे हम नानाविध लाभान्वित होते हैं। ईश्वर की स्तुति करने से भी ईश्वर के प्रति प्रीति होने से हम मनुष्यों के सभी दुर्गुण, दुव्र्यस्न और दुःख दूर होते हैं। ऐसा इस कारण से होता है कि ईश्वर में यह दुख, दुव्र्यस्न और दुःखों का लेश भी नहीं है। अतः स्तुति करने से ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध, आत्मा का परमात्मा से योग व सम्पर्क, होता है जिससे हमारे बुरे गुण-कर्म-स्वभाव दूर होकर कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव प्राप्त होते हैं। यदि हम ऋषि व योगियों के जीवन पर एक दृष्टि डाले तो हमें ज्ञात होता है कि इन महात्माओं के जीवन में दुगुणों का सर्वथा अभाव तथा श्रेष्ठ गुणों का प्रचुर मात्रा में समावेश होता है। ऋषि, योगी, सज्जन अथवा आर्य श्रेष्ठ गुणों को धारण किये हुए मनुष्यों को ही कहते हैं। अतः सभी मनुष्यों को स्तुति अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों व सबसे श्रेष्ठ व श्रेष्ठतम ईश्वर की करनी चाहिये जिससे मनुष्यों को सभी दुःख दूर होकर ज्ञान, विज्ञान की प्राप्ति सहित सुखों की वृद्धि हो। यह ईश्वर स्तुति सुखों की वृद्धि करने सहित एक ऐसा कर्म वा कार्य है जिससे मनुष्य कर्मों के बन्धनों से मुक्त होकर उन्नति करता हुआ मोक्ष की स्थिति को प्राप्त हो सकता है। महर्षि दयानन्द जी ने चारों वेदों से चयन कर आठ मन्त्रों को स्तुति-प्रार्थना-उपासनार्थ प्रस्तुत किया है जो इस विषय के श्रेष्ठ मन्त्र है जिनका पाठ करने से कालान्तर में दुःखों की निवृत्ति होकर सुखों की प्राप्ति सम्भव है।
मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है तथा फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। यदि हम ईश्वर को नहीं जानेंगे और उसकी स्तुति-प्रार्थना वैदिक योगविधि से नहीं करेंगे तो हममें लोभ, मोह व राग, इच्छा, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि हमारे ही अन्दर हमारे मुख्य शत्रु उत्पन्न होंगे जो हमारा जीवन नष्ट कर देंगे जिसका परिणाम इस जीवन में अवनति होने से जन्म जन्मान्तर में दुःखों की प्राप्ति ही होगा। अतः दुःख के निवारणार्थ सभी मनुष्यों को सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय का स्वभाव बनाना चाहिये जिससे सत्य व असत्य का विवेक करने में सुविधा होती है। निरन्तर स्वाध्याय से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता जाता है। मनुष्यों योग व उपासना के महत्व को जानकर इनका अभ्यास करता है और शुभ कर्मों को करके जीवन के लक्ष्य अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त करता है। हमने यह कुछ बातें आर्ष ग्रन्थो मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय के आधार पर लिखी हैं। जो पाठक ईश्वर के स्वरुप व उसकी स्तुति के महत्व से अनभिज्ञ हैं, वह व अन्य सभी इस संक्षिप्त लेख से लाभान्वित हो सकते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
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