आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता आत्मा। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।
कुर्वन्नेवेह कर्मणि जिजीविषेच्छतः समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरें।
-यजु० ४० । २
आत्मा (इह ) इस संसार में ( कर्माणि कुर्वन् एव ) कर्मों को करता हुआ ही (शतंसमाः ) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे। ( त्वयि ) तेरे विषय में (एवं ) ऐसा ही विधान है ( इतः अन्यथा न ) इससे भिन्न नहीं है। ( नरे) मनुष्य में (कर्मलिप्यते न ) कर्म लिप्त नहीं होता, उससे चिपट नहीं जाता।।
कुछ मनुष्य यह सोचते हैं कि कर्म तो बन्धन में डालनेवाला है, इसलिए कर्म को तिलाञ्जलि देकर खाली बैठे रहो। उन्हें सावधान करती हुई भगवद्गीता कहती है कि कोई भी मनुष्य बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता। प्रकृति के गुणों से बाधित होकर उसे कर्म करना ही पड़ता है। जो कर्मेन्द्रियों को कर्मों से रोक कर मन से इन्द्रियों के विषयों को स्मरण करता रहता है, वह मूढ़ मनुष्य मिथ्याचारी कहलाता है। इसके विपरीत जो जितेन्द्रिय होकर असक्त रहकर कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग में लगा रहता है, वह विशिष्ट पुरुष कहलाता है। निश्चय ही कर्म अकर्म से अधिक उत्कृष्ट है। जो कर्म न करने का आग्रह करता है, उसकी शरीर-यात्रा भी नहीं चल सकती।’
‘कर्म तीन प्रकार के होते हैं-सात्त्विक, राजस और तामस । जो कर्म आसक्तिरहित होता है, बिना राग-द्वेष के किया जाता है और जिसमें फलेच्छा की उत्कटता नहीं होती वह सात्त्विक कर्म कहलाता है। जो कर्म फलेच्छा की उत्कटता के साथ या अहंभाव के साथ किया वजाता है वह राजस कर्म कहलाता है। जौ कर्म हानि, लाभ, उपकार, अपकार, क्षय, हिंसा, पौरुष आदि का विचार किये बिना मोहवश किया जाता है, वह तामस कर्म होता है।”
इनमें सात्त्विक कर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है। यहाँ शङ्का यह हो सकती है कि कर्म करेंगे तो कर्मलेप अवश्यंभावी है। कर्म, कर्म के बाद उसका फल, फिर कर्म और कर्मफल, इस प्रकार यह श्रृंखला कभी समाप्त नहीं होगी। कर्म के बन्धन में ही हम बंधे रहेंगे, उससे मुक्ति कभी नहीं होगी। इस कर्मफल से बचने के लिए हम कर्म से विरत होना चाहते हैं। न रहेगा बांस, न रहेगी बांसुरी।। |
इस शङ्का का उत्तर यह है कि कर्म द्विविध होते हैं निष्काम कर्म और सकाम कर्म । जो कर्म किसी सांसारिक भोग की इच्छा न रखकर केवल परमेश्वर की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है, वह निष्काम कर्म होता है, उससे मोक्ष और ईश्वरसान्निध्य के अनन्त सुख की प्राप्ति होती है, उससे सांसारिक, फल प्राप्त नहीं होते। इसके विपरीत जो कर्म धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि के लिए किया जाता है, वह सकाम कर्म होता है। उससे लौकिक सुख प्राप्त होते हैं। यदि किसी की इच्छा कर्मलेप से बचने की है, तो यह निष्काम कर्म करे और जो सांसारिक सुख प्राप्त करना चाहता है वह धर्मपूर्वक सकाम कर्म करे। दोनों ही मार्ग ठीक हैं, सकाम कर्म से भी लोकोपकार और सदाचार प्रशस्त होता है । मन्त्र में कर्म मनुष्य में लिप्त नहीं होता’ कहा है, वह निष्काम कर्म के विषय में है।
पाद-टिप्पणियाँ
१. भगवद्गीता ३ । ५-८
२. वही १८ । २३-२५
३. स्वामी दयानन्द, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषय-विचार, कर्मकाण्ड
प्रकरण ।
४. (कर्माणि) धम्र्याणि वेदोक्तानि निष्कामकृत्यानि-दे० ।।
आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार