Category Archives: वेद मंत्र

पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार

पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः भारद्वाजः । देवता वर्मी । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

जीमूतस्येव भवति प्रतीकं यद्वर्मी याति सुमदामुपस्थे । अनाविद्धया तन्वा जय त्वत्स त्वा वर्मणो महिमा पिपत्तुं ॥

-यजु० २९.३८

( जीमूतस्य इव ) बादल के समान ( भवति ) हो जाता है ( प्रतीकं ) रूप, ( यद् ) जब ( वर्मी ) कवचधारी योद्धा ( याति ) जाता है (समदाम् उपस्थे ) युद्धों के मध्य । हे कवचधारी योद्धा! ( अनाविद्धया तन्वा ) न बिंधे हुए शरीर के साथ ( जय) विजय प्राप्त कर ( त्वम् ) तू । ( सः वर्मणः महिमा ) वह कवच की महिमा ( त्वा पिपर्तु) तेरा रक्षण करती रहे।

क्या तुमने किसी योद्धा को लोहे की काली चादर का कवच पहन कर समराङ्गण में जाते देखा है? उस समय उसका रूप ऐसा लगता है, जैसे बरसात का काला बादल हो। कवचधारी योद्धा काले बादल की तरह वर्षा भी करते हैं, किन्तु उनकी वर्षा पानी की नहीं, अपितु संहारक अस्त्रों की होती है। कवच पहनकर योद्धा का शरीर सुरक्षित हो जाता है। शत्रु द्वारा छोड़े हुए तीर या अन्य अस्त्र उसे घायल नहीं कर पाते। कवच लोहे की चादर के स्थान पर चमड़े का भी पहना जाता है। कवच धारण करके योद्धा निर्भय होकर संग्राम में शत्रु के छक्के छुड़ाने की यात्रा पर निकल पड़ता है। उसकी शरीर कवच से आच्छादित होने के कारण अनाविद्ध तथा अक्षत रहता है। वेद उसे उद्बोधन दे रहा है कि अनाविद्ध शरीर से त विजय प्राप्त कर। कवच की महिमा तेरा रक्षण  पालन करती रहे।

युद्ध केवल बाह्य ही नहीं होते, आन्तरिक भी होते हैं। आन्तरिक संग्रामों में प्रतिपक्षी होते हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष, उदासीनता, अनुत्साह आदि। उनके तीर भौतिक शास्त्रास्त्रों से भी पैने होते हैं। उनके आघात से बचने के लिए भी कवच पहनना पड़ता है, किन्तु वह लोहे, चमड़े आदि का नहीं, अपितु ‘ब्रह्म’३ का कवच होता है। ब्रह्म शब्द से ईश्वर-विश्वास, ज्ञान, कर्म, उपासना, उत्साह, योग-समाधि आदि गृहीत होते हैं। ‘ब्रह्म’ का कवच पहन लेने पर आध्यात्मिक योद्धा सुरक्षित हो जाता है, उसका आत्मा अनाविद्ध हो जाता है और आन्तरिक संग्राम में निश्चित रूप से उसकी विजय होती है। ब्रह्म-कवच से ढके रहने के कारण वह चिरकाल तक सुरक्षित बना रहता है।

हम भी बाह्य और आन्तरिक शत्रु योद्धाओं से घिरे हुए हैं। उनके विषबुझे चमचमाते नोकीले बाण हमें घायल करने के लिए व्याकुल हो रहे हैं, हमें पापों के पङ्क में लिप्त करने के लिए संनद्ध हो रहे हैं। आओ, यदि बचना चाहते हो, बाह्य तथा आन्तरिक अस्त्रों की मार से अनाविद्ध रहना चाहते हो, तो बाह्य और आन्तरिक कवच पहन कर समराङ्गण में कूद पड़ो। विजयश्री निश्चितरूप से तुम्हें प्राप्त होगी। कवच-धारण की महिमा ऐसी ही निराली है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. जीमूत=मेघ। अमर० १.३.७

२. समत्-युद्ध। निघं० २.१७ ।

३. ब्रह्म वर्म ममान्तरम् । अथर्व० १.१९.४

पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार 

राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः भारद्वाजः । देवता वीराः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

स्वदुषसर्दः पितरों वयोधाः कृच्छ्रश्रितः शक्तीवन्तो गभीराः। चित्रसेनाऽइषुबलाऽअमृध्राः सूतोवीराऽउरवों व्रातसाहाः ॥

-यजु० २९.४६

हमारे राष्ट्र के वीर सेनानायक ( स्वादुषंसदः ) उठने बैठने में स्वादु व्यवहार वाले हों, (पितरः ) देश के रक्षक हों, ( वयोधाः ) उत्कष्ट और दीर्घ आयु को धारण करने-करानेवाले हों, ( कृच्छ्रेश्रितः ) आपत्काल में आश्रय बननेवाले हों, ( शक्तीवन्तः) शक्तिशाली हों, ( गभीराः ) गम्भीर हों, (चित्रसेनाः ) चित्र-विचित्र सेनावाले हों, (इषुबलाः ) शस्त्रास्त्रों का बल उनके पास हो, ( अमृधाः) शत्रु द्वारा अहिंस्य हों, (सतोवीराः ) उनके साथ अनेक वीर योद्धा हों, ( उरवः ) विशाल डील-डौलवाले हों, (व्रातसाहाः ) शत्रुसमूह को परास्त करनेवाले हों।

आओ, मित्रो ! वीर-पूजा करें। राष्ट्र की रक्षा का उत्तरदायित्व जिनके ऊपर है, उन वीरों को सम्मान दें। ये सेनानायक युद्ध में अपने योद्धाओं का नेतृत्व करते हुए प्राणों की भी आहुति देने को तैयार रहते हैं। कैसे हैं ये सेनानायक? यह वेद के शब्दों में सुनिये । एक ओर जहाँ वीरता की छवि इनके रोम रोम में व्याप्त रहती है, वहाँ दूसरी ओर उठने-बैठने, वार्तालाप करने आदि सामान्य व्यवहार में भी ये बड़े मधुर होते हैं । इनके शिष्टाचार को देख कर कोई यह सोच भी नहीं सकता कि ये शत्रु की जान जोखिम में डालनेवाले बहादुर सेनापति हैं। ये ‘पितर:’ हैं, देशरक्षक है, राष्ट्र की रक्षा में ऐसे संनद्ध रहते हैं कि इनका नाम सुनकर भी शत्रुसेना की हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। ये ‘वयोधाः’ हैं, अपनी तथा राष्ट्रवासियों की आयु  को सुरक्षित रखनेवाले हैं। इनके होते हुए किसी को यह भय नहीं रहता कि कहीं शत्रु हमारा प्राणघात करके हमारी आयु का अपहरण न कर ले। ये स्वयं भी अपने प्राणों को सुरक्षित रख कर उत्कृष्ट और दीर्घ आयु व्यतीत करनेवाले हैं। ये ‘कृच्छेश्रित:’ हैं, कष्ट या आपत्तिकाल में दूसरों का आश्रय बननेवाले हैं। वे बड़ी से बड़ी कठिन या विपत्ति की परिस्थिति में भी अपनी सेना को खाई में कुदा कर और स्वयं कूद कर असहाय को सहायता देनेवाले हैं। ये शक्तिशाली ऐसे हैं कि सदा युद्ध का स्वागत करने के लिए उद्यत रहते हैं, जहाँ प्राणों का सङ्कट हो वहाँ जाने में इन्हें आनन्द आता है, इनके दिल में शत्रुसंहार के अरमान भरे होते हैं। अन्दर से इनकी बाहें फड़क रही होती हैं, किन्तु ऊपर से उदासीन दिखायी देते हैं। ये ‘चित्रसेन’ हैं। इनकी सेनाओं में अद्भुत वीरता है, राष्ट्ररक्षा की अद्भुत उमङ्ग है, अद्भुत रणचातुरी है, शत्रु को धराशायी करने की अद्भुत कला है। ये ‘इषुबल’ हैं, संहारक बाणों का, बड़े से बड़े मारक अस्त्र-शस्त्रों का बल इनके पास है। ये * अमृध्र’ हैं, शत्रु से अहिंसनीय हैं, क्योंकि रणनीति के ज्ञाता है। शत्रु इन्हें किसी दिशा में विद्यमान समझ रहा होता है, किन्तु ये होते दूसरी दिशा में हैं। इनके साथ अनेक वीर योद्धा हैं। इनमें से कोई पाँच सौ वीरों का, कोई सहस्र वीरों का नेतृत्व कर रहा होता है। ये विशाल डील-डौलवाले हैं, विस्तीर्ण वक्षस्थलवाले, शाल वृक्ष के समान ऊँचे और महाबाहु हैं। ये व्रातसाह’ हैं, रिपुदल को क्षणभर में परास्त कर देनेवाले हैं। इनकी रणकुशलता के आगे अपनी सेना पर कोई आँच नहीं आती और शत्रुसेना भयभीत होकर उलटे पैर भाग खड़ी होती है। उसमें घबराहट व्याप जाती है, वह घुटने टेक कर अपनी पराजय स्वीकार कर लेती है।

आओ, हम ऐसे राष्ट्ररक्षक सेनानायकों का जयजयकार करें, इनके प्रशस्तिगीत गायें, इनका अभिनन्दन करें।

पाद-टिप्पणी

१. मृध:=संग्राम, निर्घ० २.१७, मृधु मर्दने, का० कृ० ।।

राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुण: । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः स्वराड् धृतिः ।

सोमस्य विषिरसि तवेव मे विषिर्भूयात् । अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहा सवित्रे स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहां पूष्णे स्वाहा बृहस्पतये स्वाहेन्द्राय स्वाहा घोषाय स्वाहा श्लोकाय स्वाहा शाय स्वाहा भगाय स्वाहार्यम्णे स्वाहा॥

-यजु० १०/२३

तू ( सोमस्य ) चन्द्रमा की ( त्विषिः असि) दीप्ति है, ( तव इव ) तेरी दीप्ति के समान (मे त्विषिः भूयात् ) मेरी दीप्ति हो। ( अग्नये स्वाहा ) अग्नि के लिए स्वाहा, (सोमायस्वाहा ) सोम के लिए स्वाहा, ( सवित्रे स्वाहा ) सविता के लिए स्वाहा, (सरस्वत्यै स्वाहा ) सरस्वती के लिए स्वाहा, ( पूष्णे स्वाहा ) पूषा के लिए स्वाहा, (बृहस्पतये स्वाहा ) बृहस्पति के लिए स्वाहा, ( इन्द्राय स्वाहा ) इन्द्र के लिए स्वाहा, (घोषाय स्वाहा ) घोष के लिए स्वाहा, ( श्लोकाय स्वाहा ) श्लोक के लिए स्वाहा, (अंशाय स्वाहा ) अंश के लिए स्वाहा. ( भगाय स्वाहा ) भग के लिए स्वाहा. (अर्यमणेस्वाहा ) अर्यमा के लिए स्वाहा।

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा सोम ( चन्द्रमा) को देख कर या उसका ध्यान करके कह रहा है–’तू चन्द्रमा की दीप्ति है, तेरी तरह मेरी भी दीप्ति हो। पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्र-ज्योत्स्ना अपने धवल शान्तिदायक, मधुर प्रकाश से जैसे सबको आच्छादित करती है, ऐसे ही राजा कामना कर रहा है कि मैं भी सबको अपनी सात्त्विकता, स्वच्छता, निष्कलङ्कता, पवित्रता के प्रभाव में लेकर निष्कलङ्क और पवित्र बना सकें। तत्पश्चात् वह विभिन्न देवों के लिए आहुतियाँ देता है। ‘अग्नये स्वाहा’ तात्पर्य यह है कि मैं स्वयं अग्नि जैसा तेजस्वी, ऊर्ध्वगामी और राष्ट्र में परिपक्वता लानेवाला बनूंगा। ‘सोमाय स्वाहा’ सोम जैसे ओषधियों का राजा है, वैसे ही मैं प्रजा का राजा हूँ। सोम ओषधि के समान मैं भी पीड़ित, आतुर, रोगार्त लोगों को स्वास्थ्य और सजीवता प्रदान करूंगा। राष्ट्र में विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों को और शल्यक्रिया-विभाग को समुन्नत करूंगा। औषध-निर्माण की ओर भी ध्यान देंगा। ‘सवित्रे स्वाहा’-सूर्य जैसे अन्धकार को विच्छित्र कर प्रकाश फैलाता है, वैसे ही मैं भी अपने राज्य में अनैतिकता के अन्धकार को और तामसिकता को दूर कर नैतिकता का प्रकाश फैलाऊँगा और प्रजा में सात्त्विक वृत्ति उत्पन्न करूंगा। ‘सरस्वत्यै स्वाहा’ सरस्वती विद्या, वेदवाणी, शिक्षणकला आदि को सूचित करती है। मैं राष्ट्र में शिक्षा का स्तर उन्नत करूंगा, विभिन्न विद्याओं को प्रसारित करूंगा, राष्ट्र को सारस्वत साधना का केन्द्र बनाऊँगा।’पूष्णे स्वाहा’-पूषा पुष्टि के गुण को सूचित करता है। वेद में यह मार्गरक्षक तथा पशुरक्षक के रूप में भी वर्णित हुआ है। मैं राष्ट्र में अन्नादि की पुष्टि की प्रचुरता लाऊँगा तथा मार्गरक्षक नियुक्त करूंगा, जिससे यातायात में यात्रियों को कष्ट न हो और गाय आदि पशुओं की सुरक्षा का भी प्रबन्ध करूंगा। ‘बृहस्पतये स्वाहा’–बृहस्पति से विशाल वाङ्मय का स्वामी विद्वान् गृहीत होता है। राष्ट्र में विद्वानों का यथोचित सम्मान हो, उन्हें साहित्यसर्जन, ग्रन्थलेखन, प्रकाशन आदि की सुविधाएँ प्राप्त हों, उनकी जीविका का भी प्रबन्ध हो, इसका ध्यान रखेंगा। ‘इन्द्राय स्वाहा’–इन्द्र वीरता का देव है, यह सैनिक शक्ति, युद्ध, राक्षस-विध्वंस आदि को सूचित करता है। राष्ट्र की स्थलसेना, जलसेना, अन्तरिक्षसेना, शस्त्रास्त्रशक्ति आदि को विकसित करूंगा तथा यदि किसी राष्ट्र से युद्ध अनिवार्यतः करना पड़े, तो हमारी विजय ही हो इसका प्रबन्ध करूंगा। ‘घोषाय स्वाहा’-सब प्रकार के ध्वनियन्त्र ग्रामोफोन, फोनोग्राम, दूरभाष, चलभाष, दुन्दुभिवाद्य, युद्ध-वाद्य आदि के आविष्कार तथा निर्माण की व्यवस्था करूंगा। ‘श्लोकाय स्वाहा’–सङ्गीत, गायन, सस्वर वेदमन्त्रपाठ, श्लोकरचना आदि को प्रोत्साहन दूंगा।’अंशाय स्वाहा’—जिसका जो अंश या भाग है, वह उसे मिले, कोई उससे वञ्चित न हो, इसका उपाय करूंगा। पिता या सम्पत्ति के स्वामी की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति का कितना अंश किसे मिले, इसके नियम निर्धारित होंगे । आयकर सम्बन्धी नियमों के निर्धारण और प्रजा द्वारा उनके पालन की ओर भी ध्यान देंगा। राजकर के रूप में प्राप्त धन प्रजाहित में ही व्यय हो, इसका भी ध्यान रखा जाएगा। ‘भगाय स्वाहा’–भग धन का प्रतिनिधित्व करता है। मेरा राष्ट्र अच्छा धनी हो, सब राष्ट्रवासियों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो, बेकारी, भुखमरी आदि का कोई शिकार न हो, इसकी भी व्यवस्था करूंगा। ‘अर्यम्णे स्वाहा’-अर्यमा का अर्थ दयानन्दभाष्य में प्रायः न्यायाधीश किया गया है। राष्ट्र में न्यायव्यवस्था को सही रूप में चलाऊँगा। सबको समुचित न्याय प्राप्त होगा। अपराधियों के लिए कारागार और दण्डव्यवस्था भी होगी।

आज आप सबके सम्मुख यज्ञाग्नि में आहुतियाँ देते हुए मैंने जो प्रण लिये हैं, उन्हें पूर्ण कर सकने के आशीर्वाद की प्रभु से और जनता से याचना करता हूँ।

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ – रामनाथ विद्यालंकार 

माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार

माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः त्रितः । देवता अग्निः । छन्दः विराड् अनुष्टुप् ।

स्थिरो भव वीड्वङ्गऽआशुभंव वायुर्वन् । पृथुर्भव सुषदस्त्वमुग्नेः पुरीवाहणः ।।

-यजु० ११।४४

( अर्वन् ) हे जीवनमार्ग के राही पुत्र! तू (स्थिरः) अडिग, स्थिर वृत्तिवाला और (वीड्वङ्गः ) दृढाङ्ग ( भव ) हो, (आशुः ) शीघ्रकारी तथा ( वाजी ) शरीरबल, नीतिबल तथा आत्मबल से युक्त (भव ) हो। ( त्वं ) तू ( पृथुः ) विस्तारप्रिय तथा ( सुषदः ) उत्कृष्ट स्थितिवाला ( भव) हो। ( अग्नेः पुरीषवाहनः३) अग्नि के पालन, रथचालन आदि कार्यों को करनेवाला तथा अग्निहोत्र की सुगन्ध फैलानेवाला हो।

उवट एवं महीधर ने इस मन्त्र की व्याख्या में कर्मकाण्डपरक विनियोग के अनुसार ‘रासभ’ की सम्बोधन माना है। परन्तु महर्षि दयानन्द इस मन्त्र का विनियोग इस रूप में करते हैं। कि माता-पिता अपने पुत्र को शिक्षा दे रहे हैं। अर्वन्’ शब्द गत्यर्थक ऋ धातु से वनिप् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ होता है ‘गन्ता’ या जीवन की राह पर चलनेवाला। हे जीवन मार्ग के राही पुत्र! तू स्थिर अर्थात् अडिग रहे । अनेक काम, क्रोध आदि रिपुगण तथा मानवी शत्रु तुझे धर्ममार्ग से विचलित करना चाहेंगे, परन्तु उनके कुचक्र में न पड़कर तू सदा अविचल एवं स्थिर बना रह। तू स्थिर वृत्तिवाला भी हो, जो कुछ तर्क तथा धर्म की कसौटी पर कस कर निश्चय कर ले उस पर स्थिर रह । तू ‘वीड्वङ्ग’ अर्थात् सुदढ़ अङ्गोंवाला  बन । एतदर्थ तू व्यायाम, योगासन, दौड़-कूद आदि करता रह। तू ‘आशु’ बन, शीघ्रकारी, चुस्त एवं फुर्तीला बन । तू ‘वाजी’ अर्थात् शरीर, मन, वाणी आत्मा, नीति आदि से बलवान् बन, अन्यथा तुझे दुर्बल देख कर आततायी लोग अपने वश में करना चाहेंगे तथा तेरी हिंसा करने पर भी उतारू हो सकते हैं। तू ‘पृथु’ बन, विस्तारप्रिय हो, संकुचित मनवाला मत बन। अपने तक ही सीमित न रहकर यदि तू समाज, राष्ट्र एवं विश्व को भी देखेगा, तो सारी धरती ही तुझे कुटुम्ब के समान जान पड़ेगी। तब तू केवल अपना और अपने सम्बन्धियों को ही नहीं, प्रत्युत सारी वसुधा का कल्याण चाहेगा। तू ‘सुषद’ अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिवाला बन । याद रख, तेरी गणना क्षुद्र लोगों में नहीं, किन्तु उच्च महापुरुषों में होनी चाहिए। जब गुणियों की सूची बने, तब तेरा नाम उसमें सर्वोपरि होना चाहिए।

हे पुत्र! तू ‘अग्नि का पुरीषवाहन’ हो । अग्नि के पालन, विमानादिरथचालन प्रभृति कर्मों को करनेवाला हो, साथ ही अग्निहोत्र करके यज्ञाग्नि एवं हवि की सुगन्ध चारों ओर फैलानेवाला भी बन। हे पुत्री ! तुम्हें भी हमारा यही उपदेश है। तुम भी स्थिरचित्ता, दृढाङ्गी, बलवती, उदारा, उत्कृष्ट स्थितिवाली, अग्नि से कलापूर्ण कार्य करनेवाली तथा अग्निहोत्र की सुगन्ध चारों ओर फैलानेवाली बनना । ऐसे पुत्र-पुत्रियाँ ही अपने माता पिता के तथा अपने यश का विस्तार करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वीडूनि दृढानि बलिष्ठानि अङ्गानि यस्य सः-२० ।।

२. वाजी प्राप्तनीति:-द० । वाजः शरीरबलम् आत्मबलं नातिबलं चयस्यास्ति स वाजी ।।

३. पुरीषवाहण: यः पुरीषाणि पालनादानि कर्माणि वाहयति प्रापयतिसः-द० । पुरीषम् अग्निहोत्रहविषां पूर्ण सुगन्धं वहति यः सः ।

माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार 

सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार

सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः नाभा नेदिष्ठः । देवता पुरोहितो यजमानश्च।छन्दः आर्षी भुरिक् उष्णिक्।

सशितं में ब्रह्म सर्शितं वीर्य बलम्सशितं क्षत्रं जिष्णु यस्याहमस्मि पुरोहितः

-यजु० ११ । ८१

( मे ) मेरा ( ब्रह्म ) ज्ञान ( संक्षितं ) तीक्ष्ण है। ( संशितं ) तीक्ष्ण है (वीर्यम्) वीर्य और (बलम्) बल। ( संशितं ) तीक्ष्ण और (जिष्णु) विजयशील हो ( क्षत्रं ) क्षात्रबल ( यस्य ) जिस सम्राट् का ( अहम् अस्मि) मैं हूँ ( पुरोहितः ) पुरोहित, अग्रगन्ता, मुख्य सेनानायक के पद पर स्थित ।।

मैं राष्ट्र का मुख्य सेनानायक हूँ। राष्ट्र मेरा है, मैं राष्ट्र का हूँ। राष्ट्र की स्थलसेना, जलसेना और अन्तरिक्षसेना मेरे अधीन है। जब कभी राष्ट्र पर शत्रु का संकट होता है, तब मैं बांकुरे वीरों को राष्ट्ररक्षा के लिए संनद्ध कर देता हूँ। वे भी अपने प्राणों की चिन्ता न करके शत्रु पर जा टूटते हैं और शत्रु को पराजित करके ही छोड़ते हैं। मैं राष्ट्र का पुरोहित कहलाता हूँ। दो कारणों से मुझे पुरोहित कहा जाता है। प्रथम तो यह कि अग्निहोत्र या यज्ञ में जो काम पुरोहित का होता है, वही युद्ध में मेरा है। पुरोहित यज्ञ का सञ्चालन करता है। सैन्यसङ्गठन या संग्राम भी एक यज्ञ ही है। मैं उसका सञ्चालन करता हूँ। दूसरा यह है कि सेना में मुझे ‘पुर:-हित किया जाता है, अध्यक्ष पद पर बैठाया जाता है। मेरे अन्दर क्या विशेषता है। और जिस राष्ट्रपति का मैं पुरोहित हूँ उसे मुझसे क्या उपलब्धि होती है, यह मैं बता देना चाहता हूँ। जैसे यज्ञ में यजमान द्वारा पुरोहित का वरण किया जाता है, वैसे ही जब मैंने अपने पद  की शपथ ली थी तब मैं भी राष्ट्रपति द्वारा मुख्य सेनानायक के पद पर वरण किया गया था। मेरा ब्रह्म, मेरा राजनीति और रणनीति का ज्ञान बहुत तीक्ष्ण है। कब शत्रु पर आक्रमण करना है और कब शत्रु को केवल भयभीत करते रहना है, यह मैं जानता हूँ। शत्रु को यह चकमा देना भी जानता हूँ कि शत्रु यह समझे कि मैं पूर्व दिशा से आक्रमण करूंगी, किन्तु मैं किसी दूसरी दिशा से ही आक्रमण करके उसे पराजित कर देता हूँ। तीव्र रणनीति के ज्ञान के बिना युद्ध जीतना सम्भव नहीं होता और वह रणनीति का ज्ञान मुझमें है। साथ ही मेरा वीर्य और बल भी तीव्र है। मेरी व्यूह-रचना का बल तीव्र है, मेरी अन्तरिक्ष की उड़ान तीव्र है, शत्रुओं द्वारा खड़ी की गयी बाधाओं को तोड़ते-फोड़ते-कुचलते हुए मेरे ट्रैक्टरों की आगे बढ़ने की शक्ति तीव्र है, मेरे युद्धस्तर के जलपोतों की और मेरी पनडुब्बियों की शक्ति, तीव्र है। वीर्य शब्द ‘वीर विक्रान्त धातु से बनता है, वि उपसर्ग पूर्वक गति तथा कम्पन अर्थवाली ‘ईर’ धातु से भी निष्पन्न होता है। वीर्य का अर्थ है पराक्रम, शत्रु को पाने के लिए गति अर्थात् आक्रमण करना। वीर्य से अभिप्रेत है बल को क्रिया रूप में परिणत करना। मेरा बल भी तीव्र है और उस बल का प्रयोग भी तीव्र है। जब मैं तीव्रता के साथ अपने तीव्र बल का प्रयोग करता हूँ, तब शत्रु के छक्के छुड़ा देता हूँ। सब शत्रुओं का वध ही कर दिया जाए, यह अभीष्ट नहीं होता, उन्हें हरा कर अपने वशवती कर लेना ही प्रायः अभीष्ट होता है। इस प्रकार मेरा रणनीति का ज्ञान, मेरा बल और वीर्य तीक्ष्ण है। इसका परिणाम यह है कि जिस राष्ट्रपति का मैं पुरोहित हूँ, मुख्य सेनाध्यक्ष हूँ, उसका क्षात्रबल भी तीक्ष्ण और विजयशील है। जब मेरी सेना शत्रु को पराजित करती है, तब विजय मेरी होती है और वस्तुत: मेरी भी नहीं, विजय राष्ट्रपति की या राष्ट्र की होती है। सर्वोपरि है राष्ट्र । जय बोलो मेरे तीक्ष्ण वीरों की, जय बोलो मेरे राष्ट्रपति की, जय बोलो मेरे राष्ट्र की।

पाद टिप्पणी

१. संशितं, शो तनूकरणे+क्त प्रत्यय ।

सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार 

हम आयु, तेज, समृद्धि आदि प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार

हम आयु, तेज, समृद्धि आदि  प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्नेऽभ्यावर्तिन्नूभि निवर्तस्वायुषा वर्चसा प्रजय धनेन। सुन्या मेधयां रय्या पोषेण

-यजु० १२ । ७ |

हे ( अभ्यावर्तिन् अग्ने ) शरीर में अनुकूलता के साथ रहनेवाली प्राणाग्नि ! (अभिमानिवर्तस्व) मेरे शरीर में निरन्तर विद्यमान रह ( आयुषा ) स्वस्थ आयु के साथ, ( वर्चसा ) वर्चस्विता के साथ, (प्रजया) उत्कृष्ट प्रजननशक्ति एवं प्रजा के साथ, ( धनेन ) धन के साथ ( सन्या) इष्ट प्राप्ति के साथ, ( मेधया ) धारणावती बुद्धि के साथ, ( रय्या) विद्या-श्री के साथ ( पोषेण ) पुष्टि के साथ।

शरीर में जब तक प्राणाग्नि प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान आदि द्वारा सुचारुतया कार्य करती रहती है, तब तक शरीर जीवित रहता है। अतः मैं चाहता हूँ कि शरीर में आकर अनुकूलता के साथ रहनेवाली प्राणाग्नि मेरे अन्दर निरन्तर विद्यमान रहे। परन्तु केवल प्राणाग्नि शरीर में विद्यमान रहे, अन्य आवश्यक साज न हो, तो भी शरीर में होने के बराबर है। इसलिए मन्त्र में प्राणाग्नि के साथ अन्य समस्त साज की भी याचना की गयी है, ‘स्वस्थ एवं दीर्घ आयु, वर्चस्विता, उत्कृष्ट प्रजननशक्ति एवं प्रजा, धन, इष्ट लाभ, बुद्धि, विद्या श्री और पुष्टि । प्रत्येक मनुष्य की अभिलाषा होती है कि उसे स्वस्थ दीर्घायुष्य प्राप्त हो, रुग्ण दीर्घायुष्य कोई नहीं चाहता। रुग्ण दीर्घायुष्य की अपेक्षा स्वस्थ अल्पायुष्य अधिक अच्छा  है। साथ ही मनुष्य के आत्मा में वर्चस्विता भी होनी चाहिए। विज्ञान, स्मृतिशक्ति, सदाचार आदि आत्मा के गुणों का नाम वर्चस् है। वर्चस् में ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज दोनों आ जाते हैं। फिर मनुष्य को प्रजननशक्ति और प्रजा भी प्राप्त होनी चाहिए। अपने और अपने परिवार के पालन के लिए धन भी आवश्यक वस्तु है। धन में रुपया-पैसा, बँगले-कोठी, खाद्य सामग्री, मनोरञ्जन की वस्तुएँ आदि सभी पदार्थ आ जाते हैं। धन के अतिरिक्त अन्य बहुत-सी अभीष्ट प्राप्तियों की भी आवश्यकता पड़ती है-यथा, सुख की प्राप्ति, यश की प्राप्ति, सद्गुणों की प्राप्ति, ईश्वर-भक्ति की प्राप्ति, कर्मण्यता की प्राप्ति । ये समस्त प्राप्तियाँ ‘सनि’ के अन्तर्गत आ जाती हैं। इनके अतिरिक्त ‘मेधा’ या धारणावती बुद्धि भी जीवन का अनिवार्य अङ्ग है। बुद्धि से ही मनुष्य अनेकविध सफलताओं को पाने में समर्थ होता है। बुद्धि के साथ विद्या-श्री भी चाहिए, क्योंकि विद्याविहीन जन पशुतुल्य माना जाता है। ऊपर जिन पदार्थों की चर्चा की गयी है, वे प्राप्त भी हो जाएँ, पर क्षीण होते चलें तो भी मनुष्य कृतकार्य नहीं हो सकते। अतः समस्त प्राप्त ऐश्वर्यों की पुष्टि भी होती रहनी चाहिए।

हे प्राणाग्नि! तुम उक्त सब ऐश्वर्यों के साथ हमारे अन्दर निवास करो तथा हमें सर्वोन्नत जनों की श्रेणी में ला बैठाओ।

पादटिप्पणियाँ

१. (अभ्यावर्तिन्) आभिमुख्येन वर्तितु शीलं यस्य-द० ।

२. सन्या=इष्टलाभेन–म० | षण सम्भक्तौ, भ्वादिः ।३०.४.१४१ इ प्रत्यय। सन्यते संभज्यते इति सनिः ।।

३. रयि शब्द धनवाची है। धन मन्त्र में पृथक् आ चुका है, अतः यहाँविद्याधन अभिप्रेत है। रय्या=विद्याश्रिया-द० ।

हम आयु, तेज, समृद्धि आदि  प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा के प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित-राजा-कोनवनिर्वाचित राजा को प्रजा के  प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः त्रितः । देवताः अग्निः । छन्दः विराट् आर्षी त्रिष्टुप् ।

सीद त्वं मातुरस्याऽउपस्थे विश्वान्यग्ने वयुननि विद्वान्। मैनां तपस मार्चिषाऽभिशोचीरन्तरस्याऽशुक्रज्योतिर्विभाहि॥

-यजु० १२ । १५ |

( अग्ने ) हे नवनिर्वाचित राजन् ! ( विश्वानि ) सब ( वयुनानि ) प्रशस्य कर्मों, प्रज्ञाओं और कान्तियों के ( विद्वान्) ज्ञाता ( त्वं ) आप ( अस्याः मातुः ) इस मातृभूमि की (उपस्थे ) गोद में, राजगद्दी पर ( सीद ) बैठो। ( एनां ) इस मातृभूमि को (मा)(तपसा ) सन्ताप से, ( मा )(अर्चिषा ) दु:ख, विद्रोह, आतङ्क आदि की लपट से (अभिशोचीः ) शोकाकुल करो। ( अस्याम् अन्तः ) इसके अन्दर ( शुक्रज्योतिः ) प्रदीप्त तथा पवित्र ज्योतिवाले होकर (विभाहि ) भासमान होवो ।

kingआग के समान तेजस्वी, प्रख्यात, प्रकाशमान, प्रकाशदाता तथा ऊर्ध्वगामी होने के कारण भी आप ‘अग्नि’ कहलाते हैं। आप समस्त वयुनों’ के विद्वान् हैं। ‘वयुन’ शब्द निघण्टु में प्रशस्य-वाचक शब्दों में पठित है और निरुक्त में इसके कान्ति तथा प्रज्ञा अर्थ किये गये हैं। क्या प्रशस्य है और क्या अप्रशस्य है, इसे आप भलीभाँति जानते हैं। अतः प्रजा में प्रशस्य कर्म लाने में तथा प्रजा से अप्रशस्य कर्म छुड़ाने में आप समर्थ हैं। प्रज्ञा के आप धनी हैं, अतः निखिल ज्ञान विज्ञान को राष्ट्र के बुद्धिजीवियों में आप प्रचारित कर सकते हैं। ‘कान्ति’ आपको सुहाती है, अत: राष्ट्रवासियों में आप सूर्य-जैसी कान्ति और आभा ला सकते हैं। आप पदभार ग्रहण करते हुए मातृभूमि की गोद में राजगद्दी पर आसीन हों। अपने कार्यकाल में इस बात का सदा ध्यान रखें कि यह मातृभूमि कभी सन्ताप , दु:ख, विद्रोह, आतङ्कवाद आदि की ज्वालाओं से शोकाकुल न हो। भले ही विद्रोही लोग आपके उज्ज्वल कार्यों के प्रति विद्रोह प्रकट करें, सेना लेकर आपके राष्ट्र पर आक्रमण करें, आपकी प्रजा को भी विद्रोह में संमिलित करने का प्रयत्न करें, किन्तु आप अपनी उज्वलता पर सुदृढ़ रहें, अपने राष्ट्र की उन्नति के प्रयत्नों पर स्थिर रहें। भले ही आतङ्कवादी लोग मार-काट, अग्निकाण्ड, आत्मघाती विनाश के प्रपञ्च आदि से आपको डराना चाहें, किन्तु आप निर्भयतापूर्वक अपने सत्प्रयासों में प्रवत्त और अडिग रहें। आप प्रदीप्त और पवित्र ज्योति के साथ राष्ट्र में सदा सूर्य के समान चमकते रहें। सूर्य बनकर तामसिकता और अज्ञान के अन्धकार को विच्छिन्न करते रहें। अपने यशस्वी कार्यों से निरन्तर कीर्ति पाते रहें। तब हमारे द्वारा आपको राजगद्दी पर आसीन करना, राष्ट्र का उन्नायक बनाना सफल होगा। प्रभु करे आप अपने राष्ट्र को उन्नत राष्ट्रों की पङ्कि में सबसे आगे खड़ा करने का श्रेय प्राप्त करने में समर्थ हों। हम आपकी जय बोलते हैं, आपके मन्त्रिमण्डल और रक्षक सेनाध्यक्षों की जय बोलते हैं, राष्ट्र की जय बोलते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. वयुन=प्रशस्य, निघं० ३.८।।

२. वयुनं वेतेः कान्तिर्वा प्रज्ञा वा। निरु० ५.४८।

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा के  प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार

रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुणः । देवता वैद्याः । छन्दः विराड् आर्षी बृहती।

दीर्घायुस्तऽओषधे खनिता यस्मै त्वा खनाम्यहम्। अथ त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शुतवल्शा विरिहतात्॥

-यजु० १२ । १००

( ओषधे ) हे ओषधि! ( ते खनिता ) तुझे खोदनेवाला ( दीर्घायुः ) दीर्घायु हो, (यस्मैच) और जिस रोगी के लिए ( अहं त्वा खनामि ) मैं वैद्य तुझे खोदता हूँ [वह भी दीर्घायु हो]। ( अथो) और हे ओषधि ! ( त्वं दीर्घायुः भूत्वा ) तू भी दीर्घायु होकर ( शतवल्शा) शत अंकुरोंवाली के रूप में ( वि रोहतात् ) बढ़।

कई रोग अन्य मनुष्य को तथा प्राणियों को जन्मजात मिलते हैं और अन्य बहुत-से रोगों को वे अपने शरीर में नये उत्पन्न कर लेते हैं। खान-पान तथा रहन-सहन की अनियमितता इसमें प्रधान कारण होती है। जैसे-जैसे रोग बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे चिकित्सक भी बढ़ते जा रहे हैं। ओषधियों में से कुछ का ह्रास या विनाश हो रहा है और कुछ नवीन उत्पन्न होती जा रही है। प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि चिकित्सापद्धतियाँ भी बढ़ रही हैं। चिकित्सक और चिकित्सापद्धतियाँ बढ़ने पर भी रोग और रोगी कम न होकर बढ़ते ही जा रहे हैं तथा उनकी भयङ्करता भी बढ़ती जा रही है। फिर भी कुछ रोग जो पहले असाध्य समझे जाते थे, वे साध्यकोटि में आ गये हैं। चिकित्सा-जगत् को कई नवीन देने भी मिली हैं। प्रस्तुत मन्त्र ओषधि-विज्ञान के विषय में तीन बातों पर प्रकाश डाल रहा है, जो तीनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।

पहली बात यह है कि जो लोग जङ्गल यो पहाड़ से ओषधियाँ खोद कर लाते हैं, उन्हें अनाड़ी नहीं, अपितु उन यजुर्वेद ज्योति ओषधियों के गुण-धर्मों का अच्छा ज्ञाता होना चाहिए, जिससे रोगी होने पर स्वयं उनका प्रयोग करके स्वास्थ्यलाभ कर सकें तथा अन्यों को भी उन ओषधियों का परिचय देकर उनके रोगनिवारण में सहायक हो सकें। यह देखा गया है कि ओषधियाँ खोद कर लानेवाले कई सेवक वैद्यों से भी अधिक आयुर्वेदज्ञ होते हैं। दूसरी बात मन्त्र मैं वैद्य की ओर से कही गयी है। वे कहते हैं कि जिस रोगी के लिए मैं स्वयं ओषधि को खोद कर लाता हूँ, या ओषधि-विक्रय-विभाग से खरीद कर लाता हूँ, वह रोगी भी दीर्घायु हो। रोगी दीर्घायु तब हो सकता है, जब वैद्य का चिकित्साशास्त्रीय ज्ञान अधूरा न होकर पूर्ण हो। अच्छा आयुर्वेदज्ञ वैद्य ही ओषधि से रोगी को लाभ पहुँचा सकता है, अन्यथा उसके पास ओषधि विद्यमान हो तो भी उसकी चिकित्सा से रोगी स्वस्थ हो ही जायेगा यह आवश्यक नहीं है। तीसरी मन्त्रोक्त बात यह है कि ओषधि को इस प्रकार काटना चाहिए कि काटने के बाद उसके अनेक अंकुर फूटें और वह पहले से भी अधिक बड़ी हो जाये, नहीं तो यदि ओषधि को गलत तरह से काटा या उखाड़ा जायेगा, तो उसके नष्ट हो जाने का भय है। पहले एक सोमलता होती थी, जिसका रस शक्तिवर्धक तथा बुद्धिवर्धक था। यज्ञों में उसका प्रयोग बहुत होता था, उसे इस बुरी तरह काटा उखाड़ा गया और मैदानों में उसकी खेती की नहीं जा सकी कि वह समाप्त ही हो गयी। यही हालत अन्य ओषधियों की भी हो सकती है, यदि इस तरह उन्हें काटेंगे कि उनके शत। शत कल्ले न फूटते रहें । अतः ओषधियो को प्रयोग के लिए इस तरह काटें कि वे भी दीर्घायु हों।

आइये, यदि हम चिकित्सक हैं तो मन्त्रोक्त बातों का ध्यान रखें। ओषधि खोदकर लानेवाला भी दीर्घायु हो, रोगी भी दीर्घायु हों और ओषधियाँ भी दीर्घायु हों।।

पादटिप्पमियाँ

१. शतवल्शी शताङ्करा।

२. विरोहतात् वर्धस्व ।।

रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार 

हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार

हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री

आप्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम्। भवा वाजस्य सङ्गथे॥

-यजु० १२ । ११२

( सोम ) हे चाँद ! ( आ प्यायस्व) बढ़, परिपूर्ण हो जा। ( विश्वतः ) सब ओर से ( ते ) तेरा (वृष्ण्यम् ) सेचक अमृत ( समेतु ) आये। ( भव ) हो जा ( वाजस्य ) बल के (संगथे) संगमार्थ ।

हे चाँद! किसी दिन तू परिपूर्ण आभा के साथ गगन में चमक रहा था, पूर्णिमा का चाँद था। किन्तु तू आपदा से ग्रस्त होकर घटना आरम्भ हो गया और घटते-घटते आज अमावस के दिन आकाश से लुप्त ही हो गया है। तू पुनः बढ़ना आरम्भ कर, बढ़ते-बढ़ते फिर पूर्णिमा का चाँद हो जा। तेरा अमृत फिर तुझ में लौट आये और तू अमृत से लबालब भर जा। हमारे अन्दर पुनः शीतल ज्योति के बल का सङ्गम करने में तत्पर हो जा।।

यह एक वैदिक अन्योक्ति है, जिसे अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार भी कहते हैं। चाँद के बहाने से उस मनुष्य को या उस राष्ट्र को कहा जा रहा है, जो पहले कभी बहुत उन्नति कर चुका है, किन्तु अब अवनति के गर्त में गिर गया है। हे मानव ! हे राष्ट्र ! तू एक दिन अपनी उन्नति पर गर्व करता था, अन्य सब भी तेरे गौरव का सिक्का मानते थे । तू जगत् के गगन में पूर्णिमा के चाँद के समान चमकता था। परन्तु सबके दिन सदा एक से नहीं रहते। ‘चक्र सी है घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा’ । आज तू अमावस का चाँद बन गया है, किन्तु चिन्तित मत हो, यजुर्वेद ज्योति निराशा-निरुत्साह मन में मत ला। फिर एक-एक कला से बढ़ना आरम्भ कर । तू पूनम का चाँद हो जायेगा। तेरे ‘वृष्ण्य’ की, तेरे बल की, तेरे वीर्य और पराक्रम की धाक फिर जम जायेगी। फिर तू सबको अमृत, शीतलता और शान्ति प्रदान करने लगेगा। फिर तू संग्राम में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने लगेगा। तेरे सम्मुख एक दिन फिर सब सिर झुकायेंगे। तुझे फिर शान्ति का दूत स्वीकार करेंगे। हे अमावस के चाँद! तू पूनम का चाँद हो जा।

हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार 

जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार

जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विश्वेदेवाः । देवता वायुः । छन्दः भुरिग् अतिजगती।

प्राणम्मे पाह्यपानम्मे पाहि व्यनम्मे पाहि चक्षुर्मऽउर्ध्या विभाहि श्रोत्रम्मे श्लोकय। अपः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपार्दव चतुष्पा त्पाहि दिवो वृष्टिमेरय॥

-यजु० १४/८

हे वायो ! हे जगदीश्वर ! ( मे प्राणं पाहि ) मेरे प्राण की रक्षा कीजिए, ( मे अपानंपाहि) मेरे अपान की रक्षा कीजिए ( मे चक्षुः ) मेरी आँख को ( उर्ध्या ) व्यापकरूप से (विभाहि ) दृष्टिशक्ति से चमकाइये, ( मे श्रोत्रं ) मेरे कान को ( श्लोकय ) श्रवणशक्ति से युक्त कीजिए। ( अप: जिन्व ) पानी सींचिए, ( ओषधीः जिन्व ) ओषधियों को बढ़ाइये, ( द्विपाद् अव ) दो पैरवाले मनुष्य से प्रीति कीजिए, ( चतुष्पात् पाहि) चार पैरवाले गाय आदि पशुओं का पालन कीजिए।

हे जगदीश्वर ! अनेक नामों में से आपका एक नाम ‘वायु भी है, क्योंकि आप चराचर जगत् का धारण, जीवन और प्रलय करते हो तथा बलवानों में बलिष्ठ हो । वायु के समान प्राणदायक होने से भी आप ‘वायु’ कहलाते हो। आप मधुर, मन्द, शीतल पवन के समान शान्तिदायक भी हो और झंझावात के समान काम, क्रोधादि रूप बाधक झंखाड़ों को तोड़ गिरानेवाले भी हो। आप हमारे प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान नामक प्राणों की रक्षा कीजिए। चक्षु, श्रोत्र, मुख, नासिका में ‘प्राण’ स्वतः स्थित होता है, अर्थात् शरीर में दर्शन, श्रवण, शब्दोच्चारण एवं श्वास-संस्थान का कार्य प्राण’ से होता है। मलसंस्थान और मूत्रसंस्थान में ‘अपान’ स्थित होता है। इन संस्थानों को स्वस्थ रखना तथा मलमूत्रादि का भलीभाँति निस्सारण करना  इसका कार्य है। शरीर के मध्यभाग में ‘समान’ निवास करता है, जिसका कार्य है, जाठराग्नि में होमे हुए अन्न को समावस्था में लाना, अर्थात पचा कर एकरस करना। हृदय की समस्त नाड़ियों में ‘व्यान’ विचरता हुआ रक्तसंस्थान को सञ्चालित करता है। पृष्ठवंश में ‘उदान’ स्थित होता है, जो मनुष्य के उन्नत होकर बैठना, ऊपर उछलना आदि कार्यों में सहायक होता है। इन प्राणों के अरक्षित या विकृत हो जाने से शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सबका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। अतः इनकी रक्षा आवश्यक है।

हे भगवन् ! आप मेरी चक्षु की समीप-दृष्टि और दूर-दृष्टि दोनों को न केवल अक्षुण्ण रखिये, अपितु अधिकाधिक बढ़ाइये, चमकाइये। आप मेरे कानों को भरपूर श्रवण-शक्ति से युक्त कीजिए। इसी प्रकार शरीर के जो अन्य अङ्गोपाङ्ग हैं या सामर्थ्य हैं, उन सबकी भी आप रक्षा कीजिए। प्रकृति में जो आपके द्वारा विविध क्रियाएँ की जा रही हैं, उनकी भी आप सम्यक्तया रक्षा कीजिए, क्योंकि उनका भी प्रभाव हमारे शरीर, मन आदि पर पड़ता है। आप वायु में जल-कणों को भरकर उनके द्वारा हमें सींचते रहिए, क्योंकि सर्वथा शुष्क वायु हमारे शरीराङ्गों को भी शुष्क कर देती है। आप ओषधि-वनस्पतियों को बढ़ाइए, जिससे वे वायुमण्डल को शुद्ध करती रहें, हमें छाया प्रदान करती रहें, वर्षा में सहायक होती रहें और प्रचुर मात्रा में अपने मूल, छाल, पत्र, पुष्प और फल इन पञ्चाङ्गों से हमें लाभ पहुँचाती रहें। हे रक्षक प्रभुवर! आप द्विपाद् मनुष्य से प्रीति कीजिए, उसे ऊँचा उठाइये, उसके अन्दर शक्ति भरिये, क्योंकि एकमात्र वही संसार में ज्ञान-विज्ञान आदि की उन्नति कर सकता है। आप गाय, घोड़े आदि चतुष्पादों की रक्षा कीजिए, क्योंकि वे पर्याप्त अंशों में अपनी रक्षा स्वयं करने में पूर्णतः समर्थ नहीं है। आप हमारी भूमि पर वृष्टि कीजिए, क्योंकि वृष्टि पर ही नदी, सरोवर, कूप, समुद्र आदि की जल-व्यवस्था तथा कृषि-क्षेत्रों की सस्यश्यामलता  निर्भर होती है।

हे जगदीश ! आप ही चराचर जगत् के सर्जक, पालक तथा रक्षक हो, अत: हम आपसे ही सबकी सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। हम स्वयं भी यथाशक्ति इनकी रक्षा में प्रवृत्त रहेंगे, हमें आप रक्षा की शक्ति प्रदान करते रहिए।

पादटिप्पणियाँ

१. ‘वा गतिगन्धनयोः । गन्धनं हिंसनम् । यो वाति चराचरं जगद् धरतिबलिनां बलिष्ठः स वायुः । जो चराचर जगत् का धारण, जीवन और प्रलय करे और सब बलवानों से बलवान् है, इससे ईश्वर का नामवायु है’-स०प्र०, समु० १ ।

२. प्रश्न उप० ३.४-६ ।

जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार