Category Archives: वेद मंत्र

योगमार्ग के विघ्नों को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

योगमार्ग के विघ्नों  को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मयोभूः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

आगत्य वन्यध्वनिश्सर्वा मृध विधूनुते । अग्निसुधस्थे महुति चक्षुषा निर्चिकीषते

-यजु० ११ । १८

(वाजी ) बलवान् जीवात्मा (अध्वानम् आगत्य ) योगमार्ग में आकर ( सर्वाः मृधः ) सब हिंसक विप्नों को ( विधूनुते ) प्रकम्पित कर देता है। फिर वह ( महति सधस्थे ) महान् हृदय-सदन में (अग्निम् ) प्रकाशमय प्रभु को ( चक्षुषा )अन्त:चक्षु से (निचिकीषते ) देख लेता है।

आओ, तुम्हें वाजी की बात सुनायें । किन्तु ‘वाजी’ का तात्पर्य घोड़ा मत समझ लेना। ‘वाज’ का अर्थ होता है बल, अतः ‘बलवान्’ को वाजी कहते हैं । घोड़ा भी बलवान् होने के कारण ही वाजी कहलाता है। हम यहाँ जिस ‘वाजी’ की बात करने लगे हैं, वह है बलवान् जीवात्मा । हमारे अन्दर सबसे अधिक बलवान् जीवात्मा ही है। जब तक वह सोया रहता है, तब तक तो काम, क्रोध आदि चूहे उस पर कूदते रहते हैं। पर ज्यों ही वह जाग कर हंकार भरता है, त्यों ही सब विषयविकारों की सेना भाग खड़ी होती है।

उस ‘वाजी’ अर्थात् बलवान् जीवात्मा के विषय में मन्त्र कहता है कि जब वह योगमार्ग में पदार्पण करता है, तब इस मार्ग में बाधा डालनेवाले सब विघ्नों को प्रकम्पित कर देता है। ये विघ्न हैं व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व रूप चित्तविक्षेप।  इन चित्तविक्षेपों के सहवर्ती होते हैं, दुःख, दौर्मनस्य अङ्गमेजयत्व एवं श्वास प्रश्वास। योगमार्ग में इनकी प्रतिषेध करने के लिए एकतत्त्वाभ्यास करना आवश्यक होता है। सुखी जनों के प्रति मैत्री, दु:खी जनों के प्रति करुणा, पुण्यात्माओं को देख कर मुदित होना, अपुण्यात्माओं के प्रति उपेक्षावृत्ति धारण करना इन चारों वृत्तियों की भावना अपने अन्दर धारण करने से चित्त का प्रसाद प्राप्त होता है। विषयवती प्रवृत्ति भी उत्पन्न होकर मन के स्थितिलाभ का कारण बनती है। अथवा विशोका ज्योतिष्मती प्रज्ञा भी मन को विघ्नों से हटा कर निर्मल कर देती है। |

इस प्रकार योगविघ्नों को पराजित करके ‘वाजी’ जीवात्मा महान् हृदय-सदन में प्रकाशमय ‘ अग्नि’ नामक परम प्रभु का दर्शन कर लेता है। अग्निप्रभु के दर्शन उसे चर्म-चक्षुओं से नहीं, किन्तु अन्तश्चक्षु से होते हैं। आओ, हम भी योगमार्ग के यात्री बनकर योगविघ्नों का अपसारण कर परम प्रभु के दर्शन करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. निचिकीषते पश्यति। यह दर्शनार्थक छान्दस धातु है।

२. योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र ३०-३६ ।।

योगमार्ग के विघ्नों  को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः सिन्धुद्वीपः । देवता वायुः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानाय हृदयं यद्विकस्तम्। यो देवानां चरसि प्राणथेन कस्मै दे वर्षडस्तु तुभ्यम् ॥

-यजु० ११ । ३९ |

हे नारी! ( उत्तानायाः) चित्त लेटनेवाली ( ते ) तेरा ( हृदयं ) हृदयं ( यद् विकस्तम् ) जो बढ़ गया है, या किसी अन्य विकार को प्राप्त हो गया है, उसे ( मातरिश्वा वायुः ) अन्तरिक्ष में चलनेवाला वायु ( सं दधातु ) स्वस्थ कर देवे । ( यः ) जो हे मातरिश्वा वायु ! तू ( देवानां ) विद्वानों के ( प्राणथेन) प्राणरूप में ( चरसि ) चलता है, ( कस्मै ) उस सुखदायक ( तुभ्यं ) तेरे लिए ( वषट् अस्तु) स्वाहा हो, अर्थात् अग्नि में घृत तथा ओषधियों की आहुति हो।

शरीर में रक्तसंस्थान का केन्द्र हृदय है। शरीर का अशुद्ध रक्त शिराओं द्वारा हृदय के दक्षिण प्रदेश में आता है। हृदय शुद्ध होने के लिए उसे फुप्फुस में सूक्ष्म रक्त-केशिकाओं में भेज देता है। जब शुद्ध वायुमण्डल से श्वास द्वारा शुद्ध वायु फुप्फुस में पहुँचता है, तब वह शुद्ध वायु अशुद्ध रक्त से सम्पर्क करके उसकी मलिनता को अपने अन्दर ले लेता है। और शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सिजन) रक्त में भेज देता है, जिससे रक्त शुद्ध होकर हृदय के वामप्रकोष्ठ में चला जाता है। वहाँ से बृहद् धमनि द्वारा छोटी धमनियों में होता हुआ सारे शरीर में पहुँच जाता है। पुनः शरीर की मलिनता को ग्रहण करके अशुद्ध होकर शुद्ध होने के लिए हृदय में आता है। इस प्रकार हृदय समस्त रक्त-संस्थान को नियन्त्रण में रखता है। यदि यजुर्वेद ज्योति हृदय किसी कारण घट-बढ़ जाए, उसके कलेवर में शोथ आ जाए, उच्च रक्तचाप या निम्न रक्तचाप हो जाए, या किसी अन्य प्रकार का हृदयरोग हो जाए, तो उसे स्वस्थ करने का उपाय मन्त्र में प्राणायाम बताया गया है। मन्त्र नारी के हृदयरोग के विषय में है। हृदयरोग का कारण अधिक उत्तान या चित लेटना या शयन करना भी हो सकता है, यह मन्त्र से सूचित होता है। आकाशवर्ती स्वच्छ वायु को ‘मातरिश्वा वायु’ कहा गया है। निरुक्तकार कहते हैं कि वायु को मातरिश्वा कहने का कारण यह है कि वह निर्माता आकाश में गति करता है। अथवा निर्माता अन्तरिक्ष में शीघ्र-शीघ्र प्राण देने की क्रिया करता है। हे नारी! उत्तान सोने के कारण जो तेरा हृदय बढ़ गया है, उसमें सूजन आ गयी है, धड़कने की गति कम या अधिक हो गयी है, तो प्राणवायु उचित प्राणायाम के द्वारा उसे स्वस्थ कर सकता है, हृदय के किस रोग में कौन सा प्राणायाम अपेक्षित है, यह योगक्रिया-विशेषज्ञ लोग बतलायेंगे। उनके निर्देश के अनुसार तू प्राणायाम कर।।

मन्त्र के उत्तरार्ध में हृदयरोगनिवारण के लिए किन्हीं विशेष ओषधियों की अग्नि में आहुति डालना अर्थात् यज्ञचिकित्सा करना उपाय बताया गया है। हे मातरिश्वा वायु ! तू प्राणदाता के रूप में प्रसिद्ध है, तेरे लिए हम ‘स्वाहा’ या ‘वषट्’ उच्चारण करते हुए आहुति डालते हैं। ओषधियों की सुगन्ध से सुवासित होकर तू हृदयरोग से ग्रस्त महिला के फुप्फुसों में जाकर रक्त से सम्पर्क करके रक्त का शोधन कर। इस प्रकार रोगिणी को हृदयरोग से मुक्त कर दे। यद्यपि मन्त्र हृदयरोगिणी महिला के विषय में है, तथापि हृदयरोगा पुरुष के लिए भी ये दोनों उपचार करना लाभदायक हो सकता है।

पाद टिप्पणियाँ

१. कस गतौ, भ्वादिः । विकस्तं=विकसितम्।।

२. मातरिश्वा वायुः, मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आशु अनितीतिवा। निरु० ७.३, मातरिश्वस्, अथवा मातरि-शु-अन् (अन प्राणने) ।।

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

अग्नेऽअङ्गिरः शतं ते सन्त्ववृतेः सहस्त्रे तऽउपवृतः अध पोषस्य पोषे पुनर्नो नष्टमाकृधि पुनर्नो रयिमाकृधि॥

-यजु० १२।८

हे ( अङ्गिरः अग्ने ) विद्यारसयुक्त अध्यापक! ( शतं ) एक-सौ ( ते सन्तु ) तेरी हों (आवृतः ) आवृत्तियाँ। ( सहस्त्रं ) एक सहस्र हों ( ते ) तेरी ( उपावृतः ) उपावृत्तियाँ। यदि पाठ विस्मृत ही हो गया है, आवृत्ति से काम नहीं चलता, तब (नः ) हमारे ( नष्टं ) नष्ट या विस्मृत पाठ को ( पोषस्य पोषेण ) परिपुष्ट अध्यापक के पोषण से (पुनःआकृधि ) पुनः मन में बैठा दो। ( पुनः ) फिर ( नः ) हमारी ( रयिं ) विद्या-लक्ष्मी को ( आकृधि) उत्पन्न कर दो।।

शिक्षणालयों में विद्या ग्रहण करनेवाले विद्यार्थियों का योग्यता के कई कारण होते हैं, जिनमें अध्यापक की अध्यापन रीति एक प्रमुख कारण है। एक शिक्षाशास्त्री का कथन है कि * आचार्य समाहित होकर छात्रों को ऐसी रीति से विद्या और सुशिक्षा करे कि जिससे उनके आत्मा के भीतर सुनिश्चित अर्थ होकर उत्साह ही बढ़ता जाये। दृष्टान्त, हस्तक्रिया, यन्त्र, कलाकौशल, विचार आदि से विद्यार्थियों के आत्मा में पदार्थ इस प्रकार साक्षात् करावे कि एक के जानने से हजारों पदार्थ यथावत् जानते जायें ।

प्रस्तुत मन्त्र में अध्यापक को ‘अग्नि’ कहा गया है। अग्नि शब्द उणादि कोष में गत्यर्थक ‘अगि’ धातु से ‘नि’ प्रत्यय करके निष्पन्न किया गया है। इससे अध्यापक के क्रियाशीलता, तत्परता, ज्ञानप्रकाशयुक्तता, अध्यापन-कुशलता  आदि गुण सूचित होते हैं। यहाँ अध्यापक को एक विशेषण ‘अङ्गिरस्’ है। उणादि में अङ्ग से असि प्रत्यय तथा इरुङ् का आगम करके यह शब्द निपातित किया गया है, जिससे अध्यापक का विद्याङ्गसमय होना सूचित होता है। तात्पर्य यह है कि अध्यापक को अखिल वेदवेदाङ्गों का तथा ज्ञान-विज्ञान के भण्डार का स्वामी होना चाहिए। मन्त्र में अध्यापक द्वारा शिष्यों को पढ़ाये हुए पाठ की आवृत्तियाँ और उपावृत्तियाँ कराने पर विशेष बल दिया गया है। वह शिष्यों को एक-सौ आवृत्तियाँ तथा एक-सहस्र उपावृत्तियाँ कराये। आवृत्ति से तात्पर्य है, उस पाठ की अक्षरशः पूर्ण आवृत्ति अर्थात् उस पाठ को पूरा दोहराना। उपावृत्ति का अभिप्राय है, उस पाठ पर सामान्य दृष्टि डालना। प्रतिदिन एक आवृत्ति की जाए, तौ एक-सौ आवृत्तियों में तीन मास दस दिन लगेंगे। एक सहस्र उपावृत्तियों में २ वर्ष ९ मास १० दिन। यह अनुभव से देखा गया है कि किन्हीं श्लोकों, मन्त्रों आदियों का प्रतिदिन पाठमात्र कर लेने पर, स्मरण करलेने के लिए मस्तिष्क पर कोई बल न देने पर भी वे तीन-चार मास में स्मरण या कण्ठस्थ हो जाते हैं। उसके बाद अक्षरशः न देख कर सामान्य दृष्टि-निक्षेप से ही काम चल जाता है।

उत्तरार्ध में मन्त्र कहता है कि यदि कोई पाठ पूर्णतः लुप्त (नष्ट) हो जाए, उसके सब ग्रन्थ जलविप्लव या अग्नि आदि से विनष्ट हो जाएँ तो भी सुयोग्य विद्वान् पुनः उस विद्या का अनुसन्धान या आविष्कार कर सकते हैं। इस प्रकार खोई हुई लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करा सकते हैं। यहाँ यदि ‘नष्ट’ का अर्थ पूर्णतः विस्मृत लें, तो कुशल अध्यापक पुनः उसे शिष्य के मस्तिष्क में बैठा सकता है, यह भाव लेना चाहिए।

पादटिप्पणियाँ

१. स्वामी दयानन्द सरस्वती, ऋ० भा० १.४.४, भावार्थ ।।

२. अङ्गेर्नलोपश्च उ० ४.५१, अगि- नि, अङ्ग नि, अग्-नि=अग्नि।

३. अङ्ग- असि प्रत्यय, इरुङ्-इर् का आगम। अङ्गिरा: उ० ४.२३७।

४. अङ्गिराः विद्यारसयुक्तः-द० । अङ्ग-रस=अङ्गिरस्।

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।

अग्ने यत्ते शुक्रं यच्चुन्द्रं यत्पूतं यच्च॑ य॒ज्ञियम्। तद्देवेभ्यों भरामसि

-यजु० १२ । १०४

हे (अग्ने ) अग्रनायक परमेश्वर ! ( यत् ते शुक्रं ) जो तेरा दीप्तिमान् रूप, ( यत् चन्द्रं ) जो आह्लादक रूप, ( यत् पूतं ) जो पवित्र रूप ( यत् च यज्ञियं ) और जो यज्ञसंपादनयोग्य रूप है, ( तत् ) उसे हम ( देवेभ्यः ) विद्वान् प्रजाजनों के लिए (भरामसि )* लाते हैं ।

हे जगदीश्वर ! आप ‘अग्नि’ हो, अग्रनायक हो, जो आपको अपना अग्रणी बनाता है, उसे सत्पथ पर चला कर उसके नियत उद्देश्य तक पहुँचा देनेवाले हो। आप अग्नि के तुल्य तेजस्वी-यशस्वी भी हो। साधक को आपके अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं। कभी आपका ‘शुक्र’, अर्थात् जाज्वल्यमान रूप उसके सम्मुख प्रकट होता है, जो उसके अन्त:करण को उद्भासित कर देता है। उसका मानस दृढ़ सङ्कल्प की ऊँची ऊँची अर्चियाँ उठाने लगता है। कभी उसके सम्मुख आपका ‘चन्द्र’ रूप, अर्थात् चाँद-जैसा आह्लादक रूप प्रकट होता है, जिस के माधुर्य से उसको हृदय रसमय, मधुर, शीतल हो जाता है। कभी उसके सम्मुख आपका ‘पूत’ अर्थात् पवित्र रूप आविर्भूत होता है, जिससे उसके तन, मन, धन, ज्ञान, कर्म, उपासना सब निर्मल हो जाते हैं। कभी उसके सम्मुख आपका यज्ञिय अर्थात् यज्ञार्ह, पूजार्ह तथा यज्ञसम्पादक रूप प्रकाशित होता है, जिससे वह आपकी वन्दना, अर्चना, पूजा में प्रवृत्  हो जाता है। आपका यज्ञनिष्पादक रूप साधक को भी विद्यायज्ञ, शान्तियज्ञ, शिल्पयज्ञ, योगयज्ञ, उपासनायज्ञ, धर्मप्रवर्तन-यज्ञ आदि के निष्पादन में प्रवृत्त कर देता है।

हे सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी परमात्मन् ! मन्त्रोक्त रूपों से इतर भी आपके अनेक रूप हैं, जिनका ध्यान करने से साधक ‘देव’ बन जाता है। हम चाहते हैं कि न केवल हमारे राष्ट्र को, अपितु समग्र संसार का प्रत्येक निवासी आपके गुणों का मनन, चिन्तन, ध्यान करके, उन्हें अपने अन्दर धारण कर कृतकृत्य हो। हे देवेश! हम भी आपके गुणों को अपने अन्तरात्मा में धारण करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. शुक्रं शोचतेचैलतिकर्मणः, निरु० ८.११ । औणादिक रन् प्रत्यय।

२. चन्द्रं, चदि आह्लादे। स्फायितञ्चि० उ० २.१३ से रक् प्रत्यय । चन्दतिआह्लादयति स चन्द्रः ।।

३. यज्ञकर्म अर्हतीति यज्ञियः। तत्कर्माहतीत्युपसंख्यानम्’ वार्तिक पा०१.६.४ से घ प्रत्यय ।

४. भरामसिहरामः । हृञ् हरणे, हग्रहोर्भश्छन्दसि, इदन्तो मसि ।।

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता सर्पा: । छन्दः भुरिग् आर्षी उष्णिक्।

नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु।। येऽअन्तरिक्ष य दिवि तेभ्य: सर्पेभ्यो नमः॥

-यजु० १३।६

( नमः अस्तु ) स्तुति हो ( सर्पेभ्यः ) उन सप के लिए ( ये के च ) जो कोई (पृथिवीम्अनु ) पृथिवी पर स्थित हैं। ( ये अन्तरिक्षे ) जो अन्तरिक्ष में हैं, ( ये दिवि ) जो द्युलोक में हैं ( तेभ्यः सर्पेभ्यः नमः ) उन सर्यों के लिए भी स्तुति हो। |

शतपथब्राह्मण में लिखा है कि ये लोक ही सर्प हैं, क्योंकि जब ये सर्पते हैं, तब जो कुछ इनके अन्दर होता है, उसके साथ ही सर्पते हैं। इस कारण भी लोकों को सर्प कहा जाता है कि जो कोई पदार्थ या प्राणी सर्पता है, वह इन्हीं लोकों में रहता हुआ सर्पता है। एवं इन लोकों में सर्पण करनेवाले पदार्थ तथा प्राणी भी सर्प कहलाते हैं। मन्त्र कह रहा है कि हम उन सर्यों को नम:’ देते हैं, जो पृथिवी पर रहते हैं। ‘नम:’ के अर्थ वैदिक कोष निघण्टु में अन्न तथा वज्र दिये हैं। नमस्कार अर्थ भी वेद में भी लोक के समान होता ही है। प्रकृत में ‘नम:’ का अर्थ स्तुति या गुणवर्णन उचित है। पृथिवी पर रहनेवाले चर पदार्थ मनुष्यकृत रेलगाड़ी, मोटरकार, ट्रक, इञ्जन, ट्रैक्टर, युद्धयान आदि हैं। इनके गुण जानकर, उनका वर्णन करके तथा इन चर पदार्थों का उपयोग करके हम असीम लाभ प्राप्त कर सकते हैं। पृथिवी पर रहनेवाले प्राणीरूप सर्प मनुष्य, सिंह, व्याघ्र, हाथी, पक्षी तथा अन्य जीवजन्तु हैं। इनका ज्ञान, गुणवर्णन तथा उचित उपयोग भी लाभदायक हो सकता है। अन्तरिक्ष में रहनेवाले सर्प अनेक ग्रह और उपग्रह हैं। इन ग्रह-उपग्रहों का हम पर फलित ज्योतिष का अभिमत प्रभाव भले ही न पड़ता हो, किन्तु प्राकृतिक प्रभाव तो पड़ता ही है। और अब तो ग्रह उपग्रहों में पहुँच कर वहाँ ग्राम और नगर बसाने की योजनाएँ चल रही हैं। द्युलोक में रहनेवाले सर्प सूर्यलोक तथा असंख्य नक्षत्रमण्डल हैं। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या आदि १२ राशियाँ और २८ नक्षत्र, जिनमें हमारी पृथिवी के प्रवेश करने से संवत्सर का निर्माण होता है, सप्तर्षि आदि अनेक नक्षत्रपुञ्ज, आकाशगङ्गा के तारे ये सब द्युलोकस्थ सर्प हैं। इन सबका कुछ न कुछ प्राकृतिक प्रभाव हमारे स्वास्थ्य आदि पर तथा भौतिक घटनाचक्र आदि पर पड़ता है। अतः अपनी बुद्धि को इनके प्रति नत करके एतद्विषयक ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना हमारे लिए कल्याणकारी हो सकता है।

अतः आओ इन सब पार्थिव, अन्तरिक्षस्थ तथा द्युलोकस्थ सर्यों के प्रति हम अपने ज्ञान और कर्म को प्रेरित करें।

पादटिप्पणियाँ

१. इमें वै लोकाः सर्पास्ते हानेन सर्वेण सर्पन्ति। श० ७.३.१.२५।।

२. इमे वै लोकाः सर्पा यदि किं च सर्पति एष्वेव तल्लोकेषु सर्पति । श०७.३.१.२७।।

३. निघं० अत्र २.७, वज्र २.२० ।

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार  

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः त्रिशिराः । देवता भूमिः । छन्दः पञ्चपादा आर्षी प्रस्तारपङ्कि: ।

भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधया विश्वस्य भुवनस्य धर्मी। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हिंसीः ।

-यजु० १३ । १८

हे पृथिवी ! तू ( भू: असि) भू है, ( भूमिः असि ) भूमि है, ( अदिति:४ असि ) अदिति है, (विश्वधायाः५) विश्वधाया है, विश्व को दूध पिलानेवाली है, (विश्वस्य भुवनस्य धर्ती) सब प्राणियों को धारण करनेवाली है। हे पृथिवी माता के पुत्र मनुष्य! तू (पृथिवींयच्छ) पृथिवी को नियन्त्रित कर, इसकी क्षति को रोक, ( पृथिवीं दूंह) पृथिवी को दृढ़ कर, ( पृथिवीं मा हिंसीः ) पृथिवी की हिंसा मत कर। |

वेद के अनुसार पृथिवी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। हे पृथिवी माता ! तू ‘भू:’ है, विशिष्ट अस्तित्ववाली है। नभोमण्डल में जो अगणित लोकलोकान्तर दिखायी देते हैं, उनके बीच तेरा विशेष अस्तित्व है, क्योंकि तू अनेक प्राणियों को जन्म देकर उनकी माता बनती है। तू केवल ‘भूः’ ही नहीं, अपितु ‘भूमि’ भी है, अर्थात् अपने भूतल पर निवास करनेवाली प्राणियों को अस्तित्व देनेवाली भी है। तुझ पर बसनेवाले सिंह, व्याघ्र, हाथी, हरिण आदि कैसी शान से रहते हैं। तुझ पर रहनेवाले मानव की शान तो निराली ही है, जिसने अपने बुद्धिकौशल से सुखी जीवन के लिए अनेक ज्ञान-विज्ञानों तथा अनेक उपयोगी वस्तुओं का आविष्कार किया है । हे माँ! तू ‘अदिति’ है, अखण्डनीया है, अलग-अलग टुकड़ों में बाँटने योग्य नहीं है। जैसे माँ के कभी टुकड़े नहीं किये जाते, वैसे ही पृथिवी भी टुकड़ों में नहीं बाँटी जा सकती । माँ के अङ्ग प्रत्यङ्ग तो होते हैं, पर उनमें सामञ्जस्य और एकसूत्रत्व रहता है, वैसे ही पृथिवी के भी विभिन्न राष्ट्र तो हो सकते हैं, परन्तु यजुर्वेद ज्योति उनमें परस्पर सौहार्द और एकसूत्रत्व रहना चाहिए। माँ के अङ्ग-प्रत्यङ्ग यदि एक-दूसरे से विद्रोह या विरोध करने लगे, तो उसका जीवन विपत्ति में पड़ जाएगा। ऐसे ही पृथिवी के अलग-अलग राष्ट्र यदि वाणी और क्रिया से एक-दूसरे के विरोध में तत्पर हो जाएँगे, तो पृथिवी भी निर्जीव हो जाएगी।

हे पृथिवी! तू ‘विश्वधायाः’ है, सब सन्तानों को अपना दूध पिलानेवाली है, अपने अन्दर विद्यमान नाना खाद्य एवं पेय पदार्थों से उनका पोषण करनेवाली है। खाद्य पेय से अतिरिक्त तुझमें विद्यमान सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि अन्य पदार्थ भी तेरा दूध ही हैं, जिनसे तू अपने पुत्र-पुत्रियों को उपकृत करती है। हे जननी ! तू सकल भुवन को, सकल प्राणि-समूह को अपनी गोद में धारण करनेवाली है।

हे मानव ! अपनी इस पृथिवी माता पर तू गर्व कर, इसकी क्षति को रोक। देख, प्रतिवर्ष बरसात की उमड़ती नदियों से, समुद्र के तूफान से न जाने कितनी भूमि कट जाती है और उस पर बसे हुए लोगों के घर उजड़ जाते हैं। तू धरती माँ के इस अङ्ग-विच्छेद को रोक, पृथिवी को दृढ़ कर। बाँधों से नदियों की धारा को बाँध । वृक्षारोपण करके पहाड़ों की कटती हुई भूमि को कटने से बचा। तू पृथिवी की हिंसा मत कर, इसकी उपजाऊ शक्ति को नष्ट मत होने दे, अन्यथा सोना उगलनेवाली यह धरती बञ्जर हो जाएगी। हे मनुज ! अपनी धरती माता की सेवा कर, इसके पर्यावरण प्रदूषण को रोक, इसे सजा संवार कर रख। तब यह भी युग युग तक तेरी सेवाकरती रहेगी।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्रस्तारपङ्कि १२+१२-८+८=४० की होती है, यहाँ ११+१३+५+५+६=४० को प्रस्तारपङ्कि कहा गया है।

२. भवतीति भूः ।।

३. भवन्ति पदार्था अस्यामिति भूमिः ‘भुवः कित्’ उ० ४.४६ से मिप्रत्यये तथा उसका किवद्भाव-द० ।।

४. दो अवखण्डने। दीयते अवखण्ड्यते इति दिति:, न दिति: अदितिःअनवखण्डनीया । निरुक्त में– अदितिः अदीना देवमाता, निरु० ४.४९,दाङ क्षये ।।

५. विश्वं धापयति दुग्धं पाययतीति विश्वधायाः, घेट् पाने ।

६. माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः , अ० १२.१.१२|

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार 

सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार

सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः : विरूपः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

अग्निर्योतिष ज्योतिष्मान् रुक्मो वर्चस वर्चस्वान्। सहस्रदाऽअसि सहस्त्राय त्वा

-यजु० १३।४०

हे विद्वन् ! ( अग्निः ) अग्रनायक आप ( ज्योतिषा) विद्या की ज्योति से ( ज्योतिष्मान् ) ज्योतिर्मय हैं। ( रुक्मः ) अध्यात्म रुचिवाले स्वर्णसम आप (वर्चसा ) ब्रह्मवर्चस से (वर्चस्वान्) वर्चस्वी हैं। आप ( सहस्रदाः असि) सहस्त्र विद्याओं और गुणों के दाता हैं, (सहस्राय त्वा ) सहस्त्र विद्याओं और गुणों की प्राप्ति के लिए आपको [वरण करतेहैं]।

किसी भी समाज या राष्ट्र में विद्वानों का विशेष महत्त्व होता है। जहाँ विद्वान् लोग बड़ी संख्या में हैं, वहाँ विद्या का प्रचार भी अधिक होता है। वह राष्ट्र ज्ञान-विज्ञान में भी अग्रणी होता है। मन्त्र विद्वान् को सम्बोधन कर रहा है। हे विद्वन् ! अग्रनायक आप विद्या की ज्योति से ज्योतिष्मान् हैं। जैसे अग्नि से भौतिक ज्वालाएँ निकलती हैं, वैसे ही आपके मुख से ज्ञानप्रकाश की ज्वालाएँ निकलती हैं। जैसे अग्नि अशुद्ध स्वर्ण को मलिनता को दग्ध करके स्वर्ण को निखार देता है। वैसे ही आप अज्ञान को दग्ध करके मनुष्य को विशुद्ध ज्ञानी बना देते हो। हे विद्वन् ! जहाँ विद्याओं का धन आपके पास है, वहाँ आपकी अध्यात्म रुचि और आपका योगाभ्यास आपको ब्रह्मवर्चस्वी तथा योगी बना रहा है। ब्रह्मवर्चस्वी और योगी आप महात्मा और ऋषि की पदवी प्राप्त कर रहे हो। हे वैदुष्य और अध्यात्म विद्या के धनी विद्वन् ! आप ‘सहस्रदा:’ हैं,  सहस्रों विद्याओं-उपविद्याओं और सहस्र गुणों के दाता हैं, सहस्र योगक्रियाओं के दाता हैं। सहस्त्र विद्याओं, उपविद्याओं, सहस्र गुणों और सहस्र योगविद्याओं की प्राप्ति के लिए मैंआपको गुरु के रूप में वरण करता हूँ। |

आप मुझे पहले अपरा विद्या का ज्ञान दीजिए, मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष का पण्डित बनाइये। मझे दर्शनशास्त्र पढ़ाइये, इतिहास और धर्मशास्त्र का अध्यापन कराइये, सूर्यविज्ञान सिखाइये, भौतिक विज्ञान में निष्णात कीजिए। फिर अध्यात्म रुचिवाले और निखरे स्वर्ण के समान शुद्धबुद्धि तथा सदाचारी आप मुझे परा विद्या भी सिखाइये। परा वह विद्या है, जिससे अक्षर ब्रह्म का, अविनश्वर परमेश्वर का साक्षात्कार होता है। जो ज्ञान मुण्डक उपनिषद् में अङ्गिरस ऋषि ने शौनक को दिया है, वह ज्ञान आप मुझे दीजिए। परब्रह्म के कार्यों का विवरण सुनाइये। वह सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का धारण, सृष्टि का संहार कैसे करता है, यह सब समझाइये । प्रणव को धनुष बना कर, आत्मा को शर बना कर, ब्रह्म को लक्ष्य बना कर कैसे अप्रमत्त होकर लक्ष्यवेध किया जाता है, इसका क्रियात्मक अभ्यास कराइये। मुझे ध्यानयोग में निष्णात कीजिए।

हे गुरुवर ! आप अग्नि हैं, आप सुवर्ण हैं, मुझे भी अग्नि और सुवर्ण बना दीजिए। मैं आपकी शिष्यता स्वीकार करता हूँ। संसारचक्र में भ्रमते हुए मुझे ऊपर उठा कर ब्रह्मलोक में पहुँचा दीजिए। तब मैं आत्मविभोर होकर गाऊँगा, पृथिवी से उठकर मैं अन्तरिक्ष में आया, अन्तरिक्ष से द्युलोक में आया और द्युलोक से उठकर स्वर्लोक में पहुँच गया हूँ, जहाँ आनन्द ही आनन्द है, आनन्द ही आनन्द है।

पाद-टिप्पणी

१. रुक्मः, रुच दीप्तौ अभिप्रीतौ च। अध्यात्मरुचिः स्वर्णश्च । ‘रुक्म=हिरण्य,निघं० १.२’ ।

सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार 

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः उशनाः । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः निवृद् ब्राह्मी बृहती।

कुलायिनी घृतवती पुरन्धिः स्योने सीद सदने पृथिव्याः। भि त्वा रुद्रा वसवो गृणन्त्विमा ब्रह्म पीपिहि सौभगायश्विनाध्वर्यु सादयतामिह त्वा

-यजु० १४।२

हे (स्योने ) सुखकारिणी नारी! ( कुलायिनी ) प्रशस्त घरानेवाली, (घृतवती ) प्रशस्त दीप्ति’ वाली, ( पुरन्धिः ) बुद्धिमती तू ( पृथिव्याः सदने ) मातृभूमि के राष्ट्रपति-सदन में (सीद ) स्थित हो। ( रुद्राः ) वानप्रस्थ विद्वगण, ( वसवः ) गृहस्थ विद्वद्गण (त्वाअभिगृणन्तु) तुझे आशीर्वाद दें। तू ( सौभगाय) सौभाग्य के लिए (इमा ब्रह्म ) इन आशीर्वादों को ( पीपिहि) ग्रहण कर । ( अश्विना ) तेरे माता-पिता और ( अध्वर्यु) यज्ञ के संयोजक और ब्रह्मा ( त्वा) तुझे ( इह ) इस राष्ट्रपति-सदन में ( सादयताम् ) स्थित करें।

हे देवी! प्रजा ने तुम्हें मातृभूमि के राष्ट्रपति-पद पर सर्वसम्मति से चुना है। तुम ‘कुलायिनी’ हो, ‘कुलाय’ नीड को कहते हैं, तुम प्रशस्त घराने से उत्पन्न हो। तुम ‘घृतवती’ अर्थात् दीप्तिमयी हो। तुम ‘पुरन्धि’ अर्थात् बुद्धिमती हो। तुम ‘स्योना’ अर्थात् प्रजा को सुख देने में समर्थ हो। तुम मातृभूमि के इस राष्ट्रपति-सदन में स्थित होकर राष्ट्रपति के कर्तव्यों का पालन करो। रुद्र और वसु अर्थात् वानप्रस्थ और गृहस्थ विद्वज्जन तुम्हें आशीर्वाद दें, तुम्हारे सम्बन्ध में दो शब्द कहें, तुम्हें उद्बोधन दें, तुम्हारे उत्तरदायित्व को तुम्हें स्मरण करायें, तुम्हारा अभिनन्दन करें । तुम इन आशीर्वचनों को ग्रहण करो, यजुर्वेद- ज्योति हृदयङ्गम करो, धरोहर की तरह अपने मन में संजो कर रखोऔर समय समय पर स्मरण कर लिया करना कि जनता के प्रतिनिधियों ने किन कामनाओं और आशाओं के साथ तुम्हें इस पद पर प्रतिष्ठित किया है। इससे तुम्हें कर्तव्य-पालन के लिए बल मिलेगा और तुम्हारा सौभाग्य बढ़ेगा, तुम्हारी और राष्ट्र की प्रतिष्ठा को चार चाँद लगेंगे। यज्ञ के संयोजक और ब्रह्मा तुम्हें राष्ट्रपति-सदन में प्रतिष्ठित कर रहे हैं।

याद रखना तुम्हें इस पद पर लाने में उस गरीब जनता का भी योगदान है जो झोंपड़ियों में रहती है और उन पूँजीपतियों का भी हाथ है, जो वैभवसम्पन्न कोठियों में निवास करते हैं। आपको गरीबी-अमीरी का भेद मिटा कर विषमता दूर करनी है। इस यज्ञमण्डप में विद्वान् और निरक्षर सभी स्त्री पुरुष आपकी आरती उतार रहे हैं। आशा है आप सभी को साक्षर की श्रेणी में ला सकेंगी। हम चाहते हैं कि जब आपका कार्यकाल पूरा होने पर हम आपका विदाई– समारोह करें, तब गौरव के साथ कह सकें कि आपने जैसे देश को अपने हाथ में लिया था, उसे बहुत आगे बढ़ाकर पद छोड़ रही हैं। जनता आपकी है, आप जनता की हैं। राष्ट्रपति रहते हुए भी आप जनता के बीच आएँ, जनता के सुख-दु:ख को देखें, वे दु:ख दूर करें। आप सफल हों, आपका गौरव गान हो। हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. घृतदीप्ति, घृ क्षरणदीप्त्योः ।

२. पुरन्धिः बहुधीः, निरु० ६.५१।।

३. पि गतौ अस्मात् शप: श्लुः, तुजादित्वाद् अभ्यासस्य दीर्घश्च-२० ।

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार 

बल और संग्राम का अधिपति -रामनाथ विद्यालंकार

बल और संग्राम का अधिपति -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री।

अयमग्निः सहस्रिणो वार्जस्य शतिनस्पतिः। मूर्धा कूवी रयीणाम्

-यजु० १५ । २१ |

( अयम् ) यह (अग्निः ) अग्रनायक परमेश्वर (सह त्रिणः) सहस्र गुणों से युक्त (वाजस्य) बल का और ( शतिनः ) सौ सैन्य बलों से युक्त ( वाजस्य ) संग्राम का (पतिः) अधिपति है, ( रयीणां मूर्धा ) ऐश्वर्यों का मूर्धा है, ( कविः ) क्रान्तद्रष्टा है।

आओ, तुम्हें एक विशिष्ट अग्नि की गाथा सुनायें । यह अग्नि पार्थिव आग, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् और द्युलोकस्थ सूर्याग्नि से बढ़कर है। ये भौतिक अग्नियाँ उसी विशिष्ट अग्नि की भा से भासभान होती हैं। वह ‘अग्नि’ है अग्रनायक, तेज:पुञ्ज, हृदयों में सत्य, न्याय और दया की बिजली चमकानेवाला परमेश्वराग्नि। वह ‘वाज’ का अधिपति है। ‘वाज’ बल को भी कहते हैं और संग्राम को भी । वह सहस्र गुणगणों से युक्त बल का अधिपति है। उसका बल बड़े से बड़े बलियों के बल से अधिक है। उसका बल बड़े से बड़े यन्त्रों के बल को मात करता है। उसका बल अकेला ही भूगोल-खगोल का सर्जन, धारण और संहरण करने में समर्थ है। उसमें केवल बल ही नहीं है, बल के साथ सहस्र गुणगण भी विद्यमान हैं। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, जगदादिकारण, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, सर्वजगदुत्पादक, सनातन, सर्वमङ्गलमय, करुणाकर, परम सहायक, सर्वानन्दयुक्त,  सकलदुःखविनाशक, अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, परमैश्वर्यनायक, साम्राज्यप्रसारक, पतितपावन, विश्वविनोदक, विश्वासविलासक, निरञ्जन, निर्विकार, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, दारिद्रयविनाशक, सुनीतिवर्धक, निर्बलपालक, ज्ञानप्रद, धर्म-सुशिक्षक, पुरुषार्थप्रापक, विश्ववन्द्य आदि है। इस प्रकार वह सहस्रगुणगणयुक्त बल के माहात्म्य से समन्वित है। ‘वाज’ का संग्राम अर्थ लें तो वह सैन्य बलों वाले संग्राम का अधिपति भी है। जिस संग्राम में शत सेनाएँ आ भिड़ती हैं, ऐसे संग्राम का नेतृत्व करनेवाला और विजयी होनेवाला तथा विजयी करनेवाला भी वह है। ये शतसंख्यात सेनाएँ अविद्या, दुराचार, दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य आदि हैं, जो काम-क्रोध-लोभ सैनिकों की हैं । इस अध्यात्म संग्राम रूपी ‘वाज’ का भी वह अधिपति है, नायक है। वह ऐश्वर्यों का मूर्धा भी है, सब भौतिक और आध्यात्मिक ऐश्वर्योंका वह मूर्धाभिषिक्त राजा है। वह ‘कवि’ भी है, वेदकाव्य का कवि और क्रान्तद्रष्टा है, दूरदर्शी है। |

आओ, हम सब मिलकर उस परमेशरूप अग्निदेव के गुण-कर्मों को स्मरण करते हुए उसका जयगान करें।

पादटिप्पणियाँ

१. वाज=बल, संग्राम, निघं० २.९, २.१७॥

२. द्रष्टव्य : भगवद्गीता, अध्याय १६ ।।

बल और संग्राम का अधिप ति-रामनाथ विद्यालंकार 

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार   

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

अयमग्निर्वीरर्तमो वयोधाः संस्त्रियों द्योतमप्रंयुच्छन्। विभ्राज॑मानः सरिरस्य मध्य॒ऽउप प्र याहि दिव्यानि धाम ॥

-यजु० १५।५२

( अयम् अग्निः ) यह जननायक (वीरतमः ) सर्वाधिक वीर, ( वयोधाः ) दूसरों के जीवनों को धारण करनेवाला, ( सहस्त्रियः ) अकेला सहस्र के तुल्य (अप्रयुच्छन् ) प्रमाद न करता हुआ ( द्योतताम् ) चमके। हे वीर ! (सरिरस्य मध्ये ) जनसागर के बीच (विभ्राजमानः ) देदीप्यमान होता हुआ तू ( दिव्यानि धाम) दिव्य धामों अर्थात् यशों को ( उप प्र याहि ) प्राप्त कर।

जननायक को वेद में अग्नि कहा गया है, क्योंकि वह जनों का अग्रणी या अग्रनेता होता है और अग्नि के समान जाज्वल्यमान, तेजस्वी तथा ऊर्ध्वगामी होता है। हमारा जननायक ‘वीरतम’ है, सर्वाधिक वीर है। वह शरीर से भी वीर है, मन से भी वीर है, आत्मा से भी वीर है। वह वयोधाः’ है, असहायों के जीवनों को सहारा देनेवाला है। वह ‘सहस्रिय’ है, अकेला सहस्र के बराबर है। जब शत्रु से रण ठनता है। या समाज पर कोई अन्य विपदा आती है, तब वह सहस्र विरोधियों से लोहा ले सकता है। परन्तु इन महान् गुणों से युक्त भी जननायक यदि प्रमादी हो जाए, तो ये सब गुण व्यर्थ हो जाते हैं। अतः हम चाहते हैं कि हमारा जननायक कभी प्रमाद ने करता हुआ, सदा अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ द्युतिमान् बना रहे। प्रमाद कालिमा है, कर्तव्यपालन ज्योति है। प्रमाद की कालिमा से काला होकर मनुष्य अपनी द्युति खो बैठता है। |

हे जननायक! तुम ‘सलिल’ के मध्य खड़े हो । सलिल पानी को कहते हैं। जब अग्निस्तम्भ पानी के बीच में खड़ा होता है तब लहर-लहर में उसकी छवि दिखायी देती है। तुम भी पानी के बीच खड़े के समान हो, क्योंकि यह जने-सागर तुम्हारे चारों ओर हिलोरें ले रहा है। यह जन-सागर तुम्हारी मित्रभूत प्रजाओं का भी हो सकता है और शत्रु-जनों का भी। मित्रों के मध्य ज्योतिस्तम्भ के समान खड़े तुम जन-जन पर अपनी आभा बखेरो, जन-जन को अपनी ज्योति से द्योतित करो। शत्रुओं के मध्य ज्योतिस्तम्भ के समान खड़े हुए तुम उनके तेज की म्लान करो। हे जननायक! तुम अपने नेतृत्व द्वारा प्रजा का सङ्कटों से उद्धार कर दिव्य धामों को, अलौकिक यशों को प्राप्त करो। प्रजा तुम्हें पुकार रही है। आओ, स्वयं सङ्कट मोल लेकर प्रजा को सङ्कट से छुड़ाओ। राष्ट्र एक होकर तुम्हारा जयजयकार करेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. सहस्रेण संमित: तुल्यः सहस्रियः। ‘सहस्रेण संमितौ घः’ पा०४.४.१३५, सहस्र शब्द से तुल्य अर्थ में घ=इय प्रत्यय।।

२. युछी प्रमादे-शतृ । न प्रयुच्छन्=अप्रयुच्छन्।

३. सरिर=सलिल= जल। निघं० १.१४। सलिल बहु-वाचक भी है,निघं० ३.१।।

४. दिव्यानि धाम-दिव्यानि धामानि । ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ पा० ६.१.७०से शि का लोप। धामानि त्रयाणि भवन्ति, स्थानानि नामानि जन्मानाति–निरु० ९.२२ ।।

जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार