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न्याय दर्शन द्वरा ईश-विचार

nyaya darshan

 

लेखक – पं बुद्धदेव मीरपुरी 

न्याय दर्शन द्वरा ईश-विचार

 

कतिपय पंडितो को यह भ्रम है कि न्यायदर्शन में परमात्मा का वर्णन नहीं है, इसलिए न्याय के प्रमाण से भी ब्रह्म कि सत्ता सिद्ध कि जाती है-

 

तत् कारितत्वादहेतु: || – ४.१.२१

 

यह ठीक है कि बिना कर्म किये परमात्मा फल नहीं देता, किन्तु कर्म करनेवाले जीवों पर ईश्वर अनुग्रह करता है | अनुग्रह या दया का अर्थ है-

 

यघथा भूतं यस्य च यदा विपाककालस्ततथा तदा विनियुक्तम |

 

जो कर्म जैसा हो और जिसका जब विपाक का काल हो, उसका फल कर्म के अनुसार उसी समय में देना, यही ईश्वर का अनुग्रह या दया है |

 

शंका– जो लोग वेद-शास्त्र को नहीं मानते उनके लिए परमात्मा के होने में क्या प्रमाण है ?

 

समाधान – सृष्टि के बनने से प्रथम प्रकृति या परमाणु में संसार कि रचना के लिए जो गति उत्पन्न होती है वह परमात्मा कि ओर से होती है, क्यों कि प्रकृति जड़ है, इसलिए उसमे ज्ञानपूर्वक गति उत्पन्न नहीं हो सकती |

 

दूसरी बात यह है कि धर्माधर्म का फल जड़ प्रकृति नहीं दे सकती, वह परमेश्वर के ही अधीन है | यदि कहो कि जीव को अपने आप कर्म का फल मिल जाता है तो यह भी ठीक नहीं, कोई भी प्राणी पाप के फल दुःख को नहीं चाहता, किन्तु सबको दुःख भोगना पड़ता है | इससे सिद्ध है कि कर्म के अनुसार दुःख का फल देनेवाला कोई दूसरा ही है, जो हमारी इच्छा न होते हुए भी हमे कष्ट में दाल देता है |

 

शंका– संसार में जो भी किसी कार्य को करता है, वह सक्रिय होता है | ऐसा कोई भी उदाहरण दिखाई नहीं देता जिससे यह सिद्ध होता हो कि कर्ता निष्क्रिय होता है, इस न्याय से यदि परमात्मा सृष्टि का कर्ता है तो उसको भी सक्रिय मानना पडेंगा, यदि सक्रिय वाही वस्तु हो सकती है जो एकदेशी हो, किन्तु परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है, इसलिए सक्रिय नहीं हो सकता और सक्रिय न होने से सृष्टि का कर्ता भी नहीं हो सकता है |

 

समाधान – इस शंका के नीचे लिखे समाधान है –

 

१.       जैसे अयस्कांतमणि स्वयं निष्क्रिय होते हुए भी लोहे में गति=क्रिया उत्पन्न कर देती है, उसी प्रकार ईश्वर स्वयं निष्क्रिय होते हुए भी परमाणुओ में गति उत्पन्न कर देता है |

 

२.       कुम्भकार का आत्मा मन में संयुक्त होता है तथा मन हाथ से संयुक्त होता है और हाथ डंडे से तथा डंडा चाक से संयुक्त होकर जैसे चाक में क्रिया उत्पन्न कर देता है वैसे ही परमात्मा सब वस्तुओं के अंदर विद्यमान है, अत: सम्बन्ध मात्र से प्रत्येक पदार्थ में क्रिया उत्पन्न कर देता है |

 

३.       क्रिया दो प्रकार कि होती है | एक उत्क्षेपण – उपंर फेकना, नीचे फेकना आदि तथा दूसरी आख्यातशब्द वाच्य, अर्थात अस्ति, भवति आदि सब क्रियाएँ है, अत: दूसरी स्वतंत्रता रूपी क्रिया परमात्मा में विद्यमान है | पाणिनि जी का सूत्र भी है – ‘स्वतंत्र: कर्ता ‘ अत: स्वतंत्र होने से परमात्मा का कर्ता होना सिद्ध है | परमात्मा की स्वतंत्रता यह है की वह सृष्टि के बनाने में किसी नेत्र आदि इन्द्रिय की या किसी दूसरे कर्ता की सहायता नहीं लेता |

 

४.       प्रभु में क्रिया – जनकत्व शक्ति विद्यमान है, वह सन्निधिमात्र से दूसरे पदार्थ में क्रिया उत्पन्न कर देता है, इसलिए उपनिषद में लिखा है – “ स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च “ परमात्मा में ज्ञान, बल, तथा क्रिया स्वाभाविक है |

 

शंका – जो-जो कर्ता होता है वह-वह सदैव – देहधारी होता है | अत: यदि परमात्मा सृष्टि का कर्ता है तो उसे सदेह मानना पडेंगा | यदि वह सदेह है तो हमारी भाती सुख-दुःख का भोक्ता होने से अनीश्वर ठहरेंगा |

 

समाधान – इसके उत्तर निम्न है –

 

१.       इस बात को तो पौराणिक भी मानते है की सृष्टि के बनाने से पूर्व परमात्मा निराकार-अदेहधारी था | यदि वह अदेह होता हुआ अपने देह का निर्माण कर सकता है तो अशरीर होता हुआ सृष्टि का निर्माण क्यों नहीं कर सकता ?

 

२.       यदि मान भी लेवे की उसका देह है तो भी यह आकांक्षा होती है की उसकी देह कितनी बड़ी है, यदि बड़ी माने तो मच्छर के अंडे के अंदर उसकी आँख नहीं बना सकता और सुक्ष्म माने तो इतने बड़े सूर्य को नहीं बना सकता, अत: मानना पडेंगा कि वह परमेश्वर अदेह होता हुआ भी सम्बन्ध मात्र से सृष्टि कि रचना कर देता है |

 

शंका – परमेश्वर सृष्टि कि रचना सापेक्ष – किसी साधन को लेकर करता है या निरपेक्ष बिना किसी साधन के करता है | यदि कहो साधन से करता है तो इस साधन का कर्ता न होने से कर्ता नहीं हो सकता अगर कहो बिना साधन के सृष्टि कि रचना करता है तो कर्म कि भी कोई आवश्यकता नहीं है |

 

समाधान – यह आवश्यक नहीं है कि कर्ता जिस कार्य को किसी साधन से करता है, वह साधन भी उसका बनाया हुआ हो और यह भी आवश्यक नहीं है कि कोई भी साधन कर्ता का बनाया हुआ न हो, संसार में दोनों प्रकार के उदाहरण पाए जाते है | कही तो साधनों का निर्माता न होता हुआ भी उनसे काम लेता है, जैसे- कान, नाक, आँखे, आदि हमारे बनाये हुए नहीं, फिर भी हम उनसे काम करते है और कही पर साधन भी कर्ता के बनाये हुए होते है जैसे – लुहार स्वयं अपने साधनों को बनाकर उनसे बहोत सी वस्तुओ को बनाता है वैसे ही प्रकृति आदि परमात्मा के बनाये हुए नहीं, फिर भी उनके द्वारा सृष्टि कि रचना करता है |

 

शंका – कोई भी व्यक्ति बिना किसी प्रयोजन के कार्य नहीं करता, फिर पूर्णकाम होते हुए इतनी बड़ी सृष्टि कि रचना परमात्मा ने क्यों कि ?

 

समाधान – कई कहते है कि खेल के लिए परमात्मा ने सृष्टि कि रचना कि है, किन्तु यह कथन ठीक नहीं, क्यों कि रति के लिए और दुःख को दूर करने के लिए क्रीडा कि जाती है और परमात्मा में दुःख का अभाव है, अत: खेल के लिए संसार कि रचना करना उचित नहीं | दूसरे कहते है कि अपनी विभूति बतलाने के लिए ईश्वर ने संसार कि रचना कि है यह भी ठीक नहीं, क्यों कि पूर्णकाम को क्या आवश्यकता है कि वह अपने-आप को दूसरे पर प्रकट करे | संसार कि रचना करना तथा करना परमात्मा का स्वभाव ही है |

 

शंका – ईश्वर द्रव्य है या गुण ? यदि कहो द्रव्य है तो विशेष गुणों का आश्रय होने से एक आत्मा ही सिद्ध हो जायेंगा |

 

समाधान – विशेष गुणों के होने से सब वस्तुए एक नहीं हो जाती, जैसे जीव में विशेष गुण है तथा पृथ्वी में भी, किन्तु पृथ्वी आत्मा या आत्मा पृथ्वी नहीं हो जाता |

 

|| इति ||

 

निश्चिन्त सिद्धांत

principal

निश्चित सिद्दांत

 

१. किसी भी तत्व में परस्पर विरोधी गुण नहीं होते है |

 

२. किसी एक तत्व का स्वयं पर बिना किसी दुसरे तत्व के परिणाम नहीं होता |

 

३. किसी भी तत्व को स्वयं के स्वरूप (गुणों) की प्रतीति नहीं होती |

 

४. जड़ तत्व को स्वयं की या किसी दुसरे तत्व की अनुभूति नहीं होती है ! जिसे अनुभूति होती है वह तत्व चेतन  है |

 

५. जिस वस्तु का सर्वथा अभाव है उस वस्तु का कभी भाव नहीं हो सकता |

 

६. कोई भी मूल तत्व अपने गुणों (स्वभाव) का त्याग नहीं करता है |

 

७. कोई भी तत्व अपने स्वाभाविक गुणों (स्वभाव) का त्याग करता है, तो वह तत्व अपना अस्तित्व अथवा स्वरूप खो देता है |

 

८. व्यापक तत्व का अंष नहीं हो सकता ,क्यों की अंष होने के लिए कही जगह नहीं है |

 

९. किसी भी तत्व में उस तत्व से सुक्ष्म तत्व रह सकता है या रहता है पर स्थूल तत्व नहीं रह सकता |

 

१०. जिस तत्व का भाव है,उस तत्व का सर्वथा कभी अभाव नहीं हो सकता |

 

११. कारण के गुणों का या स्वभाव का कार्य में अभाव नहीं होता |

 

१२. जिस वस्तु का सर्वथा अभाव है,उस वस्तु का कभी भ्रम नहीं होता और उस वस्तु का कभी स्वप्न भी नहीं आता है |

 

१३. एक मूल तत्व में दुसरे मूल तत्व का मिश्रण(एकाकार)नहीं हो सकता है |

 

१४. किसी (जड़ या चेतन) मूल तत्व का कभी सर्वथा नाश नहीं होता | जड़ का अपने कारण में लय होता है और चेतन एकरूप,अपरिवर्तनशील रहता है |

 

१५. किसी भी प्राणी के स्वयं के विचारो (भाव) के कारण उसकी संतति में आकृति परिवर्तन नहीं होता है | जाती भले ही नष्ट हो जाये पर किसी प्रकार का असाधारण परिवर्तन नहीं आता है |

 

१६. प्रत्येक कार्य अपने योग्य कारण से उत्पन्न होता है , शुन्य में से नहीं या दुसरे वस्तु से नहीं | जैसे तिल से ही तेल निकलता है रेत से नहीं |

 

१७. जो मूल कारण होगा वह निश्चित रूप से अव्यक्त होगा | यदि उसे व्यक्त कहा जाय तो वह मूल कारण नहीं माना जा सकता | कार्य रूप में परिणित होना व्यक्त का स्वरूप है  |

 

१८. किसी भी प्राणी को भोग प्राप्ति की तीव्र इच्छा होती है और यह तीव्र इच्छा होना ही प्रमाणित करता है की भोग तत्व से इच्छा करनेवाला तत्व दूसरा है,क्यों की भोग स्वयं का नहीं हो सकता |

 

१९. कोई भी ऐसा पदार्थ जिसका किसी रूप में विश्लेषण अथवा विच्छेदन हो सकता हो वह तत्व मूल तत्व होना संभव नहीं | वह अवश्य किन्ही तत्वों अथवा अवयवो के संगठन का परिणाम कहा जा सकता है |

 

२०. जन्मांद व्यक्ति को कभी रूप का स्वप्न नहीं आता है |

 

२१. कोई भी तत्व स्वयं के स्वरूप का भोक्ता नहीं होता है | भोग से भोक्ता अन्य तत्व ही होता है |

 

२२. जो कर्ता है वाही भोक्ता है |

 

२३. भ्रम और स्वप्न से किसी वस्तु की उत्पति नहीं होती है ,यह प्रत्यक्ष देखा जाता है |

 

२४. व्यक्ति के स्वप्न का आधार जाग्रत अवस्था में देखि हुई वस्तु ही होती है | स्वप्न की यह वस्तुए अस्त-व्यस्त होते हुए भी जाग्रत में देखे हुए का ही प्रतिभिम्ब है |

 

२५. एक व्यक्ति की अनुभूति से अथवा तृप्ति से दुसरे व्यक्ति या अर्थात आत्मा की तृप्ति या अनुभूति नहीं होती |

 

२६. किसी प्रमाण,तर्क,या दृष्टान्त के आधार पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता, की कोई मूल तत्व स्वयं किसी रूप या कार्य में परिणित हो जाये |

 

२७. ब्रह्मांडो की उत्पत्ति से पहले किसी भी तत्व का अस्तित्व नहीं था और यह जगत शुन्य में से निर्मित हुआ, ऐसा विचार किसी तर्क या प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता |

 

२८. एक मात्र तत्व ही उपादान,वही निमित ,वही कार्य,वही कारण,वही जड़ और वही चेतन आदि.. ऐसा किसी भी तर्क या प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता |

 

२९. कोई भी कार्य अथवा विकार बनता और बिगड़ता रहता है |

 

३०. चट्टानों या अन्य पदार्थो का संयोग और वियोग यह सिद्ध कर्ता है की जगत का भी संयोग और वियोग होता है क्यों की जगत छोटे छोटे परमाणु से बना सिद्ध होता है |

 

संसार में कोई ज्ञात तत्व स्वत: परिणित होते नहीं देखा जाता है |

 

३१. जिसे ज्ञान होता है, प्रतीति होती है,जो प्रयत्नशील है,जिसे सुख दुःख की अनुभूति होती है उसे आध्यात्मिक भाषा में आत्मा कहते है और जिसे ऐसे प्रतीति नहीं होती है उसे जड़ कहते है|

 

३२. कोई भी मूल तत्व स्वत: कार्य रूप में परिणित होने में असमर्थ है | अत: उसे कार्य रूप में परिणित होने में एक चेतन के प्रेरणा चाहिए |

 

३३. कोई भी अनुभव चेतन (आत्मा) के होने का प्रमाण है | चेतन के अस्तित्व के बिना अनुभव हो ही नहीं सकता |

 

३४. प्रत्येक वस्तु की सत्ता अथवा असत्ता का तथा उनके स्वरुप का निश्चय प्रमाणों के द्वारा किया जा सकता है इस तरह से मूल तत्व तक पंहुचा जा सकता है |

 

३५. कार्य कारण परंपरा से विचार करते हुए मूल तत्व तक पंहुचा जा सकता है |

 

३६. दुःख किसी तत्व का स्वाभाविक गुण नहीं है , दुःख प्रतिकूल परिस्तित्यो से उत्तपन होता है अथवा प्रतिकूल परिस्तिती दुखदायी होती है |

 

३७. एक आत्मा (जीवात्मा) को दुसरे आत्मा की अनुभूति शरीर के माध्यम से होती है अन्यथा नहीं हो सकती है |

 

३८. अँधियारा या अँधेरा कोई तत्व नहीं है,जहा प्रकाश का अभाव है उसे अँधियारा या अँधेरा कहते है |

 

३९. किसी भी कार्य का अस्तित्व कारण को छोड़कर अतिरिक्त पृथक नहीं हो सकता |

 

४०. दुःख की प्रतीति और उसकी निवृति के लिए प्रयत्न चेतन तत्व अर्थात जीवात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को सिद्ध करता है |

 

४१. अगर चेतना अर्थात आत्मा प्रकृति के विशेष अवस्था से उत्पन्न हुई होती, तो उसे प्रकृति से उत्पन्न होने वाले दुःख की प्रतीति न होती और वह उससे छुटने का प्रयत्न न करता |

 

४२. कोई भी परिणामी तत्व अपने लिए किसी प्रयोजन को सिद्ध नहीं करता है | और प्रत्येक परिणामी तत्व अचेतन है | इससे सिद्ध होता है की परिणामी तत्व किसी दुसरे परिणामी तत्व का अनुमान कराता है,जिसके लिए उस परिणामी तत्व का अस्तित्व है |

 

४३. जैसे शरीर के रहते हुए रोज नहाने से भी शरीर मल नाश्ता नहीं होता| ऐसे ही कामना के रहते हुए दुःख नष्ट नहीं होता |

 

४४. संसार का हर प्राणी इस संसार का भोग अपनी शारीरिक रचना और अपनी बुद्धि अनुसार अलग अलग भोग करता है | दुःख सुख का अनुभव करता है,पर एक का दुःख सुख दूसरा अनुभव नहीं कर सकता | इससे यह सिद्ध होता है की हर देह का आत्मा अलग है,सब देह का आत्मा एक नहीं प्राणी रूप से अनेक है |

 

४५. कोई भी परिणामी तत्व अपने मूल उपादान के बिना नहीं हो सकता यह नियम है |

 

४६. कोई भी कार्य अस्तित्व में आने से पहेले अपने कारण में लिन रहता या विद्यमान रहता है |

 

४७. चित्त वृतियो का निरोध होना ही “ध्यान” है. सास की फु फा नहीं |

 

४८. प्रत्येक व्यक्ति “मै हु” इस सोच से आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है | मिट्टी,अग्नि,जल इत्यादि तत्व नहीं कहते मै हु |

 

४९. यदि अचेतन प्रकृति कल्पना मात्र है, उसकी वास्तविक सत्ता कुछ भी नहीं है तो जीवात्मा के भोग,तृप्ति,मुक्ति,प्रयत्न,आदि भी यहाँ संभव नहीं |

 

५०. पहेले संभंध,संभंध से इच्छा,इच्छा के बाद संकल्प,संकल्प के बाद प्रवृति!इसी क्रम से मनुष्य कर्म करने में प्रवृत होता है |

 

 

परमात्मा का स्वरुप

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परमात्मा – अर्थात परम याने पूज्यनीय,आत्मा याने सर्वत्र उपलब्ध पूरा अर्थ है, जो पूजने लायक है, उपासना के योग्य है उस जैसा दूसरा कोई नहीं | आत्मा का दूसरा भी अर्थ है – जो सर्वत्र विचरण करता है, यह दोनों ही अर्थ एक दूसरे के विपरीत है और किसी भी एक तत्त्व में विपरीत योग्यता नहीं हो सकती | व्यापक भी होना और विचरण भी करना ऐसा नहीं हो सकता, इसलिए आत्मा दो है – एक आत्मा परमात्मा कहलाता है, जो व्यापक है और दूसरा जीवात्मा कहलाता है जो विचरण करता है जन्म – मृत्यु के द्वारा अनंत जन्मो में और लाखो योनियों में विचरता है |

 

परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, उससे रहित यहाँ न कोई वस्तु है, न कोई स्थान रिक्त ( वास्तव में “स्थान” नाम से यहाँ यह कहना है की रिक्त कुछ नहीं है ) है | परमात्मा सीमा रहित, अखंड, एक रस, एक रूप, अर्थात कही कोई छेद नहीं है, उसमे कोई बदलाव नहीं, उसका कोई परिणाम नहीं, उसका कोई परिमाण नहीं | न वह घटता है न वह बढता है | न वह सुक्ष्म है और न वह स्थूल है | परमात्मा किसे कहा है, वह कैसा है इस बात को समझना ( पर समझना जरा कठिन ही है ) है | तो हम इसे ऐसा समझ सकते है, की जो अनंत सृष्टि का पसारा है, अर्थात यह करोडो सूर्य मंडल, आकाश गंगाये जिसमे बनती बिगड़ती है जिसको सब,जगह कहते है | वास्तव में वह जगह नहीं है परमात्मा ही है | उस परम आत्मा में ऐसी विशेषता है, की वह इस सृष्टि के मूल  परमाणुओं को नित्य क्रियाशील रखता है, गति प्रधान करता है | अर्थात उसके ही कारण ये मूल परमाणु गति करते है और इस स्रष्टि का निर्माण और विनाश होता है | क्योंकि विरोधी शक्ति रहे बिना क्रिया संभव नहीं | कोई दो रहे बिना निर्माण संभव नहीं, और विनाश भी संभव नहीं |

 

स्व का स्व पे कोई असर नहीं होता इसलिए दो सिद्ध होते है | जैसे स्त्री-पुरुष के मिलन से संतान का निर्माण होता है ऐसे ही परमात्मा और प्रकृति ( मूल प्रकृति ) से ब्रह्मांडो का निर्माण-विनाश नित्य होता रहता है, जैसे यह सम्बन्ध नित्य है, तो सृष्टि रूपी कार्य भी नित्य है | उत्पत्ति और विनाश परस्पर विरोधी कार्य नहीं है, विनाश का अर्थ है अपने कारण मूल में जाना और फिर निर्माण होना | इसलिए इसे विशेष नाश कहा है सर्वथा नाश नहीं, यही सृष्टि का चक्र है | चक्र में जैसा कोई छोर नहीं होता, शुरवात या अंत नहीं होता वैसे ही यह सृष्टि रूपी चक्र है जो घूमता है | यही सुक्ष्म रूप परमाणु स्थूल रूप में आते है और फिर सुक्ष्म रूप में जाते है क्योंकि यही इनकी योग्यता है | ऐसी योग्यता परमाणुओं में नहीं होती तो यह रचना भी संभव न  होती, क्योंकि परमात्मा किसी के सामर्थ्य को बढाता भी नहीं और घटाता भी नहीं, यह तो प्रकृति में ही योग्यता है की वह परमात्मा के नित्य संपर्क से या स्पर्श से या संभंध से नित्य क्रियाशील बनी हुई है |

 

वास्तव में ऐसी कोई जगह यहाँ खाली नहीं है | जिसे हम खाली जगह समजते है या कहते है ( जिसमे इन ब्रह्मांडो का निर्माण और विनाश हो रहा है ) | कोई उसे शुन्य कहता है, वास्तव में वह परमात्मा ही है | परमात्मा कोई दो हाथ और दो पैर वाला नहीं, कही उसका कोई दरबार नहीं | वह एक ऐसा विशेष पदार्थ है, जिसे किसी भी तरह से देखा नहीं जा सकता, सुना नहीं जा सकता, स्पर्श नहीं किया जा सकता, चखा नहीं जा सकता, पकड़ा नहीं जा सकता | वह तो सिर्फ और सिर्फ बुद्धि से ही जाना जा सकता है, तर्क से ही जाना जा सकता है, शुद्ध विचारों से ही जाना जा सकता है, की सृष्टि से परे, मूल जड़ परमाणुओं से परे ऐसा कोई तत्व है जो इन जड़ परमाणुओं को क्रिया दे रहा है और इन ब्रह्मांडो को धारण कर रहा है | इस जड़ संसार से परे कोई शक्ति है जो इसे निरंतर गतिशील रख रही है | मै फिर से कहता हू की संसार का नियम है, की विरोधी दूसरी शक्ति रहे बिना उत्पन्न की क्रिया संभव नहीं | यही नियम मूल तक कार्य करता है, या यु कहिये जो मूल में कार्य कर रहा है वही ऊपर  प्रगट हो रहा है | उत्पत्ति के लिए दो या दो से ज्यादा तत्वों की आवश्यकता होती है | अकेला क्या कोई उत्पन्न करेंगा, चाहे जड़ हो या चेतन इसमें से किसी का खुद पर क्या असर होंगा असर तो एक का दूसरे पर होंगा और परिवर्तन होता है | संसार में कोई एक भी उदाहरण ऐसा दे सकता है की स्व का स्व पर असर होता हो ? आज का विज्ञानं भी ऐसी कोई क्रिया साबित नहीं कर सकता | न ऐसा कोई उदहारण मौजूद है | विरोधी शक्ति को, आश्रय की आवशयकता होती ही है, इसके बिना कोई भी कार्य संभव नहीं | ऐसे हम कैसे कह सकते है, की मूल में एक ही है कोई दो नहीं | क्या एक बिना किसी सहारे के बिना किसी दूसरे के कारण अनेक हो सकते है ? और यह जो दूसरा है वही परमात्मा है और खास बात वह दूसरा व्यापक ही हो सकता है एक देशी नहीं | मूल कण सर्वत्र है तो उसे गति देनेवाला भी सर्वत्र होना चाइये और जो उसके भीतर भी हो और बाहर भी तब ही तो कण क्रियाशील होंगे |  कण के भीतर और बाहर होने से उसकी व्यापकता सिद्ध होती है | सर्वव्यापक ही सर्वत्र कणों को गति दे सकता है, क्रियाशील रख  सकता है | संसार के इस रूप को, आकार को, सुंदरता को, निर्माण करने की या बिजो की योग्यता स्वयं प्रकृति में है |

 

परमात्मा को माने बिना, समझे बिना इस सृष्टि की पहेली भुज नहीं सकती, इस प्रश्न का हल नहीं हो सकता, परमात्मा को समझे बिना पूर्णता को पा नहीं सकता | परमात्मा को समझे बिना प्रकृति को कोई समझ नहीं सकता | जो मूल परमाणु है वह अव्यक्त होते है वही अव्यक्त परमाणु परमात्मा के संभंध से गतिशील होकर इस संसार रूप में व्यक्त होते है | अव्यक्त से व्यक्त, व्यक्त से अव्यक्त इसका जो मूल कारण है वही परमात्मा है | जो सदा अव्यक्त रहता है |

 

क्या वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित है |

वैदिक युग के पतन के बाद कर्म व्यवहार आधारित वर्ण व्यवस्था का स्थान जन्म आधारित घृणित जाती प्रथा ने ले लिया. जन्म आधारित प्रथा का स्थापन्न होने के वजह से सामाजिक बुराइयां अपने चरम पर पहुँच गयीं और कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का पूर्णतया  लोप हो गया. महर्षी दयानंदसरस्वती ने अपने अकाट्य तर्कों के आधार पर इस व्यवस्था का पुनर्स्थापन किया। महर्षी दयानंद ने इस बात का पुरजोर आगाज किया कि शुद्र के घर पैदा हुआ बालक अपने कर्मों के आधार पर ब्राहम्ण बन सकता है और ब्राहम्मण के घर उत्पन्न बालक यदी हींन कर्मों में लींन  है तो वह शुद्र कहलाने के योग्य है ब्राहम्मण नहीं।

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पौराणिक धर्म ग्रंथों में इसके अनेकों प्रमाण स्थान स्थान पर उपस्थित हैं जो यह सिध्ध करते हैं कि वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म ही था.

१. जमदग्नि की माता गाधी  की लड़की सत्यवती क्षत्राणी थी किन्तु वह ब्राहम्मण बने. महा।  अनु।  अ – ४

२. विश्वामित्र की माता क्षत्राणी थी किन्तु आप उसे जन्म से ही ब्राहम्मण मानते हैं।  महा।  अनु।  अ – ४

३. हरिणी के गर्भ  से पैदा होकर मुनि ऋष्यंग तप से ब्राहम्ण बन गए. ऐसा पौराणिकों की मान्यता है. यदी यहाँ भी देखा जाये तो ब्राहम्मण की पदवी प्राप्त होने का आधार संस्कार और व्यवहार ही है न कि जन्म आधारित व्यवस्था।

४. चाण्डाली के गर्भ से पैदा होकर व्यास का पिता पराशर तप से ब्राहम्मण बन गया

५. उलुकी के गर्भ से पैदा होकर महामुनि कणाद  तप से ब्राहम्मण बन गए इसमें भी संस्कार कारक की प्रधानता थी.

६. गणिका के गर्भ से पैदा होकर महामुनि वशिष्ठ  तप से ब्राहम्ण बन गए।

७. व्यास की माता सत्यवती ब्राहम्मण  न थी किन्तु व्यास जी ब्राहम्ण थे

९. कृपाचार्य की माता ब्राहम्णी न थी किन्तु वह ब्राहम्ण बन गए।

१० श्रवण कुमार के माता पिता दोनों ही ब्राहम्ण न थे लेकिन श्रवण कुमार ब्राहम्ण कहलाये।

 

ऐसे अनेकों ऐतिहासिक प्रणाम कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की पुष्टि के लिए उपलब्ध   हैं जो ये चीख चीख कर कहते है कि जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था  प्राचीन काल में भारत वर्ष में प्रचलित नहीं थी अपितु ये भी एक कुरीति के रूप में समाज में पैर पसारती चली गयी.

इस कुरीति का समूल उन्मूलन समाज के उत्थान के लिए अत्यंत आवश्यक है जिससे सामाजिक सांस्कृतिक उन्नती के नए नए आयाम चूमे जा सकें.