न्याय दर्शन द्वरा ईश-विचार

nyaya darshan

 

लेखक – पं बुद्धदेव मीरपुरी 

न्याय दर्शन द्वरा ईश-विचार

 

कतिपय पंडितो को यह भ्रम है कि न्यायदर्शन में परमात्मा का वर्णन नहीं है, इसलिए न्याय के प्रमाण से भी ब्रह्म कि सत्ता सिद्ध कि जाती है-

 

तत् कारितत्वादहेतु: || – ४.१.२१

 

यह ठीक है कि बिना कर्म किये परमात्मा फल नहीं देता, किन्तु कर्म करनेवाले जीवों पर ईश्वर अनुग्रह करता है | अनुग्रह या दया का अर्थ है-

 

यघथा भूतं यस्य च यदा विपाककालस्ततथा तदा विनियुक्तम |

 

जो कर्म जैसा हो और जिसका जब विपाक का काल हो, उसका फल कर्म के अनुसार उसी समय में देना, यही ईश्वर का अनुग्रह या दया है |

 

शंका– जो लोग वेद-शास्त्र को नहीं मानते उनके लिए परमात्मा के होने में क्या प्रमाण है ?

 

समाधान – सृष्टि के बनने से प्रथम प्रकृति या परमाणु में संसार कि रचना के लिए जो गति उत्पन्न होती है वह परमात्मा कि ओर से होती है, क्यों कि प्रकृति जड़ है, इसलिए उसमे ज्ञानपूर्वक गति उत्पन्न नहीं हो सकती |

 

दूसरी बात यह है कि धर्माधर्म का फल जड़ प्रकृति नहीं दे सकती, वह परमेश्वर के ही अधीन है | यदि कहो कि जीव को अपने आप कर्म का फल मिल जाता है तो यह भी ठीक नहीं, कोई भी प्राणी पाप के फल दुःख को नहीं चाहता, किन्तु सबको दुःख भोगना पड़ता है | इससे सिद्ध है कि कर्म के अनुसार दुःख का फल देनेवाला कोई दूसरा ही है, जो हमारी इच्छा न होते हुए भी हमे कष्ट में दाल देता है |

 

शंका– संसार में जो भी किसी कार्य को करता है, वह सक्रिय होता है | ऐसा कोई भी उदाहरण दिखाई नहीं देता जिससे यह सिद्ध होता हो कि कर्ता निष्क्रिय होता है, इस न्याय से यदि परमात्मा सृष्टि का कर्ता है तो उसको भी सक्रिय मानना पडेंगा, यदि सक्रिय वाही वस्तु हो सकती है जो एकदेशी हो, किन्तु परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है, इसलिए सक्रिय नहीं हो सकता और सक्रिय न होने से सृष्टि का कर्ता भी नहीं हो सकता है |

 

समाधान – इस शंका के नीचे लिखे समाधान है –

 

१.       जैसे अयस्कांतमणि स्वयं निष्क्रिय होते हुए भी लोहे में गति=क्रिया उत्पन्न कर देती है, उसी प्रकार ईश्वर स्वयं निष्क्रिय होते हुए भी परमाणुओ में गति उत्पन्न कर देता है |

 

२.       कुम्भकार का आत्मा मन में संयुक्त होता है तथा मन हाथ से संयुक्त होता है और हाथ डंडे से तथा डंडा चाक से संयुक्त होकर जैसे चाक में क्रिया उत्पन्न कर देता है वैसे ही परमात्मा सब वस्तुओं के अंदर विद्यमान है, अत: सम्बन्ध मात्र से प्रत्येक पदार्थ में क्रिया उत्पन्न कर देता है |

 

३.       क्रिया दो प्रकार कि होती है | एक उत्क्षेपण – उपंर फेकना, नीचे फेकना आदि तथा दूसरी आख्यातशब्द वाच्य, अर्थात अस्ति, भवति आदि सब क्रियाएँ है, अत: दूसरी स्वतंत्रता रूपी क्रिया परमात्मा में विद्यमान है | पाणिनि जी का सूत्र भी है – ‘स्वतंत्र: कर्ता ‘ अत: स्वतंत्र होने से परमात्मा का कर्ता होना सिद्ध है | परमात्मा की स्वतंत्रता यह है की वह सृष्टि के बनाने में किसी नेत्र आदि इन्द्रिय की या किसी दूसरे कर्ता की सहायता नहीं लेता |

 

४.       प्रभु में क्रिया – जनकत्व शक्ति विद्यमान है, वह सन्निधिमात्र से दूसरे पदार्थ में क्रिया उत्पन्न कर देता है, इसलिए उपनिषद में लिखा है – “ स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च “ परमात्मा में ज्ञान, बल, तथा क्रिया स्वाभाविक है |

 

शंका – जो-जो कर्ता होता है वह-वह सदैव – देहधारी होता है | अत: यदि परमात्मा सृष्टि का कर्ता है तो उसे सदेह मानना पडेंगा | यदि वह सदेह है तो हमारी भाती सुख-दुःख का भोक्ता होने से अनीश्वर ठहरेंगा |

 

समाधान – इसके उत्तर निम्न है –

 

१.       इस बात को तो पौराणिक भी मानते है की सृष्टि के बनाने से पूर्व परमात्मा निराकार-अदेहधारी था | यदि वह अदेह होता हुआ अपने देह का निर्माण कर सकता है तो अशरीर होता हुआ सृष्टि का निर्माण क्यों नहीं कर सकता ?

 

२.       यदि मान भी लेवे की उसका देह है तो भी यह आकांक्षा होती है की उसकी देह कितनी बड़ी है, यदि बड़ी माने तो मच्छर के अंडे के अंदर उसकी आँख नहीं बना सकता और सुक्ष्म माने तो इतने बड़े सूर्य को नहीं बना सकता, अत: मानना पडेंगा कि वह परमेश्वर अदेह होता हुआ भी सम्बन्ध मात्र से सृष्टि कि रचना कर देता है |

 

शंका – परमेश्वर सृष्टि कि रचना सापेक्ष – किसी साधन को लेकर करता है या निरपेक्ष बिना किसी साधन के करता है | यदि कहो साधन से करता है तो इस साधन का कर्ता न होने से कर्ता नहीं हो सकता अगर कहो बिना साधन के सृष्टि कि रचना करता है तो कर्म कि भी कोई आवश्यकता नहीं है |

 

समाधान – यह आवश्यक नहीं है कि कर्ता जिस कार्य को किसी साधन से करता है, वह साधन भी उसका बनाया हुआ हो और यह भी आवश्यक नहीं है कि कोई भी साधन कर्ता का बनाया हुआ न हो, संसार में दोनों प्रकार के उदाहरण पाए जाते है | कही तो साधनों का निर्माता न होता हुआ भी उनसे काम लेता है, जैसे- कान, नाक, आँखे, आदि हमारे बनाये हुए नहीं, फिर भी हम उनसे काम करते है और कही पर साधन भी कर्ता के बनाये हुए होते है जैसे – लुहार स्वयं अपने साधनों को बनाकर उनसे बहोत सी वस्तुओ को बनाता है वैसे ही प्रकृति आदि परमात्मा के बनाये हुए नहीं, फिर भी उनके द्वारा सृष्टि कि रचना करता है |

 

शंका – कोई भी व्यक्ति बिना किसी प्रयोजन के कार्य नहीं करता, फिर पूर्णकाम होते हुए इतनी बड़ी सृष्टि कि रचना परमात्मा ने क्यों कि ?

 

समाधान – कई कहते है कि खेल के लिए परमात्मा ने सृष्टि कि रचना कि है, किन्तु यह कथन ठीक नहीं, क्यों कि रति के लिए और दुःख को दूर करने के लिए क्रीडा कि जाती है और परमात्मा में दुःख का अभाव है, अत: खेल के लिए संसार कि रचना करना उचित नहीं | दूसरे कहते है कि अपनी विभूति बतलाने के लिए ईश्वर ने संसार कि रचना कि है यह भी ठीक नहीं, क्यों कि पूर्णकाम को क्या आवश्यकता है कि वह अपने-आप को दूसरे पर प्रकट करे | संसार कि रचना करना तथा करना परमात्मा का स्वभाव ही है |

 

शंका – ईश्वर द्रव्य है या गुण ? यदि कहो द्रव्य है तो विशेष गुणों का आश्रय होने से एक आत्मा ही सिद्ध हो जायेंगा |

 

समाधान – विशेष गुणों के होने से सब वस्तुए एक नहीं हो जाती, जैसे जीव में विशेष गुण है तथा पृथ्वी में भी, किन्तु पृथ्वी आत्मा या आत्मा पृथ्वी नहीं हो जाता |

 

|| इति ||

 

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