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पवित्रता की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार

पवित्रता की पुकार

ऋषिः  प्रजापतिः ।  देवता  परमात्मा।  छन्दः  निवृद् ब्राह्मी पङ्किः।।

चित्पतिर्मा पुनातु वाक्पर्तिर्मा पुनातु देवो मा सविता पुनात्वच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥

-यजु० ४।४

(चित्पतिः१) विज्ञान का पालक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे। (वाक्पतिः) वाणी का पालक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे। (सविता देवः) सन्मार्गप्रेरक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे (अच्छिद्रेण पवित्रेण) त्रुटिरहित पवित्र वेदमन्त्र से, और (सूर्यस्य रश्मिभिः) सूर्य की रश्मियों से। (तस्य ते) उस तेरे (पवित्रपूतस्य) वेदमन्त्रों से पवित्र हुए मेरा (पवित्रपते) हे पवित्र कर्म के अधिपति जगदीश्वर [कल्याण हो] (यत्कामः) जिस कामनावाला मैं (पुने) स्वयं को पवित्र करता हूँ (तत्) उस अपनी कामना को (शकेयम्) पूर्ण कर सकें।

मैंने पवित्रात्मा ऋषि, मुनि, संन्यासी प्रभुभक्तों के दर्शन किये हैं और उनकी पवित्रता से प्रभावित हुआ हूँ। उनके सम्पर्क में आने से ऐसा प्रतीत होता है कि पवित्रता की उज्ज्वल रश्मियाँ हमारे अन्दर भी प्रवेश कर रही हैं। जब प्रभु के भक्तों में यह पवित्र करने की शक्ति है, तब पवित्रता के स्रोत प्रभु के अन्दर तो इससे कोटिगुणा पवित्र करने की तथा अपवित्रता को छूमन्तर करने की असीम शक्ति विद्यमान होनी चाहिए। मैं पवित्रता की लालसा लिये हुए आज सविता परमेश्वर की शरण में आया हूँ। ‘सविता’ प्रेरणा का देव है, वह जिस गुण की तीव्र प्रेरणा मनुष्य के अन्दर कर देता है, वह गुण उसके जीवन का स्थायी अङ्ग बन जाता है । मन्त्र में परमेश्वर को ‘चित्पति’ और ‘वाक्पति’ विशेषणों से भी स्मरण किया गया है। चित्पति है विज्ञान का अधिष्ठाता परमेश्वर। वह मेरे अन्दर विज्ञान की धारा बहा कर मुझे पवित्र करे।

जब तक हमारा विज्ञान दूषित होता है, तब तक हमारे कर्म भी दूषित रहते हैं। इसलिए हम प्रार्थना करते हैं कि विज्ञान का अधिपति प्रभु हमें विज्ञान की पवित्र तरनतारिणी गङ्गा में स्नान करा कर पवित्र कर दे । वाक्पति है पवित्र वाणी का अधिपति परमेश्वर। अपवित्र, कटु और कलुष वाणी कलहों और युद्धों को जन्म देती है तथा पवित्र, मधुर और शान्त वाणी प्रीति और शान्ति को लाती है । अतः वाक्पति पवित्र प्रभु से हम प्रार्थना करते हैं कि वह हमें भी वाणी की उज्ज्वल पवित्रता प्रदान करे। चित्पति, वाक्पति सविता परमेश्वर हमें किस प्रकार पवित्र करेगा ? वह पवित्र करेगा अच्छिद्र पवित्र वेदमन्त्रों से। वेद के अनेक प्रेरणाप्रद मन्त्र प्रस्तुत मन्त्र के समान पवित्रता का सन्देश दे रहे हैं। उनका अध्ययन और मनन-चिन्तन हमारे कालुष्य को धोकर हमें पवित्र कर सकता है। पवित्र होने का दूसरा साधन प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है सूर्य-रश्मियाँ। ये हमारी भौतिक मलिनता को दग्ध करके या धोकर हमें भौतिक रूप से सबल, नीरोग, प्राणवान् और पवित्र कर सकती हैं।

सविता प्रभु जैसे पवित्र विज्ञान और वाणी के पति हैं, वैसे ही पवित्र कर्म के भी अधिपति हैं। हे पवित्र कर्म के अधिपति ! आपकी पवित्र कर्म-प्रेरणा से पवित्र हुए मेरा कल्याण हो। जिस कामना से आज मैं आपके सम्मुख पवित्रता की पुकार मचा रही हूँ और अपने तन-मन-धन को पवित्र कर रहा हूँ, हे देव! वह मेरी कामना पूर्ण हो। पवित्रता के पुजारी को सुख, शान्ति, महत्त्व, सत्य, शिव, सौन्दर्य प्राप्त होता है, वह मुझे भी प्राप्त हो।

पाद टिप्पणियाँ

१. (चित्पतिः) चेतयति येन विज्ञानेन तस्य पति: पालयिता ऽधिष्ठाता ईश्वर:-द० ।

२. सविता-यः सुवति प्रेरयति, सन्मार्गे सः । षु प्रेरणे तुदादिः ।

३. मन्त्र: पवित्रमुच्यते । निरु० ५.३४

पवित्रता की पुकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

भुद्राऽउते प्रशस्तयो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासर्हः ।

-यजु० १५ । ३९

हे वीर! तू ( वृत्रतूर्ये ) पापी के वध में ( मनः) मन को ( भद्रं कृणुष्व ) भद्र रख, ( येन ) जिस मन से तू ( समत्सु ) युद्धों में ( सासहः ) अतिशय पराजयकर्ता [होता है] ।।

हे वीर! तू पापी का वध करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुआ है? तेरा उद्देश्य तो पाप का वध करना है। यदि पापी का वध किये बिना पाप का वध हो सके, तो क्या यह मार्ग तुझे स्वीकार नहीं है? प्रेम से या साम, दान, भेद रूप उपायों से भी तो पापी के हृदय को शुद्ध और निष्पाप किया जा सकता है। हाँ यदि इस प्रकार के सभी उपाय निष्फल हो जाएँ तब पापी से संघर्ष करना, युद्ध करना, उसे पराजित करना, दण्डित करना या उसका समूल नाश कर देना भी अनिवार्य हो सकता है। याद रख, वृत्रतूर्य में भी, पापी के साथ संग्राम में भी अपने मन को भद्र ही रखना है, मन को क्रोध, विद्वेष आदि से अभद्र या मलिन करके उससे युद्ध नहीं करना है। युद्ध में यही भावना रखनी है कि यदि शत्रु पाप करना छोड़कर धर्ममार्ग पर आ जाता है, हम-जैसा भद्र बन जाता है, तो युद्ध बन्द करके उससे सन्धि करनी अधिक उचित है।

संग्राम में विजयी होने के अनन्तर जो तेरा स्वागत हो, कविजन तेरे लिए प्रशस्तिगीतियाँ रचें, वे भी भद्र ही होनी चाहिएँ। उनमें तेरी शूरता का, अग्रगामिता का, शत्रुदल के  छक्के छुड़ा देने का, शत्रुसेना को आगे बढ़ने देने से रोक कर पीछे खदेड़ देने आदि को ही वर्णन होना चाहिए। उसमें तेरी इस यद्धनीति की चर्चा होनी चाहिए कि शत्र ने जब अपनी हार मानकर शस्त्र नीचे रख दिये, तब तूने भी युद्ध बन्द करके उनके साथ भद्रता का व्यवहार किया। ऐसा प्रशस्तिगान नहीं होना चाहिए कि कुछ ही शत्रुओं को कैद करके या मारकर भी युद्ध जीता जा सकता था, फिर भी तूने समस्त शत्रुओं का उच्छेद कर डाला। यदि तेरी ऐसी प्रशस्ति होती है कि एक भी शत्रु का वध किये बिना तूने युद्ध जीत लिया, तो हमें तुझ पर गर्व होगा। यदि शत्रु भी तेरी जय बोलते हुए तेरे स्वागत में हमारे साथ सम्मिलित होंगे, तो हम तुझे राजनीतिविशारद कहकर तेरा अभिनन्दन करेंगे। | तेरा मन जहाँ उत्साही, शत्रुविजय के प्रति आशावादी होगा, वहाँ शत्रु के प्रति यदि भद्र और उदार भी होगा, तो तू शत्रुओं को भी अपना मित्र बना सकेगा। जा, युद्ध में अग्रसर हो, सफल संग्रामकर्ता के रूप में प्रशस्ति प्राप्त कर।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वृत्रतूर्य-संग्राम। निचं० २.१७

२. कृणुष्व, कृवि हिंसाकरणयोः, भ्वादिः ।

३. समत्=संग्राम। निघं० २.१७ ४. सासह: अतिशयेन सोढा-द० । षह अभिभवे, छान्दस।

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति ती पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।।

आ वाचो मध्यमरुहद् भुरण्युरयमग्निः सत्पतिश्चेकितानः। पृष्ठे पृथिव्या निहितो दविद्युतदधस्पदं कृणुतां ये पृतन्यवः॥

-यजु० १५ ।५१ |

( भुरण्यु:१) राष्ट्र का भरण-पोषण करनेवाला ( अयम् अग्निः ) यह वीर राजा (वाचःमध्यम् अरुहत् ) वाणी के मध्य में आरूढ़ हो गया है, अर्थात् वाणी से स्तुति पा रहा है। यह वीर राजा ( सत्पतिः ) सज्जनों का रक्षक है, (चेकितानः२) विज्ञानवान् है, ( पृथिव्याः पृष्ठे निहितः ) राष्ट्रभूमि के पृष्ठ परआसीन किया हुआ, (दविद्युतद् ) द्युतिमान् होता हुआ (अधस्पदं कृणुतां ) पैरों तले कर दे ( ये पृतन्यवः४) जो सेना लेकर चढ़ाई करनेवाले हैं उन्हें।।

आओ, हर्ष मनायें, उत्सव करें, हमारे राजा ने राजसिंहासन पर आरोहण किया है। राजा कोई छोटी-सी हस्ती नहीं है, वह है हमारे विशाल राष्ट्र का प्रभुतासम्पन्न महानायक। वह ‘भुरण्यु’ है, प्रजा का भरणपोषणकर्ता है, राष्ट्र को सब ऐश्वर्यों से भरपूर करके उन्नति के चरम सोपान पर ले जानेवाला है। वह ‘अग्नि’ है, जलता हुआ विद्युदीप है, जो सर्वत्र प्रकाश पहुँचाता है और अभिमान, मोह आदि के महान्धकार को दूर करके अन्धियारे कोनों में छिपे निशाचरों को मार भगाता है, वह राष्ट्र के यज्ञकुण्ड में ऊँची-ऊँची ज्वालाओं से लहराता हुआ यज्ञाग्नि है, जो राष्ट्र के सम्पूर्ण वातावरण को सुगन्धित कर देता है। वह अधीनस्थ राजाओं को अपनी परिक्रमा करवानेवाला ‘महासूर्य’ है, जो अपने किरणजाल से चारों ओर यजुर्वेद ज्योति के तम:स्तोम को उज्ज्वल प्रकाश में बदल देता है। आज वह जन-जन की वाणी का विषय बन गया है। सर्वत्र उसी की चर्चा है, उसी के गीत गाये जा रहे हैं, उसी की गुणावलि का बखान हो रहा है, उसी की वीरता-क्षमता-राजनीतिज्ञता का अवलोकन हो रहा है। यह हमारा राजाधिराज ‘सत्पति’ है, सज्जनों का रक्षक है, सहायक है, उन्हें सब सुविधाएँ देकर ऊँचा उठानेवाला है और दुर्जनों को या तो सज्जनों में परिणत कर देता है, अन्यथा उन्हें दण्डित करता है। यह हमारी आँखों का तारा राजा ‘चेकितान’ है, विज्ञानवान् है, अतएव राष्ट्र को भी ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से सर्वोन्नत करनेवाला है। इसके आधिपत्य में राष्ट्र में कोई भी नर-नारी अशिक्षित नहीं रहेगा। हमारा राष्ट्र सब विद्याओं से भरपूर होगा। नवीन-नवीन आविष्कार होंगे, कल-कारखानों का निर्माण होगा, शिल्प चरमोन्नति करेगा। कृषि की हरियाली लहरायेगी। हमारे देश का निर्माण विभाग वस्तुओं को दूसरे देशों में निर्यात करेगा। शास्त्र विज्ञान के साथ देश का शस्त्रविज्ञान भी बढ़ेगा, स्वरक्षा के लिए रक्षक और संहारक शस्त्रास्त्रों से भी हमारे सैनिक संनद्ध होंगे। हमारा राजा द्युतिमान्’ है, आदित्य की ज्योति से भासमान है। कोई भी हमारे राष्ट्र को कुदृष्टि से नहीं देख सकेगा। हमारे राजा और राष्ट्र की युति से संत्रस्त होकर कोई हमसे शत्रुता करने का साहस नहीं कर सकेगा। फिर भी यदि कोई शत्रु आकर सेना से हम पर आक्रमण करना चाहेगा, तो पैरों तले रौंद दिया जाएगा। हम विजयी होंगे। हम गर्व करते हैं अपने महामहिम सम्राट् पर। जय हो हमारे इस भुरण्यु, सत्पति, चेकितान, द्युतिमान् वीर सम्राट् की, जय हो हमारे विशाल, उन्नत राष्ट्र की ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. भुरण धारणपोषणयोः । कण्ड्वादित्वाद् यक्, तत: उ: ।।

२. किती संज्ञाने। लिट: कानच् ।

३. द्युत दीप्तौ । दाधर्तिदर्धर्ति० पा० ७.४.६५ से यङ् लुगन्त, शतृप्रत्ययान्तनिपातित ।।

४. पृतनां सेनाम् आत्मनः इच्छुः पृतन्युः, ते पृतन्यवः ।।

पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार  

हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार

हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता इन्द्राग्नी बृहस्पतिश्च । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

लोकं पृण छिद्रं पृणाथों सीद धुवा त्वम्।। इन्द्राग्नी त्व बृहस्पतिरस्मिन् योनावसीषदन्॥

-यजु० १५ । ५९

हे नारी ! ( लोकं पृण) इहलोक और परलोक को सुधार, ( छिद्रं पृण ) छिद्रों एवं न्यूनताओं को भर ( अथो )      और ( त्वम् ) तू ( धुवा सीद) स्थिरमति होकर रह। (त्वा) तुझे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि ने ( बृहस्पतिः ) और बृहस्पति ने (अस्मिन्योनौ) इस घर में, इस पद पर ( असीषद) स्थित किया है।

हे वैदिक नारी! तेरे ऊपर अपना, अपने घर का और नारी समाज का गुरुतर भार निहित है। तुझे अपने, अपने घर के और नारी-समाज के इहलोक और परलोक का सुधार करना है। प्रथम तो तू आत्मनिरीक्षण कर। अपने में, अपने घर में और नारी-समाज में यदि कोई त्रुटियाँ दिखायी देती हैं, छिद्र प्रतीत होते है, तो तू उन त्रुटियों को दूर कर, छिद्रों को भर। यदि तुझमें ज्ञान की कमी है या विपरीत ज्ञान है, तो ज्ञानपूर्ति और ज्ञानसंशोधन में लग जा। ज्ञान की कमी और विपरीत ज्ञान के कारण उचित कर्म भी नहीं हो पाते । अतः जब तू ज्ञानपूर्ति और ज्ञानसंशोधन कर लेगी, तब तेरे कर्मों की पूर्ति और कर्मों का संशोधन स्वयमेव होने लगेगा। तेरा जीवन आदर्श होना चाहिए, तेरे घर का वातावरण आदर्श होना चाहिए और तू जिस नारी-समाज से संबद्ध है, उस नारी समाज का चरित्र आदर्श होना चाहिए।

तेरा यह भी कर्तव्य है कि तू ‘ध्रुवा’ अर्थात् स्थिरमति और स्थिर कर्मोंवाली बने। प्रथम तो तेरे मन में अपने कर्तव्यपालन के प्रति स्थिरता और दृढ़ता होनी चाहिए। जब तू निर्धारित कर्मों, आयोजनाओं, समितियों, सुधारों के प्रति पर्वत-जैसी ‘ध्रुव’ और अविचल हो जाएगी, तब कोई तुझे कर्तव्यच्युत नहीं कर सकेगा। तब तेरी निर्धारित योजनाएँ सफल होंगी। तब तू स्वयं, तेरा घर और तेरा नारी समाज निश्चय ही समुन्नत होंगे।

तुझे स्मरण रखना चाहिए कि तेरे इस घर में तुझे किसने बैठाया है, तुझे इन्द्र, अग्नि और बृहस्पति ने इस घर में या इस प्रतिष्ठित पद पर अभिषिक्त किया है। इन्द्र क्षत्रियों का प्रतिनिधि है, अग्नि वैश्यों का प्रतिनिधि है, बृहस्पति ब्राह्मणों का प्रतिनिधि है। तीनों ने मिलकर तुझे ध्रुवा बनाकर लोकपूर्ति, और छिद्रपूर्ति का कार्य सौंपा है। उसे तू दृढ़ता के साथ पूर्ण कर। तेरे लिए यह वेद का सन्देश है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. कर्मकाण्ड में इस कण्डिका का विनियोग गार्हपत्य अग्नि का वेदि | में इष्टकाओं के उपधान के लिए किया गया है। तदनुकूल ही उवटएवं महीधर का भाष्य है। दयानन्दभाष्य में व्याख्या नारीपरक है।

२. पृ पालनपूरणयो, क्रयादिः, लोट् ।

३. योनि=घर, नि० ३.४

४. षद्लू, णिच्, लुङ्, चङ्।

हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार 

राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः कुत्सः । देवता रुद्र: । छन्दः निवृद् अतिधृतिः ।

नमो हिरण्यवाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः पशूनां पतये नमो नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते पथीनां पतये नमो नमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्टानां पतये नमः ।।

-यजु० १६ । १७

( नमः ) नमस्कार हो ( हिरण्यबाहवे सेनान्ये ) हिरण्यबाहु सेनापति को। (दिशांचपतये नमः ) और दिक्पाल को भी नमस्कार हो। (नमःहरिकेशेभ्यःवृक्षेभ्यः) नमस्कार हो हरे पत्ते रूपी केशोंवाले वृक्षों अर्थात् वृक्षाधिपतियों को । ( पशूनां पतये नमः ) पशुओं के रक्षक को नमस्कार हो। (नमःत्विषीमते शष्पिजराय’ ) नमस्कार हो पशुप्रदर्शनी में नियुक्त, पशुओं के पिंजरे खोलनेवाले दीप्तिमान अध्यक्ष को । ( पथीनां पतये नमः ) मागों के रक्षक को नमस्कार हो। ( नमः ) नमस्कार हो ( हरिकेशाय उपवीतिने ) यज्ञोपवीत की तरह हरे पट्टे को धारण करनेवाले ( पुष्टानां पतये ) पहलवानों के अध्यक्ष को।

किसी भी राष्ट्र के सफल सञ्चालन के लिए मुख्य अधिकारियों के अतिरिक्त प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किये जाते हैं। प्रजाजनों को इन विभागाध्यक्षों के प्रति उचित आदरभाव प्रकट करना चाहिए। उन विभागाध्यक्षों का उनके कर्तव्यपालन के लिए कृतज्ञ भी होना चाहिए। प्रस्तुत मन्त्र में राष्ट्र के कतिपय विभागाध्यक्षों के प्रति ‘नम:’ कहा गया है। ‘नमः’ में नमन, कृतज्ञता, आदरभाव, साधुवाद, धन्यवाद, आशीर्वाद आदि सब आ जाता है। नमो हिरण्यबाहवे  सेनान्ये’—जिसने अपने बाहु पर सुनहरा पट्टा धारण किया हुआ है, उस सेनापति को हमारा नमस्कार है। वह सेनापति ही अपने सैनिकों की सहायता द्वारा शत्रुओं से हमारी रक्षा करता है, हमें अभयदान देता है, क्षत-विक्षत और असहाय होने की हमारी चिन्ताओं से हमें मुक्त करता है। दिशां च पतये नमः’–प्रत्येक दिशा में दिक्पाल के रूप में नियुक्त अध्यक्ष को हमारा नमस्कार है। शत्रु गुप्त रूप से किसी भी दिशा से हम पर आक्रमण कर सकता है। उस दिशा का दिक्पाल यदि सतर्क है, तो तुरन्त वह उसकी सूचना सेनाध्यक्ष को देता है, जिससे वह दल-बल के साथ आकर शत्रु से लोहा लेता है और उसे पराजित कर राष्ट्र की रक्षा करता है। दिक्पाल के साथ कुछ सैनिक भी रहते हैं, वे भी शत्रु का मुकाबला करते हैं। ‘नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः’ हरित पत्र रूप जिनके केश हैं, ऐसे वृक्षों को नमस्कार । यहाँ वृक्षों से लक्षणा द्वारा वृक्षरक्षक अध्यक्ष गृहीत होते हैं। ‘पशूनां पतये नम:’-पशुरक्षक अध्यक्ष को हमारा नमस्कार । जङ्गल के पशु हाथी, शेर, चीता, मृग आदियों का शिकार करना अपराध माना जाता है। उनकी रक्षा के लिए अध्यक्ष नियुक्त होते हैं। सचेत रहने के लिए हम उन्हें धन्यवाद और आदर देते हैं। ‘नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते’ पशुप्रदर्शनी में रखे गये सिंह, व्याघ्र आदि विविध पशुओं के पिंजरे खुलवानेवाले दीप्तिमान् अध्यक्ष को नमस्कार । चिड़ियाघर में विविध पशु-पक्षी प्रदर्शनार्थ रखे जाते हैं। उनमें हिंसक जन्तु पिंजरे में बन्द रहते हैं। जब कभी उन्हें पिंजरे से बाहर निकालना होता है, तब एक अधिकारी की निगरानी में कोई नियुक्त पुरुष पिंजरे को खोलता है। यह कार्य जिसकी अध्यक्षता से होता है, वह बहुत दीप्तिमान् ( त्विषीमान् ) पुरुष होता है। कभी हिंसक पशु बिगड़कर पिंजरा खोलने-खुलवाने वाले की जान भी ले सकते हैं। ऐसे साहसी अध्यक्ष को भी हमारा नमस्कार। ‘पथीनां पतये नम:’ मार्गरक्षक को हमारा नमस्कार। मार्गों में दुर्घटना यजुर्वेद ज्योति आदि रोकने के लिए मार्गरक्षक नियुक्त किये जाते हैं, उनके अध्यक्ष के प्रति भी हम आदर प्रदर्शित करते हैं। ‘पुष्टानां पतये नमः’–फिर हम पुष्टों अर्थात् पहलवानों के अधिपति को भी नमस्कार करते हैं। पहलवान लोग जिसके संयोजकत्व में अखाड़ा खोद कर पहलवानी, व्यायाम, मलखम्भ आदि करते हैं, उसके प्रति भी हम आदर दर्शाते हैं। वह संयोजक ‘हरिकेश उपवीती’ होता है, अर्थात् उसने हरित वर्ण का पट्टा यज्ञोपवीत की तरह धारण किया होता है।

मन्त्रोक्त सब अधिपतियों का तथा इनसे भिन्न अन्य अधिपतियों का भी सम्मान करना उचित है, क्योंकि ये अपने अपने विभागों का पालन करते हैं।

पाद टिप्पणी

१. शष्पिञ्जराय शङ् उत्प्लुतं पिञ्जरं बन्धनं येन तस्मै–द० | शशप्लुतगतौ, भ्वादिः ।

राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार 

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः भुवनपुत्रः विश्वकर्मा । देवता विश्वकर्मा ।। छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।।

किस्विद्वनं कऽउस वृक्षऽसियत द्यावापृथिवी निष्टतुक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यध्यतिष्ठद्भुव॑नानि धारयन्॥

-यजु० १७। २०

( किं स्विद् वनं ) कौन सा वन था ( कः उ स वृक्षः आस ) कौन सा वह वृक्ष था, (यतः) जिससे [जगत्स्रष्टाओं ने] ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और भूलोक को (निष्टतक्षुः ) गढ़ा, रचा ? ( मनीषिणः ) हे मनीषिओ ! ( मनसा ) मत लगा। कर ( तत् इत् उ पृच्छत ) इसके विषय में भी पूछो कि ( भुवनानि धारयन्) भुवनों को धारण करनेवाला वह कारीगर ( यत् अधि अतिष्ठत् ) जिसके ऊपर बैठा हुआ था।

जब मैं द्यावापृथिवी पर दृष्टि डालता हूँ, तब आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। भूलोक के मिट्टी, घास, वृक्ष-वनस्पति, पर्वतमाला, नदियाँ, समुद्र, जल, वायु, खनिज पदार्थ, वसन्त-ग्रीष्म-वर्षा शरद् आदि ऋतुएँ सबमें किसी की कारीगरी दृष्टिगोचर होती है। भूमि से लगा हुआ ही अन्तरिक्षलोक है, जिसमें पवन, बिजली, बादल, चन्द्रमा आदि की छटा हमें मुग्ध करती है। उससे ऊपर द्युलोक है, जहाँ सूर्य, विविध नक्षत्रपुंज, राशिचक्र, आकाशगङ्गा आदि हमें विस्मित कर देते हैं। |

वेदमन्त्र प्रश्न उठा रहा है कि वह वन कौन-सा था और उसके अन्तर्गत वृक्ष कौन-सा था, जिससे सृष्टि के कारीगर ने द्यावापृथिवी की रचना की ? मन्त्र के उत्तरार्ध में एक प्रश्न और उठाया गया है कि मन की पूर्ण जिज्ञासा के साथ इस यजुर्वेद ज्योति विषय में भी पूछो कि जिस कारीगर ने द्यावापृथिवी आदि भुवनों की रचना की वह जब उन भुवनों को धारण कर रहा था, तब किस स्थान पर स्थित होकर धारण कर रहा था ?

ऋग्वेद में भी यह मन्त्र विश्वकर्मा-सूक्त (ऋक् १०.८१) में आया है। सकल ब्रह्माण्ड का रचयिता और धर्ता विश्वकर्मा परमेश्वर है। उसी के कर्तृत्व से विविध शिल्पकलाओं से परिपूर्ण ये द्यावापृथिवी आदि लोक रचे गये हैं। वह विश्व का निमित्त कारण है। प्रश्न है कि किस उपादान से, किस वन और वक्ष से. उसने लोकों की रचना की है ? इसको उत्तर है। कि ‘प्रकृति’ रूप वन है और उसके महत्, अहंकार, पंचतन्मात्रा आदि वृक्ष हैं, जिससे द्यावापृथिवी आदि भुवनों की रचना हुई है। जीवात्मा दूसरा निमित्त कारण है, जिसके लिए ये सब भुवन रचे गये हैं। दूसरा प्रश्न यह है कि द्यावापृथिवी आदि भुवनों का कारीगर जब उन भुवनों को धारण कर रहा था, तब किस आधार पर स्थित था? यह प्रश्न इस कारण उठा कि हम लोग जब किसी बोझ को अपने कन्धे या सिर पर उठाते हैं, तब आकाश में लटके-लटके नहीं उठाते, अपितु किसी आधार पर स्थित होकर ही उठाते हैं। यही बात विश्व के कारीगर पर भी लागू होनी चाहिए। इसका उत्तर यह है कि आधार पर खड़े होना तो उनके लिए लागू होता है, जो शरीरधारी हैं। विश्व का कारीगर विश्वकर्मी’ जैसे अशरीरी होते हुए विश्व की रचना कर लेता है, ऐसे ही अशरीरी होने के कारण बिना किसी आधार पर स्थित हुए ही विश्व का धारण भी कर लेता है।

पाद टिप्पणी

१. निस्त क्षु तनूकरणे, लिट् ।

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार  

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः। देवता यज्ञः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

देवहूर्यज्ञऽआ वक्षत्सुम्नहूर्यज्ञऽआ चं वक्षत्।। यक्षदग्निर्देवो देवाँ२।।ऽआ च वक्षत्॥

-यजु० १७।६२

( देवहूः ) दिव्य गुणों को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, (आवक्षत् च ) वह हमें दिव्य गुण भी प्राप्त कराये। ( सुम्नहूः) सुख को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, ( आवक्षत् च ) वह हमें सुख भी प्राप्त कराये। ( यक्षत्) प्रशंसा करे (अग्निःदेवः) प्रकाशमय परमेश्वर ( देवान्) दिव्य कर्मों की ( आवक्षत् च) और उन्हें प्राप्त भी कराये। |

सुखी जीवन के लिए समस्त सुख-सुविधाओं को जुटाना मानव के लिए अभीष्ट हो सकता है, परन्तु स्वेच्छा से त्यागमय जीवन व्यतीत करना उससे भी अच्छा है। एक धूनी रमाये साधु ने किसी नगर से बाहर एक वृक्ष के नीचे आसन जमाया। नागरिक लोग श्रद्धावश तरह-तरह की भेंटें उसके आगे रख जाते। वह सब सामान गरीबों को बाँट देता था। एक दिन एक सेठ थालों में आभूषण, रेशमी वस्त्र, मिष्टान्न, फल आदि राजसी सामान लेकर आये। वह सामान भी उसने जरूरत मन्दों को बाँट दिया। सेठ ने कुछ उपदेश देने की अभ्यर्थना की तो साधु बोला-जैसे मैं बाँटता हूँ, वैसे ही तुम भी बाँटो। सेठ ने कहा-महाराज, आप तो दूसरों का दिया बाँट रहे हैं, इसलिए आपको बाँटने में कुछ दर्द नहीं है। हमारी तो अपनी कमाई है। साधु बोला-क्यों गर्व करते हो! तुम्हारी धन दौलत भी भगवान् की दी हुई है। जितना बाँटोगे, उतनी ही बढ़ेगी। गरीब से जो प्यार करता है, उससे भगवान् प्यार करते हैं।

त्यागमय जीवन ‘देवहू:’ है, दिव्य गुणों को बुला कर लानेवाला है। त्याग का गुण मनुष्य के अन्दर आते ही अहिंसी, सत्य, अस्तेय, श्रद्धा, न्याय, दया आदि सब गुण स्वयं उसके पास दौड़े चले आते हैं। मनुष्य असत्यभाषण, चोरी आदि करता है किसी स्वार्थ के लिए। जब उसका जीवन ही परार्थ हो जाता है, तब हिंसा आदि दुर्गुण उसके पास भला क्यों फटकेंगे। त्यागमय जीवन ‘सुम्नहू:’ है, सुख को बुला कर लानेवाला है। त्याग में जो सुख अनुभव होता है, उसे त्यागी ही जानता है। कोई धनी-मानी व्यक्ति किसी सत्कार्य के लिए एक लाख का दान करके लौट रहा था। चेहरे पर प्रसन्नता की रौनक थी। किसी ने कहा-तू तो ऐसा खुश दीख रहा है, जैसे करोड़पति हो गया हो। |

दिव्य गुणों के साथ दिव्य कर्म भी आने चाहिएँ। त्यागमय जीवन दिव्य कर्मों की ओर भी मनुष्य को अग्रसर करता है। हम प्रकाशमय अग्निप्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें दिव्य कर्मों का धनी भी बनाये।

आओ, हम त्यागरूप यज्ञ को अपना कर दिव्यगुणों के राजा, सुख के स्वामी और दिव्य कर्मों के धुरन्धर बने ।

पादटिप्पणियाँ

१. देवान् दिव्यगुणान् आह्वयतीति देवहू: ।

२. आ-वह प्राणणे, लेट् । आवक्षत्=आ वहतु।

३. सुम्न-सुख, निघं० ३.६ । सुम्नानि सुखानि आह्वयतीति सुम्नहू:।।

४. यक्षत्, यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, लेट् । यजतु पूजयतु प्रशंसतु ।

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार 

मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार

मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से  सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवाः । देवता प्रजापतिः । छन्दः भुरिक् अति शक्वरी ।

ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च मेऽनामयच्च मे जीवाति॑श्च मे दीर्घायुत्वं च मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शयनं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे यज्ञेने कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८ । ६ |

हे प्रजापति परमेश्वर ! ( ऋतं च मे ) मेरा सत्य व्यवहार ( अमृतं च मे ) और मेरा अमरत्व, ( अयक्ष्मं च मे ) और मेरा आरोग्य, ( अनामयच्च मे ) और मेरा आरोग्यकारी पथ्य, ( जीवातुश्च मे ) और मेरा भद्र जीवन, ( दीर्घायुत्वं च मे ) और मेरा दीर्घायुष्य, (अनमित्रं च मे ) और मेरा अजात शत्रुत्व, ( अभयं च मे ) और मेरी निर्भयता, ( सुखं च मे ) और मेरा सुख, ( शयनं च मे ) और मेरा शयन, ( सूषाः च मे ) और मेरी शुभ उषा, ( सुदिनं च मे ) और मेरा सुदिन ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञभावना के साथ सम्पन्न हों।

छान्दोग्य उपनिषद् कहती है कि मनुष्य का जीवन एक यज्ञ है। उसके प्रथम २४ वर्ष प्रात:सवन हैं, आगे के ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन हैं और उससे आगे के ४८ वर्ष सायंसवन हैं। इस बीच कोई आधि-व्याधि सताने लगे तो उसे दृढ़ मनोबल के साथ ललकार कर कहे कि मेरे यज्ञ को विघ्नित मत करो। तब वह उससे छूट जाता है और उसका ११६ वर्ष का यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यही यज्ञ- भावना है। मनष्य अपने जीवन को पवित्र यज्ञ समझे, तो न कोई दुर्विचार उसे सता सकेगा, न कोई रोग, और शिव सङ्कल्पों का वह स्वागत करेगा। ‘ऋत’ शब्द गत्यर्थक ‘ऋ’ धातु से बनता है। इसका अर्थ है सत्यभाषण और सत्य व्यवहार। मैं अपने जीवन को यज्ञ समझकर सदा सत्यभाषण ही करूँ, दूसरों के साथ सत्य व्यवहार ही करूं, क्योंकि शतपथब्राह्मण कहता है कि जो पुरुष अमृत भाषण करता है, वह अपवित्र होता है। मैं अमृत हूँ, मेरा आत्मा अमर है, यदि मैं असत्य और अभद्र आचरण करूंगा, तो सत्यव्रती जन मुझे धिक्कारेंगे। अमर होता हुआ मैं धिक्कार का भाजन बनता हूँ, तो मेरी अमरता समाप्त होती है, मैं पतितों की श्रेणी में आ जाता हूँ। मुझे ‘अयक्ष्मत्व प्राप्त हो, आरोग्य मिले। रोगी होती हैं, तो मेरा यज्ञ त्रुटित होता है। मैं ऐसा पथ्य करूं, जिससे नीरोग रहूँ, यह नीरोग रहने का उपाय है। केवल पथ्य ही नहीं, नीरोग रहने के जो भी साधन योगासन, प्राणायाम, व्यायाम आदि हैं, वे सब इसमें समाविष्ट हैं। मेरा ‘जीवातु’ मेरा भद्र जीवन, भद्र प्राण प्रशस्त हो। मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त हो। कम से कम शत वर्ष तो मुझे जीना ही चाहिए। मुझे ‘अनमित्रत्व प्राप्त हो, मैं अजातशत्रु कहलाऊँ।। मैं किसी से शत्रुता न करूं और न मुझसे कोई शत्रुता करे। सबका मित्र बनकर रहूँ। मैं निर्भय रहूँ। वेद कहता है जैसे सूर्य और पृथिवी किसी से डरते नहीं है, वैसे ही हे मेरे प्राण ! तू किसी से मत डर।” मुझे ‘सुख प्राप्त हो, जीवन में । परमानन्द मिले, क्योंकि दु:खग्रस्त रहने पर मेरा यज्ञ विघ्नित होगा। मुझे मेरा ‘शयनसुख प्राप्त हो, मैं सोने पर विश्रान्ति अनुभव करूँ, दु:स्वप्न मुझे न सतायें । मेरे जीवन में सुनहरी उषा’ खिलती रहे, उदासीनता या निष्क्रियता के अन्धकार से मैं कभी ग्रस्त न होऊँ। मैं सदा यह अनुभव करूँ कि तमस् से ज्योति की ओर आ रहा हूँ। मेरा दिन ‘सुदिन’ हो, प्रत्येक नया दिन उदित होने पर मैं यह अनुभव करूं कि यह दिन मेरे लिए सुदिन होकर आया है, मेरे लिए कुछ उपहार लाया है।

उक्त सब वस्तुएँ सब गुण, सब सौगातें मुझे तभी मिल सकती हैं, जब मैं अपने जीवन को यज्ञ समझकर पवित्रता के । साथ व्यतीत करूं-” यज्ञेन कल्पन्ताम्”।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पुरुषो वाव यज्ञ: । छा० उप० ३.१६ ।

२. अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति। श० १.१.१.१

३. यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।एवा में प्राण मा बिभे: ।। अ० २.१५.१

मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से  सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवाः । देवता यज्ञानुष्ठाता आत्मा। छन्दः क. स्वराड् विकृतिः,र, स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक्।।

के आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पताछ श्रोत्रं यज्ञेन कल्पत वाग्यज्ञेन कल्पां मनो यज्ञेर्न कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पता ब्रह्मा यज्ञेने कल्पत ज्योतिर्यज्ञेने कल्पता स्वर्यज्ञेने कल्पतां पृष्ठं ज्ञेने कल्पतां यज्ञो यज्ञेने कल्पताम्। रस्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च सार्म च बृहच्छ रथन्तरञ्चे।स्वर्देवाऽअगन्मामृताऽअभूम प्रजापतेः प्रजाऽअभू वेट् स्वाहा।

— यजु० १८।२९ |

( आयुः यज्ञेन कल्पत) आयु यज्ञ से समर्थ हो । ( प्राणः यज्ञेन कल्पता ) प्राण यज्ञ से समर्थ हो। (चक्षुः यज्ञेन कल्पत) चक्षु यज्ञ से समर्थ हो। ( श्रोत्रं यज्ञेन कल्पता ) श्रोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( मनः यज्ञेन कल्पत) मन यज्ञ से समर्थ हो। (आत्मायज्ञेनकल्पतां) आत्मा यज्ञ से समर्थ हो। ( ब्रह्मा यज्ञेन कल्पतां ) ब्रह्मा यज्ञ से समर्थ हो। ( ज्योतिः यज्ञेन कल्पत) अध्यात्म ज्योति यज्ञ से समर्थ हो। (स्वःयज्ञेनकल्पत) मोक्ष यज्ञ से समर्थ हो । ( पृष्ठं यज्ञेन कल्पता ) स्तोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( यज्ञः यज्ञेन कल्पत) यज्ञ यज्ञ से समर्थ हो। ( स्तोमः च ) स्तोम, ( यजुः च ) और यजुः, (ऋक् च) और ऋक्, ( साम च) और साम, ( बृहत् च) और बृहत् नामक सामगान, (रथन्तरं च ) और रथन्तर नामक सामगान [यज्ञ से समर्थ हों]। हम मनुष्यों ने ( देवाः ) देव होकर ( स्वः अगन्म ) जीवन्मुक्ति पा ली है। ( अमृताः अभूम) हम अमर हो गये हैं। ( प्रजापतेः प्रजाः अभूम) प्रजापति की यजुर्वेद- ज्योति प्रजा हो गये हैं। ( वेट्) वषट्, ( स्वाहा ) स्वाहा।

मैं चाहता हूँ कि मेरे सब कार्य यज्ञपूर्वक हों, मेरे सब साधन, मेरे शरीर का प्रत्येक अङ्ग, मेरी प्रत्येक क्रिया यज्ञपूर्वक हो। स्वार्थ की सिद्धि के साथ परार्थ की सिद्धि करना ही यज्ञ है। यदि केवल स्वार्थ की सिद्धि होती है, परार्थ के प्रति उदासीनता है, न परार्थ की हानि होती है, न सिद्धि, तो वह यज्ञ नहीं है। हम अग्निहोत्ररूप यज्ञ करते हैं, उसमें भी स्वार्थ की सिद्धि के साथ परार्थ की सिद्धि होती है, क्योंकि यज्ञ से जो पर्यावरणशोधन होता है, उससे सबको लाभ होता है। मैं अपनी आयु यज्ञपूर्वक व्यतीत करूं, आयु-भर अपनी उन्नति के साथ दूसरों की उन्नति भी करता रहूँ, इसी में मेरी आयु की सफलता है। मैं अपने प्राणों से यज्ञ करता रहूँ, अर्थात् प्राणों से स्वार्थसिद्धि के साथ परार्थसिद्धि भी करता रहूँ। मैं अपने चक्षु, श्रोत्र और वाणी से यज्ञ करता रहूँ। जो कुछ आँख से देखू, श्रोत्र से सुनें, वाणी से बोलूं उससे दूसरों का भी भला करूं। मैं अपने मन को यज्ञ में लगाऊँ। जो कुछ मन से सोचूँ विचारूं, सङ्कल्प करूँ, इन्द्रिय-व्यापार में मन को लगाऊँ, उससे दूसरों का भी कल्याण हो। सब ज्ञानों का कर्ता और सब ज्ञानों का ग्रहीता तो मेरा आत्मा है। वह जो कार्य करे और जो ज्ञान उपार्जित करे, उससे दूसरे लोग भी लाभान्वित हों। मेरे द्रव्ययज्ञ का ब्रह्मा जिस यज्ञ का सञ्चालन करता है, उस यज्ञ की पूर्णाहुति से मुझे तो लाभ होगा ही, किन्तु यज्ञ में सम्मिलित सभी भाई-बहिन उससे तृप्त हों। मेरे अन्दर जो ज्ञान की ज्योति जलती है, प्रभु-प्रेम की ज्योति जलती है, उससे मैं तो अध्यात्म-साधना में समुन्नत होऊँगा ही, वह ज्योति अन्यों को भी ज्योतिष्मान् करे। मेरी जीवन्मुक्ति भी मेरी ही मुक्ति का साधन न बने, अपितु अन्यों की दु:खमुक्ति में भी कारण बने। मेरे स्तोत्र केवल मुझे ही भगवत्स्तुति में विभोर न करें, प्रत्युत अन्य भी उन स्तोत्रों से आह्लादित हों। मेरा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ, भूतयज्ञ भी मुझे आह्लादित करने के साथ-साथ अन्यों को भी आनन्दित करे। मेरा स्तोम, मेरा यजुर्वेद पाठ, ऋग्वेदपाठ, सामवेदपाठ, बृहत् नामक सामगान, रथन्तरनामक सामगान भी यज्ञपूर्वक हों अर्थात् मेरे साथ वे अन्यों को भी सुखी करें। इस प्रकार यदि मैं यज्ञपूर्वक सब कर्म सम्पन्न करूंगा, तो मैं उन-उन कार्यों में सफल माना जाऊँगा। केवल अपने लिए कुछ उपलब्धि कर लेने में सफलता नहीं है, जब तक अन्यों को भी उससे कुछ उपलब्धि न हो।

देखो, हम मनुष्य देव बन गये हैं। दिव्यता प्राप्त करके हमने ‘स्व:’ को पा लिया है, हम जीवन्मुक्त हो गये हैं, हम अमर हो गये हैं, हम मानव सम्राट् की नहीं, प्रजापति की प्रजा हो गये हैं। हम अग्निहोत्र करते हुए प्रत्येक आहुति के साथ ‘वषट्’ बोलते हैं, ‘स्वाहा’ बोलते हैं। हे मानवो! अपना प्रत्येक कार्य यज्ञपूर्वक करो, उसी में उस कर्म की सफलता है।

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार 

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवा: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

पर्यः पृथिव्यां पयऽओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पर्यस्वती: प्रदिशः सन्तु मह्यम् ।

-यजु० १८ । ३६ |

हे अग्रनायक परमेश्वर ! आपने ( पृथिव्यां पयः ) पृथिवी में दूध, ( ओषधीषु पयः ) ओषधियों में दूध, ( दिवि पयः ) द्युलोक में दूध, ( अन्तरिक्षे पयः) अन्तरिक्ष में दूध (धाः ) रखा है। ( प्रदिशः ) प्राची आदि मुख्य दिशाएँ भी ( मह्यं ) मेरे । लिए (पयस्वती) दूध-भरी ( सन्तु) हो जाएँ।

देखो, परमात्मा ने विश्व के अनेक स्थानों में दूध रखा हुआ है। पृथिवी में दूध है। पृथिवी में सलोनी मिट्टी का दूध है, स्रोतों-सरिताओं-सरोवरों का दूध है, सोने-चाँदी का दूध है, हीरे-मोतियों का दूध है, गन्धक का दूध है, गौओं का दूध है, वन-उपवनों का दूध है। ये सब दूध हमारे लिए अमृततुल्य हैं। ओषधियों में भी दूध निहित है। ओषधियों में हरियाली का दूध है, पत्तियों का दूध है, फूलों का दूध है, पके फलों का दूध है। द्युलोक में भी दूध रखा हुआ है। द्युलोक में सूर्यप्रकाश का दूध है, नक्षत्रों की ज्योति का दूध है, आकर्षणशक्ति का दूध है। अन्तरिक्ष में भी परमेश्वर ने दूध रखा हुआ है। अन्तरिक्ष में पवन का दूध है, विद्युद् ज्योति का दूध है, पर्जन्य का दूध है, वृष्टि का दूध है। पृथिवी, ओषधि, द्यौ, अन्तरिक्ष के ये दूध हमारे लिए प्राण बरसाते हैं, हमें शक्ति देते हैं, जीवन देते हैं, वरदान देते हैं, आयुष्य देते हैं, अहोरात्र देते हैं, ऋतुएँ देते हैं, संवत्सर देते हैं, समृद्धि देते हैं, सौभाग्य देते हैं, अन्न देते हैं, धन-सम्पदा देते हैं, जागृति देते हैं। ये दूध हमें न मिलें, तो ब्रह्माण्ड से जीवन ही समाप्त हो जाए, प्रगति बिखर जाए, उत्कर्ष रुक जाए, रोहण और आरोहण मिट जाएँ, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की क्रीडा विरत हो जाए। ये दूध न मिलें, तो ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व, क्षत्रिय का क्षात्रबल, वैश्य का वैभव सब लुप्त हो जाएँ। ये दूध न मिलें, तो ब्रह्मचारियों का ब्रह्मचर्य और अध्ययन, गृहस्थों का गृहस्थ धर्म, वानप्रस्थों की आत्मोन्नति और जनसेवा तथा संन्यासियों का परोपकार शशशृङ्गवत् हो जाएँ। इन दूधों से धनी-गरीब की भूख मिटती है, इन दूधों से हमारी जीवन-यात्रा होती है। ये दूध हमारे लिए संजीवन-रस का काम करते हैं, ये दूध हमारे अन्दर प्राण भरते हैं। |

हे परमेश! हे जगदीश्वर ! आपने पृथिवी में ओषधियों में, द्यौ में, अन्तरक्षि में दूध रखा है, तो प्रदिशाओं को भी दूध से भर दो। पूर्व में दूध हो, पश्चिम में दूध हो, उत्तर में दूध हो, दक्षिण में दूध हो । प्रत्येक दिशा दूध से भरपूर हो जाए। प्रत्येक दिशा के वासी दूध पियें, दूध पिलाएँ, दूध में नहाएँ, दूध में सरसें-विकसे, दूध से समृद्ध हों, दूध की पिचकारियाँ छोड़े, दूध की बाल्टियाँ भरें। दिशाओं में दूध की हवाएँ चलें, दूध की वृष्टि हो, दूध के नदी-नाले बहें । शान्ति का दूध हो, प्रेम का दूध हो, आनन्द का दूध हो, उत्कर्ष का दूध हो, सङ्गठन का दूध हो, सहानुभूति का दूध हो, सत्सङ्ग का दूध हो, मैत्री का दूध हो, ईश्वरोपासना का दूध हो।

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार