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‘संसार के सभी मनुष्यों का धर्म क्या एक नहीं है?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार में सम्प्रति अनेक मत-मतान्तर फैले हुए हैं जिनकी अनेक मान्यतायें समान, कुछ भिन्न व कुछ एक दूसरे के विपरीत भी हैं। यह सभी मत किसी एक ऐतिहासिक पुरुष द्वारा चलाये गये हैं। यही भी सत्य है कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है। यह भी तथ्य है कि सभी मतों के प्रवर्तक वेद ज्ञान से शून्य थे। सब मतों का अपना-अपना एक व एक से अधिक ग्रन्थ हैं जिसे वह धर्म ग्रन्थ कहते हैं और उसकी शिक्षाओं को मानना ही अपना धर्म समझते हैं। यदि सभी मतों की सभी बातें सत्य होती, परस्पर विरोधी न होती, पूर्ण निष्पक्ष होती, तो किसी को कुछ कहने के लिए नहीं था। सभी मतों में प्रायः एक समान्य बात देखने को मिलती है और वह यह है कि वह अपने मतों की समीक्षा, परीक्षा व मूल्याकंन कि वह सभी सत्य हैं तथा उनमें कहीं कोई बात असत्य तो नहीं है, इसका विचार नहीं करते। इनका यह विचार व स्वभाव ज्ञान की उन्नति व विज्ञान के सिद्धान्तों के सर्वथा विपरीत होने से विचारणीय प्रतीत होता है। दूसरी ओर सृष्टि के आरम्भ से चला आ रहा वैदिक धर्म, जिसका आधार ग्रन्थ चार वेद हैं, अपने अनुयायियों को सभी ग्रन्थों के स्वाध्याय, मनन, विचार, चिन्तन, सत्यान्वेषण, सत्य व भद्र के ग्रहण व असत्य-अभद्र के त्याग की पूरी अनुमति व स्वतन्त्रता देता है। इस वैदिक धर्म का पुनरुद्धार करने वाले महर्षि दयानन्द (1825-1883) सभी सत्य मान्यताओं व उनके आचरण को ही धर्म मानते हैं। उनका कहना है कि सभी मतों में जो सत्य है, वह सबमें एक समान होने से धर्म है और उनमें जो सत्य नहीं है, वह उनका अपना है, वह धर्म नहीं हैं। महर्षि दयानन्द वेदों को ईश्वर प्रदत्त होने से स्वतः प्रमाण मानते हैं और अन्य सभी ऋषियों के रचित शास्त्रों के वेदानुकूल होने पर सत्य व विरुद्ध होने पर संशोधनीय, उसमें सुधार करने वा उन्हें त्याज्य मानते हैं। उनके अनुसार जिस मत में सत्य व असत्य दोनों प्रकार की न्यूनाधिक मान्यतायें व सिद्धान्तों हों, उसे वह मत, सम्प्रदाय, मजहब ही स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में धर्म वह है, जो शत-प्रतिशत सत्यासत्य की दृष्टि से विवेचित, तर्क व युक्तियों से पोषित, समीक्षा किया गया, सृष्टिक्रम के पूर्णरूपेण अनुकूल, मनुष्यों में किसी प्रकार के भेदभाव से रहित, सबकी समानता का पोषक, हिंसा, छल, कपट, प्रलोभन से रहित तथा साथ हि जो विचार व चिन्तन कर असत्य पाये जाने पर उसमें संशोधन की अनुमति देता हो।

 

धर्म को समझने के लिए हमें यह जानना है कि संसार में तीन सत्य, नित्य व अनादि पदार्थ है जिनमें एक चेतन ईश्वर है, दूसरा चेतन जीवात्मा व तीसरा जड़ प्रकृति है। इन तीनों में एक हम व संसार के सभी प्राणी चेतन जीवात्मा होते हैं जिनकी संख्या अनन्त हैं। चेतन तत्व में ज्ञान व गति होती है। गति को कर्म के नाम व रूप में भी जान सकते हैं। जीवात्मा का एक गुण व स्वभाव, जन्म व मृत्यु, फिर जन्म और फिर मृत्यु को प्राप्त होना है। यह जन्म व मृत्यु तथा अनेक प्राणी योनि में से एक समय में किसी एक योनि विशेष में इसका जन्म इसके द्वारा पूर्व व वर्तमान मनुष्य योनि में किये गये व किए जाने वाले शुभ व अशुभ कर्मों का परिणाम होता है। परमात्मा का कर्तव्य है कि वह जीव को करणीय व अकरणीय कर्तव्यों का ज्ञान कराये। यह ज्ञान वह सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में चार ऋषियों व अनेक स्त्री-पुरूषों की रचना कर करता है। परमात्मा द्वारा कर्तव्य व अकर्तव्यों का ज्ञान ही ‘‘चार वेद अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। यही कारण है कि विगत लगभग 2 अरब वर्षों से यह ज्ञान हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों की कृपा से आज तक मूल रूप में सुरक्षित है। चारों वेदों की भाषा दिव्य संस्कृत है जो ईश्वर व ऋषियों की भाषा है। समय के साथ अनेक उतार चढ़ाव देश व समाज में आये। अतः ऋषियों ने वेदों को समझाने के लिए उसके अंग व उपांग रूप ग्रन्थों की रचना की। इसके बाद भी जब लोगों ने वेद समझने में कठिनाईयों का अनुभव किया तो ईश्वर प्रदत्त क्षमता से ऋषि और वैदिक विद्वानों ने संस्कृत व हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में वेदों का तात्पर्य समझाने के लिए भाष्य व टीकायें लिखी जिसे पढ़कर भी वेदों में निहित मनुष्यों के कर्तव्य व अकर्तव्यों को जाना जा सकता है। वेदों में निर्दिष्ट कर्तव्य ही धर्म कहलाते हैं और निषिद्ध व कर्तव्यों के विपरीत कार्य व क्रियाओं को ही अधर्म कहा जाता है। संसार के मत व सम्प्रदायों की पुस्तकें जिस सीमा तक वेदों के अनुकूल मान्यताओं व सिद्धान्तों से युक्त हैं, वहां तक वह धर्मयुक्त हैं और जो बातें, कहीं की व किसी की भी, वैदिक शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों के विपरीत हैं, वह धर्म नहीं हैं और कहीं-कहीं अधर्म भी हैं। धर्म का पालन करने से सभी मनुष्यों की उन्नति होती है, हानि किसी भी मुनष्य या प्राणी की नहीं होती और अधर्म वह है जो अज्ञान के कारण अपने लाभ के लिए किया जाता है जिससे दूसरों को हानि पहुंचने से वह धर्म न होकर अधर्म ही होता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि सभी संसार के लोग वेदों की शिक्षाओं को पूर्णतः मानें जो कि सबके लाभ व हित के लिए हैं अथवा वह अपने-अपने मत की पुस्तकों का वेदों से मिलान कर उसे संशोधित व परिष्कृत करें। यह संसार व संसार के सभी मनुष्यों के हित में है। यदि ऐसा करते हैं तो विश्व में प्रेम व भ्रातृभाव में वृद्धि होगी अन्यथा हानि ही होगी व हो रही है।

 

धर्म के विषय में यदि हम सामान्य रूप से विचार करें तो धर्म किसी पदार्थ के गुणों को कहते हैं जो सदैव एक समान रहते हैं। अग्नि का गुण जलाना, ताप देना व प्रकाश करना है। साथ ही हम आंखों से जिन आकारवान पदार्थों को देखते हैं वह उनमें अग्नि की उपस्थिति व उसके व्याप्त होने के कारण ही दिखाई देती हैं। यह ताप, जलना, प्रकाश व दर्शन अग्नि का धर्म है। जल का गुण शीतलता देना, मनुष्यों की पिपासा को शान्त करना, अन्न उत्पत्ति में सहायक होना, वर्षा द्वारा स्थान-स्थान पर ओषधियों, अन्न व फलों को उत्पन्न करना व अनेक प्रकार से सभी प्राणियों के लिए उपयोगी होता है। जल का मुख्य गुण शीतलता है। इसी प्रकार से वायु का गुण स्पर्श, पृथिवी का अपना मुख्य गुण गन्ध तथा आकाश का शब्द है। इसी प्रकार से जब जीवात्मा वा मनुष्य की बात करते हैं तो मनुष्य के धर्म में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति को जानना, ईश्वरोपासना करना, यज्ञ करना, माता-पिता-आचार्य- अतिथियों का आदर व सत्कार करना आदि कर्तव्य होते हैं। प्राणी मात्र को प्रेम व मित्र की दृष्टि से देखना और उनके प्रति किसी प्रकार की हिंसा का भाव अपने अन्दर न लाना, वेदों का अध्ययन, गृहस्थ आश्रम के वेद प्रतिपादित कर्तव्यों का पालन, सबसे प्रीतिपूर्वक, यथायोग्य, धर्मानुसार व्यवहार करना ही मनुष्य का धर्म निश्चित होता है। मनुष्य का यह भी कर्तव्य व धर्म है कि स्वयं धर्म को जानकर धर्म को न जानने वाले व विपरीत आचरण करने वालों को यथायोग्य व्यवहार और साम, दाम, दण्ड व भेद की सहायता से उन्हें धर्म का ज्ञान व पालन करना सिखाये। धर्म में हिंसा, अत्याचार, बल प्रयोग, छल, कपट, प्रलोभन आदि का व्यवहार करना अनुचित होता है। जो भी व्यक्ति इनको करता है वह धार्मिक कदापि नहीं हो सकता। इससे यह भी ज्ञात होता है कि संसार के सभी मनुष्यों का धर्म केवल और केवल एक ही है। जिस मत में सब सत्य गुणों का समावेश हो वह धर्म और जिसमें असत्य व दूसरों के प्रति अनुचित व्यवहार व ज्ञान पूर्वक कर्मों का अभाव व न्यूनता हो वह धर्म न होकर मत, पन्थ व सम्प्रदाय की श्रेणी में ही होते हैं। इस दृष्टि से संसार में धर्म तो एक ही सत्याचरण है। यह धर्म वैदिक धर्म है। यदि कोई अपने आप को वैदिक धर्मी कहे और आचरण वेदों के विरुद्ध करे तो वह वैदिक धर्मी होकर भी आचरण की दृष्टि से धार्मिक न होकर उस सीमा तक अधार्मिक ही होता है जिस सीमा तक उसका व्यवहार वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के विपरीत होता है।

 

धर्म का एक आवश्यक अंग ईश्वरोपासना है। ईश्वरोपासना क्या है? यह मनुष्यों द्वारा ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, ईश्वर का ध्यान, दुष्ट व बुरे कर्मों का त्याग व सत्याचरण का ग्रहण, प्राणिमात्र पर दया व परोपकार आदि को कहते हैं। इस प्रकार के कर्म व पुरुषार्थ करके अपने सभी शुभकर्मों को ईश्वर को समर्पित करना और ईश्वर का ध्यान व चिन्तन कर स्वयं को अहंकार शून्य करना ही ईश्वरोपासना है और सभी मनुष्यों का धर्म है। ईश्वर को जान लेने और उपासना करने से ईश्वर से हमें प्रारब्ध और पुरुषार्थ के अनुसार सुख व दुःख आदि मिलते ही हैं, उपसना का अतिरिक्त फल भी प्राप्त होता है। महर्षि दयानन्द ने बताया है कि ईश्वर की उपासना का अतिरिक्त फल यह मिलता है कि जिस प्रकार अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है उसी प्रकार ईश्वर का ध्यान व उपासना करने से जीवात्मा के सभी अभद्र गुण-कर्म-स्वभाव दूर होकर, ईश्वर के अनुरुप भद्र होते जाते हैं। इतना ही नहीं, आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि मृत्यु के समान बड़े से बड़ा दुःख प्राप्त होने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है और उसे सहन कर लेता है। यह छोटी बात नहीं है। अन्य किसी प्रकार से यह आत्मिक बल प्राप्त नहीं होता, अतः सभी को अष्टांग योग की विधि से ईश्वर की सत्य व शुभ परिणामदायक उपासना अवश्य करनी चाहिये।

 

सृष्टि उत्पत्ति के कुछ समय बाद मनुष्यों को नियम में रखने के लिए एक राजा, राज परिषद व राज नियमों की आवश्यकता हुई थी। यह कार्य वेदों के ऋषि महर्षि मनु ने किया था और संसार को एक अद्वितीय ग्रन्थ ‘‘मनुस्मृति दिया। अपने आरम्भ काल से लेकर महाभारत व उसके बाद की कई शताब्दियों तक मनुस्मृति अपने शुद्ध स्वरुप में विद्यमान रही। उसके बाद उत्पन्न अनेक सम्प्रदायों के लोगों ने इसमें अपनी-अपनी अशुद्ध व वेद विरुद्ध मान्यताओं के श्लोक बनाकर मिला दिये। इस प्रकार मनुस्मृति अनेक प्रक्षेपों से युक्त हो गई। इस मनुस्मृति में धर्म के लक्षण विषयक एक मूल श्लोक है जिसमें उन्होंने कहा है कि धर्म के दश प्रमुख लक्षण धृति अर्थात् धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, सदबुद्धि, विद्या, सत्य व अक्रोध हैं। जिस मनुष्य में यह लक्षण हों वही धार्मिक होता है। धर्म के यह दश लक्षण सभी मनुष्यों में कुछ-कुछ पाये जाते हैं, किसी में कुछ कम व किसी में कुछ अधिक, परन्तु धर्म के दसों लक्षणों से पूर्णतया युक्त व उसके विपरीत गुणों व लक्षणों से सर्वथा रहित मनुष्यों का मिलता दूभर है। हमें मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण और महर्षि दयानन्द आदि में यह लक्षण पूर्ण रुप से विद्यमान दिखाई देते हैं। यह तीनों महात्मा वस्तुतः पूर्ण धार्मिक थे। इनके बाद इतिहास में इनके समान इन दस लक्षणों से युक्त व इनका सर्वात्मा प्रचार करने वाला मनुष्य वा महापुरुष हमें दृष्टिगोचर नहीं होता। यह धर्म के लक्षण भी सार्वभौमिक एवं सार्वजनीन है। इनसे भी मनुष्यों का एक धर्म होना सिद्ध होता है। इन लक्षणों को मानने वाले सभी मनुष्य वैदिक धर्मी वा मनु-मत के अनुयायी ही सिद्ध होते हैं जिसमें संसार के सभी मनुष्य आ जाते हैं। इन लक्षणों के अनुरुप जीवन के निर्माण के लिए वैदिक शिक्षा पूर्ण सहायक है। वर्तमान की स्कूली शिक्षा में इन धार्मिक लक्षणों के अनुरुप शिक्षा न होने के कारण वास्तविक धर्म हमारे जीवन में न्यूनतम हो गया है।

 

संसार में जितनी भी मनुष्यों की भौगोलिकि दृष्टि से जातियां, मत व सम्प्रदाय हैं उसके सभी मनुष्यों को सुख समान रूप से प्रिय लगते हैं व दुःख सबको समान रुप से सताते हैं। ऐसा कोई नहीं कि भारत में किसी को सुई चुभायें तो उसे दुःख होता हो और यूरोप व अन्य किसी देश-प्रदेश में ऐसा ही किया जाये तो वहां सुख होता हो। इससे तो यही सिद्ध हो रहा है कि संसार के सभी मनुष्यों के गुण-कर्म-स्वभाव, कर्तव्य व धर्म एक ही वा एक प्रकार के हैं। सत्य बोलना, सत्य का आचरण करना, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना और बड़ों का आदर सभी मतों में एक समान हैं। यदि सभी धर्मों व मतों की मौलिक शिक्षायें एक ही प्रकार की हैं, तो यह सभी मनुष्यों का एक धर्म होने का संकेत कर रही हैं। संसार के सभी मनुष्यों को उनके एक समान धर्म के अधिकार से वंचित किया जाना उनके प्रति व मानवता के प्रति न्याय नहीं है। हम सभी मत व सम्प्रदायों के आचार्यों से यह कहना चाहते हैं कि वह स्वयं से ही प्रश्न करें कि क्या संसार के लोगों के धर्म व मत अलग-अलग मानना उचित है? हमें लगता है कि उत्तर नहीं में मिलेगा। यह बात इससे भी सिद्ध है कि कुछ मतों के लोग दूसरे मतों व धर्मों के लोगों का लोभ, बल प्रयोग, छल-कपट व हिंसा आदि से धर्म-परिवर्तन करते हैं। इतिहास इस प्रकार की घटनाओं से भरा पड़ा है। यदि एक व्यक्ति का एक व अधिक बार अन्य अन्य मतों में धर्म परिवर्तन हो सकता है तो यह सम्प्रदाय परिवर्तन ही कहा जा सकता है, धर्म परिवर्तन नहीं। इस धर्म परिवर्तन से उस व्यक्ति में गुणों व लक्षणों की दृष्टि कुछ मौलिक परिवर्तन होता हुआ देखा नहीं जाता। जैसा वह पहले होता है, वैसा ही बाद में भी रहता है। हां, उसके कपड़े, रहन-सहन के तरीके व पूजा पद्धति में किंचित बदलाव होता है परन्तु उसके सुख-दुःखों में कोई अन्तर आता हो, इसका पता नहीं चलता। सुख में वृद्धि तो सत्याचरण व ईश्वर के निकट जाने से ही मिलती है और उस ईश्वर से दूरी होने पर दुःख, अवनति व विनाश ही होता है। हमारा विनम्र निवेदन है कि सभी मतों व धर्मों के लोग सच्चे मन से विचार करें कि क्या सभी मनुष्यों का धर्म एक ही है या नहीं? अगर किसी से कोई नई बात पता चलती है, तो हम अनुग्रहीत होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘न्यायकारी व दयालु ईश्वर कभी किसी का कोई पाप क्षमा नहीं करता।’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार में दो प्रकार के पदार्थ हैं, चेतन व जड़ पदार्थ। चेतन पदार्थ भी दो हैं एक ईश्वर व दूसरा जीवात्मा। ईश्वर संख्या में केवल एक हैं जबकि जीवात्मायें संख्या में अनन्त हैं। ईश्वर के ज्ञान में जीवात्माओं की संख्या सीमित है परन्तु अल्पज्ञ जीवात्माओं की अल्प शक्ति होने के कारण वह बड़ी संख्या अनन्त ही होती है। चेतन पदार्थों में ज्ञान व कर्म, दो गुण पाये जाते हैं। सर्वथा ज्ञानहीन सत्ता चेतन नहीं हो सकती, वह सदैव जड़ ही होगी। इसी प्रकार से ज्ञान से युक्त सत्ता जड़ नहीं हो सकती वह सदा चेतन ही होगी। दो प्रकार की चेतन सत्ताओं में से एक सत्ता सर्वव्यापक है तो दूसरी एकदेशी है। सर्वव्यापक सत्ता सर्वज्ञ है और एकदेशी सत्ता अल्पज्ञ अर्थात् अल्पज्ञान वाली है। यह दोनों चेतन सत्तायें तथा एक तीसरी जड़ सत्ता प्रकृति, यह तीनों अनादि, अनुत्पन्न व नित्य हैं। अनादि होने के कारण इनका कभी अन्त वा नाश नहीं होगा। यह सदा से हैं और सदा रहेंगी। इसी कारण आत्मा को अनादि व अमर कहा जाता है। ईश्वर सर्वव्यापक होने के साथ निराकार, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ भी है। सर्वज्ञ का अर्थ है कि ईश्वर में ज्ञान की पूर्णता व पराकाष्ठा है, न्यूनता किेचित नहीं है। यह सर्वज्ञता उसमें स्वाभाविक है और अनादि काल से है तथा अनन्त काल तक अर्थात् सदैव बनी रहेगी। ईश्वर सत्व, रज व तम गुणों वाली, त्रिगुणात्मक सूक्ष्म प्रकृति से इस सृष्टि की रचना करता है, उसका पालन करता है और अवधि पूरी होने पर प्रलय भी करता है। ईश्वर ही समस्त प्राणी जगत का उत्पत्तिकर्ता और पालनकर्ता है जिसमें मनुष्य व सभी पशु, पक्षी आदि प्राणी सम्मिलित है। यह भी जानने योग्य है कि ईश्वर से अधिक व उसके समान कोई सत्ता ब्रह्माण्ड में नहीं है। ईश्वर एक है और वह अपने समस्त कार्य स्वयं, अकेला व स्वतन्त्र रूप से करता है। उसे अपने कार्यों के सम्पादन में किसी अन्य जड़ व चेतन सत्ता अर्थात् प्रकृति व जीवात्माओं की अपेक्षा नहीं है। प्रकृति व सृष्टि उसके पूर्ण रूप से वश में है तथा जीव कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में ईश्वरीय व्यवस्था में परतन्त्र है।

 

ईश्वर में अनन्त गुण हैं जिनमें उसका न्यायकारी होना व दयालु होना भी सम्मिलित है। दयालु होने के कारण कुछ भावुक व स्वार्थी प्रकृति के लोग अविवेकपूर्ण बात कह देते हैं कि ईश्वर दयालुता के कारण जीवात्माओं के पापों को क्षमा कर देता है। पापों को क्षमा करने की बात ईश्वर के स्वभाव के सर्वथा विपरीत है। ईश्वर किसी मनुष्य के किसी कर्म को दयालु होने पर कदापि किंचित क्षमा नहीं करता और न हि कर सकता है। यदि वह किसी के पापों को क्षमा करेगा तो फिर वह न्यायकारी न होकर अन्यायकारी कहा जायेगा। यह अन्याय उस मनुष्यादि प्राणी के प्रति होगा जिसके प्रति अपराध व पाप हुआ है। दया का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि दयालु व्यक्ति किसी बुरा काम करने वाले व्यक्ति के काम को क्षमा कर दे। यदि कोई ऐसा करता है तो वह उस व्यक्ति का अपराधी होता है जिसके प्रति अपराध हुआ है। हम यह सभी जानते हैं कि अपराध को क्षमा करने से अपराध की प्रवृत्ति कम होने के स्थान पर बढ़ती है। दूसरी बात यह भी है कि जिस व्यक्ति के प्रति अपराध किया गया है, वह निर्दोष व्यक्ति भी अपराध क्षमा करने वाले के प्रति अविश्वास की भावना रखने लगता है जो कि उचित ही है। यदि ईश्वर ऐसा करेगा तो उसके प्रति भी यही विचार बनेंगे। मनुष्य तो अपने राग, द्वेष, हठ, दुराग्रह, स्वार्थ व अविद्यादि दोषों से ऐसा कर सकता है परन्तु सर्वशक्तिमान व सबके सब कर्मों का साक्षी परमात्मा ऐसा नहीं कर सकता। हम देखते हैं कि संसार में अपने धार्मिक मतों की मान्यताओं के अनुसार उन उन मतों का ईश्वर अपने भक्तों के पापों को क्षमा कर देता है, ऐसा कहा जाता व प्रचार किया जाता है। इसका एक प्रयोजन यह भी लगता कि उस मत के लोग दूसरे मत के लोगों को फंसा कर अपने मत में लाना चाहते हैं और अपने मत के लोग दूसरे सच्चे मतों में न चले जायें, यह उनका उद्देश्य होता है। अब उनसे प्रश्न है कि यदि उन मतों के अनुयायियों के पापों को उनके ईश्वर ने क्षमा कर दिया है तो फिर वह रोगी क्यों होते है, दुःख क्यों भोगते हैं, किस कारण उनकी इच्छायें पूरी नहीं होती, वह धन व सुख की कामना करते हैं, अधिकांश को वह नहीं मिलता, इसका क्या कारण है? जब कोई पाप बचा ही नहीं तब भी मनुष्य का दुःखी होना उस मत के ईश्वर का पापरहित जीवात्माओं के प्रति अन्याय ही कहा जायेगा। अब उसी दयालुता कहां गईं। किसी बात का दुःख उन मनुष्यों को मिल रहा है, जिनके पाप क्षमा कर दिये गये हैं? इसका एक ही कारण है कि ईश्वर एक है और वह सभी मतों के अनुयायियों को एक समान रूप से कर्मों के फल प्रदान करता है। दुःख हमारे जाने व अनजाने, इस जन्म व पूर्व जन्म में किये गये कर्मों का परिणाम होते है, और ईश्वर उन्हें किसी भी स्थिति में क्षमा नहीं करता। यदि हमारे पूर्व कृत बुरे कर्मों व पापों को ईश्वर क्षमा कर देता तो हम ज्ञान, स्वास्थ्य, साधनों व धन आदि में पूर्णतया सन्तुष्ट व सुखी होते। किसी को भी कोई क्लेष, कष्ट व दुःख नहीं होता। हमें अपनी किसी इच्छित वस्तु का किेंचित अभाव व कमी न होती। ऐसा न होने का कारण यही है कि हमारा प्रारब्ध व इस जन्म के कर्म ही हमारे इच्छित भोगों की प्राप्ति में बाधक हैं। यह भी स्पष्ट कर दें कि एक बार पाप हो जाने पर वह किसी पौराणिक पूजा व क्रिया से भी समाप्त नहीं हो सकता। उसका तो केवली एक ही उपाय है प्रायश्चित। प्रायश्चित करने में किसी धर्म गुरू आदि की आवश्यकता नहीं है। प्रायश्चित स्वयं किया जाना है। उसमें तो अपने उस कर्म की भर्तस्ना व निन्दा करनी है जिससे की भविष्य में वह पाप न हो। किये पाप का फल तो प्रायश्चित करने पर भी भोगना ही होता है क्योंकि यदि उसका फल ईश्वर नहीं देगा तो वह न्यायकारी नहीं रहेगा। हां पाप का फल देते हुए, और क्षमा प्रार्थना को अस्वीकार कर भी ईश्वर दयालु ही रहता है जिस प्रकार माता-पिता व आचार्य बच्चों के दोषों को दूर करने के लिए दण्ड देते समय उनके हित के लिए व अपनी दया प्रदर्शित करने के कारण ही उसे दण्ड देते हैं। दण्ड का उद्देश्य सुधार है, हां अकारण दण्ड देना अनुचित है जो कि ईश्वर कभी किसी के प्रति नहीं करता।

 

आईये, वेदों के महान विद्वान, विश्व गुरू व धर्मवेत्ता महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश में लिखे एतद् विषयक प्रकरण पर एक दृष्टि डाल लेते हैं। महर्षि ने प्रश्न प्रस्तुत किया है कि ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि (ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा) नहीं करता। जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाय, और सब मनुष्य महापापी हो जायें, क्योंकि क्षमा की बात सुन कर ही उन को पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उन को भी भरोसा हो जाय कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे ओर जो अपराध नहीं करते, वे भी अपराध करने से न डर कर, पाप करने में प्रवृत हो जायेंगे। इसलिये सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं। (प्रश्न) जीव स्वतन्त्र है वा परतन्त्र? (उत्तर) अपने कर्तव्य कर्मों में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र हैं। स्वतन्त्रः कर्त्ता यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र है। जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है, वही कर्त्ता है। (प्रश्न) स्वतन्त्र किस को कहते हैं? (उत्तर) जिस के आधीन शरीर, प्राण, इन्द्रिय और अन्तःकरणादि हों। जो स्वतन्त्र न हो तो उस को पाप-पुण्य का फल प्राप्त कभी नहीं हो सकता। क्योंकि, जैसे भृत्य, स्वामी और सेना, सेनाध्यक्ष की आज्ञा अथवा प्रेरणा से युद्ध में अनेक पुरुषों को मार के अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और आधीनता से काम सिद्ध हों तो जीव को पाप वा पुण्य न लगे। उस फल का भागी प्रेरक परमेश्वर होवे। स्वर्ग-नरक, अर्थात् सुख-दुःख की प्राप्ति भी परमेश्वर को होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्र विशेष से किसी को मार डाला तो वही मारने वाला पकड़ा जाता है, और वही दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं। वैसे ही पराधीन जीवन पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसलिये अपने सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र, परन्तु जब वह पाप कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप के फल भोगता है। इसलिये कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है। (प्रश्न) जो परमेश्वर जीव को न बनाता और सामर्थ्य न देता तो जीव कुछ भी न कर सकता। इसलिए परमेश्वर की प्रेरणा ही से जीव कर्म करता है। (उत्तर) जीव उत्पन्न कभी नहीं हुआ, अनादि है। ईश्वर और जगत् का उपादान कारण, नित्य है। जीवात्मा का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाये हुए हैं, परन्तु वे सब जीव के आधीन हैं। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है, वही भोक्ता है, ईश्वर नहीं। जैसे किसी ने पहाड़ से लोहा निकाला, उस लोहे को किसी व्यापारी ने लिया, उस की दुकान से लोहार ने ले तलवार बनाई, उससे किसी सिपाही ने तलवार ले ली, फिर उस से किसी को मार डाला? अब यहां जैसे वह लोहे को उत्पन्न करने, उस से लेने, तलवार बनाने वाले और तलवार को पकड़ कर राजा दण्ड नहीं देता किन्तु, जिसने तलवार से मारा, वही दण्ड पाता है। इसी प्रकार शरीरादि की उत्पत्ति करने वाला परमेश्वर उस के कर्मों का भोक्ता नहीं होता, किन्तु जीव को भुगाने वाला होता है। जो परमेश्वर कर्म कराता होता तो कोई जीव पाप नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने में प्ररेणा नहीं करता। इसलिए जीव अपने काम करने में स्वतन्त्र है। जैसे जीव अपने कामों के करने में स्वतन्त्र है, वैसे ही परमेश्वर भी अपने कामों के करने में स्वतन्त्र है। अर्थात् जीवों के पाप-पुण्य रूपी कर्मों के फल देने में ईश्वर स्वतन्त्र है, वह जीवों के पापों को क्षमा नहीं करता और इससे उसकी दया में किंचित हानि नहीं उत्पन्न होती।

 

हम समझते हैं कि ईश्वर के न्याय व दया का स्वरूप पाठकों को स्पष्ट विदित हो गया होगा। दोनों पृथक पृथक है। संसार में कोई मनुष्य किसी मत व सम्प्रदाय को माने, परन्तु जो अशुभ व पाप कर्म वह करेगा उसका दण्ड उसको ईश्वर अवश्य देगा और जीवों को वह भोगना ही पड़ेगा। कोई जीव अपने अशुभ व पाप कर्म के फल से बच नहीं सकता और न संसार में कोई मनुष्य, धर्मगुरू बचा सकता है, ईश्वर भी किसी को बिना पाप का फल भोगे, छोड़ नहीं सकता। जब ऐसा है तो फिर बुरे कर्म करें ही क्यों? इसी कारण हमारे पूर्वज वेदों का ज्ञान प्राप्त कर ऋषि व विद्वान बनते थे और पाप नहीं करते थे। जब से संसार में अनेकानेक मतों की वृद्धि हुई है, उसी अनुपात में अशुभ-पाप कर्म भी बढ़े हैं। कर्म-फल सिद्धान्त को जानकर मनुष्य पाप करने से बच सकता है और पवित्रात्मा बनकर लोक-परलोक में उन्नति कर सकता है। अन्त में यह भी कहना चाहते हैं कि कई बार लोग अपने दुःखों से दुःखी होकर इसके लिए ईश्वर को दोष देते हैं। वह कहते हैं कि हमने इस जन्म में तो कोई बुरा कर्म किया नहीं फिर हमें यह भीषण दुःख कयों? उनकी यह भी दलील होती है कि उनकी जानकारी में बुरे कर्म करने वाले सुखी हैं। इसका कारण हमारे पिछले जन्म के कारण ही सम्भावित होते हैं। हम भूल चुके हैं परन्तु ईश्वर कुछ भी भूलता नहीं है। कर्म-फल सिद्धान्त भी यही है कि कर्मों के फल जन्म-जन्मान्तर में भोगे जाते हैं। अतः दुःखी व्यक्ति को ईश्वर में विश्वास रखते हुए यह सोचकर सन्तोष करना चाहिये कि जो कर्म भोग लिए वह तो कम हो ही गये और शेष कर्म भी ईश्वर को याद करते हुए भोग कर समाप्त हो जायेंगे। अन्य कोई उपाय भी हमारे पास नहीं है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन, तर्क, विवेचना और सम्यक् ज्ञान-ध्यान के बिना ईश्वर प्राप्त नहीं होता’ -मनमोहन कुमार आर्य

संसार में किसी भी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसे देखकर व विचार कर कुछ-कुछ जाना जा सकता है। अधिक ज्ञान के लिये हमें उससे सम्बन्धित प्रामाणिक विद्वानों व उससे सम्बन्धित साहित्य की शरण लेनी पड़ती है। इसी प्रकार से ईश्वर की जब बात की जाती है तो ईश्वर आंखों से दृष्टिगोचर नहीं होता परन्तु इसके नियम व व्यवस्था को संसार में देखकर एक अदृश्य सत्ता का विचार उत्पन्न होता है। अब यदि ईश्वर की सत्ता के बारे में प्रामाणिक साहित्य मिल जाये तो उसे पढ़कर और उसे तर्क व विवेचना की तराजू में तोलकर सत्य को पर्याप्त मात्रा में जाना जा सकता है। ईश्वर का ज्ञान कराने वाली क्या कोई प्रमाणित पुस्तक इस संसार में है, यदि है तो वह कौन सी पुस्तक है? इस प्रश्न का उत्तर कोई विवेकशील मनुष्य ही दे सकता है। हमने भी इस विषय से सम्बन्धित अनेक विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़ा है। उन पर विचार व चिन्तन भी किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि संसार की धर्म व ईश्वर की चर्चा करने वाली पुस्तकों में सबसे अधिक प्रमाणित पुस्तक ‘‘चार वेद” ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। इसके साथ ही वेदों की अन्य टीकाओं सहित वेदों पर आधारित दर्शन एवं उपनिषद आदि ग्रन्थ भी हैं। इन ग्रन्थों वा ईश्वर के स्वरूप विषयक ग्रन्थों का वेदानुकूल भाग ही प्रमाणित सिद्ध होता है। वेद के बाद सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका प्रमुख हैं। इनकी विशेषता यह है कि इन्हें एक साधारण हिन्दी भाषा का जानने वाला व्यक्ति पढ़कर ईश्वर के सत्यस्वरूप से अधिकांशतः परिचित हो जाता है और इसके बाद केवल योग साधना द्वारा उसका साक्षात्कार करने का कार्य ही शेष रहता है।

 

किसी भी मनुष्यकृत पुस्तक की सभी बातें सत्य होना सम्भव नहीं होता अतः यह कैसे स्वीकार किया जाये कि वेद में सब कुछ सत्य ही है? इसका उत्तर है कि हम संसार की रचना व व्यवस्था में पूर्णता देखते हैं। इसमें कहीं कोई कमी व त्रुटि किसी को दृष्टिगोचर नहीं होती। दूसरी ओर मनुष्यों की रचनाओं को देखने पर उनमें अपूर्णता, दोष व कमियां दृष्टिगोचर होती हैं। अतः मनुष्यों द्वारा रचित सभी पुस्तकें व ग्रन्थ अपूर्णता, अशुद्धियों, त्रुटियों व कमियों से युक्त होते हैं। इसका मुख्य कारण मुनष्यों का अल्पज्ञ, ससीम व एकदेशी होना है। यह संसार किसी एक व अधिक मनुष्यों की रचना नहीं है। सूर्य मनुष्यों ने नहीं बनाया, पृथिवी, चन्द्र व अन्य ग्रह एवं यह ब्रह्माण्ड मनुष्यों की कृति नहीं है, इसलिए कि उनमें से किसी में इसकी सामथ्र्य नहीं है। यह एक ऐसी अदृश्य सत्ता की कृति है जो सत्य, चित्त, दुःखों से सर्वथा रहित, अखण्ड आनन्द से परिपूर्ण, सर्वातिसूक्ष्म, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टि निर्माण के अनुभव से परिपूर्ण, जीवों के प्रति दया व कल्याण की भावना से युक्त, अनादि, अज, अमर, अजर व अभय हो। ऐसी ही सत्ता को ईश्वर नाम दिया गया है। उसी व ऐसी ही अदृश्य सत्ता से मनुष्यों को सृष्टि के आदि में ज्ञान भी प्राप्त होता है। यह ऐसा ही कि जैसे सन्तान के जन्म के बाद से माता-पिता अपनी सन्तानों को ज्ञानवान बनाने के लिए सभी उपाय करना आरम्भ कर देते हैं। यदि संसार में व्यापक उस सत्ता से आदि मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त न हो तो फिर उस पर यह आरोप आता है कि वह पूर्ण व ज्ञान देने में समर्थ नहीं है अर्थात् उसमें अपूर्णता या कमियां हैं।

 

हम संसार में वेदों को देखते है और जब उसका अध्ययन कर उसकी बातों पर विचार करते हैं तो यह तथ्य सामने आता है कि वेदों की कोई बात असत्य नहीं है। वेदों की एक शिक्षा है मा गृधः अर्थात् मनुष्यों को लालच नहीं करना चाहिये। लालच के परिणाम हम संसार में देखते हैं जो अन्ततः बुरे ही होते हैं। एक व्यक्ति धन की लालच में चोरी करता है। एक बार व कई बार वह बच सकता है, परन्तु कुछ समय बाद पकड़ा ही जाता है और उसकी समाज में दुर्दशा होती है। वह अपने परिवारजनों सहित स्वयं की दृष्टि में भी गिर जाता है। इस एक शिक्षा की ही तरह वेदों की सभी शिक्षायें सत्य एवं मनुष्यों के लिए कल्याणकारी हैं। महर्षि दयानन्द चारों वेदों व वैदिक साहित्य के अधिकारी व प्रमाणिक विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों की एक-एक बात पर विचार किया था और सभी को सत्य पाया था। उसके बाद ही उन्होंने घोषणा की कि वेद सृष्टि की आदि में परमात्मा के द्वारा आदि चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया गया ज्ञान है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, इन नामों से उपलब्ध मन्त्र संहितायें सभी सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। इसमें परा विद्या अर्थात् आध्यात्मिक विद्यायें भी हैं और अपरा अर्थात् सांसारिक विद्यायें भी हैं। महर्षि दयानन्द की इस मान्यता को चुनौती देने की योग्यता संसार के किसी मत व मताचार्य में न तो उनके समय में थी और न ही वर्तमान में हैं। इसकी किसी एक बात को भी कोई खण्डित नहीं कर सका, अतः वेद मनुष्यकृत ज्ञान न होकर अपौरूषेय अर्थात् मनुष्येतर सत्ता से प्राप्त, ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध हंै। इसका प्रमाण महर्षि दयानन्द व आर्य विद्वानों का किया गया वेद भाष्य एवं अन्य वैदिक साहित्य है। यह ज्ञान सृष्टि के सभी पदार्थों जिनमें पूर्णता है, उसी प्रकार से पूर्ण एवं निर्दोष है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि संसार का कोई मत अपने मत की पुस्तक को सत्यासत्य की कसौटी पर न स्वयं ही परीक्षा करता है और न किसी को अधिकार देता है। अपनी पुस्तकों के दोषों को छिपाने के सभी ने अजीब से तर्क गढ़ लिये हैं जिससे उसके पीछे उनकी संशय वृत्ति का साक्षात् ज्ञान होता है। इसी कारण वह सत्य ज्ञान से दूर भी है और यही संसार की अधिकांश समस्याओं का कारण है।

 

किसी भी वस्तु के अस्तित्व को पांच ज्ञान इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अन्तःकरण वा आत्मा के द्वारा होने वाले ज्ञान व अनुभवों से ही जाना जाता है। यह संसार कब, किसने, कैसे व क्यों बनाया, इसका निभ्र्रान्त व युक्तियुक्त उत्तर किसी मत के विद्वान या वैज्ञानिकों के पास आज भी नहीं है। इसके अतिरिक्त चारों वेद बार-बार निश्चयात्मक उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह सारा संसार इसको बनाने वाले ईश्वर से व्याप्त है। यह चारों वेद संसार का सबसे प्राचीन ज्ञान व पुस्तकें हैं। यह महाभारतकाल में भी थे, रामायणकाल व उससे भी पूर्व, सृष्टि के आरम्भ काल से, विद्यमान हैं। अतः वेदों की अन्तःसाक्षी और संसार को देख कर तर्क, विवेचना व ईश्वर का ध्यान करने पर ईश्वर ही वेदों के ज्ञान का दाता सिद्ध होता है। इस कसौटी को स्वीकार कर लेने पर संसार के सभी जटिल प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं जिनका उल्लेख महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अपूर्व व अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में किया है।

 

ईश्वर विषयक तर्क व विवेचना हम स्वयं भी कर सकते हैं और इसमें 6 वैदिक दर्शनों योग-सांख्य-वैशेषिक-वेदान्त-मीमांसा और न्याय का भी आश्रय ले सकते हैं जो वैदिक मान्यताओं को सत्य व तर्क की कसौटी पर कस कर वेदों के ज्ञान को अपौरूषेय सिद्ध करते हैं। अतः ईश्वर का अस्तित्व सत्य सिद्ध होता है। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर संसार की उत्पत्ति की गुत्थी भी सुलझ जाती है। यदि ईश्वर है तो यह सृष्टि उसी की कृति है क्योंकि अन्य ऐसी कोई सत्ता संसार में नही है जो ईश्वर के समान हो। सृष्टि रचना का निमित्त कारण होने से प्राणीजगत, वनस्पति जगत व इसके संचालन का कार्य भी उसी से हो रहा है, यह भी ज्ञान होता है। वेदाध्ययन, दर्शन व उपनिषदों आदि वैदिक साहित्य का अध्ययन कर लेने पर जब मनुष्य ईश्वर, वेद, जीव व प्रकृति आदि विषयों का ज्ञान करता है तो ईश्वर की कृपा से इन सबका सत्य स्वरूप ध्याता व चिन्तक की आत्मा में प्रकट हो जाता है। इस ध्यान की अवस्था को योग दर्शन में समाधि कहा गया है। समाधि और कुछ नहीं अपितु वैदिक मान्यताओं को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना में लम्बी लम्बी अवधि तक विचार मग्न रहना व इसके साथ मन का ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य विषय को स्मृति में न लाना ही समाधि कहलाती है। इस स्थिति को प्राप्त करने का सभी मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये। अन्य मतों में बिना तर्क व विवेचना के उस मत की पुस्तक की मान्यताओं को न, नुच के मानना ही कर्तव्य बताया जाता है जबकि वैदिक धर्म व केवल वैदिक धर्म में इस प्रकार का किंचित बन्धन नहीं लगाया गया है। साधक व उपासक को स्वतन्त्रता है कि हर प्रकार से ईश्वर के अस्तित्व को जांचे व परखे और असत्य का त्याग कर सत्य को ही ग्रहण करे।

 

अतः निष्कर्ष में यह कहना है कि ईश्वर के यथार्थ ज्ञान के लिए विचार व चिन्तन के साथ वेद, वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन और योगाभ्यास करते हुए विचार, ध्यान, चिन्तन व उपासना कर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने अनेक ग्रन्थ लिखकर यह कार्य सरल कर दिया है। स्वाध्याय के आधार पर हमारा यह भी मानना है कि वैदिक धर्मी स्वाध्यायशील आर्यसमाजी ईश्वर को जितना पूर्णता से जानता व अनुभव करता है, सम्भवतः संसार के किसी मत का व्यक्ति अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि वहंा आधेय के लिए आधार वैदिक धर्म की तुलना में कहीं अधिक दुर्बल है। आईये, वेदाध्ययन, वैदिक साहित्य के अध्ययन, सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों का बार-बार अध्ययन करने सहित योगाभ्यास का व्रत लें और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को सिद्ध कर जीवन को सफल करें, बाद में पछताना न पड़े।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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स्तुता मया वरदा वेदमाता-19

समानी प्रपा सहवोऽन्नभागः

घर में भोजन सब को आवश्यकता और स्वास्थ्य के अनुकूल मिलना चाहिए। घर में सौमनस्य का उपाय है भोजन में समानता। वास्तव में सुविधा व असुविधाओं को सयक् विभाजन तथा सयक् वितरण सुख-शान्ति का आधार है। साथ-साथ भोजन करने का बड़ा महत्त्व है, साथ-साथ भोजन करने से प्रसन्नता बढ़ती है, स्वास्थ्य का लाभ होता है। साथ भोजन करने से सबको समान भोजन मिलता है। जहाँ पर अकेले-अकेले भोजन किया जाता है, वहाँ शंका रहती है, स्वार्थ रहता है। परिवार में ही नहीं, समाज में भी सहभोज का आयोजन किया जाता है, इन आयोजनों को प्रीतिभोज भी कहते हैं। ये समाज में सहयोग और प्रेम बढ़ाने के साधन होते हैं।

घर में जो भी बनाया जाये, उसका कम है तो समान वितरण हो और पर्याप्त है तो यथेच्छ वितरण करना उचित होता है। भोजन में मनु महाराज ने खाने के क्रम में अतिथि, रोगी, बच्चे, गर्भिणी को प्रथम खिलाने का विधान किया गया है। भोजन का विधान करते हुए मनु ने गृहस्थ के लिये दो प्रकार से भोजन करने के लिये कहा है। गृहस्थ भुक्त शेष खा सकता है या हुत शेष खा सकता है। भुक्त शेष का अर्थ है- अतिथि को भोजन कराके भोजन करना तथा हुत शेष का अर्थ है यज्ञ में आहुती देने के पश्चात् गृहस्थ भोजन का अधिकारी होता है। भोजन की यह व्यवस्था बड़ी मनोवैज्ञानिक है। मनुष्य अकेला होता है तो भोजन व्यवस्थित नहीं कर पाता है। विशेष रूप से हम घरों में देखते हैं गृहणियाँ जब पति-बच्चे घर में होते हैं तो भोजन यथावत् बनाती हैं और यदि वे अकेली रह जाती हैं, तो वे भोजन बनाने में आलस्य करके जैसे-तैसे बनाकर खा लेती हैं। इसी कारण शास्त्र ने मनुष्य को उचित भोजन करने के लिये एक व्यवस्था बना दी, गृहस्थ हुत शेष खाये या भुक्त शेष खाये।

हुत शेष या भुक्त शेष खाने में जो रहस्य है, यदि वह समझ में आ जावे तो मनुष्य की कभी अतिथि को खिलाने में संकोच नहीं करेगा। किसी गृहस्थ के घर पर जब अतिथि आता है तो मनुष्य चाहे कितना भी निर्धन या गरीब क्यों न हो, वह यथाशक्ति यथा साव अतिथि को अच्छा भोजन कराना चाहता है, अतः अतिथि घर में आता है तो विशेष भोजन बनाया ही जाता है। इसी प्रकार मनुष्य मन्दिर के लिये कुछ बनाकर ले जाता है तब अच्छा बना कर ले जाना चाहता है। यज्ञ के लिए बनाना चाहता है तो अच्छा ही बनाया जाता है। इसी कारण हमारे ऋषियों ने हमारे लिये अपने लिये पकाने और अकेले अपने आप खाने का निषेध किया है। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है जो केवल अपने लिये पकाता है और आप अकेले ही खाता है, वह पाप ही पकाता है और पाप ही खाता है। इसके विपरीत यज्ञ के लिये पकाता है और यज्ञ शेष खाता है, वह पुण्य ही पकाता है और पुण्य ही खाता है। हम हवन के लिये बनाते हैं, बनाते तो बहुत हैं, थोड़ा-सा देर यज्ञ में डालते हैं, शेष सबको वितरित करते हैं, प्रसाद के रूप में बांटते हैं। बनाया यज्ञ के निमित्त है, इसलिये इसे यज्ञ शेष कहते हैं। भगवान के निमित्त बनाते हैं, अतः बांटते समय उसे प्रसाद कहते हैं। मूल रूप से प्रसाद संस्कृत का शब्द है, इसका अर्थ प्रसन्नता है। प्रसन्नता से किया गया कार्य प्रसाद है।

हम समझते हैं अतिथि को भोजन कराने से हमारी हानि होती है। यज्ञ करने से व्यय होता है परन्तु व्यवहार यह बताता है कि इस नियम का पालन करने वाले सदा सुखी और प्रसन्न रहते हैं। जो इसको अन्यथा समझते हैं, उनको तो दुःख भोगना ही पड़ता है। मनुष्य विवशता में बाँटता नहीं है, उस समय उसकी वृत्ति समेटने की रहती है। जब मनुष्य प्रसन्न होता है तभी उदार भी होता है। इसीलिये आम भाषा में कहते हैं- खुले हाथों से बाँटना, अर्थात् खुले हाथों से वही बाँट सकता है जिसका दिल खुला हो, हृदय उदार हो। खिलाने के सुख का अनुभव करना दुनिया से भूख के दुःख को दूर करने का एक मात्र उपाय है और परिवार में साथ बैठकर खाना प्रसन्नता और सुख का आधार है।

वैदिक देवता पृथ्वी : मूर्तिपूजा की परिणति – देवर्षि कलानाथ शास्त्री

श्री कलानाथ शास्त्री एक भाषा शास्त्री, संस्कृत, हिन्दी भाषा के अधिकारी विद्वान्, इतिहास एवं संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान् आप परोपकारी के पुराने पाठक हैं। शास्त्री जी कहते हैं- आर्यसमाजी मुझे पौराणिक समझते हैं तथा संगी-साथी पौराणिक समझते हैं कि परोपकारी पढ़ते शास्त्री जी आर्यसमाजी बन गये हैं।                  – सपादकीय

 

यह एक सुविदित तथ्य है कि भक्ति आन्दोलन के प्रभाव से पूर्व जिन वेदकालीन देवताओं की आराधना देश में की जाती थी, वे यथापि आज भी प्रत्येक धार्मिक कृत्य के अवसर पर पूजे जाते हैं जैसे- इन्द्र, वरुण, प्रजापति, अग्नि, सूर्य आदि, किन्तु भक्ति आन्दोलन ने जिन कृष्ण, राधा, राम, सीता आदि को जन-जन के हृदय में आसीन कर दिया, वे वेदकाल के देवता नहीं थे। अन्य कुछ ऐसे देवताओं की आराधना भी अत्यन्त लोकप्रिय हो गई जो वेदकाल में ज्ञात नहीं थे, जैसे हनुमान, भैरव आदि। कुछ ऐसे देवता भी हैं, जिनकी पूजा आज घर-घर में बड़ी अभिलाषाओं के साथ प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की जाती है, विशेषकर दीवाली के अवसर पर, जो हैं तो वेदकालीन देवता, किन्तु उनकी वेदकालीन पहचान ने इतना रूप परिवर्तन कर लिया कि आज वह स्वरूप पूरी तरह अनजाना और अनचाहा हो गया। ये देवी हैं धन की अधिष्ठात्री लक्ष्मी, जिनकी पूजा का प्रमुख उत्सव दीपावली को माना जाता है। लक्ष्मी हैं तो वेदकालीन देवी, वे विष्णु की अर्धांगिनी हैं, नारायण की पत्नी हैं। लक्ष्मीनारायण की पूजा और लक्ष्मीनारायण के मन्दिर देशभर में सुविदित हैं, किन्तु वेदकालीन ऋषि जिसका अभिगम वैज्ञानिक था, उन्हें धन की देवी मात्र नहीं मानता था।

विष्णु विश्व के प्रतिपालक हैं। वे त्रिविक्रम हैं, विश्वरूप हैं। वेद उन्हें सूर्यमण्डल में देखकर प्रणत होता है। वे आकाश का रंग धारण किए हुए हैं, गगन-सदृश हैं, मेघवर्ण हैं। उनके तीन चरण हमारी समस्त काल यात्रा को, काल गणना को नाप लेते हैं। एक चरण से वे चौबीस घण्टे के रात-दिन बनाते हैं, दूसरे विक्रम से बारह महीनों का सवत्सर बनाते हैं, तीसरे विक्रम से युग मन्वन्तर और कल्प बनाते हैं। इस त्रैलोक्य पालक देवता (सूर्य, जो वेद के प्रमुख देव हैं) की सेविका है हमारी पृथ्वी, जो वेद काल की सबसे उपकारिणी देवी है। यही हमें जीवन दान देती है, लाखों वर्षों से हम इससे निकला जल पीकर जी रहे हैं, जो वर्ष में अनेक बार धान्यों की फसल देकर करोड़ों वर्षों से हमें जीवन दान दे रही है। यह ब्रह्माण्ड का सुन्दरतम ग्रह है। इससे बड़ी कौन-सी देवी हो सकती है? सबसे पहले और सबसे बढ़कर तो इसकी पूजा की जानी चाहिए। क्या हम इसे भूल गए हैं?

नहीं, वेद का ऋषि इसके लिए दीवाना था। अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त के वे 63 मन्त्र, जो पृथ्वी की गरिमा का गान करते हैं, आज भी रोमांच पैदा कर देते हैं। इसकी पूजा तो हम आज भी करते हैं, पर किसी दूसरे रूप में। किस रूप में, इस प्रश्न का उत्तर सगुण भक्ति और मूर्तिपूजा की परपरा ही दे सकती है। हम देवनदी गंगा के ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकते, उसे देवी मानते हैं, पर मूर्तिपूजा की परपरा में हमारे हृदय तब तक सन्तुष्ट नहीं होते, जब हम उस जीती-जागती, बहती-खिलखिलाती नदी की मूर्ति मगर पर बैठी कलश लिए मानवाकृति के रूप में बनाकर उसकी आरती नहीं उतारते। यही हुआ है पृथ्वी के साथ। हम उसकी पूजा तो आज भी करते हैं, पर मूर्ति बनाकर। लक्ष्मी यही पृथ्वी है, मूर्ति के रूप में। इसके हाथ में कमल है, अभय है, चारों दिशाओं के गहरे बादल हाथी बनकर जलधारा के कलशों से इसे नहला रहे हैं। विष्णु सूर्य हैं, नारायण आकाश का रंग धारण किए लक्ष्मी के पति हैं, लक्ष्मी उनके चरण दबाती है। आज भी प्रातःकाल उठते समय हम विष्णु की पत्नी पृथ्वी से हाथ जोड़कर कहते हैं- ‘विष्णुपत्नि नमस्तुयं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।’ यह पृथ्वी सूर्य के सुनहले प्रकाश में चमकती हुई हिरण्यवर्ण है, उसका रंग चमकदार पीला है, इसीलिए लक्ष्मी ‘कान्त्या कांचन संनिभा’ है। उसकी खानों में से सोना निकलता है- ‘यस्यां हिरण्यं विन्देयम्।’ वेद का ऋषि इसी सूर्य और भूदेवी के जोड़े का आराधक था। मूर्तिपूजा की परिकल्पना में वह हो गया लक्ष्मी और नारायण का जोड़ा। विज्ञान और तार्किक चिन्तन आराधना का लिबास पहनकर किस प्रकार ब्रह्माण्डीय तत्त्वों को देवता बना देता है, यह तथ्य क्या रोमांचकारी नहीं है?

बहुतों को शायद इस तथ्य को मानने में असुविधा हो कि लक्ष्मी अथवा श्री पूरी तरह हमारी माता पृथ्वी का मानवीकृत रूप है। उनके लिए केवल यह निवेदन ही पर्याप्त है कि वे वेद के उस सूक्त को देख लें, जिसका नाम श्रीसूक्त है, जिसे लक्ष्मी की आराधना का सर्वाधिक प्रभावी साधन माना जाता है और जिसके मन्त्र बोल-बोल कर पुरोहित लोग धन की कामना वाले यजमानों से खीर की सोलह आहुतियाँ दिलवाते हैं। इसके अर्थ की ओर सभवतः हम अधिक ध्यान नहीं दे पाते, किन्तु यदि इसका अर्थ समझना चाहें तो पृथ्वी की स्तुति माने बिना इसका अर्थ ही नहीं लगेगा। सारे मन्त्र पृथ्वी को स्पष्टतः अभिहित करते हैं। श्री और लक्ष्मी उसी के दो स्वरूप या दो अवस्थाएँ हैं, एक सूर्योन्मुख प्रकाशमान, दूसरी प्रकाशरहित। श्री सूक्त का सर्वाधिक प्रचलित मन्त्र बतलाता है कि वह शुद्ध गोबर से लिपी हुई है, गन्ध उसका गुण है, वह हर बार नई-नई फसलें पैदा कर सकती है, नित्य पुष्ट होकर समस्त प्राणियों का पोषण करती है-

‘गन्धशरां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तानिहोपह्वये श्रियम्।’ श्रीसूक्त ‘श्री’ को चन्द्रां, सूर्यां आदि तो कहता ही है, ‘‘आर्द्रां ज्वलन्तीं’’ आदि भी कहता है। वह गीली भी हो जाती है, गर्माी। उसके दो पुत्र बताए गए हैं- कर्दम, चिक्लीत। आनन्द, कर्दम चिक्लीत श्री सूक्त के ऋषि भी कहे जाते हैं। कर्दम है दलदल और चिक्लीत ‘नमी’ (मॉइस्चर)। ये ही पृथ्वी के उपजाऊ तत्त्व हैं। आनन्द है प्राणवायु। सूक्त में स्पष्ट कहा गया है कि आपकी वनस्पतियाँ और वृक्ष हमारे हितकारी हैं (तव वृक्षोऽध बिल्वः छठा मन्त्र)। ये सब पृथ्वी से सबन्धित हैं। लक्ष्मी की जो मूर्ति हमने परिकल्पित की है, उस पर इनकी संगति कैसे बैठेगी? प्रतीक अर्थ लेकर ही तो हम विष्णु (विश्व के स्वामी) और लक्ष्मी (हमारी मालकिन) की आराधना करते रहे हैं।

शास्त्रों ने विष्णु के आयुधों, वाहनों, अङ्गों आदि के जो विवरण दिये हैं, उनमें विज्ञान और आस्था दोनों का अद्भुत समन्वय स्पष्ट दिखलाई देता है। हम सदा बोलते हैं- ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ’, ये ही हैं ‘अहोरात्रे पार्श्वे’ जो विष्णु के आदित्य रूप के दो आयाम हैं, दोनों ओर हैं।  हमारी साधना पद्धति इसी दृष्टि से बुद्धि, तर्क, विज्ञान और ज्ञान तथा आस्था, विश्वास, अध्यात्म और भावना को भी आदर देती है। तभी तो यह सनातन परपरा सहस्रादियों से चली आ रही है, उसमें आचार का परिवर्तन होता रहता है, आधार का नहीं। युगानुरूप परिवर्तन को हमने काी नकारा नहीं, वह परिवर्तन ही तो हमारी सनातनता का रहस्य है। तभी तो अनेक वेदकालीन परपराएँ आज भी किसी-न-किसी रूप में हमारे जनजीवन में घुली मिली लगती हैं। अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त की पृथ्वी या भूदेवी श्री सूक्त की श्री देवी बन गई, फिर यक्ष संस्कृति की कुबेर लक्ष्मी बनी, आज धनलक्ष्मी बनी हुई है, किन्तु आज भी गाँव-गाँव में दीपोत्सव के दिन लक्ष्मी पूजन में पृथ्वी से जुड़े हुए मिट्टी के बर्तनों (हटडी, कुल्हड़ आदि) में फसलों से उपजे धान्य (खील, लाई आदि) ही रखे जाते हैं। लक्ष्मी के ये सारे रूप हमारे पूज्य हैं। वह धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, सौन्दर्यलक्ष्मी आदि न जाने कितने रूपों में देश में पूजी जाती है। आजाी तिरुपति के वेंकेटेश्वर मन्दिर में श्रीपति के साथ भूदेवी देखी जा सकती है। यह क्रम न जाने कितनी सदियों से चल रहा है कि नये प्रयोग उभरते हैं, कुछ रूढ़ियाँ जन्म लेती हैं, कुछ युग के तकाजे में दबकर समाप्त हो जाती हैं, किन्तु परपरा सनातन रहती है, वह रूपान्तरित भले हो जाए, समाप्त नहीं होती। यही भारत की भारतीयता है।

– सी/8, पृथ्वीराज रोड, सी स्कीम, जयपुर-302001 (राज)

‘विश्व में वेद-ज्ञान-भाषा की उत्पत्ति और आर्यो का आदि देश’ -मनमोहन कुमार आर्य

आर्य शब्द की उत्पत्ति का इतिहास वेदों पर जाकर रूकता है। वेदों में अनेको स्थानों पर अनेकों बार आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है कि आर्यों की उत्पत्ति में वेद की मान्यतायें व सिद्धान्त सर्वमान्य हैं। वेद कोई 500,  1500 या 2000 वर्ष पुराना ज्ञान या ग्रन्थ नहीं है अपितु विश्व का सबसे पुरातन ग्रन्थ है। इसे सृष्टि के प्रथम ज्ञान व ग्रन्थ की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि इससे पूर्व व पुरातन ज्ञान व ग्रन्थ अन्य कोई नहीं है। वेदों के बारे में महर्षि दयानन्द की तर्क व युक्तिसंगत मान्यता है कि वेद वह ज्ञान है जो अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, निराकार व सर्वान्तर्यामी ईश्वर से मिला था। वेदों के आविर्भाव के रहस्य से अपरिचित व्यक्ति यह अवश्य जानना चाहेगा कि निराकार व शरीर रहित ईश्वर, जिसके पास न मुख है, न वाक्-इन्द्रिय, वह सृष्टि के आदि मे ज्ञान कैसे दे सकता है व देता है?  इसका उत्तर है कि ईश्वर आत्मा के भीतर सर्वव्यापक व सर्वान्तरयामी स्वरूप से विद्यमान होने के कारण ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा देकर ज्ञान प्रदान करता है। ईश्वर के चेतन तत्व, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सर्वान्तरयामी होने के कारण इस प्रकार ज्ञान देना सम्भव कोटि में आता है।  भौतिक जगत के उदाहरण से हम जान सकते है कि यदि किसी दूर खड़े व्यक्ति को कोई बात कहनी हो तो जोर देकर बोलते हैं और पास खड़े व्यक्ति को सामान्य व धीरे बोलने से भी वह सुन व समझ जाता है। अब यदि कहने व सुनने वाले आमने-सामने हैं और कोई गुप्त बात कान में कहें तो बहुत धीरे बोलने पर भी सुनने वाला व्यक्ति समझ जाता है। यह स्थिति उन दों व्यक्तियों की है जिनकी आत्मायें अलग-अलग शरीरों में हैं। अब यदि दोनों आत्मायें एक दूसरे से सटे हों या एक आत्मा दूसरी आत्मा में अन्तर्निहित, अन्तर्यामी व भीतर हो तो बोलने की आवश्यकता ही नहीं है। वहां तो अन्तर्यामी आत्मा की प्रेरणा व भावना को व्याप्य आत्मा जान व समझ सकता है।  इससे सम्बन्धित एक योग का उदाहरण लेते हैं। योग की सफलता होने पर जीवात्मा के काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी मल, विक्षेप व आवरण हट व कट जाते हैं जैसे कि एक दर्पण पर मल की परत चढ़ी हो, वह साफ हो जाये तो उसके सामने का प्रतिबिम्ब दर्पण में स्पष्ट भाषता वा दिखाई देता है। योग में यही ईश्वर साक्षात्कार है और इस अवस्था में योगी – द्रष्टा के सभी संशय दूर हो जाते हैं और हृदय की ग्रन्थियां खुल जाती हैं। इसका अर्थ है कि उसे परमात्मा का साक्षात्कार, उसका दर्शन अर्थात् निर्भरान्त स्वरूप ज्ञात होकर वह संशय रहित हो जाता है। इस प्रकार जो सिद्ध योगी होता है उसे ईश्वर के बिना बोले वह सभी ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिसकी उसे ईश्वर से अपे़क्षा होती है।

 

यद्यपि ईश्वर की प्रेरणा को समझना, जानना, दूसरों को जनाना व प्रवचन करना आदि एक विज्ञान है जिसे आदि व पश्चातवर्ती ऋषियों, योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि, अन्य दर्शनकार, योगेश्वर कृष्ण, महर्षि दयानन्द सरस्वती आदि ने जाना, समझा, प्रत्यक्ष व साक्षात् सिद्ध किया था।  सृष्टि की आदि में यदि ऐसा न हुआ होता तो फिर संसार की पहली पीढ़ी से लेकर अद्यावधि कोई भी मनुष्य ज्ञानी नहीं हो सकता था। इसका कारण यह है कि ज्ञान चेतन तत्व का गुण है। चेतन तत्व दो हैं, एक ईश्वर और दूसरी जीवात्मा। ईश्वर सर्वज्ञ एवं त्रिकालदर्शी है, वह जीवों के कर्मो की अपेक्षा से सब कुछ जानता है। ईश्वर के सर्वज्ञ, नित्य तथा जन्म-मृत्यु से रहित होने से इसका अस्तित्व सदा रहेगा। जड़ प्रकृति ज्ञानहीन व संवेदनाशून्य है। जीवात्मा ज्ञान की दृष्टि से अल्पज्ञ कहा जाता है व वस्तुतः है भी। यह साधारण मनुष्य हो या ऋषि, इसका ज्ञान अल्पज्ञ कोटि का होता है और ईश्वर साक्षात्कार हो जाने व समस्त संशयों के पराभूत हो जाने पर भी यह अल्पज्ञ ही रहता है। अल्पज्ञ जीवात्मा में, अन्यों की अपेक्षा से कम या अधिक, जितना भी ज्ञान है वह उसका ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक व नैमित्तिक है। स्वाभाविक व नैमित्तिक ज्ञान का दाता व मूल कारण भी एकमात्र ईश्वर ही है। ईश्वर अपनी सर्वज्ञता से अपने ज्ञान के अनुरूप सृष्टि व मनुष्यों आदि प्राणियों की रचना करता है।  ईश्वर की रचना को देखकर मनुष्य अपने स्वाभाविक ज्ञान व ऋषियों-माता-पिता-आचार्यों से प्राप्त ज्ञान से सृष्टि आदि को देख व समझ कर नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त करता है व उसमें वृद्धि करता है। यदि ईश्वर अपने ज्ञान से सृष्टि व प्राणियों की रचना न करे व मनुष्य आदि प्राणियों को स्वाभाविक ज्ञान न दे, तो फिर मनुष्य सदा-सदा के लिए अज्ञानी ही रहेगा। अतः सृष्टि की आदि में परमात्मा आदि चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान देता है। उसी ज्ञान से ऋषि भाषा का उच्चारण व संवाद आदि करते हैं व ईश्वर का ध्यान करते हुए भाषा व लिपि का चिन्तन कर उसी की सहायता से लिपि व व्यापकरण आदि की रचना करते हैं। इस क्रम में उपदेश, प्रवचन, अध्ययन, अध्यापन व लेखन आदि के द्वारा मनुष्यादि अन्य भाषा व विविध ज्ञान का संवर्धन करते हैं।

 

इस प्रकार परम्परा से चला आ रहा ज्ञान माता-पिता को मिलता है, वह अपने पुत्र को देते हैं और फिर वह पुत्र गुरूकुल व विद्यालय में आचार्यों से अध्ययन व पुरूषार्थ करके अपने ज्ञान में वृद्धि करते हैं।  यह ज्ञान की वृद्धि भी उसकी बुद्धि की ऊहापोह एवं ईश्वर की कृपा व सहयोग का परिणाम होती है। यदि सर्वज्ञ ईश्वर आरम्भ में ज्ञान न दे तो मनुष्य या मनुष्य समूह कदापि स्वयं भाषा व ज्ञान को उत्पन्न करके उसे प्रकाशित नहीं कर सकते। ज्ञान भाषा में निहित होता है। यदि भाषा नहीं है तो मनुष्य विचार ही नहीं कर सकता। बिना विचार व ज्ञान के दो मनुष्य एक दूसरे को संकेत भी नहीं कर सकते। अतः माता-पिता द्वारा सन्तानों को भाषा का ज्ञान कराने की भांति सृष्टि के आरम्भ में आदि मनुष्यों को भाषा की प्राप्ति ईश्वर से ही होती है। वह आदि भाषा वैदिक भाषा थी।  ईश्वर ने आदि सृष्टि में चार ऋषियों को चार वेदो का ज्ञान भाषा व मन्त्रों के पदो के अर्थ सहित दिया था। वेदों से सम्बन्धित सभी जानकारियों, वेदों के मर्म व तात्पर्य आदि को जानने के लिए महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ को देखना उपयोगी व अनिवार्य है।

 

विचार, चिन्तन, यौगिक अनुभव व आप्त प्रमाणों से सिद्ध है कि सृष्टि के आदि में अमैथुनी व उसके बाद अनेक पीढि़यों तक मनुष्यों की स्मरण शक्ति वर्तमान के मनुष्यों की तुलना में अधिक तीव्र थी। उस समय उन्हें स्मरण करने के लिए कागज, पेन, पेंसिल व पुस्तकों की आवश्यकता नहीं थी। वह जो सुनते थे वह उन्हें स्मरण हो जाता था। कालान्तर में स्मृति ह्रास होना आरम्भ हो गया तो ऋषियों ने इसके लिए व्याकरण सहित अनेक विषय के ग्रन्थों की रचना की। वर्तमान में इस कार्य के लिए व्याकरण के ग्रन्थ पाणिनी अष्टाध्यायी, पतंजलि महाभाष्य, यास्क के निरूक्त व निघण्टु आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। प्राचीन काल में भी समय-समय पर अनेक ऋषियों ने आवश्यकता के अनुरूप व्याकरण व अन्य ग्रन्थों की रचना की जिससे वेदार्थ ज्ञान में कोई बाधा नही आई। इस विषय पर विस्तार से जानने के लिए पं. युधिष्ठिर मीमांसक कृत संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास पठनीय है।  मीमांसक जी ने इस ग्रन्थ की रचना कर एक ऐसा कार्य किया है जो सम्भवतः भविष्य में अन्य किसी के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं था। इसके लिए सारा संस्कृत जगत उनका चिरऋ़णी रहेगा।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने पुरूषार्थ व लगन से वेद व उसके व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन करने में अपूर्व पुरूषार्थ किया। उनका यह पुरूषार्थ प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के रूप में एक योग्य गुरू के प्राप्त होने से सफलता को प्राप्त हुआ। सत्य की खोज के प्रति दृण इच्छा शक्ति, मृत्यु व ईश्वर के सत्य स्वरूप की खोज, अपने विशद अध्ययन, पुरूषार्थ, योगाभ्यास आदि से वह वेदों में निष्णात अद्वितीय ब्रह्मचारी बने। महर्षि दयानन्द के समय में सारा देश वेदों से दूर जा चुका था। लोग मानते थे कि वेद लुप्त हो गये हैं। वेदों के साथ ब्राह्मण ग्रन्थों को भी वेद माना जाता था जिनमें वेदों से विरूद्ध अनेक मान्यतायें व विधान थे। गीता व रामायण की प्रतिष्ठा वेदों से अधिक थी। सायण व महीधर आदि विद्वानों के पूर्ण व आंशिक जो वेद भाष्य यत्र-तत्र थे, वह भी वेदों के यथार्थ भाष्य न होकर विद्रूप अर्थो ये युक्त थे। विदेशी व हमारा शासक वर्ग वेदों को गड़रियों के गीत, बहुदेवतावाद का पोषक व अस्पष्ट अर्थो का संग्रह बता रहे थे।  ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान, सब सत्य विद्याओं का पुस्तक, धर्म जिज्ञासा में वेद परम प्रमाण एवं इतर संसार के सभी वेदानुकूल हाने पर परतः प्रमाण जैसी सत्य मान्यतायें एवं सिद्धान्त बताकर वेदों को स्वतः प्रमाण की संज्ञा दी। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद ही सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से प्राप्त प्रथम, आदि व नित्य ज्ञान की पुस्तकें हैं। वेद में ज्ञान, विज्ञान, सृष्टिक्रम, युक्ति व प्रमाणों के विरूद्ध कुछ भी नहीं है।  महर्षि दयानन्द ने ही उद्घोष किया कि संसार में मनुष्यों की दो ही श्रेणियां है। एक आर्य व दूसरा अनार्य। आर्य भारत के मूल निवासी हैं। आर्यो के आर्यावर्त वा भारत को आदि काल में बसने व बसाने से पहले यहां कोई मनुष्य समुदाय, जाति के लोग निवास नहीं करते थे। सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक रचित असंख्य ग्रन्थों में कहीं नहीं लिखा कि आर्य किसी अन्य देश व प्रदेश से आकर यहां बसे, यहां के लोगों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। जब सम्पूर्ण आर्यावर्त के लोगों में आर्य व अनार्य का कोई विवाद ही नहीं है तो फिर स्वार्थी व चालाक व आर्य धर्म व संस्कृति विरोधी अन्य पक्षपाती विदेशी मताग्रहियों का आरोप क्यों व कैसे स्वीकार किया जा सकता है?  विदेशियों के पास धन व अन्य प्रचुर साधन थे। उन्होंने इस देश के कुछ पठित लोगों को अपने प्रलोभन देकर व उनसे आकर्षित कर छद्म व स्वार्थी मानसिकता से प्रभावित किया। कुछ प्रलोभन में फॅंस गये और उनकी हां में हां मिलाने लगे। ऐसा होना स्वाभाविक होता है। कुछ धर्म को अफीम मानने की विचारधारा से पोषित तथाकथित इतिहासकार आर्य संस्कृति से घृणा रखते रहे हैं।  उन्होंने सत्य प्रमाणों पर ध्यान दिये बिना अर्थात् वेद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत व 18 पुराणों का अवगाहन किए बिना, एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विदेषियों की मान्यताओं व विचारों को स्वीकार कर लिया। आज भी विदेशियों की आर्यो के अन्य देशों से भारत आने की स्वार्थ व पक्षपातपूर्ण मान्यता को हम विमूढ़ बनकर ढ़ो रहे हैं। हमें लगता है कि इन मान्यताओं के अनुगामी व प्रवर्तक हमारे स्वदेशी तथाकथित बुद्धिजीवी सत्य के आग्रही कम ही हैं जिसका कारण उनका पाश्चात्य विद्वानों का अनुमागी होना, संस्कृत ज्ञान से अनभिज्ञता, संस्कृत भाषा के अध्ययन से विरत होना व आलस्य प्रवृति तथा धन का मोह आदि ऐसे कारण हैं जिससे वह सत्य तक पहुंचने में असमर्थ है। महर्षि दयानन्द ने अनेक दुर्लभ सहस्रों संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन किया था जिससे वह निर्णय कर सके थे कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं व इनसे पूर्व आर्यावर्त्त में आर्यो से भिन्न कोई जाति निवास नहीं करती थी।

 

आर्यो का आदि व मूल देश इस पृथिवीतल पर कौन हो सकता है? इस पर विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि जहां आर्यो का धर्म ग्रन्थ, साहित्य, संस्कृति व सभ्यता अधिकतम् रूप में व्यवहृत, प्रयोग की जाती हो, जहां उसका चलन हो व वह फल-फूल रही हो। इतिहास में भारत के अतिरिक्त ऐसा अन्य कोई स्थान विदित नहीं है जहां आर्यो के इतिहास से सम्बन्धित इतने अधिक स्थान, साहित्य व अन्य सहयोगी प्रमाण हों। लाखों वा करोड़ों वर्ष पूर्व हुए राम-रावण, द्वापर की समाप्ति पर हुए महाभारत युद्ध व उस समय व उसके पूर्ववर्ती राजवंशों का इतिहास, महाभारत नामक विशाल ग्रन्थ में उपलब्ध व सुरक्षित हैं। पुराणों में भी इतिहास विषयक अनेक उल्लेख व स्मृतियां उल्लिखित हैं। यह महाभारत का युद्ध आज से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व हुआ था।  हम अनुभव करते हैं कि जिस प्रकार से सूर्य का उदय पूर्व दिशा से होता है उसी प्रकार से ज्ञान के आदि ग्रन्थ वेद रूपी सूर्य का उदय भी भारत से ही हुआ है जिसका प्राचीन नाम आर्यावर्त था।  यही भूमि वेदों व अमैथुनी सृष्टि के उद्गम की भूमि है। भारत का ही प्राचीन नाम आर्यावर्त्त है और आर्यावर्त्त नाम से पूर्व इस देश का कुछ भी नाम नहीं रहा है और न ही आर्यो से पूर्व कोई मनुष्य या उनका समुदाय निवास करता था।  यह भी ध्यान देने योग्य है कि आर्यावर्त के अस्तित्व में आने तक संसार का अन्य कोई देश अस्तित्व में नहीं आया था क्योंकि उन निर्जन देशों को बसाने के लिए आर्यावर्त्त से आर्यो को ही जाना था।

 

आज संसार की सारी पृथिवी पर लोग बसे हुए हैं।  समस्त पृथिवी पर लगभग 194 देश हैं। इन देशों के निवासी पूर्व समयों में पड़ोस के देशों से आकर वहां बसे हैं। जो आरम्भ में, सबसे पूर्व, आये होगें, उससे पूर्व वह स्थान खाली रहा होगा। हो सकता है उसके बाद निकटवर्ती वा पड़ोस की अन्य तीन दिशाओं से भी कुछ लोग वहां आकर बसे हों। उन देशों में वहां क्योंकि प्रायः एक ही मत या धर्म है, अतः कहीं कोई विवाद नहीं है। सृष्टि के आरम्भ से पारसी व बौद्ध-जैन-ईसाई मत के आविर्भाव तक संसार के सभी लोग एक वैदिक मत को मानते रहे।  इस मान्यता के पक्ष में भी प्रमाण उपलब्ध हैं कि लगभग 5,200 वर्ष पूर्व भारत की भूमि पर हुए महाभारत युद्ध के बाद आर्यावर्त्त अवनति को प्राप्त हुआ। इससे पूर्व हमारे देश के राजपुरूष देश-देशान्तर के सभी देशों में जाते-आते थे। परस्पर व्यापार भी होता था और वहां की राज व्यवस्था भारत के ऋषियों, विद्वानों व राजपुरूषों के दिशा-निर्देश में चलती थी। वह माण्डलिक राज्य कहलाते थे और भारत के चक्रवर्ती राज्य को कर देते थे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने काल में हस्तलिखित दुलर्भ हजारों ग्रन्थों का अध्ययन किया था। उन्होंने निष्कर्ष रूप में लिखा है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत पर्यन्त आर्यो का सारे विश्व में एकमात्र, सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य रहा है। अन्य देशों में माण्डलिक राजा होते थे जो भारत को कर देते थे और हमारे देश के राजपुरूष व ऋषि आदि भी इन देशों में सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था को आर्यनीति के अनुसार चलाने, शिक्षा-धर्म प्रचार व व्यापार आदि कार्यो हेतु आया-जाया करते थे। यह प्रमाण अपने आप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह वाक्य देश-विदेश में रहने वाले करोड़ों वेदभक्तों के लिए तो मान्य है परन्तु अंग्रेजी परम्परा के लेखक व विद्वानों के लिए यह इसलिए स्वीकार्य नहीं है कि विदेशी विद्वान ऐसा नहीं मानते थे। वह क्यों नहीं मानते थे इसके कारणों में जाने की इन विद्वानों के पास न योग्यता है और न आवश्यकता। उनका अपना मनोरथ सिद्ध हो जाता है, अतः वह गहन व अति श्रम साध्य गम्भीर अनुसंधान नहीं करते। ऐसे कार्य तो स्वामी दयानन्द व उनके अनुयायी पद-वाक्य प्रमाणज्ञ पण्डित बह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, पं. भगवद्दत्त व स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जैसे खोजी व जुझारू लोग ही कर सकते थे व किया है। हम यहां यह भी निवेदन करना चाहते हैं कि आर्यो को भारत से भिन्न स्थानों का निवासी मानने और आर्यो का अन्य स्थान से भारत में आने के मिथ को सत्य मानने वालों के पास एक भी पुष्ट प्रमाण नहीं है जबकि महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों मुख्यतः स्वामी विद्यानन्द सरस्वती आदि ने आर्यो का भारत का मूल निवासी होना अनेक तर्कों, प्राचीन ग्रन्थों, युक्ति-प्रमाणों, इतिहास व पुरातत्व के प्रमाणों आदि की सामग्री से सिद्ध किया है।

 

यहां हम इस सम्भावना पर भी विचार करते है कि यदि महाभारत युद्ध न हुआ होता तो क्या होता? महाभारत युद्ध दुर्योधन की हठधर्मिता का परिणाम था। यदि उसका जन्म ही न होता या वह साधु प्रकृति का होता तो भी महाभारत न हुआ होता। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण, भीष्म, विदुर, अर्जुन व युधिष्ठिर आदि आर्यावर्त-भारत व सारे विश्व को वेदमार्ग पर चलाते। अर्जुन ने तो अमेरिका के राजा की पुत्री उलोपी से विवाह तक किया था। भारतवासियों का अमेरिका आने-जाने का यह एक प्रमाण है। ऐसे अनेक उल्लेख व प्रमाण प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।  महर्षि वेद व्यास के पुत्र पाराशर के अमेरिका में जाने वहां निवास करने और अध्ययन-अध्यापन कराने के प्रमाण भी मिलते हैं। महाभारत यदि न होता तो इस सम्भावना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि फिर सारे संसार मे केवल एक वैदिक धर्म ही होता। अज्ञानता के कारण व भारत से दूर होने के कारण मध्यकाल में भारत से बाहर वैदिक मत से इतर पारसी, ईसाई व इस्लाम आदि जिन मतो का आविर्भाव हुआ, वह न हुआ होता। ऐसी स्थिति में हम व दुनियां के अन्य देश जो गुलाम हुए, वह भी न हुए होते। और इन सब स्थितियों में किसी देशी या विदेशी द्वारा इस विवाद को जन्म ही न दिया जाता कि आर्य भारत के ही मूल निवासी हैं या नहीं? अंग्रेजो का विदेशी होना और भारत को पराधीन बना कर यहां के मूल निवासी आर्यों पर शासन करना ही इस विवाद का मुख्य कारण है। अंग्रेजों को यह डर सताता था कि इस देश के नागरिक उन्हें विदेशी कहकर विदेशियों भारत छोड़ों या अंग्रेजों भारत छोड़ो या फिर ‘अपने देश में अपना राज्य या स्वदेशीय राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है और स्वदेशी राज्य की तुलना में मातापिता के समान कृपा, न्याय दया होने पर भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं हो सकताआदि सिद्धान्तों व नारों के आधार पर भारत से बाहर न निकाल दें।  अंग्रेजों में असुरक्षा की भावना इस कारण थी कि उन्होंने भारतीयों को गुलाम बनाया हुआ है। वह विदेशी थे और भविष्य मे वह दिन आ सकता था कि जब उनके विदेशी होने के आधार पर उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया जा सकता था। ऐसा ही हुआ। उनकी लूट, अत्याचारों व विदेशी होने के कारण ही उनके विरूद्ध क्रान्तिकारी व अहिंसक आन्दोलन चले।  अतः अपनी जड़े जमाने व चिरकाल तक भारत पर शासन करने के लिए उन्होंने भारत के प्रबुद्ध वर्ग ‘‘आर्यो को विदेशी कहा। महर्षि दयानन्द तो सन् 1875 में सत्यार्थ प्रकाश में खुलकर कह चुके थे कि अपने देश में अपना स्वदेशी राज्य ही सर्वोत्तम होता है एवं माता-पिता के समान न्याय, दया व कृपा होने पर भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक कभी नहीं हो सकता। महाभारत का युद्ध आर्यो अर्थात् कौरव-पाण्डव राज-परिवारों की परस्पर स्वार्थ वा फूट, उनके आलस्य व प्रमाद आदि कारणों से हुआ जिसके भावी परिणामों से वर्तमान में भारत में अज्ञान, पाखण्ड, कुरीतियां, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, वर्ण या जातीय व्यवस्था आदि के नाम पर स्त्री व अपठित व असंगठित शूद्रों पर अत्याचार आदि की वृद्धि होना, विदेशों में नाना अवैदिक व अज्ञानपूर्ण मतों का अस्तित्व में आना, सारी दुनियां में धर्मान्तरण का चक्र चलना व इस प्रकार के कारणों से एक दूसरे का घात करना आदि, जिससे समय-समय पर भयंकर युद्ध हुए व सज्जनों को मृत्यु के घाट उतारा गया।

 

यह संसार ईश्वर ने बनाया है। यह हमारी पृथिवी विश्व ब्रह्माण्ड में एकमात्र नहीं अपितु ऐसी असंख्य पृथिवियां एवं सूर्य व चन्द्र आदि ग्रहों से सारा ब्रह्माण्ड भरा है। यह ईश्वर की विषालता, उसकी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता, निराकारता व सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप होने का प्रमाण है। यहां यह विचार करते हैं कि ईश्वर ने इस विशाल पृथिवी को बनाकर मनुष्यों को किसी एक स्थान पर जन्म दिया या संसार के अनेकानेक भागों में उत्पन्न किया? इसके लिए यह विचार करना उपयोगी होगा कि जब भी हम किसी नई चीज का आविष्कार करते हैं तो पहले कुछ सांचे या प्रोटोटाइप बनायें जाते हैं जिनकी संख्या सीमित होती है। प्रथम उत्पादन एक ही स्थान पर होता है, सर्वत्र नहीं। आवश्यकता पड़ने पर परिस्थिति के अनुसार अनेक स्थानों पर विस्तार किया जाता है। जब एक स्थान पर कुछ सहस्र स्त्री-पुरूषों के जन्म लेकर समय के साथ उनकी संख्या में वृद्धि होने व परस्पर के विवादों आदि के होने पर वह सारे संसार में फैल सकते हैं तो सर्वत्र मनुष्यों की सृष्टि करना ईश्वर के लिए करणीय नहीं था। हम देखते हैं कि परिवार का मुख्य व्यक्ति परिवार की आवश्यकता के अनुरूप निवास बनाता है। आगे चल कर परिवार में नई सन्तानें आती हैं, वह बड़ी होती है, उनमें क्षमता होती है, वह अपने साधनों, क्षमता, अपनी भावना व इच्छानुसार उचित स्थान का चयन कर अपने निवास के लिए अपना पृथक भवन बनवाते हैं। इसी प्रकार से संसार में निवास बनते हैं। सृष्टि के आरम्भ में यही सम्भावना अधिक बलवती लगती है, और इसका आप्त प्रमाण भी है, कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक स्थान त्रिविष्टिपयातिब्बत में ईश्वर ने मानव सृष्टि की। सहस्रों स्त्री-पुरूषों व अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि ऋषियों को उत्पन्न किया। ऋषियों को प्रेरणा देकर उन्हें वेदों का ज्ञान दिया। उन्होंने अन्यों को पढ़ाया। उन युवा स्त्री-पुरूषों के विवाह आदि सम्पन्न किये। उन सभी को उनके कर्तव्यों का बोध कराया। उनसे सन्तानोत्पत्ति हुई। समय व्यतीत होने के जनसंख्या बढ़ी। परस्पर विवाद भी हुए। भिन्न मत के लोग समूह में अन्यत्र जाकर रहने लगे। वहां भी जनसंख्या बढ़ी और फिर उनमें से लोग अपनी आवश्यकता, इच्छा, अन्वेषण की रूचि आदि के कारण खाली पड़ी पृथिवी में चारों दिशाओं में स्थान-स्थान पर जाकर बसने लगे।  इस प्रकार से 1,96,08,53,115 वर्षों में यह आज का संसार अस्तित्व में आया है। यहां अब पश्चिमी विद्वान मैक्समूलर का वचन उद्धृत करते हैं – यह निश्चित हो चुका कि हम सब पूर्व से ही आये हैं। इतना ही नहीं, हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख और महत्वपूर्ण बातें हैं, सबकी सब हमें पूर्व से ही मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब हम पूर्व की ओर जाएँ तब हमें यह सोचना चाहिए कि पुरानी स्मृतियों को संजोये हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं। अंग्रेजी में अपनी पुस्तक “India : What can it Teach us?” (Page 29) पर उन्होंने लिखा कि ‘We all come from the East—all that we value most has come to us from the East, and by going to the East, every-body ought to feel that he is going to his ‘old home’ full of memories, if only we can read them.’  मैक्समूलर के यह शब्द महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम् समुल्लास मे लिखे शब्दों की स्वीकारोक्ति हैं जहां उन्होंने लिखा है कि ‘‘मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देष भारत में आकर बसे। इसके पूर्व इस देश का कोई भी नाम नहीं था और कोई आर्यो के पूर्व इस देश में बसते थे।’’ हम यहां यह भी जोड़ना उपयुक्त समझते है जब आर्य तिब्बत से यहां आकर बसे उस समय इस भूमि भारत व संसार के समस्त भूभाग पर कहीं कोई मनुष्य निवास नहीं करता था।  इन्हीं प्रो. मैक्समूलर ने सन् 1866 में प्रकाशित चिप्स फ्राम जर्मन वर्कशाप के पृष्ठ 27 पर लिखा है कि ‘‘वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या बिल्कुल बचकानी, निकृष्ट, जटिल और अत्यन्त साधारण है।  बाद में यही लेखक इसके विपरीत अपने ऋग्वेद संहिता के भाष्य के चैथे खण्ड में लिखता है कि ‘‘एक वैदिक विद्वान अथवा विद्वानों की एक पीढ़ी द्वारा भी ऋग्वेद की ऋचाओं के रहस्यों को खोज निकालना असम्भव है। वेद, वैदिक धर्म एवं संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने मैक्समूलर के इन शब्दों पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ऋग्वेद के सम्बन्ध में इस प्रकार की भावना व्यक्त करने के लिए मैक्समूलर तभी विवश हुए होंगे जब उन्हें वहां इतने ऊंचे विचार दीख पड़े होंगे जिनके मुकाबिले में विकासवाद की दीवारें हिलती जान पड़ी होंगी।  हम समझते हैं कि मैक्समूलर का यह लिखना कि ऋग्वेद की ऋचाओं के रहस्यों को खोज निकालना असम्भव है, इससे उनका तात्पर्य यह है कि ऋग्वेद के मन्त्रों के जो यथार्थ अर्थ हैं वह इतने गम्भीर, अर्थ पूर्ण, महत्वपूर्ण व उपादेय हैं कि उनके व उनके समकक्ष विद्वान के लिए वेदों के यथार्थ अर्थ जानना, प्रकट करना व बताना असम्भव है।  महर्षि दयानन्द ने अपने वेदाध्ययन में इस तथ्य को साक्षात् किया कि वेद मनुष्य कृत ज्ञान न होकर ईश्वर से प्राप्त ज्ञान है और घोषणा की कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। मैक्समूलर भी प्रकारान्तर से इसका समर्थन करते दीखते हैं।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हम 5,200 वर्ष पूर्व रचित महाभारत में उपलब्ध आर्यो का आदि देष विषयक एक पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। महाभारत में कहा है – ‘‘हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावनः। अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः।। परिमण्डलयोर्मध्ये मेरूरूत्तमपर्वतः। ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृतयो द्विजसत्तम।। ऐरावती वितस्ता विशाला देविका कुहू। प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ।। इसका अर्थ व इस पर टिप्पणी करते हुए इस विषय के अधिकारी मर्मज्ञ विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती अपनी प्रसिद्ध पुस्तक आर्यो का आदि देश और उनकी सभ्यता में लिखते हैं कि – संसार में पवित्र हिमालय है। इसमें आधा योजन चौड़ा और पांच योजन घेरे वाला मेरू है जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। यहीं से ऐरावती, वितस्ता, विशाला, देविका और कुहू आदि नदियां निकलती हैं। इन प्रमाणों में हिमालय के मेरू प्रदेश में प्रथम आदि सृष्टि होने का वर्णन है। वह आगे लिखते हैं कि इससे भी अधिक पुष्ट प्रमाण हमें इस विषय में मिले हैं जिनसे अमैथुनी सृष्टि के हिमालय में होने का निश्चय होता है।  जिस मेरू स्थान का महाभारत के उक्त श्लोकों में निर्देष किया गया है, उसी के पास देविका पंचमे पाशर्वे मानसं सिद्धसेवितम् अर्थात् देविका के निवास के पश्चिमी किनारे पर मानस है। यह मानस अब एक झील है जो तिब्बत के अन्तर्गत है।  एक बार पुनः महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश में लिखे उनके शब्दों को देख लेते हैं जिनसे महाभारत के उपर्युक्त वचनों की संगति लगती है – मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश भारत में आकर बसे।  इससे पूर्व इस देश का कोई भी नाम नहीं था और कोई आर्यो के पूर्व इस देश में बसते थे। हम समझते है कि इससे भारत ही आर्यो का मूल देश सिद्ध हो जाता है। इसके विपरीत विचार या मान्यतायें कल्पित, पूर्वाग्रहों से युक्त होने व प्रमाणों के अभाव में निरस्त हो जाती है।

 

मन मोहन कुमार आर्य

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जीव फल भोगने में परतन्त्र क्यों? – इन्द्रजित् देव

प्रत्येक जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। वह चाहे जैसा कर्म करे, यह उसकी स्वतन्त्रता है। अपने विवेक, ज्ञान, बल, साधन, इच्छा व स्थिति के अनुसार ही कर्म करता है परन्तु अपनी इच्छानुसार वह फल भी प्राप्त कर ले, यह निश्चित नहीं। इसे ही दर्शनान्दु सार फल भोगने में परतन्त्रता कहते हैं।

कर्म का कर्त्ता व इसका फल भोक्ता जीव है परन्तु वह फलदाता नहीं। यही न्याय की माँग है। फलदाता स्वयं बन जाता तो पक्षपात व अन्यय सर्वत्र व्याप्त हो जाएगा। हम लोग-समाज में देखते हैं कि हम कर्म किए बिना फल चाहते हैं। फल भी ऐसा चाहते हैं जो सुखदायक हो। यदि हम चाहते-न-चाहते हुए पाप कर्म कर लेते हैं तो भी फल तो पुण्यकर्म का चाहते हैं-

फलं पापस्य नेछन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।

फलं धर्मस्य चेछन्ति धर्मं न कुवन्ति मानवाः।।

हमारी इच्छानुसार व्यवस्था हो जाए तो अनाचार, अन्याय व अव्यवस्था का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। अतः ईश्वर ने जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता प्रदान कर रखी है तथा कर्मों का फलदाता वह स्वयं ही है। इससे व्यवस्था ठीक रखन में सहायता मिलती है। यदि हमारी इच्छानुसार ही व्यवस्था हो जाए व हम न्याय व सत्य को तिलाञ्जलि देकर कर्म करेंगे तो समाज में अनाचार, अव्यवस्था व अत्याचार का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। अतः ईश्वर ने जीवों को केवल कर्म करने की स्वतन्त्रता प्रदान की तथा कर्मफल का अधिकार अपने पास ही रखा है। फल भोगने में परतन्त्रता का दूसरा कारण यह है कि जीव सर्वज्ञ नहीं है। दूसरों के कर्मों को जानना तो दूर की बात है, वह अपने सभी कर्मों को भी पूर्णतः नहीं जानता। कर्मों की संया न उनका शुभ-अशुभ होना, पापयुक्त या पुण्ययुक्त होना, किस कर्म का क्या फल है- इन बातों की जानकारी जीव को नहीं होती। मनुष्य योनि में रह रहे जीव को यदि तनिक-सा ऐसा ज्ञान हो भी जाए पर मनुष्येतर योनियों में तो ज्ञान होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। मनुष्येतर योनियों में जीव केवल आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन- इन चार कर्मों से अधिक कर्म करने की क्षमता, ज्ञान व इच्छा नहीं होती। मनुष्य योनि में आया जीव उपरोक्त चार कर्मों के अतिरिक्त धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि से युक्त कर्म करने का सामर्थ्य रखता है परन्तु वह भी एक सीमा तक। अपनी सीमा में रहकर भी अपने सब कर्मों को स्मरण रखना व उनका निर्णय करने की पूर्ण क्षमता जीव में है ही नहीं।

तीसरा कारण यह है कि जीव को फल प्राप्त करने हेतु शरीर, आयु व भोग पदार्थों की आवश्यकता है। शरीर रहित जीव को यह भी बोध नहीं होता कि वह है भी अथवा नहीं। प्राण, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेंन्द्रियाँ, मन व बुद्धि आदि के बिना वह ऐसे रहता है, जैसे अस्पताल में मूर्च्छित अवस्था में एक व्यक्ति पड़ा रहता है। तब उसे अनुभव नहीं होता कि वह है भी अथवा नहीं। वह कौन है, कहाँ है, क्यों है, यह भी ज्ञात नहीं होता। अंग-प्रत्यंग, श्वास-प्रश्वास आदि को प्राप्त करके ही जीव फल भोगने में समर्थ होता है। ये वस्तुएँ उसे पूर्व जन्मों के कृत कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होती हैं।

इस सबन्ध में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का निनलिखित लेख विषय को अधिक स्पष्ट करता है-

प्रश्नजीव स्वतन्त्र है वा परतन्त्र?

उत्तरअपने कर्त्तव्य- कर्मों में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ‘स्वतन्त्र कर्त्ता’ यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र (=अष्टा. 1/4/54) है जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है, वही कर्त्ता है।

प्रश्नस्वतन्त्र किसको कहते हैं?

उत्तरजिसके अधीन शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि हों। जो स्वतन्त्र न हो तो उसको पाप-पुण्य का फल प्राप्त कभी नहीं हो सकता क्योंकि जैसे भृत्य, स्वामी और सेना, सेनाध्यक्ष की आज्ञा अथवा प्रेरणा से युद्ध में अनेक पुरुषों की मार के भी अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और अधीनता से काम सिद्ध हों तो जीव की पाप वा पुण्य न लगे। उस फल का भागी भी प्रेरक परमेश्वर होवे। नरक-स्वर्ग अर्थात् दुःख-सुख की प्राप्ति भी परमेश्वर की होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्र-विशेष से किसी को मार डाला तो वही मारने वाला पकड़ा जाता है और दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं, वैसे पराधीन जीव पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसीलिए सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र परन्तु जब वह पाप कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप के फल भोगता है। इसीलिए कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल और पुण्य के सुख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है।

प्रश्नजो परमेश्वर जीव को न बनाता और सामर्थ्य न देता तो जीव कुछ भी न कर सकता। इसलिए परमेश्वर की प्रेरणा ही से जीव कर्म करता है।

उत्तरजीव उत्पन्न कभी न हुआ, अनादि है। जैसा ईश्वर और जगत् का उपादान कारण नित्य है और जीव का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाए हुए हैं परन्तु वे सब जीव के अधीन है। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है, वही भोक्ता है, ईश्वर नहीं।’’

– सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास

– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर-135001 (हरियाणा)

 

ईश्वर को प्राप्त करने की सरल विधि क्या है’ -मनमोहन कुमार आर्य

प्रत्येक व्यक्ति सरलतम रूप में ईश्वर को जानना व  उसे प्राप्त करना चाहता है। हिन्दू समाज में अनेकों को मूर्ति पूजा सरलतम लगती है क्योंकि यहां स्वाध्याय, ज्ञान व जटिल अनुष्ठानों आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। अन्य मतों की भी कुछ कुछ यही स्थिति है। अनेक मत वालों ने तो यहां तक कह दिया कि बस आप हमारे मत पर विश्वास ले आओ, तो आपको ईश्वर व अन्य सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। बहुत से भोले-भाले लोग ऐसे मायाजाल में फंस जाते हैं परन्तु विवेकी पुरूष जानते हैं कि यह सब मृगमरीचिका के समान है। जब रेगिस्तान की भूमि में जल है ही नहीं तो वह वहां प्राप्त नहीं हो सकता। अतः धार्मिक लोगों द्वारा अपने भोले-भाले अनुयायियों को बहकाना एक धार्मिक अपराध ही कहा जा सकता है। दोष केवल बहकाने वाले का ही नहीं, अपितु बहकने वाले का भी है क्योंकि वह संसार की सर्वोत्तम वस्तु ईश्वर की प्राप्ति के लिए कुछ भी प्रयास करना नहीं चाहते और सोचते हैं कि कोई उसके स्थान पर तप व परिश्रम करे और उसे उसका पूरा व अधिकतम लाभ मिल जाये। ऐसा पहले कभी न हुआ है और न भविष्य में कभी होगा। यदि किसी को ईश्वर को प्राप्त करना है तो पहले उसे उसको उसके यथार्थ रूप में जानना होगा। उस ईश्वर  व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानकर या फिर किसी सच्चे विद्वान अनुभवी वेदज्ञ गुरू का शिष्य बनकर उससे ईश्वर को प्राप्त करने की सरलतम विधि जानी जा सकती है। इस कार्य में हम आपकी कुछ सहायता कर सकते हैं।

 

ईश्वर व जीवात्मा को जानने व ईश्वर को प्राप्त करने की सरलतम विधि कौन सी है और उसकी उपलब्घि किस प्रकार होगी? इसका प्रथम उत्तर है कि इसके लिए आपको महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की शरण में आना होगा। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर अपने ग्रन्थों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य व यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया है जिसे स्वयं पढ़कर जानना व समझना है। यदि यह करने पर जिज्ञासु को कहीं किंचित भ्रान्ति होती है तब उसे किसी विद्वान से उसे जानना व समझना है। उपासक को महर्षि दयानन्द की उपासना विषयक मान्यताओं व निर्देशों को अच्छी तरह से समझ कर पढ़ना व अध्ययन करना चाहिये। इस कार्य में महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, पंच महायज्ञ विधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला, व्यवहारभानु आदि पुस्तकें सहायक हो सकती हैं। आईये, इसी क्रम में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयास करते हैं।

 

जीवात्मा को ईश्वर के उपकारों से उऋण होने तथा जन्म मरण से मुक्ति के लिए ईश्वर की उपासना करनी है अतः इन दोनों सत्ताओं के सत्य स्वरूप उपासक को विदित होने चाहिये नहीं तो भ्रान्तियों में पड़कर उपासक सत्य मार्ग का चयन नहीं कर सकता। पहले ईश्वर का वेद वर्णित स्वरूप जान लेते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के स्वमन्तव्यअमन्तव्य प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के स्वरूप वा गुण, कर्म व स्वभाव को संक्षेप में बताते हुए लिखा है कि जिसके ब्रह्म परमात्मा आदि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं। ईश्वर के इस स्वरूप का उपासक को बार बार विचार करना चाहिये और एक एक गुण, कर्म, स्वभाव व लक्षण को तर्क वितर्क कर अपने मन व मस्तिष्क में अच्छी तरह से स्थिर कर देना चाहिये। जब इन गुणों का बार बार विचार, चिन्तन व ध्यान करते हैं तो इसी को उपासना कहा जाता है। उपासना की योग निर्दिष्ट विधि के लिए महर्षि पंतजलि का योग दर्शन भी पूर्ण सावधानी, तल्लीनता व ध्यान से पढ़ना चाहिये जिससे उसमें वर्णित सभी विषय व बातें बुद्धि में स्थित हो जायें। ऐसा होने पर उपासना व उपासना की विधि दोनों का ज्ञान हो जाता है। ईश्वर के स्वरूप व उपासना विधि के ज्ञान सहित जीवात्मा को अपने स्वरूप के बारे में भी भली प्रकार से ज्ञान होना चाहिये। जीव का स्वरूप कैसा है? आईये इसे ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर निश्चित कर लेते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है तो जीव भी सत्य व चेतन स्वरूप वाला है। ईश्वर में सदैव आनन्द का होना उसका नित्य, शाश्वत् व अनादि गुण है परन्तु जीव में आनन्द नहीं है। यह आनन्द जीव को ईश्वर की उपासना, ध्यान व चिन्तन से ही उपलब्ध होता है। उपासना का प्रयोजन भी यही सिद्ध होता है कि ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति व उसकी उपलब्धि करना। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं परन्तु जीव को ज्ञान के लिए माता-पिता व आचार्य के साथ वैदिक साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता होती है, तब यह कुछ कुछ पवित्र बनता है। वह मनुष्य भाग्यवान है कि जिसके माता-पिता व आचार्य धार्मिक हों व वैदिक विद्या से अलंकृत हों। धार्मिक माता-पिता व आचार्य के सान्निध्य व उनसे शिक्षा ग्रहण कर ही कोई मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन सकता है, अन्यथा नहीं। हमारा आजकल का समाज इसका उदाहरण है जिसमें माता-पिता व आचार्य धार्मिक व वैदिक विद्वान नहीं है, और इसी कारण समाज में भ्रष्टाचार, अनाचार व दुराचार आदि देखें जाते हैं। आजकल के माता-पिता व आचार्य स्वयं सत्य व आध्यात्मिक ज्ञान से हीन है, अतः उनकी सन्तानों व शिष्यों में भी सत्य वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं आ पा रहा है। इसका हमें एक ही उपाय व साधन अनुभव होता है और वह महर्षि दयानन्द व वेद सहित प्राचीन ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों एवं वेदांगों, उपांगों अर्थात् 6 दर्शन तथा 11 उपनिषदों सहित प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि का अध्ययन है। इन्हें पढ़कर मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा व संसार से संबंधित सत्य ज्ञान को प्राप्त हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को वेद के आधार पर सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त बताया है। इस पर विचार करने से जीवात्मा अल्पज्ञ, सूक्ष्म एकदेशी बिन्दूवत आकार वाला, सर्वव्यापक ईश्वर से व्याप्य, अनुत्पन्न, अल्पशक्तिमान, दया-न्याय गुणों से युक्त व मुक्त दोनों प्रकार के स्वभाव वाला, ईश्वरकृत सृष्टि का भोक्ता और ज्ञान व विज्ञान से युक्त होकर अपनी सामर्थ्य से सृष्टि के पदार्थों से नाना प्रकार के उपयोगी पदार्थों की रचना करने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र परन्तु उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के अधीन आदि लक्षणों वाला जीवात्मा है। इस प्रकार से विचार करते हुए हम जीवात्मा के अन्य गुणों को भी जान सकते हैं क्योंकि हमारे सामने कसौटी वेद, आप्त वचन व ईश्वर का स्वरूप आदि हैं तथा विचार व चिन्तन करने की वैदिक चिन्तन पद्धति है। सृष्टि में तीसरा महत्वपूर्ण पदार्थ प्रकृति है जो कारणावस्था में अत्यन्त सूक्ष्म तथा सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है। ईश्वर इसी प्रकृति को अपनी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता से पूर्व कल्पों की भांति रचकर स्थूलाकार सृष्टि करता है जिसमें सभी सूर्य, ग्रह व पृथिवी तथा पृथिवीस्थ सभी भौतिक पदार्थ सम्मिलित हैं।

 

अब ईश्वर को प्राप्त करने की विधि पर विचार करते हैं। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए जीवात्मा को स्तुति, प्रार्थना सहित सन्ध्या-उपासना कर्मों व साधनों को करना है। महर्षि दयानन्द ने दो सन्ध्या कालों, रात्रि व दिन तथा दिन व रात्रि की सन्धि के कालों में सन्ध्या-उपासना को करने के लिए सन्ध्यायेपासना की विधि भी लिखी है जिसको जानकर सन्ध्या करने से लाभ होता है। इस पुस्तक की उन्होंने संक्षिप्त भूमिका दी है। सन्ध्या के मन्त्र व उनके अर्थ देकर उन्होंने जो सन्ध्या करने का विधान लिखा है, उसे सभी मनुष्यों को नियतकाल में यथावत करना चाहिये। सन्ध्या अन्य नित्य कर्मों, दैनिक अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ को करने का फल यह है कि ज्ञान प्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ कार्यों की सिद्धि का होना। इससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। इनको प्राप्त होकर मनुष्यों का सुखी होना उचित है। सन्ध्या के समापन से पूर्व समर्पण का विधान करते हुए उपासक को ईश्वर को सम्बोधित कर सच्चे हृदय से कहना होता है कि हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयाऽनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः। इसका अर्थ कर वह कहते हैं कि सन्ध्या के मन्त्रों व उनके अर्थों से  परमेश्वर की सम्यक् उपासना करके आगे समर्पण करें कि हे ईश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जो जो उत्तम काम हम लोग करते हैं, वह सब आपके समर्पण हैं। हम लोग आपको प्राप्त होके धर्म अर्थात् सत्य व न्याय का आचरण, अर्थ अर्थात् धर्म से पदार्थों की प्राप्ति, काम अर्थात् धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों का सेवन तथा मोक्ष अर्थात् सब दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना, इन चार पदार्थों की सिद्धि हमको शीध्र प्राप्त हो। मोक्ष जन्म व मरण के चक्र से छूटने को कहते हैं। मोक्ष की पहली शर्त है कि उपासना व सत्कर्मों को करके ईश्वर का साक्षात्कार करना व जीवनमुक्त जीवन व्यतीत करना। बिना ईश्वर का साक्षात्कार किये मोक्ष वा जन्म मरण से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। अतः गौण रूप से समर्पण में यह भी कहा गया है कि ईश्वर हमें अपना दर्शन वा साक्षात्कार कराये और हम जन्म-मरण से मुक्त भी हों। ईश्वर का साक्षात्कार होने पर मनुष्य जीवनमुक्त का जीवन व्यतीत करता है और मृत्यु आने पर जन्म-मरण से छूट जाता है।

 

वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। ईश्वरीय ज्ञान वेद के हम 3 मन्त्र पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। यह तीनों मन्त्र ऋग्वेद के दसवें मण्डल के हैं। मन्त्र हैं- अहम्भुवं वसु नः पूव्र्यस्पतिरहं धनानि संजयामि शश्वतः। मां हवन्ते पितरं जन्तवोऽहं दाशुषे विभजामि भोजनम्।1, दूसरा मन्त्रअहमिन्द्रो पराजिग्य इद्धनं मृत्यवेऽवतस्थे कदाचन। सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु मे पूरवः सख्ये रिषाथन।2 तीसरा मन्त्रअहं दां गृणते पूव्र्य वरवहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम्। अहं भुवं यामानस्य चोदितायज्वनः साक्षि विश्वरिमन्भरे।3 इन तीनों मन्त्रों के अर्थ हैं प्रथम मन्त्र- ईश्वर सब को उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान सब जगत् का पति हूं। मैं सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूं। मुझ ही को सब जीव, जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं, वैसे पुकारें। मैं सब को सुख देनेहारे जगत् के लिये नानाप्रकार के भोजनों का विभाग पालन क लिये करता हूं।1। मैं परमैश्वर्यवान् सूर्य के सदृश सब जगत् का प्रकाशक हूं। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूं। मैं ही जगत् रूप धन का निर्माता हूं। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले मुझ ही को जानो। हे जीवो ! ऐश्वर्य प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ से मांगो और तुम लोग मेरी मित्रता से पृथक मत होओ।2। हे मनुष्यों ! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझको वह वेद यथावत् कहता, उससे सब के ज्ञान को मैं बढ़ाता, मैं सत्पुरुष का प्रेरक, यज्ञ करने हारे को फल प्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है, उस सब कार्य का बनाने और धारण करनेवाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ कर किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।3 इन मन्त्रों को प्रस्तुत करने का हमारा अभिप्रायः पाठको को कुछ वेद मन्त्रों व उनके अर्थों से परिचित कराना है। सृष्टि की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु ईश्वरीय ज्ञान वेद का सभी को प्रतिज्ञापूर्वक नित्य प्रति स्वाध्याय करना चाहिये।

 

मनुष्य जब ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व ध्यान-उपासना करते हुए ईश्वर में मग्न हो जाता है तो समाधि के निकट होता है। कालान्तर में ईश्वर की कृपा होती है और जीवात्मा को ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होता है। इसका वर्णन करते हुए उपनिषद में कहा गया है कि जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, जिसने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त को लगाया है, उसको जो परमात्मा के योग का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता। क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उस को सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो जो काम करना होता है, वह वह करना चाहिये। यहां हम पुनः दोहराना चाहते हैं कि उपासना में सफलता के लिए महर्षि दयानन्द के सभी ग्रन्थों में स्तुति-प्रार्थना-ध्यान-उपासना के सभी प्रसंगों को ध्यान से देखकर उसे अपनी स्मृति में स्थापित करना चाहिये और तदवत् आचरण करना चाहिये।

 

उपासक वा योगियों को ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उपासना करते समय कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर से ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार का वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है और इसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, यह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है। यह शब्द महर्षि दयानन्द ने स्वानुभूति के आधार पर लिखे हैं। तर्क से भी यह सत्य सिद्ध हैं। अतः उपासक को इस प्रकार से उपासना करनी चाहिये जिसका परिणाम शुभ होगा और सफलता भी अवश्य मिलेगी।

 

यह भी विचारणीय है कि सभी मत मतान्तरों के अनुयायी भिन्न भिन्न प्रकार से उपासना व पूजा आदि करते हैं। क्या उन्हें उन्हें ईश्वर की प्राप्ति होती है वा नहीं? विचार करने पर हमें लगता है कि उससे लाभ नहीं होता, जो लाभ होता है वह उनके पुरूषार्थ तथा प्रारब्घ से होता है। ईश्वर के यथार्थ ज्ञान तथा योग दर्शन की विधि से उपासना किये बिना किसी को ईश्वर की प्राप्ति व धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि प्राप्त नहीं होती, यह स्वाध्याय व चिन्तन से स्पष्ट होता है। अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए सभी को वैदिक धर्म व वैदिक उपासना पद्धति का ही आश्रय लेना उचित है। यही ईश्वर प्राप्ती की एकमात्र सरल विधि है। अन्य प्रकार से उपासना से ईश्वर प्राप्ति सम्भव नहीं है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों की आयुः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आदि सृष्टि का वैदिक सिद्धान्त सर्वविदित है। परोपकारी के गत अंकों में बताया जा चुका है कि एक समय था कि हमारी इस मान्यता का (अमैथुनी सृष्टि) का कभी उपहास उड़ाया जाता था परन्तु अब चुपचाप करके अवैदिक मत पंथों को ऋषि दयानन्द की यह देन स्वीकार्य है। परोपकारी में बाइबिल के प्रमाण देकर इस वैदिक सिद्धान्त की दिग्विजय की चर्चा की जा चुकी है। हमारे इस सिद्धान्त के तीन पहलू हैंः-

  1. आदि सृष्टि के मनुष्य बिना माता-पिता के भूमि के गर्भ से उत्पन्न हुए।
  2. वे सब युवा अवस्था में उत्पन्न हुए।
  3. उनका भोजन फल, शाक, वनस्पतियाँ और अन्न दूध आदि थे।

इस सिद्धान्त की खिल्ली उड़ाने वाले आज यह कहने का साहस नहीं करते कि आदि सृष्टि के मनुष्य शिशु के रूप में जन्मे थे। इसके विपरीत बाइबिल में स्पष्ट लिखा है कि परमात्मा भ्रमण करते हुए उद्यान में आदम उसकी पत्नी हव्वा की खोज कर रहा था। उनको आवाजें दी जा रही थी कि अरे तुम कहाँ हो? स्पष्ट है कि पैदा हुये शिशु आवाज सुनकर, समझ ही नहीं सकते। वे उत्तर क्या देंगे? उन्होंने लज्जावश अपनी नग्नता को पत्तों से, छाल से ढ़का। लज्जा शिशुओं को नहीं, जवानों को आती है।

निर्णायक उत्तरःबाइबिल से यह भी प्रमाणित हो गया है कि अब ईसाई भाई एक जोड़े की नहीं, अनेक स्त्री-पुरुषों की उत्पत्ति मान रहे हैं। अब वैदिक मान्यता पर उठाई जाने वाली आपत्तियों का निर्णायक उत्तर हम पूज्य पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय के शदों में आगे देते हैं सृष्टि के आदि के मनुष्यों का, ‘‘आमाशय बच्चों के समान होता तो उनके जीवन-निर्वाह के लिए केवल माता का दूध ही आवश्यक था क्योंकि बच्चों के आमाशय अधिक गरिष्ठ (पौष्टिक) भोजन को पचा नहीं सकते परन्तु यह बात असभव है कारण? उनकी कोई माता नहीं थी जो उन्हें दूध पिलाती परन्तु यदि उनके आमाशय अन्न को पचा सकते थे तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनके आमाशय युवकों के समान स्वस्थ व सशक्त थे। युवा आमाशय केवल युवा शरीर में ही रह सकते हैं। यह असभव है कि आमाशय तो युवा हो और अन्य अंग शैशव अवस्था में हों।’’

आर्य दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने अपने अनूठे, सरल, सबोध तर्क से विरोधियों के आक्षेप का उत्तर देकर आर्ष सिद्धान्त सबको हृदयङ्गम करवा दिया।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-18

मन्त्र के प्रथम पद में घर में रहने वाले सदस्यों के मध्य भोजन अन्नपान आदि की व्यवस्था सन्तोषजनक होने की बात की है। घर के सभी सदस्यों को उनकी आवश्यकता, वय, परिस्थिति के अनुसार पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिये। घर में भोजन के शिष्टाचार में बच्चे, बूढ़े, रोगी और महिलाओं के बाद पुरुषों का अधिकार आता है। असुविधा दो कारणों से उत्पन्न हो सकती है- प्रथम आलस्य, प्रमाद, पक्षपात से तथा दूसरी ओर अभाव से। इसके लिये उत्पादन से वितरण तक अन्न की प्रचुरता का शास्त्र उपदेश करता है।

वेद में अन्न को सब धनों से बड़ा धन बताया है। विवाह संस्कार के समय अयातान होम की आहुतियाँ देते हुए मन्त्र पढ़ा जाता है- अन्नं साम्राज्यानां अधिपति- संसार में, जीवन में किसी वस्तु का सबसे अधिक महत्त्व है तो वह अन्न है। वेद ने अन्न को साम्राज्यानां अधिपति कहा है। अन्न संसार में राजा से भी बड़ा है। यदि राज्य में अकालादि के कारण अन्न का अभाव हो जाये तो राज्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। अन्न नहीं तो मनुष्य नहीं, मनुष्य नहीं तो समाज नहीं फिर देश और राष्ट्र की बात ही कहाँ से आती? इसलिये प्राण को बचाने का आधार होने से अन्न को ही प्राण कहा गया है- अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः।

अन्न की मात्रा की चर्चा करते हुए हर प्रकार से सभी प्रकार के अन्नों को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करने का विधान किया गया है। शास्त्र कहता है- अन्नं बहु कुर्वीत– अन्न को बहुत उत्पन्न करना चाहिए। प्राकृतिक रूप से स्वयं उत्पन्न अन्न जंगली प्राणी, तपस्वी साधकों के लिये होते हैं। नगर, ग्रामवासियों को तो अन्न अपने पुरुषार्थ से उत्पन्न करना पड़ता है। अन्न उत्पन्न करने की पद्धति वेद से प्रतिपादित है। अन्न को उत्पन्न करने की प्रक्रिया को कृषि कहा गया है। अन्न एवं उससे सबन्धित सामग्री का उत्पादक कृषिवलः या कृषक होता है। वेद समस्त मनुष्यों को उपदेश देता है- कृषिमित् कृषस्व, हे मनुष्य तू खेती कर, इसी में पशुओं की प्राप्ति है। इसी से धन की प्राप्ति है। जब वर्षा न होने से अन्नादि की उत्पति न्यून होती है, तब संसार के सारे व्यवसाय स्वयं नीचे आ जाते हैं। समस्त साधनों, सुख-सुविधाओं का मूल खेती है, अतः जो देश समाज सुखी होना चाहते हैं, उन्हें अपनी खेती को गुणकारी और समुन्नत बनाना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कृषि के महत्त्व को देखकर लिखा है कि किसान राजाओं का राजा है। संसार के जीवन का आधार अन्न है और अन्न का आधार किसान है।

संसार में मनुष्य को जीवनयापन के साधनों का संग्रह करना पड़ता है, साधनों के लिए धन प्राप्ति हेतु नाना व्यवसाय करने होते हैं। संसार में हजारों व्यवसाय हैं, परन्तु सभी व्यवसाय गौण हैं। समाज में दो ही व्यवसाय मुय हैं– एक खेती और दूसरा है शिक्षा। एक से शरीर जीवित रहता है, बलवान बनता है, दूसरे से आत्मा सुसंस्कृत होती है। अन्य सभी व्यवसाय तो इन दो से जुड़े हुए हैं।

अन्न को उत्पन्न करने के साथ उसे नष्ट न करने या उसका दुरुपयोग रोकने के लिये भी कहा गया है। कभी अन्न की निन्दा न करने के लिये कहा है, इसीलिये भारतीय संस्कृति में अन्न को देवता कहा गया है। अन्न को जूठा छोड़ने या बर्बाद करने को पाप कहा गया है। हम भोजन कराने वाले को अन्नदाता कहते हैं। अन्न को बुरी दृष्टि से न देखें। अन्न के उत्पादन, सुरक्षा एवं सदुपयोग को मनुष्य के जीवन का अङ्ग बताया गया है। इस प्रवृत्ति के रहते ही मनुष्य अन्न का इच्छानुसार पर्याप्त मात्रा में उपभोग कर सकता है। किसी के प्रेम को प्राप्त करने के उपाय के रूप में प्रेम से भोजन कराने का निर्देश है। स्वामी दयानन्द ने कहा है- भोजन प्राणिमात्र का अधिकार है। हर भूखा प्राणी भोजन का अधिकार रखता है।