Category Archives: वेद विशेष

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विरूपः । देवता सूर्य: । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

चित्रं देवानामुर्दगदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।। आणू द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षसूर्य’ऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥

-यजु० १३ । ४६

( देवानाम् ) दीप्तिमान् किरणों का (चित्रम् अनीकम् ) चित्रविचित्र सैन्य ( उदगात् ) उदित हुआ है। यह ( मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः ) वायु, जल और अग्नि का अथवा प्राण, उदान और जाठराग्नि का ( चक्षुः ) प्रकाशक एवं प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने (आअप्राः२) आपूरित कर दिया है ( द्यावा पृथिवी ) द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा ( अन्तरिक्ष ) अन्तरिक्ष को। ( सूर्यः ) सूर्य ( आत्मा ) आत्मा है ( जगतः ) जङ्गम का ( तस्थुषः च ) और स्थावर का।

देखो, रात्रि के अन्धकार को चीरता हुआ प्रभात खिल रहा है। सूर्य-रश्मियों का चित्र-विचित्र सैन्य उदित हुआ है। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखायी दे रहा है। तरु, वल्लरी, सदन, अट्टालिकाएँ, स्तूप राजप्रासाद सब दीप्ति से जगमगाने लगे हैं। अन्धेरा गिरि-कन्दराओं में जाकर छिप गया है। शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन का स्पर्श शरीर को सुखद लग रहा है। नदियों और सरोवरों के जल पर झिलमिलाती हुई दिवाकर की किरणें दर्पण में झाँकती हुई-सी प्रतीत हो रही हैं। अग्नि की ज्वालाएँ अपनी ज्योति के स्रोत सूर्य को देख कर शरमाती हुई-सी लग रही हैं। यही रश्मिपुञ्ज सूर्य, वायु, जल और अग्नि का तथा शारीरिक प्राण, उदान और जाठराग्नि का भी चक्षु है, प्रकाशक है, प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने अपनी किरणों  से द्युलोक, पृथिवीलोक और अन्तरिक्षलोक को आपूरित कर लिया है। सचमुच यह सूर्य जङ्गम और स्थावर का आत्मा है, प्राण है, जीवन है। इसी सूर्य से मानव आदि प्राणी प्राण प्राप्त करते हैं, इसी सूर्य से वृक्ष-वनस्पति जीवन धारण करती हैं। इसी सूर्य से जङ्गम-स्थावर स्थिति पाता है। यही सूर्य हमारी भूमि का आधार है, यही मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदि ग्रहों का आधार है, यही सूर्य इन ग्रहों के उपग्रह भूत चन्द्रों का आधार है। यह तो बाह्य जगत् की लीला है।

अन्तर्जगत् की ओर भी दृष्टि डालो। परमात्मसूर्य की प्रकाशमय दिव्य किरणों का जाल आत्मलोक पर छा रहा है। आत्मलोक पर प्रभात उदित हो रहा है। तामसिकता का अन्धकार विनष्ट हो गया है। इस अन्त:प्रकाश ने प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय लोक को भी प्रकाशित कर दिया है। आत्मा, मन और शरीर को इस परमात्मसूर्य ने पूर्णतः आपूरित कर लिया है। यह परमात्मसूर्य जङ्गम मनोवृत्तियों का और ज्ञानेन्द्रियों का तथा कर्मेन्द्रियों एवं अन्नमय शरीर का प्राण है। हे साधको! इस परमात्मसूर्य से दिव्य प्राण, जीवन और जागृति प्राप्त करो, अन्त:करण को प्रकाशित करो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. मित्रस्य प्राणस्य, वरुणस्य उदानस्य-२० ।।

२. आप्रा:=ओ अप्राः, प्रा पूरणे, लङ्।

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार 

मानव को किन कार्यों के लिए नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार

मानव को किन कार्यों के लिए  नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता प्रजापतिः । छन्दः विराड् ब्राह्मी जगती ।

त्रिवृदसि त्रिवृते त्वा प्रवृदसि प्रवृते त्वा विवृदसि विवृते त्वा सवृदसि सवृते त्वाऽऽक्रमोऽस्याकूमार्य त्वा संक्रमोऽसि संक्रमार्य त्वोत्क्रमोऽस्युत्क्रमा त्वोत्क्रान्तिरस्युत्क्रान्त्यै त्वाधिपतिनो र्जार्ज जिन्व।।

-यजु० १५ । ९

हे मनुष्य ! तू (त्रिवृद् असि ) ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों तत्वों के साथ वर्तमान है, अतः ( त्रिवृते त्वा ) इन तीनों की वृत्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( प्रवृत् असि) प्रवृत्तिमार्ग में जाने योग्य है, अतः ( प्रवृते त्वा ) प्रवृत्तिमार्ग पर चलने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( विवृद् असि ) विविध उपायों से उपकार करनेवाला है, अत: (विवृते त्वा ) विविध उपायों से उपकार के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (सवृद्असि) अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बना सकनेवाला है, अत: ( सवृते त्वा ) अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बनाने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (आक्रमःअसि ) शत्रुओं पर आक्रमण कर सकनेवाला है, अतः ( आक्रमाय त्वा ) शत्रुओं पर आक्रमण करने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( संक्रमः असि ) संक्रमे करनेवाला है, अतः ( संक्रमाय त्वा ) संक्रमण के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (उत्क्रमः असि ) उत्क्रमण करनेवाला है, अतः ( उत्क्रमाय त्वा ) उत्क्रमण के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( उत्क्रान्तिः असि ) उत्क्रान्ति करनेवाला है, अत: (उत्क्रान्त्यै त्वा ) उत्क्रान्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( अधिपतिना ऊर्जा ) अधिरक्षक बलवान्  द्वारा (ऊर्जी ) बल को (जिन्व) प्राप्त कर।

हे मानव ! क्या तू जानता है कि तू संसार का सर्वोत्कृष्ट प्राणी है। तुझे अपनी सर्वोत्कृष्टता के अनुरूप ही कर्म करने हैं। तू त्रिवृत्’ है, ज्ञान-कर्म-उपासना तीनों की योग्यता रखता है। अतः तुझे उत्कृष्ट ज्ञान, उत्कृष्ट कर्म और उत्कृष्ट उपासना तीनों के सम्यक् सम्पादन के लिए नियुक्त करता हूँ। अकेला ज्ञान या अकेला कर्म कुछ अर्थ नहीं रखता, ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म ही श्रेष्ठ फल उत्पन्न करता है। उपासना भी ज्ञानपूर्वक ही होती है, अकेली उपासना छलावा है। अत: तू तीनों का जीवन में यथोचित मेल रख कर ही कार्य कर। दूसरी बात जिसकी ओर मैं तेरा ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ, वह यह है कि संसार में जीवनयापन के दो मार्ग हैं-एक प्रवृत्तिमार्ग और दूसरा निवृत्तिमार्ग। निवृत्तिमार्ग के अनुयायी लोग यह चाहते हैं कि हम सांसारिक कार्यों से उपरत होकर अहं ब्रह्मास्मि’ का ही जप करते रहें। परन्तु यह आत्मप्रवंचना है। सांसारिकता को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता। प्रवृत्तिमार्ग कहता है कि जिस स्थिति में हमारे जो कर्तव्य हैं, उनका हमें पालन करना चाहिए। कुमारावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास सबके अपने-अपने शास्त्रोक्त कर्तव्य है। उन्हें करते हुए कुछ समय हम धारणा-ध्यान-समाधि के लिए भी निकालें । यह प्रवृत्तिमार्ग ही मैं तेरे लिए निर्धारित करता हूँ। इस मार्ग में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का समन्वय है, सामञ्जस्य है।

यह भी ध्यान रखें कि तेरे अन्दर विविध उपायों से उपकार करने का सामर्थ्य है। अत: तू विविध उपायों से जीवन में परोपकार करता रह। कभी तू निर्धन को धन देकर उसका उपकार कर, कभी तू मूक को वाणी देकर, बधिर को श्रवण देकर, पंगु को टाँग देकर, रोगी को स्वास्थ्य देकर उनका उपकार करे। कभी तू अशिक्षित को शिक्षा देकर, मूर्ख को विद्वान् बना कर उसका उपकार कर। कभी तू पीड़ित की।  पीड़ा हर कर, विपद्ग्रस्त की विपत्ति हर कर उसका उपकार कर। हे मानव ! याद रख, अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बनाने की शक्ति भी तेरे अन्दर है, अत: अन्यों को साथ लेकर सङ्गठन बना, संस्था खड़ी कर, संस्थान खोल और उन सङ्गठनों, संस्थाओं तथा संस्थानों के द्वारा ऐसा कार्य कर दिखा जिस पर संसार तुझे साधुवाद दे। इस भूतल पर तेरे अनेक शत्रु भी हो सकते हैं। तू उनकी दाल मत गलने दे। उन पर आक्रमण कर और उन्हें पराजित करके विजयदुन्दुभि बजा । तेरे अन्दर संक्रमण की शक्ति भी है। संक्रमण का तात्पर्य है, अन्यों के साथ सम्पर्क करके उनके अन्दर अपने गुण समाविष्ट करना । यदि ऐसा तू करेगा, तो नास्तिकों को आस्तिक, हिंसकों को अहिंसक, निर्बलों को बली, लुटेरों को साधु और शत्रुओं को मित्र बना सकेगा। तेरे अन्दर उत्क्रमण का सामर्थ्य है, अत: उत्क्रमण भी कर। उत्क्रमण का अर्थ है, ऊपर उछलना, जिस स्तर पर खड़ा है, उससे ऊपर के स्तर पर पहुँचना और इस प्रकार उपरले उपरले स्तर पर पहुँचते-पहुँचते सर्वोन्नत शिखर पर पहुँच जाना। तू उत्क्रान्ति भी कर सकता है, अतः उत्क्रान्ति भी कर। उत्क्रान्ति से अभिप्रेत है जनसमूह को लेकर उच्च दिशा में क्रान्ति कर दिखाना। जैसे किसी पराधीन देश के वासियों द्वारा मिलकर पराधीनता की जंजीर तोड़कर स्वराज्य पा लेना।

हे मानव! किसी बलवान् और प्राणवान् को अधिपति बना कर, अपना संरक्षक बना कर बल तथा प्राणशक्ति प्राप्त कर और संसार को बदल दे।

मानव को किन कार्यों के लिए  नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार 

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः दीर्घतमा: । देवता वरुण: । छन्दः क. आर्षी त्रिष्टुप्,| र. निवृद् अनुष्टुप् ।।

कमापो मौषधीहिंसीर्धाम्नोधाम्नो राजॅस्ततो वरुण नो मुञ्च। यदाहुघ्न्याऽइति वरुणेति शपमहे ततो वरुण नो मुञ्च। ‘सुमित्रिया नऽआपओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु। योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः

-यजु० ६ । २२

हे ( वरुण राजन् ) वरणीय राजन् ! ( मा अपः ) न जलों को, ( मा ओषधीः ) न ओषधियों को ( हिंसीः ) हिंसित या दूषित करो। ( धाम्नः धाम्नः ) प्रत्येक स्थान से (ततः) उसे हिंसा या प्रदूषण से ( नः मुञ्च ) हमें छुड़ा दो। (शपामहे ) हम शपथ लेते हैं कि ( यद् आहुः ) जो यह कहते हैं कि । गौएँ ( अघ्न्याः इति ) अघ्न्या हैं, न मारने-काटने योग्य हैं, । ( ततः ) उससे ( वरुण ) हे श्रेष्ठ राजन् ( नो मुञ्च ) हमें मत छुड़ा। (सुमित्रियाः) सुमित्रों के समान हों ( नः ) हमारे लिए ( आपः ) जल और ( ओषधयः ) ओषधियाँ, ( दुर्मित्रियाः तस्मै सन्तु ) दुर्मित्रों के समान उसके लिए हों (यःअस्मान्द्वेष्टि) जो हमसे द्वेष करता है, ( यं च वयं द्विष्मः ) और जिससे हम द्वेष करते हैं।

हे मानव ! यदि तू शुद्ध सागपात खाना चाहता है और शुद्ध जल पीना चाहता है, तो जल और ओषधियों को न प्रदूषित कर, न समाप्त कर । प्रदूषित जल पीने और प्रदूषित ओषधियों तथा उनके पत्र, पुष्प, अन्न, फल, फली आदि के खाने से यह पवित्र नर-तन मलिनताओं और रोगों का अड्डा बन जाएगा। यदि जल और ओषधियाँ दुर्लभ हो जाएँ, तब तो मनुष्य का जीवन ही विपत्ति में पड़ जाएगा। हे श्रेष्ठ राजन् ! हे प्रजा द्वारा प्रजा में से बहुसम्मति द्वारा चुने हुए राजन् ! धाम धाम में, स्थान-स्थान में इस जल-प्रदूषण और ओषधि प्रदूषण तथा जल-विनाश और ओषधि-विनाश से लोगों को राजनियम द्वारा रोकिये। साथ ही राष्ट्र में गौओं का संरक्षण भी आवश्यक है, अतः जनता से प्रतिज्ञा करवाइये, हस्ताक्षर अभियान प्रारम्भ करवाइये कि कहीं भी गोवध न हो, गौएँ मारी-काटी न जाएँ न ही गोमांस का भक्षण और व्यापार हो। यदि कोई गोमांस खाता है, तो उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाए। जल और ओषधियाँ हमारे साथ मित्र जैसा आचरण करें, अर्थात जैसे मित्र मित्र को लाभ पहुँचाता है। वैसे ही शुद्ध जल और शुद्ध ओषधि-वनस्पतियाँ हमें लाभ पहुँचाएँ, शरीर की भूख-प्यास मिटाएँ, शरीर को स्वस्थ रखें और शरीर को पुष्ट करें। परन्तु समाज में ऐसे लोग भी हैं, जो पर्यावरणशुद्धि की ओर कुछ ध्यान नहीं देते, जान-बूझकर कूपों, सरोवरों तथा नदियों का जल प्रदूषित करते हैं, वनस्पतियों-ओषधियों को दूषित जल से सींचते हैं, दूषित खाद देते हैं वे जल और ओषधियों के भी द्वेषी हैं, हमारे भी द्वेषी हैं। उनके प्रति जल और ओषधियाँ मित्रवत् नहीं, अपितु दुर्मित्र या शत्रु के समान आचरण करें। हम जल और ओषधियों से मित्रवत् व्यवहार करते हैं, अत: हमें सुख दें, जो उनसे अमित्रवत् व्यवहार करते हैं, उनके प्रति वे भी अमित्र हों। तभी उन्हें शिक्षा मिलेगी।

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार

योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार

योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः देवश्रवाः । देवता यज्ञपतिः । छन्दः ब्राह्मी बृहती।

आत्मने मे वर्चादा वर्चसे पवस्वौजसे मे वर्चेदा वर्चसे पवस्वायु मे वर्चीदा वर्चसे पवस्व विश्वभ्यो मे प्रजाभ्यो वर्चादसौं वर्चसे पवेथाम् ॥

-यजु० ७ । २८ |

हे (वर्षोंदा:१) योगविद्या और ब्रह्मविद्या के दाता योगी विद्वन् ! आप ( मे आत्मने) मेरे आत्मा के लिए ( वर्चसे ) योगवर्चस और ब्रह्मवर्चस प्रदानार्थ ( पवस्व ) प्रवृत्त हों। हे (वर्चेदाः ) वर्चस्विता के दाता ! आप ( मे ओजसे ) मेरे आत्मबल के लिए ( वर्चसे ) योगबलप्रदानार्थ ( पवस्व ) प्रवृत्त हों । हे (वर्षोंदा:४) देहबल के दाता ! आप (मेआयुषे ) मेरे दीर्घायुष्य के लिए (वर्चसे ) शारीरिक बल प्रदानार्थ ( पवस्व ) प्रवृत्त हों । हे ( वर्षोंदसौ ) योगदाता हठयोगी और ध्यानयोगी विद्वानो! आप दोनों (मेविश्वाभ्यः प्रजाभ्यः ) मेरी सब प्रजाओं के लिए ( वर्चसे ) ब्रह्मबलप्रदानार्थ (पवेथाम्) प्रवृत्त हों ।।

मैंने सांसारिक विद्याएँ तो बहुत सीख ली हैं और उनका विद्वान् कहलाने का सौभाग्य भी प्राप्त कर लिया है, किन्तु योगविद्या और ब्रह्मविद्या में अभी कोरा ही हूँ। अनुभवी लोग बताते हैं कि शरीर, मन, मस्तिष्क, आत्मा सबके विकास के लिए योग और ब्रह्मविद्या की शिक्षा आवश्यक है। अत: मैं योग गुरु की शरण में आया हूँ। हे योगसाधना और ब्रह्मविद्या में पारङ्गत योगी विद्वन् ! आप मेरे आत्मा के उत्कर्ष के लिए योग की क्रियाएँ सिखाइये, जिससे में ब्रह्मवर्चस प्राप्त कर सकें। आप मुझे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,  धारणा, ध्यान, समाधि रूप अष्ट योगाङ्गों में निष्णात कर दीजिए। ध्यानयोग के अभ्यास से मुझे ऐसी सिद्धि प्राप्त कराने की कृपा कीजिए कि मैं जिस विषय में भी जितनी भी देर मन को केन्द्रित करना चाहूँ कर सकें और मन को निर्विषय भी कर सकें तथा सविकल्पक और निर्विकल्पक समाधि का भी आनन्द ले सकें। आप मुझे ब्रह्मविषयक सम्पूर्ण शास्त्रज्ञान और ब्रह्मसाक्षात्कार भी कराने का अनुग्रह कीजिए।

हे वर्चस्विता के दाता योगी गुरुवर! मैंने सुना है कि आत्मा में बहुत बड़ी-बड़ी शक्तियाँ निहित हैं। जिसने आत्मसाधना कर ली है, वह योगी जिसे जो आशीर्वाद दे देता है, वह सत्य सिद्ध हो जाता है। आत्मबल बड़े-बड़े शक्तिशाली विद्युत्-यन्त्रों से भी बड़ा है, आत्मबल धरती को कहीं से कहीं फेंक देनेवाले अणुबम से भी बड़ा है, आत्मबल ग्रह उपग्रहों को अपनी परिक्रमा करानेवाले सूर्य के बल से भी बड़ा है।

हे देहबल के दाता योगी आचार्यवर ! योगविद्या से आप मेरे शरीर में वह शक्ति भर दीजिए कि मैं दीर्घायुष्य प्राप्त करे सकें। वेद ने प्राण, चक्षु आदि के लिए त्र्यायुष अर्थात् तीन सौ वर्ष की आयु प्राप्त करने की बात कही है। मैं उससे भी आगे बढ़कर इच्छामरण की शक्ति प्राप्त कर सकें। हे योग शिक्षाप्रदाता हठयोगी और ध्यानयोगी विद्वानो ! आप कृपा करके केवल मुझे ही नहीं, मेरी सब प्रजाओं को योगबल और ब्रह्मबल प्रदानार्थ प्रवृत्त होने की कृपा करें, जिससे मैं और मेरी सब प्रजाएँ दीर्घायु, आत्मबली और ब्रह्मबली बन सकें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (वर्षोदा:) योगब्रह्मविद्याप्रद–द०।।

२. (ओजसे) आत्मबलाय–द० ।।

३. (वर्चसे) योगबलप्रकाशाय-द० ।

४. (वर्षोदाः) वर्षों बलं ददाति तत्सम्बुद्धौ-द० ।

योगविद्या के प्रचारार्थ विद्वान् योगी का आव्हान -रामनाथ विद्यालंकार 

उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार

उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विवस्वान्। देवता प्रजापतिः (परमेश्वरः) ।। छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।।

यस्मन्न जातः परोऽअन्योऽअस्ति यऽविवेश भुव॑नानि विश्वा। प्रजापतिः प्रजया सरगुणस्त्रीणि ज्योतीष्ठषि सचते स षोड्शी॥

-यजु० ८ । ३६ |

( यस्मात् परः ) जिससे उत्कृष्ट ( अन्यः न जातः अस्ति) अन्य कोई उत्पन्न नहीं हुआ है, ( यः ) जो (आविवेश ) प्रविष्ट है (विश्वा भुवनानि) सब भुवनों में । वह ( प्रजापतिः) प्रजापालक परमेश्वर (प्रजया) अपनी प्रजा के साथ ( सं रराण:१) सम्यक् क्रीडा करता हुआ ( त्रीणि ज्योतींषि सचते ) अग्नि विद्युत्-सूर्य तथा मन-बुद्धि-आत्मा इन तीनों तीनों ज्योतियों में समवेत है।

क्या तुम पूछते हो कि प्रजापति से बढ़कर कौन है ? परन्तु यदि तुम प्रजापति को सच्चे अर्थों में जान लो, तो अपने प्रश्न का उत्तर तुम्हें स्वयमेव मिल जाएगा। प्रजापति वह है, जिसने विश्व की सब जड़ चेतन प्रजाओं को जन्म दिया है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ दृष्टिगोचर होता है भूमि, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, तारावलि सब उसी का पैदा किया हुआ है। ये सब लोक-लोकान्तर बड़े ही विलक्षण हैं। हम मानव इनके विषय में बहुत कम जान पाये हैं। किन्तु जितना भी जान पाये हैं, वही हमें आश्चर्यचकित कर देता है। जिस भूमि पर हम रहते हैं, उसमें दिन-रात्रि के आवागमन की, ऋतुओं के निर्माण की, जल के वाष्पीकरण की, अन्तरिक्ष से जलवृष्टि की, नदयों के बहने की, सागर के लहराने की, वनस्पतियों  के उगने की, प्राणियों के जन्म लेने की, श्वास-प्रश्वास आदि द्वारा जीवनधारण की कैसी सुव्यवस्था उसने की हुई है, यही क्या कम अचरज पैदा करनेवाली बात है ! फिर अन्य लोकलोकान्तरों का तो कहना ही क्या है ! प्रजापति सब प्रजाओं को केवल जन्म ही नहीं देता, किन्तु इन सबका पति अर्थात् अधीश्वर और पालक भी है। इतना पता लग जाने के बाद अपने प्रश्न का उत्तर तुम स्वयं दे सकोगे कि प्रजापति से अधिक बड़ा विश्व-ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है।

प्रजापति सब लोकों का न केवल जन्मदाता, व्यवस्थापक और पालक है, अपितु वह सब भुवनों के अन्दर प्रविष्ट भी है, सर्वान्तर्यामी है। अपनी उत्पन्न की हुई प्रत्येक जड़-चेतन प्रजा के साथ वह यथायोग्य क्रीडा कर रहा है। किसी को गति देता है, किसी को स्थिर रखता है, किसी को तपाता है, किसी को शीतलता देता है, किसी को चमकाता है, किसी को निस्तेज रखता है, किसी को आकाश में उड़ाता है, किसी को नीचे पटकता है, किसी को सुन्दरता देता है, किसी पर काला कलूटा रङ्ग फेर देता है। | वह पार्थिव ज्योति अग्नि, अन्तरिक्ष-ज्योति विद्युत् और द्यौ की ज्योति आदित्य तीनों में समवेत है। आन्तर ज्योति मन, बुद्धि और आत्मा में भी विराजमान होकर उन्हें शक्ति दे रहा है। वह प्रजापति ‘षोडशी’ है, सोलहों कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान परिपूर्ण है, उसमें किसी कला की न्यूनता नहीं है। आओ, हम सब उस प्रजापति प्रभु का गुणगान करते हुए उसकी आज्ञा का पालन करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. संरणिः सम्यक् रममाण:-म० । रमु क्रीडायाम्।

२. षच समवाये, भ्वादिः ।।

उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार 

अग्नि नामक जगदीश्वर की महिमा -रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि नामक जगदीश्वर की  महिमा -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः पुरोधा: । देवता अग्निः। छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

अन्व॒ग्निरुषसमग्रमख्युदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः

-यजु० ११ । १७ |

( अग्निः ) तेजस्वी अग्रनायक जगदीश्वर ( उषसाम् अग्रम् ) उषाओं के अग्रभाग को (अनु अख्यत् ) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। (प्रथमः जातवेदाः ) वही श्रेष्ठ, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशक जगदीश्वर ( अहानि ) दिनों को ( अनु-अख्यात् ) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। वही ( सूर्यस्य) सूर्य की ( पुरुत्रा) बहुत-सी ( रश्मीन्) रश्मियों को ( अनु अख्यत्) अनुक्रम से प्रकाशित करता है। हे प्रभु तूने ही ( द्यावापृथिवी ) द्यु-लोक और पृथिवी-लोक को ( अनु आततन्थ) विस्तीर्ण किया है।

रात्रि का निविड़ अन्धकार दूर हुआ है। उषा का अग्रभाग प्राची में झाँक रहा है। गगन में लाली छा गयी है। तमस्तोम को चीर कर आकाश में लाली लानेवाला कौन है ? ‘अग्नि’ नामक तेजस्वी प्रभु की ही यह करामात है, उसी ने उषा के अग्रभाग को प्रकाश से चमकाया है। निशा काली होती है, दिन प्रकाश से प्रकाशमान हैं । दिनों को प्रकाश से भरनेवाला, ज्योति से जगमगायेवाला कौन है ? ‘जातवेदाः अग्नि’, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, प्रकाशमान प्रभु की ही यह लीला है। इधर भी दृष्टि डालो। उषा आयी, प्रभात खिला, सूर्य की रश्मियाँ चारों ओर फैल गयी हैं, दिशाएँ सूर्यकिरणों से झिलमिला रही हैं। यजुर्वेद ज्योति क्रमश: आकाश-प्राङ्गण में प्रभाकर की प्रभावान् रश्मियों के जाल को फैलानेवाला कौन है? उस ज्योतिष्मान् ‘अग्नि’ नामक जगदीश्वरे की ही यह क्रीडा है। उसी खिलाड़ी का यह खेल है, उसी की यह मनोहर महिमा है। द्यावापृथिवी की ओर भी निहारो। इस पृथिवी को नाना ऐश्वर्यों से किसने भरा है, किसने भूगर्भ में सोना, चाँदी, ताँवे, लोहे, गन्धक की खाने भरी हैं ? किसने पृथिवीतल पर वृक्ष-वल्लरियाँ रोपी हैं ? किसने उन पर रंग-बिरंगे पुष्प और परिपक्व फल लगाये हैं? किसने भूमि पर हिमधवल पर्वत खड़े किये हैं? कौन हिम पिघला कर नदियाँ बहाता है ? किसकी करनी से झरनों से पानी झरता है? कौन पृथिवी पर अथाह समुद्र को भरता है? कौन उसकी सीपियों में मोती रखता है? द्युलोक पर भी दृष्टिपात करो। दिग्दिगन्त को प्रकाश से भरनेवाला ज्योति का पुञ्ज सूर्य, असंख्य नक्षत्र, आकाशगङ्गा, आकाश के सप्त ऋषि, ध्रुवतारा, यह सब किसकी कारीगरी है? फिर अन्तरिक्ष में बादल बनना, विद्युत् की आँखमिचौनी और वृष्टि होना किस जादूगर का जादू है? यह सब द्यावापृथिवी का खेल ‘अग्नि’ प्रभु का ही रचाया हुआ है, उसी ने द्यावापृथिवी को विस्तीर्ण किया है।

आओ, उस प्रभु की महिमा का गान करें, उसके अद्भुत शिल्प पर तान छेड़े, उसकी अचरजभरी रचना पर गीत रचे, उसकी मनभावनी सृष्टि पर सरगम का आलाप करें।

पाद टिप्पणियाँ

१. ख्या प्रकथने, अदादिः, प्रकाशन अर्थ में भी प्रयुक्त होता है।

२. जातं वेत्ति, जाते जाते विद्यते, जातं वेदयते ।

३. तनु विस्तारे, लिट्, आतेनिथ । आततन्थ छान्दस रूप। वभूथाततन्थजगृभ्मबबर्थेति निगमे, पा० ७.२.६४ ।

अग्नि नामक जगदीश्वर की  महिमा -रामनाथ विद्यालंकार

उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार

उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः दीवतमाः । देवता अग्निः । छन्दः क. प्राजापत्या अनुष्टुप्,। र, आर्ची पङ्गिः, उ. दैवी पङ्किः।

कसं ते मनो मनसा सं प्राणः प्राणेन गच्छताम् । ग्रेडस्यग्निष्ट्रवा श्रीणत्वापस्त्व समरिन्वार्तस्यत्व भ्राज्यै पूष्णो रह्योऽष्मणो व्यथिषयुतं द्वेषः ।

-यजु० ६।१८ |

हे मानव ! ( ते मनः) तेरा मन ( मनसा ) मनन से, और। ( प्राणः ) प्राण (प्राणेन ) महाप्राण से ( सं गच्छताम् ) मिले। तू ( रेड् असि ) शत्रु-हिंसक है। ( अग्निः ) अग्नि (त्वा ) तुझे ( श्रीणातु) परिपक्व करे। (आपः ) नदियाँ ( त्वा ) तुझे ( समरिण) संघर्षरत करें। (त्वा ) तुझे ( वातस्य ) वायु की ( धान्यै) गति के लिए, और ( पूष्णः ) सूर्य के (रंछै) वेग के लिए [प्रेरित करता हूँ] । प्रत्येक मनुष्य ( ऊष्मणः ) ऊष्मा से ( व्यथिष ) व्यथित हो। उससे ( द्वेषः ) द्वेष (प्रयुतं ) पृथक् रहे।

हे मानव ! तू स्वयं को अल्प शक्तिवाला मत समझ। तू विराट् शक्ति का पुंज है। आवश्यकता इस बात की है कि तू अपनी शक्ति को पहचाने। तू प्रकृति से सन्देश ले और आगे बढ़। देख, तू अपने मन से मनन कर, दृढ़ सङ्कल्प कर, शिव सङ्कल्प कर और उसे पूरा करने की ठान ले। कोई बाधा तुझे सङ्कल्प पूरा करने से रोक नहीं सकेगी। अपने प्राण को महाप्राण से संयुक्त कर। तू संसार का सर्वोच्च प्राणी है, तेरे प्राण में वह शक्ति है, जो सागर को सुखा दे, पर्वत को मैदान बना दे, बड़े से बड़े सम्राट् को भिक्षुक बना दे और भिक्षुक के सिर पर राजमुकुट रख दे। तेरी हुङ्कार से महाबली शत्रु का भी दर्प चूर हो सकता है, तेरा मनोवल यमराज को भी पराजित कर सकता है। तेरी साँस मृत को भी जीवन प्रदान  कर सकती है। तू ‘रेडू’ है, शत्रु-हिंसक है, विघ्न बाधाओं को निरस्त करनेवाला है, आततायी को विध्वंस्त कर सकनेवाला है, वैरी को निहत्था और पंगु कर सकता है, संहारक का संहार कर सकता है। तेरे अन्दर अग्नि जलनी चाहिए, ज्वाला धधकनी चाहिए, उससे तू परिपक्व होगा, तेरी न्यूनताएँ दूर होंगी, तेरा कच्चापन निरस्त होगा, तू आग बनकर धधकेगा। तू नदियों से संघर्ष करना सीख। नदियाँ अपने अदम्य प्रवाह से पहाड़ों को तोड़ती हुई, वृक्षों को गिराती हुई, चट्टानों को लाँघती हुई आगे ही आगे बढ़ती जाती हैं। तू भी मार्ग की रुकावटों से सङ्घर्ष कर, रुकावटें खड़ी करनेवालों से सङ्घर्ष कर, आगे ही आगे बढ़ता चल। तू वायु की गति से चल, चंझावात बनकर उमड़। तू सूर्य का वेग धारण कर। सूर्य स्वयं तीव्रता से घूम रहा है और ग्रह-उपग्रहों को अपने चारों ओर घुमा रहा है। तू भी सूर्य के समान केन्द्र में रहकर अन्य राष्ट्रों को अपने चारों ओर घुमा, उनकी गतिविधि का निर्णायक बन्। ध्यान रख, उत्कर्ष पाकर तू ऊष्मा से व्यथा मान, अहङ्कार की गर्मी से प्रताड़ित न हो। उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच कर भी तू विनम्र हो, विनयी हो, परमात्मा के सम्मुख झुक, महात्माओं के चरणों में मत्था टेक, संन्यासियों का आदर कर। शत्रु के दर्प का दलन कर, किन्तु मन में द्वेष किसी के प्रति मत रख। संहार और विजय कर्तव्यबुद्धि से कर, मन में द्वेष रख कर नहीं। पराजित शत्रुओं से भी सन्धि करके उन्हें अपना मित्र बना । तब शत्रु भी तेरा जयकार करेंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (रेड्) शत्रुहिंसकः। अत्र रिषतेहिँसार्थात् कर्तरि विच्-द० ।।

२. श्रीणातु परिपचतु । श्रीज् पाके, क्रयादिः ।।

३. सम् अरिण प्राप्नुवन्तु। रिणाति इति गतिकर्मसु पठितम्, निघं०

२.१४-द० ।।

४. (भ्राज्यै) गत्यै। अत्र गत्यर्थाद् ध्रज धातोः ‘इजादिभ्यः’ पा०

३.३.१०८ वार्तिक इति इञ् प्रत्ययः । |

५.(रं©) गत्यै-द०। रहि गतौ, भ्वादिः ।

६. व्यथ भयसंचलनयोः, लेट् लकार।

७. प्र-यु मिश्रणामिश्रणयोः । प्रयुतं पृथक

उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार

ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू-रामनाथ विद्यालंकार

ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू

ऋषिः अङ्गमः । देवता ब्राह्मण: । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।

ब्राह्मणमद्य विदेयं पितृमन्तं पैतृमत्यमृषिमायसुधातुदक्षिणम्।। अस्मद्राता देवत्रा गच्छत प्रदातारमाविशत

-यजु० ७ | ४६

  • मैं ( अद्य) आज ( ब्राह्मणं) ब्राह्मण गुरु को ( विदेयम् ) प्राप्त करूँ, (पितृमन्तं ) जो प्रशस्त पिता की सन्तान हो, (पैतृमत्यम् ) जो पितृजनों के अनुभवपूर्ण मतों से परिचित हो, ( ऋषिम् ) जो ऋषि हो, ( आर्षेयम् ) आर्ष पाठविधि पढ़ाने में कुशल हो, ( सुधातु-दक्षिणम्) उत्तम धर्मप्रचार की दक्षिणा लेनेवाला हो। आगे गुरु शिष्यों को कहता है (अस्मद्राताः५) हमसे विद्या दिये हुए आप लोग ( देवत्रा ) प्रजाजनों में (गच्छत ) जाओ, (प्रदातारम् ) जो समाज तुम्हें उपदेश देने का निमन्त्रण दे अथवा जो समाज या सङ्गठन तुम्हें कार्य दे उसके मध्य ( आ विशत) प्रविष्ट हो जाओ।

मैं चाहता हूँ कि मैं ब्राह्मण गरु का शिष्य बनँ। ब्राह्मण वह होता है, जो ब्रह्मज्ञानी होने के साथ वेदादि शास्त्रों को और सैद्धान्तिक तथा क्रियात्मक विज्ञान को भी जानता हो और जिसके गुण-कर्म-स्वभाव ब्राह्मण के हों। वह विविध विद्याओं का अथवा जिस विद्या को शिष्य पढ़ना चाहता है, उसको हस्तामलकत्र ज्ञान शिष्य को करा सकता हो और अध्यात्म या योग का ज्ञान भी दे सकता हो । मन्त्र में ब्राह्मण के कुछ अन्य विशेषण भी दिये गये हैं। वह ‘पितृमान्’ होना चाहिए। यहाँ मतुप् प्रत्यय प्रशस्त अर्थ में हैं, अर्थात् वह प्रशस्त पिता का पुत्र होना चाहिए, क्योंकि पिता के गुण पुत्र में भी आते हैं। दूसरा विशेषण है ‘पैतृमत्य’ अर्थात् पिता, पितामह, प्रपितामह तथा अन्य अनुभवी पितरों के अनुभवपूर्ण मतों की जानकारी उसे होनी चाहिए। तीसरा विशेषण है ऋषि’, अर्थात् जिन  विद्याओं का वह अध्यापक है, उन विद्याओं का उसे साक्षाद् द्रष्टा होना चाहिए, अधकचरा ज्ञान होने पर वह उन विद्याओं में शिष्य को पारङ्गत नहीं करा सकता। चौथा विशेषण है। ‘आर्षेय’ अर्थात् उसे आर्ष पाठविधि पढ़ाने में रुचि और दक्षता होनी चाहिए। अनार्ष ग्रन्थों की कपोलकल्पित, चारित्रिक दृष्टि से हानिकर तथा सन्देहास्पद बातें शिष्य को पढ़ाना घातक हो सकता है। पाँचवाँ विशेषण है ‘सुधातु-दक्षिणम्’, अर्थात् शिष्यों को स्नातक बनाते समय उसे उनसे सद्धर्मप्रचार की दक्षिणा मांगनी चाहिए।’धर्म’ में धारणार्थक ‘धृ’ धातु है और ‘ धातु में धारणार्थक ‘धा’ धातु, अतः धर्म और धातु शब्द समानार्थक हैं। ऐसा श्रेष्ठ ब्राह्मण मेरा गुरु होगा, तो मैं भी उसका योग्य शिष्य बन सकूँगा।

मन्त्र का उत्तरार्ध गुरुओं की ओर से शिष्यों को कहा गया है। हे शिष्यो! हमसे ज्ञान दिये हुए तुम दिव्य प्रजाओं या विद्वान् जनों के बीच में जाओ। वे तुम्हारी योग्यता का मूल्याङ्कन करेंगे। वे तुम्हें भाषण, उपदेश या वेदकथा करने का नियन्त्रण दें, तो उसे स्वीकार करके उनकी इच्छा पूर्ण करो और उन्हें ज्ञान की बातें बताओ। वे तुम्हें किसी वैतनिक सेवा में लेना चाहें, तो उसे भी स्वीकार करो और पूरी योग्यता, तत्परता तथा सचाई के साथ सेवा करो तथा हम गुरुजनों का नाम भी उज्ज्वल करो। दक्षिणा का तुम्हारा आदर्श भी हमारे आदर्श से मिलता-जुलता होना चाहिए, अर्थात् अच्छी जीविका के लिए जितना द्रव्य आवश्यक है, उसमें सन्तोष करना चाहिए।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (पितृमन्तं) प्रशस्ताः पितरो रक्षका: सत्यासत्योपदेशका विद्यन्ते यस्य  तम्-द० ।

२. पैतृमत्यम्-पितृणानिदं पैतृ, पैतृणि अनुभवपूर्णानि यानि मतानि तेषु साधुम् ।

३. (आर्षेयम्) आर्षपाठविधिम् अधीते वेद अध्यापयति वेदयति वा स आर्षेयः तम् ।

४. सुधातुः सद्धर्मो दक्षिणी यस्य तम् ! नात्र सुधातुः स्वर्णरजतादिः ।

५. अस्माभिः राता: दत्तविद्याः, रा दाने ।

६.देवत्रा=देवेषु । सप्तमी के अर्थ में त्रा प्रत्यय ।

ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू

हे जननायक! विक्रम दिखा -रामनाथ विद्यालंकार

हे जननायक! विक्रम दिखा

ऋषिः अगस्त्यः । देवता विष्णुः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

उरु विष्णो विक्रमस्वरु क्षयाय नस्कृधि। घृतं घृतयोने पिब प्रम॑ य॒ज्ञपतिं तिर स्वाहा।

-यजु० ५। ३८

( विष्णो) हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तू ( उरु ) बहुत अधिक (विक्रमस्व) विक्रम दिखा, ( उरु) बहुत अधिक ( क्षयाय ) निवास के लिए ( नः कृधि ) हमें कर, पात्र बना। (घृतयोने ) हे घृत के भण्डार ! ( घृतं पिब ) घृत पी, पिला। ( यज्ञपतिं ) यज्ञपति को ( प्र प्र तिर) प्रकृष्टरूप से बढ़ा। (स्वाहा ) एतदर्थ हम देय कर की आहुति देते हैं। |

हे विष्णु ! हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तुम विक्रम दिखाओ। जब तक विक्रम नहीं दिखाओगे, तब तक रिपुदल तुम्हें अकर्मण्य, निष्प्रभाव, गौरवरहित, बाल भी बांका न कर सकनेवाला समझता रहेगा। शत्रुदल पर आक्रमण कर दो, उसके छक्के छुड़ा दो, उसे हमारे राष्ट्र के प्रति दुर्भावना रखने का स्वाद चखा दो, उसे विनाश के कगार पर पहुँचा दो। यदि तुम नीति के रूप में शत्रु को विनष्ट नहीं भी करना चाहते हो, तो कम से कम आतङ्कित तो कर ही दो। ऐसा तो कर दो कि वह तुम्हारा लोहा मानने लगे। फिर तो वह स्वयं ही सन्धिका प्रस्ताव लेकर तुम्हारे पास आयेगा। |

हे नेतृत्वकुशल, जनरंजक वीर ! जहाँ तुम शत्रुपराजय या रिपुदलभञ्जन का कार्य करोगे, वहाँ प्रजाओं के महान् निवासक भी बनो। सर्वजनोपकारी रचनात्मक कार्यों द्वारा हमारे लिए सुखकारी बनो। हमारा धर्म में निवास कराओ, धैर्य में निवा कराओ, ऐश्वर्य में निवास कराओ, वीरता में निवास कराओ, उच्चता में निवास कराओ, दिव्यता में निवास कराओ।

हे जननायक! तुम राष्ट्र में घृत की योनि हो, घृत के घर हो, भण्डार हो। घृत सब प्रकार की समृद्धि का प्रतीक है। जो भी राष्ट्र में दुग्ध, घृत, मधु, धनधान्य आदि की विपुल समृद्धि दृष्टिगोचर होती है, उसके कारण तुम ही हो। उस समद्धि का तम स्वयं भी उपभोग करो तथा प्रजाजनों को भी कराओ।

अन्त में एक बात पर हम तुम्हारा ध्यान और आकृष्ट करते हैं। राष्ट्र में दो प्रकार के व्यक्ति तुम्हें मिलेंगे। कुछ यज्ञपति हैं और कुछ कृपण हैं। जो यज्ञपति हैं, वे यज्ञभावना को अपने अन्दर धारण करते हुए सदा दूसरों का उपकार करते रहते हैं। दूसरे जो कृपण हैं, वे सारे धन-धान्य को अपने पास समेटने का यत्न करते रहते हैं, अन्य लोग जीते हैं या मरते हैं, इसकी उन्हें कुछ चिन्ता नहीं होती। हे जननायक! हमारा तुमसे निवेदन है कि तुम यज्ञपतियों को ही उत्साहित करो, बढ़ाओ, सरसाओ, इसके विपरीत जो स्वार्थी लोग हैं, उन्हें किसी प्रकार का बढ़ावा न देकर हतोत्साह करो।। |

हमारी उक्त सब प्रार्थनाएँ तुम पूर्ण कर सको, एतदर्थ हम ‘स्वाहा’ करते हैं, कर रूप में नियत अपना भाग स्वाहा की भावना से प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अर्पित करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. विष्लू व्याप्तौ । वेवेष्टि व्याप्नोति स्वप्रभावेण सर्वत्र यः सः ।।

२. क्षि निवासगत्योः । क्षयो निवासे पा० ६.१.२०१, आद्युदात्त क्षय शब्द | निवासवाचक होता है, विनाशवाचक अन्तोदात्त होता है।

३. घृतं योनौ गृहे यस्य स घृतयोनिः । योनि-गृह, निघं० ३.४।

४. प्रतिरतिवर्द्धयति ।

हे जननायक! विक्रम दिखा

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है-रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः गोतमः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप्

अग्नाग्निश्चरति प्रविष्टुऽऋषीणां पुत्रोऽअभिशस्तिपावा। नः स्योनः सुयजा यजेह देवेभ्यो हुव्यसमप्रयुच्छन्त्स्वाहा ।।

-यजु० ५।४

(अग्नौ ) यज्ञाग्नि में (अग्निः ) परमात्माग्नि ( प्रविष्टः ) प्रविष्ट हुआ (चरति ) विचरता है। यज्ञाग्नि ( ऋषीणां पुत्रः ) ऋषियों का पुत्र है, ( अभिशस्तिपावा) निन्दाओं और शत्रुओं से बचानेवाला है। हे यजमान ! (न: स्योनः ) हमारे लिए सुखकारी (सः ) वह प्रसिद्ध तू ( सुयजा ) सुयज्ञ से (इह) यहाँ (सदं ) सदा ( देवेभ्यः ) वायु, जल आदि दिव्य पदार्थों को सुगन्धित करने के लिए अथवा विद्वानों के हितार्थ (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद किये ( स्वाहा ) स्वाहापूर्वक अग्नि में (हव्यं यज) हव्य का दान किया कर।।

हे यजमान ! क्या यज्ञकुण्ड में ज्वालाओं से ऊर्ध्वगामिनी होती हुई यज्ञाग्नि के अन्दर एक और अग्नि मुस्कराता हुआ नहीं दीखता ? ध्यान से देख, इस भौतिक अग्नि के अन्दर एक अभौतिक दिव्य अग्नि तेजस्वी परमेश्वर बैठा हुआ है, वही इसे आभा, ज्योति और प्रकाश दे रहा है। यज्ञाग्नि की ज्वालाओं में उस दिव्य अग्नि के दर्शन कर लेगा, तो यज्ञ का दुहरा लाभ तुझे प्राप्त हो सकेगा। एक तो पर्यावरणशुद्धि का, दूसरा परमेश के दर्शन का। यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त यज्ञाग्नि का परिचय भी जान ले। यह ऋषियों का पुत्र है,, महाव्रती ऋषि-मुनि प्रतिदिन सायं-प्रात: अरणिमन्थन द्वारा इसे यज्ञकुण्ड में उत्पन्न करते रहे हैं। यह निन्दाओं से और काम, क्रोध, रोग आदि शत्रुओं से बचानेवाला है। घृत एवं अन्य शुद्ध सुगन्धप्रद रोगहर हव्यों की आहुति से बढ़ती हुई निष्कलङ्क ज्योति को देख कर यजमान के मन में भी यह . भाव आता है कि मैं अपने जीवन को उज्वल और ज्योतिष्मान् करूँ, निन्दनीय कर्मों को छोड़कर सत्कर्म करूं, काम-क्रोध-अविद्या आदि आन्तरिक तथा दुर्गन्ध रोग आदि बाह्य शत्रुओं को नष्ट करूं, जिससे मेरी निन्दा न होकर सर्वत्र प्रशंसा हो। यज्ञ द्वारा यजमान जो जल, वायु, वृक्ष-वनस्पति आदि की शुद्धि करता है, उससे भी वह प्रशंसाभाजन बनता है।

मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि हे यजमान! तू शुभ यज्ञ द्वारा सदा बिना प्रमाद के सायं-प्रात: सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद, रोगहर हव्यों की स्वाहापूर्वक आहुति देकर वातावरण को शुद्ध करता रह। यह ‘स्वाहा’ शब्द हविर्द्रव्यों की अग्नि में आहुति के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों की सत्पात्रों में दान करने की भावना को भी जगाता है। ‘सु-आ-हा’ का अर्थ है सुन्दरता के साथ चारों ओर त्याग करना।

आओ, हम भी अग्नि आदि प्राकृतिक पदार्थों के अन्दर प्रभुसत्ता की झाँकी लें, हम भी अग्निहोत्र के व्रती बनकर प्रशंसाभाजन हों।

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार