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HADEES : THE PROPHET AS A LANDLORD

THE PROPHET AS A LANDLORD

Several ahAdIs (3758-3763) show that Muhammad�s own business practices could be sharp.  �Abdullah, the son of �Umar, reports that �when Khaibar had been conquered, it came under the sway of Allah, that of his Messenger and that of the Muslims� (3763).  Muhammad made an agreement with the Jews of Khaibar that they could retain the date-palms and the land on the condition that they worked them with their own wealth (seeds, implements) and gave �half of the yield to Allah�s Messenger� (3762).  Out of this half, �Allah�s Apostle got the fifth part,� and the rest was �distributed� (3761).  This lends credence to the common observation that those who control the funds, whether in the name of Allah or the state or the poor, are apt to spend them first on themselves.

These acquisitions enabled Muhammad to give each of his wives 100 wasqs (1 wasq = about 425 English pounds), 80 wasqs of dates, and 20 wasqs of barley per year.  When �Umar became the KhalIfa he distributed the land and gave the wives of Allah�s Apostle the option of taking the land or the yearly wasqs.  Their reactions to this offer differed.  �Aisha and Hafza, two wives of the Prophet, �opted for land and water� (3759).

author : ram swarup

हदीस : गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?

गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?

अगर एक गुलाम को आजाद भी कर दिया जाये, तो भी उसकी संपत्ति मुक्तिदाता की होगी (3584-3595)। आयशा एक गुलाम लौंडी, वरीरा, की मदद करना चाहती थी। वह उसकी आजादी इस शर्त पर खरीदने को तैयार थी कि ”मुझे तुम्हारी सम्पत्ति पर अधिकार मिलेगा। लेकिन लौंडी का स्वामी नगद दाम लेकर ही उसको तो आज़ाद करने का इच्छुक था। वह लौंडी की सम्पत्ति का हक़ अपने पास रखना चाहता था। मुहम्मद ने आयशा के हक़ में यह फैसला दिया-”उसे खरीद लो और मुक्त कर दो, क्योंकि संपत्ति का उत्तराधिकार उसका होता है, जो मुक्त करता है।“ फिर मुहम्मद ने फटकार लगाई-”लोगों को क्या हो गया है, जो वे ऐसी शर्तें रखते हैं जो अल्लाह की किताब में नहीं पायीं जातीं“ (3585)

author : ram swarup

 

हदीस : कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?

कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?

सिर्फ़ मोमिन गुलाम ही आजादी का पात्र है। किसी ने एक बार अपनी गुलाम बांदी को थप्पड़ जमा दिया और तब पछतावे की भावना से उसे आज़ाद करना चाहा। मुहम्मद से सलाह ली गयी। वे बोले-”उसे मेरे पास लाओ।“ वह लायी गयी। मुहम्मद ने उससे पूछा-”अल्लाह कहां है ?“ वह बोली-”वह जन्नत में है।“ मुहम्मद ने पूछा-मैं कौन हूं ?“ उसने जवाब दिया-”आप अल्लाह के पैगम्बर हैं।“ मुहम्मद ने यह फैसला सुनाया-”उसे आजाद कर दो। वह मोमिन औरत है“ (1094)।

 

इस प्रकार एक गुलाम को आजाद करने से पुण्य प्राप्त होता है। ”उस मुसलमान को जो एक मुसलमान (गुलाम) को मुक्त करता है, अल्लाह दोज़ख की आग से बचायेगा। गुलाम के हर अंग के एवज में मुक्त करने वाले का वही अंग आग से बचाया जायेगा। यहां तक कि उनके गुप्तांगों के बदले में मुक्ति दाता के गुप्तांग बचाये जायेंगे“ (3604)।

 

अपने साझे गुलाम को भी व्यक्ति अपने हिस्से की हद तक मुक्त कर सकता है। बाकी के लिए उस गुलाम के दाम तय किए जा सकते हैं। और गुलाम से ”अपनी आजादी के लिए काम करने को कहा जायेगा। लेकिन उसके ऊपर बहुत ज्यादा बोझा नहीं डालना चाहिए“ (3582)।

author : ram swarup

HADEES : CONTRACTS

CONTRACTS

Muhmmad recognized the contract system.  Unless otherwise laid down in the contract, �he who buys a tree after it has been fecunded, its fruits belongs to one who sells it. . . . and he who buys a slave, his property belongs to one who sells him� (3704).

author : ram swarup

हदीस : गुलामों की मुक्ति

गुलामों की मुक्ति

गुलामों की मुक्ति इस्लामपूर्व के अरब जगत में अज्ञात नहीं थी। गुलाम लोग कई तरह से आजादी हासिल कर सकते थे। एक रास्ता, जो बहुत सामान्य था, वह यह था कि उनके रिश्तेदार उन्हें निष्क्रय-मूल्य देकर छुड़ा लेते थे। एक दूसरा रास्ता यह था कि उनके मालिक उन्हें मुफ्त और बिना शर्त मुक्ति (इत्क़) दे देते थे। मुक्ति के दो अन्य रूप भी थे-”तदबीर“ और ”किताबाह“। पहले में मालिक यह घोषणा करता था कि उसकी मौत के बाद उसके गुलाम आजाद हो जाएंगे। दूसरे में वे गुलाम जिन्हें उनके रिश्तेदार निष्क्रय-मूल्य देकर नहीं छुड़ा पाते थे, अपने मालिक से यह इज़ाज़त ले लेते थे कि वे मज़दूरी द्वारा अपना निष्क्रय-मूल्य कमा कर उसे दे देंगे।

 

हम पहले देख चुके हैं कि हकीम बिन हिज़ाम ने किस प्रकार अपने ”एक-सौ गुलामों को मुक्त किया“ (225)। यह काम उन्होंने मुसलमान बनने से पहले किया था। हमने यह भी देखा कि अधिक श्रद्धापरायण अरबों में यह पुराना रिवाज था कि वे वसीयत करके अपनी मौत के बाद अपने गुलाम आजाद करें। मुहम्मद ने कुछ मामलों में इस प्रथा का विरोध किया। वे नहीं चाहते थे कि गुलाम-मुक्ति के फलस्वरूप वारिसों और रिश्तेदारों को नुकसान उठाना पड़े। फिर भी कुल मिला कर गुलाम-मुक्ति की प्रथा के प्रति मुहम्मद का रुख अनुकूल ही था। लेकिन इसी कारण वे गुलामों के मसीहा नहीं बन जाते। क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि दीन-हीन लोग जब दुनिया में छा जायेंगे तो वह दुनिया के खत्म होने के एक सूचना होगी। उनके अनुसार ”जब गुलाम लौंडी अपने मालिक को जन्म देने लगे, जब नंगे बदन और नंगे पांव वाले लोग जनता के मुखिया बनने लगें-कयामत की ये कुछ निशानियां हैं“ (4)।

 

मुहम्मद के लिए गुलाम की मुक्ति उसके स्वामी की उदारता की द्योतक थी, न्याय का मामला नहीं। बहरहाल, एक गुलाम को भागकर अपना उद्धार नहीं करना चाहिए। मुहम्मद कहते हैं-”जो गुलाम अपने मालिक के पास से भाग जायें, वे जब तक उसके पास वापस नहीं आ जाते, तब तक कुफ्र के गुनहगार होते हैं“ (129)।

author : ram swarup

 

HADEES : OUTBIDDING

OUTBIDDING

Muhammad also forbade outbidding.  �A person should not enter into a transaction when his brother is already making a transaction and he should not make a proposal of marriage when his brother has already made a proposal except when he gives permission� (3618).  He also forbade brokerage, �the selling of goods by a townsman on behalf of a man of the desert� (3621).

author : ram swarup

हदीस : गुलाम की मुक्ति

गुलाम की मुक्ति

कारण स्पष्ट नहीं है, किन्तु शादी और तलाक़ वाली किताब के अंत में कुछ अध्याय गुलामों के विषय में है। वर्गीकरण की गलत विधि के कारण ऐसा हुआ है, या फिर इसलिए हो सकता है कि गुलाम की मुक्ति ’तलाक‘ का ही एक रूप मानी जाती है, क्योंकि ’तलाक‘ का अक्षरशः अर्थ है ’मुक्त करना‘ या ’गांठ खोलना‘। या फिर यह भी हो सकता है कि यह विषय अगली किताब से संबंधित हो जो कि व्यापार के सौदों से संबंधित है। आखिरकार, एक गुलाम एक चल संपत्ति से कुछ अधिक नहीं था।

 

आधुनिक मुस्लिम लेखक, इस्लाम को एक मानवीय विचारधारा ठहराने की कोशिश करते हुए, गुलामों की मुक्ति (इत्क) के बारे में मुहम्मद के शिक्षापदों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर सुनाते हैं। लेकिन असलियत यह है कि मुहम्मद ने मज़हबी युद्ध का विधान देकर और कैद किए गए गैर-मुस्लिमों के मानवीय अधिकार अस्वीकृत करके, गुलामी को एक अभूतपूर्व पैमाने पर प्रचलित कर दिया। इस्लाम-पूर्व के अरब सुखदतम स्वप्न में भी कभी यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि गुलामी की संस्था इतने बड़े परिमाण में संभव हो सकती है। पैगम्बर का एक घनिष्ठ साथी, जुवैर, जब मरा तो उसके पास एक हज़ार गुलाम थे। खुद पैगम्बर के पास किसी न किसी अवसर पर कुल मिला कर कम से कम उनसठ गुलाम थे। उनके अड़तीस नौकर इनके अलावा थे। इनमें मर्द और औरतें, दोनों शामिल थे। 15वीं सदी ईस्वी में पैग़म्बर की जीवनी लिखने वाले मीरखोंद ने इन सबके नाम अपनी रौज़त अस्सफ़ा नाम की पुस्तक में दिए हैं। तथ्य यह है कि गुलामी, खि़राज और लड़ाई में लूटा गया माल, अरब के नए अमीरों का मुख्य अवलंब बन गये। गुलामों की पुरानी असमर्थताएं ज्यों-की-त्यों बनी रहीं। वे अपने मालिक (सैयद) की जायदाद थे। मालिक अपनी इच्छानुसार उनके विषय में निर्णय कर सकते थे-उन्हें बेच सकते थे, उपहार में दे सकते थे, किराये पर उठा सकते थे, उधार दे सकते थे, रहन रख सकते थे। गुलामों के कोई संपत्ति-संबंधी अधिकार नहीं थे। वे जो कुछ भी प्राप्त करते थे। वह सब उनके मालिकों की संपत्ति हो जाती थी। मालिक को अपनी उन गुलाम औरतों केा रखैल बनाने का पूरा अधिकार था, जो इस्लाम स्वीकार कर लेती थी, अथवा जो ”किताब वाले“ लोगों में से थीं। कुरान (सूरा 4/3, 4/24, 4/25, 23/6) ने इसकी इजाज़त दी। बिक्री, विरासत और शादी के इस्लामी कानूनों में गुलामी ओत-प्रोत हो गई। और यद्यपि गुलाम लोग अपने मुस्लिम मालिकों के लिए लड़ते थे, तथापि वे इस्लाम के मजहबी कानून के मुताबिक लड़ाई की लूट के हकदार नहीं थे।

author : ram swarup

 

HADEES : SPECULATION FORBIDDEN

SPECULATION FORBIDDEN

Muhammad forbids speculation.  �He who buys food grains should not sell it until he has taken possession of it� (3640).  During Muhammad�s own lifetime, as the control of Arabia passed into his hands, his injunctions became state policy.  SAlim b. �Abdullah reports: �I saw people being beaten during the lifetime of Allah�s Messenger in case they bought the food grain in bulk and then sold them at that spot before taking it to their places� (3650).

Because of their speculative nature, Muhammad also disallowed �futures� transactions.  He forbade �selling ahead for years and selling of fruits before they become ripe� (3714).  Transactions with the help of documents (probably the hundior bill of exchange system), were also made unlawful.  The injunction was implemented with the help of the police.  �I saw the sentinels snatching these documents from the people,� reports SulaimAn (3652).

author : ram swarup

हदीस : लियान (लानत भेजना)

लियान (लानत भेजना)

अगर कोई आदमी अपनी बीबी को व्यभिचाररत पाता है तो वह व्यभिचारी पुरुष की हत्या नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना मना है। न ही वह अपनी बीबी के खिलाफ आरोप लगा सकता है, क्योंकि जब तक चार गवाह न हों, औरत के सतीत्व पर झूठा लांछन लगाने पर उसे अस्सी कोड़े खाने पड़ेंगे। लेकिन अगर गवाह न मिल रहे हों, और ऐसे मामलों में अक्सर होता है, तो उसे क्या करना चाहिए ? मोमिनों को यह दुविधा मुश्किल में डाले हुए थी। एक अंगार (मदीना-निवासी) ने मुहम्मद के सामने यह मसला रखा-“अगर एक व्यक्ति अपनी बीवी को किसी मर्द के पास पाता है और वह उसके बारे में बोलता है, तो आप उसे कोड़े मारेंगे। और अगर वह मार डालता है तो आप उसे मार डालेंगे। और अगर वह चुप रह जाता है तो उसे गुस्सा पीना पड़ेगा।“ मुहम्मद ने अल्लाह से विनती की-“अल्लाह ! इस मसले को हल करो“ (3564)। और उन पर एक आयत (कुरान 246) उतरी जिसने लियान की प्रथा जारी की। इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है “कसम“ लेकिन पारिभाषिक अर्थ में यह शब्द क़सम के उस विशिष्ट रूप के लिए प्रयुक्त होता है जो चार क़समों और एक लानत के जरिये ख़ाविंद को बीवी से अलग कर देता है। अकेले खाविंद की गवाही तब स्वीकार की जा सकती है, जब वह अल्लाह की कसम के साथ चार बार यह गवाही दे कि वह पक्के तौर पर सच बोल रहा हो तो उस पर अल्लाह का रोष प्रकट हो। इसी प्रकार कोई बीवी अपने ऊपर गले अभियोग को चार बार क़सम खा कर अस्वीकार कर सकती है और फिर अपने ऊपर लानत ले सकती है कि उस पर अभियोग लगाने वाले ने अगर सच बोला है तो उसके (बीवी के) ऊपर अल्लाह का रोष प्रकट हो। दोनों में से एक ने जरूर झूठ बोला होगा। लेकिन मामला यहीं खत्म हो जाता है और इसके बाद वे दोनों मियां बीवी नहीं रह जाते (3553-3577)।

author : ram swarup