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पूना प्रवचन में स्वयं कथित अपना जीवन वृत्तान्त पन्द्रहवां व्याख्यान (4 अगस्त 1875)

हमसे बहुत से लोग पूछते हैं कि हम कैसे जानें कि आप ब्राह्मण हैं और कहते हैं कि आप अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों की चिट्ठियाँ मगा दें या आपको जो पहचानता हो उसको बतलावें।

इसलिए मैं अपना कुछ वृत्तान्त कहता हूँ। दूसरे देशों की अपेक्षा गुजरात में कुछ मोह अधिक है, यदि मैं अपने पूर्व मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपना पता दूं या पत्र—व्यवहार करूँ तो मेरे पीछे एक ऐसी व्याधि लग जावेगी, जिससे

कि मैं छूट चुका हूँ। इस भय से कि कहीं वह बला मेरे पीछे न लग जावे,पत्रादि मँगा देने की चेष्टा नहीं करता।

धारंगधरा नाम का एक राज्य गुजरात देश में है। इसकी सीमा पर एक मौरवी नगर है, वहाँ मेरा जन्म हुआ था। मैं औदीच्य ब्राह्मण हूँ । औदीच्य ब्राह्मण सामवेदी होते हैं, परन्तु मैंने बड़ी कठिनता से यजुर्वेद पढ़ा था। मेरे घर

में अच्छी जमींदारी है। इस समय मेरी अवस्था 50 वर्ष की होगी। आठवें वर्ष मेरे बाद एक बहन पैदा हुई थीं। मेरा एक चचेरा दादा था, वह मुझसे बहुत ही प्यार करता था। मेरे कुटुम्बियों के इस समय 15 घर होंगे। मुझको लड़कपन में ही रूद्राध्याय सिखलाकर शुक्ल यजुर्वेद का पढ़ाना आरम्भ कर दिया था।

मेरे पिता ने मुझको शिव की पूजा में लगा दिया। दशवें वर्ष से पार्थिव (मिट्टी के महादेव) की पूजा करने लग गया।

मुझे पिता ने शिवरात्रि का व्रत रखने को कहा था। परन्तु मैंने शिवरात्रि का व्रत न किया। तब शिवरात्रि की कथा मुझे सुनाई, वह कथा मेरे मन को बहुत मीठी लगी और मैंने उपवास रखने का पक्का निश्चय कर लिया। मेरी

माँ कहती थी कि उपवास मत कर, मैंने माता का कहना न मानकर उपवास किया। मेरे यहाँ नगर के बाहर एक बड़ा देवल है। वहाँ शिवरात्रि के दिन रात के समय बहुत लोग एकत्रित होते हैं और पूजा करते हैं । मेरे पिता, मैं और

बहुत मनुष्य इकट्ठे थे। पहिले पहर की पूजा कर ली, दूसरे पहर की पूजा भी हो गयी। अब बारह बज गये और धीरे—धीरे आलस्य के कारण लोग जहाँ के तहाँ झुकने लगे। मेरे पिता को भी निद्रा आ गई। इतने में पुजारी बाहर गया।

मैं इस भय से न सोया कि कहीं मेरा उपवास निष्फल न हो जाय। इतने में यह चमत्कार हुआ कि मन्दिर में बिल से चूहे बाहर निकले और महादेव की पिण्डी के चारों तरफ फिरने लगे। पिण्डी पर जो चावल चढ़ाये हुए थे, उन्हें ऊपर चढ़कर खाने भी लगे मैं जागता था, इसलिए यह सब कौतुक देख रहा था। इससे एक दिन पहले शिवरात्रि की कथा मैं सुन ही चुका था।

उसमें शिव के भयानक गणों, उसके पाशुपत अस्त्र, बैल की सवारी और उसके आश्चर्यमय सामर्थ्य के विषय में बहुत कुछ सुन चुका था। इसलिए चूहों के इस खेल को देखकर मेरी लड़कपन बुद्धि आश्चर्य में पड़ गई और मैंने सोचा कि

जो शिव अपने पाशुपत अस्त्र से बड़े —बड़े दैत्यों को मारता है, क्या वह ऐसे तुच्छ चूहों को भी अपने ऊपर से नहीं हटा सकता। इस प्रकार की बहुत—सी शंकायें मेरे मन में उठने लगीं।

मैंने पिताजी को जगाकर पूछा कि ये महादेव इस छोटे चूहे को नहीं हटा देते। पिताजी ने कहा कि तेरी बुद्धि बड़ी भ्रष्ट है, यह तो केवल देवता की मूर्त्ति है। तब मैंने निश्चय किया कि जब मैं इसी त्रिशूल धारी शिव को प्रत्यक्ष

देखूंगा, तब ही पूजा करूँगा, अन्यथा नहीं। ऐसा निश्चय करके मैं घर को गया, भूख लगी थी माता से खाने को माँगा। माता कहने लगी, ट्टमैं तुमसे पहले ही कहती थी कि तुझसे भूखा नहीं रहा जायेगा। तूने ही हट करके उपवास

किया।’’ माँ ने फिर मुझे खाना दिया और कहा कि दो दिन तो उनके अर्थात् पिताजी के पास मत जाना और न उनसे बोलना, नहीं तो मार खायेगा, खाना खाकर मैं सो गया। दूसरे दिन आठ बजे उठा, मैंने सारी कथा अपने चाचा से कह दी। मेरे चाचा ने बुद्धिमत्ता से मेरे पिता को समझा दिया कि इसको आगे विघा पढ़नी है, इसलिए व्रत उपवास आदि इससे कुछ न कराया करो।

इस समय मैं इनसे यजुर्वेद पढ़ता था और दूसरे एक पण्डित मुझे व्याकरण पढा़ते थे। सोलहवें या सत्रहवें वर्ष में यजुर्वेद समाप्त हुआ। इसके बाद मैं अपनी जमींदारी के गाँव में पढ़ने के लिए गया। वहाँ हमारे घर में एक दिन नाच होता था, उस समय मेरी छोटी बहन मरणासन्न थी। कण्ठ बन्द हो गया था। मैं वहाँ गया और उसके बिस्तरे के पास खड़ा हुआ। सबसे पहले मैंने मौत वहीं देखी। जब मेरी बहन मर गई , तो मुझे बड़ा भय हुआ। मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सबको इसी प्रकार मरना है। सब लोग रोते थे, पर मेरी छाती भय से धड़क रही थी। इसलिय मेरी आँखों से एक आँसू भी नहीं गिरा। मेरी यह दशा देखकर पिता ने मुझको पाषाण हृदय कहा।

मेरी माता मुझे बहुत प्यार करती थी, किन्तु उसने भी ऐसा ही कहा। मुझे सोने के लिए कहते थे पर मुझे कभी अच्छी तरह नींद न आती थी, किन्तु मैं हर घड़ी चौंक— चौंक उठता था और मन में भांति— भांति के विचार उठते थे।

बहन के मरने के पश्चात् लोक रीति के अनुसार पाँच छः बार रोना होने पर भी जब मुझे रोना नहीं आया तो सब लोग मुझे धिक्कारने लगे। उन्नीसवें वर्ष में मुझसे अत्यन्त स्नेह रखने वाले मेरे चाचा को भी मृत्यु

ने आन दबाया। मरते समय उन्होंने मुझे पास बुलाया। लोग उनकी नाड़ी देखने लगे। मैं उनके पास बैठा था, मुझे देखकर उनके टप—टप आँसू गिरने लगे। मुझे भी उस समय बहुत रोना आया, मैंने रो—रो कर आँखें सुजा लीं। ऐसा रोना मुझे कभी नहीं आया। इस समय मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि चाचा की तरह मैं भी मर जाऊँगा। ऐसा विश्वास हो जाने पर अपने मित्रों और पण्डितों से अमर होने का उपाय पूछने लगा। जब उन्होंने योगाभ्यास की ओर संकेत किया तो मेरे मन में यह सूझी कि घर छोड़कर चला जाऊँ । इस समय मेरी आयु 20 वर्ष की थी।

मेरी बढ़ी हुई उदासीनता देखकर पिता ने जमींदारी का काम करने को कहा, परन्तु मैंने न किया फिर पिता ने निश्चय किया कि मेरा विवाह कर दें ताकि मैं बिगड़ न जाऊँ। यह विचार घर में होने लगा, यह मालूम करके मैंने

दृढ़ निश्चय कर लिया कि विवाह कभी नहीं करूँगा। यह भेद मैंने एक मित्र से प्रकट किया तो उसने मना किया और विवाह करने के लिए जोर देने लगा। मेरा विचार घर छोड़कर चले जाने का था, पर किसी ने सलाह न दी। जो

कहते वे विवाह करने को ही कहते। एक महीने के भीतर विवाह करने की तैयारी हो गई। यह देखकर मैं एक दिन शौच के मिश (बहाने) से एक धोती साथ लेकर घर से निकल पड़ा और एक सिपाही द्वारा कहला भेजा कि एक

मित्र के घर गया हूँ। मैं एक पास के गाँव में गया। इधर घर में मेरी प्रतीक्षा दस बजे रात तक होती रही। इसी रात को चार घड़ी के तड़के मैं गाँव से निकलकर आगे चल दिया और अपने गाँव से दस कोस के अन्तर पर एक गाँव के हनुमान् के मन्दिर पर ठहरा। वहाँ से चलकर सायला योगी के पास गया, परन्तु वहाँ पर मुझे शान्ति नहीं मिली और लोगों से सुना कि लालाभक्त नामी एक योगी है। तब उनकी ओर चल पड़ा। मार्ग में एक वैरागी एक मूर्त्ति रखकर बैठा हुआ था। बात—चीत होने पर वह बोला कि अगुंली में सोने का छल्ला डालकर वैराग्य की सिद्धि कैसे होगी? मुझे इस प्रकार खिजाकर मेरे तीनों छल्ले मूर्त्ति के भेंट चढ़वा लिए। लालाभक्त के पास जाकर मैं योग—साधना करने लगा। रात को एक वृक्ष के ऊपर बैठ गया, तो वृक्ष के ऊपर घूघू बोलने लगा। उसकी आवाज सुनकर मुझे भूत का भय हुआ। मैं मठ के भीतर घुस गया। फिर वहाँ से अहमदाबाद के समीप कोट काँगड़ा नामी गाँव में आया,वहाँ बहुत से वैरागी रहते थे। एक कहीं की रानी वैरागी के फन्दे में आ गई थी। इस रानी ने मेरे साथ ठट्टा किया, परन्तु में जाल से छूट गया, इस स्थान पर मैं तीन महीने रहा था। यहाँ पर वैरागी मुझ पर हंसी उड़ाने लगे, इसलिए जो रेशमी किनारेदार धोती मैं पहनता था, वह मैंने फेंक दी। मेरे पास केवल 3 रुपये रह गये थे, इनसे सादी धोती खरीदकर पहन ली और तब से अपना ब्रह्मचारी नाम रख लिया।

उन्हीं दिनों मैंने सुना कि कार्तिक के महीने में सिद्धपुर के स्थान पर एक मेला होता है। यह सोचकर कि वहाँ शायद मुझे कोई योगी मिल जावे और अमर होने का मार्ग बता दे, मैंने सिद्धपुर को प्रस्थान किया। मार्ग में मुझे अपने

गाँव का आदमी मिला, उसने जाकर मेरे बाप को बतला दिया कि सिद्धपुर की ओर चला गया हूँ। मेरा पिता और घर के लोग बराबर मेरी खोज में ही थे। इस आदमी की जबानी सुनकर मेरे पिता चार सिपाहियों सहित सिद्धपुर को

आये। मैं एक मन्दिर में बैठा हुआ था। एकाएक मेरे पिता और चार सिपाहीमेरे सामने आकर खड़े हो गये। देखते ही मेरा कलेजा धड़कने लगा। इस भय से कि पिता मुझको मारेंगे, मैंने उठकर उनके पाँव पकड़ लिए। वे मुझ पर बहुत

ही क्रुद्ध हुए, मैंने उनसे कहा कि एक धूर्त बहकाकर मुझे यहाँ लाया हैं, मैं घर जाने को तैयार ही था कि आप आ गये। उन्होंने मेरा तूँबा तोड़ डाला और मेरी छाई फाड़ डाली और कुछ कपड़े मुझे दिए। मेरे पीछे दो सिपाही सदा

के लिए कर दिए। रात को जहाँ मैं सोता था एक सिपाही मेरे सिरहाने बैठा जागता रहता था। मैंने चाहा कि इस सिपाही को धोखा देकर निकल जाऊँ और इसलिए मैं यह जानने के लिए कि सिपाही रात को सोता है या नहीं, खुद भी जागता रहा। सिपाही को तो यह निश्चय हो जाये कि मैं सो रहा हूँ और इसलिए मैं नाक से खर्राटे भरने लगता था। इस प्रकार तीन रातें जागना पड़ा, चौथी रात सिपाही को नींद आ गई, तब एक लोटा हाथ में ले बाहर निकला।

यदि कोई देख पावे तो झट कह दूँगा कि शौच को जाता हूँ । वहाँ से निकलकर गाँव के बाहर एक बाग में चला गया। प्रातःकाल होते ही एक वृक्ष पर भूखा बैठा रहा। रात को जब अँधेरा हो गया, सात बजे नीचे उतरकर चल

दिया। अपने गाँव और घर के मनुष्यों से यह अन्तिम भेंट थी। इसके पश्चात् एक बार प्रयाग (इलाहाबाद) में मेरे गाँव के बहुत से लोग मुझको मिले, परन्तु मैंने उनको अपना पता नहीं दिया, तब से आज तक कोई नहीं मिला।

सिद्धपुर से बड़ोदे को आया, वहाँ से नर्मदा नदी के तट पर विचरने लगा इस समय नर्मदा के तट पर योगानन्द स्वामी रहते थे। यहाँ एक दक्षिणी ब्राह्मण कृष्ण शास्त्री भी रहते थे, इनके पास मैं कुछ—कुछ पढ़ता रहा।

तत्पश्चात् राजगुरु के पास वेदों को पढ़ा। 23 या 24 वर्ष की अवस्था में मुझे चाणूद कनाली में एक संन्यासी मिला। मुझे पढ़ने में बहुत ही अनुराग था और संन्यास आश्रम में पढ़ने का बहुत सुभीता होता है। इसलिए उसके उपदेश से

मैंने श्राद्ध आदि करके संन्यास ले लिया, तब से ही दयानन्द सरस्वती नाम धारण किया। मैंने दण्ड गुरु के पास धर दिया।

चाणूद में दो गोसाईं आये, जो राजयोग करते थे, मैं भी उनके साथ अहमदाबाद तक गया। वहाँ पर एक ब्रह्मचारी मिला। पर कुछ दिनों बाद मैंने  उसका साथ छोड़ दिया। वहाँ से मैं जाते—जाते हरिद्वार पहुँचा, वहांँ कुम्भ का

मेला था। वहाँ से हिमालय पहाड़ पर उस जगह पहुँचा जहाँं से अलकनन्दा नदी निकलती है। बर्फ बहुत पड़ी हुई थी और पानी भी बहुत ठण्डा था। वहाँ बर्फ लगने से पैर में कुछ तकलीफ हुई। हिमालय पर्वत पर पहँुंच कर यह विचार हुआ कि यहीं शरीर गला दूँ।

फिर मन में आया कि यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के बाद शरीर छोड़ना चाहिए। यह निश्चय करके मैं मथुरा में आया। वहाँ मुझे एक धर्मात्मा संन्यासी गुरु मिले। उनका नाम स्वामी विरजानन्द था, वे पहले अलवर में रहते थे। इस

समय उनकी अवस्था 81 वर्ष की हो चुकी थी। उन्हें अभी तक वेद—शास्त्र आदि आर्ष ग्रन्थों में बहुत रुचि थी। ये महात्मा दोनों आँखों से अँधे थे, और इनके पेट में शूल का रोग था। ये कौमुदी और शेखर आदि नवीन ग्रन्थों को

अच्छा नहीं समझते थे और भागवत आदि पुराणों का भी खण्डन करते थे। सब आर्ष ग्रन्थो के वे बड़े भक्त थे। उनसे भेंट होने पर उन्होंने कहा कि तीन वर्ष में व्याकरण आ जाता है। मैंने उनके पास पढ़ने का पक्का निश्चय कर लिया। मथुरा में एक भद्र पुरुष अमरलाल नामक थे, उन्होंने मेरे पढ़ने के समय में जो—जो उपकार मेरे साथ किए, मैं उनको भूल नहीं सकता। पुस्तकों और खाने—पीने का प्रबन्ध सब उन्होंने बड़ी उत्तमता से कर दिया। जिस दिन उन्हें कहीं बाहर जाना होता, तो वे पहिले मेरे लिए भोजन बनाकर और मुझे खिलाकर बाहर जाते थे। सौभाग्य से ये उदारचेता महाशय मुझे मिल गये थे।

विघा समाप्त होने पर मैं आगरे में दो वर्ष तक रहा, परन्तु पत्र व्यवहार के द्वारा या कभी—कभी स्वयं गुरुजी की सेवा में उपस्थित होकर अपने सन्देह निवृत्त कर लेता था। आगरे से मैं ग्वालियर को गया, वहाँ कुछ—कुछ वैष्णव मत का खण्डन आरम्भ किया, वहाँ से भी स्वामी जी को पत्रादि भेजा करता था। वहाँ माधवमत के एक आचार्य हनुमन्त नामी रहते थे। वे किरानी का स्वांग भर कर शास्त्रार्थ सुनने बैठा करते थे। एक—आध बार जब मेरे मुख से कोई अशुद्ध शब्द निकला, तो उन्होंने अशुद्धि पकड़ ली। मैंने कई बार उनसे पूछा कि आप कौन हैं, परन्तु उन्होंने यही उत्तर दिया कि मैं एक किरानी हूँ, सुनने—सुनाने से कुछ बोध प्राप्त हुआ है। एक दिन इस विषय में वार्त्तालाप हुआ कि वैष्णव लोग जो माथे पर खड़ी रेखा लगाते हैं, वह ठीक हैं या नहीं। मैंने कहा यदि खड़ी रेखा लगाने से स्वर्ग मिलता हो, तो सारा मुँह काला करने से स्वर्ग से भी कोई बड़ी पदवीं मिलती होगी। यह सुनकर उनको बड़ा क्रोध आया और वे उठ गये।

तब लोगों से पूछने पर मालूम हुआ कि यही उस मत के आचार्य हैं। ग्वालियर से मैं रियासत करौली को गया। वहाँ पर एक कबीर पन्थी मिला, उसने एक बार वीर के अर्थ कबीर किए थे और कहने लगा कि एक कबीर उपनिषद् भी है। वहाँ से फिर मैं जयपुर को गया, वहाँं हरिश्चन्द्र नामी एक बड़े विद्वान् पण्डित थे। वहाँ पहिले मैंने वैष्णव मत का खण्डन करके शैव मत स्थापित किया। जयपुर के महाराज सवाई रामसिंह भी शैवमत की दीक्षाले चुके थे। शैव मत के फैलने पर हजारों रूद्राक्ष की मालायें मैंने अपने हाथोंसे लोगों को पहनाईं। वहाँ शैवमत का इतना प्रचार हुआ कि हाथी घोड़ों के गलों में भी रूद्राक्ष की माला पहनाई गईं। जयपुर से मैं पुष्कर को गया, वहाँ से अजमेर आया। अजमेर पहुँचकर शैवमत का भी खण्डन करना आरम्भ किया। इसी बीच में जयपुर के महाराजा

लाटसाहब से मिलने के लिए आगरे जाने वाले थे। इस आशंका से कि कहीं वृन्दावन निवासी प्रसिद्ध रंगाचार्य से शास्त्रार्थ न हो जावे। राजा रामसिंह ने मुझे बुलाया और मैं भी जयपुर पहुँच गया, परन्तु वहाँ मालूम होने पर कि मैंने शैवमत का खण्डन आरम्भ कर दिया है राजा साहब अप्रसन्न हुए । इसलिए मैं भी जयपुर छोड़कर मथुरा में स्वामी जी के पास गया और शंका— समाधान किया। वहाँ से मैं फिर हरिद्वार को गया। वहाँ अपने मठ पर पाखण्ड मर्दन लिखकर झण्डा खड़ा किया। वहाँ वाद—विवाद बहुत सा हुआ फिर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सारे जगत् से विरूद्ध होकर भी गृहस्थों से बढ़कर पुस्तक आदि का जंजाल रखना ठीक नहीं है। इसलिए मैंने सब कुछ

छोड़कर केवल एक कौपीन (लंगोट) लगा लिया और मौन धारण किया। इस समय जो शरीर में राख लगाना शुरू किया था, वह गत वर्ष बम्बई में आकर छोड़ा। वहाँ तक लगाता रहा था। जब से रेल में बैठना पड़ा, तब से कपडे

पहनने लगा। जो मैंने मौन धारण किया था, वह बहुत दिन सध न सका, क्यों कि बहुत से लोग मुझें पहचानते थे । एक दिन मेरी कुटी के द्वार पर एक मनुष्य यह कहने लगा ट्टनिगमकल्पतरोर्गलितं फलम्’’ अर्थात् भागवत से बढ़कर और कुछ नहीं है, वेद भी भागवत से नीचे हैं।’’

तब मुझसे यह सहन न हो सका, तब मौन व्रत को छोड़कर मैंने भागवतका खण्डन प्रारम्भ किया। फिर यह सोचा कि ईश्वर की कृपा से जो कुछ थोड़ा बहुत ज्ञान अपने को हुआ है, वह सब लोगों पर प्रकट करना चाहिए। इस विचार को मन में रखकर मैं फरूखाबाद को गया, वहाँ से रामगढ़ को गया। रामगढ़ में शास्त्रार्थ शुरू किया। वहाँ पर जब दो चार पण्डित बोलते थे, तब मैं कोलाहल शब्द कहा करता था, इसलिए आज तक वहाँ के लोग मुझको

कोलाहल स्वामी कहा करते हैं। वहाँ पर चक्रांकितों के चेले दस आदमी मुझे मारने को आये थे, बड़ी कठिनता से उनसे बचा। वहाँ से फरूखाबाद होकर कानपुर आया कानपुर से प्रयाग गया। प्रयाग में भी मारने वाले आये थे। पर

एक माधवप्रसाद नामी धर्मात्मा पुरुष था, उसकी सहायता से बचा। यह गृहस्थ माधव प्रसाद ईसाई मत ग्रहण करने को तैयार था, उसने इन सब पण्डितों को नोटिश दे रखा था, कि यदि आप अपने आर्य धर्म में तीन महीने के भीतर

मेरा विश्वास न करा देंगे, तो मैं ईसाई धर्म को स्वीकार कर लूँगा मेरे आर्य धर्म पर निश्चय दिला देने से वह ईसाई नहीं हुआ। प्रयाग से मैं रामनगर को गया। वहाँ के राजा की इच्छानुसार काशी के पण्डितों से शास्त्रार्थ हुआ। इस

शास्त्रार्थ में यह विषय प्रविष्ट था कि वेदों में मूर्ति पूजा है या नहीं। मैंने यह सिद्ध करके दिखा दिया कि प्रतिमा शब्द तो वेदों में मिलता है परन्तु उसके अर्थ तौल नाप आदि के हैं। वह शास्त्रार्थ अलग छपकर प्रकाशित हुआ है,

जिसको सज्जन पुरुष अवलोकन करेंगे।

इतिहास शब्द से ब्राह्मण ग्रन्थ ही समझने चाहिए इस पर भी शास्त्रार्थ हुआ था। गत वर्ष के भाद्रपद मास में मैं काशी में था। आज तक चार बार काशी में जा चुका हूँ। जब—जब काशी में जाता हूँ तब—तब विज्ञापन देता हूँ कि यदि किसी को वेद में मूर्ति पूजा का प्रमाण मिला हो तो मेरे पास लेकर आवें परन्तु अब तक कोई भी प्रमाण नहीं निकाल सका।

इस प्रकार उत्तरीय भारत के समस्त प्रान्तों में मैंने भ्रमण किया है। दो वर्ष हुए कि कलकत्ता, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, जयपुर आदि नगरों में मैंने बहुत से लोगों को धर्मोपदेश दिया है। काशी फरूखाबाद आदि नगरों में चार पाठशालाएँ आर्ष— विघा पढ़ाने के लिए स्थापित की हैं। उनमें अध्यापकों की उच्छृंखलता से जैसा लाभ पहुँचना चाहिए था नहीं पहुँचा। गत वर्ष मुम्बई आया, यहाँ मैंने गुसांई महाराज के चरित्रों की बहुत कुछ छानबीन की। बम्बई में आर्य समाज स्थापित हो गया। बम्बई,अहमदाबाद, राजकोट आदि प्रान्तों में कुछ दिन धर्मोपदेश किया, अब तुम्हारे इस नगर में दो महीनों से आया हुआ हूँ।

यह मेरा पिछला इतिहास है, आर्य धर्म की उन्नति के लिए मुझ जैसे बहुत से उपदेशक आपके देश में होने चाहिए। ऐसा काम अकेला आदमी भली प्रकार नहीं कर सकता, फिर भी यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि अपनी बुद्धि  और शक्ति के अनुसार जो कुछ दीक्षा ली है उसे चलाऊँगा। अब अन्त में ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि सर्वत्र आर्य समाज कायम होकर मूर्त्ति पूजादि दुराचार दूर हो जावें, वेद शास्त्रों का सच्चा अर्थ सबको समझ में आवे और उन्हीं के अनुसार लोगों का आचरण हो कर देश की उन्नति हो जावे। पूरी आशा है कि आप सज्जनों की सहायता से मेरी यह इच्छा पूर्ण होगी।

ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः

 

‘मर्यादा पुरूषोत्तम एवं योगेश्वर दयानन्द’-मनमोहन कुमार आर्य

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ओ३म्

मर्यादा पुरूषोत्तम एवं योगेश्वर दयानन्द


 

महर्षि दयानन्द को 13, 15 और 17 वर्ष की आयु में घटी शिवरात्रि व्रत, बहिन की मृत्यु और उसके बाद चाचा की मृत्यु से वैराग्य उत्पन्न हुआ था। 22 वर्ष की अवस्था तक वह गुजरात प्राप्त के मोरवी नगर के टंकारा नामक ग्राम में स्थित घर पर रहे और मृत्यु पर विजय पाने की ओषधि खोजते रहे। जब परिवार ने उनकी भावना को जाना तो विवाह करने के लिए उन्हें विवश किया। विवाह की सभी तैयारियां पूर्ण हो गई और इसकी तिथि निकट आ गई। जब कोई और विकल्प नहीं बचा तो आपने गृह त्याग कर दिया और सत्य ज्ञान की खोज में घर से निकल पड़े। आपने देश भर का भ्रमण कर सच्चे ज्ञानी विद्वानों और योगियों की खोज कर उनकी संगति की और संस्कृत व शास्त्रों के अध्ययन के साथ-साथ योग का भी क्रियात्मक सफल अभ्यास किया। योग की जो भी सिद्धियां व उपलब्धियां हो सकती थी, उन्हें प्राप्त कर लेने के बाद भी उनका आत्मा सन्तुष्ट न हुआ। अब उन्हें एक ऐसे गुरू की तलाश थी जो उनकी सभी शंकायें और भ्रमों को दूर कर सके। मनुष्य की जो सत्य इच्छा होती है और उसके लिए वह उपयुक्त पुरूषार्थ करता है तो उसकी वह इच्छा अवश्य पूरी होती है और ईश्वर भी उसमें सहायक होते हैं। ऐसा ही स्वामी दयानन्द के जीवन में भी हुआ और उन्हें प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती का पता मिला जो मथुरा में संस्कृत के आर्ष व्याकरण एवं वैदिक आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन कराते थे। सन् 1860 में आप उनके शरणागत हुए और अप्रैल 1863 तक उनसे अध्ययन व ज्ञान की प्राप्ति की। अध्ययन पूरा कर गुरू दक्षिणा में स्वामीजी ने अपने गुरू को उनकी प्रिय लौंगे प्रस्तुत की। गुरूजी ने भेंट सहर्ष स्वीकार की और दयानन्द जी को कहा कि वेद और वैदिक धर्म, संस्कृति व परम्परायें अवनति की ओर हैं और विगत 4-5 हजार वर्षों में देश व दुनियां में मनुष्यों द्वारा स्थापित कल्पित, अज्ञानयुक्त, अन्धविश्वास से पूर्ण मान्यतायें व परम्परायें प्रचलित हो गईं हैं। हे दयानन्द ! तुम असत्य का खण्डन तथा सत्य का मण्डन कर सत्य पर आधारित ईश्वर व ऋषियों की धर्म-संस्कृति व परम्पराओं का प्रचार व उनकी स्थापना करो। स्वामी दयानन्द ने अपने गुरू की आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार किया और कहा कि गुरूजी ! आप देखेंगे कि यह आपका अंकिचन शिष्य व सेवक आपसे किये गये अपने इस वचन को प्राणपण से पूरा करने में लगा हुआ है। ऐसा ही हम अप्रैल, 1863 से अक्तूबर, 1883 के मध्य उनके जीवन में घटित घटनाओं में देखते हैं।

 

इस घटना के बाद स्वामी दयानन्द ने देश भर का भ्रमण किया। वेदों पर उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रित किया। उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास किये। उन्होंने इंग्लैण्ड में प्रथम बार प्रो. फ्रेडरिक मैक्समूलर द्वारा प्रकाशित चारों वेद मंगाये। उन्होंने चारों वेदों का गहन अध्ययन किया और पाया कि वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जो सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा की आत्माओं में सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ईश्वर द्वारा प्रकट, प्रेरित, प्रविष्ट व स्थापित किये गये थे। उन्होंने यह भी पाया कि वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत में भारी अन्तर है। लौकिक संस्कृत के शब्द रूढ़ हैं जबकि वेदों के सभी शब्द नित्य होने के कारण घातुज या यौगिक हैं। उन्होंने यह भी जाना कि वेदों के शब्दों के रूढ़ अर्थों के कारण अर्थ का अनर्थ हुआ है। उन्होंने पाणिनी की अष्टाध्यायी, काशिका, पंतंजलि के महाभाष्य, महर्षि यास्क के निघण्टु और निरूक्त आदि ग्रन्थों की सहायता से वेदों के पारमार्थिक एवं व्यवहारिक अर्थ कर एक अपूर्व महाक्रान्ति को जन्म दिया और अपने पूर्ववर्ती पौर्वीय व पाश्चात्य वैदिक विद्वानों के वेदार्थों की निरर्थकता व अप्रमाणिकता का अनावरण कर सत्य का प्रकाश किया। महर्षि दयानन्द ने अपनी वेद विषयक मान्यताओं और सिद्धान्तों, जो कि शत प्रतिशत सत्य अर्थों पर आधारित हैं, का प्रकाश किया और इसके लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, संस्कृत वाक्य प्रबोध, व्यवहारभानु आदि अनेकानेक ग्रन्थों का सृजन किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का यह कार्य मर्यादा पालन के साथ-साथ मर्यादाओं की स्थापनाओं का कार्य होने से इतिहास में अपूर्व है जिस कारण वह मर्यादाओं के संस्थापक होने से मर्यादा पुरूषोत्तम विशेषण के पूरी तरह अधिकारी है। इतना ही नहीं, उन्होंने वैदिक मर्यादा की स्थापना के लिए वेदों के संस्कृत व हिन्दी में भाष्य का कार्य भी आरम्भ किया। सृष्टि के आरम्भ से उनके समय तक उपलब्ध वेदों के भाष्यों में आर्ष सिद्धान्तों, मान्यताओं व परम्पराओं से पूरी तरह से समृद्ध कोई वेद भाष्य संस्कृत वा अन्य किसी भाषा में उपलब्ध नहीं था। मात्र निरूक्त ग्रन्थ ऐसा था जिसमें वेदों के आर्ष भाष्य का उल्लेख व दिग्दर्शन था। महर्षि दयानन्द ने उसका पूर्ण उपयोग करते हुए एक अपूर्व कार्य किया जो उन्हें न केवल ईश्वर की दृष्टि में अपितु निष्पक्ष संसार के ज्ञानियों में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करता है।

वेदों का प्रचार प्रसार ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य सिद्ध होता है। धन कमाना व सुख भोगना गौण उद्देश्य हैं परन्तु मुख्य उद्देश्य वेदों का अध्ययन व अध्यापन, प्रचार व प्रसार, उपदेश व शास्त्रार्थ, सत्य का मण्डन व असत्य का खण्डन, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, ऊंच-नीच की भावनाओं से मुक्त होकर सबको समान मानना व दलित व पिछड़ों को ज्ञानार्जन व धनोपार्जन में समान अधिकार दिलाना, अछूतोद्धार व दलितोद्धार आदि कार्य भी मनुष्य जीवन के कर्तव्य हैं, यह ज्ञान महर्षि दयानन्द के जीवन व कार्यों को देख कर होता है। आज देश व समाज में वेदों का यथोचित महत्व नहीं रहा जिस कारण समाज में अराजकता, असमानता, विषमता, अज्ञानता, अन्धविश्वास, परोपकार व सेवा भावना की अत्यन्त कमी, दुखियों, रोगियों व निर्धनों, भूखों, बेरोजगारों के प्रति मानवीय संवेदनाओं व सहानुभूति में कमी, देश भक्ति की कमी या ह्रास आदि अवगुण दिखाई देते हैं जिसका कारण वेदों का अप्रचलन, अप्रचार व अवैदिक विचारों का प्रचलन, प्रचार व प्रभाव है। यह बात समझ में नहीं आती कि जब वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए, वेदों से पूर्व संसार में कोई ग्रन्थ रचा नहीं गया और न प्राप्त होता है, वेदों की भाषा व उसके विचारों व ज्ञान का अथाह समुद्र जो मानव जाति के लिए कल्याणकारी है, फिर भी उसे भारत व संसार के लोग स्वीकार क्यों नहीं करते? हम संसार के सभी मतावलम्बियों से यह अवश्य पूछना चाहेंगे कि आप वेदों से दूरी क्यों बनाये हुए हैं? क्या वेद कोई हिंसक प्राणी है जो आपको हानि पहुंचायेगा, यदि नहीं फिर आपको किस बात का डर है? यदि है तो वह निःसंकोच भाव से क्यों नहीं बताते? महर्षि दयानन्द का मानना था जिसे हम उचित समझते हैं कि यदि सारे संसार के लोग वेदों का अध्ययन करें, समीक्षात्मक रूप से गुण-दोषों पर विचार करें और गुणों को स्वीकार कर लें तो सारे संसार में शान्ति स्थापित हो सकती है। अशान्ति व विरोध का कारण ही विचारों व विचारधाराओं की भिन्नता है, कुछ स्वार्थ व अज्ञानता है तथा कुछ व अधिक विषयलोलुपता एवं असीमित सुखभोग की अभिलाषा व आदत है। महर्षि दयानन्द यहां एक आदर्श मानव के रूप में उपस्थित हैं और वह हमें इतिहास में सभी बड़े से बड़े महापुरूषों से भी बड़े दृष्टिगोचर होते हैं। अतः यदि उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कहा जाये तो यह अत्युक्ति नहीं अपितु अल्पयुक्ति है। उन्होंने स्वयं तो सभी मानवीय मर्यादाओं का पालन किया ही, साथ हि सभी मनुष्यों को मर्यादा में रहने वा मर्यादाओं का पालन करने के लिए प्रेरित किया और उससे होने वाले धर्म, अर्थ, काम मोक्ष के लाभों से भी परिचित कराया।

 

आईये, अब स्वामी दयानन्द जी के योगेश्वर होने के स्वरूप पर विचार करते हैं। हम जानते है कि संसार में एक सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता ईश्वर है और वही योगेश्वर भी है। उसके बाद हमारे उन योगियों का स्थान आता है जिन्होंने कठिन योग साधनायें कीं और ईश्वर का साक्षात्कार किया। यह लोग सच्चे योगी कहला सकते हैं। अब विद्या को प्राप्त करने के बाद विद्या का दान करने का समय आता है। यदि कोई सिद्ध योगी योग विद्या का दान नहीं करता व अपने तक सीमित रहता है तो वह स्वार्थी योगी ही कहला सकता है। महर्षि दयानन्द ने देश भर में घूम-घूम कर योगियों की संगति की, योग सीखा और उसमें वह सफल रहे। इतने पर ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। इसके बाद भी उन्होंने विद्या के ऐसे गुरू की खोज की जो उनकी सभी शंकायें व भ्रान्तियां दूर कर दें। इस कार्य में भी वह सफल हुए और उन्हें विद्या के योग्यतम् गुरू प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती प्राप्त हुए। उनसे उन्हें पूर्ण विद्या का दान प्राप्त हुआ और वह पूर्ण विद्या और योग की सिद्धि से महर्षि के उच्च व गौरवपूर्ण आसन पर विराजमान होकर भूतो भविष्यति संज्ञा के संवाहक हुए। स्वामी श्रद्धानन्द ने उन्हें बरेली में प्रातः वायु सेवन के समय समाधि लगाये देखा था। महर्षि जहां-जहां जाते व रहते थे, उनके साथ के सेवक व भृत्य रात्रि में उन्हें योग समाधि में स्थित देखते थे। उनके जीवन में ऐसे उदाहरण भी है कि वेदों के मन्त्रों का अर्थ लिखाते समय उन्हें जब कहीं कोई शंका होती थी तो वह एक कमरे में जाते थे, समाधि लगाते थे, ईश्वर से अर्थ पूछते थे और बाहर आकर वेदभाष्य के लेखकों को अर्थ लिखा देते थे। जीवन में वह कभी डरे नहीं, यह आत्मिक बल उन्हें ईश्वर के साक्षात्कार से ही प्राप्त हुआ एक गुण था। अंग्रेजों का राज्य था, सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम हो चुका था, उस समय वह 32 वर्ष के युवा संन्यासी थे। उन्होंने उस संग्राम में गुप्त कार्य किये जिसका विवरण उन्होंने कभी प्रकट नहीं किया न उनके जीवन के अनुसंधानकर्ता व अध्येता पूर्णतः जान पाये। इसके केवल संकेत ही उनके ग्रन्थों में वर्णित कुछ घटनाओं में मिलते हैं। इस आजादी के आन्दोलन के विफल होने पर उन्होंने पूर्ण विद्या प्राप्त कर पुनः सक्रिय होने की योजना को कार्यरूप दिया और अन्ततः वेद प्रचार के नाम से देश में जागृति उत्पन्न की। अन्तोगत्वा 15 अगस्त, 1947 को देश अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्र हुआ। उनके योगदान का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि स्वराज्य को सुराज्य से श्रेष्ठ बताने वाले प्रथम पुरूष स्वामी दयानन्द थे और उनके आर्य समाजी विचारधारा के अनुयायियों की संख्या आजादी के आन्दोलन में सर्वाधिक थी। लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, महादेव रानाडे, क्रान्ति के पुरोधा श्यामजी कृष्ण वर्मा, पं. राम प्रसाद बिस्मिल, शहीद सुखदेव आदि सभी उनके अनुयायी व अनुयायी परिवारों के व्यक्ति थे। महर्षि दयानन्द को इस बात का भी श्रेय है कि उन्होंने योग को गृहत्यागी संन्यासी व वैरागियों तक सीमित न रखकर उसे प्रत्येक आर्य समाज के अनुयायी के लिए अनिवार्य किया। आर्य समाज के अनुयायी जो ईश्वर का ध्यान सन्ध्या करते हैं वह अपने आप में पूर्ण योग है जिसमें योग के आठ अंगों का समन्वय है। स्वयं सिद्ध योगी होने और योग को घर-घर में पहुंचाने के कारण स्वामी दयानन्द योगेश्वर के गरिमा और महिमाशाली विशेषण से अलंकृत किये जाने के भी पूर्ण अधिकारी है।

 

महर्षि दयानन्द के वास्तविक स्वरूप को जानने व मानने का कार्य इस देश के लोगों ने अपने पूर्वाग्रहों, अज्ञानता व किन्हीं स्वार्थों आदि के कारण नहीं किया। इससे देश वासियों व विश्व की ही हानि हुई है। उन्होंने वेदों के ईश्वर प्रदत्त ज्ञान को सारी दुनियां से बांटने का महा अभियान चलाया लेकिन संकीर्ण विचारों के लोगों ने उनके स्वप्न को पूरा नहीं होने दिया। आज आधुनिक समय में भी हम प्रायः रूढि़वादी बने हुए हैं। आत्म चिन्तन व आत्म मंथन किये बिना किसी धार्मिक व सामाजिक विचारधारा पर विश्वास करना रूढि़वादिता है जो देश, समाज व विश्व के लिए हितकर नहीं है। हम अनुभव करते हैं कि शिक्षा में मजहबी शिक्षा की पूर्ण उपेक्षा कर वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ तर्क, युक्ति, सृष्टिक्रम के अनुकूल ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरूप का अध्ययन सभी देशवासियों को अनिवार्यतः कराया जाना चाहिये। मनुष्य ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकता है, उसे प्राप्त करने की योग की विधि पर भी पर्याप्त अनुसंधान होकर प्रचार होना चाहिये जिससे हमारा मानव जीवन व्यर्थ सिद्ध न होकर सार्थक सिद्ध हो। लेख के समापन पर हम मर्यादा पुरूषोत्तम और योगश्वर दयानन्द को कोटिशः नमन करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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“महाभारतोत्तर काल के देशी-विदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द”

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महाभारतोत्तर काल के देशीविदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

आईये, पौर्वीय एवं पाश्चात्य वेदों के भाष्यकारों पर दृष्टि डालते हैं। महाभारत काल के बाद से अब तक लगभग 5,115 वर्षों से कुछ अधिक समय व्यतीत हो चुका है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों के अध्ययन व अध्यापन की परम्परा में बड़ा व्यवधान उपस्थित हुआ। युद्ध के बाद प्रायः ऐसा हुआ ही करता है। आजकल भी यदि घर में किसी को खर्चीला रोग हो जाये या फिर कोई मुकदमा आदि ऐसा हो जाये जिसमें उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में मुकदमा लड़ना पड़े तो अति व्यय साध्य होने से अच्छे अच्छे को पसीने आ जाते हैं मुख्यतः सामान्य व मध्यम वर्गीय व्यक्तियों को। महाभारत काल व बाद के समय में देश की आज कल की तरह वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नति भी नहीं थी। हम अनुभव करते हैं कि वेदों का अध्ययन हो व सामान्य सांसारिक अध्ययन, हस्त-लिखित पुस्तकों से अध्ययन व अध्यापन किया जाता था। पुस्तकें हो सकता है कि ताड़पत्रों या भोज पत्रों पर होती रही हांगी। यह आजकल की तरह से किसी पुस्तक विक्रेता या प्रकाशक से सुलभ व उपलब्ध भी नहीं होती होंगी? यही स्थिति वेदों व वैदिक साहित्य की कही जा सकती थी। देश की ऐसी स्थिति में महाभारत काल के बाद मध्यकाल व उससे कुछ पूर्व हमारे अज्ञानी व स्वार्थी धर्माधिकारियों द्वारा स्त्री व शूद्रों को वेद व वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से ही वंचित कर दिया गया। जब समाज में वैदिक ज्ञान को जानने व समझने वाले लोगों की कमी या अभाव सा हुआ तो हमारे शीर्ष ब्राह्मण धर्माधिकारियों ने अपना अध्ययन, पुरूषार्थ व तप करना छोड़ दिया या कम कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि वेदाध्ययन की परम्परा प्रायः टूट गई। दूसरी ओर ऐसे अन्धकार के समय में भी हमारे देश में पाणिनी, पतंजलि व महर्षि यास्क जैसे वेदों के विश्व-विश्रुत विद्वान हुए जिन्होंने अपनी साधना व योग की प्रतिभा व पुरूषार्थ के बल पर अष्टाध्यायी, महाभाष्य एवं निरूक्त आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। यहां हम अनुमान करते हैं कि इन गुरूओं व शिष्यों ने मिलकर इन ग्रन्थों की एक-एक प्रति तैयार की होंगी। फिर उन शिष्यों ने मिलकर एक से अनेक प्रतियां बनाई होगी। यह कार्य आसान नहीं था। अतः महर्षि पाणिनी, पतंजलि एवं यास्क जी का अध्ययन व अध्यापन क्षेत्र विकसित व उन्नत होकर भी सामाजिक प्रभाव की दृष्टि से अति सीमित प्रतीत होता है। समय के साथ-साथ पाणिनी की अष्टाध्यायी जैसे ग्रन्थ भी विलुप्त व अप्राप्य हो गये। देश बहुत बड़ा है। दूरस्थ भागों में जब समस्यायें आयीं होंगी तो हमें लगता है कि वहां के विद्वानों ने अपनी ज्ञान व क्षमता के अनुसार व्याकरण व अन्य ग्रन्थ तैयार किये हांेगे। संस्कृत के यह व्याकरण ग्रन्थ शेखर, मनोरमा, लघुकौमुदी, सिद्धान्त कौमुदी आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनका आज भी उपयोग किया जा रहा है। ऋषिकृत व विद्वान के ग्रन्थों में अन्तर हुआ करता है जैसे कि एक बहुत बड़ा विद्वान या आचार्य किसी महाविद्यालय में पढ़ायें और कहीं एक अल्प शिक्षित विद्वान किसी साधारण विद्यालय में अध्ययन व शिक्षण कराये। अतः अष्टाध्यायी, महाभाष्य व निरूक्त, निघण्टु आदि वैदिक संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ ऋषियों व उच्च कोटि के विद्वानों के द्वारा बनाये हुए थे और अन्य मनोरमा, कौमुदी आदि ग्रन्थ साधारण विद्वानों के बनाये ग्रन्थ थे। हम समझते हैं कि यह सभी हमारे आदर के पात्र हैं परन्तु यहां एक नियम लागू होता है कि जब दिन निकल आता है तो बुद्धिमान लोग दीपक या प्रकाश के वैकल्पिक साधनों बल्ब आदि का प्रयोग न कर सूर्य के प्रकाश से लाभ उठाते हैं परन्तु धार्मिक व विद्वत जगत में अष्टाध्यायी व महाभाष्य एवं निरूक्त आदि सूर्य के समान उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त हो जाने पर भी हमारे पूर्वज महानुभावों ने उन्हें न अपना कर अति अल्प महत्व के व्याकरण ग्रन्थों का आश्रय लेना जारी रखा जो अब भी बदस्तूर जारी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि वेद व्याख्या के क्षेत्र में वेद मन्त्रों के सत्य अर्थों को करने की क्षमता इन लौकिक व्याकरणाचार्यों में नहीं है। इनकी पहुंच रामायण, महाभारत व गीता आदि लौकिक ग्रन्थों तक श्लोकों का अनुवाद करने की ही है।

महाभारत काल के बाद से अब तक तथा महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों को छोड़कर जितने भी वेद भाष्यकार हुए हैं उनमें सायण व महीधर का नाम मुख्य है। इन दोनों ही वेद भाष्यकारों ने जो वेदार्थ किया है वह सत्य वेदार्थ को प्रकाशित व उद्घाटित करने में सर्वथा असमर्थ रहा है। इसके विपरीत इन भाष्यों में अर्थ का अनर्थ किया गया है जिसका प्रमाण-पुरस्सर प्रकाश महर्षि दयानन्द ने अपने साहित्य में किया है। इन मध्यकालीन भाष्यकारों ने तो एक कल्पना की कि वेदों का मुख्य व एकमात्र प्रयोजन केवल यज्ञों को करने वा कराने में ही हैं। इनका हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि वेद मनुष्य का धर्म ग्रन्थ न होकर एक प्रकार से यज्ञ, अग्निहोत्र या संस्कार आदि कर्मों को करने वा कराने वाला ग्रन्थ ही है, इससे अधिक कुछ नहीं। इसके विपरीत जो आर्ष विद्वान महर्षि पाणिनी, महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि तथा महर्षि यास्क आदि हुए हैं, उन्होंने वेदों को ईश्वर ज्ञान मानने के साथ इस ज्ञान को जीवन के सभी अंगों व क्षेत्रों पर व्यापक रूप से विचार, ज्ञान व विज्ञान देने वाला सभी विद्याओं का प्रकाशक ग्रन्थ स्वीकार किया है। पौराणिकों, लौकिक व्याकरणाचार्यों एवं अनार्ष विद्वानों के ग्रन्थों के कारण ही वेद विलुप्ति के कागार पर पहुंचे और देश में अनेकानेक अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न हुईं थीं। दूसरी ओर महर्षि दयानन्द अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती के मार्गदर्शन एवं शिक्षण से आर्ष ग्रन्थों को ढूढ्ने व खोजने में सफल हुए। उन्होंने गुरूजी की सहायता, मार्गदर्शन, अपने पुरूषार्थ एवं योग की उपलब्धियों व सिद्धियों का उपयोग वेद के यथार्थ रहस्य, सत्य वेदार्थ व संसार के रहस्यों को जानने में किया और इसमें वह सफल हुए। उन्होंने वैदिक धर्म, संस्कृति व प्राचीन परम्पराओं को पुनर्जीवित करने के लिए जहां आरम्भ में सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ लिखें वही वेदों के जो अनुचित, त्रुटिपूर्ण वा अश्लील अर्थ किये गये थे उनका निराकरण कर सत्य वेदार्थ को ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका व ऋग्वेद आंशिक एवं यजुर्वेंद सम्पूर्ण वेदभाष्य करके पूरा किया। आज उनका किया हुआ यह समस्त वेद भाष्य एवं उनके अनुयायी विद्वानों के किए हुए अनेक वेदभाष्य न केवल हिन्दी भाषा में ही अपितु अंग्रेजी भाषा में भी उपलब्ध हैं। वेदों के सत्यार्थ का वर्तमान में उपलब्ध होना आर्य जनता, देशवासियों एवं सारे संसार के लोगों का परम सौभाग्य है। वेदों की महत्ता इस कारण से है कि यह धर्म के आदि स्रोत होने के कारण सत्य धर्म व सच्ची आध्यात्मिकता के ग्रन्थ हैं। इनसे हमें अपने जीवन के सत्य लक्ष्य का ज्ञान होने के साथ उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान भी होता है। संसार के अन्य मतों से जीवन के लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का भली प्रकार से ज्ञान नहीं होता। योग दर्शन एक ऐसा ग्रन्थ है जो इस विषय में सहायक है एवं इसका आधार भी वेद ही है। यदि वेद न होते तो योग दर्शन न होता और योग दर्शन न होता तो ईश्वर की सही विधि से उपासना का ज्ञान संसार में किसी को न हो पाता। वेदों का महत्व इस कारण से भी है कि वेद संसार का सबसे प्राचीनतम ज्ञान है और यह हमारे आदिकालीन अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषियों को सीधा सर्वव्यापक व सृष्टिकत्र्ता से प्राप्त हुआ था। वेद सभी सत्य विद्याओं के भण्डार होने के कारण हमारे सभी के पूर्वजों की एक प्रकार से सम्मिलित थाती व पूंजी है। आज भी सभी बच्चे अपने माता-पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी बनते ही हैं। इसी प्रकार से वैदिक ज्ञान का उत्तराधिकार भी सभी सन्तानों व देशवासियों को ग्रहण करना चाहिये। यदि नहीं करते तो वह पूर्वजों की योग्य सन्ताने व सन्तति नहीं हैं। अब कुछ चर्चा पाश्चात्य वेदों के विद्वानों की भी कर लेते हैं।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बाबर के आक्रमण करने पर भारत मुगलों का गुलाम हुआ। उन्होंने देश के लोगों का शोषण किया, उन पर अत्याचार किये और भारी संख्या में धर्मान्तरण किया तथा हमारे मन्दिरों आदि को तोड़ा और उनको मस्जिद के रूप में बदला। हमारे तक्षशिला व नालन्दा सहित देश के पुस्तकालयों को अग्नि के समर्पित कर दिया गया। हमें लगता है कि देश में यदि सरदार वल्लभ भाई पटेल गृहमंत्री व उपप्रधान मंत्री न हुए होते तो विध्वंसित सोमनाथ मन्दिर दुबारा अस्तित्व में कदापि न आता। भारत माता के इस भक्त सरदार पटेल को स्मरण कर अपनी श्रद्धांजलि देते हैं। इसके बाद अनेक पीढि़यों के बीत जाने के बाद मुगल शासन भी अपनी ही विसंगितों व अत्याचारों आदि के कारण कमजोर हुआ तो उनसे अधिक बुद्धिमान व बलवान अंग्रेजों ने अपनी बुद्धिचातुर्य से देश को गुलाम बनाया। उन्होंने भी अत्याचारों में कहीं कोई कमी नहीं की। इन्होंने भी अनुभव किया कि भारत पर स्थाई शासन करने के लिए भारत के वैदिक धर्मी आर्य व हिन्दुओं को ईसाई बनाना सबसे अच्छा व निरापद तरीका हो सकता है। पर्दे के पीछे षडयन्त्र व योजनायें बनी और छल व कपट से काम लिया गया। इसी योजना का एक भाग वेदों का मिथ्या व अनेक दोषों से पूर्ण भाष्य वा अनुवाद करना था जिससे वेद विश्वासी भारतीयों को अपने वैदिक धर्म से घृणा हो जाये। उनका कार्य हमारे सायण व महीधर के वेदों के भाष्यों ने कर दिया। अतः उन्हें अधिक परिश्रम व कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड़ा। उनका किया गया वेदों का भाष्य एक प्रकार से सायण आदि वाममार्गी वेद भाष्यकारों के भाष्यों का अंग्रेजी में अनुवाद ही है। उनमें किसी के पास यथार्थ वेदभाष्य या वेदार्थ की योग्यता भी नहीं थी। प्रो. मैक्समूलर जर्मनी मूल के अंगे्रज विदेशी वेद भाष्यकारों एवं वेदों पर कार्य करने वालों लोगों के अग्रणीय प्रमुख व्यक्ति हैं। इतना ही नहीं उन्होंने व उनके विदेशी सहयोगियों ने काल्पनिक सिद्धान्त प्रस्तुत कर प्रचारित किये। जैसे कि वेदों को धर्म ग्रन्थ मानने वाले आर्य व हिन्दू भारत के मूल निवासी नहीं हैं। यह मध्य एशिया व विश्व के किसी अन्य स्थान पर रहते थे और वहां से भारत आये, यहां के मूल निवासियों जो काले रंग रूप वाले थे, उन पर आक्रमण किया, विजय प्राप्त की और उन पर शासन किया। वह अपने इस षडयन्त्र व मनोरथ में आंशिक रूप से सफल भी हुए। आज हम भारत के अनेक स्थानों पर जिन ईसाई मतावलम्बियों को देखते हैं वह इन्हीं षडयन्त्रों व छल-कपट से धर्मान्तरण का परिणाम हैं। इसमें कुछ व पर्याप्त कारण भारत की गरीबी, अशिक्षा, अज्ञान व अन्धविश्वास, धार्मिक पाखण्ड, मूर्ति पूजा, जन्म पर आधारित जन्मना जाति व्यवस्था, छुआछुत, फलित ज्योतिष आदि मुख्य रूप से रहे हैं। ईश्वर की कुछ ऐसी दैवीय कृपा भारतवासियों पर रही कि यह दोनों विदेशी आक्रान्ता अपने षडयन्त्रों में पूर्णतः सफल नहीं हो सके। इसी बीच 15 फरवरी, 1825 को भारत में महर्षि दयानन्द जी का गुजरात राज्य के राजकोट से लगभग 25 किलोमीटर दूरी पर स्थित टंकारा नामक एक ग्राम व कस्बे में जन्म होता है। शिवरात्रि को अन्ध विश्वास की घटना घटती है जिससे मूर्तिपूजा से उन्हें वैराग्य हो जाता है। उसके कुछ काल बाद बहिन व चाचाजी की मृत्यु की घटनाओं से उन्हें अपनी मृत्यु का डर सताता है। वह सत्य ज्ञान की खोज एवं मृत्यु पूजा पर विजय पाने के लिए घर से भाग जाते हैं और नवम्बर, सन् 1860 तक देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए सच्चे योगियों व विद्वानों के सम्पर्क में आकर अपनी सभी धार्मिक, आध्यात्मिक व सामाजिक शंकाओं की चर्चा कर उनके समाधानों पर विचार करते हैं। इस प्रयास व पुरूषार्थ में वह एक सिद्ध योगी बनने के साथ संस्कृत व्याकरण के अपूर्व विद्वान और वेदों के भी अपूर्व विद्वान तथा साक्षात्कृतधर्मा ऋषि भी बन जाते जाते हैं। गुरू विरजानन्द जी के परामर्श व आज्ञा से वह अपने जीवन का उद्देश्य सत्य का मण्डन व असत्य का खण्डन निर्धारित करते हैं। गुरू जी से सत्य व असत्य को जानने की कसौटी उन्हें पहले ही प्राप्त हो चुकी होती है। अब वह एक-एक करके मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, वेदाधिकार, वेद किन-किन ग्रन्थों की संज्ञा है, छुआछूत शास्त्रीय है वा मनघड़न्त अथवा कपोल कल्पित है, इस पर वेद आदि शास्त्रों की आर्ष दृष्टि के आधार पर विचार कर निर्णय करते हैंै। उनके अनुसंधान के परिणाम के अनुसार वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है जो सृष्टि की आदि में इस संसार को रचने वाली चेतन, आनन्द से पूर्ण, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एक सत्ता ईश्वर से आविर्भूत हुए थे। देश-विदेश के सभी धार्मिक व सामाजिक संगठनों एवं सम्प्रदाय आदि को सत्य व असत्य का निर्णय करने में सहायता करने के लिए वह अपने युग का अपूर्व क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का लेखन व प्रकाशन करते हैं और सबको सत्य व असत्य के निर्णयार्थ शास्त्रार्थ करने की चुनौती देते हैं। इस ग्रन्थ में वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुसार धार्मिक जीवन कैसा होता है, इसका उल्लेख करते हैं और इसके साथ समाज में व्याप्त सभी पाखण्डों का दिग्दर्शन कराकर उनका खण्डन करते हैं। समाज के पवित्र जीवन जीने वाले निर्भीक बुद्धिजीवी व्यक्ति उनकी बातों को सुनते, समझते, उनसे वार्तालाप व शंका समाधान आदि करते हैं। बहुत से उनकी बातों को सत्य स्वीकार कर उनके अनुयायी बन जाते हैं और उनके द्वारा 10 अप्रैल, 1875 को स्थापित भारत के अपने प्रकार के प्रथम धार्मिक व क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़कर देश का भाग्य बदलने के लिए आगे आते हैं। यह आन्दोंलन आंशिक रूप से सफल होता है। उनके द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सन् 1875 में की गई प्रेरणा से ही स्वतन्त्रता वा स्वराज्य प्राप्ति का आन्दोलन आरम्भ होता है। कालान्तर में घार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक नेताओं की किन्ही अदूरदर्शिताओं से देश का विभाजन व खण्डित देश आजाद होता है। उन्होंने अपने समय में देश भर में घूम-घूम कर सत्य वैदिक धर्म का प्रचार किया। असत्य व पाखण्डों तथा अन्धविश्वासों का खण्डन किया। उनके अनुयायी ने देशभर में गुरूकुलों व डीएवी कालेजों की स्थापना कर समाज का कायाकल्प कर दिया। आज के आधुनिक भारत में महर्षि दयानन्द का कार्य स्पष्ट दृष्टि गोचर होता है। देश की उन्नति के लिए जो कार्य उन्होंने किया वह अन्य किसी सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक व्यक्ति विशेष, पुरूष या महापुरूष ने नहीं किया। वह भारतमाता के सर्वोत्तम व योग्यतम पुत्र सिद्ध हुए।

महर्षि दयानन्द के वेद भाष्य की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। उनका भाष्य न केवल महाभारत युद्ध के बाद का सर्वोत्तम वेद भाष्य है अपितु हमारा अनुमान है कि यह सृष्टि की आदि से अब तक का सर्वोत्तम भाष्य है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यह संस्कृत के साथ हिन्दी में भी किया गया है। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने में महर्षि दयानन्द के कार्याें का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपने ज्ञान व चर्म चक्षुओं से हिन्दी के महत्व को बहुत पहले जान व समझ लिया था। स्वामीजी ने देश को क्षेमचन्द्र दास त्रिवेदी, पं. जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. आर्यमुनि, पं. तुलसी राम स्वामी, पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार आदि ऋषि श्रेणी के वेदभाष्यकार विद्वान दिये हैं। इनका वेदभाष्य समस्त मानव जाति की घरोहर है। महाभारत काल के बाद पहली बार यह स्वर्णिम दिन भारत में आयें हैं कि जब वेदभाष्य घर-घर में विद्यमान है। महर्षि दयानन्द के साहित्य व इन आर्य वेद भाष्यकारों के ग्रन्थों का अध्ययन कर ही मनुष्य जीवन के लक्ष्य व उद्देश्य सहित उसकी प्राप्ति के साधनों को जानकर अपना जीवन सफल कर सकता है। अन्य कोई मार्ग जीवन को सफल करने का किसी मत आदि में नहीं है। सभी मतानुयायियों को देव व सवेर महर्षि दयानन्द की शरण में आना ही पड़ेगा। हम यह भी कहना चाहते कि महर्षि दयानन्द के देशहित के कार्यों के अनुरूप देश के लोगों व धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक नेताओं ने उनके साथ न्याय नहीं किया है। वेद भाष्य कर व वैदिक मान्यताओं का प्रचार करके महर्षि दयानन्द ने वैदिक धर्म की सबल व समर्थ विरोधी विधर्मियों से रक्षा की। हम समझते हैं कि परमात्मा के अलावा उनकी सेवाओं का मूल्यांकन कोई मनुष्य शायद कभी नहीं पायेगा। महर्षि दयानन्द की जय के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

Rishi Gatha

rishi dayanand

ऋषि गाथा ओ3म् ऽ ओ3म् ऽ ओ3म्।। हम आज एक ऋषिराज की पावन कथा सुनाते हैं। आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं। हम कथा सुनाते हैं। ओ3म् ऽ हम एक अमर इतिहास के कुछ पन्ने पलटाते हैं। आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं। हम कथा सुनाते हैं। ऋषिवर को लाख प्रणाम, गुरुवर को लाख प्रणाम।।… धर्मधुरन्धर मुनिवर को कोटि-कोटि प्रणाम, कोटि-कोटि प्रणाम।। टेक।।

भारत के प्रान्त गुजरात में एक ग्राम है टंकारा। उस गाँव के ब्राह्मण कुल में जन्मा इक बालक प्यारा। बालक के पिता थे करसन जी माँ थी अमृतबाई। उस दम्पति से हम सबने इक अनमोल निधि पाई। हम टंकारा की पुण्यभूमि को शीश झुकाते हैं।। 1।।

फिर नामकरण की विधि हुई इक दिन करसन जी के घर। अमृत बा का प्यारा बेटा बन गया मूलशंकर। पाँचवे वर्ष में स्वयं पिता ने अक्षरज्ञान दिया। आठवें वर्ष में कुलगुरु ने उपवीत प्रदान किया। इस तरह मूलजी जीवनपथ पर चरण बढ़ाते हैं।। 2।।

जब लगा चौदहवाँ साल तो इक दिन शिवरात्रि आई। उस रात की घटना से कुमार की बुद्धि चकराई। जिस घड़ि चढ़े शिव के सिर पर चूहे चोरी-चोरी। मूलजी ने समझी तुरंत मूर्तिपूजा की कमजोरी। हर महापुरुष के लक्षण बचपन में दिख जाते हैं।। 3।।

फिर इक दिन माँ से पुत्र बोला माँ दुनियाँ है फानी। मैं मुक्ति खोजने जाऊँगा पानी है ये जिन्दगानी। चुपचाप सुन रहे थे बेटे की बात पिता ज्ञानी। जल्दी से उन्होंने उसका ब्याह कर देने की ठानी। इस भाँति ब्याह की तैयारी करसन जी कराते हैं।। 4।।

शादी की बात को सुनके युवक में क्रान्तिभाव जागे। वे गुपचुप एक सुनसान रात में घर से निकल भागे। तेजी से मूलजी में आए कुछ परिवर्तन भारी। दीक्षा लेकर वो बने शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी। हम कभी-कभी भगवान की लीला समझ न पाते हैं।। 5।।

फिर जगह-जगह पर घूम युवक ने योगाभ्यास किया। कुछ काल बाद पूर्णानन्द ने उनको संन्यास दिया। जिस दिवस शुद्ध चैतन्य यहाँ संन्यासी पद पाए। वो स्वामी दयानन्द सरस्वती उस दिन से कहलाए। हम जगप्रसिद्ध इस नाम पे अपना हृदय लुटाते हैं।। 6।।

संन्यास बाद स्वामी जी ने की घोर तपश्चर्या। सच्चे सद्गुरु की तलाश यही थी उनकी दिनचर्या। गुजरात से पहुँचे विन्ध्याचल फिर काटा पन्थ बड़ा। फिर पार करके हरिद्वार हिमालय का रस्ता पकड़ा। अब स्वामीजी के सफर की हम कुछ झलक दिखाते हैं।। 7।।

तीर्थों में गए मेलों में गए वो गए पहाड़ों में। जंगल में गए झाड़ी में गए वो गए अखाड़ों में। हर एक तपोवन तपस्थलि में योगीराज ठहरे। पर हर मुकाम पर मिले उन्हें कुछ भेद भरे चेहरे। साधू से मिले सन्तों से मिले वृद्धों से मिले स्वामी। जोगी से मिले यतियों से मिले सिद्धों से मिले स्वामी। त्यागी से मिले तपसी से मिले वो मिले अक्खड़ों से। ज्ञानी से मिले ध्यानी से मिले वो मिले फक्कड़ों से। पर कोई जादू कर न सका मन पर स्वामी जी के। सब ऊँची दूकानों के उन्हें पकवान लगे फीके। योगी का कलेजा टूट गया वो बहुत हताश हुए। कोई सद्गुरु न मिला इससे वो बहुत निराश हुए। आँखों से छलकते आँसू स्वामी रोक न पाते हैं।। 8।। इतने में अचानक अन्धकार में प्रकटा उजियाला। प्रज्ञाचक्षु का पता मिला इक वृद्ध सन्त द्वारा। मथुरा में रहते थे एक सद्गुरु विरजानन्द नामी। उनसे

मिलने तत्काल चल पड़े दयानन्द स्वामी। आखिर इक दिन मथुरा पहुँचे तेजस्वी संन्यासी। गुरु के दर्शन से निहाल हुई उनकी आँखे प्यासी। गुरु के अन्तर्चक्षुने पात्र को झट पहचान लिया। उसकी प्रतिभा को पहले ही परिचय में जान लिया। सद्गुरु की अनुमति मांग दयानन्द उनके शिष्य बने। आगे चलकर के यही शिष्य भारत के भविष्य बने। गुरु आश्रम में स्वामी जी ने जमकर अभ्यास किया। हर विद्या में पारंगत बन आत्मा का विकास किया। जो कर्मठ होते हैं वो मंझिल पा ही जाते हैं।। 9।।

गुरुकृपा से इक दिन योगिराज वामन से विराट बने। वो पूर्ण ज्ञान की दुनियाँ के अनुपम सम्राट बने। सब छात्रों में थे अपने दयानन्द बड़े बुद्धिशाली। सारी शिक्षा बस तीन वर्ष में पूरी कर ड़ाली। जब शिक्षा पूर्ण हुई तो गुरुदक्षिणा के क्षण आए। मुट्ठीभर लौंग स्वामी जी गुरु की भेंट हेतु लाए। जो लौंेग दयानन्द लाए थे श्रद्धा से चाव से। वो लौंग लिए गुरुजी ने बड़े ही उदास भाव से। स्वामी ने गुरु से विदा माँगी जब आई विदा घड़ी। तब अन्ध गुरु की आँख में गंगा-यमुना उमड़ पड़ी। वो दृष्य देखकर हुई बड़ी स्वामी को हैरानी। पर इतने में ही मुख से गुरु के निकल पड़ी वाणी। जो वाणी गुरुमुख से निकली वो हम दोहराते हैं।। 10।।

गुरु बोले सुनो दयानन्द मैं निज हृदय खोलता हूँ। जिस बात ने मुझे रुलाया है वो बात बोलता हूँ। इन दिनों बड़ी दयनीय दशा है अपने भारत की। हिल गईं हैं सारी बुनियादें इस भव्य इमारत की। पिस रही है जनता पाखण्डों की भीषण चक्की में। आपस की फूट बनी है बाधा अपनी तरक्की में। है कुरीतियों की कारा में सारा समाज बन्दी। संस्कृति के रक्षक बनें हैं भक्षक हुए हैं स्वच्छन्दी। कर दिया है गन्दा धर्म सरोवर मोटे मगरों ने। जर्जरित जाति को जकड़ा है बदमाश अजगरों ने। भक्ति है छुपी मक्कारों के मजबूत शिकंजों में। आर्यों की सभ्यता रोती है पापियों के फंदों में। गुरु की वाणी सुन स्वामी जी व्याकुल हो जाते हैं।। 12।।

गुरु फिर बोले ईश्वर बिकता अब खुले बजारों में। आया है भयंकर परिवर्तन आचार-विचारों में। हर चबूतरे पर बैठी है बन-ठन कर चालाकी। उस ठगनी ने है सबको ठगा कोई न रहा बाकी। बीमार है सारा देश चल रही है प्रतिकूल हवा। दिखता है नहीं कोई ऐसा जो इसकी करे दवा। हे दयानन्द इस दुःखी देश का तुम उद्धार करो। मँझधार में है बेड़ा बेटा तुम बेड़ा पार करो। इस अन्ध गुरु की यही है इच्छा इस पर ध्यान धरो। भारत के लिए तुम अपना सारा जीवन दान करो। संकट में है अपनी जन्मभूमि तुम जाओ करो रक्षा। जाओ बेटे भारत के भाग्य का तुम बदलो नक्क्षा। स्वामी जी गुरु की चरणधूल माथे पे लगाते हैं।। 13।।

गुरु की आज्ञा अनुसार इस तरह अपने ब्रह्मचारी। करने को देश उद्धार चल पड़े बनके क्रान्तिकारी। कर दिया शुरु स्वामी जी ने एक धुँआधार दौरा। हर नगर-गाँव के सभी कुम्भकर्णों को झँकझोरा। दिन-रात ऋषि ने घूम-घूम कर अपना वतन देखा। जब अपना वतन देखा तो हर तरफ घोर पतन देखा। मन्दिरों पे कब्जा कर लिया था मिट्टी के खिलौनों ने। बदनाम किया था भक्ति को बदनीयत बौनों ने। रमणियाँ उतारा करती थी आरती महन्तों की। वो दृष्य देखती रहती थी टोली श्रीमन्तों की। छिप-छिप कर लम्पट करते थे परदे में प्रेमलीला। सारे समाज के जीवन का ढाँचा था हुआ ढीला। यह देख ऋषि सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजाते हैं।। 14।।

क्रान्ति का करके ऐलान ऋषि मैदान में कूद पड़े। उनके तेवर को देख हो गए सबके कान खड़े। इक हाथ में था झंडा उनके इक हाथ में थी लाठी। वो चले बनाने हर हिन्दू को फिर से वेदपाठी। हरिद्वार में कुम्भ का मेला था ऐसा अवसर पाकर। पाखण्ड खण्डनी ध्वजा गाड़ दी ऋषि ने वहाँ जाकर। फिर लगे घुमाने संन्यासी जी खण्डन का खाण्डा। कितने ही गुप्त बातों का उन्होंने फोड़ दिया भाँडा। धज्जियाँ उड़ा दी स्वामी ने सब झूठे ग्रन्थों की। बखिया उधेड़ कर रख दी सारे मिथ्या पन्थों की। ऋषिवर ने तर्क तराजू पर सब धर्मग्रन्थ तोले। वेदों की तुलना में निकले वो सभी ग्रन्थ पोले। वेदों की महत्ता स्वामी जी सबको समझाते हैं।। 15।।

चलती थी हुकूमत हर तीरथ में लोभी पण्ड़ों की। स्वामी ने पोल खोली उनके सारे हथकण्ड़ों की। आए करने ऋषि का विरोध गुण्डे हट्टे-कट्टे। पर अपने वज्रपुरुष ने कर दिए उनके दाँत खट्टे। दुर्दशा देश की देख ऋषि को होती थी ग्लानी। पुरखों की इज्जत पर फेरा था लुच्चों ने पानी। बन गए थे देश के देवालय लालच की दुकानें। मन्दिरों में राम के बैठी थीं रावण की सन्तानें। स्वामी ने हर भ्रष्टाचारी का पर्दाफाश किया। दम्भियों पे करके प्रहार हरेक पाखण्ड का नाश किया। लाखों हिन्दू संगठित हुए वैदिक झंडे के तले। जलनेवाले कुछ द्वेषी इस घटना से बहुत जले। इस तरह देश में परिवर्तन स्वामी जी लाते हैं।। 16।।

कुछ काल बाद स्वामी ने काशी जाने की ठानी। उस कर्मकाण्ड की नगरी पर अपनी भृकुटि तानी। जब भरी सभा में स्वामी की आवाज बुलन्द हुई। तब दंग हो गए लोग बोलती सबकी बन्द हुई। वेदों में मूर्तिपूजा है कहाँ स्वामी ने सवाल किया। इस विकट प्रश्न ने सभी दिग्गजों को बेहाल किया। काशीवालों ने बहुत सिर फोड़ा की माथापच्ची। पर अन्त में निकली दयानन्द जी की ही बात सच्ची। मच गया तहलका अभिमानी धर्माधिकारियों में। भारी भगदड़ मच गई सभी पंडित-पुजारियों में। इतिहास बताता है उस दिन काशी की हार हुई। हर एक दिशा में ऋषिराजा की जय-जयकार हुई। अब हम कुछ और करिश्में स्वामी के बतलाते हैं।। 17।।

उन दिनों बोलती थी घर-घर में मर्दों की तूती। हर पुरुष समझता था औरत को पैरों की जूती। ऋषि ने जुल्मों से छुड़वाया अबला बेचारी को। जगदम्बा के सिंहासन पर बैठा दिया नारी को। बदकिस्मत बेवाओं के भाग भी उन्होंने चमकाए। उनके हित नाना नारी निकेतन आश्रम खुलवाए। स्वामी जी देख सके ना विधवाओं की करुण व्यथा। करवा दी शुरु तुरन्त उन्होंने पुनर्विवाह प्रथा। होता था धर्म परिवर्तन भारत में खुल्लम-खुल्ला। जनता को नित्य भरमाते थे पादरी और मुल्ला। स्वामी ने उन्हें जब कसकर मारा शुद्धि का चाँटा। सारे प्रपंचियों की दुनियाँ में छा गया सन्नाटा। फिर भक्तों के आग्रह से स्वामी मुम्बई जाते हैं।। 18।।

भारत के सब नगरों में नगर मुम्बई था भाग्यशाली। ऋषि जी ने पहले आर्य समाज की नींव यहीं डाली। फिर उसी वर्ष स्वामी से हमें सत्यार्थ प्रकाश मिला। मन पंछी को उड़ने के लिए नूतन आकाश मिला। सदियों से दूर खड़े थे जो अपने अछूत भाई। ऋषि ने उनके सिर पर इज्जत की पगड़ी बँधवाई। जो तंग आ चुके थे अपमानित जीवन जीने से। उन सब दलितों को लगा लिया स्वामी ने सीने से। मुम्बई के बाद इक रोज ऋषि पंजाब में जा निकले। उनके चरणों के पीछे-पीछे लाखों चरण चले। लाखों लोगों ने मान लिया स्वामी को अपना गुरु। सत्संग कथा प्रवचन कीर्तन घर-घर हो गए शुरु। स्वामी का जादू देख विरोधी भी चकराते हैं।। 19।।

पंजाब के बाद राजपूताना पहुँचे नरबंका। देखते-देखते बजा वहाँ भी वेदों का डंका। अगणित जिज्ञासु आने लगे स्वामी की सभाओं में। मच गई धूम वैदिक मन्त्रों की दसों दिशाओं में। सब भेद भाव की दीवारों को चकनाचूर किया। सदियों का कूड़ा-करकट स्वामी जी ने दूर किया। ऋषि ने उपदेश से लाखों की तकदीर बदल डाली। जो बिगड़ी थी वर्षों से वो तस्वीर बदल ड़ाली। फिर वीर भूमि मेवाड़ में पहुँचे अपने ऋषि ज्ञानी। खुद उदयपुर के राणा ने की उनकी अगुवानी। राणा ने उनको देनी चाही एकलिंग जी की गादी। पर वो महन्त की गादी ऋषि ने सविनय ठुकरा दी। इतने में जोधपुर का आमन्त्रण स्वामी पाते हैं।। 20।।

उन दिनों जोधपुर के शासन की बड़ी थी बदनामी। भक्तों ने रोका फिर भी बेधड़क पहुँच गए स्वामी। जसवतसिंह के उस राज में था दुष्टों का बोलबाला। राजा था विलासी इस कारण हर तरफ था घोटाला। एक नीच तवायफ बनी थी राजा के मन की रानी। थी बड़ी चुलबुली वो चुड़ैल करती थी मनमानी। स्वामी ने राजा को सुधारने किए अनेक जतन। पर बिलकुल नहीं बदल पाया राजा का चाल-चलन। कुलटा की पालकी को इक दिन राजा ने दिया कन्धा। स्वामी को भारी दुःख हुआ वो दृश्य देख गन्दा। स्वामी जी बोले हे राजन् तुम ये क्या करते हो। तुम शेर पुत्र होकर के इक कुतिया पर मरते हो। स्वामी जी घोर गर्जन से सारा महल गुँजाते हैं।। 21।।

राजा ने तुरत माफी माँगी होकर के शरमिंदा। पर आग-बबूला हो गई वेश्या सह न सकी निन्दा। षडयन्त्र रचा ऋषि के विरुद्ध कुलटा पिशाचिनी ने। जहरीला जाल बिछाया उस विकराल साँपिनी ने। वेश्या ने ऋषि के रसोइये पर दौलत बरसा दी। पाकर सम्पदा अपार वो पापी बन गया अपराधी। सेवक ने रात में दूध में गुप-चुप सखिया मिला दिया। फिर काँच का चूरा ड़ाल ऋषिराजा को पिला दिया। वो ले ऋषि ने पी लिया दूध वो मधुर स्वाद वाला। पर फौरन स्वामी भाँप गए कुछ दाल में है काला। अपने सेवक को तुरन्त ही बुलवाया स्वामी ने। खुद उसके मुख से सकल भेद खुलवाया स्वामी ने। पश्चातापी को महामना नेपाल भगाते हैं।। 22।।

आए डाक्टर आए हकीम और वैद्यराज आए। पर दवा किसी की नहीं लगी सब के सब घबराए। तब रुग्ण ऋषि को जोधपुर से ले जाया गया आबू। पर वहाँ भी उनके रोग पे कोई पा न सका काबू। आबू के बाद अजमेर उन्हें भक्तों ने पहुँचाया। कुछ ही दिन में ऋषि समझ गए अब अन्तकाल आया। वे बोले हे प्रभू तूने मेरे संग खूब खेल खेला। तेरी इच्छा से मैं समेटता हूँ जीवनलीला। बस एक यही बिनति है मेरी हे अन्तर्यामी। मेरे बच्चों को तू सँभालना जगपालक स्वामी। जब अन्त घड़ि आई तो ऋषि ने ओ3म् शब्द बोला। केवल ओम् शब्द बोला। फिर चुपके से धर दिया धरा पर नाशवान् चोला। इस तरह ऋषि तन का पिंजरा खाली कर जाते हैं।। 23।।

संसार के आर्यों सुनो हमारा गीत है इक गागर। इस गागर में हम कैसे भरें ऋषि महिमा का सागर। स्वामी जी क्या थे कैसे थे हम ये न बता सकते। उनकी गुण गरिमा अल्प समय में हम नहीं गा सकते। सच पूछो तो भगवान का इक वरदान थे स्वामी जी। हर दशकन्धर के लिए राम का बाण थे स्वामी जी। प्रतिभा के धनि एक जबरदस्त इन्सान थे स्वामी जी। हिन्दी हिन्दू और हिन्दुस्थान के प्राण थे स्वामी जी। क्या बर्मा क्या मॉरिशस क्या सुरिनाम क्या फीजी। इन सब देशों में विद्यमान् हैं आज भी स्वामी जी। केनिया गुआना त्रिनिदाद सिंगापुर युगंडा। उड़ रहा सब जगह बड़ी शान से आर्यों का झंड़ा। हर आर्य समाज में आज भी स्वामी जी मुस्काते हैं।। 24।।

ऋषि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित विवाह विधि वैदिक, युक्तिसंगत है

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ऋषि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित  विवाह विधि वैदिक, युक्तिसंगत है –

सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में स्वामी जी ने कहा –

“जब तक इसी प्रकार सब ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ ही के स्वयंवर विवाह करते थे तब तक इस देश की सदा उन्नति होती थी | जब से ब्रह्मचर्य से विद्या का न पढना, बाल्यावस्था में पराधीन, अर्थात माता-पिता के अधीन विवाह होने लगा; तब से क्रमश: आर्यावर्त देश की हानी होती चली आई है |इससे इस दृष्ट काम को छोड़ के सज्जन लोग पूर्वोक्त प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करे |

“ जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहे तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमाण आदि यथा योग्य होना चाइये | जब तक इनका मेल नहीं होता तब तक विवाह में कुछ भी सुख नहीं होता | न बाल्यावस्था में विवाह करने में सुख होता है |

“कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकांत में मेल ने होना चाइये, क्यों की युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकांत वास दूषण कारक है |

“परन्तु जब कन्या व वर के विवाह का समय हो, अर्थात जब एक वर्ष व छह महीने ब्रह्मचर्य आश्रम और विद्या पूरी होने में शेष रहे तब कन्या और कुमारो का प्रतिबिम्ब, अर्थात जिसको ‘फोटोग्राफ’ कहते है अथवा प्रतिकृति उतारके कन्याओ की अध्यापिकाओ के पास कुमारो की और कुमारों के अध्यापको के पास कन्याओ की प्रतिकृति भेज देवे |

“ जिस-जिस का रूप मिल जाए, उस-उसका इतिहास अर्थात जन्म से लेके उस दिन पर्यंत जन्म-चरित्र का जो पुस्तक हो, उसको अध्यापक लोग मंगवा के देखे | जब दोनों के गुण-कर्म-स्वाभाव सदृश हों तब- जिस-जिसके साथ जिसका विवाह होना योग्य समझे उस-उस पुरुष व कन्या का प्रतिबिम्ब और इतिहास कन्या और वर के हाथ में देवे और कहे कि इसमें जो तुम्हारा अभिप्राय हो सो हम को विदित कर देना |

“ जब उन दोनों का निश्चय परस्पर विवाह करने का हो जाए तब उन दोनों का समावर्तन एक ही समय में होवे | जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें तो वहा, नहीं तो कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है | जब वे समक्ष हों तब अध्यापकों व कन्या के माता-पिता आदि भद्र पुरषों के सामने उन दोनों की आपस में बात-चित, शास्त्रार्थ करना औरजो कुछ गुप्त व्यवहार पूछे सो भी सभा में लिखके एक दुसरे के हाथ में देकर प्रश्नोत्तर कर लेवे इत्यादि |

प्रश्न :- अब यहाँ विधर्मी शंका यह करते है “ स्वामी दयानन्दजी ने विवाह संस्कार में जो यह लिखा है कि विवाह स्वयंवर रीती से होना चाइये, कन्या और वर की इच्छा ही विवाह में प्रधान है | कन्या और वर सबके समक्ष वार्तालाप व शास्त्रार्थ करे इत्यादि |यह सब बातें वेद शास्त्र के विरुद्ध है | आर्य समाजियों का यह दावा है कि स्वामी दयानंद की शिक्षा वैदिक है, अत: वे इन सब बातों को सिद्ध करने के लिए वेद, शास्त्रों के प्रमाण देवे |

समाधान :- ऋषि दयानंद जी ने विवाह के सम्बन्ध में सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रंथो में लिखी है वे सब वेद, शास्त्रों और इतिहास के अनुकूल तथा युक्ति संगत है | इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रमाण नीचे दिए जाते है |

प्रमाण संख्या १

तमस्मेरा युवतयो युवानं ……………यन्त्याप: | ऋग्वेद २/३५/४

भावार्थ : जवान स्त्रिया उत्तम ब्रह्मचर्य से युक्त होकर जवान ब्रह्मचारी पुरषों को जैसे जल वा नदी स्वयं समुद्र को प्राप्त होती है वैसे स्वयमेव प्राप्त होती है |

प्रमाण संख्या २

कियती योषा मर्यतो ……………………………….वार्येण |

भद्रा वधुभर्वति ……………………………………..जने चित || ऋग्वेद १०/२७/१२

भावार्थ : १. प्रथम, स्त्री-पुरुष का परिमाण यानी लम्बाई, चौड़ाई, बल, दृढ़ता आदि गुणों को देखना चाइये | २. स्त्री, पुरुष ऐसे हो जो एक दुसरे के गुणों को देककर परस्पर प्रीटी व अनुराग करनेवाले हो | ३. वधू कल्याण करनेवाली हो, भद्र देखनेवाली, भद्रा चरण करनेवाली, सुन्दर दृढ हो | ४. विवाह सब जनों के समक्ष होना चाइये और कन्या स्वयमेव उस जन समूह में से गुण-कर्म-स्वभाव देखकर वर को पसंद कर लेवे |

प्रमाण संख्या ३

१.      अपश्यं त्वा मनसा चेकितानम……………………..तपसो विभुतम |

इह प्रजमिह रयिं…………………………..प्रजया पुत्रकाम ||

२.      अपश्यं त्वा  मनसा दिध्यानाम ………………….ऋतव्ये नाधमानाम |

उप मामुच्चा युवति………………………………..प्रजया पुत्रकामे || ऋग्वेद १०/१८४/१-२

भावार्थ : कन्या कहती है कि हे वर ! मैंने तुमको परीक्षा पूर्वक अच्छी प्रकार देख लिया है कि तुम मुझसे विवाह के योग्य हो और मैंने यह भी जान लिया है की तुमने तपश्चर्या से विद्या, ज्ञान को प्राप्त किया है तथा रूप, लावण्य, बल, पराक्रम को बढाया है | इस संसार में प्रजा व धन की इच्छा करते हुए, हे पुत्र की कामना करने वाले ! विवाह करके मेरे साथ गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करो |

इन उपयुक्त दो मंत्रो से ये बाते स्पष्ट होती है —

१.      कन्या-वर-एक दुसरे की सबके समक्ष परीक्षा करे | जब उन दोनों को निश्चय हो कि हम दोनों के गुण-कर्म-स्वभाव परस्पर मिलते है तब वे परस्पर मिलते है तब वे परस्पर एक-दूसरे को जतलाकर वार्तालाप करके विवाह करे |

२.      विवाह से प्रथम कन्या तथा वर तपश्चर्या पूर्वक विद्याध्यन करनेवाले तथा बल, पराक्रम, रूप लावण्य को बढ़ानेवाले हो |

३.      कन्या-वर अत्यंत जवान हों | इससे बाल्यावस्था के विवाह का सर्वथा निषेध हो जाता है और उन दोनों का परस्पर ज्ञान हो किदोनों पुत्र की कामना करनेवाले और संतान-विज्ञानं के पंडित है |

प्रमाण संख्या ४

वांछ में तन्वं पादौ ……………………………..वांछ सकथ्यौ |

अक्षौ वृषन्यन्त्या केशा:…………………………..कामेन शुश्यन्तु || अथर्व वेद ६/९/१

भावार्थ : वर कहता है कि तू मेरे शरीर, पैरो, और आँखों को पसंद कर | मै तुम्हारे रूप-लावण्यादी बातों को पसंद करता हु |

इस मंत्र में यह बात स्पष्ट है कि वर-कन्या के अंग-प्रत्यंग की भी परीक्षा करनी चाइये | जब दोनों के अंग-प्रत्यंग निर्दोष हो तब उनका परस्पर विवाह होना चाइये |

इस मंत्र अनुसार कन्या-वर का एक दुसरे को परस्पर देखना, एक-दुसरे के पास एक-दुसरे का फोटो भेजना, अध्यापक व अध्यापिकाओ द्वारा परीक्षा करना आदि सब बाते आ जाती है | इन मंत्रो पर मनु का ने निम्नलिखित श्लोक में कहा है –

“जिसके सरल-सुधे अंग हो, विरुद्ध न हो, जिसका नाम सुन्दर अर्थात यशोदा, सुखदा, आदि हो, हंस और हथिनी के तुल्य जिसकी चाल हो, सुक्ष्म लोम केश और दन्त युक्त हो, सब अंग कोमल हो. ऐसी स्त्री के साथ विवाह होना चाइये | मनुस्मृति ३/१०

प्रमाण संख्या ६

एतैरेव गुनैर्युक्त: ……………………वर: |

यत्नात परीक्षित: …………………….धीमान जनप्रिय: || याज्ञवल्क स्मृति १/५५

भावार्थ : इन गुणों से युक्त, सवर्ण, वेद के जाननेवाला, बुध्दिमान, सब जनों से प्यार करनेवाला, जिसको पुरुषत्व की यत्न से परीक्षा की है वह वर विवाह के योग्य है |

कहो, विधर्मियो ! तुम जो ऋषि दयानंद की विवाह परीक्षा पर आक्षेप करते हो | उपहास करते हो, क्या कोई वर-वधु परीक्षा विधि पर आचरण करने को तयार है ? क्या कोई इस परीक्षा के अनुसार ब्रह्मचारी रहने को तयार है ? यह परीक्षा वेदों और अन्य शास्त्रों में रहते हुए ऋषि दयानंद पर शंका करते हो | इस पर इन्हें लज्जित होना चाइये |

प्रमाण संख्या ७

कुलं च शीलं च वपुर्वयश्च विद्याम…………………….च सनाथतं च |

एतान गुनान सप्त ……………………………………….शेषमचिन्तनीयम || – प० सं० आ० का० ३/२/१९

भावार्थ – कुल, शील, शरीर अवस्था. आयु, विद्या,धन, सनाथता – इन सात गुणों की परीक्षा करके फिर कन्या देवे |

इस स्मृति-वचन में विवाह के लिए जो बातें ऋषि दयानंद जी महाराज ने बतलाई है प्राय: वे सब आ गई है | यदि इन बातों को देककर विवाह किया जाये तो संसार के बहोत से दुःख स्वयमेव नष्ट हो जाये |

उपयुक्त लेख में हमने वेद-शास्त्र, स्मृति आदि प्रमाण देकर यह सिद्ध कर दिया है की ऋषि दयानंद महाराज ने विवाह सम्बन्ध में जो बातें लिखी है वे सब वैदिक, युक्तिसंगत तथा संसार के कष्ट को मिटानेवाली है |

पाठ्य ग्रन्थ :- मीरपुरी सर्वस्व – पंडित बुद्धदेव मीरपुरी 

स्वामी दयानन्द एक महान व्यकितत्व…………..

 

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स्वामी दयानन्द एक महान व्यकितत्व………….. -शिवदेव आर्य

इतिहास साक्षी है कि जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से संवेदनशील व्यकितयों के जीवन की दिशा बदल जाती है। हम प्रतिदिन रोगी, वृध्द और मृत व्यकितयों को देखते हैं। हमारे ह्र्दय पर इसका कुछ ही प्रभाव होता है, परन्तु ऐसी घटनाओं को देखकर महात्मा बुध्द को वैराग्य हुआ। पेड़ों से फलों को धरती पर गिरते हुए किसने नहीं देखा, परन्तु न्यूटन ही ऐसा व्यकित था जिसने इसके पीछे छिपे कारण को समझा और ‘गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार किया और प्रतिदिन कितने शिव भक्तों ने शिव मनिदर में शिव की पिंडी पर मिष्ठान्न का भोग लगाते मूषकों को देखा होगा, परन्तु केवल )षिवर दयानन्द के ही मन में यह जिज्ञासाजागृत हुर्इ कि क्या यही वह सर्वशकितमान, सच्चे महादेव हैं। जो अपने भोजन की रक्षा भी नहीं कर सकते हैं। इस घटना से प्रेरणा लेकर किशेार मूलशंकर सच्चे शिव की खोज के लिए अपनी प्यारी माँ और पिता को छोड़कर घर से निकल पड़े। मूलशंकर सच्चे शिव की खोज में नर्मदा के घने वनों, योगियों-मुनियों के आश्रमों, पर्वत, निर्झर, गिरिकन्दराओं में भटकता रहा। अलखनन्दा के हिमखण्डों से क्षतविक्षत होकर वह मरणासन्न तक हो गया परन्तु उसने अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं छोड़ा। चौबीस वर्ष की आयु में पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर दयानन्द बन गए। अन्तत: इन्ही प्रेरणा से वे प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द के पास पहुँचे और तीन वर्ष तक श्री चरणों में ज्ञानागिन में तपकर गुरु की प्रेरणा से मानवमात्र के कल्याण एवं वेदों के उ(ार के लिए तथा अज्ञान-अन्धकार और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए कार्यक्षेत्र में उतर पड़े। उस समय भारत में मुगल साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया था। और अंग्रेजों का आधिपत्य सम्पूर्ण भारत पर हो चला था। स्वामी दयानन्द इस विदेशी प्रभुत्व से अत्यधिक क्षुब्ध थे। जिसकी अभिव्यकित सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में हुर्इ। उन्होंने लिखा कि देश के लोग निषिक्रयता और प्रमाद से ग्रस्त हैं। लोगों में परस्पर विरेाध व्याप्त है और विदेशियों ने हमारे देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है इसलिए देशवासियों को अनेक प्रकार के दु:ख भोगने पड़ रहे हैं। यह ऐसा समय था जब देश मे ंसर्वत्र अज्ञान का अन्èाकार व्याप्त था। जनमानस अन्धविश्वासों और कुरीतियों से ग्रस्त था। अंग्रेजी शासकों ने भारतीय सभ्यता और संस्Ïति को समाप्त करने के लिए मैकाले की शिक्षानीति को लागू कर भारतवासियों में हीन भावना का संचार कर दिया था। निराश देशवासी पशिचमी राष्ट्रों की भौतिक समृध्दि की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपने गौरवशाली, अतीत, धर्म, और जीवन के नैतिक मूल्यों से विमुख हो रहे थे। इसलिए उन्हें पाश्चात्य जीवन प्रणाली के अनुकरण में ही अपना हित मालूम होता था। ऐसी विकट परिसिथतियों में महर्षि ने आर्य समाज की स्थापना करके जर्जर निष्प्राण हिन्दू समाज में प्राण फूंकने का उसकी धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्Ïतिक चेतना को उदबु( करने का प्रयास किया। नारी जाति की दुर्दशा को देखकर उनमें शिक्षा का प्रसार करने तथा अछूतों को हिन्दू समाज की मुख्यधारा में लाने और इस्लाम एवं र्इसाइयत में हिन्दुओं के धर्मान्तरण को रोकने का महत्वपूर्ण कार्य किया। )षि के जीवन का मुख्य उददेश्य वेदों का उत्तर और उसका प्रचार-प्रसार करना था उनका कहना था कि वेद ज्ञान भारत तक ही सीमित न रहे अपितु सम्पूर्ण विश्व में उसका प्रचार हो। उनका कहना था कि वेदों का ज्ञान किसी एक धर्म, जाति, सम्प्रदाय या देश के लिए नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए है। इसीलिए उन्होंने ”Ïण्वन्तो विश्वमार्यम अर्थात सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने का सन्देश दिया है हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। आओं! हम सब मिलकर उनके द्वारा दर्शाये मार्ग का अनुगमन कर स्वामी जी की कमी को पूर्ण करने का प्रयास करें।

क्या कुरान के अल्लाह को किसी की मदद लेनी पड़ती है ?

Mohammed and Gabriel

क्या कुरान के अल्लाह को किसी की मदद लेनी पड़ती है ?

क्या कुरान के अल्लाह को किसी को मदत लेना पड़ता है।मित्र ईश्वर सर्वशक्तिमान है, इस लिए ईश्वर को कोई प्रकार सहायता कि प्रोयोजन नेही होता, ईश्वर  अपने समर्थ से अपनी सभी कार्य खुद ही कर लेता है। जैसा सृष्टी, प्रलय, और जीवात्मा  के कर्म फल प्रदान करने मे ईश्वर को किसी के सहायता कि कोई प्रयोजन नही होता है।परन्तु कुरान के अल्लाह किसी के सहायता बिना खुद अपनी कार्य करने में सक्षम नही है। इस लिए कुरान के अल्लाह को सर्वदा फरिश्तो के सहायता लेना पड़ा। अल्लाह के लिए सबी फ़रिश्ते किस प्रकार मदतगार थे, इसका प्रमाण कुरान में अनेक जागा में मिलते है। उसमे से एक प्रमाण आप लोगो के सामने पेश कर रहा हूँ। और जरुरत पड़ने से आगे और दे दूंगा।
मित्र मुसलमान मित्र जन का कहना है अल्लाह सब का मदतगार है, पर खुद अल्लाह किसी का मदत नही लेता है। मुसलमान के ऐसी बात के लिए आप लोग जब किसी मुसलमान मित्र से पूछ लेंगे, जब अल्लाह किसी के कोई मदत नही लेता तो कुरान को कैसे उतारा गया था, ओ ही कुरान जिसे आप लोग कलामुल्लाह मानते है। सच कहता हूँ मित्र आप लोगो के पूछ ने से ही मुसलमान मित्र जनो का बोलती बंद हो जायगा जी। अब देखते है कुरान आया तो आया कैसे।
अल्लाह ने जिब्राइल को कुरान सुनाया और जिब्राइल गारे-हिरा नाम का एक गुफा में आकर पहले हजरत मोहम्मद का सीना चाक किया, यानि मोहम्मद साहब का दिल को निकाला, फेर उसे आवे जमजम से धोया और बाद में उसे मोहम्मद साहब के शरीर में रख कर सिल दिया।जिब्राइल पहले कुरान के पांच आयते लेके आया था, जिसका प्रमाण मैंने फोटो में दे राखा है। जिसका अर्थ है।
1. पड़ो अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया।
2. जमे हुए खून के एक लोथरे से इंसान कि रचना की।
3. पड़ो, और तुम्हारा रब बड़ा उदार है।
4.जिसने कलम के द्वारा ज्ञान कि शिख्सा दी।
5.इन्सान को वह ज्ञान दिया जिसे वह ना जानता था।
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अब जिब्राइल के इस कारनामा से कुछ सवाल सामने आ गाया है।
1.जब जिब्राइल को मुहम्मद साहब को पड़ाने के लिए ये सब करना पड़ा था, क्या किसी को पड़ाने के लिए उसका सीना चीर के दिल को निकाल के, जमजम के पानी में धोके, फीर उसे शारीर में राख के सिल देने से ही उसे पड़ाना कहता है ?
2.जब अल्लाह ने जिब्राइल को बिना किसी चीर फार के पड़ा सकते है तो मुहम्मद साहब को पड़ाने में अल्लाह को क्या परेशानी हुआ था ?
3.जब मुहम्मद साहब को जिब्राइल ने चीर फाड करके पड़ा दिया, तो कुरान किसका कालाम हुआ, जिब्राइल का या अल्लाह का ?
4.किसी के दिल निकाल के फेर उसकी शरीर में दिल लागाने समय ओ आदमी बेहोश हो जाता है, जिब्राइल उस समय पड़ाया था या बाद में पड़ाया था ?
5.क्या एक गुफा के अन्दर इस तरह से सुपर सर्जरी किया जा सकता है।
6.जिब्राइल ने मुहम्मद साहब को पड़ाने के लिए जो सुपर सर्जरी किया था, उस सर्जरी में कौन कौन सा यंत्र का इस्तेमाल किया गया था?
7.जिब्राइल को ऐसी सुपर सर्जरी करना कौन सिखाया था, क्या अल्लाह ने जिब्राइल को सिखाया था ?
8.अल्लाह जिब्राइल जैसे और कुछ फ़रिश्ते को धरती पे भेज देता तो आज कम से कम मुसलमानो को किसी भी सर्जरी में लाखो रूपया गावाना नेही पड़ते। मित्र जनो मैं तो सिर्फ इस्लाम के थोड़ा सा सच्चाई आप के सामने रख रहा हूँ, इस्लाम में ऐसी अनेक सच्चाई भरी पड़ा है।
हायरे बुद्धि  से विचार करने वाले मानव और कब तक तुम लोग ऐसी मुर्ख बनके रहोगे ?
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