Category Archives: महर्षि दयानंद सरस्वती

अल्लाह ने ‘कुन’ कहा और …….- राजेन्द्र जिज्ञासु

एक करणीय कार्यःगुजरात यात्रा में हम लोगों ने महर्षि की गुजरात यात्रा तथा महर्षि के जीवन पर तो व्यायान दिये ही, इनके साथ सैद्धान्तिक व आध्यात्मिक व्यायान तथा प्रवचन भी देते रहे। एक नगर में महर्षि दयानन्द की वैचारिक क्रान्ति तथा विश्वव्यापी दिग्विजय पर बोलते हुए मैंने मत पन्थों के नये-नये ग्रन्थों के उद्धरण देकर ऋषि दयानन्द की दिग्विजय व अमिट छाप के प्रमाण दिये तो आदरणीय आचार्य नन्दकिशोर जी ने यात्रा की समाप्ति तक बार-बार यह अनुरोध किया कि अपनी इस नवीन खोज व चिन्तन पर कुछ लिख दें। अधिक नहीं तो 36-48 पृष्ठ की एक पुस्तक अतिशीघ्र लिखकर छपवा दें।

मैंने उनकी प्रेरणा को स्वीकार करते हुए इस करणीय कार्य को अतिशीघ्र करने को कहा। श्रीमान् आनन्द किशोर जी की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वह दिन-रात धर्म प्रचार व साहित्य के लिये सोचते रहते हैं।

मैंने उस व्यायान में कहा क्या? इस पर कुछ लिखना नई पीढ़ी व पुराने आर्यों सबके लिए लाभप्रद रहेगा। उ.प्र. के गोरखपुर जनपद से भी आर्य बन्धु श्री लल्लनसिंह का एक ऐसा ही पत्र मिला है। ऋषि जी ने सृष्टि नियमों को अनादि, अटल व नित्य माना है। महर्षि ने तीन पदार्थों को अनादि व नित्य माना है। धर्म को सार्वभौमिक माना है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के विपरीत कुछ भी ऋषि को मान्य नहीं है। यह है ऋषि की मूलभूत विचारधारा जिसका आज संसार में डंका बज रहा है। आर्यसमाज महर्षि दर्शन की दिग्विजय के प्रचार को पूरी शक्ति से, ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पा रहा। मैंने कहा, इस्लाम का दृष्टिकोण यह रहा कि अल्लाह ने ‘कुन’ कहा तो सृष्टि रची गई। ‘कुन’ कहा किस से? श्रोता जब कोई था ही नहीं तो यह आदेश जड़ को दिया गया या चेतन को? बिना उपादान कारण के सब सृष्टि जब रची गई तो फिर अल्लाह अनादि काल से पालक, मालिक, न्यायकारी, दाता व स्रष्टा कैसे माना जा सकता है? कुरान  में अल्लाह के इन नामों की व्याया तो कोई करके दिखावे?

आज उपादान कारण के बिन ‘कुन’ कहकर कोई सूई, मेज, चारपाई, चाय की प्याली तो बनाकर दिखा दे। चाँद-सूरज तो भगवान् ही बना सकता है। यह हमें मान्य है परन्तु जीव अपने वाला कोई कार्य तो करके दिखा दे।

इरान, जापान, मिश्र, पाकिस्तान व अमरीका, बंगला देश के सब वैज्ञानिक यह मानते हैं कि Matter can neither be created nor it can be destroyed. अर्थात् प्रकृति को न तो कोई उत्पन्न कर सकता है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है। बाइबिल व कुरान की किसी आयत से ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता। वहाँ तो ‘कुन’ मिलेगा अथवा। बाइबिल की पहली आयत ‘पोल’ की चर्चा करती है। बाइबिल के नये संस्करणों में VOID (पोल) का लोप हो जाना वैदिक धर्म की दिग्विजय माननी पड़ेगी।

ÒÒand the spirit of God was howering over the waters.ÓÓ  अर्थात् परमात्मा का आत्मा जलों पर मंडरा रहा था। हम बाइबिल के इस कथन पर दो प्रश्न पूछने की अनुमति माँगते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व जल कहाँ से आ गये? सृजन का कार्य तो अभी आरभ ही नहीं हुआ। जलों को किसने बना दिया? जल ईश्वर द्वारा बनाने की बाइबिल में कहीं चर्चा ही नहीं। ईश्वर के अतिरिक्त प्रकृति (जल) का होना बाइबिल की पहली आयत से ही सिद्ध हो गया। फिर यह भी मानना पड़ेगा कि बाइबिल का ईश्वर यहाँ शरीरधारी नहीं। वह निराकार है। आगे बाइबिल 3-8 में हम पढ़ते हैं ÒÒThen the man and his wife heard the sound of the Lord God as he was walking in the garden in the cool of the day.ÓÓ अर्थात् तब आदम व उसकी पत्नी ने परमात्मा की आवाज सुनी। वह (परमात्मा) दिन की ठण्डी में वाटिका में सैर कर रहा था।

यहाँ परमात्मा देहधारी के रूप में उद्यान में विचरण करते हुए उन दोनों की खोज करता है। आवाजें लगाता है कि तुम कहाँ हो? परमात्मा का शरीर कब बना? किस ने बनाया? किससे बनाया? मनुष्य तो भक्ति भाव से मक्का, मदीना, काशी व यरुशलम में ईश्वर को खोजते फिरते हैं। यहाँ ईश्वर अपनी बनाई जोड़ी को खोजने निकला है। उसकी सर्वज्ञता पर ही पानी फेर दिया गया है। ऐसे-ऐसे कई प्रश्न श्री हरिकिशन जी की पूना से छपी पुस्तक ‘बाइबिल-ईश्वरीय सन्देश।’ में पाठक पढ़ें तो। हमनेाी इसके प्राक्कथन में एक प्रश्न उठाया है। अब बाइबिल में ‘उत्पत्ति’ पुस्तक में दो बार ÒHuman BeingsÓ शब्दों  का प्रयोग किया गया है अर्थात् एक जोड़ा नहीं कई जोड़े सृष्टि के आदि में बिना माता-पिता के (अमैथुनी) उत्पन्न किये गये।

क्या यह सब कुछ महर्षि दयानन्द जी की दिग्विजय नहीं है? गत 50-60 वर्षों में आर्य लेखकों की पुस्तकों की सूचियाँ बनाकर प्रचारित करने को ही शोध समझ लिया गया। पं. लेखराम जी से लेकर उपाध्याय जी पर्यन्त सैद्धान्तिक दृष्टि से बाइबिल कुरान आदि पर समीक्षा व शोध करना छूट गया। फिर भी आप इसे पं. लेखराम जी, पं. चमूपति जी की परपरा के विद्वानों की तपस्या का चमत्कार मानेंगे कि बाइबिल के भाव तो बदले सो बदले, पाठ के पाठ बदल दिये गये हैं। ऋषि की इस दिग्विजय पर श्री नन्दकिशोर जी ‘कुरान सत्यार्थ प्रकाश के आलोक में’ जैसा एक ग्रन्थ मुझसे चाहते हैं। बड़ा ग्रन्थ न सही 48 पृष्ठ का ही हो जाये। उनका यह अनुरोध मुझे मान्य है।

स्वामी दयानन्द और हिन्दी’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारतवर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने पराधीन भारत में सबसे पहले राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए हिन्दी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकर मन, वचन व कर्म से इसका प्रचार-प्रसार किया। उनके प्रयासों का ही परिणाम था कि हिन्दी शीघ्र लोकप्रिय हो गई। यह ज्ञातव्य है कि हिन्दी को स्वामी दयानन्द जी ने आर्यभाषा का नाम दिया था। स्वतन्त्र भारत में 14 सितम्बर 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया जाना भी स्वामी दयानन्द के इससे 77 वर्ष पूर्व आरम्भ किए गये कार्यों का ही सुपरिणाम था। प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर हमारे राष्ट्रीय जीवन के अनेक पहलुओं पर स्वामी दयानन्द का अक्षुण प्रभाव स्वीकार करते हैं और हिन्दी पर साम्राज्यवादी होने के आरोपों को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि यदि साम्राज्यवाद शब्द का हिन्दी वालों पर कुछ प्रभाव है भी, तो उसका सारा दोष अहिन्दी भाषियों का है। इन अहिन्दीभाषियों का अग्रणीय वह स्वामी दयानन्द को मानते हैं और लिखते हैं कि इसके लिए उन्हें प्रेरित भी किसी हिन्दी भाषी ने नहीं अपितु एक बंगाली सज्जन श्री केशवचन्द्र सेन ने किया था।

 

स्वामी दयानन्द का जन्म 12 फरवरी, 1825 में गुजरात राज्य के राजकोट जनपद में होने के कारण गुजराती उनकी स्वाभाविक रूप से मातृभाषा थी। उनका अध्ययन-अध्यापन संस्कृत में हुआ था, इसी कारण वह संस्कृत में ही वार्तालाप, व्याख्यान, लेखन, शास्त्रार्थ तथा शंका-समाधान आदि किया करते थे। 16 दिसम्बर, 1872 को स्वामी जी वैदिक मान्यताओं के प्रचारार्थ भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंचे थे और वहां उन्होंने अनेक सभाओं में व्याख्यान दिये। ऐसी ही एक सभा में स्वामी दयानन्द के संस्कृत भाषण का बंगला में अनुवाद गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता के उपाचार्य पं. महेश चन्द्र न्यायरत्न कर रहे थे। अनुवाद ने अनेक स्थानों पर स्वामी जी के व्याख्यान को अनुदित न कर उसमें अपनी विपरीत मान्यताओं को श्री न्यायरत्न ने प्रकट किया जिससे संस्कृत कालेज के श्रोताओं ने उनका विरोघ किया।  विरोध के कारण श्री न्यायरत्न बीच में ही सभा छोड़कर चले गये थे। बाद में स्वामी दयानन्द जी को श्री केशवचन्द्र सेन ने सुझाव दिया कि वह संस्कृत के स्थान पर हिन्दी को अपनायें। स्वामी दयानन्द जी ने तत्काल यह सुझाव स्वीकार कर लिया। यह दिन हिन्दी के इतिहास की एक प्रमुख घटना थी कि जब एक 47 वर्षीय गुजराती मातृभाषा के संस्कृत के विश्वविख्यात वैदिक विद्वान स्वामी दयानन्द ने तत्काल हिन्दी को अपना लिया। ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में अनुपलब्ध है। इसके पश्चात स्वामी दयानन्द जी ने जो प्रवचन किए उनमें वह हिन्दी का प्रयोग करने लगे।

 

सत्यार्थ प्रकाश स्वामी जी की विश्व प्रसिद्ध रचना और पूर्ण वैज्ञानिक अर्थात् तर्क, युक्ति व प्रमाणयुक्त धर्म ग्रन्थ है जो देश-विदेश में विगत 141 वर्षों से उत्सुकता एवं श्रद्धा से पढ़ा जाता है। फरवरी, 1872 में हिन्दी को अपने व्याख्यानों व ग्रन्थों के लेखन की भाषा के रूप में स्वीकार करने के लगभग 2 वर्ष पश्चात ही स्वामी जी ने 2 जून 1874 को उदयपुर में इस सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के प्रथम आदिम सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन आरम्भ किया और लगभग 3 महीनों में पूरा कर डाला। श्री विष्णु प्रभाकर इतने अल्प समय में स्वामी जी द्वारा हिन्दी में सत्यार्थ प्रकाश जैसा उच्च कोटि का ग्रन्थ लिखने पर इसे आश्चर्यजनक घटना मानते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के पश्चात स्वामी जी ने अनेक ग्रन्थ लिखे जो सभी हिन्दी में हैं। उनके ग्रन्थ उनके जीवन काल में ही देश की सीमा पार कर विदेशों में भी लोकप्रिय हुए। विश्व विख्यात विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द की पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि वैदिक साहित्य का आरम्भ ऋग्वेद से एवं अन्त स्वामी दयानन्द जी की ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पर होता है। प्रो. मैक्समूलर की स्वामी दयान्द को यह प्रशस्ति उनके वेद विषयक ज्ञान, उनके कार्यों, वेदों के प्रचार-प्रसार के प्रति योगदान एवं उनके गौरव के अनुरूप है। स्वामी दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य ग्रन्थों को इस बात का गौरव प्राप्त है कि धर्म, दर्शन एवं संस्कृति जैसे क्लिष्ट व विशिष्ट विषय को सर्वप्रथम उनके द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत कर उसे सर्व जन सुलभ किया गया जबकि इससे पूर्व इस पर संस्कृत निष्णात ब्राह्मण वर्ग का ही एकाधिकार था जिसमें इन्हें संकीर्ण एवं संकुचित कर दिया था और वेदों का लाभ जनसाधारण को नहीं मिल सका जिसके वह अधिकारी थे।

 

थियोसोफिकल सोसायटी की नेत्री मैडम बैलेवेटेस्की ने स्वामी दयानन्द से उनके हिन्दी में लिखित ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद की अनुमति मांगी तो स्वामी दयानन्द जी ने उन्हें 31 जुलाई, 1879 को विस्तृत पत्र लिख कर अनुवाद से हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में आने वाली बाधाओं से परिचित कराया। स्वामी जी ने लिखा कि अंग्रेजी अनुवाद सुलभ होने पर देश-विदेश में जो लोग उनके ग्रन्थों को समझने के लिए संस्कृत व हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं, वह समाप्त हो जायेगा। हिन्दी के इतिहास में शायद कोई विरला ही व्यक्ति होगा जिसने अपनी हिन्दी पुस्तकों का अनुवाद इसलिए नहीं होने दिया जिससे अनुदित पुस्तक के पाठक हिन्दी सीखने से विरत होकर हिन्दी प्रसार में बाधक बनेंगे।

 

हरिद्वार में एक बार व्याख्यान देते समय पंजाब के एक श्रद्धालु भक्त द्वारा स्वामी जी से उनकी पुस्तकों का उर्दू अनुवाद कराने की प्रार्थना करने पर उन्होंने आवेशपूर्ण शब्दों में कहा था कि अनुवाद तो विदेशियों के लिए हुआ करता है। देवनागरी के अक्षर सरल होने से थोड़े ही दिनों में सीखे जा सकते हैं। हिन्दी भाषा भी सरल होने से सीखी जा सकती है। हिन्दी न जानने वाले एवं इसे सीखने का प्रयत्न न करने वालों से उन्होंने पूछा कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर यहां की भाषा हिन्दी को सीखने में परिश्रम नहीं करता उससे और क्या आशा की जा सकती है? श्रोताओं को सम्बोधित कर उन्होंने कहा, ‘‘आप तो मुझे अनुवाद की सम्मति देते हैं परन्तु दयानन्द के नेत्र वह दिन देखना चाहते हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक देवनागरी अक्षरों का प्रचार होगा। इस स्वर्णिम स्वप्न के द्रष्टा स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में एक स्थान पर लिखा कि आर्यावर्त्त (भारत वर्ष का प्राचीन नाम) भर में भाषा का एक्य सम्पादन करने के लिए ही उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों को आर्य भाषा (हिन्दी) में लिखा एवं प्रकाशित किया है। अनुवाद के सम्बन्ध में अपने हृदय में हिन्दी के प्रति सम्पूर्ण प्रेम को प्रकट करते हुए वह कहते हैं, ‘‘जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी, वह इस आर्यभाषा को सीखना अपना कर्तव्य समझेंगे। यही नहीं आर्य समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए उन्होंने हिन्दी सीखना अनिवार्य किया था। भारत वर्ष की तत्कालीन अन्य संस्थाओं में हम ऐसी कोई संस्था नहीं पाते जहां एकमात्र हिन्दी के प्रयोग की बाध्यता हो।

 

सन् 1882 में ब्रिटिश सरकार ने डा. हण्टर की अध्यक्षता में एक कमीशन की स्थापना कर उससे राजकार्य के लिए उपयुक्त भाषा की सिफारिश करने को कहा। यह आयोग हण्टर कमीशन के नाम से जाना गया। यद्यपि उन दिनों सरकारी कामकाज में उर्दू-फारसी एवं अंग्रेजी का प्रयोग होता था परन्तु स्वामी दयानन्द के सन् 1872 से 1882 तक व्याख्यानों, ग्रन्थों, शास्त्रार्थों तथा आर्य समाजों द्वारा वेद प्रचार एवं उसके अनुयायियों की हिन्दी निष्ठा से हिन्दी भी सर्वत्र लोकप्रिय हो गई थी। इस हण्टर कमीशन के माध्यम से हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिलाने के लिए स्वामी जी ने देश की सभी आर्य समाजों को पत्र लिखकर बड़ी संख्या में हस्ताक्षरों से युक्त ज्ञापन इण्टर कमीशन को भेजने की प्रेरणा की और जहां से ज्ञापन नहीं भेजे गये उन्हें स्मरण पत्र भेज कर सावधान और पुनः प्रेरित किया। आर्य समाज फर्रूखाबाद के स्तम्भ बाबू दुर्गादास को भेजे पत्र में स्वामी जी ने लिखा, ‘‘यह काम एक के करने का नहीं है और अवसर चूके यह अवसर आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ (अर्थात् हिन्दी राजभाषा बना दी गई) तो आशा है, मुख्य सुधार की नींव पड़ जावेगी। स्वामी जी की प्रेरणा के परिणामस्वरुप देश के कोने-कोने से आयोग को बड़ी संख्या में लोगों ने हस्ताक्षर कराकर ज्ञापन भेजे। कानपुर से हण्टर कमीशन को दो सौ मैमोरियल भेज गए जिन पर दो लाख लोगों ने हिन्दी को राजभाषा बनाने के पक्ष में हस्ताक्षर किए थे। हिन्दी को गौरव प्रदान करने के लिए स्वामी दयानन्द द्वारा किया गया यह कार्य भी इतिहास की अन्यतम घटना है। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से जिन प्रमुख लोगों ने हिन्दी सीखी उनमें जहां अनेक रियासतों के राज परिवारों के सदस्य हैं वहीं कर्नल एच. ओ. अल्काट आदि विदेशी महानुभाव भी हैं जो इंग्लैण्ड में स्वामी जी की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने भारत आये थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शाहपुरा, उदयपुर, जोधपुर आदि अनेक स्वतन्त्र रियासतों के महाराजा स्वामी दयानन्द के अनुयायी थे और स्वामी जी की प्रेरणा पर उन्होंने अपनी रियासतों में हिन्दी को राज भाषा का दर्जा दिया था।

 

स्वामी दयानन्द संस्कृत व हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के जानने व पढ़ने के पक्षधर भी थे, विरोधी किसी भाषा के नहीं थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि जब पुत्र-पुत्रियों की आयु पांच वर्ष हो जाये तो उन्हें देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावें, अन्यदेशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। एक अन्य प्रकरण में आदिम सत्यार्थ प्रकाश में मूर्तिपूजा के इतिहास से परिचय कराने के साथ इस मूर्तिपूजा से आयी गुलामी के प्रसंग में अन्यदेशीय भाषाओं के अध्ययन के समर्थन में उन्होंने विस्तार से लिखा है। यह पूरा प्रसंग इसकी महत्ता के कारण प्रस्तुत है। वह लिखते है कि वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। हस्तिना ताड्यमानोऽपि गच्छेज्जैनमन्दिरम्।।1।। इत्यादि श्लोक (हमारे मूर्तिपूजक बन्धुओं ने) बनाए हैं कि मुसलमानों की भाषा बोलनी और सुननी भी नहीं चाहिए और यदि पागल हाथी मूर्तिपूजक सनातनी के पीछे मारने को दौड़े, तो यदि वह किसी जैन मन्दिर में जाने से बच सकता हो, तो भी जैन के मन्दिर में न जायें किन्तु हाथी के सन्मुख मर जाना उससे (अर्थात् जैन मन्दिर में जाने से) अच्छा है, ऐसे निन्दा के श्लोक बनाए हैं। सो पुजारी, पण्डित और सम्प्रदायी लोगों ने चाहा कि इनके खण्डन के विना हमारी आजिविका न बनेगी। यह केवल उनका मिथ्याचार है। मुसलमानों की भाषा पढ़ने में अथवा कोई देश की भाषा पढ़ने में कुछ दोष नहीं होता, किन्तु कुछ गुण ही होता है। अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्मः। यह व्याकरण महाभाष्य (आन्हिक 1) का वचन है। इसका यह अभिप्राय है कि अपशब्द ज्ञान अवश्य करना चाहिए, अर्थात् सब देश देशान्तर की भाषा को पढ़ना चाहिए, क्योंकि उनके पढ़ने से बहुत व्यवहारों का उपकार होता है और संस्कृत शब्द के ज्ञान का भी उनको यथावत् बोध होता है। जितनी देशों की भाषायें जानें, उतना ही पुरुष को अधिक ज्ञान होता है, क्योंकि संस्कृत के शब्द बिगड़ के सब देश भाषायें होती वा बनती हैं, इससे इनके ज्ञानों से परस्पर संस्कृत और भाषा के ज्ञान में उपकार ही होता है। इसी हेतु महाभाष्य में लिखा कि अपशब्द-ज्ञानपूर्वक शब्दज्ञान में धर्म होता है अन्यथा नहीं। क्योंकि जिस पदार्थ का संस्कृत शब्द जानेगा और उसके भाषा शब्द को न जानेगा तो उसको यथावत् पदार्थ का बोध और व्यवहार भी नहीं कर सकेगा। तथा महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर और विदुर आदि अरबी आदि देश भाषा को जानते थे। इस लिए जब युधिष्ठिर आदि लाक्षा गृह की ओर चले, तब विदुर जी ने युधिष्ठिर जी को अरबी भाषा में समझाया और युधिष्ठिर जी ने अरबी भाषा से प्रत्युत्तर दिया, यथावत् उसको समझ लिया। तथा राजसूय और अश्वमेध यज्ञ में देश-देशान्तर तथा द्वीप-द्वीपान्तर के राजा और प्रजास्थ पुरुष आए थे। उनका परस्पर अनेक देश भाषाओं में व्यवहार होता था तथा द्वीप-द्वीपान्तर में यहां के प्रजाजन जाते थे और वहां के इस देश में आते थे फिर जो देश-देशान्तर की भाषा न जानते तो उनका व्यवहार सिद्ध कैसे होता? इससे क्या आया कि देश-देशान्तर की भाषा के पढ़ने और जानने में कुछ दोष नहीं, किन्तु बड़ा उपकार ही होता है। विश्व की सभी भाषाओं के अध्ययन के पक्षधर स्वामी दयानन्द देश की सभी प्रादेशिक भाषाओं को हिन्दी व संस्कृत की भांति देवनागरी लिपि में लिखे जाने के समर्थक थे जो राष्ट्रीय एकता की पूरक होती। उन्होंने एक प्रसंग में यह भी कहा था कि दयानन्द की आंखे वह दिन देखना चाहती हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश में चहुंओर देवनागरी अक्षरों का प्रचार प्रयोग हो, इसका उल्लेख पूर्व भी कर चुके हैं। अपने जीवन काल में स्वामी ने हिन्दी पत्रकारिता को भी नई दिशा दी। आर्य दर्पण (शाहजहांपुर: 1878), आर्य समाचार (मेरठ: 1878), भारत सुदशा प्रवर्तक (फर्रूखाबाद: 1879), देश हितैषी (अजमेर: 1882) आदि अनेक हिन्दी पत्र आपकी प्रेरणा से प्रकाशित हुए एवं पत्रों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई।

 

स्वामी दयानन्द ने हिन्दी में जो पत्रव्यवहार किया वह भी संख्या की दृष्टि से किसी एक धार्मिक विद्वान व नेता द्वारा किए गए पत्रव्यवहार में आज भी सर्वाधिक है। स्वामी जी के पत्र व्यवहार की खोज, उनकी उपलब्धि एवं सम्पादन कार्य में रक्तसाक्षी पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, रिसर्च स्कालर पं. भगवद्दत्त, पं. युधिष्ठिर मीमांसक एवं श्री मामचन्द जी का विशेष योगदान रहा। शायद ही स्वामी दयानन्द से पूर्व किसी धार्मिक नेता के पत्रों की ऐसी खोज कर उन्हें क्रमवार सम्पादित कर पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया हो और जीवन चरित्र आदि के सम्पादन में इन पत्रों से सहायता ली गई हो। स्वामी जी का समस्त पत्रव्यवहार चार खण्डों में पं. युधिष्ठिर मीमांसक के सम्पादकत्व में प्रकाशित है जो वैदिक साहित्य के प्रमुख प्रकाशक मैसर्स श्रीरामलाल कपूर ट्रस्ट, रेवली (हरयाण) से उपलब्ध है। इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसका एक अद्यतन संशोधित संस्करण परोपकारिणी सभा, अजमेर द्वारा शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है जिसका सम्पादन आर्यजगत के विख्यात विद्वान डा. वेदपाल जी ने किया है और इसके शुद्ध व निर्दोष रूप में प्रकाशित किये जाने में आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी, अबोहर की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह भी ज्ञातव्य है कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने सर्वप्रथम अपनी आत्म-कथा लिखी। इस आत्म-कथा के हिन्दी में होने के कारण हिन्दी को ही इस बात का गौरव है कि आत्म-कथा साहित्य का शुभारम्भ हिन्दी व स्वामी दयानन्द से हुआ। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से वेदों के द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति हुई थी। स्वामी दयानन्द के समय तक वेदों का भाष्य-व्याख्यायें-प्रवचन-लेखन-शास्त्रार्थ आदि संस्कृत में ही होता आया था। स्वामी जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने वेदों का भाष्य जन-सामान्य की भाषा संस्कृत सहित हिन्दी में करके सृष्टि के आरम्भ से प्रवाहित धारा को उलट दिया। यह घटना जहां वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा से जुड़ी है, वहीं भारत की एकता व अखण्डता से भी जुड़ी है। न केवल वेदों का ही उन्होंने हिन्दी में भाष्य किया अपितु मनुस्मृति एवं अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों का अपनी पुस्तकों में उल्लेख करते समय उद्धरणों के हिन्दी में अर्थ भी किए हैं। वेदों का हिन्दी में भाष्य करके उन्होंने पौराणिक हिंन्दू समाज से ब्राह्मणों के शास्त्राध्ययन पर एकाधिकार को भी समाप्त कर जन-जन को इसका अधिकारी बनाया। यह कोई छोटी बात नहीं अपितु बहुत बड़ी बात है जिसका मूल्याकंन नहीं किया जा सकता। महर्षि दयानन्द के प्रयासों से ही आज वेद एवं समस्त शास्त्रों का अध्ययन हिन्दू व इतर समाज की किसी भी जन्मना जाति, मत व सम्प्रदाय का व्यक्ति कर सकता है। आर्यसमाज ने उन सबके लिए वेदाध्ययन व अपने गुरुकुलों के दरवाजे खोले हुए हैं। महर्षि दयानन्द द्वारा हिन्दी को लोकप्रिय बनाकर उसे राष्ट्र भाषा के गौरवपूर्ण स्थान तक पहुंचाने में उनके साथ ही उनके द्वारा स्थापित आर्य समाजों एवं उनकी प्रेरणा से उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित बड़ी संख्या में गुरूकुलों, डी.ए.वी. कालेजों व अनेक आर्य संस्थाओं आदि का भी योगदान है। एक शताब्दी से अधिक समय पूर्व गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में देश में सर्वप्रथम विज्ञान, गणित सहित सभी विषयों की पुस्तकें हिन्दी माध्यम से तैयार कर उनका सफल अध्ययन-अध्यापन किया कराया गया। इस्लाम की धर्म-पुस्तक कुरआन को हिन्दी में सबसे पहले अनुदित कराने का श्रेय भी स्वामी दयानन्द जी को है। यह अनुदित ग्रन्थ उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकरिणी सभा, अजमेर के पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित है।

 

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि जो व्यक्ति जिस देश भाषा को पढ़ता है उसको उसी भाषा व उसके साहित्य का संस्कार होता है। अंग्रेजी व अन्यदेशीय भाषायें पढ़ा व्यक्ति मानवीय मूल्यों पर आधारित भारतीय संस्कृति से सर्वथा दूर पाश्चात्य एवं वाममार्गी आदि भिन्न भिन्न जीवन शैलियों के अनुसार जीवन यापन करता है। यह जीवन पद्धतियां उच्च मर्यादाओं की दृष्टि से भारतीय संस्कृति से निम्नतर हैं। यदि वह संस्कृत व हिन्दी दोनों को पढ़ते और विवेक से निश्चय करते तो अवश्य ही वैदिक मर्यादाओं का पालन करते। कुछ ऐसी जीवन शैलियां है जिनमें पशुओं पर दया के स्थान पर उनको भोजन में सम्मलित किया गया है, जो सर्वसम्मत अंहिसा का नहीं अपितु हिंसा का उदाहरण है। जीवन में हिंसा का किसी भी रूप में प्रयोग अपसंस्कृति है और अंहिसा ही संस्कृति है। अतः स्वामी जी का यह निष्कर्ष भी उचित है कि हिन्दी व संस्कृत को प्रवृत्त कर ही प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, इतिहास व मानवीय मूल्यों की रक्षा की जा सकती है।

 

एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विष देकर दीपावली 1883 के दिन स्वामी दयानन्द की जीवन लीला समाप्त कर दी गई। यदि स्वामी जी कुछ वर्ष और जीवित रहे होते तो हिन्दी को और अधिक समृद्ध करते और इसका व्यापक प्रचार करते तथा तीव्र वेद प्रचार आदि कार्यों से देश की अधिक उन्नति व सुख-समृद्धि होती। इसी के साथ इस लेख को निम्न पंक्तियों के साथ विराम देते हैं।

 

कलम आज तू स्वामी दयानन्द की जय बोल,

                                    हिन्दी प्रेमी रत्न वह कैसे थे अनमोल।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘ईश्वर, वेद, राजर्षि मनु व महर्षि दयानन्द सम्मत शासन प्रणाली’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने सप्रमाण घोषणा की थी कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है एवं यही धर्म व सभी सत्य विद्याओं के आदि ग्रन्थ होने से सर्वप्राचीन एवं सर्वमान्य हैं। यदि ऐसा है तो फिर वेद में देश की राज्य व शासन व्यवस्था कैसी हो, इस पर भी विचार मिलने ही चाहियें। महर्षि दयानन्द की मान्यता सर्वथा सत्य है और वेद एवं इसके अनुपूरक वैदिक साहित्य में राजकीय शासन व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। महर्षि दयानन्द रचित  वैदिक विचारधारा के सर्वोत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के छठें समुल्लास से हम वेद एवं वेदमूलक मनुस्मृति के शासन व्यवस्था सम्बन्धी विचार व मान्यतायें प्रस्तुत कर रहे हैं। यह मान्यतायें ऐसी हैं कि इसमें वर्तमान व्यवस्था के सभी गुण विद्यमान हैं। इसके साथ ही बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनको अपनाने व उनका पालन करने से वर्तमान व्यवस्था की अनेक खामियां वा कमियां दूर की जा सकती हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि वेद एवं मनुस्मृति के आधार पर ही सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख वर्षों तक आर्यावर्त्त वा भारत ही नहीं अपितु संसार के सभी देशों का राज्य संचालन हुआ है।

 

राजर्षि मनु जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चारों आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के व्यवहार का युक्तिसंगत कथन किया है। इसके पश्चात् उन्होंने राजधर्मों वा राजनियमों का विधान किया है। राजा को कैसा होना चाहिये, कैसा राजा होना सम्भव है तथा किस प्रकार से राजा को परमसिद्धि प्राप्त हो सकती है, उसका वर्णन भी किया है। महर्षि मनु लिखते हैं कि जैसा परम विद्वान् ब्राह्मण होता है वैसा ही सुशिक्षित विद्वान क्षत्रिय को होना योग्य है कि जिससे कि वह सब राज्य वा देश की रक्षा यथावत् करें। ऋग्वेद के मण्डल 3 सूक्त 38 मन्त्र 6 में कहा गया है कि त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदांसि।। ईश्वर सृष्टि के आरम्भ में अग्नि नाम के ऋषि को इस मन्त्र द्वारा यह उपदेश करते हैं कि राजा और प्रजा के पुरुष (देश की समस्त जनता) मिल कर सुख प्राप्ति और विज्ञान वृद्धिकारक राजाप्रजा के सम्बन्धरूप व्यवहार के लिए तीन सभा प्रथम विद्यार्यसभा, द्वितीय धर्मार्यसभा तथा तृतीय राजार्यसभा नियत वा गठित करें। राजा, प्रजा व तीनों सभायें समग्र प्रजा वा मनुष्यादि प्राणियों को बहुत प्रकार की विद्या, स्वातन्त्र्य, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।  अर्थववेद काण्ड 15 के मन्त्र तं सभा समितिश्च सेना च। और अथर्ववेद के ही काण्ड 16 के मन्त्र सभ्य सभां मे पाहि ये सभ्याः सभासदः। में कहा है कि इस प्रकार से राजा व तीन सभाओं द्वारा निर्धारित राजधर्म का पालन तीनों सभायें सेना के साथ मिलकर करें व संग्राम आदि की व्यवस्था करें। राजा तीनों सभाओं के सभासदों को आज्ञा करे कि हे सभा के योग्य मुख्य सभासदों ! तुम मेरी सभा व सभाओं की धर्मयुक्त व्यवस्था का पालन करो। यहां वेद कहते हैं कि तीनों सभाओं के सभासदों को सभेश राजा की धर्मयुक्त आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना चाहिये।

 

वेद मन्त्रों की इन शिक्षाओं पर टिप्पणी कर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि इसका अभिप्राय यह है कि एक व्यक्ति वा राजा को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देना चाहिए किन्तु राजा जो सभापति, तदधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन और प्रजा राजसभा के आधीन रहें। यदि ऐसा न करोगे तो राष्ट्रमेव विश्या हन्ति तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः।। विशमेव राष्ट्रायाद्यां करोति तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति पुष्टं पशुं मन्यत इति।। (शतपथ ब्राह्मण काण्ड 13/2/33) यदि प्रजा से स्वतन्त्र व स्वाधीन राजवर्ग रहे तो वह राज्य में प्रवेश करके प्रजा का नाश किया करे और अकेला राजा स्वाधीन वा उन्मत्त होके प्रजा का नाशक होता है अर्थात् वह राजा प्रजा को खाये जाता है। इसलिये किसी एक को राज्य में स्वाधीन न करना चाहिये। जैसे मांसाहारी सिंह हृष्ट पुष्ट पशु को मार कर खा लेते हैं, वैसे स्वतन्त्र राजा प्रजा का नाश करता है अर्थात् किसी को अपने से अधिक न होने देता, श्रीमानों व धनिकों को लूट खूंट अन्याय से दण्ड देके अपना प्रयोजन पूरा करेगा।

 

अथर्ववेद के मन्त्र 6/10/98/1 के अनुसार राजा को मनुष्य समुदाय में परम ऐश्वर्य का सृजनकर्त्ता व शत्रुओं को जीतने वाला होना चाहिये। वह शत्रुओं से पराजित कभी नहीं होना चाहिये। इसके साथ ही राजा ऐसे व्यक्ति को बनाना चाहिये जो पड़ोसी व विश्व के राजाओं से अधिक योग्य वा सर्वोपरि विराजमान व प्रकाशमान होने के साथ सभापति होने के अत्यन्त योग्य हो तथा वह प्रशंसनीय गुण, कर्म, स्वभावयुक्त, सत्करणीय, समीप जाने और शरण लेने योग्य सब का माननीय होवे। इससे यह आभास मिलता है कि राजा में एक सैनिक व सेनापति के भी उच्च गुण होने चाहिये। यजुर्वेद के मन्त्र 9/40 में विद्वान राज-प्रजाजनों को सम्मति कर ऐसे व्यक्ति को राजा बनाने को कहा गया है कि जो बड़े चक्रवर्ति राज्य को स्थापित करने में योग्य हो, बड़े-बड़े विद्वानों को राज्य पालन व संचालन में नियुक्त करने योग्य हो तथा राज्य को परम ऐश्वर्ययुक्त, सम्पन्न व समृद्ध कर सकता हो। वह सर्वत्र पक्षपातरहित, पूर्ण विद्या विनययुक्त तथा सब प्रजाजनों का मित्रवत् होकर सब भूगोल को शत्रु रहित करे। ऋग्वेद के मन्त्र 1/39/2 में ईश्वर ने उपदेश किया है कि हे राजपुरुषों ! तुम्हारे आग्नेयादि अस्त्र, तोप, बन्दूक, धनुष बाण, तलवार आदि वर्तमान के नामान्तर आणविक हथियार, मिसाइल व अन्य घातक सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र शत्रुओं की पराजय करने और उन्हें युद्ध से रोकने के लिए प्रशंसित और दृढ़ हों और तुम्हारी सेना प्रशंसनीय होवे कि जिस से तुम सदा विजयी हों। ईश्वर ने यह भी शिक्षा भी की है कि जो निन्दित अन्यायरुप काम करते हैं उस के लिए पूर्व चीजें अर्थात् अस्त्र-शस्त्र न हों। इस पर महर्षि दयानन्द ने यह टिप्पणी की है कि जब तक मनुष्य धार्मिक (सत्य व न्यायपूर्ण आचरण करने वाले) रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। यहां धार्मिक होने का अर्थ हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि मत को माननेवाला न होकर सच्चे मानवीय गुण सत्यवादी, देशहितैषी, देशप्रेमी, ईश्वरभक्त, वेदभक्त व ज्ञानी आदि अनेकानेक गुणों से युक्त मनुष्य हैं।

 

मनुस्मृति के सातवें अध्याय में तीनों सभाओं के अध्यक्ष राजा के गुणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि वह सभेश राजा इन्द्र अर्थात् विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता, वायु के समान सब को प्राणवत् प्रिय और हृदय की बात जाननेहारा, पक्षपातरहित न्यायाधीश के समान वर्त्तनेवाला, सूर्य के समान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक, अन्धकार अर्थात् अविद्या अन्याय का निरोधक हो। वह अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करनेहारा, वरुण अर्थात् बांधनेवाले के सदृश दुष्टों को अनेक प्रकार के दण्ड देकर बांधनेवाला, चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता, धनाध्यक्ष के समान कोशों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे। राजा में यह गुण भी होना चाहिये कि वह सूर्यवत् प्रतापी व सब के बाहर और भीतर मनों को अपने तेज से तपाने वाला हो। वह राजा ऐसा हो कि जिसे पृथिवी में वक्र दृष्टि से देखने को कोई भी समर्थ न हो। राजा ऐसा हो कि जो अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य, सोम, धर्मप्रकाशक, धनवर्द्धक, दुष्टों का बंधनकर्त्ता तथा बड़े ऐश्वर्यवाला होवे, वही सभाध्यक्ष, सभेष वा राजा होने के योग्य है।

 

सच्चे राजा के गुण बताते हुए वेदभक्त महर्षि मनु कहते हैं कि जो दण्ड है वही राजा, वही न्याय का प्रचारकर्त्ता और सब का शासनकर्त्ता, वही चार वर्ण और आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिन है। वही राजा व दण्ड प्रजा का शासनकर्त्ता, सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है, इसी लिये बुद्धिमान लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं। यदि राजा दण्ड को अच्छे प्रकार विचार से धारण करे तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है। विना दण्ड के सब वर्ण अर्थात् प्रजा दूषित और सब मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जाती है। दण्ड के यथावत् न होने से सब लोगों का राजा व राज्य व्यवस्था के विरुद्ध प्रकोप हो सकता है। दण्ड के बारे में मनुस्मृति में बहुत बातें कही र्गइं हैं। यह भी कहा है कि दण्ड बड़ा तेजोमय है जिसे अविद्वान् व अधर्मात्मा धारण नहीं कर सकता। तब ऐसी स्थिति में वह दण्ड धर्म से रहित राजा व उसके कुटुम्ब का ही नाश कर देता है। यह भी कहा गया है कि जो राजा आप्त पुरुषों के सहाय, विद्या, सुशिक्षा से रहित, विषयों में आसक्त व मूढ़ है, वह न्याय से दण्ड को चलाने में समर्थ कभी नहीं हो सकता।

 

मनुस्मृति में विधान है कि सब सेना और सेनापतियों के ऊपर राज्याधिकार, दण्ड देने की व्यवस्था के सब कार्यों का आधिपत्य और सब के ऊपर वर्तमान सर्वाधीश राज्यधिकार इन चारों अधिकारों में सम्पूर्ण वेद शास्त्रों में प्रवीण पूर्ण विद्यावाले धर्मात्मा जितेन्द्रिय सुशीलजनों को स्थापित करना चाहिये अर्थात् मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधिकारी, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान और राजा ये चार सब विद्याओं में पूर्ण विद्वान होने चाहिये। न्यून से न्यून दश विद्वानों अथवा बहुत न्यून हो तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे, उस धर्म अर्थात् व्यवस्था का उल्लंघन कोई भी न करे। मनुस्मृति में आगे कहा गया है कि सभा में चारों वेद, हैतुक अर्थात कारण अकारण का ज्ञाता न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हों। जिस सभा में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के जानने वाले तीन सभासद् होके व्यवस्था करें उस सभा की की हुई व्यवस्था का भी कोई उल्लंघन न करे। यदि एक अकेला, सब वेदों का जाननेहारा व द्विजों में उत्तम संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे, वही श्रेष्ठ धर्म है क्योंकि अज्ञानियों के सहस्रों लाखों करोड़ों मिल के जो कुछ व्यवस्था करें उस को कभी न मानना चाहिये। जो ब्रह्मचर्य, सत्यभाषदणादि व्रत, वेदविद्या वा विचार से रहित जन्ममात्र से अज्ञानी वा शूद्रवत् वर्तमान हैं उन सहस्रों मनुष्यों के मिलने से भी सभा नहीं कहलाती। जो अविद्यायुक्त मूर्ख वेदों के न जाननेवाले मनुष्य जिस धर्म को कहे, उस को कभी न मानना चाहिये क्योंकि जो मूर्खों के कहे हुए धर्म के अनुसार चलते हैं, उनके पीछे सैकड़ों प्रकार के पाप लग जाते हैं। इसलिये तीनों विद्यासभा, धर्मसभा और राज्यसभाओं में मूर्खों को कभी भरती न करें। किन्तु सदा विद्वान और धार्मिक पुरुषों का ही स्थापन करें।

 

हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में प्रस्तुत वेद एवं वेदमूलक मनुस्मृति के आधार पर कुछ थोड़े से विचारों व मान्यताओं को प्रस्तुत किया है। हम पाठकों से निवेदन करते हैं कि वह इस पूरे अध्याय को पढ़ कर लाभान्वित हों। आज की व्यवस्था में कुछ बातें देश, काल व परिस्थिति के अनुसार अच्छी हैं व कई अच्छी नहीं भी हैं। देश का दुर्भाग्य है कि हमारे नेता व शासक संस्कृत से अनभिज्ञ हैं एवं वेद आदि शास्त्रों को शायद ही किसी बड़े नेता ने देखा व पढ़ा हो। उनका वेदादि सत्य शास्त्रों के प्रति श्रद्धा का अभाव भी दृष्टिगोचर होता है अन्यथा वह उनका नियमित अध्ययन करते। इसे भी देश का दुर्भाग्य कह सकते हैं कि करोड़ों वर्षों के ज्ञान व अनुभवों से लाभ नहीं लिया जा रहा है। वेद एवं शास्त्रों की अनेक उपादेय बातों का लाभ लिया जाना चाहिये। देश के सभी राजनीति से जुड़े लोगों को सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास का गम्भीरता से अध्ययन कर देशहित की बातों को वर्तमान व्यवस्था में सम्मिलित करना चाहिये जिससे देश व समाज को लाभ हो। यह याद रखना समीचीन होगा कि वेदों में राजधर्म का वर्णन ईश्वर से प्रेरित है जिसको राजर्षि मनु ने राजधर्म विषयक अपने ग्रन्थ मनुस्मृति का आधार बनाया। उन्हीं विचारों को महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत कर न केवल भारत अपितु विश्व का उपकार किया है। हम आशा करते हैं कि भविष्य में पूरा विश्व इससे लाभान्वित होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

-विश्व इतिहास की अन्यतम् घटना- ‘महर्षि दयानन्द ने देश व धर्म के लिए माता-पिता-बन्धु-गृह व अपने सभी सुखों का स्वेच्छा से त्याग किया’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत संसार में महापुरूषों को उत्पन्न करने वाली भूमि रहा है। यहां प्राचीन काल में ही अनेक ऋषि मुनि उत्पन्न हुए जिन्होंने वेदानुसार आदर्श जीवन व्यतीत किया। इन ऋषियों में से कुछ के नाम ही विदित हैं।  अनेक ऋषि मुनियों ने महान कार्यों को किया परन्तु उन्होंने न तो अपना आत्म वृतान्त ही लिखा और न ही अपनी कोई पहचान ही साहित्य आदि के माध्यम से देश में छोड़ी। समय व्यतीत होने के साथ कुछ ऋषियों ने कुछ ग्रन्थों का सृजन वा रचना की। उनके साहित्य में इतिहास में हुए कुछ प्रमुख ऋषियों के नामों का उल्लेख है। इसी प्रकार से इन ऋषियों के ग्रन्थों पर कुछ अन्य ऋषियों ने भाष्य आदि टीकायें लिख कर अपने समय के जन साधारण का कल्याण किया। इनमें भी कुछ ऐतिहासिक ऋषियों के नाम सुरक्षित हैं। महर्षि बाल्मिकी ने रामायण लिखकर स्वयं, श्री रामचन्द्र जी, रामायण काल के कुछ ऋषियों व राजाओं आदि के नाम व इतिहास सुरक्षित किए हैं। रामायण के बाद सबसे बड़ा व प्रमुख इतिहास ग्रन्थ हमारे पास महाभारत है। इसमें उस काल के अनेक राजाओं व विद्वानों का वर्णन है जिनमें से एक अति प्रतिष्ठित महापुरूष श्री कृष्ण हैं। महाभारत काल के बाद युधिष्ठिर के वंशज अनेक राजा महाराजा हुए। इन सबके विस्तृत नाम व वृतान्त आदि तो सुरक्षित नहीं हैं परन्तु महर्षि दयानन्द की कृपा से सत्यार्थ प्रकाश में एक सूची मिलती है जिसमें राजा युधिष्ठिर की वंश परम्परा में क्षेमक तक राजाओं व उनके राज्यकाल का विवरण वर्ष, महीनों व दिन तक की गणना किया हुआ मिलता है। यह कुल 30 पीढि़यों के 1770 वर्ष 11 मास व 10 दिनों का संक्षिप्त व संकेतित इतिहास व विवरण है। इसके बाद के राजाओं से लेकर सम्वत् 1249 विक्रमी तक राजा यशपाल के शासनकाल तक का विवरण सत्यार्थप्रकाश में अंकित सूची में है। इस प्रकार अब से लगभग 823 वर्ष पूर्व तक के राजाओं का विवरण महर्षि दयानन्द की कृपा से आज देश की जनता के लिए सुलभ हुआ है। जब भारत की ज्ञान विज्ञान से युक्त वेद कालीन प्राचीन धर्म व संस्कृति पर विचार करते हैं तो हमें अनेक धार्मिक ग्रन्थों के रचयिता ऋषि मुनियों सहित आदर्श राजा श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, राजनीति के आचार्य महात्मा चाणक्य, स्वामी शंकराचार्य और महर्षि दयानन्द जी का ज्ञान होता है जिन्होंने अपने अपने समयों में महान कार्य कर इस देश व विश्व के धर्म व संस्कृति के वातावरण को प्रभावित किया। आज के इस लेख में हम स्वामी दयानन्द सरस्वती जी पर कुछ विचार कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1847 में अपनी आयु के  बाईसवें वर्ष में सच्चे शिव, मृत्यु पर विजय और सद्ज्ञान की प्राप्ति के लिए गृह त्याग किया था।  सन् 1860 में वह मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द की कुटिया में पहुंचे और लगभग 3 वर्षों में उनसे आर्ष व्याकरण, वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन पूरा कर सन् 1863 में गुरू की प्रेरणा व आज्ञा से देश व धर्म के सुधार के लिए कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हुंए। उन्होंने नवम्बर, 1869 में काशी नरेश की मध्यस्थता में काशी के लगभग 30 विद्वानों से मूर्तिपूजा पर इतिहास प्रसिद्ध शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में लगभग 50 हजार लोग उपस्थित थे। पौराणिक विद्वान मूर्तिपूजा को वेद विहित सिद्ध नहीं कर सके थे। तदन्तर उन्होंने धर्म व वेद प्रचार के निमित्त मौखिक उपदेश व वार्तालाप सहित शास्त्रार्थ आदि द्वारा प्रचार किया और अपने मन्तव्यों के प्रचारार्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि उन्होंने हिन्दी की महत्ता के कारण इतिहास में प्रथमवार धार्मिक विषयों को संस्कृत के स्थान पर हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया जिसका सुप्रभाव यह हुआ कि सामान्य व्यक्ति भी धर्म के मर्म को जानने में समर्थ हुआ और धर्म पर पण्डितों का एकाधिकार समाप्त हुआ। वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार के लिए उनके प्रमुख कार्यों में 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई के काकड़वाड़ी स्थान पर प्रथम आर्य समाज की स्थापना सहित सत्यार्थ प्रकाश और वेद भाष्य का प्रणयन आदि कार्य प्रमुख थे।

 

स्वामी जी जहां जहां वेद प्रचार हेतु जाते थे, उनके प्रवचनों में सम्मिलित लोगों में से अनेक उनसे अपना जीवन वृतान्त सुनाने का निवेदन करते थे। उन्होंने अगस्त, 1875 में पूना में दिये गये अपने प्रवचनों में से एक प्रवचन में अपने जीवन का वृतान्त प्रस्तुत किया था। इसके बाद थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल अल्काट की प्रेरणा व निवेदन पर उन्होंने अप्रैल, 1879 में अपना संक्षिप्त जीवनवृत्त लिखा। इस जीवनवृत्त के आरम्भ में उन्होंने लिखा है कि गृह त्याग के प्रथम दिन से ही जो मैंने लोगों को अपने पिता का नाम और अपने कुल का स्थान बताना अस्वीकार किया इसका यही कारण है कि मेरा कत्र्तव्य मुझे इस बात की आज्ञा नहीं देता। यदि मेरा कोई सम्बन्धी मेरे इस वृत्त से परिचय पा लेता तो वह अवश्य मेरे ढूंढने का प्रयत्न करता। इस प्रकार उनसे दो-चार होने पर मेरा उन के साथ घर जाना आवश्यक हो जाता। सुतरा एक बार पुनः मुझे धन हाथ में लेना पड़ता अर्थात् मैं गृहस्थ हो जाता। उनकी सेवा-शुश्रूषा भी मुझे करनी योग्य होती। और इस प्रकार उनके मोह में पड़कर सर्व सुधारों का वह उत्तम काम जिसके लिये मैंने अपना जीवन अर्पण किया है, तथा जो मेरा यथार्थ उद्देश्य है, जिसके अर्थ स्वजीवन-बलिदान करने की किंचित् चिन्ता नहीं की, और अपनी आयु (जीवन) को बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ मैंने अपना (अपने जीवन का) सब कुछ स्वाहा करना अपना मन्तव्य समझा, अर्थात् देश का सुधार और धर्म का प्रचार, वह (मेरा) देश पूर्ववत् अन्धकार में पड़ा रह जाता। यहां महर्षि दयानन्द ने प्रसंगवश अपनी मृत्यु से साढ़े चार वर्ष पहले अपने जीवन का उद्देश्य बताने के साथ अपने मन की कुछ निजी बातें भी प्रकट की हैं जो कि अत्यन्त महत्वपूर्ण है और वही हमारे लेख का मुख्य विषय हैं।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द कह रहे हैं उन्होंने सर्व सुधारों के उत्तम काम के लिए ही अपना जीवन अर्पण किया है और यही उनका उद्देश्य है। आगे स्पष्ट कर सर्व सुधार से तात्पर्य उन्होंने देश का सुधार और धर्मं का प्रचार बताया है। महर्षि दयानन्द के इस वाक्य से ज्ञात होता था कि उनके समय में देश में अनेक क्षेत्रों में अन्धविश्वास, रूढि़वाद एवं पाखण्ड आदि अनेक विकृतियां विद्यमान थीं जिनसे देश कमजोर व अवनत हो गया था। इनका सुधार कर वह देश को सशक्त बनाना चाहते थे। देश का एक उत्कृष्ट वेदविद्यावान ब्रह्मचारी, अनेक शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमताओं से युक्त ऋषि तुल्य व्यक्ति देश के सुधार के लिए बिना किसी निजी प्रयोजन अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है, यह इतिहास की अपने प्रकार की अपूर्व घटना है। यहां हमें श्री रामचन्द्र जी की स्मृति हो आई। उन्होंने अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिए वन जाना स्वीकार किया था। वहां प्रयोजन पिता के वचन थे। उनका विवाह हो चुका था और वनवास की अवधि में भी उनके अपने परिवार से सम्बन्ध बने रहे थे। श्री कृष्ण जी ने महाभारत के युद्ध में प्रमुख भूमिका निभाई। इसका कारण उनके पाण्डवों से संबंध थे। वह वैदिक विद्वान, योगी और राजनीतिज्ञ थे और सत्य व धर्म की रक्षा के लिए एक राजा होकर वह इस युद्ध में प्रवृत्त हुए थे। श्री कृष्ण जी ने विवाह भी किया और प्रद्युम्न के रूप में एक संस्कारित योग्य सन्तान को भी प्राप्त किया था। लेकिन स्वामी दयानन्द देश व धर्म के लिए अपने माता-पिता, धन, सम्बन्धों, विवाह, सन्तान, शारीरिक सुख व अपने जीवन आदि सभी कुछ को ईश्वर, देश व धर्म के लिए त्याग कर रहे हैं। अपने महानतम उद्देश्य की पूर्ति के प्रति वह श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी के समान ही योग्य, सक्षम व समर्थ थे। इस कार्य को उन्होंने प्राणपण से किया। इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली और अपने उद्देश्य के लिए ही उन्होंने मात्र 58 वर्ष 8 महीने के अल्प जीवन में ही अपना बलिदान किया। उन्होंने जो कार्य किया वह इतिहास में अभूतपूर्व है। स्वामी दयानन्द के कार्यों व बलिदान का महत्व इस कारण भी है कि भारतवासी धर्म के यथार्थ व सत्य स्वरूप को भूल चुके थे। ईश्वर के स्वरूप व उपासना का ज्ञान भी भारतवासियों को नहीं था। यज्ञ का स्वरूप विकृत कर दिया गया था और सत्य स्वरूप का किसी को ज्ञान ही नहीं था। इसी कारण बौद्धमत अस्तित्व में आया और सनातन वैदिक धर्म का पराभव हुआ। देश में बाल विवाह होते थे जिससे विवाहित बालक-बालिकाओं की मृत्यु दर वृद्धि को प्राप्त हो रही थी। निस्तेज व अल्पजीवी सन्तानें उत्पन्न होती थीं। विधवाओं की दुर्दशा हो रही थी। स्त्रियों व दलितों के अध्ययन के अधिकारों तक को छीन लिया गया था। वेदों के यथार्थ विद्वान होना बन्द हो गये थे। सभी मनुष्यों का धर्म एक है। इस एक धर्म की अनेकानेक अन्धविश्वासों से युक्त शाखायें एवं प्रशाखायें उत्पन्न हो गईं थीं जो भोले-भाले लोगों का शोषण करती थीं। ब्राह्मण वर्ण व वर्ग को सभी प्रकार के अधिकार थे, अन्याय करने पर भी दण्ड का कोई विधान नहीं था और अन्यों पर अन्याय व शोषण किया जाता था। देश को कृत्रिम जन्मना-जाति व उपजातियायें में बांट दिया गया था जिससे देश कमजोर हुआ व हो रहा है। इन सब सामाजिक दोषों को दूर करने के साथ स्वामी दयानन्द ने वेदों का सत्य स्वरूप प्रकाशित किया, स्त्रियों व शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार दिया, सभी सामाजिक विषमतायें एवं अन्याय दूर किये और ईश्वर का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत कर उसकी सच्ची उपासना और यज्ञों का उद्धार किया। देश व विश्व का इतना उपकार करने पर भी देश के लोगों ने उनके उपकार बदला उन का अपमान, विरोध, अनेक बार उन्हें विष देकर तथा उनके प्राण लेकर दिया। हमें समझ में नहीं आता कि हम अपनी जाति को क्या कहें जो अपने ही त्राता के प्राणों का घात करती है। यहां यह उक्ति चरितार्थ होती है तू खाक उसे करना चाहे जो तेरा बेड़ा पार करे। अतः स्वामी दयानन्द ने सर्वसुधारों के लिए अपने प्राण देकर अपने वचनों को सत्य सिद्ध किया जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया था। हम अनुभव करते हैं कि उनके उपकारों से देश कभी उऋ़ण नहीं हो सकता।

 

अपने वचनों में स्वामी दयानन्द जी ने यह भी कहा है कि सुर्वसुधारों के अर्थ उन्होंने स्वजीवन-बलिदान करने का किंचित् विचार व चिन्ता नहीं की, और अपनी आयु (जीवन) को बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ उन्होंने अपना सब कुछ स्वाहा करना अपना मन्तव्य समझा, अर्थात् देश का सुधार और धर्म का प्रचार, अन्यथा देश पूर्ववत् अन्धकार में पड़ा रह जाता। महर्षि के यह वाक्य भी उनके जीवन एवं कार्यों पर दृष्टि डालने पर सत्य सिद्ध होते हैं। महर्षि दयानन्द के अनुयायियों को यह देखकर दुःख होता है कि यह देश सत्य को जानने के प्रति सजग न होकर उदासीन है। सत्य का ग्रहण तो देशवासी तभी कर सकते हैं जबकि इन्हें सत्य गुरूओं का सान्निध्य व मार्गदर्शन प्राप्त हो। इसके लिए तो वैदिक साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता है। अनार्ष ग्रन्थों को पढ़कर इन मत-पन्थ-सम्प्रदाय वादियों की बुद्धि भी इन मतों के अनुकुल हो गई है। मत-मतान्तरों के असत्य विचारों को पढ़ने व सुनने पर भी उनके मन में शंकायें  उत्पन्न नहीं होती? सत्य ज्ञान वेद के विरूद्ध सभी मत-मतान्तर अनेक असत्य व मिथ्या बातों का प्रचार करते हैं और उनके अनुयायी आंखें बन्द कर उन्हें स्वीकार कर लेते हैं जिससे ईश्वर व धर्म के विषय में सर्वत्र अन्धकार छाया हुआ है। अतः हमें महर्षि दयानन्द का तप व पुरूषार्थ पूर्ण सार्थक हुआ प्रतीत नहीं होता। आज भी चालाक व स्वार्थी लोग भोले भाले धर्मभीरू लोगों का शोषण करते हैं। उनमें से कुछ के अनैतिक कार्य भी समाज के सामने आते रहते हैं परन्तु देश की जनता फिर भी उदासीन रहती है। लोगों की इस मनोवृत्ति और अकर्मण्यता ने भविष्य में सत्य वैदिक धर्म की उन्नति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। महर्षि दयानन्द के तप व पुरूषार्थ की पूर्ण सफलता न होने से देश के लिए भविष्य में विडम्बना सिद्ध हो सकती है जैसे कि पहले भी बनी है। अतः वेदों के प्रचार प्रसार की पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। हम महर्षि दयानन्द के उन वाक्यों जिसमें उन्होंने अपनी भावनाओं को प्रकट किया और वैसा कर धर्म व देशोन्नति के लिए बलिदान हुए, नमन करते हैं। आज की परिस्थितियों में धर्म व देश सुधार के लिए हमें सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन और उसके अनुरुप सत्य मान्यताओं का प्रचार ही अभीष्ट लगता है। हम आशा करते हैं कि देश के प्रबुद्ध जन महर्षि दयानन्द के वैदिक साहित्य का निष्पक्ष रूप से अध्ययन कर धर्म व संस्कृति की रक्षा तथा देशोन्नति के लिए अपने कर्तव्य का निर्धारण कर उसका पालन करेंगे।

 

आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक वैदिक विद्वान पं. राजवीर शास्त्री जी की जुलाई, 1998 में लिखी पंक्तियां प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं कि स्वाध्यायशील पाठकों और वेदभक्त आर्यपुरुषों के समक्ष दयानन्द-सन्देश मासिक पत्र का श्रावणी पर्व पर वेद-विशेषांक प्रस्तुत करते हुए जहां हमें अतीव प्रसन्नता हो रही है वहीं हमें वेद के प्रति अनास्था रखने वालों के प्रति सजगता एवं सतर्क रहने के लिए प्रोत्साहन भी मिल रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे अन्दर वेद-ज्योति ने सन्मार्ग दर्शन होने से हमें सचेत किया था, आज वही ज्योति जिसने समस्त मतमतान्तर-वादियों के भीषण दुर्गों को ध्वस्त करके सत्य को ग्रहण करने के लिए उद्यत किया था, उन्हीं वेदानुयायियों को शिथिल, उपेक्षित, उत्साहहीन देखकर अत्यन्त दुःख भी होता है। इसका कारण स्वाध्यायहीनता व श्रद्धाहीनता भी है किन्तु अर्थ और काम की आसक्ति प्रमुख है। आज का मानव भौतिक चकाचौंध में इतना अधिक व्यस्त हो गया है कि जो आर्यजनता एक सजग-प्रहरी बनकर काम कर रही थी, वह भी उदासीन हो गयी है। महर्षि मनु ने सृष्टि के आरम्भ में ही आर्य जाति को सचेत करते हुए लिखा था-अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।। अर्थात् धर्म का ज्ञान उन व्यक्तियों को नहीं होता, जो अर्थ और काम अथवा कांचन कामिनी में आसक्त हैं और धर्म की जिज्ञासा रखने वालों को वेद ही परम प्रमाण है। महर्षि दयानन्द ने धर्म की जिज्ञासा को शान्त करने वाले परम प्रमाण वेदों को ही अपने प्रचार का मुख्य साधन बनाया था। आज भी वेद पूर्णरुपेण प्रासंगिक एवं व्यवहारिक है। वेदविहित व वेदानुकुल ही धर्म और वेद विरुद्ध सब कुछ अधर्म व पाप है।

 

लेख को विराम देते हुए आर्य महाकवि श्री वीरेन्द्र कुमार राजपूत की महर्षि दयानन्द पर कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैंः

 

जिसने गुरुदेव चरित्र पढ़ानिज मानस  जन्म सुधार लिया।

वह लौह सुवर्ण बना जिसने,   इस पारस को पहचान लिया।

पथभ्रष्ट अमीचन्द था, जिसका ऋषि ने  हाथ संभाल लिया,

गुरु ने जग से चलतेचलते जग को गुरुदत्त प्रदान किया।।          

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

नया सांस्कृतिक धार्मिक आक्रमणः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्यसमाज के जन्मकाल से ही इस पर आक्रमण होते आये हैं। राजनैतिक स्वार्थों के  लिए राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों ने भी समय-समय पर आर्य समाज पर निर्दयता से वार किये। विदेशी शासकों, देसी रजवाड़ों व विरोधियों ने भी वार किये। कमी किसी ने नहीं छोड़ी। समाज सुधार विरोधी पोंगा-पंथियों ने भी समय -समय पर डट कर वार किये। घुसपैठ करके कई एक ने आर्यसमाज का विध्वंस करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। गांधी बापू ने वेद पर, सत्यार्थप्रकाश पर, ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द पर बहुत चतुराई से प्रहार किया था। आर्य नेताओं तथा विद्वानों ने बड़े साहस से यथोचित उत्तर दिया। जवाहर लाल नेहरु ने भी लखनऊ में आर्यसमाज के महासमेलन में आर्य समाज पर घिनौना आक्रमण किया था। यह सन् 1963 की घटना है। तब भी आर्य समाज ने नकद उत्तर दिया था।

अब संघ परिवार एक योजनाबद्ध ढंग से अपनी पंथाई विचारधारा देश पर थोपने में लगा है। आर्यसमाज पर सीधा-सीधा आक्रमण होने लगा है। भाजपा के नये-नये मन्त्री-तन्त्री इस काम में जुट गये हैं। देहली में स्वामी विवेकानन्द की आड़ में श्री वी.के. सिंह ने अपनी सर्वज्ञता दिखाई। फिर गुरुकुल आर्यनगर हिसार के उत्सव पर हरियाणा के मन्त्रियों ने वही कुछ करते हुए संघ का जी भर कर बखान किया। इसके लिए गुरुकुल के प्रधान महाविद्वान्? सुमेधानन्द जी बधाई के पात्र हैं। वह भाजपा का ऋण चुकाने में लगे हैं।

  1. दत्त तथा चटर्जी नाम के दो बंगाली इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय थे जिन्होंने भारत भारतीयों केलिए घोष लगाया या सुनाया। स्वदेशी व स्वराज्य के इस घोष लगाने से उस युग का कौन-सा नेता व धर्मगुरु ऋषि दयानन्द के समकक्ष था? बड़ा होने का तो प्रश्न ही नहीं।
  2. जब स्वामी विवेकानन्द को कोई नरेन्द्र के रूप में भी अभी नहीं जानता था तब मथुरा की कुटी से दीक्षा लेकर महर्षि दयानन्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में गायत्री व यज्ञ हवन प्रचार, स्त्रियों को वेद का अधिकार, जाति भेद निवारण, अस्पृश्यता उन्मूलन व स्वदेशी का शंखनाद करने में लगे थे। उस काल में विदेश में निर्मित चाकूके प्रयोग से महर्षि का मन आहत हुआ। विदेशी वस्त्रों को तजकर ऊधो को स्वदेशी वस्त्रों के धारण करने की इसी काल में प्रेरणा दी गई। इससे पहले किसने स्वदेशी आन्दोलन का शंखनाद किया? स्वदेशी वस्तुओं व वस्त्रों के प्रयोग में सभी नेता व विचारक ऋषि दयानन्द को नमन करते आये हैं। अब संघ परिवार ने नया इतिहास गढ़ना आरभ किया है। जो मैक्समूलर तथा नेहरु न कर पाया वह भागवत जी के चेले करके दिखाना चाहते हैं।
  3. उन्नीसवीं शतादी के बड़े-बड़े विद्वान्, सुधारक और नेता प्रायः करके गोरी सरकार व गोरों की सर्विस में रहे। पैंशनधारी भी कई एक थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने तो अंग्रेज जाति की कभी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी। गांधी जी की दृष्टि में सूर्य के तले और धरती के ऊपर अंग्रेज जाति जैसा न्यायप्रिय और कोई है ही नहीं। महर्षि दयानन्द ने किसी सरकार की, किसी राजा, महाराजा की नौकरी नहीं की। अंग्रेज जाति व अंग्रेज सरकार का कभी स्तुतिगान नहीं किया। हाँ। धर्मप्रचार की स्वतन्त्रता के लिए मुगलों की तुलना में वे अंग्रेजी राज की प्रशंसा करते थे।

न जाने किस आधार पर संघ परिवार स्वामी विवेकानन्द को उन्नीसवीं शतादी का सबसे बड़ा महापुरुष बताते हुए ऋषि दयानन्द को नीचा दिखाने पर तुला बैठा है। आश्चर्य का विषय है कि समर्थ गुरु रामदास व छत्रपति शिवाजी का गुणकीर्तन छोड़कर संघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श कैसे मान लिया?

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार यह भी कहा था कि मुझे कायस्थ होने पर अभिमान या गौरव है। जो जन्म की जाति-पाँति पर इतराता है वह कितना भी बड़ा क्यों न हो वह आदर्श साधु महात्मा नहीं हो सकता। साधु की कोई जात व परिवार नहीं होता।

  1. अंग्रेजी न्यायालय का (Contempt of court) अपमान करने वाला सबसे पहला भारतीय महापुरुष महर्षि दयानन्द था। उन्हीं से प्रेरणा पाकर महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज) ने हुतात्मा कन्हाई लाल दत्त के अभियोग के समय बड़ी निड़रता से अंग्रेजी न्यायालय का अपमान ((Contempt of court)ç किया था। क्या किसी बड़े से बड़े नेता को इन दो ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिवाद करने की हिमत है?

ऋषि दयानन्द के काल की तो छोड़िये, महर्षि के बलिदान के पच्चीस वर्ष पश्चात् तकाी कोई भी भारतीय नेता अंग्रेजी न्यायपालिका (British Judiciary)का अपमान नहीं कर सका। न जाने संघ परिवार को महर्षि दयानन्द की यह विलक्षणता, गरिमा, बड़प्पन, देशप्रेम व शूरता क्यों नहीं दिखाई देती?

  1. किसी भी अन्य भारतीय महापुरुष द्वारा उस युग में न्यायपालिका के अपमान की घटना सप्रमाण दिखाने की विवेकानन्दी बन्धुओं को हमारी खुली चुनौती है। लोकमान्य तिलक को उन्नीसवीं शतादी के अन्तिम वर्षों में क्राफर्ड केस में अंग्रेजी न्यायालय ने दण्डित किया था। उन्हें बन्दी बनाया गया। सब नेता न्यायालय के निर्णय को माँ का दूध समझकर पी गये। कांग्रेस तब देश व्यापी हो चुकी थी। कौन बोला न्यायालय के इस घोर अन्याय पर? देशवासी नोट कर लें कि तब शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी ने महात्मा मुंशीराम के रूप में इस निर्णय पर विपरीत टिपणी की थी। महात्मा जी की वह सपादकीय टिप्पणी हमारे पास सुरक्षित है।
  2. महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितबर अक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शदों में व्यक्त किया थाः- ‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं।’’

इस व्यायान का सार सपूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द के पृष्ठ 73 पर कोई भी पढ़ सकता है। हुतात्मा पं. लेखराम जी ने स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन काल में अपने ग्रन्थ में यह पूरी घटना दे दी थी।

ऐसी निर्भीक वाणी उस युग के किसी भी साधु, सन्त व राजनेता के जीवन में दिखाने की क्या कोई हिमत करेगा?

जालन्धर के इसी व्यायान में ऋषि दयानन्द जी ने सन् 1857 की क्रान्ति को गदर (Mutiny) न कहकर विप्लव कहकर अपने प्रखर राष्ट्रवाद का शंख फूं का था। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर जी ने वर्षों बाद हमारा प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम ग्रन्थ लिखकर घर-घर ऋषि की हुँकार पहुँचा दी। अंग्रेजी जानने वाले किसी और बाबा व नेता में तो इतनी हिमत न हुई।

  1. जब देशभक्त सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी को कारावास का दण्ड सुनाया गया तब महर्षि दयानन्द के मिशन के एक मासिक पत्र में सरकारी न्यायालय के इस अन्याय की निन्दा की गई। क्या किसी सन्यासी महात्मा ने देश में सुरेन्द्रनाथ जी के पक्ष में मुँह खोला या लिखा । हम इस घटना के प्रमाण स्वरूप अलय Document दस्तावेज दिखा सकते हैं।

दुर्भाग्य का विषय है कि आर्य समाज भी ऋषि की इन घटनाओं को विशेष प्रचारित (Highlight) नहीं करता।

  1. देश को सुनाना बताना होगा कि उन्नीसवीं शतादी के महापुरुषों में एकमेव सुधारक विचारक ऋषि दयानन्द थे जिन्होंने देश, धर्म व जाति हित में अपना बलिदान देकर बलिदान की परपरा चलाई। किसी और संगठन, किसी बाबा की परपरा में एक भी साधु, युवक, बाल, वृद्ध गोली खाकर, फांसी पर चढ़कर, छुरा खाकर, जेल में गल सड़कर देश धर्म के लिए बलिवेदी पर नहीं चढ़ा। यहाँ पं. लेखराम जी से लेकर वीर राम रखामल (काले पानी में), वीर वेदप्रकाश, भाई श्यामलाल और धर्मप्रकाश, शिवचन्द्र तक शहीदों की एक लबी सूची है। सेना प्रमुख श्रीयुत वी.के.सिंह तथा आर्यनगर हिसार में सुमेधानन्द महाराज की बुलाई नेता-पलटन इतिहास को क्या जाने?
  2. महर्षि दयानन्द का पत्र व्यवहार पढ़िये। प्रत्येक दो या तीन पत्रों के पश्चात् प्रत्येक पत्र में देश जाति के उत्थान कल्याण की ऋषि बात करते हैं। किसी अंग्रेजी पठित साधु, नेता के जीवन चरित्र व पत्रावली में ऐसा उद्गार, ऐसी पीड़ा और गुहार दिखा दीजिये। ऋषि दयानन्द की देन व व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने वाले सब तत्त्वों को यह मेरी चुनौती है कि इन दस बिन्दुओं को सामने आकर झुठलावें।

देश की परतन्त्रता में मूर्तिपूजा की भूमिका पर महर्षि दयानन्द का सन् 1874 में दिया एक हृदयग्राही ऐतिहासिक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमने विगत तीन लेखों में महर्षि दयानन्द के सन् 1874 में लिखित आदिम सत्यार्थ प्रकाश से हमारे देश आर्यावर्त्त में महाभारत काल के बाद अज्ञान व अन्धविश्वासों में वृद्धि, मूर्तिपूजा के प्रचलन, मन्दिरों के विध्वंश व इनकी अकूत सम्पत्ति की लूट, देश की परतन्त्रता आदि कारणों पर उनके उपदेशों को प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में यह एक अन्य उपदेश प्रस्तुत कर इस श्रृंखला का समापन कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द अपने इस उपदेश में कहते हैं कि देश के चार ब्राह्मणों ने अच्छा विचार किया कि कोई क्षत्रिय राजा इस देश में अच्छा नहीं है, इसका कुछ उपाय करना चाहिए। वे चारों ब्राह्मण अच्छे थे, क्योंकि सब मनुष्यों के ऊपर कृपा करके उन्होंने अच्छी बात विचारी। ऐसा करना अच्छे पुरुषों का काम है बुरों का नहीं। फिर उन्होंने क्षत्रियों के बालकों में से चार अच्छे बालक छांट लिए और उन क्षत्रियों से कहा कि तुम लोग बालकों के खाने पीने का प्रबन्ध रखना। उन्होंने स्वीकार किया और सेवक भी साथ रख दिए। वे सब आबू राजपर्वत के ऊपर जाके रहे और उन बालकों की अक्षराभ्यास और श्रेष्ठ व्यवहारों की शिक्षा करने लगे। फिर उनका यथाविधि संस्कार भी उन्होंने किया। सन्ध्योपासन और अग्निहोत्रादिक वेदोक्त कर्मों की शिक्षा उन्होंने की तत्पश्चात व्याकरण, छः दर्शन, काव्यालंकार सूत्र सनातन कोश, यथावत् पदार्थ विद्या उनको पढ़ाई। इसके बाद वैद्यक शास्त्र तथा गान विद्या, शिल्प विद्या और धनुर्विद्या अर्थात् युद्ध विद्या भी उनको अच्छी प्रकार से पढ़ाई। राजधर्म जैसा कि प्रजा से वर्तमान करना और न्याय करना, दुष्टों को दण्ड देना तथा श्रेष्ठों का पालन करना, यह भी सब पढ़ाया। ऐसे 25 वा 26 वर्ष की आयु उनकी हुई।

 

उन पण्डितों की स्त्रियों (धर्मपत्नियों) ने इसी प्रकार से चार कन्या रूप गुण सम्पन्न को अपने पास रखके व्याकरण, धर्मशास्त्र, वैद्यक, गान विद्या तथा नाना प्रकार के शिल्प कर्म पढ़ाए और व्यवहार की शिक्षा भी की तथा युद्ध विद्या की शिक्षा, गर्भ में बालकों का पालन और पति सेवा का उपदेश भी यथावत् किया। फिर उन पुरुषों को परस्पर चारों का युद्ध करना और कराने का यथावत् अभ्यास कराया। इस प्रकार अध्ययन व अभ्यास करते हुए चालीस-चालीस वर्ष के वह पुरुष हुए। बीस-बीस वर्ष की वे कन्या हुईं। तब उनकी प्रसन्नता से और गुण परीक्षा से एक से एक का विवाह कराया। जब तक विवाह नहीं हुआ था, तब तक उन पुरुषों की और कन्याओं की यथावत् रक्षा की गई थी। इससे उनको विद्या, बल, बुद्धि तथा पराक्रम आदि गुण भी उनके शरीर में यथावत् हुए थे।

 

पश्चात उन पुरुषों से ब्राह्मणों ने कहा कि तुम लोग हमारी आज्ञा को मानों। तब उन सबों ने कहा कि जो आपकी आज्ञा होगी, वही हम करेंगे। तब उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि हमने तुम्हारे ऊपर परिश्रम किया है सो केवल जगत् के उपकार के हेतु किया है। सो आप लोग देखों कि आर्यावर्त्त में गदर मच रहा है। मुसलमान लोग इस देश में आकर बड़ी दुर्दशा करते हैं और धन आदि लूट के ले जाते हैं। सो इस देश की नित्य दुर्दशा होती जाती है। आप लोग यथावत् राजधर्म से प्रजा का पालन करो और दुष्टों को यथावत् दण्ड दो। परन्तु एक उपदेश सदा हृदय में रखना कि जब तक वीर्य की रक्षा और जितेन्द्रिय रहोगे, तब तक तुम्हारा सब कार्य सिद्ध होता जायेगा और हमने तुम्हारा विवाह अब जो कराया है सो केवल परस्पर रक्षा के हेतु किया है कि तुम और तुम्हारी स्त्रियां संग-संग रहोगे तो बिगड़ोगे नहीं और केवल सन्तानोत्पत्ति मात्र विवाह का प्रयोजन जानना और मन से भी पर-पुरुष वा पर-स्त्री का चिन्तन भी नहीं करना और विद्या तथा परमेश्वर की उपासना और सत्यधर्म में सदा उपस्थित रहना। जब तक तुम्हारा राज्य न जमें, तब तक स्त्री पुरुष दोनों ब्रह्मचर्याश्रम में रहो क्योंकि जो क्रीड़ासक्त होगे तो तुम्हारे शरीर से बल आदि न्यून हो जायेंगे। इससे युद्धादि में उत्साह भी न्यून हो जायगा और हम भी एक-एक के साथ एक-एक रहेंगे। अब हम और आप लोग चलें और चल के यथावत् राज्य का प्रबन्ध करें। फिर वे वहां से चले। वह चार इन नामों से प्रख्यात थे, चौहान, पंवार, सोलंकी इत्यादि। उन्होने दिल्ली आदि में राज्य किया था। जब वह राज्य करने लगे थे तब कुछ-कुछ सुप्रबन्ध भी हुआ था।

 

कुछ काल के पीछे एक मुसलमान सहाबुद्दीन गोरी भी उसी प्रकार इस देश कन्नौज आदि में आया था। उस समय कन्नौज का बड़ा भारी राज था सो इसके भय के मारे अपने ही लोग जाके उसको मिले और युद्ध कुछ भी नहीं किया क्योंकि उस वक्त राजाओं के शरीर स्त्री के शरीर से भी कोमल थे, इससे वे क्या युद्ध कर सकते?  फिर अन्यत्र युद्ध जहां-तहां किया सो उस सहाबुद्दीन गोरी का विजय हुआ और आर्यावत्र्त वालों का पराजय हुआ। पश्चात दिल्ली वालों से किसी समय उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में पृथ्वीराज मारा गया और उस सहाबुद्दीन गोरी ने अपना सेनाध्यक्ष दिल्ली में रक्षा के हेतु रख दिया। उसका नाम कुतुबद्दीन था। वह जब वहां रहा तब कुछ दिन के पीछे उन राजाओं को निकाल के आप राजा हुआ। उस दिन से मुसलमान लोग यहां राज्य करने लगे और सबने कुछ-कुछ जुलुम किया। परन्तु उनके बीच में से अकबर बादशाह कुछ अच्छा हुआ और न्याय भी संसार में होने लगा। सो अपनी बहादुरी से और बुद्धि से सब गदर मिटा दिया। उस समय राजा और प्रजा सब सुखी थे।

 

आर्यावर्त्त के राजा और धनाढ्य लोग विक्रमादित्य के पीछे सब विषय सुख में फंस रहे थे। उससे उनके शरीर में बल, बुद्धि, पराक्रम और शूरवीरता प्रायः नष्ट हो गई थी, क्योंकि सदा स्त्रियों का संग, गाना बजाना, नृत्य देखना, सोना, अच्छे-अच्छे कपड़े और आभूषण को धारण करना, नाना प्रकार के इत्र और अंजन नेत्र में लगाना, इससे उनके शरीर बड़े कोमल हो गए थे कि थोड़े से ताप वा शीत अथवा वायु का सहन नहीं हो सकता था। फिर वे युद्ध क्या कर सकते, क्योंकि जो नित्य स्त्रियों का संग और विषय भोग करेंगे, उनका भी शरीर प्रायः स्त्रियों जैसा हो जाता है। वे कभी युद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि जिनके शरीर दृढ़, रोग रहित, बल, बुद्धि और पराक्रम तथा वीर्य की रक्षा करना और विषय भोग में नहीं फंसना, नाना प्रकार की विद्या का पढ़ना इत्यादि के होने से सब कार्य सिद्ध हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।

 

फिर दिल्ली में औरंगजेब एक बादशाह हुआ था। उसने मथुरा, काशी, अयोध्या और अन्य स्थान में भी जा-जा के मन्दिर और मूर्तियों को तोड़ डाला और जहां-जहां बड़े-बड़े मन्दिर थे, उस-उस स्थान पर अपनी मस्जिद बना दी। जब वह काशी में मन्दिर तोड़ने को आया तब विश्वनाथ कुंए में गिर पड़े और माधव एक ब्राह्मण के घर में भाग गए, ऐसा बहुत मनुष्य कहते हैं, परन्तु हमको यह बात झूठ मालूम पड़ती है, क्योंकि वह पाषाण वा धातु जड़ पदार्थ कैसे भाग सकता है, कभी नहीं। सो ऐसा हुआ होगा कि जब औरंगजेब आया तब पुजारियों ने भय से मूर्ति को उठाके उसे कुंए में डाल दिया और माधव की मूर्ति उठा के दूसरे घर में छिपा दी कि वह उसे न तोड़ सके। सो आज तक उस कुंए का बड़ा दुर्गन्धयुक्त जल पीते हैं और उसी ब्राह्मण के घर की माधव की मूर्ति की आज तक पूजा करते हैं।

 

देखना चाहिए कि पहिले तो सोने व चांदी की मूर्तियां बनाते थे तथा हीरा और माणिक की आंख बनाते थे। सो मुसलमानों के भय से और दरिद्रता से पाषाण, मिट्टी, पीतल, लोहा और काष्ठ आदि की मूर्तियां बनाते हैं। सो अब तक भी इस सत्यानाश करने वाले कर्म को नहीं छोड़ते, क्योंकि छोडें तो तब जो इनकी अच्छी दशा आवे। इनकी तो इन कर्मों से दुर्दशा ही होने वाली है जब तक कि इनको (मूर्ति पूजा) नहीं छोड़ते।

 

और महाभारत युद्ध के पहले आर्यावर्त्त देश में अच्छे-अच्छे राजा होते थे। उनकी विद्या, बुद्धि, बल, पराक्रम तथा धर्म निष्ठा और शूरवीरता आदि गुण अच्छे-अच्छे थे। इससे उनका राज्य यथावत् होता था। सो इक्ष्वाकु, सगर, रघु, दिलीप आदि चक्रवर्त्ती राजा हुए थे और किसी प्रकार का पाखण्ड उनमें नहीं था। सदा विद्या की उन्नति और अच्छे-अच्छे कर्म आप किया करते थे तथा प्रजा से कराते थे। कभी उनका पराजय नहीं होता था तथा अधर्म से कभी नहीं युद्ध करते थे और युद्ध से निवृत्त कभी नहीं होते थे। उस समय से लेके जैन राज्य के पहिले तक इसी देश के राजा होते थे, अन्य देश के नहीं। सो जैनों ने और मुसलमानों ने इस देश को बहुत बिगाड़ा है। सो आज तक बिगड़ता ही जाता है। आजकल अंग्रेजों का राज्य होने से उन (जैन व मुसलमान) राजाओं के राज्य से कुछ सुख हुआ है, क्योंकि अंग्रेज लोग मत-मतान्तर की बात में हाथ नहीं डालते और जो पुस्तक अच्छा पाते हैं, उसकी अच्छी प्रकार रक्षा करते हैं। और जिस पुस्तक के सौ रुपये लगते थे, उस पुस्तक का छापा होने से पांच रुपये में मिलता है। परन्तु अंगरेजों से भी एक काम अच्छा नहीं हुआ जो कि चित्रकूट पर्वत पर महाराज अमृतराज जी के पुस्तकालय को जला दिया। उसमें करोड़ों रूपये के लाखों अच्छे-अच्छे पुस्तक नष्ट कर दिये।

 

जो आर्यावर्त्त वासी लोग इस समय सुधर जायें तो सुधर सकते हैं और जो पाखण्ड ही में रहेंगे तो इनका अधिक-अधिक नाश ही होगा, इसमें कुछ सन्देह नहीं। क्योंकि बड़े-बड़े आर्यावर्त्त देश के राजा और धनाढ्य लोग ब्रह्मचर्याश्रम, विद्या का प्रचार, धर्म से सब व्यवहारों का करना और वैश्या तथा पर-स्त्री-गमन आदि का त्याग करें तो देश के सुख की उन्नति हो सकती है। परन्तु जब तक पाषाण आदि मूर्तिपूजन, वैरागी, पुरोहित, भट्टाचार्य और कथा कहने वालों के जालों से छूटें, तब उनका अच्छा (भाग्योदय) हो सकता है, अन्यथा नहीं।

 

प्रश्न-मूर्ति पूजन आदि सनातन से चले आए हैं उनका खण्डन क्यों करते हो? उत्तर–यह मूर्तिपूजन सनातन से नहीं किन्तु जैनों के राज्य से ही आर्यावर्त्त में चला है। जैनों ने परशनाथ, महावीर, जैनेन्द्र, ऋषभदेव, गोतम, कपिल आदि मूर्तियों के नाम रक्खे थे। उनके बहुत-बहुत चेले हुये थे और उनमें उनकी अत्यन्त प्रीति भी थी। इस लिये उन चेलों ने अपने मन्दिर बनाके अपने गुरुओं की मूर्ति पूजने लगे। फिर जब उनका शंकराचार्य ने पराजय कर दिया, इसके पीछे उक्त प्रकार से ब्राह्मणों ने मूर्तियां रची और उनके नाम महादेव आदि रख दिए। जैनों की उन मूर्त्तियों से कुछ विलक्षण बनाने लग गये और पुजारी लोग जैन तथा मुसलमानों के मन्दिरों की निन्दा करने लगे।

 

वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। हस्तिना ताड्यमानोऽपि गच्छेज्जैनमन्दिरम्।।1।। इत्यादि श्लोक बनाए हैं कि मुसलमानों की भाषा बोलनी और सुननी भी नहीं चाहिए और यदि पागल हाथी किसी के पीछे मारने को दौड़े, तो यदि वह जैन के मन्दिर में जाने से बच भी सकता हो तो भी जैन के मन्दिर में न जाये किन्तु हाथी के सन्मुख मर जाना उससे अच्छा है। ऐसे निन्दा के श्लोक (इन मूर्ति पूजकों ने) बनाए हैं। सो पुजारी, पण्डित और सम्प्रदायी लोगों ने चाहा कि इनके खण्डन के विना हमारी आजिविका न बनेगी। यह केवल उनका मिथ्याचार है। मुसलमानों की भाषा (उर्दू, अरबी व फारसी आदि) पढ़ने में अथवा किसी अन्य देश की भाषा पढ़ने में कुछ दोष नहीं होता, किन्तु कुछ गुण ही होता है। अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्मः। यह व्याकरण महाभाष्य (आन्हिक 1) का वचन है। इसका यह अभिप्राय है कि अपशब्द ज्ञान अवश्य करना चाहिए, अर्थात् सब देश देशान्तर की भाषा को पढ़ना चाहिए, क्योंकि उनके पढ़ने से बहुत व्यवहारों का लाभ होता है और संस्कृत शब्द के ज्ञान का भी उनको (जिनसे व्यवहार करते हैं) यथावत् बोध होता है। जितनी देशों की भाषायें जानें, उतना ही उन पुरुषों को अधिक ज्ञान होता है, क्योंकि संस्कृत के शब्द बिगड़ के ही सब देश भाषायें होती हैं, इससे इनके ज्ञानों से परस्पर संस्कृत और भाषा के ज्ञान में उपकार ही होता है। इसी हेतु महाभाष्य में लिखा है कि अपशब्द-ज्ञानपूर्वक शब्दज्ञान में धर्म होता है अन्यथा नहीं। क्योंकि जिस पदार्थ का संस्कृत शब्द जानेगा और उसके भाषा शब्द को न जानेगा तो उसको यथावत् पदार्थ का बोध और व्यवहार भी नहीं हो सकेगा। महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर और विदुर आदि अरबी आदि देश भाषा को जानते थे। इस लिए जब युधिष्ठिर आदि लाक्षा गृह की ओर चले, तब विदुर जी ने युधिष्ठिर जी को अरबी भाषा में समझाया और युधिष्ठिर जी ने अरबी भाषा से प्रत्युत्तर दिया, यथावत् उसको समझ लिया। राजसूय और अश्वमेध यज्ञ में देश-देशान्तर तथा द्वीप-द्वीपान्तर के राजा और प्रजास्थ पुरुष आर्यावर्त्त में आए थे। उनका परस्पर (अनेक) देश भाषाओं में व्यवहार होता था तथा द्वीप-द्वीपान्तर में यहां के जन जाते थे और वह इस देश में आते थे फिर जो देश-देशान्तर की भाषा न जानते होते तो उनका व्यवहार सिद्ध कैसे होता? इससे क्या आया कि देश-देशान्तर की भाषा के पढ़ने और जानने में कुछ दोष नहीं, किन्तु बड़ा उपकार ही होता है।

 

महर्षि दयानन्द इसी क्रम में आगे लिखते हैं कि जितने पाषाण मूतिर्यों के मन्दिर हैं वे सब जैनों ही के हैं, सो किसी मन्दिर में किसी को जाना उचित नहीं, क्योंकि सब में एक ही लीला है। जैसी जैन मन्दिरों में पाषाणादि मूर्तियां हैं, वैसी आर्यावर्त्तवासियों के मन्दिरों में भी जड़ मूर्तिंया हैं। कुछ विलक्षण-विलक्षण नाम इन लोगों ने रख लिये हैं और कुछ विशेष नहीं। केवल पक्षपात ही से ऐसा करते हैं कि जैन मन्दिरों में न जाना और अपने मन्दिरों में जाना। यह सब लोगों ने आजाविका के हेतु अपना-अपना मतबलसिंधु बना लिया है।

 

यह उल्लेखनीय है कि महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को ईश्वर ज्ञान वेदों के विरूद्ध, ज्ञान विरूद्ध, युक्ति, तर्क व प्रमाणों के विरूद्ध अनुपयोगी व ईश्वर की प्राप्ति में सहायक नहीं अपितु बाधक एवं इसे ऐसी खाई बताते हैं जिसमें गिरकर मूर्तिपूजक के जीवन का अन्त हो जाता, लाभ कुछ नहीं होता। वह ज्ञानस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दादि स्वरूप, सब सुखों को देने वाले ईश्वर की महर्षि पतंजलि की योगविधि से वेदसम्मत स्तुति, प्रार्थना व उपासना के अनुगामी व प्रचारक थे। धार्मिक विषयों पर उनका विश्लेषण व निष्कर्ष था कि देश का पतन व परतन्त्रता का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष तथा सामाजिक असमानता जैसे अन्धविश्वास व मिथ्याचार आदि कार्य व व्यवहार थे। व्यक्ति, समाज व देश को सुदृण बनाने के लिए अज्ञान व अन्धविश्वासों से बचना व इन्हें छोड़ना आवश्यक है। इसके साथ लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द का भारत के यथार्थ इतिहास पर महत्वपूर्ण उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) का सारा जीवन ईश्वर की खोज, मृत्यु पर विजय, योग, अध्ययन-अध्यापन, उपदेश, वेद-धर्म प्रचार, शास्त्रार्थ, समाज सुधार व अनुमानतः सन् 1857 के देश की आजादी के लिए संग्राम में गुप्त रूप से कार्य करने में व्यतीत हुआ था। महर्षि दयानन्द बाल ब्रह्मचारी थे। वह जन्म से ही प्रतिभाशाली, सुदृण व स्वस्थ शरीर, गौर वर्ण, आकर्षक व्यक्तित्व वाले व सत्य के प्रति दृण आस्थावान थे। महर्षि दयानन्द जी की मातृभाषा गुजराती थी। उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया था और इस भाषा के वार्तालाप, प्रवचन-उपदेश करने व लेखन करने में उन्हें पूरा अधिकार व सिद्धहस्ताता प्राप्त थी। महाभारत काल के बाद देश के वेदों के वह शीर्षस्थ विद्वान थे। उनकी तुलना का वेदों का विद्वान महाभारत काल व उनसे पूर्व व अद्यावधि भी इतिहास के पन्नों पर अंकित नहीं है। वेद ही उनके जीवन का आधार था। उनके सभी कार्य वेदों से प्रेरित व संचालित थे। उन्होंने मध्याकालीन व बाद के ब्राह्मणों ने वेदों के जो मिथ्यार्थ कर उसे कलंकित किया था, उस कलंक को पूरी तरह धोकर शुद्ध व निर्मल स्वरूप प्रदान किया। आज स्थिति यह है कि वेदों की अन्तःसाक्षी के आधार पर कहा जा सकता है कि वेदों के समान कोई भी धर्म-मत-सम्प्रदाय का ग्रन्थ इस पृथिवी पर नहीं है। वेद सर्वोपरि हैं एवं सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना ही एकमात्र परम पुनीत मानव मात्र का यथार्थ धर्म है। वह जहां भी जाते थे, शुद्ध व सरल संस्कृत ही बोला करते थे। यद्यपि सभी विद्वान संस्कृत समझते थे परन्तु जब वह साधारण जनता में संस्कृत में उपदेश करते थे तो उन्हें संस्कृत से हिन्दी के अनुवादक की आवश्यकता होती थी। इस कार्य के लिए वह पौराणिक विद्वानों की सेवायें लेते थे जो स्वामी जी के कहे गये शब्दों को ही अनुवाद न कर उनके विचारों को अपनी मान्यताओं के अनुरूप तोड़ते मरोड़ते थे। अतः ब्रह्म समाज के नेता श्री केशवचन्द्र सेन के परामर्श पर उन्होंने आर्यभाषा हिन्दी का प्रयोग करना आरम्भ किया। इसके कुछ काल बाद उन्होंने अपना मुख्य दिव्य ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित कराया। यह ग्रन्थ उनके द्वारा पण्डितों को बोलकर लिखाया गया था। लेखन के लिए उनके पास ब्राह्मण लेखक थे जिन्होंने यत्र तत्र उनके बोले गये अभिप्राय के विरूद्ध अपनी मान्यताओं के वाक्यों को प्रविष्ट कर दिया। स्वामी जी के पास अवकाश न होने के कारण न तो वह इस ग्रन्थ को लिखवाने के बाद उन लेखकों से सुन पाये और न हि छपने से पूर्व प्रूफ देख पाये थे। इस कारण प्रकाशित होने के पश्चात पाठकों ने उन्हें कुछ अशुद्धियां अवगत कराई थी। इस मुख्य व अन्य कुछ कारणों से उन्होंने कुछ समय बाद इस ग्रन्थ का दूसरा शुद्ध संशोधित संस्करध्स भी तैयार कर प्रकाशित कराया जो आजकल सर्वत्र उपलब्ध होता है। प्रथम संस्करण को आदिम सत्यार्थ प्रकाश भी कहा जाता है। इसी प्रथम संस्करण से हम आज उनका एकादश समुल्लास में प्रस्तुत देश के प्राचीन यथार्थ इतिहास पर एक धर्मोदेश प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक इतिहास विषयक कुछ नये तथ्यों से न केवल परिचित हो सकें अपितु महर्षि के इतिहास विषयक ज्ञान व उनकी भाषा से भी कुछ कुछ परिचित हो सकें। इस लेख के शेष भाग आगे के लेखों में जारी रखेंगे।

 

उनका धर्मोपदेश प्रस्तुत है-सरस्वतीदृषद्वत्योदेवनद्योर्यदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते। (मनुस्मृति 2/17) सरस्वती जो कि गुजरात और पंजाब के पश्चिम भाग में नदी है, उससे लेके नैपाल के पूर्वभाग की नदी से लेके समुद्र तक इन दोनों के बीच में जो देश है, सो आर्यावर्त्त देश है और वे देवनदी कहाती है। अर्थात् दिव्य देश के प्रान्त भाग में होने से देव नदी इनका नाम है। सो देश देव निर्मित है अर्थात् दिव्य गुणों से रचित है, क्योंकि भूगोल के बीच में ऐसा श्रेष्ठ देश कोई नहीं है, जिस देश में सब श्रेष्ठ पदार्थ होते हैं और छः ऋतु यथावत् वर्तमान होते हैं और केवल सुवर्ण रत्न पैदा होते हैं। इस देश में जिसका राज्य होता है, वह दरिद्र होय तो भी धन से पूर्ण हो जाता हैै। इसी हेतु इसका नाम आर्यावर्त्त है, आर्य नाम श्रेष्ठ मनुष्य और श्रेष्ठ पदार्थ इनसे युक्त अर्थात् आर्यावर्त्त है। इस हेतु इस देश का नाम आर्यावर्त कहते हैं।

 

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

                        स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। (मनुस्मृति 2/20)

 

इस देश में अग्रजन्मा नाम सब श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न जो पुरुष उत्पन्न होवें (उनका है), उससे सब भूगोल की पृथिवी के मनुष्य शिक्षा अर्थात् विद्या तथा संसार के सब व्यवहारों का यथावत् विज्ञान (प्राप्त) करें। इससे क्या जाना जाता है कि प्रथम इस (देश) में मनुष्यों की सृष्टि भई (हुई) थी। पीछे सब द्वीप-द्वीपान्तर में सब मनुष्य फैल गए, क्योंकि पृथिवी में जितने मनुष्य हैं, वे इस देश वालों से विद्यादिक शिक्षा ग्रहण करें और सब देश भाषाओं का मूल जो संस्कृत (है) सो आर्यावर्त्त ही में सदा से चला आता है। आजकाल भी कुछ-कुछ देखने में आता है, परन्तु फिर भी सब देशों में संस्कृत का प्रचार अधिक है। जर्मनी और विलायत आदिक देशों में संस्कृत के पुस्तक इतने नहीं मिलते जितने कि आर्यावत्र्त देश में मिलते हैं और जो किसी देश में संस्कृत के बहुत पुस्तक होंगे सो आर्यावर्त्त ही से लिए होंगे, इसमें कुछ सन्देह नहीं। सो इस देश से मिश्र देश वालों ने पहिले विद्या ग्रहण की थी। उससे यूनान देश, उससे रूम, फिर रूम से फिरंग (अंगे्रज) स्थान आदि में विद्या फैली है। परन्तु संस्कृत के बिगड़ने से गिरीश (ग्रीस), लाटीन, अंगरेज और अरब देश वालों की भाषा बन गई हैं। सो इनमें अधिक लिखना कुछ आवश्यक नहीं क्योंकि इतिहासों के पढ़ने वाले सब जानते हैं और पता भी ऐसा ही मिलता है। एक गोल्ड्स्टकर साहेब ने पहिले ऐसा ही निश्चय किया है कि जितनी विद्या वा मत फैले हैं, भूगोल में, वे सब आर्यावर्त्त ही से लिए हैं। और काशी में वालेण्टेन् साहेब ने यही निश्चय किया है कि संस्कृत सब भाषाओं की माता है। तथा दाराशिकोह बादशाह ने भी यह निश्चय किया है कि जो विद्या है सो संस्कृत ही है क्योंकि मैंने सब देशों की भाषाओं का पुस्तक देखा तो भी मुझको बहुत सन्देह रह गए, परन्तु जब मैंने संस्कृत देखा तब मेरे सब सन्देह निवृत्त हो गए और अत्यन्त प्रसन्नता मुझको भई। और काशी में मान मन्दिर जो रचा है, उसमें महाराज सवाई मानसिंह जी ने खगोल के कला और यन्त्र ऐसे रचे थे कि जिस में खगोल का सब हाल देख पड़ता था। परन्तु आजकाल उसकी मरम्मत न होने से बहुत कला यन्त्र बिगड़ गए हैं तो भी कुछ-कुछ देख पड़ता है। फिर आजकाल महाराज सवाई रामसिंह जी ने कुछ मरम्मत स्थान की कराई है जो उस यन्त्र की भी करावेंगे तो कुछ रोज (काली तक) बना रहेगा, अन्यथा नहीं।

 

जबसे महाभारत युद्ध भया (हुआ) है उस दिन से आर्यावर्त्त को बुरी दशा आई है सो नित्य-नित्य बुरी ही दशा होती जाती है। क्योंकि उस युद्ध में अच्छे-अच्छे विद्वान् राजा और ब्राह्मण लोग प्रायः मारे गए। फिर कोई राजा पूर्ण विद्या वाला इस देश में नहीं भया। जब राजा, विद्वान् और धर्मात्मा नहीं भया, तब विद्या का प्रचार भी नष्ट होता चला (गया)। फिर कुछ दिन के पीछे आपस में लड़ने लगे, क्योंकि जब विद्या नहीं होती तब ऐसे ही बहुत प्रमाद होते हैं। जो कोई प्रबल भया, उसने निर्बल का राज छीन के उसको मारा। फिर प्रजा में भी गदर होने लगा कि जहां जिसने जितना पाया, उसका वह राजा वा जमींदार बन बैठा। फिर ब्राह्मण लोगों ने भी विद्या का परिश्रम छोड़ दिया। पढ़ना पढ़ाना भी नष्ट होता चला। जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन होते चले, तब क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी विद्याहीन होते चले, केवल दम्भ, कपट और छल ही से व्यवहार करने लगे। फिर जितने अच्छे काम होते थे वे सब बन्ध (बन्द) होते चले। वेदादिक विद्या का प्रचार भी बहुत थोड़ा होता चला गया।

 

फिर ब्राह्मण लोगों ने विचार किया कि आजीविका की रीति निकालनी चातिहए, सो सम्मति करके यही विचार किया कि ब्राह्मण वर्ण में जो उत्पन्न होता है सोई (वही) देव है, सबका पूज्य है, क्योंकि पूर्ण विद्या से ब्राह्मण वर्ण होता है। यह वर्णाश्रम की सनातनी रीति है, सोई ऋषि मुनियों के पुस्तकों में भी लिखी है। सो विद्यादिक गुणों से तो वर्ण व्यवस्था नहीं रक्खी, किन्तु कुल में जन्म होने से वर्ण व्यवस्था प्रसिद्ध कर दी है। फिर जन्म ही से ब्राह्मणादिक वर्णों का अभिमान करने लगे। फिर विद्यादिक गुणों में पुरुषार्थ सबका छूटा, उसके छूटने से प्रायः राजा और प्रजा में मूर्खता अधिक-अधिक होने लगी। फिर उन्हीं से ब्राह्मण लोग अपने चरण और शरीर की पूजा कराने लगे। जब पूजा होने लगी तब अत्यन्त अभिमान उनमें होने लगा। उन विद्याहीन राजाओं को और प्रजास्थ पुरुषों को (अपने) वशीभूत ब्राह्मणों ने कर लिए। यहां तक कि सोना, उठना और कोस दो कोस तक जाना, वह भी ब्राह्मणों की आज्ञा के विना नहीं करना और जो कोई करेगा सो पापी हो जायगा। फिर शनैश्चरादिक ग्रह और नाना प्रकार के भूत प्रेतादिकों का जाल उनके ऊपर फैलाने लगे और वे मूर्खता के होने से मानने भी लगे। फिर राजा लोगों को ऐसा निश्चय सब लोगों ने मिल के कराया कि ब्राह्मण लोग कुछ भी करें, परन्तु इनको दण्ड न देना चाहिए। जब दण्ड नहीं होने लगा, तब ब्राह्मण लेाग अत्यन्त प्रमाद करने लगे और क्षत्रियादिक भी। फिर बड़े-बड़े ऋषि मुनि और ब्रह्मादिक के नामों से श्लोक और ग्रन्थ रचने लगे, उनमें प्रायः यही बात लिखी कि ब्राह्मण सब का पूज्य और सदा अदण्ड्य है। फिर अत्यन्त प्रमाद और विषयासक्ति से विद्या, बल, बुद्धि पराक्रम और शूरवीरता नष्ट हो गई और परस्पर ईर्ष्या (में वृद्धि) अत्यन्त हो गई। किसी को कोई (सहानुभूतिपूर्वक) देख न सके और कोई कोई के (अन्य किसी के) सहायकारी न रहे, परस्पर लड़ने लगे। यह बात चीन आदिक देशों में रहने वाले जैनों ने सुनी और व्यापारादिक करने के हेतु (जो) इस देश में आते थे सो (उन्होंने) प्रत्यक्ष भी देखी। फिर जैनों ने विचार किया कि इस समय आर्यावर्त्त देश में राज्य सुगमता से हो सकता है फिर वे (चीन से?) आए और राज्य भी आर्यावत्र्त में करने लगे। फिर धीरे-धीरे बोधगया में राज्य जमाके और (उसे) देश-देशान्तर में फैलाने लगे। सो वेदादिक संस्कृत पुस्तकों की निन्दा करने लगे और अपने पुस्तकों के पठन पाठन का प्रचार तथा अपने मत का उपदेश भी करने लगे। सो इस देश में विद्या के नहीं होने से बहुत मनुष्यों ने उनके मत को स्वीकार कर लिया। परन्तु कन्नौज, काशी, पर्वत, दक्षिण और पश्चिम देश के पुरुषों ने स्वीकार नहीं किया था, परन्तु वे बहुत थोड़े ही थे। फिर इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था और वेदोक्त, कर्मों को मिथ्या-मिथ्या दोष लगा के अश्रद्धा और अप्रवृति बहुत करा दी। फिर यज्ञोपवीतादिक कर्म भी प्रायः नष्ट हो गया और जो-जो वेदादिकों का पुस्तक पाया और पूर्व के इतिहासों का, उनका प्रायः नाश कर दिया। जिससे कि इनको पूर्व अवस्था का स्मरण भी न रहे।

 

फिर जैनों का राज्य इस देश में अत्यन्त जम गया। तब जैन भी बड़े अभिमान में हो गए और कुकर्म, अन्याय भी करने लगे, क्योंकि सब राजा और प्रजा उनके मत में ही हो गए, फिर उनको डर वा शंका किसी की न रही। अपने मतवालों को अच्छे-अच्छे अधिकार और प्रतिष्ठा करने लगे और वेदादिकों को पढ़े तथा उनमें कहे कर्मों को करें, उनकी अप्रतिष्ठा करने लगे। अन्याय से भी उनके ऊपर जाल (मिथ्या आरोप) स्थापन करने लगे। अपने मत के पण्डित वा साधु की बड़ी प्रतिष्ठा करने लगे, सो आज तक भी ऐसा करते हैं। और बहुत स्थान-स्थान में बड़े-बड़े मन्दिर रच लिए और उनमें अपने आचार्यों की मूर्ति स्थापन कर दी तथा उनकी पूजा भी अत्यन्त करने लगे। सो जैनों के राज्य ही से मूर्ति पूजन चला, इसके आगे (पूर्व) न था। क्योंकि जितने ऋषि मुनियों के किए प्राचीन ग्रन्थ हैं, महाभारत युद्ध के पहिले जो कि रचे गए हैं, उनमें मूर्तिपूजन का लेशमात्र भी कथन नहीं है। इससे दृढ़ निश्चय से जाना जाता है इस आर्यावर्त्त देश में (इनसे पूर्व) मर्तिपूजन नहीं था, किन्तु जैनों के राज्य से ही चला (मूर्तिपूजा की प्रवृत्ति हुई) है।

 

आज के इस लेख में महर्षि दयानन्द ने इतिहास के अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है जो अन्यत्र असुलभ है। मातृ भाषा गुजराती व संस्कृत के विद्वान होने तथा सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण लिखने तक हिन्दी भाषा का अभ्यास न होने के कारण भाषा वर्तमान की अपेक्षा कुछ असहज है। पाठक इसे पढ़कर इतिहास के तथ्यों से परिचित होंगे। इसी प्रकार के अनेक तथ्यों से हम कल के लेख में परिचय करायेंगे। आशा है पाठकों का इससे ज्ञानवर्धन होगा और वह इसे सत्य व उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि को उसी अवस्था में छोड़कर प्रतापसिंह जुआ खेलने पूना क्यों चला गया? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

कारण क्या थे?ः- जोधपुर के कर्नल प्रतापसिंह के एक सुपरिचित व प्रशंसक उच्च शिक्षित व्यक्ति ने एक प्रश्न उठाया है। हमारीाी उत्कृष्ट इच्छा है कि कोई इतिहास प्रेमी विद्वान् विचारक उनके प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर दे। महर्षि दयानन्द जी महाराज को जोधपुर में विषय दिया गया। विष देने के षड्यन्त्र में कौन-कौन समिलित था, इस प्रश्न को आप एक बार छोड़ दीजिये। उपरोक्त विद्वान् का प्रश्न बड़ा गभीर व महत्त्वपूर्ण है। जब ऋषि को विष दिया गया तब कर्नल प्रतापसिंह महर्षि का पता करने क्यों न आया?

आया तोकितने दिन के पश्चात् व कब आया? उसकी क्या विवशता थी जो महाराज का पता क रने न आ सका?

इसके साथ हम एक प्रश्न और जोड़ देते हैं। महर्षि को उसी अवस्था में छोड़कर प्रतापसिंह जुआ खेलने पूना क्यों चला गया। प्रतापसिंह के प्रशंसक भक्त इस प्रश्न को पढ़ सुनकर चौंक जाते हैं। वे कहते हैं वह तो पोलेा खेलने गया था। लोगों को मूर्ख बनाने के लिये आप चाहे पोलो कहो, था तो जूआ ही। जूआ तो क्रि केट व ताश पर भी खेला जाता है। रैफल क्या जूआ नहीं? लाटरी क्या है?

उसके वकील प्रताप सिंह की बढ़ाई करते हुए उसकी पूना यात्रा का वर्णन तक नहीं करते। इसका क्या कारण है? आशा है कि सत्यान्वेषी सज्जन प्रतापसिंह का गुणकीर्तन करने वाले वकीलों से इस प्रश्न का उत्तर लेकर रहेंगे। जिस विद्वान् सज्जन ने यह प्रश्न उठाया है उसका नाम हम आगे कभी बतायेंगे। था वह भी प्रतापसिंह प्रशंसक।

नारी जाति के उन्नायक महर्षि दयानन्द – डॉ. जगदेवसिंह विद्यालंकार

महाभारत काल से पूर्व हमारा देश भारतवर्ष शिक्षा, संस्कृति और सयता की दृष्टि से पूर्ण विकसित था। भारतीय संस्कृति और सयता विश्व की प्राचीनतम और सर्वोन्नत सयता-संस्कृति मानी जाती है। इसीलिए समस्त विश्व इस देश को जगद्गुरु मानता था। मनुमहाराज ने भी घोषणा की थी-

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

– मनु. (2.20)

उस समय नारी की दशा भी समानित, प्रतिष्ठित ओर स्पृहणीय थी। लगभग पच्चीस मन्त्र द्रष्ट्री ऋषिकाओं का वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है। गार्गी, मैत्रेयी, सीता, अनसूया, सावित्री और मदालसा आदि प्रमुख उदाहरण नारी की उन्नत अवस्था के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

महाभारत काल से इस देश का सर्वाङ्गीण पतन प्रारभ हो गया था और उसके साथ ही नारी की दशा भी उत्तरोत्तर निम्न होती चली गयी। हमारी पौराणिक संकीर्ण विचारधारा ने इस पतन को और अधिक गतिशील कर दिया। वेदों और उपनिषदों के उद्भट विद्वान् स्वामी शंकराचार्य ने वेदोद्धार के बहुत प्रशंसनीय कार्य किये। परन्तु नारी के महत्व को उन्होंने भी नहीं समझा और उसे ‘नरक का द्वार’ जैसा निन्दनीय विशेषण दे डाला। इतना ही नहीं ‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्’ कहकर नारी को धार्मिक शिक्षा के अधिकार से भी वंचित कर दिया । इसी परपरा में उत्तर मध्यकाल में आकर सन्त तुलसीदास ने – ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ कहकर नारी के समान को बहुत बड़ा आघात पहुँचाया। इन सबका परिणाम यह निकला कि सामान्य समाज में नारी को पैर की जूती समझा जाने लगा।

जिस समय इस भारत भू पर महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ उस समय नारी की अवस्था अत्यन्त दयनीय एवं शोचनीय थी। उन्होंने यह भलिभाँति अनुभव कर लिया था कि स्त्री का उत्थान हुए बिना समाज अथवा राष्ट्र का उद्धार सभव नहीं, क्योंकि स्त्री भी पुरुष की भाँति समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है महर्षि दयानन्द पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने नारी-उत्थान की क्रान्ति को जन्म दिया। महर्षि ने नारी के  उद्धार के लिए अनेक प्रयत्न किए जो यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है-

स्त्री-शिक्षाः- स्वामी दयानन्द ने इस रहस्य को उद्घाटित किया कि शिक्षा के बिना व्यक्ति अधूरा है। नारी भी जब तक शिक्षित नहीं होगी तब तक जागरुक नहीं हो सकती, वह अपने अस्तित्व को, अपने महत्त्व को नहीं समझ सकती। अतः वेदों की विद्या जो ताले में बन्द थी देव दयानन्द ने उसकी कुञ्जी न केवल पुरुषों के लिए अपितु स्त्रियों के लिए भी सुलभ कराते हुए वेद का प्रमाण प्रस्तुत किया-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेयः।

ब्रह्म राजन्यायां शूद्राय, चार्याय च स्वाय चारणायच।।

– यजुः अ. 26-2

अर्थात् परमात्मा ने वेदों का प्रकाश मानव मात्र के लिए किया है। स्वामी जी ने सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता सिद्ध करते हुए सत्यार्थ-प्रकाश के तृतीय-समुल्लास में लिखा है- ‘‘इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवे अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रख सके पाठशाला में अवश्य भेज देवे, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’’ स्त्रियों को सभी प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता पर बल देते हुए वे आगे लिखते हैं- ‘‘जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और अपने व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिए, वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिए।’’ स्वामी जी के उक्त कथन में उनकी इस भावना की अभिव्यक्ति है कि गृह-सबन्धी आय-व्यय क लिए गणित, सन्तान को सयक्  आचरण सिखाने के लिए धर्म, गृह के सभी प्राणियों के लिए पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक भोजन-पान तथा रोगी के पथ्यापथ्य के हेतु वैद्यक, गृह-निर्माण तथा अन्य वस्त्र भूषणादि सबन्धी आवश्यकताओं के लिए शिल्प व कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक नारी के लिए उचित है।

स्त्री और धर्म :- महर्षि दयानन्द धर्म के संबंध में भी स्त्रियों को पुरुषों के समान ही धर्म-ग्रन्थों के पठन-पाठन, धार्मिक क्रियाओं के सपादन और गायत्री मन्त्र जाप आदि तथा अग्निहोत्रादि की अधिकारिणी मानते थे। महर्षि के वैदिक सिद्धान्त के अनुसार कोई भी धार्मिक-अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता । ‘इमं मन्त्रं पत्नी पठेत’ आदि श्रौतसूत्र में वर्णित यह वाक्य इसमें स्पष्ट प्रमाण हैं। वे नारी के धार्मिक कार्यों में पुरुषों की सहभागिनी होने के प्रबल समर्थक अवश्य थे किन्तु धार्मिक कार्यों की आड़ में गृहस्थ धर्म की उपेक्षा उन्हें अग्राह्म थी। दोनों प्रकार के कर्त्तव्यों के मध्य एक सामञ्जस्य सेतु आवश्यक है। स्वामी जी की प्रेरणा के कारण ही आज आर्य समाज साधारण प्रशिक्षण के बाद महिलाओं को भी पौरोहित्य की अनुमति देता है। वैदिक परपरा में स्त्रियों को ब्रह्मा पद पर आसीन करने का उल्लेख भी मिलता है।

स्त्री और गृहस्थ धर्मःमहर्षि दयानन्द गृहाश्रम को विषयभोगों की पूर्ति का केन्द्र न मानकर जीवन के समस्त कर्त्तव्यों, लोकमंगल और पवित्रता का एक माध्यम मानते थे। उनकी ‘संस्कार विधि’ नामक पुस्तक के विवाह प्रकरण में उद्धृत मन्त्र दापत्य जीवन के उदान्त उद्देश्य और मर्यादा का परिचायक है-

समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा संघाता समु देष्ट्री दधातु नौ।

– ऋग्वेद 20-85-47

अर्थात् दपति इस शुभ संकल्प के साथ वैवाहिक जीवन में प्रवेश करते हैं कि उन दोनों का प्रत्येक शुभ कार्य में विचारों का पूर्ण सामञ्जस्य इस प्रकार होगा जैसे दो पात्रों का जल एक पात्र में मिलकर एकरूप हो जाता है।

पुनर्विवाहः विधवाओं की दीनदशा देखकर ऋषि का हृदय रो उठा था। बाल-विवाह की कुप्रथा के कारण छोटी-छोटी कन्याएँ सारा जीवन वैधव्य से अभिशप्त होकर नरक भोगने के लिए बाध्य थीं। ऋषि ने पुनर्विवाह की अनुमति देते हुए उपदेश मञ्जरी के बारहवें व्यायान में बलपूर्वक यह कहा था- ‘‘ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष बराबर हैं, क्योंकि वह न्यायकारी है उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरुषों को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जावे तो स्त्रियों को दूसरे विवाह से क्यों रोका जावे।’’ महर्षि की इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर आर्य समाज ने विधवा विवाह को समाज में प्रतिष्ठित कर दिया।

पर्दा-प्रथा का विरोधः- इस कुरीति के उच्छेद के लिए महर्षि दयानन्द के समकालीन राजा राज मोहन राय भी बंगाल में प्रयत्नशील थे। परन्तु उन दोनों के  प्रयासों में पूर्व और पश्चिम का अन्तर था। राजा राममोहन राय पाश्चात्य सयता में रंगे थे और स्वामी दयानन्द के प्रयत्न भारतीय संस्कृति की सुदीर्घ परपरा के परिप्रेक्ष्य में किये जा रहे थे। अतः महर्षि दयानन्द पर्दा-प्रथा का विरोध और महिलाओं की पूर्ण स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए भी उनकी स्वेच्छाचारिता और उच्छ्रंखलता को स्वीकार नहीं करते थे।

सती-प्रथा का विरोधः- स्वामी दयानन्द के आगमन के समय समाज के कई वर्गों में पति की मृत्यु होने पर जीवित पत्नी को पति की चिता में जला दिया जाता था। इस जघन्य, नृशंस और अमानवीय प्रथा का महर्षि ने प्रबल विरोध किया। उनके इस सुधार कार्य से प्रेरित होकर अंग्रेज सरकार ने भी इस कुप्रथा को मिटाने का प्रयास किया।

वेश्यावृत्ति का विरोधःभारतीय समाज के मस्तक पर लगे वेश्यावृत्ति के कलंक ने स्वामी दयानन्द का हृदय झकझोर दिया था। अशिक्षा, निर्धनता, वैघव्य और सामाजिक अत्याचारों से पीड़ित होकर अनचाहे अनेक नारियों को पेट पालने के लिए यह घृणित व्यवसाय अपनाने को विवश होना पड़ता है। स्वामी दयानन्द वेश्यावृत्ति को प्रश्रय देने वाले विलासी पुरुषों को इसका उत्तरदायी मानते थे। भारत के माथे से इस कलंक को मिटाने का उन्होंने बहुत प्रयास किया। फर्रूखाबाद निवासी सेठ दीनानाथ के कुपथगामी युवा पुत्र ने स्वामी जी के उपदेश से प्रभावित होकर वेश्यागमन छोड़ दिया था। नन्हींजान नामक वेश्या के चंगुल में फंसे महाराजा जोधपुर को महर्षि ने जो कड़ी फटकार दी थी, वह तो उनकी प्रमुख वेश्यावृत्ति विरोधी घटना है। भले ही यह घटना ऋषि के प्राणान्त का कारण बनी हो, परन्तु उन्होनें कभी किसी बुराई से समझौता नहीं किया।

वर्तमान संदर्भ में नारीःस्वामी दयानन्द ने नारी जागरण के लिए जिस वैचारिक एवं सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, ऋषि के उस मिशन को आगे बढ़ाते हुए आर्य समाज ने अनेक कन्या विद्यालयों एव कन्या गुरुकुलों की स्थापना की। आज तो उसके सुन्दर परिणाम हमारे समुख हैं। शिक्षा के क्षेत्र में आज नारी पुरुष से पीछे नहीं है बल्कि पिछले दशक से तो ऐसा लगने  लगा है कि नारी इस प्रतिस्पर्धा में पुरुष से आगे निकलने लगी है। परन्तु खेद की बात यह है कि महर्षि दयानन्द के मस्तिष्क में जिस शिक्षा का कार्यक्रम था वह लुप्त होता जा रहा है।

अतः समाज का यह दायित्व है कि उचित शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए वह कटिबद्ध हो। धर्म के क्षेत्र में आज की नारी के विचार सुलझे हुए नहीं है। साक्षर होते हुए भी नारी धार्मिक आडबरों की शिकार अधिक है। आवश्यकता है धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने और तदनुरूप आचरण करने की ताकि घोर सांसारिकता के तनावपूर्ण क्षणों से मुक्ति पाई जा सके।

स्वामी दयानन्द द्वारा प्रदत्त नारी जागृति का यह अभियान तभी सार्थक होगा जबकि स्वयं नारी बालक की प्रथम शिक्षिका बनने से लेकर सामाजिक चेतना को उचित दिशा देने का गुरुतर दायित्व वहन करे।

नारी विषयक उक्त समस्त समस्याओं के मूल में अशिक्षा अथवा उचित शिक्षा का अभाव ही मुय कारण रहा है। अभी नारी की स्थिति में परिवर्तन का संघर्ष काल चल रहा है और समय की परिवर्तनशील गति के साथ समस्याएँ भी बदलती रही है। अब समय आ गया है कि समाज की जागरूक संस्थाओं के विद्वान् और चिन्तक आज की नारी समस्याओं को पहचान कर तद्विषयक उचित समाधानों के सुझाव और प्रसार का प्रयत्न करें। स्वामी दयानन्द के नारी सबन्धी क्रान्तिकारी कार्यक्रम आधुनिक प्रगतिशील संस्कृति में और भी अधिक प्रासंगिक सिद्ध हो रहे हैं। इसलिए हम निर्विवाद रूप से यह घोषणा कर सकते हैं कि वर्तमान युग की नारी – उत्थान क्रान्ति के सर्वाधिक सक्रिय उन्नायक महर्षि दयानन्द ही थे । परवर्ती सभी सुधारकों ने उन्हीं के कार्यक्रम का अनुगमन किया है।

– पूर्व आचार्य, पं. नेकी राम शर्मा राजकीय महाविद्यालय, रोहतक, हरियाणा

यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है। प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

उत्तर ऐसा दियाः वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए शंका समाधान व प्रश्नोत्तर की कला में निष्णात होना आवश्यक है। कार्य क्षेत्र में आठ दस वर्ष तक कार्य करने का अनुभव होने पर जिसने इस कला में कोई सिद्धि प्राप्त नहीं की, उसको सफल मिशनरी तथा विद्वान् नहीं माना जा सकता। उसके लिए बोलना व लिखना एक व्यवसाय है। उसका जीवन उद्देश्यहीन जानो। यह कार्य वही कर सकता है जिसमें मिशन की पीड़ा होगी। जिसमें ज्ञान उजाला करने की ललक होगी। उसमें उत्तर देने की कला का अविर्भाव होगा ही। श्री पं. रामचन्द्र जी देहलवी एक बार पानीपत पधारे। एक घण्टे तक व्यायान दिया। फिर आधा घण्टा शंका समाधान के लिए दिया करते थे । एक श्रोता ने पूछा, आपके अपने से थोड़ा पहले यहाँ ठाकुर जी का तुलसीजी से विवाह हुआ है। भक्तों ने हर्षोल्लास से उसमें भाग लिया। आपका इसके बारे में क्या विचार है?

पण्डित जी ने कहा, ‘‘जितनी यहाँ के भक्तों को इस विवाह पर प्रसन्नता हुई मुझे उससे भी कहीं अधिक हो रही है। यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है।’’

यह उत्तर सुनकर श्रोताओं ने करतल ध्वनि से इसका स्वागत किया। फिर बोले, ‘‘विवाह का प्रयोजन सन्तान की उत्पत्ति है। ये जोड़ी अभागी ही रहेगी । ये ऊत ही रहेंगे। इनके सन्तान तो होगी नहीं।’’ इस पर फिर करतल ध्वनि हुई। सारी नगरी में पण्डित जी के इस उत्तर की चर्चा होने लगी। यह है उत्तर देने की कला की मौलिकता।