भारतीय धर्म व संस्कृति के गौरव योगेश्वर श्रीकृष्ण का आज जन्म दिवस है। हमें और हमारे देश को इस बात का गौरव है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम और वेद, वैदिक धर्म और संस्कृति के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द आदि अनेक महापुरूषों के समान विश्व में ऐसे गौरवमय जीवन उत्पन्न नहीं हुए। श्रीकृष्ण आदि सभी ऋषि, मुनि व महान युगपुरूष वैदिक धर्म व संस्कृति की ही देन थे। इसी लिए आद्य धर्मशास्त्र के निर्माता मनु ने लिखा था कि आर्यावत्र्त की पुण्य भूमि संसार के अग्रजन्मा महापुरूषों की जन्मदात्री है जहां संसार के लोग उत्कृष्ट जीवन व चरित्र की शिक्षा लेने आते हैं। हमें श्री कृष्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम और महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्रों का अध्ययन करने पर इनमें ज्ञान व चिन्तन अथवा विचारधारा में कहीं कोई विरोधाभास दृष्टिगोचर नहीं होता अभी यह सभी वेदों के अनुयायी व प्रचारक ही प्रतीत होते हैं। वेदों में ही यह शक्ति, क्षमता व सामथ्र्य है कि वेदों का अध्ययन कर मनुष्य ऋषि, मुनि, ब्रह्मचारी, देशभक्त, ईश्वरभक्त, मातृ-पितृ-आचार्य भक्त, मर्यादित-आदर्शजीवन व चरित्र का धनी, परोपकारी, सेवाभावी, सदुपदेशक, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत, अंहिसक, अस्तेयसेवी वा भ्रष्टाचारमुक्त, शुद्ध मन-वचन-कर्म का सेवनकरनेहारा बनता है। वेदों में वेद को ही ‘सा संस्कृति प्रथमा भाविवारा’ कह कर इसका गौरवगान किया गया है जो कि ऐतिहासिक दृष्टि से पुष्ट व सत्य है। इन उच्च आदर्शों व गुणों से सम्पन्न हमारी संस्कृति है व हमारे महापुरूष इसके संवाहक रहे हैं। दूसरी ओर हमारे कुछ अल्पज्ञानी लोगों ने अपने अज्ञान व कुछ स्वार्थवश श्रीकृष्ण जी के चरित्र को दूषित करने का भी प्रयास किया है जो कि उस महापुरूष के प्रति घोर निन्दनीय कार्य रहा है। श्री कृष्ण ने कभी किसी प्रकार की चोरी व जार कर्म नहीं किया। गोपियों व उद्धव आदि के जो प्रसंग लिख कर उनका प्रचार किया जाता है, वह सब प्रक्षेप व कुछ अन्धभक्ति के भावों से भरे हुए लोगों की कल्पना ही कही जा सकती हैे। इसके विपरीत श्रीकृष्ण जी तो सच्चे ब्रह्मचारी, योगेश्वर तथा राजनीति वा राजधर्म के मर्मज्ञ अग्रणीय महापुरूष थे। वह मातृशक्ति का ऐसा ही सम्मान करते थे जैसा कि वेदों में वर्णित है। वह नारी जाति वा मातृशक्ति के पुजारी थे क्योंकि उन्होंने मनु के यह वाक्य पढ़े थे कि जहां नारियों का सम्मान व पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और जहां चोर व जार कर्म होता है वहां कि सभी क्रियायें व्यर्थ व प्रतिगामी होने से देश व समाज को अधोगति में ले जाती हैं। महाभारत के कृष्ण वीर, बलशाली, बुद्धिमान, नीतिज्ञ, सुदर्शनचक्र धारी, दुष्टभंजक, साधुओं के रक्षक आदि गुणों से परिपूर्ण थे।
हम यहां श्रीकृष्ण के वैदिक धर्म के प्रति अनुराग का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में महर्षि वेद व्यास ने लिखा है कि श्री कृष्ण भीष्म से उपदेश ग्रहण करने के दिन युधिष्ठिर की राजधानी में सुखपूर्वक निद्रा लेने के पीछे, पहर रात्रि रहने पर जागे तथा प्रातः स्मरणीय मन्त्रों से सनातन ब्रह्म का ध्यान कर उन्होंने स्नान किया। फिर प्रणव गायत्री का जाप एवं सन्ध्या कर नित्य किया जाने वाला होम किया। इन पंक्तियों में महर्षि व्यास ने श्री कृष्ण जी के प्रातःकाल की दिनचर्या पर प्रकाश डाला है। श्री कृष्ण जी हमारे पूर्वज हैं अतः हमें भी उनके इन गुणों को ग्रहण व धारण करना चाहिये। यही संकल्प इस कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर हम कृष्ण भक्तों को लेना चाहिये। हम इस अवसर पर महर्षि दयानन्द के उन विचारों को भी स्मरण करना चाहते जिसमें उन्होंने कहा है कि श्री कृष्ण जी का महाभारत ग्रन्थ में इतिहास अति उत्तम है। उनके गुण, कर्म व स्वभाव आप्त पुरूषों अर्थात् वेद के ऋषियों के समान थे। उन्होंने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त कोई बुरा काम नहीं किया। इसके अतिरिक्त मूर्तिपूजा के प्रसंग में सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में वह लिखते हैं कि ‘‘संवत् 1914 (सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम) के वर्ष में तोपों के मारे मंदिर की मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं, तब मूर्ति (मूर्ति की शक्ति) कहां गई थीं? प्रत्युत् बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की, और लड़े, शत्रुओं को मारा, परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण सदृश (उन दिनों) कोई होता तो इनके (अंग्रेजों के) घुर्रे उड़ा देता और ये लोग भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिसका रक्षक मार खाय, उसके शरणागत क्यों न पीटे जायें?’’
आज शिक्षक दिवस भी है। शिक्षक आचार्य को कहा जाता है। वैदिक धर्म व संस्कृति में आचार्य को माता-पिता के समान ही सम्मान दिया जाता रहा है। माता सन्तान को केवल जन्म देती है परन्तु उसे द्विज अर्थात् ज्ञान व विद्या से सम्पन्न कर नया जन्म देने वाला आचार्य ही होता है। आज न तो अच्छे आचार्य हैं और न हि राम, कृष्ण, चाणक्य व दयानन्द जी जैसे शिष्य। गुरू का माता-पिता के समान आदर, ब्रह्मचर्य का सेवन, सत्य धर्म व अन्य विषयों के शास्त्रों व पुस्तकों का अध्ययन करने वाले छात्र आज देश में बहुत ही कम होंगे? हम जानते हैं कि श्री राम का निर्माण उनके गुरू विश्वामित्र और वशिष्ठ आदि ने किया था। इसी प्रकार श्री कृष्ण जी का निर्माण उनके गुरू सान्दिपनी जी ने किया था। महर्षि दयानन्द का निर्माण यद्यपि अनेक गुरूओं ने किया। महर्षि दयानन्द का शिष्यत्व इतिहास प्रसिद्ध शिष्यों में अपूर्व हैं। बच्चे लगभग पांच से आठवें वर्ष में आचार्यकुल वा विद्यालय में प्रवेश लेते हैं। महर्षि दयानन्द के माता-पिता ने इसी वय में उनका अध्ययन आरम्भ कराया। इक्सीस वर्ष पूर्ण होने तक उन्होंने अपने माता-पिता के द्वारा योग्य गुरूओं से अध्ययन किया। बाईसवें वर्ष में उन्होंने और अध्ययन के लिए गृह त्याग किया अन्यथा माता-पिता उन्हें विवाह के बन्धन में बांध देते और फिर वह जो बनना चाहते थे वा बने, वह कदापि नहीं बन सकते थे। गृह त्याग के बाईसवें वर्ष से लेकर अपनी आयु के 38 वर्ष पूर्ण करने पर भी वह अध्ययनरत रहे। उनके गुरू के साथ कैसे सम्बन्ध थे, यह इन दोनों गुरू-शिष्य के जीवन चरित पढ़कर ही जाना जा सकता है। इतना कह सकते हैं कि यह आदर्श व अपूर्व थे। इस बीच उन्होंने न केवल योग का पूर्ण अभ्यास कर समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार किया अपितु वेद सहित सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त किया। उनके शास्त्र ज्ञान के दाता और उसे पूर्णता देने वाले गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे। जिन लोगों ने स्वामी दयानन्द व स्वामी विरजानन्द जी के जीवन चरित्र का गम्भीरता से अध्ययन किया है वह जान सकते हैं कि विगत लगभग 5,200 वर्षों में इन दो गुरू-शिष्यों के समान अन्य कोई गुरू-शिष्य उत्पन्न नहीं हुआ। इनसे जितना देशोपकार हुआ है, उतना किसी अन्य गुरू-शिष्य के द्वारा नहीं हुआ। वेदों का उद्धार तो एकमात्र. महर्षि दयानन्द की ही देन है जिसमें उनके गुरू वा आचार्य स्वामी विरजानन्द जी का विद्यादान अदृश्य रूप में छिपा हुआ है। स्वामी दयानन्द ने महाभारत काल के बाद आलसी व प्रमादी वैदिक धर्म व संस्कृति के अनुयायियों द्वारा विकृत धर्म व संस्कृति को पूर्ण शुद्ध रूप प्रदान किया और इसे संसार का पूर्ण व एकमात्र तर्क व युक्तियों पर आधारित प्राचीनतम ईश्वर प्रदत्त विज्ञान सम्मत धर्म सिद्ध किया। यथा गुरू तथा शिष्य की कहावत के अनुसार ही शिष्य अपने गुरू के ज्ञान व आचरण के अनुरूप होता है। आज आवश्यकता है कि हमारे शिक्षक, आचार्य व गुरू आदर्श जीवन व चरित्र के धनी बने और अपने शिष्यों को भी वैसा ही बनायें। शिक्षित वा साक्षर, इंजीनियर व डाक्टर अथवा कम्प्यूटर विज्ञान में प्रवीण शिष्य व युवा तैयार करना अच्छी बात है परन्तु यदि कोई शिक्षा ग्रहण करने के बाद स्वार्थी, अर्थलोलुप या लोभी बनता है और भ्रष्टाचार-अनाचार-दुराचार व देशद्रोह के कार्य करता है तो उसे पूर्ण शिक्षित नहीं कहा जा सकता। आज देश को स्वामी विरजानन्द व स्वामी दयानन्द जैसे गुरू व शिष्यों की आवश्यकता है। इसी से देश का निर्माण होकर हम अपने प्राचीन यश व गौरव को प्राप्त कर सकते हैं।
आज शिक्षक दिवस पर हम सभी शिक्षकों व शिष्यों को शुभकामनायें और बधाई देते हैं और उनसे आग्राह करते हैं कि वह प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन कर आदर्श आचार्य, शिक्षक एवं शिष्य बनने का व्रत लें।
–मनमोहन कुमार आर्य
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