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‘योगेश्वर श्री कृष्ण जन्म दिवस पर्व और शिक्षक दिवस’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारतीय धर्म व संस्कृति के गौरव योगेश्वर श्रीकृष्ण का आज जन्म दिवस है। हमें और हमारे देश को इस बात का गौरव है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम और वेद, वैदिक धर्म और संस्कृति के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द आदि अनेक महापुरूषों के समान विश्व में ऐसे गौरवमय जीवन उत्पन्न नहीं हुए। श्रीकृष्ण आदि सभी ऋषि, मुनि महान युगपुरूष वैदिक धर्म संस्कृति की ही देन थे। इसी लिए आद्य धर्मशास्त्र के निर्माता मनु ने लिखा था कि आर्यावत्र्त की पुण्य भूमि संसार के अग्रजन्मा महापुरूषों की जन्मदात्री है जहां संसार के लोग उत्कृष्ट जीवन व चरित्र की शिक्षा लेने आते हैं। हमें श्री कृष्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम और महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्रों का अध्ययन करने पर इनमें ज्ञान व चिन्तन अथवा विचारधारा में कहीं कोई विरोधाभास दृष्टिगोचर नहीं होता अभी यह सभी वेदों के अनुयायी व प्रचारक ही प्रतीत होते हैं। वेदों में ही यह शक्ति, क्षमता व सामथ्र्य है कि वेदों का अध्ययन कर मनुष्य ऋषि, मुनि, ब्रह्मचारी, देशभक्त, ईश्वरभक्त, मातृ-पितृ-आचार्य भक्त, मर्यादित-आदर्शजीवन व चरित्र का धनी, परोपकारी, सेवाभावी, सदुपदेशक, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत, अंहिसक, अस्तेयसेवी वा भ्रष्टाचारमुक्त, शुद्ध मन-वचन-कर्म का सेवनकरनेहारा बनता है। वेदों में वेद को ही ‘सा संस्कृति प्रथमा भाविवारा कह कर इसका गौरवगान किया गया है जो कि ऐतिहासिक दृष्टि से पुष्ट व सत्य है। इन उच्च आदर्शों व गुणों से सम्पन्न हमारी संस्कृति है व हमारे महापुरूष इसके संवाहक रहे हैं। दूसरी ओर हमारे कुछ अल्पज्ञानी लोगों ने अपने अज्ञान व कुछ स्वार्थवश श्रीकृष्ण जी के चरित्र को दूषित करने का भी प्रयास किया है जो कि उस महापुरूष के प्रति घोर निन्दनीय कार्य रहा है। श्री कृष्ण ने कभी किसी प्रकार की चोरी व जार कर्म नहीं किया। गोपियों व उद्धव आदि के जो प्रसंग लिख कर उनका प्रचार किया जाता है, वह सब प्रक्षेप व कुछ अन्धभक्ति के भावों से भरे हुए लोगों की कल्पना ही कही जा सकती हैे। इसके विपरीत श्रीकृष्ण जी तो सच्चे ब्रह्मचारी, योगेश्वर तथा राजनीति वा राजधर्म के मर्मज्ञ अग्रणीय महापुरूष थे। वह मातृशक्ति का ऐसा ही सम्मान करते थे जैसा कि वेदों में वर्णित है। वह नारी जाति वा मातृशक्ति के पुजारी थे क्योंकि उन्होंने मनु के यह वाक्य पढ़े थे कि जहां नारियों का सम्मान व पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और जहां चोर व जार कर्म होता है वहां कि सभी क्रियायें व्यर्थ व प्रतिगामी होने से देश व समाज को अधोगति में ले जाती हैं। महाभारत के कृष्ण वीर, बलशाली, बुद्धिमान, नीतिज्ञ, सुदर्शनचक्र धारी, दुष्टभंजक, साधुओं के रक्षक आदि गुणों से परिपूर्ण थे।

 

हम यहां श्रीकृष्ण के वैदिक धर्म के प्रति अनुराग का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में महर्षि वेद व्यास ने लिखा है कि श्री कृष्ण भीष्म से उपदेश ग्रहण करने के दिन युधिष्ठिर की राजधानी में सुखपूर्वक निद्रा लेने के पीछे, पहर रात्रि रहने पर जागे तथा प्रातः स्मरणीय मन्त्रों से सनातन ब्रह्म का ध्यान कर उन्होंने स्नान किया। फिर प्रणव गायत्री का जाप एवं सन्ध्या कर नित्य किया जाने वाला होम किया। इन पंक्तियों में महर्षि व्यास ने श्री कृष्ण जी के प्रातःकाल की दिनचर्या पर प्रकाश डाला है। श्री कृष्ण जी हमारे पूर्वज हैं अतः हमें भी उनके इन गुणों को ग्रहण व धारण करना चाहिये। यही संकल्प इस कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर हम कृष्ण भक्तों को लेना चाहिये। हम इस अवसर पर महर्षि दयानन्द के उन विचारों को भी स्मरण करना चाहते जिसमें उन्होंने कहा है कि श्री कृष्ण जी का महाभारत ग्रन्थ में इतिहास अति उत्तम है। उनके गुण, कर्म व स्वभाव आप्त पुरूषों अर्थात् वेद के ऋषियों के समान थे। उन्होंने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त कोई बुरा काम नहीं किया। इसके अतिरिक्त मूर्तिपूजा के प्रसंग में सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में वह लिखते हैं कि ‘‘संवत् 1914 (सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम) के वर्ष में तोपों के मारे मंदिर की मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं, तब मूर्ति (मूर्ति की शक्ति) कहां गई थीं? प्रत्युत् बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की, और लड़े, शत्रुओं को मारा, परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण सदृश (उन दिनों) कोई होता तो इनके (अंग्रेजों के) घुर्रे उड़ा देता और ये लोग भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिसका रक्षक मार खाय, उसके शरणागत क्यों पीटे जायें?’’

 

आज शिक्षक दिवस भी है। शिक्षक आचार्य को कहा जाता है। वैदिक धर्म व संस्कृति में आचार्य को माता-पिता के समान ही सम्मान दिया जाता रहा है। माता सन्तान को केवल जन्म देती है परन्तु उसे द्विज अर्थात् ज्ञान व विद्या से सम्पन्न कर नया जन्म देने वाला आचार्य ही होता है। आज न तो अच्छे आचार्य हैं और न हि राम, कृष्ण, चाणक्य व दयानन्द जी जैसे शिष्य। गुरू का माता-पिता के समान आदर, ब्रह्मचर्य का सेवन, सत्य धर्म व अन्य विषयों के शास्त्रों व पुस्तकों का अध्ययन करने वाले छात्र आज देश में बहुत ही कम होंगे? हम जानते हैं कि श्री राम का निर्माण उनके गुरू विश्वामित्र और वशिष्ठ आदि ने किया था। इसी प्रकार श्री कृष्ण जी का निर्माण उनके गुरू सान्दिपनी जी ने किया था। महर्षि दयानन्द का निर्माण यद्यपि अनेक गुरूओं ने किया। महर्षि दयानन्द का शिष्यत्व इतिहास प्रसिद्ध शिष्यों में अपूर्व हैं। बच्चे लगभग पांच से आठवें वर्ष में आचार्यकुल वा विद्यालय में प्रवेश लेते हैं। महर्षि दयानन्द के माता-पिता ने इसी वय में उनका अध्ययन आरम्भ कराया। इक्सीस वर्ष पूर्ण होने तक उन्होंने अपने माता-पिता के द्वारा योग्य गुरूओं से अध्ययन किया। बाईसवें वर्ष में उन्होंने और अध्ययन के लिए गृह त्याग किया अन्यथा माता-पिता उन्हें विवाह के बन्धन में बांध देते और फिर वह जो बनना चाहते थे वा बने, वह कदापि नहीं बन सकते थे। गृह त्याग के बाईसवें वर्ष से लेकर अपनी आयु के 38 वर्ष पूर्ण करने पर भी वह अध्ययनरत रहे। उनके गुरू के साथ कैसे सम्बन्ध थे, यह इन दोनों गुरू-शिष्य के जीवन चरित पढ़कर ही जाना जा सकता है। इतना कह सकते हैं कि यह आदर्श व अपूर्व थे। इस बीच उन्होंने न केवल योग का पूर्ण अभ्यास कर समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार किया अपितु वेद सहित सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त किया। उनके शास्त्र ज्ञान के दाता और उसे पूर्णता देने वाले गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे। जिन लोगों ने स्वामी दयानन्द व स्वामी विरजानन्द जी के जीवन चरित्र का गम्भीरता से अध्ययन किया है वह जान सकते हैं कि विगत लगभग 5,200 वर्षों में इन दो गुरू-शिष्यों के समान अन्य कोई गुरू-शिष्य उत्पन्न नहीं हुआ। इनसे जितना देशोपकार हुआ है, उतना किसी अन्य गुरू-शिष्य के द्वारा नहीं हुआ। वेदों का उद्धार तो एकमात्र. महर्षि दयानन्द की ही देन है जिसमें उनके गुरू वा आचार्य स्वामी विरजानन्द जी का विद्यादान अदृश्य रूप में छिपा हुआ है। स्वामी दयानन्द ने महाभारत काल के बाद आलसी व प्रमादी वैदिक धर्म व संस्कृति के अनुयायियों द्वारा विकृत धर्म व संस्कृति को पूर्ण शुद्ध रूप प्रदान किया और इसे संसार का पूर्ण व एकमात्र तर्क व युक्तियों पर आधारित प्राचीनतम ईश्वर प्रदत्त विज्ञान सम्मत धर्म सिद्ध किया। यथा गुरू तथा शिष्य की कहावत के अनुसार ही शिष्य अपने गुरू के ज्ञान व आचरण के अनुरूप होता है। आज आवश्यकता है कि हमारे शिक्षक, आचार्य व गुरू आदर्श जीवन व चरित्र के धनी बने और अपने शिष्यों को भी वैसा ही बनायें। शिक्षित वा साक्षर, इंजीनियर व डाक्टर अथवा कम्प्यूटर विज्ञान में प्रवीण शिष्य व युवा तैयार करना अच्छी बात है परन्तु यदि कोई शिक्षा ग्रहण करने के बाद स्वार्थी, अर्थलोलुप या लोभी बनता है और भ्रष्टाचार-अनाचार-दुराचार व देशद्रोह के कार्य करता है तो उसे पूर्ण शिक्षित नहीं कहा जा सकता। आज देश को स्वामी विरजानन्द स्वामी दयानन्द जैसे गुरू शिष्यों की आवश्यकता है। इसी से देश का निर्माण होकर हम अपने प्राचीन यश व गौरव को प्राप्त कर सकते हैं।

 

आज शिक्षक दिवस पर हम सभी शिक्षकों व शिष्यों को शुभकामनायें और बधाई देते हैं और उनसे आग्राह करते हैं कि वह प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन कर आदर्श आचार्य, शिक्षक एवं शिष्य बनने का व्रत लें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी

नमस्ते मित्रो,

५००० वर्ष और उससे भी पूर्व अनेको मनुष्य उत्पन्न हुए मगर इतिहास में याद केवल कुछ ही लोगो को किया जाता है, इतिहास में केवल उनके लिए जगह होती है जो कुछ अनूठा करते हैं, कुछ लोग अपने द्वारा की गयी बुराई से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाते हैं, और कुछ अपने सदगुणो, सुलक्षणों और महान कर्तव्यों से अपना नाम अमर कर जाते हैं, क्योंकि आज कृष्ण जैसा सुलक्षण नाम अपने पुत्र का तो कोई भी रखना चाहेगा, मगर रावण, कंस आदि दुर्गुणियो के नाम कोई भी अपने पुत्र का न रखना चाहेगा, इसी कारण कृष्ण अमर हैं, राम अमर हैं, हनुमान अमर हैं, मगर रावण, कंस आदि मृत हैं।

आर्यावर्त में उत्पन्न हुए अनेको ऐतिहासिक महापुरषो में से एक महापुरुष, ज्ञानी, वेदवेत्ता योगेश्वर श्री कृष्ण का आज ही के दिन जन्म हुआ था, इस दिन को आज जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि आज भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि है, इसी दिन कृष्ण महाराज का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को जन्माष्टमी के नाम से जाना जाता है।

हमारे बहुत से बंधू कृष्ण महाराज को पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं। यहाँ हम अवतार का अर्थ संक्षेप में बताना चाहेंगे, “अवतार का शाब्दिक अर्थ “जो ऊपर से नीचे आया” और “पूर्ण” “पुरुष” इस हेतु कहते हैं पूर्ण कहते हैं जो अधूरा न रहा, और पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं :

1. पुरुष शब्द का अर्थ सामान्य जीव को कहते हैं जिसे आत्मा से सम्बोधन करते हैं।

2. पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है जिसने इस सम्पूर्ण ब्राह्मण की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरषार्थ किया और करता है।

हम सभी जीव जो इस धरती पर व अन्य लोको पर विचरण कर रहे वो सभी अवतारी हैं क्योंकि हम सब ऊपर से ही नीचे आये क्योंकि मरने के बाद हमारी आत्मा यमलोक (यम वायु का नाम है अतः वायुलोक यानी अंतरिक्ष में जाती है) तब नीचे आती है। और हम सभी अपनी आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाते अर्थात मोक्ष को ग्रहण करने योग्य गुणों को धारण नहीं कर पाते और कुछ ही गुणों को आत्मसात कर पाते हैं। इसलिए हम आवागमन के चक्र में फंसे रह जाते हैं। अतः इसी कारण हम अवतार होते हुए भी मृतप्राय रह जाते हैं अमर नहीं हो पाते।

अब हम आते हैं कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी क्यों कहते हैं यहाँ हमारे कुछ पौराणिक बंधू पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं।

अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये :

इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं।

ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है।

(शत० 4.4.5.6)

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए। ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी। क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही

अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी।

(यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे।

ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

आइये हम भी इन गुणों को अपना कर कृष्ण के सामान अपने को अमर कर जाए। हम १६ कला न भी अपना पाये तो भी वेद पाठी होकर कुछ उन्नति कर पाये।

आइये सत्य को अपनाये और असत्य त्याग कर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी का त्यौहार मनाये। आप सभी मित्रो, बंधुओ को योगेश्वर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये।

लौटिए वेदो की और।

नमस्ते।

नोट : अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो :

कभी रास रचा सकता है ?

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ?

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ?

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ?

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं।

इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये।

योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय।

धन्यवाद

क्या समस्या का समाधान आरक्षण…?? शिवदेव आर्य

मनुष्य के जीवन को पूर्णरूपेण सुख- सम्पन्नतामय बनाने के लिए आर्थिकीय दृष्टि सदैव पर्याप्त नहीं हुआ करती है। कदाचित् इसका यह तात्पर्य लेशमात्र भी नहीं है कि अर्थ का सुख-शान्ति-समृध्दि में कोई स्थान नहीं। संसार भर में बड़े-से-बड़े वेदज्ञों, नीतिशास्त्रवेत्ताओं, विज्ञानविशारदों, सगीतज्ञों आदि मनीषियों को यदि भोजन न मिले तो उनकी सारी विद्याएॅं एक कोने में ही धरी रह जायेंगी। ‘भूखे भजन न होई गोपाला’ की उक्ति के आधार पर उनकी सारी प्रतिभा क्षुधा रूपी पिशाचिनी के द्वारा ग्रसित कर ली जाती है। अन्त में क्षुधा तृप्ति के लिए यत्न तो अवश्यंभावी है, अतः करना ही पड़ेगा। क्योंकि ‘बुभुक्षितैः व्याकरणं न भुज्यते, पिपासितैः काव्यरसो न पीयते’ की उक्ति पूर्णरूपेण चरितार्थ होगी। यह भी सम्भव हो सकता है कि वे अपने धर्म-कर्म को त्याग कर पापकर्म से अपनी क्षुधा की तृप्ति कर लें, क्योंकि साहित्य में अनेकों उदाहरण दृष्टिगत होते हैं यथा-‘बुभुक्षितः किं न करोति पापम्’ अर्थात् भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं करता? इससे यह आशय तो स्पष्ट द्योतित होता ही है कि अर्थ मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने में एक साधन है, जिसके अभाव में कोई भी व्यक्ति, समाज अथवा देश अपना सर्वांगीण विकास नहीं कर पाता। समाज की भावनाओं तथा गतिविधियों का भूखा मनुष्य आरक्षण रूपी भोजन को अनायाश अथवा स्वल्प प्रयास से प्राप्त करना चाहता है। इसी सामाजिक गतिविधियों का अनुद्यमी वर्ग आरक्षण चाहता है, जिसका ज्वलन्त उदाहरण गुजरात में दिखायी दे रहा है। गुजरात के युवा नेता हार्दिक पटेल दूरगामी व सामाजिक लाभ को न देखकर एक ऐसी गलत अवधारणा में बह गये हैं, जिसका परिणाम दिनो-दिन कष्टप्रद व देश-समाज तथा जनों के प्रति क्षति पहूॅंचाने का कार्य कर रहा है। हार्दिक पटेल ने एक सोची समझी चाल चली है, जिसका लाभ उसे राजनीति के रुप में प्राप्त हो रहा है। वे सभी स्वार्थी नेता इस कार्य को बहुत अच्छा बता रहे तथा समर्थन कर रहे हैं। तथा इसके साथ ही राजनीति के मैदान में पदार्पण करने की सलाह दे रहे हैं। जिस प्रकार पटेल समुदायों के लिए आरक्षण को लेकर मांग की जा रही है, उससे राज्य में हिंसा का नया वातावरण तैयार हुआ है। आजादी के बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सामाजिक तथा आर्थिक रुप से मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें दश वर्षों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया। बाद में दश वर्ष की समयावधि को लगातार बढ़ाया जाता रहा है। जबकि यह नहीं देखा गया कि वे लोग ;आरक्षण को प्राप्त करने वालेद्ध आरक्षण के योग्य हैं अथवा नहीं। १९९॰ में वी पी सिंह की सरकार ने आरक्षण का भरपूर लाभ लिया, जिसके चलते उनकी सरकार ने अन्य पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया। इसके बाद से ही आरक्षण राजनीति को चमकाने का नया अस्त्र बन गया। कुछ समय बाद शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण लागू कर दिया गया। इसलिए सर्वत्र ही आरक्षण की मांग करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। गुजरात का पटेल समुदाय भी इसी का एक अंग है। मुझे यह लिखते हुए बड़ा आश्चर्य होता है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक जिन लोगों को आरक्षण के आधार पर लाभ मिला वह वर्ग अभी भी समर्थशील नहीं हो पा रहा है, आज भी वह चाहता है कि उसे पर्याप्त मात्रा में आरक्षण प्राप्त हो। क्या वह सदा के लिए ही आरक्षित रहेगा? आरक्षण प्राप्त करने वालों को लेशमात्र भी संकोच नहीं है, जिनके कारण एक योग्य व्यक्ति का चयन नहीं हो पाता। इसी आरक्षण नीति ने हमारे देश का यथार्थ रुप में पतन किया है। जिन लोगों को थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं होता, उन लोगों केा आरक्षण के आधार पर स्कूलों, अस्पतालों आदि स्थानों पर सेवाएॅं देने का अवसर प्राप्त हो जाता है। ये कैसी विडम्बना है सरकारी स्कूलों में प्रायः लोग अपने बच्चों को इसलिए नहीं पढ़ाना चाहते, क्योंकि वहाॅं बैठे हुये अध्यापक लोग स्वयं आरक्षण के आधार पर अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं। इसको इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है कि जिन अयोग्य लोगों की सेवा सरकार आरक्षण के आधार पर कर रही हो वह भला दूसरो की सेवा कैसे कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि वह बच्चों को कैसे पढ़ा-लिखा सकता है, जो स्वयं ४॰ फीसदी अंक लेकर अध्यापक बना हो वह १॰॰ फीसदी परिणाम कैसे दिखा सकता है? आज आरक्षण को एक बुनियादी अधिकार के रूप में देखा जाने लगा है, न कि इस रूप में कि यह सामाजिक और आर्थिक रूप से विपन्न लोगों को मुख्यधारा में लाने की व्यवस्था है, जो जाति विशेष का होने के कारण शोषण और उपेक्षा का शिकार हुए। आरक्षण की मांग इसके बावजूद बढ़ती जा रही है। सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित हो रही है। भले ही गुजरात में पटेल समुदाय की हिस्सेदारी १२ प्रतिशत के आसपास हो, लेकिन वह सामाजिक-आर्थिक और साथ ही राजनीतिक रूप से भी सक्षम है। यह समझना कठिन है कि एक ऐसा व्यक्ति जो सभी साधनों से सम्पन्न हो वह पुनरपि आरक्षण के लिए इतना ज्यादा लालायित क्यों हो रहा है? आरक्षण की आज कई वर्गों को आवश्यकता है, उनको फिर भी आरक्षण की इतनी चाह नहीं। इससे सीधा स्पष्ट होता है कि हार्दिक पटेल का उद्देश्य केवल मात्र आरक्षण ही प्राप्त करना नहीं है अपितु इससे यह भी उजागर होता है कि ये राजनीति का सिक्का खेलना चाहता है। क्योंकि पूर्व में संप्रग सरकार ने जाटों को आरक्षण देकर राजनैतिक खेल खेलने का यत्न किया किन्तु कुछ समय बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया। पिछले कुछ समय से कई समर्थ समझी जाने वाली जातियाॅं अपने को पिछडा घोषित कराने के लिए तैयार हैं, वहीं अनेक जातियाॅं एस सी तथा एस टी के वर्ग में आना चाहती हैं। आरक्षण प्रदान करने से ये समस्याएॅं समाप्त नहीं होने वाली अपितु आरक्षण को जड़ से ही समाप्त कर देना सर्वोचित होगा। यदि पटेल और जाट खुद को पिछड़ा वर्ग बाताएंगे तो फिर आने वाले दिनों में अन्य समुदाय के लोग भी अपने लिए आरक्षण की माॅंग करेंगे, इसलिए सरकार को सोच-विचार कर निर्णय लेने की आवश्यकता है। आरक्षण के मामले में इसकी जरूरत बढ़ रही है कि आरक्षित समुदायों को शैक्षिक योग्यता में रियायत एक सीमा तक ही दी जाए। ऐसी स्थितियाॅं ठीक नहीं कि न्यूनतम अंकों के होने पर भी अधिक अंक वाले व्यक्ति को प्रवेश न मिलकर आरक्षित वर्गों के युवा आगे बढ़ जाएॅं। अब बात केवल सरकारी नौकरियों की ही नहीं है बल्कि उच्च शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश की भी है। क्योंकि प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान भारत में गिने-चुने हैं। इन संस्थानों में भी आरक्षण के आधार पर एक अच्छी मेधा से हमारा देश वंचित रह जाता है, और ऐसे मेधा सम्पन्न बालकों को उनके परिजन शिक्षा के लिए विदेशों में भेजते हैं। इससे अच्छी खासी मुद्रा विदेशों में भेजी जाती है। इससे भी भारत को आर्थिक दृष्टि से नुकसान है। यदि यह मुद्रा बाहर जाने के स्थान पर देश में ही उपयोग हो तो बहुत ही अच्छा रहेगा। और आगे चलकर वह विदेश में भेजा हुआ बालक विदेश में ही अपनी मेधा का प्रयोग करता है, जिससे उस देश को लाभ मिलता है। स्पष्ट है कि भारत से आरक्षण को सदा-सदा के लिए सभी वर्गों से समाप्त कर देना चाहिए, या आरक्षण देने की नीति में सुधार किया जाना चाहिए, उसको एक निश्चित समय के लिए सुनिश्चित करना चाहिए, निश्चित अवधि के पश्चात् समाप्त कर देना चाहिए। अतः सरकार तथा जनमानस के सर्वजनहितकारक निर्णय की प्रतीक्षा सदैव बनी रहेगी…. शिवदेव आर्य गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून ई.मेल.-shivdevaryagurukul@gmail.com

सत्संग स्वर्ग और कुसंग नरक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

किसी भी विषय के प्रायः दो पहलु होते हैं, एक सत्य व दूसरा असत्य। सत्य व असत्य का प्रयोग ईश्वर व जीवात्मा से लेकर सृष्टि के सभी पदार्थों व व्यवहारों आदि में सर्वत्र किया जाता है। ईश्वर  निराकार है, यह सत्य है और निराकार नहीं है अथवा साकार है, यह असत्य है। निराकार अर्थात् आकार रहित होने से उसका चित्र व मूर्ति नहीं बन सकती। जिस प्रकार आकाश व वायु की मूर्ति व चित्र नहीं बनाये जाते उसी प्रकार निराकार होने से ईश्वर का चित्र व मूर्ति भी नहीं बन सकती अर्थात् ऐसा होना असम्भव है। यदि कोई मूर्तिकार व तथाकथित विद्वान किसी मूर्ति को बनाकर कहे कि यह ईश्वर की मूर्ति है तो वह असत्य होगा। बुद्धिमान व ज्ञानी लोग इस बात को समझते हैं परन्तु अज्ञानी व भोले लोग इसको न समझकर अन्धपरम्पराओं जो विगत दो या ढाई हजार पहले आरम्भ हुईं, उसी को परम्परा मानकर उसका अनुगमन करते हैं। सत्य को जानना व उसे जीवन में धारण करना ही सत्संग है। असत्य के लिए कुछ पुरुषार्थ व तप करने की आवश्यकता नहीं होती। असत्य अज्ञान की वह अवस्था होती है जिसके लिए मनुष्य को कुछ करना ही नहीं होता। सत्य के लिए अवश्य ही अध्ययन, विद्वानों के उपदेश, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करना होता है। किसी को गुरु बनाते समय यह देखना होता है कि वह वस्तुतः सच्चा ज्ञानी, निर्लोभी व सदाचारी है वा नहीं। आजकल अज्ञानी और छल व कपट से युक्त स्वार्थी व्यक्ति भी स्वयं को गुरु बनाये हुए हैं और अपने छल व कपट से अपने अनुयायियों के जीवन का शोषण कर खिलवाड़ करते हैं। अतः किसी एक व्यक्ति को गुरु कभी नहीं बनाना चाहिये परन्तु गुरु बदलते रहें और जहां जिससे जितना ज्ञान मिले उसे प्राप्त करते रहना चाहिये, यही उचित प्रतीत होता है। संसार में गुरू स्थानीय सत्ता के रूप में परमात्मा सर्वोपरि है और उसके बाद स्वाध्याय के लिए परम प्रमाणित वेद व उनके महर्षि दयानन्द व आर्यविद्वानों कृत वेदभाष्य व सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ हैं। इनके द्वारा कोई भी साधारण अक्षरज्ञानी व भाषाज्ञानी व्यक्ति ईश्वर, जीवात्मा व संसार के विषय में सत्य ज्ञान से परिचित हो सकता है।

 

आर्य समाज में आचार्य भद्रसेन जी के नाम से एक सच्चे ब्राह्मण, पण्डित व विद्वान हुए हैं। आपने अपने जीवन में स्वामी सर्वदानन्द जी की सहायता व पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी के आचार्यात्व में संस्कृत व वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन किया। आप योग के भी आचार्य थे और इसके साथ आर्ष विधि से पुरोहित के रूप में गृहस्थियों के सोलह संस्कार कराते थे। आपके एक योग्यतम पुत्र कैप्टेन देवरत्न आर्य हुए हैं जो आर्यजगत् में अत्यन्त यशस्वी व सम्मानित रहे हैं और जिन्होंने अपने जीवन में आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय योगदान किया। वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधी सभा के प्रधान भी रहे। आचार्य भद्रसेन जी ने स्वाध्याय के लिए एक प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘प्रभु भक्त दयानन्द तथा उनके आध्यात्मिक उपदेश लिखी थी। इसका एक अध्याय सत्संग-कुसंग पर है। इसी के आधार पर हम सत्संग व कुसंग विषयक कुछ प्रसंग व उपदेश पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। योग एवं स्वास्थ्य नाम से योग पर भी आचार्य भद्रसेन जी काएक बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा अन्य कुछ और ग्रन्थ भी हैं।

 

आचार्य भद्रसेन जी लिखते हैं कि गृहस्थियों को चाहिये कि वह सत्कारपूर्वक दूरस्थ उत्तम विद्वान अतिथि महानुभावों को सुविधाजनक वाहनों, रथ आदि सवारियों पर बैठा कर उपदेश के लिए अपने निवासों पर लावें और अन्नादि वा स्वादिष्ट भोजन आदि से उनका स्वागत सत्कार करें।                                                                    (आधार ऋग्वेद भाष्य 5/1/1)

 

जैसे बादल स्वयं छिन्न-भिन्न होकर भी दूसरों का सदा उपकार ही करते हैं। उसी प्रकार से सच्चे विद्वान् दूसरों के अपकार करने से छिन्न-भिन्न होकर भी उनका सदा उपकार ही करते हैं।

 

जो लोग उस परमात्मा और आप्त विद्वानजनों को छोड़कर दुष्ट मनुष्यों की संग करते हैं, वे हमेशा दुःखी ही रहते हैं।

(आधार ऋग्वेद भाष्य 6/29/8)

 

जो जन अपवित्र आहार-विहार करनेवाले, विषय-लम्पट, दूसरों की चुगली करनेवाले, और असत्पुरुषों का संग करनेवाले हैं, उनको कभी भी विद्या प्राप्त नहीं होती और जो पवित्र आहार-विहार वाले, जितेन्द्रिय, यथार्थ-वक्ता, सत्पुरुषों का संग करनेवाले और पुरुषार्थ-परायण हैं, उनको सब प्रकार की विद्या प्राप्त होती है। ऐसा अवश्य निश्चय जानों।

(आधार ऋग्वेद भाष्य 6/28/41)

 

कभी नास्तिक, लम्पट, विश्वासघाती, मिथ्यावादी, स्वार्थी कपटी, छली आदि दुष्ट मनुष्यों का संग न करे। और जो सत्यवादी, परोपकार-प्रिय आप्त जन हैं, उनका सदा संग करें।                                                       (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 10)

 

परमेश्वर और परमेश्वर के तुल्य धार्मिक विद्वानों के बिना कोई सब पदार्थों और सब प्रकार के सुखों का देनेवाला और कोई नहीं है।                                                                                                                                     (आधार ऋग्वेद भाष्य 5/20/2)

 

गृहस्थ स्त्री-पुरुष कार्यकर्त्ता सद्धर्मी, लोकप्रिय, परोपकारी सज्जन, विद्वान् व त्यागी पक्षपातरहित संन्यासी जो सदा विद्या की वृद्धि और सब के कल्याणार्थ वर्तनेवाले हों, उनका नमस्कार, आसन, अन्न, जल, वस्त्र, पात्र, धन आदि के दान से उत्तम प्रकार से यथासामथ्र्य अवश्य सत्कार करें।                                                                                           (सत्यार्थ प्रकाश)

 

विद्वानों के संग और सेवा से क्या-क्या प्राप्त होता है इसका उल्लेख महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद भाष्य के 6/2/2 मन्त्र में किया है। वह लिखते हैं जो मनुष्य विद्वानों की सेवा से शुभ गुण, कर्म, स्वभावों को प्रापत करते हैं, वे वृद्धजनों को (अपनी सेवा द्वारा) सुख पहुंचानेवाले दीघार्यु और सुन्दर गृहस्थवाले बनकर शरीर और आत्मा से सदा बलवान् और पुष्ट हो जाते हैं। (ये मनुष्या विद्वत्सेवया शुभ, गुण, कर्म, स्वभावान् प्राप्नुवन्ति ते वृद्धरक्षा चिरंजीविनः सुन्दर गृहाश्च भूत्वा शरीरात्मभ्यां पुष्टा जायन्ते।)

 

ऋग्वेद मंत्र भाष्य 7/15/2 में कहा गया है कि संन्यासी महात्मा हमेशा सर्वत्र भ्रमण करता रहे। और गृहस्थ इन्हें (अपने गृह पर बुलाकर) इनका सदैव सत्कार करे। और इनके सदुपदेशों का ग्रहण करें।

 

सत्यप्रिय मनुष्यों को सदैव (वेद के) विद्वानों का सत्कार करना चाहिये। जो सत्य, विद्या और धर्म के प्रकाश करनेवाले, सकल वेदों के ज्ञाता, विद्वान, अध्यापक और उपदेशक जगत् में मनुष्यादिकों को अपने सदुपदेशों द्वारा सब प्रकार से उन्नत करते हैं, वे ही सब प्रकार से सब को सत्कार करने योग्य हैं। यजुर्वेद मन्त्र 3/42 में विद्वानों से प्रीति तथा उनका संग करने की शिक्षा देते हुए कहा गया है कि गृहस्थों को सब धािर्मक अतिथि लोगों के वा अतिथि लोगों को गृहस्थों के साथ अत्यन्त प्रीति रखनी चाहिए, किन्तु दुष्टों के साथ नहीं। तथा अतिथि विद्यानों के संग से परस्पर वार्तालाप कर विद्या की उन्नति करनी चाहिए। और जो परोपकार करनेवाले विद्वान, अतिथि लोग हैं, उनकी सेवा गृहस्थों को निरन्तर करनी चाहिए।

 

हमें एक प्रेरणादायक घटना स्मरण हो आयी। आर्यसमाज के एक प्रसिद्ध संन्यासी, महात्मा व अनेक गुरुकुलों के संचालक पिछले दिनों देहरादून आये हुए थे। उन्हें पता चला कि एक आर्यविद्वान की धर्मपत्नी किसी अस्पताल में उपचारार्थ भर्ती हैं। उनके शिष्य अस्पताल पहुंचं और रोग की स्थिति आदि का पता किया और कहा कि धन की चिन्ता न करें। कुछ सहस्र रूपये भी हमारी उपस्थिति में उन्होंने प्रदान किये। कुछ कारणों से अस्पताल में उचित चिकित्सा न होने के कारण एक अन्य प्राइवेट नर्सिंग होम में ले जाकर उनका आपरेशन कराया गया। वहां अगले दिन स्वामीजी पहुंचे और उनका हाल पूछकर उन्हें चिकित्सा सहायतार्थ बिना मांगे ही कुछ सहस्र रूपये देवीजी के हाथ में साशीर्वाद प्रदान किये। इससे पूर्व भी लगभग 15 वर्ष पूर्व एक बार उन्होंने कैन्सर से पीडि़त हमारे आर्य विद्वान एक मित्र के परिवार को दिल्ली के पंत चिकित्सालय में पहुंचकर एक लाख रूपयों की धनराशि प्रदान करते हुए उनकी धर्म पत्नी को उनकी चिकित्सा किसी अच्छे चिकित्सक वा चिकित्सालय में कराने को कहा था और आश्वासन दिया था कि उनसे जो हो सकेगा, वह और सहायता करेंगे। हमने इन आर्य विद्वान संन्यासी में वेद वर्णित सभी गुण प्रत्यक्ष देखें और अनुभव किये हैं। वस्तुतः ऐसे विद्वान महात्मा और संन्यासी ही सत्संग, सेवा व सत्कार के पात्र होते हैं। हमारा सौभाग्य है हमें इन स्वामीजी का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

 

 

यह भी निवेदन है आजकल देशभर में कुछ कथावाचक आदि बड़ी बड़ी जनसभायें करते हैं। इनमें सत्य के साथ बड़ी मात्रा में असत्य भी परोसा जाता है जिससे समाज में अन्धविश्वास बढ़ रहे हैं। हम इन्हें सत्संग नहीं मानते और वस्तुतः यह सत्संग हैं भी नहीं। जो विचार वेदों से प्रमाणित हैं, वही सत्संग की कोटि में आते हैं अन्यथा वह कुसंग ही होते हैं। इन जनसभाओं के विपरीत आर्यसमाज व इसकी संस्थाओं गुरूकुल आदि के अधिवेशनों व समारोहों में होने वाले धार्मिक प्रवचनों को सत्संग कहा जा सकता है क्योंकि यहां सभी बातें वेद पर आधारित वा वेदों से पुष्ट कही जाती हैं। हम आशा करते हैं कि सत्संग विषय में जो संक्षिप्त विचार व कथन लेख में प्रस्तुत किये हैं, उनसे पाठकों को लाभ मिलेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

-विश्व इतिहास की अन्यतम् घटना- ‘महर्षि दयानन्द ने देश व धर्म के लिए माता-पिता-बन्धु-गृह व अपने सभी सुखों का स्वेच्छा से त्याग किया’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत संसार में महापुरूषों को उत्पन्न करने वाली भूमि रहा है। यहां प्राचीन काल में ही अनेक ऋषि मुनि उत्पन्न हुए जिन्होंने वेदानुसार आदर्श जीवन व्यतीत किया। इन ऋषियों में से कुछ के नाम ही विदित हैं।  अनेक ऋषि मुनियों ने महान कार्यों को किया परन्तु उन्होंने न तो अपना आत्म वृतान्त ही लिखा और न ही अपनी कोई पहचान ही साहित्य आदि के माध्यम से देश में छोड़ी। समय व्यतीत होने के साथ कुछ ऋषियों ने कुछ ग्रन्थों का सृजन वा रचना की। उनके साहित्य में इतिहास में हुए कुछ प्रमुख ऋषियों के नामों का उल्लेख है। इसी प्रकार से इन ऋषियों के ग्रन्थों पर कुछ अन्य ऋषियों ने भाष्य आदि टीकायें लिख कर अपने समय के जन साधारण का कल्याण किया। इनमें भी कुछ ऐतिहासिक ऋषियों के नाम सुरक्षित हैं। महर्षि बाल्मिकी ने रामायण लिखकर स्वयं, श्री रामचन्द्र जी, रामायण काल के कुछ ऋषियों व राजाओं आदि के नाम व इतिहास सुरक्षित किए हैं। रामायण के बाद सबसे बड़ा व प्रमुख इतिहास ग्रन्थ हमारे पास महाभारत है। इसमें उस काल के अनेक राजाओं व विद्वानों का वर्णन है जिनमें से एक अति प्रतिष्ठित महापुरूष श्री कृष्ण हैं। महाभारत काल के बाद युधिष्ठिर के वंशज अनेक राजा महाराजा हुए। इन सबके विस्तृत नाम व वृतान्त आदि तो सुरक्षित नहीं हैं परन्तु महर्षि दयानन्द की कृपा से सत्यार्थ प्रकाश में एक सूची मिलती है जिसमें राजा युधिष्ठिर की वंश परम्परा में क्षेमक तक राजाओं व उनके राज्यकाल का विवरण वर्ष, महीनों व दिन तक की गणना किया हुआ मिलता है। यह कुल 30 पीढि़यों के 1770 वर्ष 11 मास व 10 दिनों का संक्षिप्त व संकेतित इतिहास व विवरण है। इसके बाद के राजाओं से लेकर सम्वत् 1249 विक्रमी तक राजा यशपाल के शासनकाल तक का विवरण सत्यार्थप्रकाश में अंकित सूची में है। इस प्रकार अब से लगभग 823 वर्ष पूर्व तक के राजाओं का विवरण महर्षि दयानन्द की कृपा से आज देश की जनता के लिए सुलभ हुआ है। जब भारत की ज्ञान विज्ञान से युक्त वेद कालीन प्राचीन धर्म व संस्कृति पर विचार करते हैं तो हमें अनेक धार्मिक ग्रन्थों के रचयिता ऋषि मुनियों सहित आदर्श राजा श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, राजनीति के आचार्य महात्मा चाणक्य, स्वामी शंकराचार्य और महर्षि दयानन्द जी का ज्ञान होता है जिन्होंने अपने अपने समयों में महान कार्य कर इस देश व विश्व के धर्म व संस्कृति के वातावरण को प्रभावित किया। आज के इस लेख में हम स्वामी दयानन्द सरस्वती जी पर कुछ विचार कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1847 में अपनी आयु के  बाईसवें वर्ष में सच्चे शिव, मृत्यु पर विजय और सद्ज्ञान की प्राप्ति के लिए गृह त्याग किया था।  सन् 1860 में वह मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द की कुटिया में पहुंचे और लगभग 3 वर्षों में उनसे आर्ष व्याकरण, वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन पूरा कर सन् 1863 में गुरू की प्रेरणा व आज्ञा से देश व धर्म के सुधार के लिए कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हुंए। उन्होंने नवम्बर, 1869 में काशी नरेश की मध्यस्थता में काशी के लगभग 30 विद्वानों से मूर्तिपूजा पर इतिहास प्रसिद्ध शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में लगभग 50 हजार लोग उपस्थित थे। पौराणिक विद्वान मूर्तिपूजा को वेद विहित सिद्ध नहीं कर सके थे। तदन्तर उन्होंने धर्म व वेद प्रचार के निमित्त मौखिक उपदेश व वार्तालाप सहित शास्त्रार्थ आदि द्वारा प्रचार किया और अपने मन्तव्यों के प्रचारार्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि उन्होंने हिन्दी की महत्ता के कारण इतिहास में प्रथमवार धार्मिक विषयों को संस्कृत के स्थान पर हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया जिसका सुप्रभाव यह हुआ कि सामान्य व्यक्ति भी धर्म के मर्म को जानने में समर्थ हुआ और धर्म पर पण्डितों का एकाधिकार समाप्त हुआ। वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार के लिए उनके प्रमुख कार्यों में 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई के काकड़वाड़ी स्थान पर प्रथम आर्य समाज की स्थापना सहित सत्यार्थ प्रकाश और वेद भाष्य का प्रणयन आदि कार्य प्रमुख थे।

 

स्वामी जी जहां जहां वेद प्रचार हेतु जाते थे, उनके प्रवचनों में सम्मिलित लोगों में से अनेक उनसे अपना जीवन वृतान्त सुनाने का निवेदन करते थे। उन्होंने अगस्त, 1875 में पूना में दिये गये अपने प्रवचनों में से एक प्रवचन में अपने जीवन का वृतान्त प्रस्तुत किया था। इसके बाद थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल अल्काट की प्रेरणा व निवेदन पर उन्होंने अप्रैल, 1879 में अपना संक्षिप्त जीवनवृत्त लिखा। इस जीवनवृत्त के आरम्भ में उन्होंने लिखा है कि गृह त्याग के प्रथम दिन से ही जो मैंने लोगों को अपने पिता का नाम और अपने कुल का स्थान बताना अस्वीकार किया इसका यही कारण है कि मेरा कत्र्तव्य मुझे इस बात की आज्ञा नहीं देता। यदि मेरा कोई सम्बन्धी मेरे इस वृत्त से परिचय पा लेता तो वह अवश्य मेरे ढूंढने का प्रयत्न करता। इस प्रकार उनसे दो-चार होने पर मेरा उन के साथ घर जाना आवश्यक हो जाता। सुतरा एक बार पुनः मुझे धन हाथ में लेना पड़ता अर्थात् मैं गृहस्थ हो जाता। उनकी सेवा-शुश्रूषा भी मुझे करनी योग्य होती। और इस प्रकार उनके मोह में पड़कर सर्व सुधारों का वह उत्तम काम जिसके लिये मैंने अपना जीवन अर्पण किया है, तथा जो मेरा यथार्थ उद्देश्य है, जिसके अर्थ स्वजीवन-बलिदान करने की किंचित् चिन्ता नहीं की, और अपनी आयु (जीवन) को बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ मैंने अपना (अपने जीवन का) सब कुछ स्वाहा करना अपना मन्तव्य समझा, अर्थात् देश का सुधार और धर्म का प्रचार, वह (मेरा) देश पूर्ववत् अन्धकार में पड़ा रह जाता। यहां महर्षि दयानन्द ने प्रसंगवश अपनी मृत्यु से साढ़े चार वर्ष पहले अपने जीवन का उद्देश्य बताने के साथ अपने मन की कुछ निजी बातें भी प्रकट की हैं जो कि अत्यन्त महत्वपूर्ण है और वही हमारे लेख का मुख्य विषय हैं।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द कह रहे हैं उन्होंने सर्व सुधारों के उत्तम काम के लिए ही अपना जीवन अर्पण किया है और यही उनका उद्देश्य है। आगे स्पष्ट कर सर्व सुधार से तात्पर्य उन्होंने देश का सुधार और धर्मं का प्रचार बताया है। महर्षि दयानन्द के इस वाक्य से ज्ञात होता था कि उनके समय में देश में अनेक क्षेत्रों में अन्धविश्वास, रूढि़वाद एवं पाखण्ड आदि अनेक विकृतियां विद्यमान थीं जिनसे देश कमजोर व अवनत हो गया था। इनका सुधार कर वह देश को सशक्त बनाना चाहते थे। देश का एक उत्कृष्ट वेदविद्यावान ब्रह्मचारी, अनेक शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमताओं से युक्त ऋषि तुल्य व्यक्ति देश के सुधार के लिए बिना किसी निजी प्रयोजन अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है, यह इतिहास की अपने प्रकार की अपूर्व घटना है। यहां हमें श्री रामचन्द्र जी की स्मृति हो आई। उन्होंने अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिए वन जाना स्वीकार किया था। वहां प्रयोजन पिता के वचन थे। उनका विवाह हो चुका था और वनवास की अवधि में भी उनके अपने परिवार से सम्बन्ध बने रहे थे। श्री कृष्ण जी ने महाभारत के युद्ध में प्रमुख भूमिका निभाई। इसका कारण उनके पाण्डवों से संबंध थे। वह वैदिक विद्वान, योगी और राजनीतिज्ञ थे और सत्य व धर्म की रक्षा के लिए एक राजा होकर वह इस युद्ध में प्रवृत्त हुए थे। श्री कृष्ण जी ने विवाह भी किया और प्रद्युम्न के रूप में एक संस्कारित योग्य सन्तान को भी प्राप्त किया था। लेकिन स्वामी दयानन्द देश व धर्म के लिए अपने माता-पिता, धन, सम्बन्धों, विवाह, सन्तान, शारीरिक सुख व अपने जीवन आदि सभी कुछ को ईश्वर, देश व धर्म के लिए त्याग कर रहे हैं। अपने महानतम उद्देश्य की पूर्ति के प्रति वह श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी के समान ही योग्य, सक्षम व समर्थ थे। इस कार्य को उन्होंने प्राणपण से किया। इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली और अपने उद्देश्य के लिए ही उन्होंने मात्र 58 वर्ष 8 महीने के अल्प जीवन में ही अपना बलिदान किया। उन्होंने जो कार्य किया वह इतिहास में अभूतपूर्व है। स्वामी दयानन्द के कार्यों व बलिदान का महत्व इस कारण भी है कि भारतवासी धर्म के यथार्थ व सत्य स्वरूप को भूल चुके थे। ईश्वर के स्वरूप व उपासना का ज्ञान भी भारतवासियों को नहीं था। यज्ञ का स्वरूप विकृत कर दिया गया था और सत्य स्वरूप का किसी को ज्ञान ही नहीं था। इसी कारण बौद्धमत अस्तित्व में आया और सनातन वैदिक धर्म का पराभव हुआ। देश में बाल विवाह होते थे जिससे विवाहित बालक-बालिकाओं की मृत्यु दर वृद्धि को प्राप्त हो रही थी। निस्तेज व अल्पजीवी सन्तानें उत्पन्न होती थीं। विधवाओं की दुर्दशा हो रही थी। स्त्रियों व दलितों के अध्ययन के अधिकारों तक को छीन लिया गया था। वेदों के यथार्थ विद्वान होना बन्द हो गये थे। सभी मनुष्यों का धर्म एक है। इस एक धर्म की अनेकानेक अन्धविश्वासों से युक्त शाखायें एवं प्रशाखायें उत्पन्न हो गईं थीं जो भोले-भाले लोगों का शोषण करती थीं। ब्राह्मण वर्ण व वर्ग को सभी प्रकार के अधिकार थे, अन्याय करने पर भी दण्ड का कोई विधान नहीं था और अन्यों पर अन्याय व शोषण किया जाता था। देश को कृत्रिम जन्मना-जाति व उपजातियायें में बांट दिया गया था जिससे देश कमजोर हुआ व हो रहा है। इन सब सामाजिक दोषों को दूर करने के साथ स्वामी दयानन्द ने वेदों का सत्य स्वरूप प्रकाशित किया, स्त्रियों व शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार दिया, सभी सामाजिक विषमतायें एवं अन्याय दूर किये और ईश्वर का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत कर उसकी सच्ची उपासना और यज्ञों का उद्धार किया। देश व विश्व का इतना उपकार करने पर भी देश के लोगों ने उनके उपकार बदला उन का अपमान, विरोध, अनेक बार उन्हें विष देकर तथा उनके प्राण लेकर दिया। हमें समझ में नहीं आता कि हम अपनी जाति को क्या कहें जो अपने ही त्राता के प्राणों का घात करती है। यहां यह उक्ति चरितार्थ होती है तू खाक उसे करना चाहे जो तेरा बेड़ा पार करे। अतः स्वामी दयानन्द ने सर्वसुधारों के लिए अपने प्राण देकर अपने वचनों को सत्य सिद्ध किया जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया था। हम अनुभव करते हैं कि उनके उपकारों से देश कभी उऋ़ण नहीं हो सकता।

 

अपने वचनों में स्वामी दयानन्द जी ने यह भी कहा है कि सुर्वसुधारों के अर्थ उन्होंने स्वजीवन-बलिदान करने का किंचित् विचार व चिन्ता नहीं की, और अपनी आयु (जीवन) को बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ उन्होंने अपना सब कुछ स्वाहा करना अपना मन्तव्य समझा, अर्थात् देश का सुधार और धर्म का प्रचार, अन्यथा देश पूर्ववत् अन्धकार में पड़ा रह जाता। महर्षि के यह वाक्य भी उनके जीवन एवं कार्यों पर दृष्टि डालने पर सत्य सिद्ध होते हैं। महर्षि दयानन्द के अनुयायियों को यह देखकर दुःख होता है कि यह देश सत्य को जानने के प्रति सजग न होकर उदासीन है। सत्य का ग्रहण तो देशवासी तभी कर सकते हैं जबकि इन्हें सत्य गुरूओं का सान्निध्य व मार्गदर्शन प्राप्त हो। इसके लिए तो वैदिक साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता है। अनार्ष ग्रन्थों को पढ़कर इन मत-पन्थ-सम्प्रदाय वादियों की बुद्धि भी इन मतों के अनुकुल हो गई है। मत-मतान्तरों के असत्य विचारों को पढ़ने व सुनने पर भी उनके मन में शंकायें  उत्पन्न नहीं होती? सत्य ज्ञान वेद के विरूद्ध सभी मत-मतान्तर अनेक असत्य व मिथ्या बातों का प्रचार करते हैं और उनके अनुयायी आंखें बन्द कर उन्हें स्वीकार कर लेते हैं जिससे ईश्वर व धर्म के विषय में सर्वत्र अन्धकार छाया हुआ है। अतः हमें महर्षि दयानन्द का तप व पुरूषार्थ पूर्ण सार्थक हुआ प्रतीत नहीं होता। आज भी चालाक व स्वार्थी लोग भोले भाले धर्मभीरू लोगों का शोषण करते हैं। उनमें से कुछ के अनैतिक कार्य भी समाज के सामने आते रहते हैं परन्तु देश की जनता फिर भी उदासीन रहती है। लोगों की इस मनोवृत्ति और अकर्मण्यता ने भविष्य में सत्य वैदिक धर्म की उन्नति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। महर्षि दयानन्द के तप व पुरूषार्थ की पूर्ण सफलता न होने से देश के लिए भविष्य में विडम्बना सिद्ध हो सकती है जैसे कि पहले भी बनी है। अतः वेदों के प्रचार प्रसार की पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। हम महर्षि दयानन्द के उन वाक्यों जिसमें उन्होंने अपनी भावनाओं को प्रकट किया और वैसा कर धर्म व देशोन्नति के लिए बलिदान हुए, नमन करते हैं। आज की परिस्थितियों में धर्म व देश सुधार के लिए हमें सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन और उसके अनुरुप सत्य मान्यताओं का प्रचार ही अभीष्ट लगता है। हम आशा करते हैं कि देश के प्रबुद्ध जन महर्षि दयानन्द के वैदिक साहित्य का निष्पक्ष रूप से अध्ययन कर धर्म व संस्कृति की रक्षा तथा देशोन्नति के लिए अपने कर्तव्य का निर्धारण कर उसका पालन करेंगे।

 

आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक वैदिक विद्वान पं. राजवीर शास्त्री जी की जुलाई, 1998 में लिखी पंक्तियां प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं कि स्वाध्यायशील पाठकों और वेदभक्त आर्यपुरुषों के समक्ष दयानन्द-सन्देश मासिक पत्र का श्रावणी पर्व पर वेद-विशेषांक प्रस्तुत करते हुए जहां हमें अतीव प्रसन्नता हो रही है वहीं हमें वेद के प्रति अनास्था रखने वालों के प्रति सजगता एवं सतर्क रहने के लिए प्रोत्साहन भी मिल रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे अन्दर वेद-ज्योति ने सन्मार्ग दर्शन होने से हमें सचेत किया था, आज वही ज्योति जिसने समस्त मतमतान्तर-वादियों के भीषण दुर्गों को ध्वस्त करके सत्य को ग्रहण करने के लिए उद्यत किया था, उन्हीं वेदानुयायियों को शिथिल, उपेक्षित, उत्साहहीन देखकर अत्यन्त दुःख भी होता है। इसका कारण स्वाध्यायहीनता व श्रद्धाहीनता भी है किन्तु अर्थ और काम की आसक्ति प्रमुख है। आज का मानव भौतिक चकाचौंध में इतना अधिक व्यस्त हो गया है कि जो आर्यजनता एक सजग-प्रहरी बनकर काम कर रही थी, वह भी उदासीन हो गयी है। महर्षि मनु ने सृष्टि के आरम्भ में ही आर्य जाति को सचेत करते हुए लिखा था-अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।। अर्थात् धर्म का ज्ञान उन व्यक्तियों को नहीं होता, जो अर्थ और काम अथवा कांचन कामिनी में आसक्त हैं और धर्म की जिज्ञासा रखने वालों को वेद ही परम प्रमाण है। महर्षि दयानन्द ने धर्म की जिज्ञासा को शान्त करने वाले परम प्रमाण वेदों को ही अपने प्रचार का मुख्य साधन बनाया था। आज भी वेद पूर्णरुपेण प्रासंगिक एवं व्यवहारिक है। वेदविहित व वेदानुकुल ही धर्म और वेद विरुद्ध सब कुछ अधर्म व पाप है।

 

लेख को विराम देते हुए आर्य महाकवि श्री वीरेन्द्र कुमार राजपूत की महर्षि दयानन्द पर कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैंः

 

जिसने गुरुदेव चरित्र पढ़ानिज मानस  जन्म सुधार लिया।

वह लौह सुवर्ण बना जिसने,   इस पारस को पहचान लिया।

पथभ्रष्ट अमीचन्द था, जिसका ऋषि ने  हाथ संभाल लिया,

गुरु ने जग से चलतेचलते जग को गुरुदत्त प्रदान किया।।          

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

आत्म चिन्तन -रमेश मुनि

कभी एकान्त में बैठकर विचार करने के लिए समय निकाला कि अब तक मैंने क्या किया, क्या कर रहा हूँ और आगे क्या करने का विचार है, मेरा लक्ष्य क्या है? इससे मुझे, परिवार, समाज या राष्ट्र को लाभ मिला है या मिलेगा या हानि हुई है या होगी? इस तरह से चिन्तन या विचार करते हुए चलने से, हम अनेक प्रकार के न करने योग्य कार्यों को करने से बच जाते हैं और करने योग्य कार्यों को अच्छी तरह, भली प्रकार से करने के लिए उद्यत हो सकते हैं, क्योंकि ऋषि ग्रन्थ मानव को निर्देश देते हैं कि सदा अपना आत्म निरीक्षण करते रहना चाहिए, जिससे हम अपने लक्ष्य को सदा सामने राते हुए, उसके लिए साधनों को एकत्र करते रहें और बाधकों को जान कर दूर करते रहें।

सामान्य रूप से यदि मेरे पास लोक में जीवन यापन के लिए पर्याप्त सुख साधन हैं, मेरी स्थिति ठीक है तो मेरा प्रयास रहेगा कि मुझे कोई दुःख न आए, सुख मिलता रहे और प्रकृति इसी तरह से चलती रहे, जो सभव नहीं। क्योंकि जीवन की दो अवस्थाएँ हैं- एक गति और दूसरी स्थिति। सिद्धान्त के अनुसार यदि चले रहे हैं तो कहीं-न-कहीं पहुँचगे, यदि गति रुक जाती है तो रुक जाएँगे, जिन्हें हम चाहते नहीं। संसार में आज तक न कोई दुःख रहित सुख प्राप्त कर सका है, न कर रहा है और न भविष्य में कर सकता है। महर्षि पतञ्जलि के अनुसार-

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वंविवेकिनः।

अर्थात् परिणाम दुःख, ताप दुःख,, संस्कार दुःखों और सत्व, रज, तम गुणों के परस्पर विरोधी स्वभाव से योगी (विवेकी) पुरुष के लिए, सब कुछ दुःख ही है।

हम लौकिक मानव दुःख मिश्रित सुख का भोग करते हैं, इसमें से मिले दुःख को भूल जाते हैं। सुख को याद करके उसे प्राप्त करने के प्रयत्न करते रहते हैं। हमारा शरीर जन्म से मृत्यु पर्यन्त अनेक स्थितियों में रहता है- बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था। ये हमारे चलने की स्थिति है, जो समयानुसार आती-जाती है। इसे भी हम चाहते नहीं क्योंकि कोईाी वृद्धावस्था को नहीं चाहता, इसी प्रकार से वर्तमान में हम जिस-जिस स्थिति में हैं, उसी में रुके रहें अर्थात् बच्चा, बच्चा रहे, वृद्ध, वृद्ध ही बना रहे, इसे भी कोई नहीं चाहता, लेकिन इसे कोई न रोका पाया है, न रोक पाएगा। भर्तृहरि जी ने कहा है-

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः, तपो न तप्तं वयमेव तप्तः।

कालो न यातो वयमेव याताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।

– वैराग्य शतक 12

अर्थात्- हम सांसारिक विषय भोगों को भोग नहीं पाए, अपितु उन भोगों को प्राप्त करने की चिन्ता ने हमें भोग लिया, हमने तप नहीं किया, अपितु आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ताप जीवन भर हमें तपाते रहे। भोगों को भोगते-भोगते हम काल को नहीं काट पाए, काल ने हमें ही नष्ट कर दिया। इसी प्रकार से भोगों को प्राप्त करने की हमारी तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई, अपितु हम ही बूढ़े हो गए, भोगों के रहते हम ही भोगने में असमर्थ हो गए।

इसलिए हमें विचार करना चाहिए कि मैं ऐसी कामना क्यों कर रहा हूँ, जो पूरी नहीं होगी जैसे कि मैं चलता रहूँ, लेकिन समाप्ति रूप परिणाम न आए या स्थिर रहूँ और ऊबूँ नहीं। आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन के रहते, हम जो भी कर्म करते हैं, उसका फल दुःख या सुख के रूप में मिलेगा ही, शुभ कर्मों से सुख, अशुभ कर्मों से दुःख, इसे कोई बदल नहीं सकता। हम भोगों को भोगना तो चाहते हैं किन्तु इन्द्रियाँ सीमित शक्ति से युक्त है अर्थात् सीमा के आगे भोग नहीं पाते और दुःखी हो जाते हैं। हमें भोगों को मात्र भोगने की दृष्टि से देखना बन्द करके जीवन को सुचारु रूप से चलाए रखने के लिए पदार्थों की आवश्यकता जान कर प्रयोग करने का विचार बनाना होगा, तभी हम दुःखों को कम कर सकते हैं। ऐसा तभी सभव होगा जब हम जीवन की सार्थकता आध्यात्मिक रूप से समझ कर अपने व्यवहारों में परिवर्तन करेंगे। तब हम अपने जीवन स्तर को आगे ले जाने में सफल होंगे।

रात्रि में सोने से पहले हमें दिनभर के कार्यों का चिन्तन अवश्य करना चाहिए और शुभ-अशुभ कर्मों को पहचानने का प्रयास करके शुभ कर्मों को पकड़ना, अशुभ कर्मों को छोड़ना ही होगा।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

सच्चे तीर्थ माता-पिता-आचार्य व आप्त विद्वानों के सदुपदेश आदि हैं।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आजकल कुछ स्थानों अथवा नदी व सरोवरों को तीर्थ कहा जाता है। किसी से कोई पूछे कि इन तीर्थ स्थानों से इतर देश के अन्य सभी स्थान सच्चे तीर्थ क्यों नहीं है, तो इसका उत्तर शायद कोई नहीं दे सकेगा। तीर्थ शब्द संस्कृत भाषा का है और इसका प्रयोग वेद व वैदिक साहित्य में मिलता है। समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष निकलता है, उसके अनुसार तीर्थ में क्या भाव निहित है, यह जानना आवश्यक है। तीर्थ शब्द का अर्थ है जिससे मनुष्य दुःखसागर से पार उतरता है, वह तीर्थ होता है। वेदों में सत्याभाषण, विद्या, सत्संग, पांच यम अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्यअपरिग्रह आदि, योगाभ्यास, पुरुषार्थ तथा विद्यादानादि शुभ कर्मों को दुःखसागर से निवृत्ति कराने वाले बताया गया है। यही सब वस्तुतः तीर्थ हैं। इसके विपरीत दुःखसागर में डूबाने वाले अशुभ कर्म हैं जिनमें मुख्यतः असत्याभाषण, अविद्या, कुसंग, पांच यमों के विपरीत आचरण व व्यवहार करना, योगाभ्यास न करना, निठल्ला होना व तपस्वी न होना एवं विद्याहीनता आदि। विचार करने पर ज्ञात होता है कि आजकल के जल-स्थल आदि तीर्थ इन तीर्थ विपरीत गुण-कर्म-स्वभाव को चरितार्थ करते हैं। जलस्थलादि कोई भी स्थान तीर्थ नहीं है क्योंकि किसी स्थान या नदी, सरोवर जल के समीप जाने स्नानादि करने से मनुष्य के दुःख दारिद्रय दूर नहीं होते अर्थात् इन तीर्थों से कोई दुःखों से पार नही होता। इससे तो धन जीवन के सबसे मूल्यवान समय अर्थात् जीवनकाल का अपव्यय होने से हानि ही हानि दुःखों में वृद्धि होती है। इन बातों को केवल विवेकशील मनुष्य ही जान सकते हैं, अज्ञानी व अविद्याग्रस्त बन्धु नहीं जान सकते और इसी कारण से अज्ञानी लोगों को भ्रम में डालकर कुछ लोग अपना मनोरथ सिद्ध करते हैं जो कि कालान्तर में उनके लिए भी दुःखदायी ही होता है।

 

आजकल कुछ विशेष मन्दिरों और नदियों में स्नान आदि को तीर्थ की संज्ञा दी जाती है। यह विचार व भावना वेद और दर्शन, उपनिषद, शुद्ध मनुस्मृति आदि शास्त्रों के विचारों से विरूद्ध होने से असत्य, भ्रामक व अन्धविश्वास की श्रेणी में ही मानी जा सकती है। जिन वेद आदि शास्त्रों में ईश्वर, जीव, प्रकृति तथा जीवों के परमार्थ व सांसारिक सभी कर्तव्यों का युक्ति व तर्क संगत ज्ञान है, उनमें किसी स्थान व नदी में स्नान आदि को तीर्थ न बताना सकारण ही है क्योंकि कोई स्थान व नदियों का जल पूजा व स्नानादि के रूप में तीर्थ होता ही नहीं है। महर्षि दयानन्द धार्मिक जगत में सत्य के अन्वेषी थे, अतः उन्होंने अपने समय में उपलब्ध सभी धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ा था तथा ग्रन्थों में निहित विचारों पर युक्ति व तर्क को सामने रखकर चिन्तन भी किया था। उन्होंने अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, जो कि वेदों सहित आर्ष ज्ञान के प्रमाणित विद्वान थे, उनसे सभी विषयों पर चर्चा कर सत्य को प्राप्त किया था। उनका उद्देश्य जनता को बहका फुसला कर उनका धन हड़पना व उन्हें अपना चेला व शिष्य बनाना नहीं था अपितु जनता को सत्य मार्ग दिखा कर स्वयं और सभी को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कराना था। उनके समय में ही सहस्रों बुद्धिजीवी लोग उनके विचारों व मान्यताओं की महत्ता व सत्यता को जानकर उनके अनुयायी बने थे। उनसे वैदिक विद्वानों की एक लम्बी श्रृंखला चली है जिन्होंने उनकी वैदिक मान्यताओं को अनेक शास्त्रीय प्रमाणों, युक्तियों व तर्कों से सत्य सिद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने अपने समय में अन्य मत वालों से किसी भी धार्मिक विषय पर शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। उन्होंने अनेकों से  शास्त्रार्थ किए भी तथा सभी शास्त्राथों में उनकी ही विजय हुई। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उनकी सभी मान्यतायें सत्य पर आधारित व अकाट्य थी। उनमें अज्ञान नहीं था और न ही उनका अपना कोई निजी हित व स्वार्थ था जिसके लिए वह यह सब कार्य कर रहे थे। उनका उद्देश्य तो मात्र ईश्वर का आज्ञा का पालन करना वा कराना था जो वेदों में विहित है और जिसका आचरण करना ही सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य व परम धर्म है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में समूचे देश का भ्रमण किया था और तीर्थ स्थानों आदि में जो कुछ धर्माचरण के विरूद्ध होता है, उसे व उसकी सच्चाई को सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सबके सामने प्रस्तुत किया है जिसको जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना आवश्यक है। सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में स्वामी जी ने प्रश्न उठाते हुए कहा है कि क्या कोई तीर्थ सत्य है वा नहीं? इसका उत्तर हां में देकर वह लिखते हैं कि वेदादि सत्य शास्त्रों का पढ़ना-पढा़ना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना, सत्य करना, ब्रह्मचर्य पालन, आचार्य-अतिथि-माता-पिता की सेवा, परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, शान्ति से युक्त जीवन, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्तपुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभ गुण व कर्म दुःखों से तारने वाले होने से तीर्थ हैं। और जो जल स्थलमय स्थान हैं, वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते क्योंकि जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि अर्थात् मनुष्य जिन कर्मों को करके दुःखों से तरे उन का नाम तीर्थ है। जल स्थल तराने वाले नहीं किन्तु डुबाकर मारने वाले हैं। प्रत्युत नौका आदि का नाम तीर्थ हो सकता है क्योंकि उन से भी समुद्र आदि को तरते हैं। वैदिक साहित्य के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी के 4/4/107 सूत्र में कहा गया है कि समानतीर्थे वासी अर्थात् जो ब्रह्मचारीगण एक आचार्य से एक शास्त्र को साथ-साथ पढ़ते हों वे सब ब्रह्मचारीगण सतीर्थ्य अर्थात् समानतीर्थसेवी होते हैं। इसी प्रकार यजुर्वेद अध्याय 16 में मन्त्र सूक्ति नमस्तीथ्र्याय में कहा गया है कि जो वेदादि शास्त्र और सत्यभाषाणादि धर्म लक्षणों में साधु हो उस को अन्नादि पदार्थ देना और उन से विद्या लेनी इत्यादि तीर्थ कहाते हैं। इस प्रकार वेदादि शास्त्रानुमोदित तीर्थ का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। मूर्तिपूजा, मन्दिर, जल व नदी युक्त स्थानों में स्नानादि से मनुष्य दुःखों से नहीं तरते, इस कारण इनका सच्चा तीर्थ न होकर मिथ्या होना सिद्ध होता है।

 

देश व समाज में हम देखते हैं कि तीर्थाटन करने से किसी का अज्ञान व दुःख दूर नहं होते। उत्तराखण्ड के केदारनाथ आदि तीर्थ स्थानों की विगत त्रासदी में यह देखा गया है कि इन स्थानों पर आकर तीर्थ यात्रियों को दुःख से तरने के स्थान पर मृत्यु आदि दुःख मिले हैं। अतः इनसे दुःख तारने की अपेक्षा पूरी नहीं होती। देहरादून आर्यसमाज में त्रासदी के बाद आर्य संन्यासी स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक से पूछे एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था कि ईश्वर सर्वव्यापक है। इसलिए उसके दर्शन व प्राप्ति के लिये किसी को कहीं जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, वह तो साधना करने से अपनी आत्मा में सर्वत्र हो सकते हैं। अतः वैदिक ज्ञान विज्ञान के संवाहक विद्वानों से रहित किसी स्थान विशेष की संज्ञा तीर्थ कदापि नहीं हो सकती और न ही ऐसी यात्रा तीर्थ यात्रा हो सकती है। तीर्थ माता-पिता-आचार्य-वैदिक शास्त्रों में निहित है और इनसे ज्ञानार्जन करना ही तीर्थ होता है। जिस प्रकार से कभी किसी को कोई रोगादि हो जाता है तो वैद्यों व चिकित्सकों के उपचार से वह स्वस्थ होता है अन्यथा नहीं। धनोपार्जन के लिए कृषि, व्यापार, सेवा आदि कार्य करने होते हैं, किसी मूर्ति आदि की पूजा व जलस्थलादि की यात्रा व पूजा आदि करने से दुःखों पर विजय प्राप्त नहीं होती, अतः वर्तमान के तीर्थ तीर्थ न होकर सत्य व यथार्थ तीर्थ की विकृतियां है जिससे मनुष्यों की भारी हानि हो रही है। यदि तीर्थों में किया जाने वाला पुरुषार्थ सत्य व ज्ञान पूर्वक स्वजीवन व सामाजिक के हित की भावना से हो, तो वह लाभकारी होता है। अतः वैदिक तीर्थों को जानकर उनका सेवन कर वर्तमान जीवन व परलोक के जीवन को सुधारना अर्थात् इनमें होने वाले दुःखों से पार होने के वैदिक उपायों को करना चाहिये। यही हमारे व्यक्तिगत व देश के हित में है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्या – इन्द्रजित्देव

पञ्जाब के जिला हुशियारपुर में एक कस्बा है- हरयाणा। इस कस्बे ने आर्य समाज के दो उपदेशक लेखक उत्पन्न किए हैं। एक का नाम है- माई भगवती और दूसरे हैं- श्री हरिवंशलाल मेहता जी

श्री मेहता जी का जन्म 1917 ईस्वी में हुआ था। भारत सरकार के संचार मन्त्रालय में कार्य करने के पश्चात् जब वे सेवा-निवृत्त हुए तो वे उत्तरप्रदेश के लखनऊ में निवास करने लगे। श्री आचार्य हरिशरण सिद्धान्तालङ्कार से प्रेरणा पाकर आप वेदाध्ययन करते रहे हैं तथा कई वैदिक पत्रिकाओं में लेख भी छपाते रहे हैं। आपकी रचनाएं दिव्योपदेश, सुमधुर पुष्पाञ्जलि, भक्त की जीवनचर्या नाम से प्रकाशित हुई।

माई भगवती का जन्म सन् 1844 ईस्वी में एक उच्च क्षत्रियकुल में हुआ था। तब भारत भर में स्त्री-शिक्षा का नाम तक न था। तब पढ़ने लिखने में पुरुष भी बहुत पिछड़े हुए थे। आठवीं कक्षा तक पढ़ चुके पुरुष बहुत आदरणीय पद ग्रहण करते थे । कुछ पुरुष मन्दिरों में पुजारियों से थोड़ी-बह़ुत कथित धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर लेते थे। स्त्रियों का पढ़ना तो अत्यन्त हेय कार्य माना जाता था। माता भगवती जी का पूर्व नाम पार्वती था। उनके परिवार ने बड़े साहस से निर्णय लेकर उन्हें एक पण्डित जी के पास पढ़ने के लिए भेजना आरभ किया । माता ने थोड़े ही दिनों में कई ग्रन्थों का स्वाध्याय कर लिया। अन्धविश्वासियों व संकीर्ण दृष्टिकोण वाले समाज के कथित ठेकेदारों ने उनकी शिक्षा का विरोध किया व उन्हें अनेक प्रकार के दुःख भी पहुँचाए। कई-कई दिनों तक उन्हें भूखी-प्यासी भी रहना पड़ा परन्तु उन्होंने सभी कष्टों को वीरतापूर्वक सामना किया।

माता भगवती का नवीन वेदान्त की ओर झुकाव होता चला गया परन्तु इसी बीच कई शंकाएं भी उनके दिमाग में नवीन वेदान्त के सिद्धान्तों पर उत्पन्न हुई जो समुचित समाधान न पा सकीं। संयोग से उनको कालान्तर में ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ मिला तथा उन्होंने इसका गहन-गभीर अध्ययन किया। परिणाम यह निकला कि माता जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती को एक पत्र भेजकर उन शंकाओं के समाधान करने की प्रार्थना की। महर्षि दयानन्द के दर्शन करने की प्रबल इच्छा भी माता जी ने इस पत्र में प्रकट की। तब महर्षि मुबई में थे। पत्र पाकर महर्षि ने अपनी स्वीकृति प्रदान की। माता भगवती जी अपनेभाई श्री चूनी लाल जी के साथ जब महर्षि के चरणों में उपस्थित हुई तो महर्षि अपने खैमे में ही रहे। बीच में माई भगवती ने अपनी शंकाएँ प्रस्तुत कीं, जिनका समाधान महर्षि जी ने कर दिया। माताजी का मन पूर्ण सन्तुष्ट हुआ तो उन्होंने महर्षि से अपने भविष्य के जीवन के लिए मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया। महर्षि ने उन्हें कहा-‘‘इस समय स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय है। यदि तुम करना चाहती हो तो अपने क्षेत्र में जाकर स्त्रियों की शिक्षा, उन्नति तथा उनके कर्तव्य व अधिकारों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दो।’’

माता भगवती जी ने महर्षि दयानन्द जी के आदेशानुसार शेष जीवन इन्हीं कार्यों में लगाया। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि वे महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्या बनीं। आर्यसमाज के प्रथम भजनोपदेशक (पं. अमीं चन्द मेहता को जन्म देने का गौरव पंजाब को मिला तो प्रथम आर्य भजनोपदेशिका माता भगवती भी पंजाब की ही सुपुत्री थीं। दोनों ने महर्षि के दर्शन किए थे व दोनों को महर्षि की प्रेरणा व आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ था। माई जी की बुद्धि विशाल थी। थोड़े ही समय में बहुत से ग्रन्थ पढे तथा जीवन भर पढ़ने-लिखने में ही लगी रहीं। उन्हें तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज ने बहुत कष्टदिए परन्तु माता ने धैर्यपूर्वक सबका सामना किया । पंजाब ही नहीं, उत्तर भारत के नगर-नगर में जाकर व्यायान दिए तथा स्त्री-शिक्षा का प्रचार भी किया। उनके स्वरचित ललित व मनोहर भजन श्रोताओं पर भरपूर प्रभाव डालते थे। इनका एक संग्रह विरजानन्द यन्त्रालय, लाहौर से ‘‘अबला मति वेगरोधक संगीत’’ नाम से सन् 1893 ई. में प्रकाशित हुआ था।

माई भगवती जी ने अपने कस्बे में एक कन्या पाठशाला भी खोली जिसमें वे स्वयम् अवैतनिक अध्यापिका रहीं। पढ़ाई के अतिरिक्त प्रतिदिन सत्संग भी चलता था। इससे नारियों ने माई जी के उपदेशों द्वारा बहुत लाभ प्राप्त किया। माई जी का देहान्त सन् 1899 ईस्वी में 55 वर्षों की अवस्था में हुआ था। माता जी ने मरने से पूर्व अपनी सपूर्ण सपत्ति का सदुपयोग करने व नारी – शिक्षा के प्रचार-प्रसार में ही लगाने की वसीयत करके  एक समिति को सौंप दी थी। जो लोग उनका-विरोध करते थे, माई जी के अन्तिम दिनों में उनके विचार बदले व भगवती जी के कार्यों व योग्यता के आगे नतमस्तक हो गए थे। जब माई भगवती जी की शवयात्रा आरा हुई तो सहस्रों पुरुष उनके शव पर पुष्प वर्षा करते तथा सामूहिक रूप में जय देवी, जयदेवी बोलते हुए मरघट तक गए थे। महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्य की पावन स्मृति को सश्रद्ध नमन्

-चूना भट्टियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर

रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।

रक्षा बंधन, ये शब्द सुनते ही भाई और बहन का वो पवित्र रिश्ता आँखों के दिखना शुरू हो जाता है जो एक धागे से बंधा होता है।

इस दिन श्रावण मास की पूर्णमासी को ये धागा एक बहिन द्वारा अपने भाई की कलाई में बाँध कर भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना बहन का कर्तव्य और भाई का अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देना करने से ही पूर्ण हो जाता है ऐसा समझा जाता है, और इस कार्य की इतिश्री करके धागा बंधने से पूर्ण कर दिया जाता है। मगर क्या यही सनातन संस्कृति है ?

ऐसे अनेको प्रमाण मिलते हैं की इस प्रकार का रक्षा बंधन सनातन संस्कृति नहीं है बल्कि ये एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कार्य है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है उनमे पौराणिक बंधू इन्हे प्रमुखता देते हैं :

1. द्रौपदी का कृष्ण की आकस्मिक अंगुली कटने पर साडी व दुपट्टा का टुकड़ा बाँध देना।

2. कुंती का अपने पौत्र अभिमन्यु को महाभारत युद्ध में कलाई पर रक्षा कवच बाँध देना।

3. पौराणिक दानी दैत्य राजा बलि का रक्षा बंधन से रक्षा होना।

इन प्रमुख कारणों पर यदि ध्यान से देखा जाए तो भी ये रक्षा बंधन यानी बहन का भाई की कलाई पर राखी बांधना और रक्षा का वचन लेना सनातन संस्कृति सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं और ऐतिहासिक तथ्य कभी सनातन नहीं हो सकते हैं।

आखिर क्या कारण है की एक दिन के लिए ही भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है ? क्या पुरे साल उसे याद दिलाते रहने के लिए ?

मुझे तो नहीं लगता, लेकिन यदि कुछ सालो पीछे जाये तो याद आएगा की हमारे देश में मुगलो का राज था जिसमे महिलाओ की अस्मत और आबरू खतरे में थी, मुझे ऐसा लगता है की ये त्यौहार भाई बहन के लिए उस समय ज्यादा प्रचलन में आया ताकि सामाजिक तौर पर प्रत्येक हिन्दू जाती की महिला को सुरक्षा का भाव मिले। केवल अपने भाई से ही नहीं वरन सभी पुरुषो से।

अब सवाल उठेगा की फिर ये श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं ? इसका जवाब हमें अपने भारतीय जनजीवन और भौगोलिक परिस्थियों अनुरूप मिलता है। देखिये हमारा देश कृषि प्रधान राष्ट्र है, और कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते हमारे देश में कृषक समुदाय अधिक हैं या वो लोग जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसलिए यदि आप ध्यान देवे तो आप पाएंगे की हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ये क्रम आज भी वैसा ही है जैसे पूर्व काल में होता था मगर बदला है आज का साधु समाज क्योंकि वैदिक काल में ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जो गाँव वालो को वेद धर्म की शिक्षा देते थे। क्योंकि इस समय कृषक समाज अपनी खेती आदि कार्यो से फारिग हो जाता था इसलिए इस धार्मिक कृत्य में प्रमुखता से जुड़ता था जिससे देश और धर्म दोनों का ही कल्याण होता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2)

इसके पीछे जो रहस्य है वो ऊपर बताने और समझाने का प्रयास किया है।

वर्षा ऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन इसलिए भी किया जाता था क्योंकि वर्षा के दौरान बीमारिया फ़ैलाने वाले जीवाणु अधिक उतपन्न होते हैं इसलिए इनके निवारण हेतु यज्ञ अधिकमात्रा में होते थे जिसमे विशेष सामग्रियाँ डाली जाती थी।

यही रक्षाबंधन था उस यज्ञ का और जीव का जिससे प्रकृति की रक्षा होती थी और इसी स्वाध्याय के आधार पर यज्ञ होते थे जिससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए अनेको विषाणुओं का जो गंभीर बीमारियां उत्पन्न करते थे उनसे यज्ञ द्वारा जीव और प्रकृति की रक्षा होती थी, स्वाध्याय करते हुए नित नए औषधि युक्त सामग्रियों का निर्माण करना और यज्ञ करते हुए प्रकृति, कृषि और जीव इनकी रक्षा करना यही बंधन को ऋषि समझते थे, ज्ञान देते थे।

आज भी अनेको गुरुकुलों में पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता है। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता है। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है।

भले ही इस पवित्र परंपरा को आज लोग भूल गए क्योंकि वो वेदो से विमुख होकर अनार्ष ग्रंथो के अध्यन में रत हुए मगर ये भी सत्य है की पूरी तरह से सिद्धांतो को न बदल पाये, मुगल काल में महिलाओ की रक्षा हेतु रक्षाबंधन का वचन देकर अपनी बहनो माताओ की रक्षण करना, यज्ञोपवीत धारण करना आदि अनेको भ्रान्तिया भी चली मगर सत्य सनातन वैदिक मत यही है की हम वेद और विज्ञानं आधारित बातो को माने क्योंकि सत्य वही है।

केवल भाई बहन तक सीमित न रहकर, इस पवित्र त्यौहार को पुरे विश्व बंधुत्व की और ले जाए, अग्रसर हो इस पवित्र त्यौहार को वैदिक रीति से मनाने के लिए, क्योंकि ये केवल भाई बहन तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

आइये लौटियो उसी सनातन संस्कृति की और, लौटिए उस विज्ञानं की और जो ऋषियों ने वेदो के द्रष्टा बनकर हमें दिया। आइये लौटियो वेदो की और।

नमस्ते।

अंधविश्वासों का खण्डन समाज की उन्नति के लिए परम आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

जिस प्रकार से मनुष्य शरीर में कुपथ्य के कारण समय-समय पर रोगादि हो जाया करते हैं, इसी प्रकार समाज में भी ज्ञान प्राप्ति की  समुचित व्यवस्था न होने के कारण सामाजिक रोग मुख्यतः अन्धविश्वास, अपसंस्कृति एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता आदि हो जाया करते हैं। अज्ञान, असत्य व अन्धविश्वास का पर्याय है। जहां अज्ञान होगा वहां अन्धविश्वास वर्षा ऋतु में खेतों में खरपतवार की तरह उग ही जाया करते हैं। उदाहरण के लिये हम प्रकृति वा सृष्टि को देखते हैं तो हमारे मन में प्रश्न आता है कि यह सुव्यवस्थित संसार किसकी रचना है अर्थात् इसका रचयिता कौन है? अब इस प्रश्न के उत्तर के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञानी भी ऐसा हो जो लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति को ही परम प्रमाण न मानकर वैदिक परम्परा में हमारे ऋषियों व मुनियों ने विचार, ध्यान व चिन्तन द्वारा जिस सत्य को प्राप्त किया, उस ज्ञान व अनुभव से परिचित हो व उसको समझने वा मानने वाला हो। आजकल के हमारे पढ़े लिखे लोग हमारे वेद एवं अन्य ज्योतिष, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि का अध्ययन तो करते नहीं, केवल विज्ञान, इतिहास व भूगोल आदि विषयों का अध्ययन कर इन प्रश्नों पर विचार करते हैं तो वह इस संसार की रचना में छिपी हुई सत्ता को जान नहीं पाते। वेदों ने कहा है कि ‘‘ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंच जगत्यां जगत्,  ‘ दाधार पृथिवीन्द्यामुतेमां आदि मन्त्र सूक्तियों में संसार के रचयिता को सर्वव्यापक ईश्वर बताया गया है और उसे ही पृथिवी व द्युलोक का आधार, धारणकर्त्ता व रचयिता बताया गया है। ईश्वर का युक्ति व तर्क संगत वर्णन भी वेदों में विस्तार से प्राप्त होता है। जो बात तर्क से सिद्ध वा अकाट्य हो वह सत्य होती है। सत्य निर्धारण की मुख्य विधि व प्रक्रिया यही है कि किसी विषय के पक्ष व विपक्ष के विचारों की समीक्षा की जायें और जो बातें अकाट्य हों, उनको सत्य माना जाये। ईश्वर विषय पर विस्तार से अध्ययन व निर्णय हेतु वेदान्त दर्शन की रचना महर्षि बादरायण वा वेद व्यास जी ने सहस्रों वर्ष पूर्व वैदिक काल में की थी। इसमें कहा गया है कि जिससे इस संसार की उत्पत्ति हुई है, जिससे इसका पालन वा संचालन होता है तथा अन्त में जिससे इस संसार का प्रलय व विनाश होता है, उसे ईश्वर करते है। यह ईश्वर हमारी ही तरह से एक चेतन तत्व है। अन्तर इतना है कि हम एकदेशी व अल्प हैं तथा ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है। सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता उसका अनादि व नित्य गुण है। वह सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल वा आदि स्रोत है। वेदान्त दर्शन में इन लक्षणों व गुणों से युक्त ईश्वर को सिद्ध भी किया गया है। दर्शन का आधार समस्त वैदिक विचार व उनका चिन्तन है। सभी छः दर्शन चार वेदों के पोषक हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि एक सर्वव्यापक और सर्वज्ञ सत्ता ईश्वर है जिससे, जिसके द्वारा व जिसके ज्ञान व सामर्थ्य से मूल प्रकृति नामी सत्ता जो सत्व, रज व तम गुणों वाली अनादि व नित्य है, से पूर्वोक्त ईश्वर ने इस सृष्टि को रचा वा बनाया है। यह कार्य ऐसा ही है जैसे कि हम किसी वस्तु के निर्माण का ज्ञान अर्जित कर निर्माण में उपयोगी सभी पदार्थों को एकत्र कर ज्ञान व शक्ति रूपी सामर्थ्य का प्रयोग कर पदार्थों को बनाते हैं। उद्योग में पदार्थों का निर्माण भी इसी सिद्धान्त पर होता है। यदि इच्छित वस्तु के निर्माण का ज्ञान न हो, निर्माण में आवश्यक पदार्थ उपलब्ध न हो तथा हमारे उद्योग में यन्त्र पदार्थ निर्माण के सर्वथा वा सब प्रकार से उसके अनुकूल व अनुरूप न हो तो नया इच्छित पदार्थ नहीं बन सकता है।

 

खण्डन का अर्थ किसी पदार्थ को तोड़ना है। सत्य तो सत्य है उसका खण्डन वा उसका तोड़ना सम्भव नहीं है। असत्य व अज्ञान ऐसा है कि जिससे मनुष्य को हानि होती है और वह उस अज्ञानाधारित कार्य से इच्छित लक्ष्य व उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाता। अतः हमें अपनी बुद्धि से मनन कर इच्छित विषय के सभी पहलुओं पर विचार कर, जो उद्देश्य को पूरा करने वाले पहलु हैं, उन्हें उपयोग में लाना होता है और जो अनुपयोगी होते हैं, उन्हें छोड़ना होता है वा अज्ञानियों को उन अज्ञानतापूर्ण कार्यों से छुड़वाने के लिए उनका खण्डन व सत्य पदार्थ, पक्ष व पहलुवों का मण्डन कर समझाना होता है। इस कसौटी वा तुला पर हम अपने जीवन के प्रत्येक कार्य व चिन्तन को देख व परख कर ग्रहण व त्याग कर सकते हैं। सबसे पहला कार्य तो यह करना है कि हम सब सभी सत्य विद्याओं का अध्ययन करें। आधुनिक ज्ञान सब अच्छा नहीं है और प्राचीन ज्ञान सब बुरा व अनुपयोगी नहीं है। हमें दोनों में सत्य ज्ञान व विद्याओं का ग्रहण व असत्य ज्ञान तथा विद्याओं का त्याग करना चाहिये। जहां तक इस संसार के निर्माता को समझना है तो हमें केवल वेद और वैदिक साहित्य की ही शरण लेनी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के सत्य स्वरूप के निर्धारण के लिए सत्यार्थ प्रकाश नाम का ग्रन्थ लिखा है जो सभी प्रकार की सत्य मान्यताओं से हमारा परिचय कराता है। इसके साथ ही उन्होंने अपनी इसी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में असत्य, मिथ्या, अज्ञान व तर्कहीन मान्यताओं का परिचय कराकर उनका वेद, युक्ति व तर्क आदि प्रमाणों से खण्डन किया है। यदि हम सत्य को जानना चाहते हैं तो हमें सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना ही होगा। सत्य का ज्ञान हो जाने व जीवन में उसका आचरण करने से हम उन्नति को अथवा जीवन में विकास जो कि उन्नति का ही पर्याय है, प्राप्त होते हैं और विपरीत स्थिति में अवनति व गिरावट को प्राप्त होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहने को कहा है। वह उपदेश करते हैं कि सत्य को मानना और मनवाना और असत्य को छोड़ना और छुड़वाना उन्हें व सभी मनुष्यों का अभीष्ट होना चाहिये। बहुत से लोग उनके खण्डन करने को बुरा मानते थे परन्तु यही कहा जा सकता है कि ऐसे लोग अज्ञानी व स्वार्थी ही हो सकते हैं। कोई भी ज्ञानी व्यक्ति असत्य के खण्डन व सत्य के मण्डन से नाराज व उद्विग्न कभी नहीं हो सकता। ज्ञानी व विवेकपूर्ण व्यक्ति वही हो सकता है जो असत्य के खण्डन का प्रशंसक व सत्य के मण्डन का भी प्रशंसक हो। विगत लगभग 140 से कुछ अधिक वर्षों में महर्षि दयानन्द द्वारा खण्डित व मण्डित मान्यताओं को किसी मत, सम्प्रदाय, धार्मिक संस्था का कोई भी धर्म गुरू व विद्वान युक्ति व प्रमाण पूर्वक खण्डन व प्रतिवाद नहीं कर सका। इससे सिद्ध हो गया है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में जो कहा था वह सर्वथा व पूर्णतः सत्य था व आज भी है।

 

अब खण्डन की देशोन्नति में भूमिका पर विचार करते हैं। खण्डन करने से असत्य व अज्ञान का नाश होता है। देशोन्नति में असत्य व अज्ञान बाधक होते हैं, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। उदाहरण रूप में विचार कर सकते हैं कि यदि देश व समाज के सभी लोग असत्य भाषी अर्थात् झूठे और मिथ्याचारी हों तो क्या समाज व देश उन्नति कर सकते हैं? उसका एकमात्र उत्तर है कि नहीं कर सकते। सत्य सदा सर्वदा प्रशंसनीय और असत्य व अन्धविश्वास सर्वदा निन्दनीय होने से खण्डनीय हैं। देश में जितने अधिक मनुष्य सत्याचारी वा सदाचारी, चरित्रवान, देशभक्त, ईश्वरभक्त, जातिवाद, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े की भावना से मुक्त होंगे वह समाज व देश उतना ही उन्नत होगा। यूरोप में उन्नति का कारण ही वहां अन्धविश्वासों की कमी व देशवासियों के आदर्श चरित्र हैं। वहां भ्रष्टाचार, असत्य व्यवहार, जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच, सामाजिक विषमता, मिथ्या ईश्वरोपासना, मिथ्या धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रत व उपवास आदि न्यूनातिन्यून है जिससे वह प्रगति व उन्नति कर रहे हैं। हमारा सारा देश व विश्व के सभी देश अधिकांश रूप में यूरोप के वैज्ञानिकों के आभारी हैं जिनकी कृपा व वैज्ञानिक अनुसंधानों के कारण हमें अपने दैनिक जीवन में उपयोग की वस्तुएं यथा विद्युत व इससे संचालित यन्त्र, कार, सुविधादायक भवन व आवास, टेलीफोन, कम्प्यूटर, रेल व वायुयान, अच्छी सड़के, रोगोपचार व शल्य क्रिया का ज्ञान आदि उपलब्ध हैं। यह सब सत्य की खोज व इससे प्राप्त देनें हैं। दूसरी ओर हमारा देश आज भी अज्ञान, अन्धविश्वास, असत्य, मिथ्याचारों व सामाजिक विषमताओं के झंझावतों में उलझा हुआ है जो हमें पतन, अवनति व गुलामी की ओर ले जा रहे हैं। आज इसी कारण कुछ लोग तो बड़े बड़े धन कुबेर बन गये हैं और दूसरी ओर न लोगों को पेट भर भोजन है, न चिकित्सा व्यवस्था है, न अच्छा आवास न अन्य सुविधायें हैं। हमारे अधिकांश देशवासियों का नरक से भी बुरा जीवन है और हम गर्व करते हैं कि हमारा देश सृष्टि का धर्म, ज्ञान व विद्या का आदि स्रोत रहा है। यह पूर्ण सत्य होते हुए भी वर्तमान परिस्थितियों में हमें मिथ्या अभिमान से ग्रसित प्रदर्शित करता है। देश के मानव मानव में जमीन आसमान का अन्तर हमारी शासन प्रणाली की देन के साथ सबके लिए एक समान, निःशुल्क, वैदिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा के न होने के कारण है। इसका उत्तरदायित्व भी किसी न किसी रूप में शासन प्रणाली को ही है जिसमें अनेक सुधारों की आवश्यकता है। अतः असत्य का खण्डन कर ही समस्याओं का निदान किया जा सकता है। असत्य के खण्डन से ही देश सबल, उन्नत व विकसित होगा। इस देश को उन्नत व विकसित उसी दिन कहा जायेगा जिस दिन सभी देशवासी वैदिक शिक्षा से शिक्षित होकर परस्पर एक दूसरे को मित्र, बन्धु व सबको एक परिवार के सदस्य अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम की दृष्टि से देखेंगे और  मानेंगे।

हम समझते हैं कि यह सिद्ध सत्य सिद्धान्त है कि असत्य के खण्डन और सत्य के मण्डन से ही व्यक्ति, समाज व देश का विकास व सर्वांगीण उन्नति सम्भव है और इसके विपरीत स्थिति हमें अवनति की ओर ले जाती है।

मनमोहन कुमार आर्य

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