ईश्वर इस संसार का रचनाकार है, उसने हर वस्तु की रचना बड़ी बुद्धिमत्ता से व्यवस्थित ढंग से की है क्योंकि वह सर्वज्ञ है, हम जीवात्मायें अल्पज्ञ हैं। हम लोग अपनी सुख-सुविधा के लिए कई बार अधिक छेड़-छाड़ कर प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं परन्तु परमात्मा उसे व्यवस्थित रखता है। ईश्वर के नियमानुसार प्रकृति अपने आपको संतुलित करने के लिए उसमें भूकप, बाढ़, अतिवृष्टि-अनावृष्टि इत्यादि घटनाएँ निरन्तर घटती रहती है, सृजन-संहार सतत् प्रक्रिया है। ये कभी भी, किसी के साथ भी, कहीं भी हो सकने वाली घटनाएँ हैं। अतः संवेदनशील मनुष्य इन घटनाओं व इन घटनाओं से प्रभावित होने वाले प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखता है और मन में ये भी भाव रहते हैं कि हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है। यही मनुष्य का मनुष्यपन है।
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने तीन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर परोपकारिणी सभा की स्थापना की थी-
(1) वेदों का पठन-पाठन व प्रचार-प्रसार।
(2) वेदादि आर्ष ग्रन्थों का प्रकाशन।
(3) दीन दुखियों की सेवा।
इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रख, सभा सतत् अपना कार्य करती रहती है। जहाँ भी इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, सभा अपने सामर्थ्य/साधनों से जनहित में कार्य करती है। नेपाल में भी भयंकर भूकप आया, हजारों लोग हताहत हुए, सभा प्रधान डॉ. धर्मवीर जी का संकेत हुआ कि सहायता के लिए जाना है।
अजमेर से काठमाण्डू (नेपाल की राजधानी) का रास्ता बड़ा लबा है। एका-एक इतनी लबी यात्रा कैसे हो? दो दिन तक रेल्वे का तत्काल टिकिट कराने का प्रयास किया, पर आरक्षण नहीं हुआ, जाना तो अवश्य था। जाने का निश्चय कर मैंने (कर्मवीर), ब्र. सोमेश जी व ब्र. प्रभाकर जी से सपर्क किया। सभा का आदेश पाकर, वे भी जाने के लिए तैयार हो गये। गोरखपुर (उ.प्र.) के रास्ते से जाने का निश्चय कर, गोरखपुर आर्य समाज में एकत्रित होने का निर्धारण हुआ।
मैं 14 मई को अजमेर से चला, सोमेश जी मैनपुरी से तथा प्रभाकर जी बिजनौर से। आर्य समाज गोरखपुर के प्रधान डॉ. विनय आर्य जी से सपर्क हो चुका था, उन्होंने हमारी भोजन व आवास की व्यवस्था बड़ी श्रद्धा से की।
मैं अजमेर से कानपुर बस से यात्रा करके गया, कानपुर से लखनऊ की बस पकड़ी, कानपुर बस स्टैंड पर दोपहर के बारह बजे धूप में बस खड़ी थी, आस-पास छाया का कोई स्थान नहीं था, गर्मी के कारण शरीर से पसीना ऐसे टपकता था जैसे कोई भाप स्नान (स्टीम बाथ) कर रहा हो, उधर ब्र. प्रभाकर जी ने भी मुरादाबाद से गोरखपुर के लिए रेलगाड़ी पकड़ी, मार्ग बहुत लबा था, गर्मी भीषण, आरक्षण है नहीं, सामान्य डबे में इतनी भीड़ कि शौचालय में भी यात्री घुसे हुए थे, अतः उन्होंने भी दुःखी होकर सीतापुर में रेल गाड़ी छोड़, बस पकड़ी थी तथा इस प्रकार से यात्रा करके हम लोग गोरखपुर पहुँचे, एक दिन विश्राम किया।
17 मई को हम लोग गोरखपुर से 20 किमी. दूर पीपीगंज नामक स्थान पर पहुँचे, यहाँ पर ड़ॉ. वेदानन्द जी कश्यप, सभा प्रधान डा. धर्मवीर जी के मित्र हैं। आपने हम सब लोगों के लिए प्रातःराश तथा यात्रा के लिए भोजन उपलध कराया एवं राहत कार्य के लिए दान भी दिया, आप एक सच्चे वैदिक मिशनरी हैं।
पीपीगंज से हम लोग भारत-नेपाल की सीमा सोनौली पहुँचे। यही से हमने मध्याह्न के समय काठमाण्डू के लिए बस पकड़ी। बहुत लबा मार्ग पहाड़ी से होकर गुजरता था, अतः काठमाण्डू तक पहुँचते हुए अंधेरा होने लगा। काठमाण्डू में प्रवेश से पूर्व ही भूकप का प्रभाव दिखाई देने लगा, टूटे फू टे मकान, कई बड़े-बड़े भवन भी धराशायी हो चुके थे। परन्तु अन्धेरे के कारण स्पष्ट दिखाई नहीं देता था। हम रात्रि 8:30 बजे काठमाण्डू पहुँचे परन्तु साढे आठ बजे ही काठमाण्डू सुनसान हो चुका था, बाजार भी पूरे बंद थे, यात्री बसें इत्यादि भी बन्द हो चुकी थी, बड़ी मुश्किल से एक टैक्सी (कार) करके हम लोग केन्द्रीय आर्य समाज नेपाल के कार्यालय पहुँचे । वहाँ के प्रधान पं. कमलकान्त जी आर्य को पहले से सूचना दी जा चुकी थी अतः वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। यहीं आर्य समाज में ब्र. आचार्य नन्दकिशोर जी पहले से पहुँचे हुए थे। आ. नन्दकिशोर जी बाल-स्वभाव, पवित्र-हृदय व आर्य समाज के प्रति दृढ़ निष्ठावान पुरुष हैं। रात्रि अधिक हो चुकी थी, भोजन किया तथा शयन की तैयारी करने लगे तो पं. कमलाकान्त जी ने निर्देश दिया कि पानी का बड़ा अभाव है, जल-व्यवस्था भूकप के कारण पूर्ण रूप से बाधित है, अतः सुबह स्नान नहीं होगा, शौच इत्यादि में भी पानी प्रयोग में सावधानी रखनी है।
सोने से पूर्व एक निर्देश और दिया गया कि सावधान रहना है, लगातार भूकप के झटके आते रहते हैं, ऐसा हो तो विचलित नहीं होना, धैर्य से काम लेना, चलने में शरीर का सन्तुलन बनाये रखना है। आपने बताया कि जब भूकप आता है तो शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है। आगे की ओर चलने की कोशिश करते हैं पर ऐसा लगता है कि पीछे की ओर गिरेंगे। भूकप आये तो तुरन्तावन से बाहर निकल कर खुले मैदान में पहुँचना है।
18 मई को प्रातः उठकर शौचादि से निवृत्त होकर, हाथ-मुँह धोक र, बिना नहाये ही यज्ञ किया। 11 बजे आर्य समाज के लोगों की बैठक पण्डित जी द्वारा बुलाई गई, बैठक का उद्देश्य था कि राहत कार्य कहाँ व किस प्रकार से किया जाए? हम लोग इन्हीं लोगों की सहायता से कार्य कर सकते थे। क्योंकि कोई भी बाहरी संस्था/संगठन यहाँ पर सरकार की अनुमति के बिना राहत सामग्री इत्यादि वितरित नहीं कर सकते। कई बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, त्रस्त जनता सामान भी लूट लेती है। अतः स्थानीय लोगों की सहायता अवश्य लेनी पड़ती है।
बैठक में निश्चय हुआ कि काठमाण्डू से 200 किमी. दूर उत्तर पूर्व (ईशान कोण) में 12 मई के दिन जहाँ दोबारा भूकप आया था, वहाँ पर सिंगेटी नामक स्थान जि. दोलखा का लामी डाँडा नामक ग्राम का वार्ड सं. 7 जिसमें 16 परिवार रहते हैं, वहाँ पर राहत पहुँचाई जाए क्योंकि अधिक दूर व रास्ता दुर्गम होने के कारण वहाँ राहत कर्मी प्रायः नहीं पहुँचते। इसमें बड़ी समस्या थी कि राहत सामग्री कहाँ से उपलध हो? वितरण की प्रक्रिया क्या हो ताकि छीना-झपटी न हो। इस कार्य के लिए एक आर्य सज्जन कृष्ण जी जो आर्य समाज में ही सेवा देते थे, कृष्ण जी 2 वर्ष तक गुरुकुल एटा में पढ़े थे, आपको व्यवस्था के लिए दो दिन पूर्व ही उस स्थान पर भेज दिया गया था।
हमारा यह विचार बना कि भूकप से प्रभावित सभी महत्वपूर्ण स्थानों को देखना चाहिए, जिससे वास्तविक हानि का स्थूल रूप से ही सही, परन्तु ठीक-ठीक अनुमान लग सके। अतः सायंकाल हम लोग पशुपतिनाथ का मंदिर देखने गये थे, मन्दिर भी क्षतिग्रस्त हो चुका था, यहाँ पर एक घटना विशेष देखी मन्दिर के परिसर से एक नाला बहता है, उसके दोनों तरफ घाट है। उन घाटों पर दाह संस्कार करने में लोग मृतक के लिए स्वर्ग प्राप्ति मानते है, हरिद्वार, काशी की तरह जब ऐसे स्थलों पर लोग दूरस्थ स्थानों से आते हैं, तो मार्ग व्यय इत्यादि में उनका बहुत सारा धन व्यय हो जाता है। जिसकी पूर्ति लोग मृतक पर डाले जाने वाले काष्ठ में करते हैं, ऐसे स्थानों पर ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा काष्ठ बहुत महंगा मिलता है। घृत-सामग्रीाी प्रायः न के बराबर डालते हैं, जिस कारण मृतक दहन के समय भारी दुर्गन्ध फैलती है। पशुपति नाथ मन्दिर में भी इसी तरह भारी दुर्गन्ध फैली हुई थी।
उसी क्रम में 19 मई की सायं हम लोग काठमाण्डू में जो स्थान अधिक क्षतिग्रस्त हुए उन स्थानों को देखने गये, सबसे पहले हम काठमाण्डू का विशेष स्थान जहाँ पर संग्राहलय इत्यादि है, अधिकांश सरकारी कार्यालय तथा जो विदेशी सैलानियों का केन्द्र रहता है, वह स्थान देखा, अच्छे सुन्दर विशाल भवन मलबे के ढेर में परिवर्तित हो चुके थे, उस क्षेत्र में रहने वाले लोग अधिकतर या तो बाहर जा चुके थे या तो खुले मैदानों में तबुओं में रह रहे थे। पूरे काठमाण्डू का यही हाल था, कोई स्टेडियम, पार्क, खुला सार्वजनिक स्थान खाली नहीं था, सब जगह तबू ही तबू लगे हुए थे। भय के कारण लोग घरों में नहीं रहते थे वहाँ के लोगों के कथनानुसार लगभग 5 लाख लोग तो भय के कारण अस्थाई रूप से पलायन कर चुके थे, सड़कें-भवन प्रायः खाली नजर आते थे।
इस स्थान की एक विशेषता और थी, यहाँ जो पुराने भवन थे, वे बड़े विशाल एवं उनके खिड़की दरवाजे उनकी निर्माण प्रक्रिया अति विचित्र थी, जिस प्रकार से जैसलमेर (राज.) में हवेलियों में पत्थर के ऊपर मनमोहिनी कलाकृति आने वाले पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है, इसी प्रकार लकडी की विश्व स्तरीय कलाकृति, भवनों की शोभा मन आत्मा को स्पर्श करने वाली थी, परन्तु काल का कुठार ऐसा चला की सब नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था। सारा क्षेत्र वीरान खण्डर में रूपान्तरित हो चुका था। वहाँ से चलते हुए, बाजार-भवनों से भ्रमण करते हुए एक विशेष स्थान पर पहुँचे, यह स्थान आर्य क्रान्तिकारियों के साहस व शौर्य का प्रतीक है, इस स्थान का नाम है इन्दिरा चौक। इस स्थान पर आर्य बलिदानी शुक्रराज शास्त्री राजशाही के विरूद्ध भाषण दिया करते थे, राजा के गलत नियमों-कानूनों से प्रजा त्रस्त थी, अन्ध विश्वास बलि प्रथा इत्यादि कुरीतियाँ चर्म सीमा पर थी, शास्त्री जी इनका विरोध करते थे, यहाँ का एक नियम और था- नेपाल के अन्दर राजा के अलावा किसी को अधिकार नहीं था कि खड़ा होकर भाषण दे सके। परन्तु शास्त्री जी खड़े होकर ही भााषण दिया करते थे। अतः अन्धविश्वास पर कुठाराघात देख, वहाँ के पण्डों ने राजा को खूब भड़काया कि ये शुक्रराज शास्त्री आपकी सत्ता को उखाड़ देगा, अतः राजा का आदेश हुआ और शुक्रराज शास्त्री जी को उनके साथियों दशरथ चन्द्र, धर्म भक्त माथेमा, गङ्गलाल श्रेष्ठ के साथ इन्दिरा चौक से गिरतार कर उन चारों पर राष्ट्रदोह का अभियोग चला 1941 में इन चारों को दो-दो करके दो दिन में फांसी चढ़ा दिया गया। राजतन्त्र समाप्ति के बाद आज काठमाण्डू शहर में जगह-जगह इनकी मूर्तियाँ लगी हुई है। इनके नाम से सड़कें, चौक, रङ्गशालाएँ अनेक स्थल बने हुए हैं। आज नेपाल के अन्दर इनको श्रेष्ठ बलिदानियों में गिना जाता है। ये सब देखते हुए हम काठमाण्डू की विश्वस्तरीय धरोहर नेपाल देश की शान का प्रतीक थरारा टावर देखने गये जिसकी स्थापना 1832 में सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से की गई थी। यह टावर बहुत ऊँचा था, इस पर खड़े होकर सैनिक पहरा दिया करते थे। अब यह स्थान राष्ट्रीय स्मारक के रूप में था। सैंकड़ों लोग प्रतिदिन इसे देखने आते थे। जिस दिन पहली बार भूकप आया वह शनिवार का दिन था, नेपाल में शनिवार को ही राष्ट्रीय अवकाश रहता है। बहुत सारे स्कूली बच्चे भी इसे देखने आये थे, सरकारी आँकड़े बताते हैं कि उस समय 250 टिकिट खरीदे जा चुके थे, अधिकांश लोग अन्दर ही थे ईश्वर ही जाने कितने जीवित बचे होंगे?
20 मई को हम लोग आचार्य नन्दकिशोर जी की प्रेरणा से एक विशेष स्थान पुराना नगर साखूँ गये, जो काठमाण्डू से लगभग 20 किमी. की दूरी पर था। यह एक पुराना व विशाल नगर था, तीन-तीन, चार-चार मंजिल पुरानी इमारतें यहाँ पर रही होंगी, यह नेपाल का एक पुराना व सपन्न बाजार रहा होगा। जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो वहाँ का दृश्य हृदय दहला देने वाला था, लगभग 90 मकान ध्वस्त थे, पूरा नगर एक मलबे के ढेर में बदल चुका था, जो कुछ भवन बचे थे- उनको भी सेना के द्वारा गिराया जा रहा था क्योंकि बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जानें से वे बड़े भयंकर विशाल राक्षस की तरह मुहँ खोले प्रतीत होती थी, न जाने कि स वक्त किसको निगल जाए। अतः भवनों को भी गिराया जा रहा था। नेपाली सेना के अतिरिक्त, रुस की सेना भी वहाँ दिखाई दी, अमेरिका का सामाजिक संगठन भी वहाँ कार्य कर रहा था, चीन इत्यादि देशों के चिकित्सक चिकित्सा कर रहे थे तो चीनी नाई पीडितों के बाल काटते भी नजर आये। एक दृश्य बडा करुणामय दिखाई देता था, उन पूर्ण रूप से ढह चुक घरों में से उनके मालिक कपड़े, टूटे-फूटे बर्तन या अन्य वस्तुएँ इकट्ठी करते दिखाई दिए। इस आशा के साथ इन वस्तुओं को निकाल रहे थे कि शाायद इस संकट की घड़ी में इन वस्तुओं से ही कुछ सहायता मिल जाएगी।
पाखण्ड का रूप कितना वीभत्स एवं विकराल हो सकता है, यह जानने हेतु 21 मई को हम लोग प्रसिद्ध दक्षिण काली का मन्दिर देखने गये, जो काठमाण्डू से लगभग 30 किमी. की दूरी पर मनमोहक हरी-भरी पर्वत चोटियों के बीच स्थित था। पास ही से पर्वतों से निकल कर कल-कल करती सरिता बहती थी, यहाँ हजारों लोग प्रतिदिन आते थे, तीन-तीन रास्तों से दर्शनार्थियों क ी पंक्ति लगती थी परन्तु वास्तव में ये कोई उपासना स्थल नहीं था, ये तो एक प्रकार का धार्मिक बूचड़खाना था, जहाँ पर सुबह से शाम तक सैंकड़ों निरीह-निर्बल पशु-पक्षियों, बकरे-मुर्गे इत्यादि प्राणियों का संहार (हत्या) धर्म के नाम पर किया जाता है। भूकप के कारण सब सुनसान था। दुकानें सब बन्द थी परन्तु बंद दुकानों के भी अवलोकन से ये ज्ञात हुआ कि फूल-प्रसाद की दुकानें बाद में थी सबसे पहले रास्ते के दोनों ओर की दुकानों पर बड़े-बड़े पिजरे रखे हुए थे, जिनमें मुर्गों-बकरों को बेचने के लिए बन्द रखा जाता था, मन्दिर में बलि स्थान ठीक काली माता मूर्ति के पीछे था, यहाँ इनके गर्दन काटने के बाद सामने एक दूसरा स्थान था, जहाँ पर बोर्ड लगा था मुर्गा के माँस के टुक ड़े करने के लिए 50/- तथा बकरे के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करने के 300/-रूपये। माँस कटता रहता है तथा पानी की नलियों द्वारा उस रक्त को उस स्वच्छ जल धारा में बहा दिया जाता है ये है हिन्दू धर्म का स्वरूप….। एक विशेष घटना और इसी प्रकार की है नेपाल के तराई के क्षेत्र में बिहार की सीमा से लगता हुआ एक स्थान है, जहाँ पर एक गढ़ी माता का मन्दिर है, इस स्थान पर चार वर्ष में एक विशेष मेला लगता है, जहाँ पर कई एकड़ भूमि में कई लाख पशुओं की सामूहिक बलि दी जाती है। इस वर्ष भी लगभग 5 लाख कटड़े-भैंसों की बलि दी गई। 5 लाा की संया तब रही जब भारत सरकार ने सीमा पर प्रतिबन्ध लगाया कि इस बलि के लिए भारत से पशुओं को न जाने दिया जाए। क्योंकि बलि के लिए अधिकांश पशु बिहार व उत्तरप्रदेश से जाता था और यदि प्रतिबन्ध न रहता तो कल्पना कर सकते थे कि बिना प्रतिबन्ध के कितना पशु धर्म के नाम पर कटता होगा। मैं तबसे एक बात अपने व्यायान इत्यादि में कहा करता हूँ कि दुनियाँ में जो गलत कार्य (पाप) सामान्य स्थिति में नहीं कर सकते, वे सब धर्म की आड़ में होते हैं। भांग पीने वाला भोले बाबा की जय बोलकर, शराब पीने वाला काली या ौरव बाबा की, लीला रचाने वाले कृष्ण-गोपियो की जय बोलकर इन अनैतिक कृत्यों को करते हैं। जब सुनामी लहरें आयी थी, उस समय भू-गर्भ वैज्ञानिकों के पत्र-पत्रिकाओं में लेख आये थे कि ये इस तरह की जो प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, उनमें ये प्रतिदिन होने वाली निरीह पशुओं की हत्या के कारण जो उनकेाय के कारण निकलने वाली चीत्कार, करुणामयी रुदन के द्वारा जो कपन पैदा होता है, वह भी प्रकृति में असन्तुलन पैदा करता है।
त्रासदी से पीड़ित और दुर्गम स्थानों पर कठिनाइयाँ झेल रहे लोगों तक राहत सामग्री पहुँचाना अपने आप में एक अति कठिन काम था। सभा के आदेश से हमने वही कार्य करने की ठान ली। 23 मई को हम लोग प्रातः 3 बजे जग गये क्योंकि चार (4) बजे हमको राहत वितरण हेतु अपने निश्चित स्थान पर पहुँचना था। हम लोग शौचादि से निवृत्त होकर बिना नहाएँ ही क्यों उस दिन पानी बहुत थोडा था, ठीक चार बजे जहाँ पर गाड़ी जानी थी, वहाँ पहुँच गये। लगभग 4:30 बजे प्राप्तः मैं (कर्मवीर), आचार्य नन्दकिशोर जी, ब्र. प्रभाकर जी, ब्र. सोमेश जी, पं. कमला कान्त आत्रेय जी, पं. माधव जी (प्राध्यापक), पं. तारा जी ये दोनों लोग गुरुकुल कांगडी के स्नातक हैं तथा राजकुमार जी आदि अन्य एक दो व्यक्ति बस में सवार होकर चल दिए। रास्ते के लिए कुछ सूखी खाद्य सामग्री साथ ले राी थी। लगभग 7:30 बजे एक जगह मार्ग में ही रुक कर प्रातःराश किया फिर शीघ्र ही चल दिये, लगभग 11:30 बजे सिंगेटी बाजार पहुँचे, रास्ता बड़ा ही दुर्गम था, लगभग 100 किमी. का तो रास्ता ऐसा था जिसमें केवल अभी पत्थर डले थे सड़क पक्की नहीं बनी थी, इस पर चलते रहे सिंगेटी पहुँचने से काफी पहले ही सड़क के दोनों ओर के मकान प्रायः ध्वस्त पड़े दिखाई देते थे। सिंगेटी पहुँचे, यहाँ भी यही हाल था। लगभग पूरा नगर ध्वस्त था, कोई भी मकान-दुकान ठीक नहीं बचा था, वहाँ पर कृष्ण जी आर्य पहले से उपस्थित थे। उन्होंने एक दुकान से सामान खरीद कर एक ट्रक गाडी में रखवाकर उस गाँव में भेज दिया था। जिस दुकान से सामान खरीदा था वो काफी टूटी हुई थी। किसी प्रकार से कुछ सामान सुरक्षित था। उस दुकानदार का भुगतान कर हम चल दिए। इसी स्थान पर एक होटल था, भूकप से पूर्व यहाँ बहुत पर्यटक आते थे। होटल में लगभग 35 लोग रुके हुए थे, होटल पहाड़ की एकदम तलहटी में था, पहाड़ से भूकप के कारण विशाल पत्थर गिरे, सारा होटल पत्थरों के नीचे दब गया, अभी तक मलबा भी नहीं हटाया गया था, सभवतः सारी लाशें उसी के अन्दर दबी पड़ी होंगी। भूकप से जितनी हानि नेपाल में हुई है, उसकी भरपाई तो विश्व के सपन्न राष्ट्र मिलकर करें तब कुछ भरपाई हो सकती है। परोपकारिणी सभा की जागरूकता इस बात से स्पष्ट होती है कि अपनी सामर्थ्यानुसार सहायता बिना विलब किये पहुँचाई, बड़ी संया में लोगों तक पहुँचाई और तत्परता के साथ पहुँचाई।
सिंगोटी बाजार से जहाँ हमें जाना था, वह गाँव इस स्थान से 7 किमी. की ऊँची पहाड़ी पर था। रास्ता कच्चा व बड़ा खतरनाक था। जब हमारी गाड़ी उस पहाड़ पर चढ़ रही थी तो कई बार ऐसा प्रतीत हुआ कि शायद यह यात्रा जीवन की अन्तिम यात्रा हो। इस चढ़ाई की कठिनाई का पता इस बात से भी लगाया जात सकता है कि 7 किमी. के इस दुर्गम रास्ते से सामान पहुँचाने के ट्रक वाले ने 8000/- नेपाली रूपये (भारतीय 5 हजार) लिए। वास्तव में यह पाँच हजार रूपये 7 किमी. के नहीं एक बड़े जोखिम (खतरे) के थे। हम लोग पहाड़ पर लामीडाँडा नामक गाँव पहुँचे, वहाँ पर बहुत लोग उपस्थित थे, सब लोग हमको देखकर बड़े प्रसन्न हुए। सब लोग हमारी व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी परिवारों को पहले से कूपन वितरित कर दिये गये थे। परिवार का एक सदस्य कूपन लेकर आता तथा धन्यवाद देकर सामान लेकर चला जाता। यहाँ पर कोई सज्जन महानुभाव हमसे कई दिन पहले पहुँचे थे, उन्होंने भी सभी परिवारों को 7-7 किग्रा. चावल वितरित किये थे। कृष्ण जी भी इसी गाँव के रहने वाले थे। अपने घर पर ही भोजन की व्यवस्था कर रखी थी, हम सभी ने भोजन किया, बड़ा स्वादिष्ट भोजन घर की माताओं ने बड़े प्रेम से कराया। इसी गाँव के लगभग सभी घर गिर चुके थे। ग्रामवासी या तो टैंटों में या फिर गिरे हुए मकानों की टीन इत्यादि को इकट्ठी कर पेडों से लकडी काट अस्थाई घर बनाकर रह रहे थे।
यहाँ से लगभग तीन बजे हम लोग काठमाण्डू के लिए चले, कुछ दूर ही चले कि गाड़ी खराब हो गई। सब लोग तो गाड़ी ठीक होने की प्रतीक्षा करते रहे, मैं प्रभाकर जी, सोमेश जी पैदल ही पहाड़ी रास्ते से जल्दी-जल्दी उतरकर नीचे बहती कोसी नदी में स्नान किया, तब तक गाड़ी भी ठीक होकर आ गई, हम लोग देर रात 11 बजे काठमाण्डू आर्य समाज पहुँच गये।
24 मई की सांय 7 बजे हम लोग अपने देश की तरफ चले प्रातः 5 बजे हम सोनौली भारत नेपाल की सीमा पहुँचे, वहाँ से एक जीप पकड़कर गोरखपुर पहुँचे, वहाँ से ब्र. सोमेश जी रेलगाडी से मैनपुरी के लिए चले गये। हम लोग बस पकड़कर लखनऊ पहुँचे। आचार्य नन्दकिशोर जी ने यहाँ से दिल्ली के लिए तथा ब्र. प्रभाकर जी ने बिजनौर के लिए बस पकड़ी तथा मैंने लखनऊ से जयपुर के लिए बस पकड़ी। कानपुर पहुँचकर जाम में बस फँस गई, वहाँ से चले इटावा में रात्री में बस खराब हो गई, वहाँ से चले आगे चलकर आगरा से आगे बस का टायर पंचर हो गया, यहाँ से आगे चले पता चला कि गुर्जर आन्दोलन के कारण आगरा जयपुर हाईवे बन्द कर दिया गया। गर्मी भी त्वचा जला देने वाली थी, इस प्रकार काठमाण्डू से अजमेर बस तक का सफर 2 दिन, दो रात (48 घन्टे) में तय किया। गर्मी के कारण कष्ट भी बहुत हुआ। पर मन में संतोष था कि हाँ कुछ अच्छा करते हुए द्वन्द्वों को सहन करना ही तप है, जो मानव जीवन की उन्नति का कारण है।
इसी पूरी यात्रा से एक विशेष अनुभव हुआ कि हमें कभी भी किसी प्रकार का धन-बल, शारीरिक बल, जल बल, रूप आदि पर कोई घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि न जाने किस वक्त इस परिवर्तनशील संसार में क्या घटना घट जाए। क्षणों की आपदा करोड़पतियों को सड़क पर खड़ा कर देती है। भूख-प्यास के मारे कटोरा हाथ में आ जाता है। शारीरिक बलवान बैसााियों पर आ जाते हैं, रूपवान ऐसे कुरूप हो जाते हैं कि उनकी तरफ कोई देखना तक नहीं चाहता। परमात्मा से प्रतिक्षण यही प्रार्थना करनी चाहिए कि ईश्वर हमें शक्ति-भक्ति-सामर्थ्य प्रदान करे कि यह शरीर सदा दूसरों की सेवा कर सके। इति।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर