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याकूब मेमन को फाँसीः- – सत्येन्द्र सिंह आर्य

वर्ष 1993 में मुबई में बम विस्फोट द्वारा सैकड़ों लोगों की हत्या करने वाले जघन्य अपराधी और कट्टर आतंकी याकूब अदुल रजाक मेमन को 30 जुलाई 2015 दिन बृहस्पति वार को फांसी दी गयी। यह बड़ा विचित्र संयोग है कि एक ही दिन में दो विपरीत-दुःखद और सुखद घटनाएँ भारत में घटीं। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अदुल कलाम का अन्तिम संस्कार इसी दिन हुआ। राष्ट्र के लिए यह बहुत दुःखद घटना है। एक योग्य वैज्ञानिक, उच्चकोटि का शिक्षक और प्रखर राष्ट्रवादी हमसे छिन गया। यह तो हानि ही हानि है।

दूसरी घटना याकूब मेनन को फांसी दिया जाना है। मृत्यु चाहे स्वाभाविक हो या हत्या हो या फांसी हो, दुःखद होती है। तथापि किसी किसी की मृत्यु (जैसे याकूब को फांसी) पर न्यायप्रिय देशवासी राहत की सांस लेते हैं। वर्ष 1993 में जिस दिन मुबई में सीरियल बम लास्ट हुए, उस दिन मैं (इन पंक्तियों का लेखक) वहीं पर था। वर्ष 1990 से 1998 की अवधि में मैं भारतीय स्टेट बैंक की सेवा में वही पदस्थापित था और नरीमन पाइण्ट क्षेत्र में मन्त्रालय के ठीक सामने एस.बी.आई. के केन्द्रीय कार्यालय में मेरी नियुक्ति थी। मेरे कार्यालय से लगभग डेढ सौ गज की दूरी पर एयर इण्डिया की बहुमंजिली बिल्डिंग में दोपहर के समय भंयकर विस्फोट हुआ। आस पास के भवनों में खिड़कियों के शीशे टूट गये। कुछ लोग पता करने नीचे गए तो ज्ञात हुआ कि अन्य भी कई स्थानों पर और लोकल ट्रेनों में सीरियल (लगातार क्रम में) बम लास्ट हुए हैं और सैकड़ों लोग मारे गए हैं। नगर के वातावरण में अजीब बदहवासी और भयावहता व्याप्त हो गयी । महानगर में लाखों कर्मचारी अपने घरों से बीस से पचास साठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित कार्यालयों में काम करने जाते हैं और यातायात का साधन लोकल ट्रेन ही है। उसी में लास्ट हो रहे थे तो सबके सामने समस्या यह थी कि आज घरों तक कै से पहुंचें। लास्ट होने की सभावना के चलते लोकल ट्रेन से जाने में सभी घबरा रहे थे। उस सीरियल बम लास्ट की घटना में सैकड़ों लोग मारे गए। अरबों रुपये की सपत्ति नष्ट हुई और सारे महानगर में बदहवासी का वातावरण पसर गया। उस जघन्य हत्याकाण्ड का अपराधी यह याकूब मेमन था जिसे टाडा कोर्ट ने मृत्युदण्ड की सजा सुनाई थी। भारत में न्यायपालिका का सिद्धान्त है कि चाहे सौ अपराधी सजा पाने से बच जाएं परन्तु किसी निरपराध को सजा न दी जाए। इसमें भाव तो यह है कि दण्ड अपराधी को ही मिले, किसी निरपराध को दण्डित न किया जाय। परन्तु भारत में आतंकी, हत्यारे, बलात्कारी, माओवादी, नक्सली भारतीय न्याय व्यवस्था के  इस सदाशयतापूर्ण प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए दण्ड से बचने का सफल उपाय करते हैं। मानवाधिकार का झण्डा उठाये रखने वाले संगठन (वास्तव में अपराधियों को दण्ड से बचाने हेतु एड़ी से चोटी तक का जोर लगाने वाले अन्तराष्ट्रीय गिरोह) और स्वामी अग्निवेश, सलमान (फिल्मी सितारा), ओबेसी हैदराबाद जैसे समाजसेवी? और एक एक करोड़ रुपये फीस के रूप में लेने वाले उच्चतम न्यायालय के अधिवक्तागण ऐसे आतंकियों को दण्ड से बचाने की जी-तोड़कोशिश करते हैं। गणतंत्रीय शासन प्रणाली का यह बेहद कुरूप चेहरा है। 1993 के इस सीरियल बम लास्ट के पश्चात् इस काण्ड के सूत्रधार और कर्त्ताधर्ता दाऊद, टाइगर मेमन, याकूब मेमन आदि और उनके सहयोगी भारत से भाग गए थे। भारत के ऐसे शत्रुओं के लिए पाकिसतान सुरक्षित आश्रय-स्थली है। उन अपराधी हत्यारों में से यह याकूब नाम का एक आतंकी कानून की पकड़ में आ गया  औरउसे मृत्युदण्ड का निर्णय सुना दिया गया। जघन्य अपराधी कानूनी दांव पेंचों को जानता है और वह बारी-बारी से उच्च न्यायालय में, उच्चतम न्यायालय में, राज्यपाल के यहाँ और राष्ट्रपति के यहाँ अपील करके सजा को टालने का प्रयत्न करता है। उसके पास इतने साधन होते हैं कि अपने बचाव के लिए महंगे से महंगे वकीलों की फौज न्यायालय में तैनात रख सकता है परन्तु उन सफेद पोश तथाकथित न्यायवादियों ? को क्या कहा जाए जो 29जुलाई की रात्रि को (वास्तव में अर्द्धरात्रि को) भारत के मुय न्यायाधीश के निवास परपहुँच कर रात्रि में उच्चतम न्यायालय को खुलवाएँ औरउस आतंकी को बचाने के लिए कानूनी दांव पेंच चले और तर्क के स्थान पर कुतर्कों पर उत्तर आएँ। ऐसे लोग तो राष्ट्र-द्रोही और जन-द्रोही हैं। देशवासियों को इनकी निन्दा करनी चाहिए।

माननीय न्यायालय एवं भारत सरकार वास्तव में साधुवाद क पात्र हैं जिन्होंने न्याय किया और न्याय होते हुए भी दिखाई पड़ा। घृणित और दूषित मानसिकता वाले जिन मुस्लिम लोगों ने यह आरोप लगाया कि याकू ब को मुसलमान होने के कारण दण्डित किया है वे भी आपराधिक मानसिकता को पाल पोस रहे हैंऔर इसीलिए निन्दा के पात्र हैं। भारत के आम आदमी के मन में ऐसी संकीर्ण बातें होतीं तो पूर्व राष्ट्रपति अदुल कलाम के महाप्रयाण पर वे आँसू न बहाते। देशभर की शिक्षण संस्थाओं में, संगठनों में, सभाओं में अदुल कलाम पर शोकसभाएं की गयीं, समाचार पत्रों में एवं मीडिया में उन्हें बेहद समान के साथ याद किया गया। क्या बूढ़े, क्या युवा, क्या बच्चे- सभी ने उन्हें याद करके आँसू बहाए। अन्तर केवल इतना है कि एक व्यक्ति उसी आस्था के साथ जीते हुए देश-विदेश में समान का अधिकारी बना और उसके निधन पर राष्ट्रवासी दुःखी हुए। उसी आस्था वाला याकूब मेमन सैकड़ों लोगों की हत्याओं का दोषी सिद्ध हुआ। उसे सजा मिलने पर राष्ट्रवासियों ने राहत की साँस ली।               – मेरठ, उ.प्र.

पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अदुल कलाम का महाप्रयाण- सत्येन्द्र सिंह आर्य

भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री अबुल पाकीर जैनुलआबद्दीन अदुल कलाम का सोमवार 27 जुलाई की शाम को शिलांग में आई आई एम में व्यायान देते हुए दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। इस समाचार से सारे भारत में शोक की लहर फैल गई। वे 84 वर्ष के थे।

अक्टूबर 1931 में तमिलनाडु के छोटे से द्वीप धनुषकोडी में जन्मे अदुल कलाम विश्व भर में मिसाइलमैन के नाम से वियात हुए, यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और असाधारण पुरुषार्थ का ही सुफल था। एक अत्यन्त साधारण परिवार में जन्म लेना उनकी उन्नति के मार्ग में कभी बाधक नहीं बना। बचपन में अपने पिता को नाव बनाते देखा तो उनके मन में राकेट बनाने की बात आई। ‘‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’’ वाली कहावत उन पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़ाकू विमान बनाकर आसमान छूने की इच्छा भी मन में हुई और वह पूरी हुई अग्नि और पृथ्वी जैसी मारक मिसाइलें बनाकर। अन्तर्महाद्वीपीय मारक क्षमता वाली मिसाइलें बनाने की भारत राष्ट्र की क्षमता से विश्व स्तध है। राष्ट्र की इस सामर्थ्य के पीछे हमारे इस महावैज्ञानिक अदुल कलाम का बुद्धि कौशल और तप है। भारत की वैज्ञानिक उन्नति से अमेरीका और यूरोप के सारे देश ईर्ष्या करते हैं। अन्तरिक्ष अनुसन्धान के क्षेत्र में भारत अग्रणी देशों में है। अन्तरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने के लिए भारत श्री हरिकोटा केन्द्र से केवल अपने बनाए भारतीय राकेट (उपग्रह) का ही प्रक्षेपण नहीं करता बल्कि विश्व के अन्य राष्ट्रों के उपग्रह भी भेजता है और उससे करोड़ों रुपयों की विदेशी मुद्रा भी कमाता है। पूर्व महामहिम का यहाँ भी अभूतपूर्व योगदान रहा। इस क्षेत्र की तकनीक में विकसित राष्ट्र विकासोन्मुख राष्ट्रों को कोई सहयोग नहीं करते। भारत को बायोक्रोनिक इंजन की तकनीक उपलध कराने के लिए एक बार रूस सहमत हो गया था। परन्तु अमेरीकी दबाव के आगे रूस को झुकना पड़ा और भारत को वह तकनीक रूस से नहीं मिली। तथापि जहाँ अदुल कलाम जैसे प्रेरणा स्रोत वैज्ञानिक के रूप में मौजूद हों वहाँ अन्य देशों के असहयोग से कोई अन्तर नहीं पड़ता। दो वर्षों के कठोर परिश्रम के बल पर भारत ने स्वयं वह स्वदेशी इंजन बना लिया। श्री कलाम डी.आर.डी.ओ के सचिव भी रहे।

भारत को परमाणु शक्ति सपन्न राष्ट्र बनाने में कलाम साहब की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही। पोखरण में अणुशक्ति का प्रथम परीक्षण मई 1974 में किया गया। विश्व के परमाणु शक्ति सपन्न पांचों राष्ट्रों – अमरीका, इंग्लैण्ड, चीन, फ्रांस और सोवियत यूनियन ने उस समय भारत की ओर को आँखें तरेरी। परन्तु धुन के धनी और राष्ट्र को शक्ति सपन्न बनाने के लिए कृत संकल्प अदुल कलाम और उनकी टीम ने अणुशक्ति के उच्चस्तरीय विकास के प्रयत्न जारी रखे। कलाम ढाई दशक की लबी अवधि तक परमाणु शक्ति के विकास के गोपनीय कार्य में जी जान से जुटे रहे। परमाणु बम के परीक्षण की तैयारी सन् 1995 में भी की गई थी परन्तु तब अमेरीकी उपग्रहों ने हमारी तैयारी की सूचना प्राप्त कर ली थी और विदेशी दबाव के सामने भारत की नरसिंहराव सरकार ने परमाणु परीक्षण का कार्यक्रम स्थगित कर दिया था। परन्तु कलाम का लगाव-जुड़ाव पोखरण के साथ परमाणु परीक्षण की तैयारी और उसके क्रियान्वयन के सिलसिले में लगातार बना रहा और  उन्हीं का कमाल था कि मई 1998 में ‘‘बुद्धा पुनः मुस्कराए’’। कलाम साहब ने प्रधानमन्त्री वाजपेयी को हॉट लाइन पर यही शद बोलकर सफल परमाणु परीक्षण की सूचना दी थी। जब इसकी आधिकारिक घोषणा हुई तो दुनिया स्तध रह गयी।

परमाणु परीक्षण -2 की गोपनीयता-वर्ष 1995 में जिन अमरीकी उपग्रहों ने भारत के परमाणु परीक्षण की तैयारियों का पता लगा लिया था, वर्ष 1998 में उन्हें भारत की तैयारियों की भनक तक नहीं लगी। यह सब कलाम का ही कमाल था। उन्होंने ही परमाणु परीक्षण दो की परिकल्पना को साकार किया था। यद्यपि 1998 में हुए परमाणु परीक्षण की तैयारी वर्षों से चल रही थी। ‘आपरेशन शक्ति’ नाम से जो कार्य होना था उसके कोड (कूट-शद) अल्फा, ब्रावो, चार्ली….आदि कलाम के अतिरिक्त किसी को पता नहीं थे। मेजर पृथ्वी राज (कलाम) के पास कमान थी। परमाणु परीक्षण के दौरान कलाम ने सारे काम को इस गोपनीयता से पूरा किया कि किसी को पता ही नहीं लग सका कि भारत इतना बड़ा धमाका करने वाला है।

भारत में मिसाइल निर्माण एवं परमाणु परीक्षण जैसे महान कार्यों में योगदान देने वाले अदुल कलाम वर्ष 2002 से 2007 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। इससे पूर्व वे वर्ष 1992 से 1999 तक प्रधानमन्त्री के मुय वैज्ञानिक सलाहकार रहे। जीवनभर जहाँ भी जिस पद पर रहे, विवादों से सदैव दूर ही रहे। उनका निधन राष्ट्र की महती क्षति है।

ज्ञान, विज्ञान एवं भारत के विकास को समर्पित पूर्व राष्ट्रपति अदुल कलाम भारत मां के ऐसे सपूत थे जिन पर राष्ट्र एवं राष्ट्रवासियों को गर्व है। वे राष्ट्रीय एवं सामाजिक मूल्यों के लिए जिए। उनकी धार्मिक आस्था उनके आदर्श इन्सान बनने के मार्ग में कभी बाधा नहीं बनी। सलमान खान और ओबेसी (हैदराबाद) की भांति वे किसी आतंकी अपराधी, देशद्रोही के बचाव का प्रयत्न करने वाले नहीं थे। करोड़ों रुपये की फीस लेकर अर्द्धरात्रि के समय उच्चतम न्यायालय में एक अघन्य हत्यारे के पक्ष में दलील देने वालों की तुलना में वे लाखों गुना अच्छे इन्सान थे, आदर्श पुरुष थे। भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन कीााँति उन्होंने राष्ट्रपति भवन में मस्जिद बनवाने की माँग भी सरकार से नहीं की। वे महान् भारत के वास्तविक प्रतीक, आदर्श नागरिक और सर्वाधिक सकारात्मक सोच वाले भारतीय थे। साधारण परिवार में जन्म लेकर वे अपनी प्रतिभा, परिश्रम और लगन के बल पर राष्ट्राध्यक्ष के सर्वोच्च पद पर पहुँचे। 30 जुलाई को उनके अन्तिम संस्कार के समय लाखों देशवासियों ने उन्हें अश्रुपूर्ण नेत्रों से अन्तिम विदाई दी।

युवाओं के वे सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत थे।

भूकप त्रासदी से पीड़ित नेपाल में परोपकारिणी सभा द्वारा राहत कार्य:- कर्मवीर

ईश्वर इस संसार का रचनाकार है, उसने हर वस्तु की रचना बड़ी बुद्धिमत्ता से व्यवस्थित ढंग से की है क्योंकि वह सर्वज्ञ है, हम जीवात्मायें अल्पज्ञ हैं। हम लोग अपनी सुख-सुविधा के लिए कई बार अधिक छेड़-छाड़ कर प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं परन्तु परमात्मा उसे व्यवस्थित रखता है। ईश्वर के नियमानुसार प्रकृति अपने आपको संतुलित करने के लिए उसमें भूकप, बाढ़, अतिवृष्टि-अनावृष्टि इत्यादि घटनाएँ निरन्तर घटती रहती है, सृजन-संहार सतत् प्रक्रिया है। ये कभी भी, किसी के साथ भी, कहीं भी हो सकने वाली घटनाएँ हैं। अतः संवेदनशील मनुष्य इन घटनाओं व इन घटनाओं से प्रभावित होने वाले प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखता है और मन में ये भी भाव रहते हैं कि हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है। यही मनुष्य का मनुष्यपन है।

आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने तीन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर परोपकारिणी सभा की स्थापना की थी-

(1) वेदों का पठन-पाठन व प्रचार-प्रसार।

(2) वेदादि आर्ष ग्रन्थों का प्रकाशन।

(3) दीन दुखियों की सेवा।

इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रख, सभा सतत् अपना कार्य करती रहती है। जहाँ भी इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, सभा अपने सामर्थ्य/साधनों से जनहित में कार्य करती है। नेपाल में भी भयंकर भूकप आया, हजारों लोग हताहत हुए, सभा प्रधान डॉ. धर्मवीर जी का संकेत हुआ कि सहायता के लिए जाना है।

अजमेर से काठमाण्डू (नेपाल की राजधानी) का रास्ता बड़ा लबा है। एका-एक इतनी लबी यात्रा कैसे हो? दो दिन तक रेल्वे का तत्काल टिकिट कराने का प्रयास किया, पर आरक्षण नहीं हुआ, जाना तो अवश्य था। जाने का निश्चय कर मैंने (कर्मवीर), ब्र. सोमेश जी व ब्र. प्रभाकर जी से सपर्क किया। सभा का आदेश पाकर, वे भी जाने के लिए तैयार हो गये। गोरखपुर (उ.प्र.) के रास्ते से जाने का निश्चय कर, गोरखपुर आर्य समाज में एकत्रित होने का निर्धारण हुआ।

मैं 14 मई को अजमेर से चला, सोमेश जी मैनपुरी से तथा प्रभाकर जी बिजनौर से। आर्य समाज गोरखपुर के प्रधान डॉ. विनय आर्य जी से सपर्क हो चुका था, उन्होंने हमारी भोजन व आवास की व्यवस्था बड़ी श्रद्धा से की।

मैं अजमेर से कानपुर बस से यात्रा करके गया, कानपुर से लखनऊ की बस पकड़ी, कानपुर बस स्टैंड पर दोपहर के बारह बजे धूप में बस खड़ी थी, आस-पास छाया का कोई स्थान नहीं था, गर्मी के कारण शरीर से पसीना ऐसे टपकता था जैसे कोई भाप स्नान (स्टीम बाथ) कर रहा हो, उधर ब्र. प्रभाकर जी ने भी मुरादाबाद से गोरखपुर के लिए रेलगाड़ी पकड़ी, मार्ग बहुत लबा था, गर्मी भीषण, आरक्षण है नहीं, सामान्य डबे में इतनी भीड़ कि शौचालय में भी यात्री घुसे हुए थे, अतः उन्होंने भी दुःखी होकर सीतापुर में रेल गाड़ी छोड़, बस पकड़ी थी तथा इस प्रकार से यात्रा करके हम लोग गोरखपुर पहुँचे, एक दिन विश्राम किया।

17 मई को हम लोग गोरखपुर से 20 किमी. दूर पीपीगंज नामक स्थान पर पहुँचे, यहाँ पर ड़ॉ. वेदानन्द जी कश्यप, सभा प्रधान डा. धर्मवीर जी के मित्र हैं। आपने हम सब लोगों के  लिए प्रातःराश तथा यात्रा के लिए भोजन उपलध कराया एवं राहत कार्य के लिए दान भी दिया, आप एक सच्चे वैदिक मिशनरी हैं।

पीपीगंज से हम लोग भारत-नेपाल की सीमा सोनौली पहुँचे। यही से हमने मध्याह्न के समय काठमाण्डू के लिए बस पकड़ी। बहुत लबा मार्ग पहाड़ी से होकर गुजरता था, अतः काठमाण्डू तक पहुँचते हुए अंधेरा होने लगा। काठमाण्डू में प्रवेश से पूर्व ही भूकप का प्रभाव दिखाई देने लगा, टूटे फू टे मकान, कई बड़े-बड़े भवन भी धराशायी हो चुके थे। परन्तु अन्धेरे के कारण स्पष्ट दिखाई नहीं देता था। हम रात्रि 8:30 बजे काठमाण्डू पहुँचे परन्तु साढे आठ बजे ही काठमाण्डू सुनसान हो चुका था, बाजार भी पूरे बंद थे, यात्री बसें इत्यादि भी बन्द हो चुकी थी, बड़ी मुश्किल से एक टैक्सी (कार) करके हम लोग केन्द्रीय आर्य समाज नेपाल के कार्यालय पहुँचे । वहाँ के प्रधान पं. कमलकान्त जी आर्य को पहले से सूचना दी जा चुकी थी अतः वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। यहीं आर्य समाज में ब्र. आचार्य नन्दकिशोर जी पहले से पहुँचे हुए थे। आ. नन्दकिशोर जी बाल-स्वभाव, पवित्र-हृदय व आर्य समाज के प्रति दृढ़ निष्ठावान पुरुष हैं। रात्रि अधिक हो चुकी थी, भोजन किया तथा शयन की तैयारी करने लगे तो पं. कमलाकान्त जी ने निर्देश दिया कि पानी का बड़ा अभाव है, जल-व्यवस्था भूकप के कारण पूर्ण रूप से बाधित है, अतः सुबह स्नान नहीं होगा, शौच इत्यादि में भी पानी प्रयोग में सावधानी रखनी है।

सोने से पूर्व एक निर्देश और दिया गया कि सावधान रहना है, लगातार भूकप के झटके आते रहते हैं, ऐसा हो तो विचलित नहीं होना, धैर्य से काम लेना, चलने में शरीर का सन्तुलन बनाये रखना है। आपने बताया कि जब भूकप आता है तो शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है। आगे की ओर चलने की कोशिश करते हैं पर ऐसा लगता है कि पीछे की ओर गिरेंगे। भूकप आये तो तुरन्तावन से बाहर निकल कर खुले मैदान में पहुँचना है।

18 मई को प्रातः उठकर शौचादि से निवृत्त होकर, हाथ-मुँह धोक र, बिना नहाये ही यज्ञ किया। 11 बजे आर्य समाज के लोगों की बैठक पण्डित जी द्वारा बुलाई गई, बैठक का उद्देश्य था कि राहत कार्य कहाँ व किस प्रकार से किया जाए? हम लोग इन्हीं लोगों की सहायता से कार्य कर सकते थे। क्योंकि कोई भी बाहरी संस्था/संगठन यहाँ पर सरकार की अनुमति के बिना राहत सामग्री इत्यादि वितरित नहीं कर सकते। कई बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, त्रस्त जनता सामान भी लूट लेती है। अतः स्थानीय लोगों की सहायता अवश्य लेनी पड़ती है।

बैठक में निश्चय हुआ कि काठमाण्डू से 200 किमी. दूर उत्तर पूर्व (ईशान कोण) में 12 मई के दिन जहाँ दोबारा भूकप आया था, वहाँ पर सिंगेटी नामक स्थान जि. दोलखा का लामी डाँडा नामक ग्राम का वार्ड सं. 7 जिसमें 16 परिवार रहते हैं, वहाँ पर राहत पहुँचाई जाए क्योंकि अधिक दूर व रास्ता दुर्गम होने के कारण वहाँ राहत कर्मी प्रायः नहीं पहुँचते। इसमें बड़ी समस्या थी कि राहत सामग्री कहाँ से उपलध हो? वितरण की प्रक्रिया क्या हो ताकि छीना-झपटी न हो। इस कार्य के लिए एक आर्य सज्जन कृष्ण जी जो आर्य समाज में ही सेवा देते थे, कृष्ण जी 2 वर्ष तक  गुरुकुल एटा में पढ़े थे, आपको व्यवस्था के लिए दो दिन पूर्व ही उस स्थान पर भेज दिया गया था।

हमारा यह विचार बना कि भूकप से प्रभावित सभी महत्वपूर्ण स्थानों को देखना चाहिए, जिससे वास्तविक हानि का स्थूल रूप से ही सही, परन्तु ठीक-ठीक अनुमान लग सके। अतः सायंकाल हम लोग पशुपतिनाथ का मंदिर देखने गये थे, मन्दिर भी क्षतिग्रस्त हो चुका था, यहाँ पर एक घटना विशेष देखी मन्दिर के परिसर से एक नाला बहता है, उसके दोनों तरफ घाट है। उन घाटों पर दाह संस्कार करने में लोग मृतक के लिए स्वर्ग प्राप्ति मानते है, हरिद्वार, काशी की तरह जब ऐसे स्थलों पर लोग दूरस्थ स्थानों से आते हैं, तो मार्ग व्यय इत्यादि में उनका बहुत सारा धन व्यय हो जाता है। जिसकी पूर्ति लोग मृतक पर डाले जाने वाले काष्ठ में करते हैं, ऐसे स्थानों पर ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा काष्ठ बहुत महंगा मिलता है। घृत-सामग्रीाी प्रायः न के बराबर डालते हैं, जिस कारण मृतक दहन के समय भारी दुर्गन्ध फैलती है। पशुपति नाथ मन्दिर में भी इसी तरह भारी दुर्गन्ध फैली हुई थी।

उसी क्रम में 19 मई की सायं हम लोग काठमाण्डू में जो स्थान अधिक क्षतिग्रस्त हुए उन स्थानों को देखने गये, सबसे पहले हम काठमाण्डू का विशेष स्थान जहाँ पर संग्राहलय इत्यादि है, अधिकांश सरकारी कार्यालय तथा जो विदेशी सैलानियों का केन्द्र रहता है, वह स्थान देखा, अच्छे सुन्दर विशाल भवन मलबे के ढेर में परिवर्तित हो चुके थे, उस क्षेत्र में रहने वाले लोग अधिकतर या तो बाहर जा चुके थे या तो खुले मैदानों में तबुओं में रह रहे थे। पूरे काठमाण्डू का यही हाल था, कोई स्टेडियम, पार्क, खुला सार्वजनिक स्थान खाली नहीं था, सब जगह तबू ही तबू लगे हुए थे। भय के कारण लोग घरों में नहीं रहते थे वहाँ के लोगों के कथनानुसार लगभग 5 लाख लोग तो भय के कारण अस्थाई रूप से पलायन कर चुके थे, सड़कें-भवन प्रायः खाली नजर आते थे।

इस स्थान की एक विशेषता और थी, यहाँ जो पुराने भवन थे, वे बड़े विशाल एवं उनके खिड़की दरवाजे उनकी निर्माण प्रक्रिया अति विचित्र थी, जिस प्रकार से जैसलमेर (राज.) में हवेलियों में पत्थर के ऊपर मनमोहिनी कलाकृति आने वाले पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है, इसी प्रकार लकडी की विश्व स्तरीय कलाकृति, भवनों की शोभा मन आत्मा को स्पर्श करने वाली थी, परन्तु काल का कुठार ऐसा चला की सब नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था। सारा क्षेत्र वीरान खण्डर में रूपान्तरित हो चुका था। वहाँ से चलते हुए, बाजार-भवनों से भ्रमण करते हुए एक विशेष स्थान पर पहुँचे, यह स्थान आर्य क्रान्तिकारियों के साहस व शौर्य का प्रतीक है, इस स्थान का नाम है इन्दिरा चौक। इस स्थान पर आर्य बलिदानी शुक्रराज शास्त्री राजशाही के विरूद्ध भाषण दिया करते थे, राजा के गलत नियमों-कानूनों से प्रजा त्रस्त थी, अन्ध विश्वास बलि प्रथा इत्यादि कुरीतियाँ चर्म सीमा पर थी, शास्त्री जी इनका विरोध करते थे, यहाँ का एक नियम और था- नेपाल के अन्दर राजा के अलावा किसी को अधिकार नहीं था कि खड़ा होकर भाषण दे सके। परन्तु शास्त्री जी खड़े होकर ही भााषण दिया करते थे। अतः अन्धविश्वास पर कुठाराघात देख, वहाँ के पण्डों ने राजा को खूब भड़काया कि ये शुक्रराज शास्त्री आपकी सत्ता को उखाड़ देगा, अतः राजा का आदेश हुआ और शुक्रराज शास्त्री जी को उनके साथियों दशरथ चन्द्र, धर्म भक्त माथेमा, गङ्गलाल श्रेष्ठ के साथ इन्दिरा चौक से गिरतार कर उन चारों पर राष्ट्रदोह का अभियोग चला 1941 में इन चारों को दो-दो करके दो दिन में फांसी चढ़ा दिया गया। राजतन्त्र समाप्ति के बाद आज काठमाण्डू शहर में जगह-जगह इनकी मूर्तियाँ लगी हुई है। इनके नाम से सड़कें, चौक, रङ्गशालाएँ अनेक स्थल बने हुए हैं। आज नेपाल के अन्दर इनको श्रेष्ठ बलिदानियों में गिना जाता है। ये सब देखते हुए हम काठमाण्डू की  विश्वस्तरीय धरोहर नेपाल देश की शान का प्रतीक थरारा टावर देखने गये जिसकी स्थापना 1832 में सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से की गई थी। यह टावर बहुत ऊँचा था, इस पर खड़े होकर सैनिक पहरा दिया करते थे। अब यह स्थान राष्ट्रीय स्मारक के  रूप में था। सैंकड़ों लोग प्रतिदिन इसे देखने आते थे। जिस दिन पहली बार भूकप आया वह शनिवार का दिन था, नेपाल में शनिवार को ही राष्ट्रीय अवकाश रहता है। बहुत सारे स्कूली बच्चे भी इसे देखने आये थे, सरकारी आँकड़े बताते हैं कि उस समय 250 टिकिट खरीदे जा चुके थे, अधिकांश लोग अन्दर ही थे ईश्वर ही जाने कितने जीवित बचे होंगे?

20 मई को हम लोग आचार्य नन्दकिशोर जी की प्रेरणा से एक विशेष स्थान पुराना नगर साखूँ गये, जो काठमाण्डू से लगभग 20 किमी. की दूरी पर था। यह एक पुराना व विशाल नगर था, तीन-तीन, चार-चार मंजिल पुरानी इमारतें यहाँ पर रही होंगी, यह नेपाल का एक पुराना व सपन्न बाजार रहा होगा। जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो वहाँ का दृश्य हृदय दहला देने वाला था, लगभग 90 मकान ध्वस्त थे, पूरा नगर एक मलबे के ढेर में बदल चुका था, जो कुछ भवन बचे थे- उनको भी सेना के द्वारा गिराया जा रहा था क्योंकि बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जानें से वे बड़े भयंकर विशाल राक्षस की तरह मुहँ खोले प्रतीत होती थी, न जाने कि स वक्त किसको निगल जाए। अतः भवनों को भी गिराया जा रहा था। नेपाली सेना के अतिरिक्त, रुस की सेना भी वहाँ दिखाई दी, अमेरिका का सामाजिक संगठन भी वहाँ कार्य कर रहा था, चीन इत्यादि देशों के चिकित्सक चिकित्सा कर रहे थे तो चीनी नाई पीडितों के बाल काटते भी नजर आये। एक दृश्य बडा करुणामय दिखाई देता था, उन पूर्ण रूप से ढह चुक घरों में से उनके मालिक कपड़े, टूटे-फूटे बर्तन या अन्य वस्तुएँ इकट्ठी करते दिखाई दिए। इस आशा के साथ इन वस्तुओं को निकाल रहे थे कि शाायद इस संकट की घड़ी में इन वस्तुओं से ही कुछ सहायता मिल जाएगी।

पाखण्ड का रूप कितना वीभत्स एवं विकराल हो सकता है, यह जानने हेतु 21 मई को हम लोग प्रसिद्ध दक्षिण काली का मन्दिर देखने गये, जो काठमाण्डू से लगभग 30 किमी. की दूरी पर मनमोहक हरी-भरी पर्वत चोटियों के बीच स्थित था। पास ही से पर्वतों से निकल कर कल-कल करती सरिता बहती थी, यहाँ हजारों लोग प्रतिदिन आते थे, तीन-तीन रास्तों से दर्शनार्थियों क ी पंक्ति लगती थी परन्तु वास्तव में ये कोई उपासना स्थल नहीं था, ये तो एक प्रकार का धार्मिक बूचड़खाना था, जहाँ पर सुबह से शाम तक सैंकड़ों निरीह-निर्बल पशु-पक्षियों, बकरे-मुर्गे इत्यादि प्राणियों का संहार (हत्या) धर्म के नाम पर किया जाता है। भूकप के कारण सब सुनसान था। दुकानें सब बन्द थी परन्तु बंद दुकानों के भी अवलोकन से ये ज्ञात हुआ कि फूल-प्रसाद की दुकानें बाद में थी सबसे पहले रास्ते के दोनों ओर की दुकानों पर बड़े-बड़े पिजरे रखे हुए थे, जिनमें मुर्गों-बकरों को बेचने के लिए बन्द रखा जाता था, मन्दिर में बलि स्थान ठीक काली माता मूर्ति के पीछे था, यहाँ इनके गर्दन काटने के बाद सामने एक दूसरा स्थान था, जहाँ पर बोर्ड लगा था मुर्गा के माँस के टुक ड़े करने के लिए 50/- तथा बकरे के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करने के 300/-रूपये। माँस कटता रहता है तथा पानी की नलियों द्वारा उस रक्त को उस स्वच्छ जल धारा में बहा दिया जाता है ये है हिन्दू धर्म का स्वरूप….। एक विशेष घटना और इसी प्रकार की है नेपाल के तराई के क्षेत्र में बिहार की सीमा से लगता हुआ एक स्थान है, जहाँ पर एक गढ़ी माता का मन्दिर है, इस स्थान पर चार वर्ष में एक विशेष मेला लगता है, जहाँ पर कई एकड़ भूमि में कई लाख पशुओं की सामूहिक बलि दी जाती है। इस वर्ष भी लगभग 5 लाख कटड़े-भैंसों की बलि दी गई। 5 लाा की संया तब रही जब भारत सरकार ने सीमा पर प्रतिबन्ध लगाया कि इस बलि के लिए भारत से पशुओं को न जाने दिया जाए। क्योंकि बलि के लिए अधिकांश पशु बिहार व उत्तरप्रदेश से जाता था और यदि प्रतिबन्ध न रहता तो कल्पना कर सकते थे कि बिना प्रतिबन्ध के कितना पशु धर्म के नाम पर कटता होगा। मैं तबसे एक बात अपने व्यायान इत्यादि में कहा करता हूँ कि दुनियाँ में जो गलत कार्य (पाप) सामान्य स्थिति में नहीं कर सकते, वे सब धर्म की आड़ में होते हैं। भांग पीने वाला भोले बाबा की जय बोलकर, शराब पीने वाला काली या ौरव बाबा की, लीला रचाने वाले कृष्ण-गोपियो की जय बोलकर इन अनैतिक कृत्यों को करते हैं। जब सुनामी लहरें आयी थी, उस समय भू-गर्भ वैज्ञानिकों के पत्र-पत्रिकाओं में लेख आये थे कि ये इस तरह की जो प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, उनमें ये प्रतिदिन होने वाली निरीह पशुओं की हत्या के कारण जो उनकेाय के कारण निकलने वाली चीत्कार, करुणामयी रुदन के द्वारा जो कपन पैदा होता है, वह भी प्रकृति में असन्तुलन पैदा करता है।

त्रासदी से पीड़ित और दुर्गम स्थानों पर कठिनाइयाँ झेल रहे लोगों तक राहत सामग्री पहुँचाना अपने आप में एक अति कठिन काम था। सभा के आदेश से हमने  वही कार्य करने की ठान ली। 23 मई को हम लोग प्रातः 3 बजे जग गये क्योंकि चार (4) बजे हमको राहत वितरण हेतु अपने निश्चित स्थान पर पहुँचना था। हम लोग शौचादि से निवृत्त होकर बिना नहाएँ ही क्यों उस दिन पानी बहुत थोडा था, ठीक चार बजे जहाँ पर गाड़ी जानी थी, वहाँ पहुँच गये। लगभग 4:30 बजे प्राप्तः मैं (कर्मवीर), आचार्य नन्दकिशोर जी, ब्र. प्रभाकर जी, ब्र. सोमेश जी, पं. कमला कान्त आत्रेय जी, पं. माधव जी (प्राध्यापक), पं. तारा जी ये दोनों लोग गुरुकुल कांगडी के स्नातक हैं तथा राजकुमार जी आदि अन्य एक दो व्यक्ति बस में सवार होकर चल दिए। रास्ते के लिए कुछ सूखी खाद्य सामग्री साथ ले राी थी। लगभग 7:30 बजे एक जगह मार्ग में ही रुक कर प्रातःराश किया फिर शीघ्र ही चल दिये, लगभग 11:30 बजे सिंगेटी बाजार पहुँचे, रास्ता बड़ा ही दुर्गम था, लगभग 100 किमी. का तो रास्ता ऐसा था जिसमें केवल अभी पत्थर डले थे सड़क पक्की नहीं बनी थी, इस पर चलते रहे सिंगेटी पहुँचने से काफी पहले ही सड़क के दोनों ओर के मकान प्रायः ध्वस्त पड़े दिखाई देते थे। सिंगेटी पहुँचे, यहाँ भी यही हाल था। लगभग पूरा नगर ध्वस्त था, कोई भी मकान-दुकान ठीक नहीं बचा था, वहाँ पर कृष्ण जी आर्य पहले से उपस्थित थे। उन्होंने एक दुकान से सामान खरीद कर एक ट्रक गाडी में रखवाकर उस गाँव में भेज दिया था। जिस दुकान से सामान खरीदा था वो काफी टूटी हुई थी। किसी प्रकार से कुछ सामान सुरक्षित था। उस दुकानदार का भुगतान कर हम चल दिए। इसी स्थान पर एक होटल था, भूकप से पूर्व यहाँ बहुत पर्यटक आते थे। होटल में लगभग 35 लोग रुके हुए थे, होटल पहाड़ की एकदम तलहटी में था, पहाड़ से भूकप के कारण विशाल पत्थर गिरे, सारा होटल पत्थरों के नीचे दब गया, अभी तक मलबा भी नहीं हटाया गया था, सभवतः सारी लाशें उसी के अन्दर दबी पड़ी होंगी। भूकप से जितनी हानि नेपाल में हुई है, उसकी भरपाई तो विश्व के सपन्न राष्ट्र मिलकर करें तब कुछ भरपाई हो सकती है। परोपकारिणी सभा की जागरूकता इस बात से स्पष्ट होती है कि अपनी सामर्थ्यानुसार सहायता बिना विलब किये पहुँचाई, बड़ी संया में लोगों तक पहुँचाई और तत्परता के साथ पहुँचाई।

सिंगोटी बाजार से जहाँ हमें जाना था, वह गाँव इस स्थान से 7 किमी. की ऊँची पहाड़ी पर था। रास्ता कच्चा व बड़ा खतरनाक था। जब हमारी गाड़ी उस पहाड़ पर चढ़ रही थी तो कई बार ऐसा प्रतीत हुआ कि शायद यह यात्रा जीवन की अन्तिम यात्रा हो। इस चढ़ाई की कठिनाई का पता इस बात से भी लगाया जात सकता है कि 7 किमी. के इस दुर्गम रास्ते से सामान पहुँचाने के ट्रक वाले ने 8000/- नेपाली रूपये (भारतीय 5 हजार) लिए। वास्तव में यह पाँच हजार रूपये 7 किमी. के नहीं एक बड़े जोखिम (खतरे) के थे। हम लोग पहाड़ पर लामीडाँडा नामक गाँव पहुँचे, वहाँ पर बहुत लोग उपस्थित थे, सब लोग हमको देखकर बड़े प्रसन्न हुए। सब लोग हमारी व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी परिवारों को पहले से कूपन वितरित कर दिये गये थे। परिवार का एक सदस्य कूपन लेकर आता तथा धन्यवाद देकर सामान लेकर चला जाता। यहाँ पर कोई सज्जन महानुभाव हमसे कई दिन पहले पहुँचे थे, उन्होंने भी सभी परिवारों को 7-7 किग्रा. चावल वितरित किये थे। कृष्ण जी भी इसी गाँव के रहने वाले थे। अपने घर पर ही भोजन की व्यवस्था कर रखी थी, हम सभी ने भोजन किया, बड़ा स्वादिष्ट भोजन घर की माताओं ने बड़े प्रेम से कराया। इसी गाँव के लगभग सभी घर गिर चुके थे। ग्रामवासी या तो टैंटों में या फिर गिरे हुए मकानों की टीन इत्यादि को इकट्ठी कर पेडों से लकडी काट अस्थाई घर बनाकर रह रहे थे।

यहाँ से लगभग तीन बजे हम लोग काठमाण्डू के लिए चले, कुछ दूर ही चले कि गाड़ी खराब हो गई। सब लोग तो गाड़ी ठीक होने की प्रतीक्षा करते रहे, मैं प्रभाकर जी, सोमेश जी पैदल ही पहाड़ी रास्ते से जल्दी-जल्दी उतरकर नीचे बहती कोसी नदी में स्नान किया, तब तक गाड़ी भी ठीक होकर आ गई, हम लोग देर रात 11 बजे काठमाण्डू आर्य समाज पहुँच गये।

24 मई की सांय 7 बजे हम लोग अपने देश की तरफ चले प्रातः 5 बजे हम सोनौली भारत नेपाल की सीमा पहुँचे, वहाँ से एक जीप पकड़कर गोरखपुर पहुँचे, वहाँ से ब्र. सोमेश जी रेलगाडी से मैनपुरी के लिए चले गये। हम लोग बस पकड़कर लखनऊ पहुँचे। आचार्य नन्दकिशोर जी ने यहाँ से दिल्ली के लिए तथा ब्र. प्रभाकर जी ने बिजनौर के लिए बस पकड़ी तथा मैंने लखनऊ से जयपुर के लिए बस पकड़ी। कानपुर पहुँचकर जाम में बस फँस गई, वहाँ से चले इटावा में रात्री में बस खराब हो गई, वहाँ से चले आगे चलकर आगरा से आगे बस का टायर पंचर हो गया, यहाँ से आगे चले पता चला कि गुर्जर आन्दोलन के कारण आगरा जयपुर हाईवे बन्द कर दिया गया। गर्मी भी त्वचा जला देने वाली थी, इस प्रकार काठमाण्डू से अजमेर बस तक का सफर 2 दिन, दो रात (48 घन्टे) में तय किया। गर्मी के कारण कष्ट भी बहुत हुआ। पर मन में संतोष था कि हाँ कुछ अच्छा करते हुए द्वन्द्वों को सहन करना ही तप है, जो मानव जीवन की उन्नति का कारण है।

इसी पूरी यात्रा से एक विशेष अनुभव हुआ कि हमें कभी भी किसी प्रकार का धन-बल, शारीरिक बल, जल बल, रूप आदि पर कोई घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि न जाने किस वक्त इस परिवर्तनशील संसार में क्या घटना घट जाए। क्षणों की आपदा करोड़पतियों को सड़क पर खड़ा कर देती है। भूख-प्यास के मारे कटोरा हाथ में आ जाता है। शारीरिक बलवान बैसााियों पर आ जाते हैं, रूपवान ऐसे कुरूप हो जाते हैं कि उनकी तरफ कोई देखना तक नहीं चाहता। परमात्मा से प्रतिक्षण यही प्रार्थना करनी चाहिए कि ईश्वर हमें शक्ति-भक्ति-सामर्थ्य प्रदान करे कि यह शरीर सदा दूसरों की सेवा कर सके। इति।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

‘रक्षा बन्धन अन्याय न करने और अन्याय पीढि़तों की रक्षा करने का संकल्प लेने का पर्व है’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बन्धन का पर्व सभी सुहृद भारतीयों द्वारा विश्व भर में सोत्साह मनाया जाता है। समय के साथ प्रत्येक रीति रिवाज व परम्परा में कुछ परिवर्तन होता रहता है। ऐसा ही कुछ परिवर्तन रक्षा बन्धन पर्व में हुआ भी लगता है। भारत में मुस्लिम काल में जब आक्रमण, मन्दिरों की लूट, देशवासियों का अपमान, अन्यायपूर्ण व बलपूर्वक धर्मान्तरण और निर्दोषों की हत्यायें होने लगीं तो इन अन्यायों से रक्षा की आवश्यकता हिन्दू समाज को अनुभव होने लगी। इसका उपाय यही हो सकता था कि वह संगठित होते ओर सामाजिक स्तर पर परस्पर रक्षा के सात्विक व पवित्र सम्बन्ध में बंधते। ऐसा ही हुआ होगा, इसी कारण हमारी आर्य जाति आज भी संसार में विद्यमान है अन्यथा जितने आक्रमण, अन्याय, शोषण व अत्याचार इस हिन्दू जाति पर विदेशियों व विधर्मियों ने मध्यकाल व बाद के वर्षों में हुए हैं, उनके कारण यदि इस जाति का अस्तित्व समाप्त भी हो जाता, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। अतः आज का दिन हमें अपने इतिहास को स्मरण करने व उससे शिक्षा लेने का है। अपना अज्ञान दूर कर ज्ञान व सत्य के आधार पर मनुष्य समाज को संगठित करना ही संसार के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। यह यद्यपि अतीत का भी धर्म व कर्तव्य था, परन्तु इसके विपरीत हमें अमानवीय कृत्य से भरा इतिहास प्राप्त हुआ है। हम वर्तमान और भविष्य को बदल सकते हैं। अतः अतीत की घटनाओं को स्मरण कर अपनी निजी व सामाजिक कमियों व त्रुटियों को दूर कर दूसरों पर अन्याय व अत्याचार न करना और न ही सहन करना की भावना का प्रचार होना ही रक्षा बन्धन पर्व का यथार्थ सन्देश विदित होता है।

 

रक्षा बन्धन में बहिनें भाइयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं। इसमें क्या सन्देश है जो आज भी प्रासंगिक है। इस पर विचार करने से यह तथ्य सामने आता है कि अतीत में जब स्त्री जाति पर दुष्ट व अमानुष पुरूषों के अत्याचार हुए तो उन्हें रक्षा की आवश्यकता अनुभव हुई। ऐसा कौन सा व्यक्ति हो सकता था जो उनकी रक्षा करता और यदि प्राणों को भी न्योछावर करना पड़ता तो उसमें भी वह पीछे न हटता। इसका एक ही उत्तर है कि यह कार्य किसी भी बहिन का भाई ही कर सकता है। माता पिता वृद्ध होने के कारण शक्ति सम्पन्न युवा दुष्ट पुरुषों को उनके दुष्कृत्यों का सबक नहीं सिखा सकते। यह काम सदाचारी व धार्मिक प्रवृत्ति के युवक ही कर सकते थे और वह उनके भाई ही हो सकते थे। इसी आधार पर रक्षा बन्धन पर्व की नींव पड़ी। हमें यह भी अनुभव होता है कि इस पर्व व प्रथा से हमारे देश की न केवल स्त्री जाति की ही रक्षा हुई अपितु हमारे धर्म व संस्कृति की रक्षा भी हुई है। यद्यपि आज हमारे सामने इतिहास उपलब्ध नहीं है परन्तु हमें यह स्पष्ट अनुभव होता है कि अनेक भाईयों ने इस कार्य के लिए अपने प्राणों की आहुतियां भी दी होगी। अतः रक्षा बन्धन पर्व बनाते हुए हमें जहां अपनी सहोदर बहिनों की रक्षा का संकल्प लेना है वहीं समाज की समस्त स्त्री जाति के प्रति रक्षा की भावना अपनी आत्मा में उत्पन्न करनी है। यह संकल्प रूपी संस्कार ही रक्षा बन्धन पर्व को मनाने को सार्थकता प्रदान करता है। दूसरा संकल्प यही है कि हमें न तो अन्याय सहना है और न ही दूसरों पर किसी प्रकार का अन्याय करना है। इसी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि हमें समाज के उच्च व श्रेष्ठ विचार के लोगों को संगठित कर एक ऐसा सामाजिक कवच तैयार करना है कि दुष्ट लोग किसी अबला, स्त्री व असहाय व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार का अत्याचार व अन्याय न कर सके। आर्य समाज को स्थापित करने के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी रहा।

 

रक्षा बन्धन के पर्व से कुछ ऐतिहासिक घटनायें भी जुड़ी हुई हैं। आर्य जगत के प्रख्यात विद्वान पं. भवानी प्रसाद जी ने इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है। उसको स्मरण कर लेना भी इस अवसर पर उचित प्रतीत होता है। उनके अनुसार राजपूत काल में अबलाओं के अपनी रक्षार्थ सबल वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ है। जिस किसी वीर क्षत्रिय को कोई अबला राखी भेजकर अपना राखी-बन्द भाई बना लेती थी, उस की आयु भर रक्षा करना उस का कत्र्तव्य हो जाता था। चित्तौड़ की महारानी कर्णवती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के बादशाह से अपनी रक्षार्थ राखी भेजी थी, जिससे उस ने चित्तौड़ पहुंचकर तत्काल अन्त समय पर उस को सहायता की थी और चित्तौड़ का बहादुरशाह के आक्रमण से उद्धार किया था। तब से बहुत से प्रान्तों में यह प्रथा प्रचलित है कि भगिनियां और पुत्रियां अपने भ्राताओं और पिताओं के हाथ में श्रावणी के दिन राखी बांधती हैं और वे उन से कुछ द्रव्य और वस्त्र पाती हैं। यदि यह प्रथा पुत्री और भगिनी-वात्सल्य को दृढ़ करने वाली मानी जाए तो उस के प्रचलित रहने में कोई क्षति भी नहीं है।

 

वह आगे कहते हैं कि आजकल की श्रावणी को प्राचीन काल के उपाकर्म-उत्सर्जन, वेद स्वाध्याय रूप ऋषि तर्पण और वर्षाकालीन वृहद् हवन-य़ज्ञ (वर्षा चातुर्मास्येष्टि) का विकृत तथा नाममात्र शेष स्मारक समझना चाहिए और प्राचीन प्रणाली के पुनरुज्जीवनार्थ उस को बीज मात्र मानकर उस को अंकुरित करके पत्रपुष्पसफल समन्वित विशाल वृक्ष का रूप देने का उद्योग करना चाहिए। आर्य पुरुषों को उचित है कि श्रावणी के दिन बृहद हवन और विधिपूर्वक उपकर्म करके वेद तथा वैदिक ग्रन्थों के विशेष स्वाध्याय का उपाकर्म करें और उस को यथाशक्ति और यथावकाश नियमपूर्वक चलाते रहें।

 

आज ही के दिन आर्यसमाज के गुरूकुलों में नये ब्रह्मचारियों के प्रवेश कराने के साथ उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार किये जाते हैं जिसमें आर्य जनता सोत्साह भाग लेती है और नये ब्रह्मचारियों को उनके वेदाध्ययन के व्रत में सहायक बन कर सहयोग देने के साथ उनसे वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा की अपेक्षा करती है। आज के दिन गुरूकुल के संचालकों, आचार्यों एवं अन्य अधिकारियों को गुरूकुल शिक्षा पद्धति पर गोष्ठी करनी चाहिये और गुरूकुल शिक्षा प्रणाली को अधिक प्रासंगिक व प्रभावशाली बनाने के साथ इससे राम-कृष्ण-चाणक्य-दयानन्द बनाने व तैयार करने की योजना बनानी चाहिये जिससे हमारी धर्म व संस्कृति न केवल सुरक्षित रह सके अपितु यह विश्ववारा धर्म व संस्कृति संसार में अपना गौरवपूर्ण स्थान ग्रहण कर सके, उसका प्रयास किया जाना चाहिये। रक्षा बन्धन पर्व की सभी देशवासियों को बधाई।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पूर्व राष्ट्रपति एवं आजीवन शिक्षक कलाम के प्रति श्रद्धाञ्जलि: डॉ धर्मवीर

वर्तमान समय में देश का दुर्भाग्य है कि हमारे समाज में शिक्षक की भूमिका नगण्य मानी जाती है। कुछ समय पहले तक ग्रामीण समाज के लोग शिक्षक के कार्य को कार्य ही नहीं मानते थे। इसके दो उदाहरण स्मरण आ रहे  हैं एक- हरियाणा में मुयमन्त्री बंशीलाल भाषण दे रहे थे- गाँव की सभा में लोगों ने अपने गाँव में विद्यालय खोलने की माँग की, तो मुयमन्त्री का उत्तर था- तुम सड़क बनवा लो, बिजली लगवा लो, गाँव के लिये बस की व्यवस्था करवा लो, जितने भी काम उत्पादकता से जुड़े हैं, उन्हें करने में मैं देर नहीं करुँगा परन्तु विद्यालय जैसे कार्य मेरी प्राथमिकता में नहीं है। इस प्रकार गाँव के एक चौधरी ने बाहर काम कर रहे एक युवक से गाँव में लौटने पर, भेंट के प्रसंग में पूछा- भाई कोई नौकरी मिली या अभी मास्टरी ही कर रहे हो। ये दो उदाहरण हमारी सामाजिक सोच के लिए पर्याप्त हैं। यह ठीक है कि इधर के वर्षों में शिक्षा को लेकर सोच बदला है परन्तु यह सोच भी सही दिशा में नहीं जा रहा। प्रथम तो समाज में शिक्षा दो भागों में विभाजित हो गई है। एक कुलीन  व सपन्न समझे जाने वाले वर्ग के बच्चों को जो शिक्षा मिलती है। ये बच्चे जिन विद्यालयों में जिन अध्यापकों से पढ़ते हैं, वहाँ शिक्षा के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता है, इन बालकों में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा भी रहती है। इनको अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन करने का पर्याप्त अवसर मिलता है जिनके परिणाम और उपलधियों को देख कर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें लगता है कि भारत में शिक्षा का स्तर ऊँचा है, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन्हीं मेधावी युवकों के कारण भारत की प्रतिष्ठा बढ़ रही है। ये तो भारत के प्रकाशमान भाग का दृश्य है।

भारत की शिक्षा का एक अन्धकारपूर्ण पक्ष है। जहाँ निर्धनता, दरिद्रता के कारण उक्त शिक्षा संस्थानों तक उन बालकों की पहुँच नहीं हो पाती। इन स्थानों पर जो गाँव हैं, ये स्थान नगरों से दूर, नगर की सुविधाओं से वञ्चित अज्ञान, अशिक्षा, निर्धनता से त्रस्त और शिक्षा के अवसरों से वञ्चित हैं। जहाँ मनुष्य मजदूरी, काम के अभाव में या उसकी विवशता में शिक्षा की बात भी नहीं सोच सकता। इन स्थानों पर शिक्षा के लिये किये गये सरकारी प्रयास सरकार की भांति दुर्दशा से ग्रस्त हैं। प्रथमतः इन क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था और सुविधा उपलध ही नहीं है। यदि कहीं उपलध है तो इन विद्यालयों में कहीं भवन नहीं, कहीं शिक्षक नहीं, कहीं शिक्षा के उपकरण नहीं। सब कुछ तो, सभव है, इन क्षेत्रों में कहींाी न मिले। हमारी सरकारी शिक्षा-व्यवस्था की दशा इस बात से जानी जा सकती है कि व्यक्ति अध्यापन का सेवा-कार्य राजकीय विद्यालयों में करने का आग्रह करता है परन्तु यदि उसको अपने बच्चों को पढ़ाने का  का अवसर मिलता है तो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाता है। इससे निजी और सरकारी विद्यालयों की शिक्षा का अन्तर समझना सरल है।

शिक्षा के इन केन्द्रों की समस्या यह है कि सरकार ने छात्र बीच में शिक्षा को छोड़कर न जाये, इस विचार से पाँचवी से आठवीं तक छात्रों को अनुत्तीर्ण न करने का निर्देश दिया हुआ है। इसका परिणाम है कि राजकीय विद्यालयों में छात्र न पढ़ते हैं और जो आते भी हैं तो वे पढ़ना नहीं चाहते। आज सुधार के नाम पर विद्यालयों की ऐसी दुर्दशा हो गई है। अध्यापक न पढ़ने पर, विद्यालय न आने पर, पाठ न सुनाने पर छात्रों को डांट भी नहीं सकता। यदि किसी अध्यापक ने कुछ प्रयास किया तो बात माता-पिता से होकर पुलिस तक पहुँच जाती है। ऐसी परिस्थिति में अध्यापक अपने प्रयासों को छोड़ देता है। सरकार पिछड़ी जातियों के लिए छात्रवृत्ति एवं छात्रावास की सुविधा देती है परन्तु घर और विद्यालयों का वातावरण शिक्षा के अनुकूल न होने के कारण अधिकांश छात्र इन सुविधाओं का सदुपयोग नहीं कर पाते।

शिक्षा की दशा  समझने के लिये एक उदाहरण पर्याप्त होगा। जैसा ऊपर बताया गया कि व्यक्ति शिक्षा की नौकरी तो राजकीय चाहता है परन्तु विद्यालय का स्तर न अध्यापक, न अधिकारी, न सरकार ही सुधारना चाहती है। उदाहरण दिल्ली प्रदेश का है। शीला सरकार ने एक बार विचार किया कि राजकीय विद्यालयों का परीक्षा परिणाम सन्तोषजनक नहीं रहता तो अच्छा होगा इन विद्यालयों का प्रबन्ध निजी हाथों में सौंप दिया जाय। यह तो अध्यापकों के लिए खतरे की घण्टी थी। राजकीय विद्यालयों ने इस समस्या का तत्काल समाधान खोज लिया। जब दसवीं की परीक्षा हुई, मुयाध्यापकों के निर्देशन में अध्यापकों ने छात्रों के साथ भरपूर सहयोग किया और उस वर्ष का राजकीय विद्यालयों का परिणाम सुधर गया। अध्यापकों पर लटक रही तलवार हट गई। शिक्षा का स्तर भी सुधर गया, समस्या का हल भी हो गया। अब विचारने की बात है कि दिल्ली जैसे प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ऐसी है तो शेष देश की क्या परिस्थिति होगी?

यहाँ तक ही शिक्षा की समस्या का अन्त नहीं होता। यथार्थ तो यह है कि शिक्षा की वास्तविक समस्या यहाँ से प्रारभ होती है। शिक्षा इस देश में अनेक प्रकार की है। एक महंगी शिक्षा, दूसरी सस्ती शिक्षा। महंगी शिक्षा वाले लोग अपने को इस देश का प्रथम श्रेणी का नागरिक मानते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को दूसरी श्रेणी के बच्चों से बराबरी नहीं करने देना चाहते। प्रथम प्रयास में महंगी शिक्षा की तुलना में सस्ती शिक्षा में पढ़ा हुआ छात्र अपने आप पिछड़ जाता है तथा अपने को पिछड़ा मान लेता है। इससे आगे इस देश की सरकार ने शिक्षा को एक बाधा दौड़ बना रखा है। जो बालक पहली महंगी-सस्ती बाधा दौड़ किसी प्रकार पार कर लेता है, अपनी प्रतिभा से किसी सामाजिक, सरकारी, व्यक्तिगत सहायता से इस बाधा को पार कर लेता है, उसके सामने आगे की पढ़ाई के लिये दूसरी मुय बाधा भाषा की आती है। इन तथाकथित सभ्रान्त विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से ग्रामीण और सरकारी विद्यालयों के बालक प्रतिभा सपन्न होने पर भी वे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़े छात्रों की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं। अधिकांश को अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर, अन्य क्षेत्रों में आजीविका अपनानी पड़ती है। देश की बहुसंयक जनता के बालकों के साथ हो रहे अन्याय को कोई अनुभव नहीं करना चाहता, उपाय करना तो दूर की बात है।

उच्च शिक्षा के सारे पाठ्यक्रम अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाये जाते हैं, जो व्यक्ति डॉक्टर, वकील, इञ्जीनियर, प्रशासक, व्यवस्थापक, अध्यापक, अनुसन्धानकर्त्ता कुछ भी बनना चाहे वह अंग्रेजी के बिना बन ही नहीं सकता। जो लोग हिन्दी या देश भाषा को पिछड़ा मानते हैं या कहते हैं, वे यह क्यों छिपाते हैं कि स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी को बढ़ाने का जितना यत्न किया गया, उससे अधिक प्रयत्न हिन्दी को और प्रान्तीय भाषाओं को दबाने का किया गया। फिर एक बात सोचने की है, क्या पराधीन रहते बहुत दिन हो गये हों तो स्वतन्त्रता के विषय में विचार करना, स्वाधीनता के लिये प्रयत्न करना छोड़ देना चाहिए? जो स्वतन्त्रता की बात देश के लिए की जाती है, वह देश की भाषा के लिए क्यों नहीं की जानी चाहिए, क्या भाषा की स्वतन्त्रता के बिना देश को स्वतन्त्र कहना आत्म प्रवचञ्चना नहीं है? आज जब इस देश के प्रशासन की भाषा, न्यायालयों की भाषा, संसद व विधान मण्डलों की भाषा, विदेशी कपनियों के कारण व्यवसाय की भाषा अंग्रेजी है, ऐसी परिस्थिति में इस देश की जनता के पास गूंगा-बहरा बने रहने के अतिरिक्त क्या विकल्प शेष बचता है। आज की नई सामाजिक व्यवस्था के कारण सभी बातों का व्यावसायीकरण हो रहा है, बहुत कुछ हो गया है। ऐसी स्थिति में शिक्षा का जिस व्यापक रूप में व्यवसायीकरण हो रहा है उसके चलते हम सामान्य बालक को शिक्षित करने की बात सोच भी नहीं सकते। शिक्षा कई अर्थों में आजीविका से भी महत्त्वपूर्ण है। किसी को आजीविका देने मात्र से शिक्षित नहीं किया जा सकता परन्तु शिक्षित कर देने से आजीविका पाने योग्य मनुष्य स्वतः बन जाता है। इस भाषा और साधन, सुविधा, शिक्षक के अभाव में देश की नई पीढ़ी को शिक्षा से वञ्चित करना उसकी बौद्धिक हत्या करने के समान है। भले ही इस हत्या के लिए आपके संविधान में किसी दण्ड का विधान न हो परन्तु पाप होने के कारण इस अपराध को करने वाले परमेश्वरीय दण्ड विधान से नहीं बच सकते। देश के स्वतन्त्र होने के बाद, इस देश का प्रधानमन्त्री और सरकार अंग्रेजों की कृतज्ञ रही है। अंग्रेज की रीति-नीति, भाषा-भूषा, कार्यशैली सभी कुछ वही अपनाया गया। जो विद्यालय ईसाई चर्च के द्वारा चलते थे उन्हीं को आदर्श मान लिया। सरकारी अधिकारियों ने अपने बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ा कर उनका भविष्य सुरक्षित कर लिया। जिस प्रकार कांग्रेस के नेताओं ने अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाकर अंग्रेजों का प्रिय पात्र बनाया और अंग्रेज जाते-जाते ऐसे लोगों के हाथ में इस देश के शासन का सूत्र सौंप गये जिसका परिणाम है कि यह देश आज तक भी पराधीनता के चंगुल से मुक्त नहीं हो सका है। किसी भी देश की आत्मा उस देश की भाषा में बसती है और उसका संस्कार शिक्षा में। आज देश को शिक्षा और शिक्षक के महत्व को समझने की आवश्यकता है। ट्यूशन पढ़ाकर पैसा कमाने वाले अध्यापक ऊँची फीस लेकर शिक्षा की दुकान चलाने वाले शिक्षा के व्यापारी इस बात को नहीं समझ सकते हैं, इस देश के लोग कह सकते हैं भाषा या साधनहीनता मनुष्य के लिये बाधक नहीं बन सकती जैसे कलाम के लिए या नरेन्द्र मोदी के लिये, परन्तु यह हम क्यों भूल जाते हैं कि मोदी या कलाम अपवाद से बनते हैं, नियम से नहीं। इससे अच्छा ऐसा अवसर कौन सा हो सकता है कि हम एक ऐसे व्यक्ति को श्रद्धाञ्जलि दे रहे हैं जो एक बुद्धिमान् वैज्ञानिक था, निष्ठावान देशभक्त था, स्वभाव से संवेदनशील था, पद से देश का पूर्व राष्ट्रपति था और प्रवृत्ति से अध्यापक था। राष्ट्रपति पद छोड़ने के अगले दिन और जीवन के अन्तिम दिन कक्षा में उपस्थित रहा। जिसका प्राणान्त पढ़ाते हुए हुआ, जिसे अध्यापक होने में प्रसन्नता का अनुभव होता था और अध्यापक कहलाने में गर्व। जिनका जीवन सबके लिये प्रेरणाप्रद है। कलाम ने शिक्षकों के लिये जो शपथ बनाई है, उसमें उनकी एक आदर्श अध्यापक वृत्ति लक्षित होती है-

  1. 1. सबसे पहले मैं शिक्षण से प्रेम करुँगा। शिक्षण मेरी आत्मा होगी।
  2. 2. मैं महसूस करता हूँ कि मैं न सिर्फ छात्रों को अपितु प्रज्वलित युवाओं को आकार देने के लिये जिमेदार हूँ, जो पृथ्वी के नीचे, पृथ्वी पर और पृथ्वी के ऊपर सबसे शक्तिशाली संसाधन हैं। मैं शिक्षण के महान मिशन के लिए सपूर्ण रूप से प्रतिबद्ध हो जाऊँगा।
  3. 3. मैं स्वयं को एक महान् शिक्षक बनाने के लिये विचार करुँगा, जिससे मैं अपने विशिष्ट शिक्षण के माध्यम से औसत स्तर के बालक का उत्थान सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिये कर सकता हूँ।
  4. विद्यार्थियों के साथ मेरा कार्य व्यवहार एक माँ, बहन, पिता या भाई की तरह दयावान और स्नेह पूर्ण रहेगा।
  5. 5. मैं अपने जीवन को इस प्रकार से संगठित एवं व्यवहृत करुँगा कि मेरा जीवन स्वयं ही मेरे विद्यार्थियों के लिये एक सन्देश बने।
  6. 6. मैं अपने विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने तथा उनमें जिज्ञासा की भावना को विकसित करने को प्रोत्साहित करुँगा ताकि वे रचनात्मक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में विकसित हो सके।
  7. 7. मैं सभी विद्यार्थियों से एक समान व्यवहार करूँगा तथा धर्म, समुदाय या भाषा के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का समर्थन नहीं करुंगा।
  8. 8. मैं लगातार अपने शिक्षण में क्षमता निर्माण करुँगा ताकि मैं अपने छात्रों को उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान कर सकूँ।
  9. 9. मैं अत्यन्त आनन्द के साथ अपने छात्रों की सफलता का जश्न मनाऊँगा।
  10. 10. एक शिक्षक होने के नाते मैं अहसास करता हूँ कि राष्ट्रीय विकास के लिये की जा रही सभी पहल में मैं एक महत्वपूर्ण योगदान कर रहा हूँ।
  11. 11. मैं लगातार मेरे मन को महान् विचारों से भरने तथा चिन्तन व कार्य व्यवहार में सौयता का प्रसार करने का प्रयास करुँगा।
  12. 12. हमारा राष्ट्रीय ध्वज मेरे हृदय में फहराता है तथा मैं अपने देश के लिये यश लाऊँगा।

डॉ. कलाम के हृदय की देश के छात्रों के प्रति संवेदनशीलता और राष्ट्र निष्ठा का इससे बड़ा क्या उदाहरण हो सकता है। इसी प्रकार कलाम के जीवन की बहुत सारी घटनाओं में से एक घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। तमिलनाडु के वेल्लौर जिले की एक छात्रा सुदारकोडी सुकुमार ने एक बार कलाम से पूछा था- आप इन तीन विशेषणों में से किसको अपने लिये उपयुक्त समझेंगे। प्रथम आप एक वैज्ञानिक है, दूसरा- आप भारतीय तमिल हैं, तीसरा- आप एक मनुष्य हैं। तब कलाम ने उत्तर दिया था- यदि मैं मनुष्य हूँ तो शेष दो मेरे अन्दर स्वतः आ जायेंगे। इतना ही नहीं इस छात्रा को कलाम ने स्मरण रखा और उसके प्रश्न को अपनी आत्मकथा का शीर्षक बनाकर पुस्तक विमोचन के समय उसको बुलाया।

ऐसे व्यक्ति के लिए सच्ची श्रद्धाञ्जलि देश अपने सभी नागरिकों को उच्च शिक्षा का अधिकार देकर उसका प्रबन्ध कर उसकी प्रतिभा को विकसित करने के लिये शिक्षा को बालक की मातृभाषा में सुलभ करके ही दे सकता है अन्यथा तो यह श्रद्धाञ्जलि पाखण्ड मात्र है। डॉ. कलाम जैसे गुरु के लिये ही कहा जा सकता है-

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानानञ्जनशलाकया।

चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।

– धर्मवीर

देश की परतन्त्रता में मूर्तिपूजा की भूमिका पर महर्षि दयानन्द का सन् 1874 में दिया एक हृदयग्राही ऐतिहासिक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमने विगत तीन लेखों में महर्षि दयानन्द के सन् 1874 में लिखित आदिम सत्यार्थ प्रकाश से हमारे देश आर्यावर्त्त में महाभारत काल के बाद अज्ञान व अन्धविश्वासों में वृद्धि, मूर्तिपूजा के प्रचलन, मन्दिरों के विध्वंश व इनकी अकूत सम्पत्ति की लूट, देश की परतन्त्रता आदि कारणों पर उनके उपदेशों को प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में यह एक अन्य उपदेश प्रस्तुत कर इस श्रृंखला का समापन कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द अपने इस उपदेश में कहते हैं कि देश के चार ब्राह्मणों ने अच्छा विचार किया कि कोई क्षत्रिय राजा इस देश में अच्छा नहीं है, इसका कुछ उपाय करना चाहिए। वे चारों ब्राह्मण अच्छे थे, क्योंकि सब मनुष्यों के ऊपर कृपा करके उन्होंने अच्छी बात विचारी। ऐसा करना अच्छे पुरुषों का काम है बुरों का नहीं। फिर उन्होंने क्षत्रियों के बालकों में से चार अच्छे बालक छांट लिए और उन क्षत्रियों से कहा कि तुम लोग बालकों के खाने पीने का प्रबन्ध रखना। उन्होंने स्वीकार किया और सेवक भी साथ रख दिए। वे सब आबू राजपर्वत के ऊपर जाके रहे और उन बालकों की अक्षराभ्यास और श्रेष्ठ व्यवहारों की शिक्षा करने लगे। फिर उनका यथाविधि संस्कार भी उन्होंने किया। सन्ध्योपासन और अग्निहोत्रादिक वेदोक्त कर्मों की शिक्षा उन्होंने की तत्पश्चात व्याकरण, छः दर्शन, काव्यालंकार सूत्र सनातन कोश, यथावत् पदार्थ विद्या उनको पढ़ाई। इसके बाद वैद्यक शास्त्र तथा गान विद्या, शिल्प विद्या और धनुर्विद्या अर्थात् युद्ध विद्या भी उनको अच्छी प्रकार से पढ़ाई। राजधर्म जैसा कि प्रजा से वर्तमान करना और न्याय करना, दुष्टों को दण्ड देना तथा श्रेष्ठों का पालन करना, यह भी सब पढ़ाया। ऐसे 25 वा 26 वर्ष की आयु उनकी हुई।

 

उन पण्डितों की स्त्रियों (धर्मपत्नियों) ने इसी प्रकार से चार कन्या रूप गुण सम्पन्न को अपने पास रखके व्याकरण, धर्मशास्त्र, वैद्यक, गान विद्या तथा नाना प्रकार के शिल्प कर्म पढ़ाए और व्यवहार की शिक्षा भी की तथा युद्ध विद्या की शिक्षा, गर्भ में बालकों का पालन और पति सेवा का उपदेश भी यथावत् किया। फिर उन पुरुषों को परस्पर चारों का युद्ध करना और कराने का यथावत् अभ्यास कराया। इस प्रकार अध्ययन व अभ्यास करते हुए चालीस-चालीस वर्ष के वह पुरुष हुए। बीस-बीस वर्ष की वे कन्या हुईं। तब उनकी प्रसन्नता से और गुण परीक्षा से एक से एक का विवाह कराया। जब तक विवाह नहीं हुआ था, तब तक उन पुरुषों की और कन्याओं की यथावत् रक्षा की गई थी। इससे उनको विद्या, बल, बुद्धि तथा पराक्रम आदि गुण भी उनके शरीर में यथावत् हुए थे।

 

पश्चात उन पुरुषों से ब्राह्मणों ने कहा कि तुम लोग हमारी आज्ञा को मानों। तब उन सबों ने कहा कि जो आपकी आज्ञा होगी, वही हम करेंगे। तब उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि हमने तुम्हारे ऊपर परिश्रम किया है सो केवल जगत् के उपकार के हेतु किया है। सो आप लोग देखों कि आर्यावर्त्त में गदर मच रहा है। मुसलमान लोग इस देश में आकर बड़ी दुर्दशा करते हैं और धन आदि लूट के ले जाते हैं। सो इस देश की नित्य दुर्दशा होती जाती है। आप लोग यथावत् राजधर्म से प्रजा का पालन करो और दुष्टों को यथावत् दण्ड दो। परन्तु एक उपदेश सदा हृदय में रखना कि जब तक वीर्य की रक्षा और जितेन्द्रिय रहोगे, तब तक तुम्हारा सब कार्य सिद्ध होता जायेगा और हमने तुम्हारा विवाह अब जो कराया है सो केवल परस्पर रक्षा के हेतु किया है कि तुम और तुम्हारी स्त्रियां संग-संग रहोगे तो बिगड़ोगे नहीं और केवल सन्तानोत्पत्ति मात्र विवाह का प्रयोजन जानना और मन से भी पर-पुरुष वा पर-स्त्री का चिन्तन भी नहीं करना और विद्या तथा परमेश्वर की उपासना और सत्यधर्म में सदा उपस्थित रहना। जब तक तुम्हारा राज्य न जमें, तब तक स्त्री पुरुष दोनों ब्रह्मचर्याश्रम में रहो क्योंकि जो क्रीड़ासक्त होगे तो तुम्हारे शरीर से बल आदि न्यून हो जायेंगे। इससे युद्धादि में उत्साह भी न्यून हो जायगा और हम भी एक-एक के साथ एक-एक रहेंगे। अब हम और आप लोग चलें और चल के यथावत् राज्य का प्रबन्ध करें। फिर वे वहां से चले। वह चार इन नामों से प्रख्यात थे, चौहान, पंवार, सोलंकी इत्यादि। उन्होने दिल्ली आदि में राज्य किया था। जब वह राज्य करने लगे थे तब कुछ-कुछ सुप्रबन्ध भी हुआ था।

 

कुछ काल के पीछे एक मुसलमान सहाबुद्दीन गोरी भी उसी प्रकार इस देश कन्नौज आदि में आया था। उस समय कन्नौज का बड़ा भारी राज था सो इसके भय के मारे अपने ही लोग जाके उसको मिले और युद्ध कुछ भी नहीं किया क्योंकि उस वक्त राजाओं के शरीर स्त्री के शरीर से भी कोमल थे, इससे वे क्या युद्ध कर सकते?  फिर अन्यत्र युद्ध जहां-तहां किया सो उस सहाबुद्दीन गोरी का विजय हुआ और आर्यावत्र्त वालों का पराजय हुआ। पश्चात दिल्ली वालों से किसी समय उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में पृथ्वीराज मारा गया और उस सहाबुद्दीन गोरी ने अपना सेनाध्यक्ष दिल्ली में रक्षा के हेतु रख दिया। उसका नाम कुतुबद्दीन था। वह जब वहां रहा तब कुछ दिन के पीछे उन राजाओं को निकाल के आप राजा हुआ। उस दिन से मुसलमान लोग यहां राज्य करने लगे और सबने कुछ-कुछ जुलुम किया। परन्तु उनके बीच में से अकबर बादशाह कुछ अच्छा हुआ और न्याय भी संसार में होने लगा। सो अपनी बहादुरी से और बुद्धि से सब गदर मिटा दिया। उस समय राजा और प्रजा सब सुखी थे।

 

आर्यावर्त्त के राजा और धनाढ्य लोग विक्रमादित्य के पीछे सब विषय सुख में फंस रहे थे। उससे उनके शरीर में बल, बुद्धि, पराक्रम और शूरवीरता प्रायः नष्ट हो गई थी, क्योंकि सदा स्त्रियों का संग, गाना बजाना, नृत्य देखना, सोना, अच्छे-अच्छे कपड़े और आभूषण को धारण करना, नाना प्रकार के इत्र और अंजन नेत्र में लगाना, इससे उनके शरीर बड़े कोमल हो गए थे कि थोड़े से ताप वा शीत अथवा वायु का सहन नहीं हो सकता था। फिर वे युद्ध क्या कर सकते, क्योंकि जो नित्य स्त्रियों का संग और विषय भोग करेंगे, उनका भी शरीर प्रायः स्त्रियों जैसा हो जाता है। वे कभी युद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि जिनके शरीर दृढ़, रोग रहित, बल, बुद्धि और पराक्रम तथा वीर्य की रक्षा करना और विषय भोग में नहीं फंसना, नाना प्रकार की विद्या का पढ़ना इत्यादि के होने से सब कार्य सिद्ध हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।

 

फिर दिल्ली में औरंगजेब एक बादशाह हुआ था। उसने मथुरा, काशी, अयोध्या और अन्य स्थान में भी जा-जा के मन्दिर और मूर्तियों को तोड़ डाला और जहां-जहां बड़े-बड़े मन्दिर थे, उस-उस स्थान पर अपनी मस्जिद बना दी। जब वह काशी में मन्दिर तोड़ने को आया तब विश्वनाथ कुंए में गिर पड़े और माधव एक ब्राह्मण के घर में भाग गए, ऐसा बहुत मनुष्य कहते हैं, परन्तु हमको यह बात झूठ मालूम पड़ती है, क्योंकि वह पाषाण वा धातु जड़ पदार्थ कैसे भाग सकता है, कभी नहीं। सो ऐसा हुआ होगा कि जब औरंगजेब आया तब पुजारियों ने भय से मूर्ति को उठाके उसे कुंए में डाल दिया और माधव की मूर्ति उठा के दूसरे घर में छिपा दी कि वह उसे न तोड़ सके। सो आज तक उस कुंए का बड़ा दुर्गन्धयुक्त जल पीते हैं और उसी ब्राह्मण के घर की माधव की मूर्ति की आज तक पूजा करते हैं।

 

देखना चाहिए कि पहिले तो सोने व चांदी की मूर्तियां बनाते थे तथा हीरा और माणिक की आंख बनाते थे। सो मुसलमानों के भय से और दरिद्रता से पाषाण, मिट्टी, पीतल, लोहा और काष्ठ आदि की मूर्तियां बनाते हैं। सो अब तक भी इस सत्यानाश करने वाले कर्म को नहीं छोड़ते, क्योंकि छोडें तो तब जो इनकी अच्छी दशा आवे। इनकी तो इन कर्मों से दुर्दशा ही होने वाली है जब तक कि इनको (मूर्ति पूजा) नहीं छोड़ते।

 

और महाभारत युद्ध के पहले आर्यावर्त्त देश में अच्छे-अच्छे राजा होते थे। उनकी विद्या, बुद्धि, बल, पराक्रम तथा धर्म निष्ठा और शूरवीरता आदि गुण अच्छे-अच्छे थे। इससे उनका राज्य यथावत् होता था। सो इक्ष्वाकु, सगर, रघु, दिलीप आदि चक्रवर्त्ती राजा हुए थे और किसी प्रकार का पाखण्ड उनमें नहीं था। सदा विद्या की उन्नति और अच्छे-अच्छे कर्म आप किया करते थे तथा प्रजा से कराते थे। कभी उनका पराजय नहीं होता था तथा अधर्म से कभी नहीं युद्ध करते थे और युद्ध से निवृत्त कभी नहीं होते थे। उस समय से लेके जैन राज्य के पहिले तक इसी देश के राजा होते थे, अन्य देश के नहीं। सो जैनों ने और मुसलमानों ने इस देश को बहुत बिगाड़ा है। सो आज तक बिगड़ता ही जाता है। आजकल अंग्रेजों का राज्य होने से उन (जैन व मुसलमान) राजाओं के राज्य से कुछ सुख हुआ है, क्योंकि अंग्रेज लोग मत-मतान्तर की बात में हाथ नहीं डालते और जो पुस्तक अच्छा पाते हैं, उसकी अच्छी प्रकार रक्षा करते हैं। और जिस पुस्तक के सौ रुपये लगते थे, उस पुस्तक का छापा होने से पांच रुपये में मिलता है। परन्तु अंगरेजों से भी एक काम अच्छा नहीं हुआ जो कि चित्रकूट पर्वत पर महाराज अमृतराज जी के पुस्तकालय को जला दिया। उसमें करोड़ों रूपये के लाखों अच्छे-अच्छे पुस्तक नष्ट कर दिये।

 

जो आर्यावर्त्त वासी लोग इस समय सुधर जायें तो सुधर सकते हैं और जो पाखण्ड ही में रहेंगे तो इनका अधिक-अधिक नाश ही होगा, इसमें कुछ सन्देह नहीं। क्योंकि बड़े-बड़े आर्यावर्त्त देश के राजा और धनाढ्य लोग ब्रह्मचर्याश्रम, विद्या का प्रचार, धर्म से सब व्यवहारों का करना और वैश्या तथा पर-स्त्री-गमन आदि का त्याग करें तो देश के सुख की उन्नति हो सकती है। परन्तु जब तक पाषाण आदि मूर्तिपूजन, वैरागी, पुरोहित, भट्टाचार्य और कथा कहने वालों के जालों से छूटें, तब उनका अच्छा (भाग्योदय) हो सकता है, अन्यथा नहीं।

 

प्रश्न-मूर्ति पूजन आदि सनातन से चले आए हैं उनका खण्डन क्यों करते हो? उत्तर–यह मूर्तिपूजन सनातन से नहीं किन्तु जैनों के राज्य से ही आर्यावर्त्त में चला है। जैनों ने परशनाथ, महावीर, जैनेन्द्र, ऋषभदेव, गोतम, कपिल आदि मूर्तियों के नाम रक्खे थे। उनके बहुत-बहुत चेले हुये थे और उनमें उनकी अत्यन्त प्रीति भी थी। इस लिये उन चेलों ने अपने मन्दिर बनाके अपने गुरुओं की मूर्ति पूजने लगे। फिर जब उनका शंकराचार्य ने पराजय कर दिया, इसके पीछे उक्त प्रकार से ब्राह्मणों ने मूर्तियां रची और उनके नाम महादेव आदि रख दिए। जैनों की उन मूर्त्तियों से कुछ विलक्षण बनाने लग गये और पुजारी लोग जैन तथा मुसलमानों के मन्दिरों की निन्दा करने लगे।

 

वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। हस्तिना ताड्यमानोऽपि गच्छेज्जैनमन्दिरम्।।1।। इत्यादि श्लोक बनाए हैं कि मुसलमानों की भाषा बोलनी और सुननी भी नहीं चाहिए और यदि पागल हाथी किसी के पीछे मारने को दौड़े, तो यदि वह जैन के मन्दिर में जाने से बच भी सकता हो तो भी जैन के मन्दिर में न जाये किन्तु हाथी के सन्मुख मर जाना उससे अच्छा है। ऐसे निन्दा के श्लोक (इन मूर्ति पूजकों ने) बनाए हैं। सो पुजारी, पण्डित और सम्प्रदायी लोगों ने चाहा कि इनके खण्डन के विना हमारी आजिविका न बनेगी। यह केवल उनका मिथ्याचार है। मुसलमानों की भाषा (उर्दू, अरबी व फारसी आदि) पढ़ने में अथवा किसी अन्य देश की भाषा पढ़ने में कुछ दोष नहीं होता, किन्तु कुछ गुण ही होता है। अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्मः। यह व्याकरण महाभाष्य (आन्हिक 1) का वचन है। इसका यह अभिप्राय है कि अपशब्द ज्ञान अवश्य करना चाहिए, अर्थात् सब देश देशान्तर की भाषा को पढ़ना चाहिए, क्योंकि उनके पढ़ने से बहुत व्यवहारों का लाभ होता है और संस्कृत शब्द के ज्ञान का भी उनको (जिनसे व्यवहार करते हैं) यथावत् बोध होता है। जितनी देशों की भाषायें जानें, उतना ही उन पुरुषों को अधिक ज्ञान होता है, क्योंकि संस्कृत के शब्द बिगड़ के ही सब देश भाषायें होती हैं, इससे इनके ज्ञानों से परस्पर संस्कृत और भाषा के ज्ञान में उपकार ही होता है। इसी हेतु महाभाष्य में लिखा है कि अपशब्द-ज्ञानपूर्वक शब्दज्ञान में धर्म होता है अन्यथा नहीं। क्योंकि जिस पदार्थ का संस्कृत शब्द जानेगा और उसके भाषा शब्द को न जानेगा तो उसको यथावत् पदार्थ का बोध और व्यवहार भी नहीं हो सकेगा। महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर और विदुर आदि अरबी आदि देश भाषा को जानते थे। इस लिए जब युधिष्ठिर आदि लाक्षा गृह की ओर चले, तब विदुर जी ने युधिष्ठिर जी को अरबी भाषा में समझाया और युधिष्ठिर जी ने अरबी भाषा से प्रत्युत्तर दिया, यथावत् उसको समझ लिया। राजसूय और अश्वमेध यज्ञ में देश-देशान्तर तथा द्वीप-द्वीपान्तर के राजा और प्रजास्थ पुरुष आर्यावर्त्त में आए थे। उनका परस्पर (अनेक) देश भाषाओं में व्यवहार होता था तथा द्वीप-द्वीपान्तर में यहां के जन जाते थे और वह इस देश में आते थे फिर जो देश-देशान्तर की भाषा न जानते होते तो उनका व्यवहार सिद्ध कैसे होता? इससे क्या आया कि देश-देशान्तर की भाषा के पढ़ने और जानने में कुछ दोष नहीं, किन्तु बड़ा उपकार ही होता है।

 

महर्षि दयानन्द इसी क्रम में आगे लिखते हैं कि जितने पाषाण मूतिर्यों के मन्दिर हैं वे सब जैनों ही के हैं, सो किसी मन्दिर में किसी को जाना उचित नहीं, क्योंकि सब में एक ही लीला है। जैसी जैन मन्दिरों में पाषाणादि मूर्तियां हैं, वैसी आर्यावर्त्तवासियों के मन्दिरों में भी जड़ मूर्तिंया हैं। कुछ विलक्षण-विलक्षण नाम इन लोगों ने रख लिये हैं और कुछ विशेष नहीं। केवल पक्षपात ही से ऐसा करते हैं कि जैन मन्दिरों में न जाना और अपने मन्दिरों में जाना। यह सब लोगों ने आजाविका के हेतु अपना-अपना मतबलसिंधु बना लिया है।

 

यह उल्लेखनीय है कि महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को ईश्वर ज्ञान वेदों के विरूद्ध, ज्ञान विरूद्ध, युक्ति, तर्क व प्रमाणों के विरूद्ध अनुपयोगी व ईश्वर की प्राप्ति में सहायक नहीं अपितु बाधक एवं इसे ऐसी खाई बताते हैं जिसमें गिरकर मूर्तिपूजक के जीवन का अन्त हो जाता, लाभ कुछ नहीं होता। वह ज्ञानस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दादि स्वरूप, सब सुखों को देने वाले ईश्वर की महर्षि पतंजलि की योगविधि से वेदसम्मत स्तुति, प्रार्थना व उपासना के अनुगामी व प्रचारक थे। धार्मिक विषयों पर उनका विश्लेषण व निष्कर्ष था कि देश का पतन व परतन्त्रता का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष तथा सामाजिक असमानता जैसे अन्धविश्वास व मिथ्याचार आदि कार्य व व्यवहार थे। व्यक्ति, समाज व देश को सुदृण बनाने के लिए अज्ञान व अन्धविश्वासों से बचना व इन्हें छोड़ना आवश्यक है। इसके साथ लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

आर्य और ईस्वी महीनो की तुलना – आर्य महीनो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पाठकगण ! इस लेख द्वारा हम यूरोपीय (ईसाई) तथा पंचांगों की तुलना करना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं की आर्य पंचांग में विशेषता और गुण क्या हैं।

ये जानना आज इसलिए भी आवश्यक है की हमारे देश में एक ऐसी प्रजाति भी विकसित हो रही है जो ईसाइयो के अवैज्ञानिक और पाखंडरुपी चुंगल में फंसकर अपनी वैदिक संस्कृति जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर है उसे नकार कर अन्धविश्वास में लिप्त होकर देश व धर्म का अहित करते जा रहे हैं।

देखिये जो हमारे आर्य महीनो के वैदिक आधार पर पंचांगानुसार नाम हैं वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितना उन्नत और व्यवस्थित रूप है जबकि ईसाइयो के महीनो का कच्चा चिटठा हम इस पोस्ट के माध्यम से रखेंगे। आशा है आप सत्य को जान असत्य को त्याग देंगे।

ईसाई महीनो के नाम :

जनवरी (January) : यह वर्ष का प्रथम मास (Astronomy) ज्योतिष है जिसे रोमननिवासियो ने एक देवता जेनस को समर्पित किया और उसके नाम पर महीने का नाम रखा। उनका विश्वास था की इस देवता के दो शीश (सर) थे, इसलिए यह दोनों और (आगे, पीछे) देख सकता था। यह देव आरम्भ देव था जिसको प्रत्येक काम के आरम्भ में मनाया जाता था। चूँकि जनवरी वर्ष का प्रथम मास है इसलिए इसका नाम जेनसदेव के नाम पर रखा गया।

फ़रवरी – प्रायश्चित का महीना।

मार्च – लड़ाई के देवता “मार्स” के नाम पर रखा गया।

अप्रैल – यह महीना जब पृथ्वी से नए नए पत्ते, कलियाँ और फल फूल उत्पन्न होते हैं। यह नाम उस महीने की ऋतु का द्योतक है।

मई – यह महीना प्रारंभिक भाग। भावार्थ यह है की इस मास में ऋतु ऐसी शोभायमान होती है जैसे नवयुवक और नवयुववतिया।

जून – छठा महीना जो आरम्भ में केवल २६ दिन का होता था इसके नाम का शब्दार्थ छोटा महीना है। महाराज जूलियस सीज़र के समय से इस महीने की अवधि ३० दिन की मानने लगे हैं।

जुलाई : जूलियस सीज़र के नाम पर, जो इस महीने मैं पैदा हुआ था यह नाम रखा गया।

अगस्त : महाराज अगस्टस सीज़र के नाम पर यह नाम रखा गया। चूंकि जूलियस सीज़र के नाम पर रखा जाने वाला जुलाई का महीना ३१ दिन का होता था और है, इसलिए अगस्टस सीज़र ने अगस्त का महीना भी उतने ही अर्थात ३१ दिन का रखा। और यह महीना तब से ३१ दिन का चला आता है।

सितम्बर : शब्दार्थ सातवां महीना क्योंकि रोमनिवासी अपना वर्ष मार्च से प्रारम्भ करते थे।

अक्तूबर : शब्दार्थ आठवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार आठवां महीना।

नवम्बर : शब्दार्थ नवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार नवां महीना।

दिसम्बर : शब्दार्थ दसवां महीना। रोमनिवासियो के अनुसार दसवां महीना।

तो मेरे मित्रो ऊपर दिए शब्दार्थो से आपको विदित होगा की अंग्रेजी महीनो के कुछ के नाम देवताओ के नाम पर, कुछ के ऋतु के अनुसार, कुछ के महाराजाओ के नाम पर और शेष के क्रम के अनुसार नाम रखे गए हैं। यानी कोई वैज्ञानिक आधार इस अंग्रेजी वर्ष और उसके दिए महीनो में नहीं निकलता।

अब हम आपको आर्य महीनो के नाम जो वैदिक पंचाग व्यवस्थानुसार सम्पूर्ण वैज्ञानिक रीति पर आधारित हैं उनसे परिचय करवाते हैं।

इन आर्य महीनो के नामो के शब्दार्थ समझने से पहले हमें कुछ ज्योतिष सिद्धांत समझ लेने चाहिए तभी इन महीनो का वैज्ञानिक आधार और नामो का शब्दार्थ पूर्ण रूप से समझ आएगा। पोस्ट बड़ी न हो इसलिए थोड़ा ही समझाया जा रहा है।

1. आर्य ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में ३६५-२४ दिन में घूमती है। यह अंडाकार मार्ग बारह भागो में विभाजित है और उन १२ भागो के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। इन १२ भागो नाम भी १२ राशियों के नाम से विख्यात हैं। इसी ज्योतिष गणना को यदि विस्तार से बतलाओ तो लेख बहुत लम्बा हो जाएगा इसके बारे में किसी अन्य पोस्ट पर विस्तार से बताया जाएगा।

जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में घूमती है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी पृथ्वी के चारो और एक अंडाकार वृत्त में २७ दिन ८ घंटे में घूम आता है। इसका मार्ग २७ भागो में विभाजित है और प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। २७ नक्षत्रो के नाम इस प्रकार हैं :

1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आर्द्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य ९. अश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वाफाल्गुनी 12. उत्तराफाल्गुनी 13. हस्त 14. चित्रा 15. स्वाती 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मुल 20. पुर्वाषाढा 21. उत्तरषाढा 22. श्रवण 23. धनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तरभाद्रपद 27. रेवती

आज पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र है इसका अभिप्राय है की आज चन्द्रमा पृथ्वी के चारो और के मार्ग के पूर्वाषाढ़ा नामक भाग में है।

हम पृथ्वी पर रहने वाले हैं पृथ्वी के साथ साथ घुमते हैं। इस कारण हमको पृथ्वी स्थिर प्रतीत होती है और सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों घुमते दिखते हैं।

जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी होती है तो चन्द्रमा का वह अर्थ भाग जिस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है पृथ्वी की और होता है। इसी कारण ऐसी अवस्था में चन्द्रमा सम्पूर्ण प्रकाशवान दीखता है अतः पूर्णमासी को जब चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशित होता है, चन्द्रमा और सूर्य पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।

आर्य महीनो के नाम नक्षत्रो के नाम पर रखे गए हैं। पूर्णमासी को जैसा नक्षत्र होता है उस महीने का नाम उसी नक्षत्र पर रखा गया है, क्योंकि पूर्णिमा को सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।*

महीनो के नाम नक्षत्रानुसार इस प्रकार हैं :

1. चैत्र – चित्रा

2. वैशाख – विशाखा

3. ज्येष्ठ – ज्येष्ठा

4. आषाढ़ – पूर्वाषाढ़

5. श्रावण – श्रवण

6. भाद्रपद – पूर्वाभाद्रपद

7. आश्विन – अश्विनी

8. कार्त्तिक – कृत्तिका

9. मार्गशिर – मृगशिरा

१० पौष – पुष्य

11. माघ – मघा

12. फाल्गुन – उत्तरा फाल्गुन

इसी आधार पर हमें अंतरिक्ष में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि सभी ग्रहो की चाल, और अभी वो किस जगह स्थित हैं ये पूर्ण जानकारी इसी विज्ञानं के आधार पर मिलती जाती है।

सर डब्ल्यू जोंस की यह भी सम्मति है की आर्यो के महीनो के नाम इत्यादि से पूरा पता लगता है की आर्य ज्योतिष अत्यंत पुरानी है। आर्यो में प्राचीन काल में वर्ष पौष मास से आरम्भ होता था जब दिन अत्यंत छोटा और रात अत्यंत बड़ी होती है। इसी कारण मार्गशिर मास का द्वितीय नाम अग्र्ह्न्य था, जिसका अर्थ यह है की वह महीना जो वर्ष आरम्भ होने से पहले हो।

मेरे सभी हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई भाइयो से निवेदन है की वो इस अंग्रेजी महीने जो देवता, महाराज ऋतु इत्यादि के नाम पर रखे गए हैं त्याग देवे और अपने पूर्ण विज्ञानी रीति से जो आर्य महीने हैं उनकी प्रतिष्ठा को जान लेवे।

प्राचीन आर्य पुरुष ज्योतिष में अवश्य विशेष ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उनके ज्ञान के टूटे फूटे चिन्ह ही आज तक आर्य समाज में पाये जाते हैं। क्या अच्छा हो यदि हम प्राचीन आर्य सभ्यता का मान करे और उसके बचे बचाये चिन्हो से नयी नयी खोज कर समाज के सामने रखे जिससे देश व धर्म का कल्याण हो।

ये केवल संक्षेप में बताया गया फिर भी इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी, लेकिन इसे नजरअंदाज न करे और वेद धर्म का प्रचार करे ताकि हमारे अन्य हिन्दू भाई ईसाइयो के अन्धविश्वास में न पड़े।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

* इसमें सूर्य सिद्धांत प्रमाण है :

भचक्रं भ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते।
नक्षत्र नाम्ना मासास्तु क्षेयाः पर्वान्त योगतः।

अर्थात दैनिक भचक्र का भ्रमण करना ही नाक्षत्रिक दिन है।

पूर्णिमानताधिष्ठित नक्षत्र के नाम से मास का नाम जानना चाहिए।

‘मन्दिरों की लूट तथा धार्मिक साहित्य नष्ट करने संबंधी इतिहास विषयक ऋषि उपदेश’:- मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द धर्म, वेद, मत-मतान्तर, सामजिक विज्ञान सहित भारत के इतिहास के भी गम्भीर व मर्मज्ञ विद्वान थे। उनके लम्बे उपदेश के दो भाग हम प्रस्तुत कर चुके हैं। इस लेख में उनसे आगे का उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। इनका महत्व इतना ही है कि हम सत्य को जाने और इतिहास में की गई अपने पूवजों की गलतियों का सुधार करें। यदि ऐसा नहीं करते तो इतिहास की पुनरावृत्ति होने का डर बना रहता है। ऐसा न हो कि हम पुनः गलतियां करें और हमें पूर्व की भांति हानि उठानी पड़े। पूर्व लेखों के क्रम में उनके बाद देश में घटी घटनाओं का यथार्थ वर्णन करने वाले उपदेश किंचित सम्पादन के साथ पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत हैं।

महर्षि दयानन्द अपने उपदेश में कहते हैं कि एक महमूद गजनवी इस देश में आया और बहुत सी सोने और चांदी की मूर्तियां लूट ली। बहुत पुजारी और पण्डित पकड़ लिये और रात को पिसान पिसावे और दिन में जाजरूर आदि को सफा करवाये। और जहां कोई पुस्तक पाया उसको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। ऐसे वह आर्यावर्त्त में बारह बार आया और उसने बहुत लूट मार एवं अत्यन्त अन्याय किया। उसने इस देश की बड़ी दुर्दशा की। यहां तक कि शिरच्छेदन बहुतों का कर दिया। विना अपराधों के स्त्री, कन्या और बालकों को भी पकड़ के दुःख दिया और बहुतों को मार डाला, ऐसा उसने बड़ा अन्याय किया।

 

सो जिस देश में ईश्वर की उपासना छोड़ कर काष्ठ, पाषाण, वृक्ष, घास, कुत्ते, गधे और मिट्टी आदि की पूजा की जाती हो वहां ऐसा ही फल होगा, उत्तम कहां से होगा। फिर चार ब्राह्मणों ने एक लोहे की पोली (खोखली) मूर्ति बनवाई और उसको गुप्त कहीं रख दिया। फिर चारों ने लोगों को कहा कि हम को महादेव ने स्वप्न दिया है कि हमारा आप लोग मन्दिर बनवायें तो कैलाश को छोड़ के आर्यावर्त्त देश में मैं निवास करूं और सबको दर्शन दूं। प्रचार द्वारा ऐसा सब देशों में प्रसिद्ध कर दिया। फिर मन्दिर सब लोगों ने मिल के बनवाया। उसमें नीचे ऊपर और चारों ओर भीत में चुम्बक पत्थर रक्खे। जब मन्दिर पूरा हुआ, तब सब देशों में प्रसिद्ध कर दिया कि उस दिन मध्य रात्रि में कैलाश से महादेव मन्दिर में आवेंगे जो दर्शन करेगा उसका बड़ा भाग्य और मरने के पीछे वह कैलाश को चला जायगा। फिर उस समय में राजा, बाबू, स्त्री, पुरुष और लड़के बालायें उस स्थान में जुटे। उन चारों धूर्त्तों ने मूर्ति मन्दिर में कहीं गुप्त रख दी थी और मेला में ऐसा प्रसिद्ध कर दिया कि महादेव देव हैं सो भूमि को पग से स्पर्श न करेंगे, किन्तु आकाश में ही खड़े रहेंगे। ऐसा हमको स्वप्न में कहा है सो जब उस दिन पहर रात्रि गई तब सब को मन्दिर के बाहर निकाल दिए और किवाड़ बन्द करके वह चारों ब्राह्मण भीतर रहे। फिर उस मूर्ति को उठाके मन्दिर में ले गए और बीच में चुम्बक पाषाण के आकर्षणों से अधर आकाश में वह मूत्र्ति खड़ी रही और उन्होंने खूब मन्दिर में दीप जोड़ दिए फिर घण्टा, झल्लरी, शंख, रणसिंघा और नगारा बजाए। तब तो मेले में बड़ा उत्साह हुआ और उन्होंने दरवाजे खोल दिए। फिर मनुष्यों के ऊपर मनुष्य गिरे और मूर्ति को आकाश में अधर खड़ी देख के बड़े आश्चर्य युक्त हुए और लाखों रुपयों की पूजा चढ़़ी। अनेक पदार्थ पूजा में आए। फिर वे चारों धूर्त ब्राह्मण बड़े मस्त हो गए और महन्त हो गए। फिर नित्य मेला होने लगा और वहां करोडों रुपयों का माल इकट्ठा हो गया। सो वह मन्दिर द्वारका के पास प्रभा क्षेत्र स्थान में था और उस मूर्ति का नाम सोमनाथ रक्खा था। फिर महमूद गजनवी ने सुना कि उस मन्दिर में बड़ा माल है। ऐसा सुनके अपने देश से सेना लेके चढ़ा। सो जब पंजाब में आया, तब हल्ला हो गया और सोमनाथ की ओर चला तब लोगों ने जाना कि सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ेगा और लूटेगा। ऐसा सुन के बहुत से राजा, पण्डित और पुजारी सेना ले-ले के सोमनाथ की रक्षा हेतु इकट्ठे हुए। सोमनाथ के पास जब वह डेढ़ सौ दो सौ कोस दूर रहा, तब पण्डितों से राजाओं ने पूछा कि मुहूर्त देखना चाहिए। हम लोग आगे जाके उनसे लड़े। फिर पण्डित लोगों ने इकट्ठे होके मुहूर्त देखा, परन्तु मुहूर्त बना नहीं। फिर नित्य मुहूर्त ही देखते रहे, परन्तु कोई दिन चन्द्र, कोई दिन और ग्रह नहीं बने, कोई दिन दिक् शूल सन्मुख आया, कोई दिन योगिनी और कोई दिन काल नहीं बना। सो पण्डितों की बुद्धि को कालादिकों के भ्रमों ने खा लिया और राजा लोग विना पण्डितों की आज्ञा से कुछ करते नहीं थे। सो प्रायः पण्डित और राजा लोग मूर्ख ही थे। जो मूर्ख न होते तो पाषाणादि मूर्ति क्यों पूजते और मुहूर्तादिकों के भ्रमों से नष्ट क्यों होते? ऐसे विचार वह करते ही रहे, उस महमूद की सेना दूसरी मंजिल पर पहुंची, तब राजा लोगों ने पण्डितों से कहा कि अब तो जल्दी मुहूर्त देखों। तब पण्डितों ने कहा कि आज मुहूर्त अच्छा नहीं है। जो यात्रा करोगे तो तुम्हारा पराजय ही हो जायगा। तब वे ब्राह्मणों से डर के बैठे रहे। तब महमूद गजनवी धीरे-धीरे पांच छः कोश के ऊपर आकर ठहरा और दूतों से सब खबर मंगवाई कि वह क्या करते हैं? दूतों ने कहा कि वह आपस में मुहूर्त विचारा करते हैं। महमूद गजनवी के पास 30 हजार पुरुषों की सेना थी, अधिक नहीं और उनके पास दो, तीन लाख फौज थी। फिर उसके दूसरे दिन प्रातःकाल राजा पण्डित पुजारी मिल के मुहूर्त विचारने लगे। सो सब पण्डितों ने कहा कि आज का चन्द्रमा अच्छा नहीं और भी ग्रह क्रूर हैं। पुजारी लोग और पण्डित मूर्ति के आगे जा के गिर पड़े और अत्यन्त रोदन किया कि हे महाराज ! इस दुष्ट (काल-मुहूर्त) को खा लो और अपने सेवकों का सहाय करो। परन्तु वह लोहा क्या कर सकता है। और सब से कहने लगे कि आप लोग कुछ चिन्ता मत करो महादेव उस दुष्ट को ऐसे ही मार डालेंगे वा वह महादेव के भय से वहां से ही भाग जायेगा, उसका क्या सामर्थ्य है कि साक्षात् महादेव के पास आ सके और सन्मुख दृष्टि कर सके। ऐसे सब परस्पर बक(वास कर) रहे थे। फिर कुछ लड़ाई हुई और मुसलमान भी डरे कि विजय होगा वा पराजय? उस समय में (हमारे पण्डित) पुस्तक फैला-फैला के बहुत से मन्त्रों का जप और पाठ करते थे और कहते थे कि अब हमारा देवता और मन्त्र पाठ सिद्ध होता है सो वह वहां ही अन्धा हो जायगा। सो बड़ी मण्डली की मण्डली जप, पाठ और पूजा कर रही थी और मूर्ति के सामने औंधे गिर के पुकारते थे। एक सभा लग रही थी जिसमें राजा और पण्डित मुहूर्त को विचारते थे।

 

उस समय में उसके निकट एक पर्वत था और महमूद गजनवी ने एक तोप लगा दी और सभा के बीच में गोला मारा। उस समय कोई दन्तधावन करता था, कोई सोता था और कोई स्नान करता था, इत्यादि व्यवहारों से निश्चिन्त थे। सो उस गोले से सब पण्डित लोग पोथी पत्रा छोड़ के भागे और राजा लोग भी भाग उठे तथा सेना भी अपने-अपने स्थानों से भाग उठी और वह महमूद गजनवी सेना सहित धावा करके उस स्थान पर झट पहुंचा। उसको देख के सब भाग उठे। भागे हुए पण्डित, पुजारी, सिपाही तथा राजाओं को उसने पकड़ लिया और बांध लिया और उनके ऊपर बहुत-सी मार पड़ी तथा किसी को मार भी डाला और बहुत से भाग गए क्योंकि उन पण्डितों के उपदेश से वह सोलह पहर के बैठे थे और कथा सुनी थी कि मुसलमानों का स्पर्श नहीं करना और उनके दर्शन से धर्म जाता है,? ऐसी मिथ्या बातें सुनने के कारण भाग उठे। फिर मन्दिर के चारों ओर महमूद गजनवी की सेना हो गई और महमूद आप मन्दिर के पास पहुंचा, तब मन्दिर के महन्त और पुजारी हाथ जोड़ के खड़े हुए। महमूद को पुजारियों ने कहा कि आप जितना चाहें उतना धन ले लीजिए परन्तु मन्दिर और मूर्ति को न तोडि़ए, क्योंकि इससे हम लोगों की बड़ी आजीविका है। ऐसा सुनके महमूद गजनवी बोला कि हम बुत पूजने वाले नहीं किन्तु उनको तोड़ने वाले हैं। तब तो वे डरे और कहा कि एक करोड़ रुपया आप ले लीजिए परन्तु इसको मत तोडि़ए। ऐसे कहते सुनते तीन करोड़ तक कहा, परन्तु महमूद गजनवी ने नहीं माना और उनकी मुसक चढ़ा ली फिर उनको लेके मन्दिर में गया और उनसे पूछा कि खजाना कहां है सो कुछ तो उन्होंने बतला दिया।  फिर भी उसको लोभ आया कि और भी कुछ होगा। फिर उनको मारा पीटा तब उन्होंने सब खजाना बतला दिया। फिर मन्दिर में आके सब लीला देखी। फिर महन्त और पुजारियों से कहा कि तुमने दुनिया को ऐसी धूर्तता कर के ठग लिया क्योंकि लोहे की तो मूर्ति बनाई है। इसके चारों ओर चुम्बक पाषाण रखने से आकाश में यह मूर्ति अधर में खड़ी है। फिर उस मन्दिर का शिखर उन्होने तोड़वा दिया। जब वह चुम्बक पाषाण अलग हो गया, तब मूर्ति जमीन में चुम्बक-पाषाण में लग गई। फिर सब भीतें तोड़वा डाली। सब चुम्बकों के निकलने से मूर्ति जमीन में गिर पड़ी। फिर महमूद गजनवी ने अपने हाथ से लोहे के घन को पकड़ के उस मूर्ति के पेट में मारा। उससे मूर्ति फट गई। उससे बहुत जवाहिरात निकला क्योंकि हीरा आदि अच्छे-अच्छे रत्न वे पण्डित पाते थे, तब मूर्ति में ही रख देते थे। फिर महमूद ने उन महंत और पुजारियों को खूब तंग किया और फुसलाया भी। फिर उन्होंने भय से बतला दिया, जो कुछ था उसने सब ले लिया। सो अठारह करोड़ का माल उस मन्दिर से उसने पाया। फिर बहुत सी गाड़ी, ऊंट और मजूर उसके पास थे और भी वहां से पकड़ लिए। उनके ऊपर सब माल को लाद के अपने देश की ओर चला। सो थोड़े से थोड़े पण्डित, महंत और पुजारी तथा क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र तथा स्त्री, बालक दश हजार तक पकड़ के संग में ले लिए थे। उनका यज्ञोपवीत तोड़ डाला, मुख में थूक दिया और थोड़े-थोड़े सूखे चने नित्य खाने को देता था और जाजरूर सफा करवावे, पिसवावे, घास छिलवावे और घोड़ों की लीद उठवावे और मुसलमानों के जूठें बरतन मजवावे और सब प्रकार की नीच सेवा उनसे ली। ऐसे कराता-कराता जब मक्का के पास पहुंचा, तब अन्य मुसलमानों ने कहा कि इन काफरों का यहां रखना उचित नहीं। फिर उनको बुरी दशा से मार डाला ( …… इत्यादि)। ऐसे ही बारह दफे वह आया है और दो तीन बार मथुरा की भी दुर्दशा ऐसी ही की थी। और जहां-जहां वह गया था, वहां-वहां ऐसी ही दुर्दशा उस देश की की थी और डाकू की नांई वह आता था, मार के जो कुछ पाता था, सो अपने देश में ले जाता था। उस दिन से मुसलमान लोग दरिद्र से धनाढ्य हो गए हैं। सो आर्यावर्त्त के प्रताप से आज तक भी धन चला आता है और आर्यावर्त्त देश अपने ही दोषों से नष्ट होता जाता है।

 

इसलिये हमको बड़ा दुःख है कि ऐसा जो देश और इस प्रकार का धन जिस देश में है सो देश बाल्यावस्था में विवाह, विद्या का त्याग, मूत्र्ति पूजनादि पाखण्डों की प्रवृत्ति, नाना प्रकार के मिथ्या मजहबों का प्रचार, विषयासक्त और वेद विद्या का लोप, जब तक यह दोष रहेंगे, तब तक आर्यावर्त्त देशवालों की अधिक अधिक दुर्दशा ही होगी और जो सत्य विद्याभ्यास तथा सुनियम, धर्म और एक परमेश्वर की उपासना इत्यादि गुणों को ग्रहण करें तो सब दुःख नष्ट हो जायं और अत्यन्त आनन्द में रहें।

 

महर्षि दयानन्द ने आर्यावर्त्त में मूर्तिपूजा के प्रचलन का यह वृतान्त अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण में सन् 1874 में प्रस्तुत किया है। सारा देश जिसमें सभी मूर्ति पूजक बन्धु भी शामिल है, इन तथ्यों को यथावत् नहीं जानते। सत्य को जानना व मानना तथा असत्य को छोड़ना व दूसरों से छुड़वाना ही मनुष्य जीवन का एक उद्देश्य है। इसी उद्देश्य से सत्यार्थ के प्रकाश के लिए महर्षि दयानन्द का यह उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि पाठक इतिहास की इस इन भूलीबिसरी घटनाओं को जानकर इनसे शिक्षा ग्रहण करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

हीगल एवं कार्ल्स मार्क्स मूल तत्व से दूर थे |

कहा जाता है कि कार्ल मार्क्स ने अपने दर्शन की प्रेरणा हीगल से ली। हीगल जडवादी न था,परन्तु उसकी युक्ति सरणी वही थी जिसको कार्ल मार्क्स ने अपनाया।कार्ल मार्क्स का दावा है कि उसने हीगल के त्रुटिपूर्ण सिद्धांत को युक्ति संगत कर दिया। हीगल सृष्टि मे तीन वस्तुओं को देखता है -वृत्ति,वृत्ति निग्रह वृत्ति समन्वय। अपनी laider s social economics moments infra p.123 मे लिखता है कि – ” hegal s dialectic method conceived that change took place through the struggle of antagonistic elements, and the resolution of these contradictory elements into synthesis, the first two elements forming  new concept by virtue of their union…
the thing on being against which the contradiction operated be called the positive ,the antaginisite or thesis was the negation. to hegal the contradiction ,antithesis or nagation was the ‘source of all movent and life ,only in so far as it contains a contradiction can anything have movement ,power and effect ,” A continued operation of the negation led to the negation of negation or synthesis.. ” इस सृष्टि मे एक घटना होती है।फिर उस घटना का विरोध होता है। इससे प्रगति ओर जीवन बनता है।उस विरोध का फिर विरोध होता है।इस प्रकार जीवन समन्वित होता है। अर्थात् सृष्टि के मूल तत्वों को हीगल ने गति,विरोध,ओर समन्वय से परिणत करके विरोध ओर समन्वय से परिणित कर विरोध को मुख्य ठहराया। इसी सिद्धांत को मार्क्स ने सीधा खडा कर दिया। मार्क्स का कहना था कि हीगल के सिद्धांत मे जो वक्रता थी उसे उसने ऋजु कर दिया।परन्तु वास्तविक बात यह है कि न हीगल ने मूल तत्वों की खोज की न मार्क्स ने।ऊपरी घटना पर दृष्टि पाात करने पर मूल तत्व का पता नही चलता है।जिसको तुम ‘विरोधिनी प्रवृत्तियाँ ‘कहतेहो वे पूरक है विरोधी नही।इसका निश्चय तो प्रयोजन पर दृष्टि रखने से हो सकता है।वैज्ञानिक लोग मानते हैं किबीज सडकर ही वृक्ष का निर्माण कर सकता है,इसलिए सडना मूलतत्त्व है।यह है मूल ।”जिस को तुम सडना कहते हो या विनाश कहते हो वह वस्तुत विनाश नही अपितु मूल अंकुर के ऊपर के खोल उतरना है जिससे अंकुरमे स्वतंत्रता से कार्य करने का अवसर मिल जाय। यदि बीज को बोने से बीज का विनाश ही अभिप्रेत होता तो बीज को भुन डालने से भी वृक्ष की उत्पत्ति हो सकती।
जिसको आप सृष्टिक्रम का विरोध कहते है वह वस्तुत विरोधाभास है | विरोध के इस सिद्धांत में कोमुनिस्ट को विरोधप्रिय बना दिया | यह विरोधप्रियता कम्यूनिस्टो के हर काम में पायी जाती है | वह जितना बिगाड़ते है उतना बनाते नही है | क्रान्ति या विरोध उनके समस्त आन्दोलन का मूल है | यह वेद के सर्वथा विरुद्ध है | वेद का अनुयायी सृष्टि पर दृष्टि डालकर ओर हर वस्तु में प्रयोजन बतलाकर ओर समता देख ईश्वर से प्रार्थना करता है –
सा मा शान्तिरेधि -यजु ३६/१७ 
है ईश्वर ,वही शान्ति मुझे प्रदान कर |
-गंगा प्रसाद उपाध्याय (गंगा ज्ञान धारा से)

नारी जाति के उन्नायक महर्षि दयानन्द – डॉ. जगदेवसिंह विद्यालंकार

महाभारत काल से पूर्व हमारा देश भारतवर्ष शिक्षा, संस्कृति और सयता की दृष्टि से पूर्ण विकसित था। भारतीय संस्कृति और सयता विश्व की प्राचीनतम और सर्वोन्नत सयता-संस्कृति मानी जाती है। इसीलिए समस्त विश्व इस देश को जगद्गुरु मानता था। मनुमहाराज ने भी घोषणा की थी-

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

– मनु. (2.20)

उस समय नारी की दशा भी समानित, प्रतिष्ठित ओर स्पृहणीय थी। लगभग पच्चीस मन्त्र द्रष्ट्री ऋषिकाओं का वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है। गार्गी, मैत्रेयी, सीता, अनसूया, सावित्री और मदालसा आदि प्रमुख उदाहरण नारी की उन्नत अवस्था के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

महाभारत काल से इस देश का सर्वाङ्गीण पतन प्रारभ हो गया था और उसके साथ ही नारी की दशा भी उत्तरोत्तर निम्न होती चली गयी। हमारी पौराणिक संकीर्ण विचारधारा ने इस पतन को और अधिक गतिशील कर दिया। वेदों और उपनिषदों के उद्भट विद्वान् स्वामी शंकराचार्य ने वेदोद्धार के बहुत प्रशंसनीय कार्य किये। परन्तु नारी के महत्व को उन्होंने भी नहीं समझा और उसे ‘नरक का द्वार’ जैसा निन्दनीय विशेषण दे डाला। इतना ही नहीं ‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्’ कहकर नारी को धार्मिक शिक्षा के अधिकार से भी वंचित कर दिया । इसी परपरा में उत्तर मध्यकाल में आकर सन्त तुलसीदास ने – ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ कहकर नारी के समान को बहुत बड़ा आघात पहुँचाया। इन सबका परिणाम यह निकला कि सामान्य समाज में नारी को पैर की जूती समझा जाने लगा।

जिस समय इस भारत भू पर महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ उस समय नारी की अवस्था अत्यन्त दयनीय एवं शोचनीय थी। उन्होंने यह भलिभाँति अनुभव कर लिया था कि स्त्री का उत्थान हुए बिना समाज अथवा राष्ट्र का उद्धार सभव नहीं, क्योंकि स्त्री भी पुरुष की भाँति समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है महर्षि दयानन्द पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने नारी-उत्थान की क्रान्ति को जन्म दिया। महर्षि ने नारी के  उद्धार के लिए अनेक प्रयत्न किए जो यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है-

स्त्री-शिक्षाः- स्वामी दयानन्द ने इस रहस्य को उद्घाटित किया कि शिक्षा के बिना व्यक्ति अधूरा है। नारी भी जब तक शिक्षित नहीं होगी तब तक जागरुक नहीं हो सकती, वह अपने अस्तित्व को, अपने महत्त्व को नहीं समझ सकती। अतः वेदों की विद्या जो ताले में बन्द थी देव दयानन्द ने उसकी कुञ्जी न केवल पुरुषों के लिए अपितु स्त्रियों के लिए भी सुलभ कराते हुए वेद का प्रमाण प्रस्तुत किया-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेयः।

ब्रह्म राजन्यायां शूद्राय, चार्याय च स्वाय चारणायच।।

– यजुः अ. 26-2

अर्थात् परमात्मा ने वेदों का प्रकाश मानव मात्र के लिए किया है। स्वामी जी ने सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता सिद्ध करते हुए सत्यार्थ-प्रकाश के तृतीय-समुल्लास में लिखा है- ‘‘इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवे अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रख सके पाठशाला में अवश्य भेज देवे, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’’ स्त्रियों को सभी प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता पर बल देते हुए वे आगे लिखते हैं- ‘‘जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और अपने व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिए, वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिए।’’ स्वामी जी के उक्त कथन में उनकी इस भावना की अभिव्यक्ति है कि गृह-सबन्धी आय-व्यय क लिए गणित, सन्तान को सयक्  आचरण सिखाने के लिए धर्म, गृह के सभी प्राणियों के लिए पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक भोजन-पान तथा रोगी के पथ्यापथ्य के हेतु वैद्यक, गृह-निर्माण तथा अन्य वस्त्र भूषणादि सबन्धी आवश्यकताओं के लिए शिल्प व कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक नारी के लिए उचित है।

स्त्री और धर्म :- महर्षि दयानन्द धर्म के संबंध में भी स्त्रियों को पुरुषों के समान ही धर्म-ग्रन्थों के पठन-पाठन, धार्मिक क्रियाओं के सपादन और गायत्री मन्त्र जाप आदि तथा अग्निहोत्रादि की अधिकारिणी मानते थे। महर्षि के वैदिक सिद्धान्त के अनुसार कोई भी धार्मिक-अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता । ‘इमं मन्त्रं पत्नी पठेत’ आदि श्रौतसूत्र में वर्णित यह वाक्य इसमें स्पष्ट प्रमाण हैं। वे नारी के धार्मिक कार्यों में पुरुषों की सहभागिनी होने के प्रबल समर्थक अवश्य थे किन्तु धार्मिक कार्यों की आड़ में गृहस्थ धर्म की उपेक्षा उन्हें अग्राह्म थी। दोनों प्रकार के कर्त्तव्यों के मध्य एक सामञ्जस्य सेतु आवश्यक है। स्वामी जी की प्रेरणा के कारण ही आज आर्य समाज साधारण प्रशिक्षण के बाद महिलाओं को भी पौरोहित्य की अनुमति देता है। वैदिक परपरा में स्त्रियों को ब्रह्मा पद पर आसीन करने का उल्लेख भी मिलता है।

स्त्री और गृहस्थ धर्मःमहर्षि दयानन्द गृहाश्रम को विषयभोगों की पूर्ति का केन्द्र न मानकर जीवन के समस्त कर्त्तव्यों, लोकमंगल और पवित्रता का एक माध्यम मानते थे। उनकी ‘संस्कार विधि’ नामक पुस्तक के विवाह प्रकरण में उद्धृत मन्त्र दापत्य जीवन के उदान्त उद्देश्य और मर्यादा का परिचायक है-

समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा संघाता समु देष्ट्री दधातु नौ।

– ऋग्वेद 20-85-47

अर्थात् दपति इस शुभ संकल्प के साथ वैवाहिक जीवन में प्रवेश करते हैं कि उन दोनों का प्रत्येक शुभ कार्य में विचारों का पूर्ण सामञ्जस्य इस प्रकार होगा जैसे दो पात्रों का जल एक पात्र में मिलकर एकरूप हो जाता है।

पुनर्विवाहः विधवाओं की दीनदशा देखकर ऋषि का हृदय रो उठा था। बाल-विवाह की कुप्रथा के कारण छोटी-छोटी कन्याएँ सारा जीवन वैधव्य से अभिशप्त होकर नरक भोगने के लिए बाध्य थीं। ऋषि ने पुनर्विवाह की अनुमति देते हुए उपदेश मञ्जरी के बारहवें व्यायान में बलपूर्वक यह कहा था- ‘‘ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष बराबर हैं, क्योंकि वह न्यायकारी है उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरुषों को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जावे तो स्त्रियों को दूसरे विवाह से क्यों रोका जावे।’’ महर्षि की इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर आर्य समाज ने विधवा विवाह को समाज में प्रतिष्ठित कर दिया।

पर्दा-प्रथा का विरोधः- इस कुरीति के उच्छेद के लिए महर्षि दयानन्द के समकालीन राजा राज मोहन राय भी बंगाल में प्रयत्नशील थे। परन्तु उन दोनों के  प्रयासों में पूर्व और पश्चिम का अन्तर था। राजा राममोहन राय पाश्चात्य सयता में रंगे थे और स्वामी दयानन्द के प्रयत्न भारतीय संस्कृति की सुदीर्घ परपरा के परिप्रेक्ष्य में किये जा रहे थे। अतः महर्षि दयानन्द पर्दा-प्रथा का विरोध और महिलाओं की पूर्ण स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए भी उनकी स्वेच्छाचारिता और उच्छ्रंखलता को स्वीकार नहीं करते थे।

सती-प्रथा का विरोधः- स्वामी दयानन्द के आगमन के समय समाज के कई वर्गों में पति की मृत्यु होने पर जीवित पत्नी को पति की चिता में जला दिया जाता था। इस जघन्य, नृशंस और अमानवीय प्रथा का महर्षि ने प्रबल विरोध किया। उनके इस सुधार कार्य से प्रेरित होकर अंग्रेज सरकार ने भी इस कुप्रथा को मिटाने का प्रयास किया।

वेश्यावृत्ति का विरोधःभारतीय समाज के मस्तक पर लगे वेश्यावृत्ति के कलंक ने स्वामी दयानन्द का हृदय झकझोर दिया था। अशिक्षा, निर्धनता, वैघव्य और सामाजिक अत्याचारों से पीड़ित होकर अनचाहे अनेक नारियों को पेट पालने के लिए यह घृणित व्यवसाय अपनाने को विवश होना पड़ता है। स्वामी दयानन्द वेश्यावृत्ति को प्रश्रय देने वाले विलासी पुरुषों को इसका उत्तरदायी मानते थे। भारत के माथे से इस कलंक को मिटाने का उन्होंने बहुत प्रयास किया। फर्रूखाबाद निवासी सेठ दीनानाथ के कुपथगामी युवा पुत्र ने स्वामी जी के उपदेश से प्रभावित होकर वेश्यागमन छोड़ दिया था। नन्हींजान नामक वेश्या के चंगुल में फंसे महाराजा जोधपुर को महर्षि ने जो कड़ी फटकार दी थी, वह तो उनकी प्रमुख वेश्यावृत्ति विरोधी घटना है। भले ही यह घटना ऋषि के प्राणान्त का कारण बनी हो, परन्तु उन्होनें कभी किसी बुराई से समझौता नहीं किया।

वर्तमान संदर्भ में नारीःस्वामी दयानन्द ने नारी जागरण के लिए जिस वैचारिक एवं सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, ऋषि के उस मिशन को आगे बढ़ाते हुए आर्य समाज ने अनेक कन्या विद्यालयों एव कन्या गुरुकुलों की स्थापना की। आज तो उसके सुन्दर परिणाम हमारे समुख हैं। शिक्षा के क्षेत्र में आज नारी पुरुष से पीछे नहीं है बल्कि पिछले दशक से तो ऐसा लगने  लगा है कि नारी इस प्रतिस्पर्धा में पुरुष से आगे निकलने लगी है। परन्तु खेद की बात यह है कि महर्षि दयानन्द के मस्तिष्क में जिस शिक्षा का कार्यक्रम था वह लुप्त होता जा रहा है।

अतः समाज का यह दायित्व है कि उचित शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए वह कटिबद्ध हो। धर्म के क्षेत्र में आज की नारी के विचार सुलझे हुए नहीं है। साक्षर होते हुए भी नारी धार्मिक आडबरों की शिकार अधिक है। आवश्यकता है धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने और तदनुरूप आचरण करने की ताकि घोर सांसारिकता के तनावपूर्ण क्षणों से मुक्ति पाई जा सके।

स्वामी दयानन्द द्वारा प्रदत्त नारी जागृति का यह अभियान तभी सार्थक होगा जबकि स्वयं नारी बालक की प्रथम शिक्षिका बनने से लेकर सामाजिक चेतना को उचित दिशा देने का गुरुतर दायित्व वहन करे।

नारी विषयक उक्त समस्त समस्याओं के मूल में अशिक्षा अथवा उचित शिक्षा का अभाव ही मुय कारण रहा है। अभी नारी की स्थिति में परिवर्तन का संघर्ष काल चल रहा है और समय की परिवर्तनशील गति के साथ समस्याएँ भी बदलती रही है। अब समय आ गया है कि समाज की जागरूक संस्थाओं के विद्वान् और चिन्तक आज की नारी समस्याओं को पहचान कर तद्विषयक उचित समाधानों के सुझाव और प्रसार का प्रयत्न करें। स्वामी दयानन्द के नारी सबन्धी क्रान्तिकारी कार्यक्रम आधुनिक प्रगतिशील संस्कृति में और भी अधिक प्रासंगिक सिद्ध हो रहे हैं। इसलिए हम निर्विवाद रूप से यह घोषणा कर सकते हैं कि वर्तमान युग की नारी – उत्थान क्रान्ति के सर्वाधिक सक्रिय उन्नायक महर्षि दयानन्द ही थे । परवर्ती सभी सुधारकों ने उन्हीं के कार्यक्रम का अनुगमन किया है।

– पूर्व आचार्य, पं. नेकी राम शर्मा राजकीय महाविद्यालय, रोहतक, हरियाणा