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अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः शङ्खः । देवता पितरः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

येऽअग्निष्वात्ता येऽअनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। तेभ्यः स्वराडसुनीतिमेतां यथावृशं तन्वं कल्पयाति ॥

-यजु० १९६० |

( ये ) जो ( अग्निष्वात्ताः ) अग्निविद्या को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए और (अनग्निष्वात्ताः ) अग्नि-भिन्न ज्ञानकाण्ड को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए पितृजन ( दिवः मध्ये ) ज्ञान-प्रकाश के मध्य में ( स्वधया ) स्वकीय धारणविद्या से (मादयन्ते) सबको आनन्दित करते हैं ( तेभ्यः ) उनके लिए ( स्वराड्) स्वराट् परमात्मा ( एताम् असुनीतिं तन्वं ) इस प्राणक्रिया प्राप्त शरीर को ( यथावशं ) इनकी इच्छानुसार ( कल्पयाति ) समर्थ बनाये अर्थात् स्वस्थ और दीर्घायु करे।

उवट और महीधर ने अग्निष्वात्त तथा अनग्निष्वात्त मृत पितर माने हैं, जो स्वर्गलोक में रहते हैं। उनके अनुसार अग्निष्वात्त वे पितर हैं, जिनका अग्नि स्वाद ले चुका है, अर्थात् जिनका अन्त्येष्टि-कर्म हो चुका है और अनग्निष्वात्त पितर वे हैं, जिनका किसी कारण अन्त्येष्टि द्वारा अग्निदाह नहीं हुआ है, जैसे, जो जल में डूब कर मरे हैं या सिंह-व्याघ्र आदि ने जिन्हें खा लिया है, अथवा जो भूकम्प आदि दुर्घटना में दबे कर मर गये हैं। स्वामी दयानन्द इन्हें जीवित पितर ही मानते हैं। उनके मत में अग्निविद्या को जिन्होंने सम्यक्प्रकार गृहीत किया है, वे अग्निष्वात्त हैं । ये अग्नि परमेश्वराग्नि, यज्ञाग्नि, शिल्पाग्नि, विद्युरूप अग्नि, सूर्यरूप अग्नि सभी हो सकते हैं, अर्थात् अग्निष्वात्त पितर अग्निविद्या के पण्डित हैं। इसमें कर्मकाण्ड भी सम्मिलित है। अग्निभिन्न विद्या वा विद्याओं को जिन्होंने ग्रहण किया है, वे अनग्निष्वात्त पितर हैं। ये अग्निभिन्न विद्याएँ योगविद्या, आयुर्वेदविद्या भूगर्भविद्या, खगोलविद्या आदि अनेक हो सकती हैं। ये अग्निष्वात्त और अनग्निष्वात्त पितर हमारे पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामह, प्रमातामह, आचार्य तथा अन्य पूज्य विद्वज्जन होते हैं। ये हमारे पितर द्यौ’ के मध्य में अर्थात् ज्ञानप्रकाश में विचरते हैं। किन्हीं को अग्निविद्या का प्रकाश प्राप्त है, किन्हीं को अग्निभिन्न विद्याओं का प्रकाश उपलब्ध है। जैसे हम सूर्य के प्रकाश में विचरते हैं, ऐसे ये ज्ञान के प्रकाश में विचरते हैं। इनके अन्दर ‘स्वधा’ होती है, स्वयं को धारण करने की शक्ति विद्यमान रहती है। ये विघ्नों, आपदाओं, प्रतिकूलताओं से विचलित न होकर स्थिर और स्थितप्रज्ञ रहते हैं। इस स्वधा-शक्ति से ये स्वयं को तो आनन्दित करते ही हैं, अपने सम्पर्क में आनेवाले अन्य जनों को भी आनन्दलाभ कराते हैं। इन पितरों के लिए स्वराट् परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि वह प्राणव्यापार से युक्त इनके शरीर को इनकी इच्छा के अनुसार समर्थ बनाये, स्वस्थ और दीर्घायु करे, जिससे ये चिरकाल तक अपनी विद्याओं द्वारा मानवों का हित-सम्पादन करते रहें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ये अग्निष्वात्ता: ये पितर: अग्निष्वात्ता अग्निना आस्वादिताः, ये चअनग्निष्वात्ताः श्मशानकर्म अप्राप्ताः-उवटः ।।

२. (अग्निष्वात्ताः) अग्निः परमेश्वरो ऽ भ्युदयाय सुष्टुतया आत्तो गृहीतयैस्ते ऽग्निष्वात्ताः। तथा होमकरणार्थं शिल्पविद्यासिद्धये चभौतिकोऽग्निरोत्तो गृहीतो यैस्ते । ऋ०भा०भू०, पितृयज्ञविषयः ।। ।

३. (ये अग्निष्वात्ताः) ये अग्निविद्यायुक्ताः, (अनग्निष्वात्ता:) वायुजलभूगर्भविद्यादिनिष्ठा:-वही।

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार 

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता गणपतिः । छन्दः शक्वरी।

गुणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिइहवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम। आहर्बजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥

-यजु० २३.१९

हे आचार्य ! हम ( गणानां गणपतिं त्वा) विद्यार्थी-गणों के गणपति आपको (हवामहे) पुकारते हैं।(प्रियाणां प्रियपतिं त्वा) प्रिय शिष्यों के प्रियपति आपको (हवामहे ) पुकारते हैं। (निधीनां निधिपतिं त्वा ) विद्यारूप निधियों के निधिपति आपको ( हवामहे ) पुकारते हैं। अब पिता ब्रह्मचारी को कहता है-( मम वसो) हे मेरे धन ब्रह्मचारी ! ( अहं) मैं (गर्भधं ) ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करनेवाले आचार्य के पास ( आ अजानि ) तुझे लाता हूँ। ( त्वं ) तू ( आ अजासि ) आ जा ( गर्भधं) गर्भ में धारण करनेवाले आचार्य के पास।

जब विद्यार्थी गुरुकुल में प्रविष्ट होता है और ब्रह्मचारी होकर आचार्याधीन निवास करता है, तब आचार्य उसे अपने गर्भ में धारण करता है। अनेक विद्यार्थी उसके गर्भ में निवास करते हैं, अतः वह विद्यार्थी-गणों का गणपति होता है। उसके आचार्यत्व में सहस्र विद्यार्थी भी हो सकते हैं। वह अपने प्रिय शिष्यों का प्रियपति होता है। वह शिष्यों के प्रति प्रीति रखता है और शिष्य उसके प्रति प्रीति रखते हैं। प्रिय शैली से ही वह शिष्यों को पढ़ाता तथा सदाचार की शिक्षा देता है, जिससे उन्हें हस्तामलकवत् विषय का बोध हो सके। वह विद्यानिधियों का निधिपति होता है, अनेक विद्याओं के खजाने उसके अन्दर भरे होते हैं। चारों वेदों और उपवेदों की निधियाँ, शिक्षा कल्प-व्याकरण-निरुक्त-छन्द-ज्योतिष रूप षड्वेदाङ्गों की  निधियाँ, दर्शन-शास्त्रों की निधियाँ, भौतिक विज्ञान की निधियाँ, अपरा और परा विद्या की निधियाँ लबालब भरी हुई उसके पास होती हैं। आचार्य के सहायक गुरुजन किन्हीं विशेष विद्या-निधियों के निधिपति होते हैं। कोई अग्नि, विद्युत्, सूर्य और नक्षत्रों के विज्ञान का अधिपति है, कोई राजनीति और युद्धनीति का अधिपति है, कोई कृषि-व्यापार-पशुपालन विद्या का निधिपति है। ब्रह्मचारीगण इन आचार्यों और गुरुजनों को आदर और प्रेम से पुकारते हैं। गुरुकुल में प्रवेश कराते समय विद्यार्थी का पिता उसे कहता है-हे मेरे धन ! हे मेरे पुत्र ! मैं विद्यार्थी को गर्भ में धारण करनेवाले, उसके साथ अत्यन्त निकट सम्पर्क रखनेवाले आचार्य के पास तुझे लाया हूँ। तू इस आचार्य के गर्भ में वास कर। यह तेरे अज्ञान को मार कर तुझे विद्वान् बनायेगा, तुझे नया जन्म देगा, तुझे द्विज बनायेगा और तदनन्तर तेरा समावर्तन संस्कार करके तुझे राष्ट्र की सेवा के लिए गुरुकुल से विदा करेगा। तू इसकी शरण में निवास कर, तू इससे विद्या की निधि ग्रहण कर। तू भी निधिपति बनकर बाहर निकल और अपनी निधियों को बाँट।

पाद टिप्पणियां १. गर्भे दधातीति गर्भधः तम् ।

२. आ-अज गतिक्षेपणयोः, लोट् ।

३. आ-अज गतिक्षेपणयो:, लेट् । ‘लेटोऽडाटौ’ पा० ३.४.९४ से आट्का आगम।।

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार 

वेदमंत्र हमारे फटे हृदयों को सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार

वेदमंत्र  हमारे फटे हृदयों को  सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता छन्दांसि। छन्दः आर्षी उष्णिक् ।

गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्या सह। बृहृत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा॥

-यजु० २३.३३

हे मानव ! ( गायत्री)  गायत्री छन्द, (त्रिष्टुप् ) त्रिष्टुप् छन्द, ( जगती ) जगती छन्द, (पढ्या सह अनुष्टुप् ) पक्कि छन्द के साथ अनुष्टुप् छन्द, ( उष्णिहा बृहती ) उष्णिक् छन्द के साथ बृहती छन्द तथा (ककुप् ) ककुप् छन्द (सूचीभिः ) सुइयों से जैसे वस्त्र सिला जाता है वैसे ( त्वी शम्यन्तु ) तेरे फटे हृदय को सिल कर शान्त कर दें।

अपने देश के तथा दूसरे देशों के वासी हम सब एक जगदीश्वर के पुत्र होने के कारण परस्पर भाई-भाई हैं। इसी प्रकार सब देशों की नारियाँ परस्पर बहिनें हैं। नर और नारियाँ भी आपस में भाई-बहन हैं। इस कारण एक-दूसरे के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होना चाहिए। परन्तु देखा यह जाता है कि प्रेम तो विरलों में ही है, अधिकतर एक-दूसरे के वैरी हो रहे हैं। ईष्र्या, द्वेष और वैरभाव देखने में आते हैं। कलह, मार-काट, हत्या, आतङ्कवाद को संत्रास ही सर्वत्र व्याप रहा है। एक देश दूसरे देश के विमानों को नष्ट कर रहा है, विषैली गैस से नर संहार कर रहा है, संहारक शस्त्रास्त्रों से भीषण युद्ध हो रहे हैं। अणुबम छोड़े जा रहे हैं। किन्तु विभिन्न छन्दों में आबद्ध वेदमन्त्र तो परस्पर मैत्री और सौहार्द का पाठ पढ़ाते हैं, एक दिल दो-तन होने का सन्देश देते हैं। वेद के छन्द सात हैं  गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्कि, त्रिष्टुप्, जगती। ये आर्षी, दैवी, आसुरी, प्राजापत्या, याजुषी, साम्नी, आर्ची, ब्राह्मी के भेद से आठ प्रकार के होते हैं। नियत अक्षरसंख्या से एक अक्षर कम या अधिक होने पर वह छन्द क्रमशः निवृद् और भुरिक् कहलाता है। दो अक्षर कम या अधिक होने पर वह छन्द क्रमशः विराट् और स्वराट् माना जाता है। ककुप् इन्हीं छन्दों का वह भेद होता है, जिसमें मध्य का पाद अधिक अक्षरोंवाला हो, जैसे क्रमशः ८, १२, ८ अक्षरों के तीन पाद होने पर ककुप् उष्णिक् छन्द होता है। मन्त्र का आशय है कि इन सब छन्दों में आबद्ध वेदमन्त्र अपने मैत्री-सन्देश के द्वारा हमारे फटे हृदयों को ऐसे ही सिल दें, जैसे सुइयों से वस्त्र सिला जाता है। ऋग्वेद का जगती छन्द का एक मन्त्र कहता है कि–”युद्ध में कुछ भी प्रिय नहीं होता है’१ । यजुर्वेद में अनुष्टुप् छन्द की वाणी है कि-* *तेरे हाथ में जो बाण या शस्त्रास्त्र हैं, उन्हें दूर फेंक दे”२ । अथर्ववेद का अनुष्टुप् छन्द का एक मन्त्र कहता है कि -** आप सब लोगों को मैं सहृदयता, सांमनस्य और अविद्वेष का पाठ पढ़ाता हूँ। एक दूसरे से ऐसे ही प्यार करो, जैसे गाय नवजात बछड़े से प्यार करती है। इस प्रकार विविध छन्दों के वेद-मन्त्र हमारे हृदयों में पारस्परिक प्रेम की भावना उत्पन्न करें।

महीधर के वेदभाष्य के अनुसार इस मन्त्र द्वारा राजपत्नियाँ अश्वमेध के मारे हुए घोड़े के अङ्गों को लोहे, चाँदी और सोने की सुइयों से छेद-छेद कर इस हेतु जर्जर करती हैं कि उसके अङ्गों को काटने के लिए तलवार उनमें आसानी से घुस सके। बाद में कटे हुए अङ्गों का होम होगा। हमारे अर्थ की दिशा स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य से ली गयी है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ऋग्० ७.८३.२

२. यजु० १६.९

३. अथर्व० ३.३०.१

वेदमंत्र  हमारे फटे हृदयों को  सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार  

वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार

वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः लौगाक्षिः । देवता ईश्वरः । छन्दः स्वराड् अत्यष्टिः ।

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चाय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरि भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु॥

-यजु० २६.२

वेदों का वक्ता ईश्वर कहता है—( यथा) क्योंकि ( इमां कल्याणीं वाचं ) इस कल्याणकारिणी वेदवाणी को (जनेभ्यः ) सभी जनों के लिए ( आवदानि ) मैं उपदेश कर रहा हूँ, ( ब्रह्मराजन्याभ्यां ) ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी (शूद्राय च) जन्म से शूद्र के लिए भी ( अर्याय च ) और वैश्य के लिए भी, (स्वाय च) अपनों के लिए भी (अरणाय च ) और परायों के लिए भी, अतः मैं (इह) इस संसार में ( देवानां ) विद्वानों का और ( दक्षिणायै दातुः ) वेदों का दान अन्यों को देनेवाले का ( प्रियः भूयासम्) प्यारा होऊँ। अब विद्यार्थी कहता है कि-(अयं में कामः ) यह मेरी इच्छा (समृद्ध्यतां) पूर्ण हो कि ( अदः ) यह वेदज्ञान ( मा उप नमतु ) मुझे समीपता से प्राप्त रहे।

वेद परमेश्वर का दिया हुआ ज्ञान है। परमेश्वर कहता है। कि यह कल्याणी वेदवाणी मैंने सभी जनों के लिए बोली है, ब्राह्मण के लिए भी, क्षत्रिय के लिए भी, वैश्य के लिए भी और शूद्र के लिए भी। सभी के कर्तव्य कर्मों का इसमें वर्णन है, सभी के लिए उपयुक्त ज्ञान इसमें भरा है। ब्राह्मण के लिए विहित अध्ययन-अध्यापन, शिक्षारीति, यज्ञ-याग, दान देना लेना भी इसमें वर्णित है, क्षत्रियोचित राजनीति, युद्धनीति आदि भी है, वैश्य के कर्म कृषि, व्यापार, पशुपालन भी हैं और शूद्रोचित सेवा भी है। इसके अतिरिक्त वे सन्देश भी इसमें प्रतिपादित हैं जो निरपवाद सबके लिए समान हैं, सार्वभौम धर्म हैं। कोई मेरा भक्त हो या मेरी सत्ता को न माननेवाला नास्तिक हो, उसके लिए भी यह वेदविद्या मैंने दी है, क्योंकि इसे पढ़कर भक्त को यह शिक्षा मिलेगी कि केवल भक्ति ही नहीं, कर्म भी करना है और नास्तिक को भी मुझमें श्रद्धा होने लगेगी। इस वेदवाणी का श्रवण करके जो विद्वान् बनेंगे और विद्वान् बनकर वे भी मेरी तरह इसका दान या अध्यापन औरों को करेंगे, उन सबका मैं प्रिय हो जाऊँगा। वे वेदों पर रीझ रीझ कर कहेंगे कि कैसा विद्या का भण्डार परमेश्वर ने हमारे कल्याण के लिए दिया है और वे मुझसे प्रेम करने लगेंगे। अन्तिम वाक्य विद्यार्थी की ओर से कहा गया है। वह कहता है कि मेरी यह कामना पूर्ण हो मैं कि वेद पढ़े और मेरे मानस में वेदविद्याएँ छायी रहें।

मन्त्र इस ओर भी घटता है कि वेदाध्यापक आचार्य कह रहा है कि मेरी वेद की कक्षा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, आस्तिक, नास्तिक सभी बैठकर पढ़ सकते हैं, कोई ऐसा नहीं है, जो वेद पढ़ने के अधिकार से वञ्चित हो। महिलाएँ भी अपनी अध्यापिका से वेद पढ़ सकती हैं। इस योजना में भी अन्तिम वाक्य विद्यार्थी की ओर से ही है कि मेरी इच्छा हैं। कि वेद का ज्ञान मेरे मन और आत्मा में छा जाए।

दयानन्दभाष्य में इस मन्त्र का भावार्थ यह लिखा है ‘‘परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति उपदेश दे रहा है कि वह चारों वेदों की वाणी सब मनुष्यों के हित के लिए मैंने उपदिष्ठ की है, इसमें किसी का अनधिकार नहीं है। जैसे मैं पक्षपात छोड़कर सब मनुष्यों में वर्तमान होता हुआ सबका प्यारा हूँ, वैसे ही आप लोग भी हों। ऐसा करने पर तुम्हारी सब कामनाएँ सिद्ध होंगी।”

वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार 

तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार

तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अग्निः । देवता इडा सरस्वती भारती । छन्दः आर्षी गायत्री।

तिम्रो देवीर्बहिरेदसदन्त्विड़ा सरस्वती भारती।मही गृणाना॥

-यजु० २७.१९

( मही ) महती ( गृणाना ) उपदेश देती हुई ( इडा ) इडा, ( सरस्वती ) सरस्वती और ( भारती ) भारती ( तिस्रः देवीः ) ये तीन देवियाँ ( इदं बर्हिः ) इस राष्ट्रयज्ञ के आसन पर ( आ सदन्तु ) आकर स्थित हों।

जिस राष्ट्र में वेदोक्त तीन देवियाँ निवास करती हैं, वह राष्ट्र गौरवशाली और भाग्यशाली होता है। वे तीन देवियाँ हैं। इडा, सरस्वती और भारती। ‘इडा’ शब्द वैदिक कोष निघण्टु में अन्नवाची पठित है। अन्न भौतिक सम्पदा का सूचक है, क्योंकि रुपया-पैसा असली सम्पदा नहीं है। असली सम्पदा तो अन्न ही है, जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते । अतः ‘इडा’ सम्पदा की देवी है। जिस राष्ट्र में निर्धनता व्याप रही होती है, जहाँ की प्रजा अन्न के दानों के लिए मुंहताज रहती है, जहाँ पचास या उससे भी अधिक प्रतिशत लोग भूखे पेट रहते हैं, वह राष्ट्र कभी उन्नत नहीं हो सकता। इसके विपरीत जिस राष्ट्र की शतप्रतिशत प्रजा ऐश्वर्यशालिनी होती है, सुख के सब साधन जहाँ विद्यमान रहते हैं, जहाँ विमानों द्वारा यात्रा होती है, जहाँ का उपजा सामान अन्य देशों को निर्यात होता है, ऐसा समृद्धिशाली देश उन्नत राष्ट्रों की पंक्ति में आसीन होता है। दूसरी देवी है ‘सरस्वती’, जो विद्या की देवी है। जिस देश में सब लोग शिक्षित हैं, विविध विद्याएँ जहाँ नृत्य करती हैं, जहाँ का कलाकौशल खूब समुन्नत है, वह राष्ट्र भी उन्नतिशील कहलाता है। जहाँ की बहुत कम प्रतिशत जनता  साक्षर है, वैदुष्य जहाँ आकाशकुसुमवत् है, जिस देश की सरस्वती रूठी हुई है, वह देश स्वराज्य चलाने में भी विफल होता है, वहाँ पराधीनता व्यापती है और राष्ट्र की श्रेणी में भी नहीं आता। तीसरी देवी है ‘भारती’। निरुक्त के अनुसार ‘भारती’ का अर्थ है ‘आदित्यप्रभा’। अतः भास्ती तेजस्विता, वीरता और क्षात्रधर्म की देवी है। जिस राष्ट्र की सैन्यशक्ति विकसित नहीं है, वह आत्मरक्षा करने में भी असफल रहता है। जहाँ की प्रजा उदासीन, तेजस्विताहीन, शत्रु से भयभीत रहती है वह राष्ट्र पंगु कहलाता है। जिस राष्ट्र की प्रजा सूर्य की प्रभा के समान तेजस्विनी होती है, जहाँ ब्रह्मबल के साथ क्षात्रबल भी हिलोरें लेता है, जहाँ की स्थलसेना, जलसेना और अन्तरिक्षसेना समृद्ध होती है, वह राष्ट्र अग्रणी राष्ट्रों में परिगणित होता है।

उक्त तीनों देवियों के लिए मन्त्र में दो विशेषण दिये गये हैं-‘मही’ और ‘गृणाना’। मही का अर्थ है महती, पूजास्पद, गगनचुन्विनी और गृणाना’ का अर्थ है बोलती हुई । ये तीनों देवियाँ राष्ट्र में अपने समृद्ध रूप में रहनी चाहिए, नग्न रूप में नहीं, यह ‘मही’ विशेषण से सूचित होता है। गृणाना’ शब्द यह सूचित करता है कि तीनों देवियाँ बोलती हुई तस्वीर। के समान होनी चाहिएँ, मूक और शोभाहीन रूप में नहीं।

आओ, हम भी अपने राष्ट्र में इडा, सरस्वती और भारती तीनों देवियों की प्रतिष्ठा करें, तीनों देवियों को उच्चासन पर बैठायें, जिससे हमारा राष्ट्र परम लक्ष्मीवान्, विद्यावान् और प्रतापवान् होकर सबसे आगे की पंक्ति में बैठने योग्य हो सके।

पाद टिप्पणियाँ

१. गृ शब्दे, क्रयादिः, शानच् ।

२. इडा=अन्न। निघं० २.७

३. भारती, भरतः आदित्यः तस्य भाः । निरु० ८.१३

तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार 

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः हैमवर्चिः । देवता अग्निः । छन्दः शक्वरी ।

यदापिपेष मातरं’ पुत्रः प्रमुदितो धयन् । एतत्तदग्नेऽअनृणो भवाम्यर्हतौ पितरौ मया सम्पृच स्थ सं मा भद्रेण पृङ्ख विपृचे स्थवि मा पाप्मना पृङ्ख ॥

-यजु० १९ । ११

( यत् ) जो ( आ पिपेष ) चारों ओर से पीसा है, पीड़ित किया है ( मातरं ) माता को (पुत्रः ) मुझ पुत्र ने (प्रमुदितः ) प्रमुदित होकर ( धयन्) दूध पीते हुए, ( एतत् तद् ) यह वह ( अग्ने ) हे विद्वन् ! ( अनृणः भवामि ) अनृण हो रहा हूँ। अब बड़ा होकर ( मया ) मैंने (पितरौ ) माता-पिता को ( अहतौ ) पीड़ित नहीं किया है, [प्रत्युत उनकी सेवा की है] । हे विद्वानो! आप लोग ( सम्पृचः स्थः ) संपृक्त करनेवाले हो। ( मा ) मुझे (भद्रेण) भद्र से ( संपृक्त ) संपृक्त करो, जोड़ो। आप लोग (विपृचः स्थ) वियुक्त करनेवाले हो, ( मा ) मुझे ( पाप्मना ) पाप से ( वि पृङ्क) वियुक्त करो, | पृथक् करो।

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

जब मैं बच्चा था, तब माता की गोदी में लेटा हुआ बहुत हाथ-पैर मारता था, किलकारी भर कर मचलता था, उछलता था, प्रमुदित होकर माँ का दूध पीता था, ऐसी गतिविधियाँ करता था कि माँ को पीसे डालता था। माँ के साथ चिपट कर सोता था, बिस्तर पर ही मल-मूत्र कर देता था, माँ मुझे सूखे में कर स्वयं गीले में सोती थी, सब कष्ट सहती थी। जब कुछ बड़ा हुआ, तब घुटनों के बल सरकने लगा। कोई कितनी ही मूल्यवान् वस्तु रखी होती थी, वह मेरे हाथ लग जाती थी, तो उसे गिरा देता था, फेंक देता था। तब भी माँ मुझे कुछ  नहीं कहती थी। ज्यों-ज्यों कुछ बड़ा होता गया, मेरी शरारतें बढ़ती गयीं और मैं माँ को कष्ट ही कष्ट देता गया। फिर भी माँ मुझे दुलराती थी, पुचकारती थी। कभी मार भी देती, तो फिर उठा कर छाती से चिपटा लेती थी। अब तो मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ, युवक कहलाने लगा हूँ। बचपन में माँ को दी गय पीड़ाओं को याद करता हूँ, तो दु:खी होने लगता हूँ। सोचता हूँ, माता-पिता ने बाल्यकाल में मेरी जो सेवा की है, उसका ऋण क्या कभी मैं चुका सकुँगा? मैंने बालपन में जो उन्हें कष्ट पहुँचाये हैं, उनका क्या कभी प्रतीकार कर सकेंगा? मैं उन्हें कष्ट ही कष्ट देता रहा और वे मुझे सुख ही सुख देते रहे। उन्होंने मेरी सेवा की, पढ़ने योग्य हुआ तो पढ़ाया लिखाया, योग्य बनाया। उनके उस ऋण से मैं अनृण होना चाहता हूँ। अतः मैं आज से व्रत लेता हूँ कि भविष्य में मैं कभी ऐसा काम नहीं करूंगा, जिससे उनका जी दु:खे, उन्हें कष्ट पहुँचे। बचपन में मेरी जैसी सेवा उन्होंने की है, उससे बढ़कर उनकी सेवा करूंगा। पहले मैं उन्हें पैर मारता था, अब उनके चरण दबाऊँगा। वे रोगी होंगे तो उनके लिए औषध लाऊँगा। स्वयं कमा-कमा कर उन्हें खिलाऊँगा, उनकी सबै आवश्यकताएँ पूरी करूंगा। हर तरह से उन्हें प्रसन्न रखने का यत्न करूंगा। कभी उनका हनन नहीं करूंगा-”अहतौ पितरौ मया।”

हे विद्वानो ! आपसे जो सम्पर्क स्थापित करता है, उसे आप सद्गुणों और सत्कर्मों से सम्पृक्त कर देते हो। आपके सदाचरण से वह भी सदाचार की शिक्षा ले लेता है। आप मुझे * भद्र’ से संपृक्त करो, भले कर्मों से जोड़ो। मुझे परोपकार में लगाओ, पर-सेवा में तत्पर करो, परों का कष्ट मिटाने में और उन्हें सुखी करने में संलग्न करो। मेरे विचार भद्र हों, मेरे सङ्कल्प भद्र हों, मेरी चेष्टाएँ भद्र हों । हे विद्वानो! आपसे जो सम्बन्ध जोड़ता है, उसे अभद्र कार्यों से आप वियुक्त कर देते हो, छुड़ा देते हो। मुझे ‘पाप’ से वियुक्त करो, पृथक् करो। पाप विचार को और पाप कर्म को मैं अपने पास न फटकने दें और यदि पाप मैं करूं, तो आप उसे मेरे अन्दर से निकाल फेंको। मैं आपका गुणगान करूँगा, मैं आपको सदा ऋणी रहूँगा। आपको मेरा नमस्कार है।

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार

सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें  रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः शुनःशेपः। देवता अग्निः। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

यास्तेऽअग्ने सूर्ये रुच दिवसातुन्वन्ति रश्मिभिः। ताभिर्नोऽअद्य सर्वभी रुचे जनाय नस्कृधि॥

-यजु० १८ । ४६

( याः ते ) जो तेरी (अग्ने ) हे अग्नि! ( सूर्ये रुचः१ ) सूर्य में कान्तियाँ हैं, जो ( रश्मिभिः ) किरणों से ( दिवम् आतन्वन्ति ) द्युलोक को विस्तीर्ण करती हैं, ( ताभिः सर्वाभिः ) उन सब कान्तियों से ( अद्य) आज (नः रुचे कृधि ) हमें कान्तिमान् कर दो, (जनायरुचे कृधि) राष्ट्र के अन्य सब जनों को भी कान्तिमान् कर दो।

हे अग्नि! तेरी महिमा अपार है। तू पृथिवी पर पार्थिव अग्नि के रूप में विराजमान है। पृथिवी की सतह पर भी तेरी ज्वाला जल रही है और भूगर्भ में भी तू अनन्त ताप को सुरक्षित किये हुए है। अन्तरिक्ष में तू विद्युत् के रूप में प्रकाशमान है और द्युलोक में सूर्य, नक्षत्रों, तारामण्डलों तथा उल्कापिण्डों आदि के रूप में भासमान है। हे अग्नि! तेरी जो कान्तियाँ द्युलोक में रश्मियों के रूप में फैली हुई हैं और जिनसे तू सकल ब्रह्माण्ड को कान्तिमान् किये हुए है, उन कान्तियों से हमें भी कान्तिमान् कर दे। हमारे अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय सारे शरीर कान्ति से तेजस्वी हो उठे। हमारा मन ऐसा तेजोमय, प्रभामय एवं प्रतापवान् हो जाए कि उसके सब सङ्कल्प-विकल्प आभान्वित हो उठे, न कि निस्तेज, उदासीन एवं निष्क्रिय रहें। हमारी बुद्धि ऐसी प्रखर हो जाए  कि गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को प्रस्फुटित कर सकें। हमारा आत्मा ऐसा सबल, तेजस्वी, प्रभावी और वैद्युत ज्योति से ज्योतिष्मान् हो जाए कि उसका अध्यात्म प्रकाश सकल दैहिक शक्तियों को प्रोज्ज्वल कर दे। हम आध्यात्मिक पुरुष कहलाने के पात्र हो जाएँ। हमारी योगशक्तियाँ प्राञ्जल, दैवी सम्पदा से युक्त, सक्रिय और प्रदीप्त हो उठे। हे अग्नि! हम भी अध्यात्म सम्पत्ति से देदीप्यमान हो जाएँ और हमारे राष्ट्र के अन्य सब जन भी रोचना से रोचिष्मान् बन जाएँ।

हे अग्नि! अपनी द्युलोक की रश्मियों से हम सब राष्ट्रवासियों को रोचिष्णु कर दो।

पादटिप्पणियाँ १. रुचः कान्तयः । रुच दीप्तौ अभिप्रीतौ च, भ्वादिः ।।

२. आ-तनु विस्तारे, तनादिः ।

३. रुग्, रुचौ, रुचः । रुचे, चतुर्थी एकवचन ।

४. कृधि कुरु, छान्दस रूप । श्रुशृणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि पा० ६.४, १०२ से| कृ धातु से परे लेट् के हि को धि।

सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें  रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार 

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः देवा: । देवता प्रजापतिः । छन्दः स्वराट् शक्चरी ।

सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनं च मे विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च में मोदश्च मे जातं च मे जनिष्यमाणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे ज्ञेने कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८।५

(सत्यं च मे ) मेरा सत्य ज्ञान ( श्रद्धा च मे ) मेरी श्रद्धा, ( जगत् च मे ) मेरा क्षेत्र, (धनंचमे ) मेरा धन, (विश्वं च मे ) मेरी विश्व के साथ ममता की भावना, ( महः च मे ) मेरा तेज, ( क्रीडा च मे ) मेरी क्रीडा, ( मोदः च मे ) मेरा मोद-प्रमोद, (जातं च मे ) मेरा भूत, (जनिष्यमाणं च मे ) मेरा भविष्य, (सूक्तं च मे ) मेरा सुवचन, (सुकृतंचमे)मेरा सुकर्म ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से समर्थ बनें ।।

सफल जीवनयात्रा के लिए सर्वप्रथम मनुष्य को इसके ज्ञान की आवश्यकता होती है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। जब उसे सत्य का ज्ञान हो जाता है, तब उस सत्य को आचरण में लाना होता है। परन्तु मनुष्य सत्याचरण में तब तक तत्पर नहीं होता, जब तक सत्य में उसकी श्रद्धा न हो। श्रद्धा होते ही सत्य में प्रवृत्ति स्वत: ही होने लगती है। व्यक्ति जिस जगत्’ या क्षेत्र का होता है, उसी में वह सत्य को प्रवृत्त करता है। जैसे व्यापार के ‘जगत्’ या क्षेत्र में रमण करनेवाला व्यक्ति उसी जगत् में सत्याचरण करेगा। इसी प्रकार विद्याध्यापन या क्षात्रधर्म के जगत् का व्यक्ति भी अपने-अपने क्षेत्र में ही सत्य का प्रयोग करेगा । विभिन्न क्षेत्र में सत्य का प्रयोग करने  के लिए किसी न किसी रूप में धन भी चाहिए। किसी क्षेत्र विशेष में सत्य को क्रियान्वित करते समय विश्वहित की भावना को भी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि वह बात सत्य नहीं मानी जा सकती, जिसके क्रियान्वयने से किसी क्षेत्रविशेष को तो लाभ पहुँचता प्रतीत हो, किन्तु शेष विश्व का अकल्याण होता हो। सत्य का प्रचार आसान नहीं है। उसके लिए आत्मा और मन में ‘महः’ अर्थात् तेजस्विता चाहिए। तेजस्वी लोग ही स्वयं सत्यव्रती होकर सत्य के प्रचारक बनते हैं। सत्य के प्रचारार्थ सत्य में ‘क्रीडा’ करनी होती है, सत्य में रम जाना होता है। ऐसी वृत्ति धारण करनी होती है कि सत्य में ही ‘मोद माने, सत्य के फूलने से मन प्रफुल्ल हो, सत्य के प्रचारित होने से अन्तरात्मा मुदित हो।

सत्य के साधक एवं प्रचारक को अपने जीवन का ‘जात’ और ‘जनिष्यमाण’ अर्थात् ‘भूत’ और ‘भविष्य’ भी देखना होता है। अपने भूत का आत्म-निरीक्षण करके वह यह निर्धारित करता है कि उसके भूत जीवन में कितना अंश सत्य का रहा है और कितना असत्य का। फिर वह यह विचार करता है कि आगे अपने भविष्य जीवन की योजना क्या बनाऊँ, जिसमें सत्य ही सत्य हो, असत्य का लवलेश भी न रहे। फिर सत्यप्रचार के लिए सुभाषित (सूक्त) और सुकर्म (सुकृत) को भी अपनाता है। इस प्रकार सत्य के साधक के लिए सारे साधन सत्य के पोषक ही हो जाते हैं। परन्तु यह ‘सत्य’ की साधना ‘यज्ञभावना’ के बिना अपूर्ण ही रहती है। लोकहित की भावना ही यज्ञ-भावना है। लोकहित की भावना से सत्य की साधना को बल मिलता है, क्रियाशीलता मिलती है, पूर्णता मिलती है।

आओ, हम भी अपने सत्य, श्रद्धा आदि को यज्ञ द्वारा सामर्थ्यवान् और सफल करें।

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों – रामनाथ विद्यालंकार

मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः देवाः । देवता आत्मा। छन्दः शक्वरी ।

ऊर्क च मे सुनृता च मे पर्यश्च मे रसश्च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्च मे सपीतिश्च मे कृषिश्च मे वृष्टिश्च मे जैत्रं च मऽऔद्भिद्यं च मे ज्ञेने कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८।९

( ऊ च मे ) मेरा बलप्राणप्रद अन्न, ( सूनृता च मे ) और मेरी रसीली वाणी, (पयःचमे) और मेरा दूध, ( रसः च मे ) और मेरा रस, (घृतं च मे ) और मेरा घृत, (मधुच मे) और मेरा मधु, ( सन्धिः च मे ) और मेरा सहभोज, (सपीतिः च मे ) और मेरा सहपान, ( कृषिः च मे ) और मेरी खेती, ( वृष्टिः च मे ) और मेरी वर्षा, (जैत्रं च मे ) और मेरी विजय, (औद्भिद्यं च मे ) और मेरा ओषधि-वनस्पतियों का अंकुरित होना (यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से सम्पन्न हों।

मैं यदि मेल-जोल और पुरुषार्थ एवं कर्मण्यता का यज्ञ करता हूँ, तो मुझे बहुत-सी सम्पदाएँ प्राप्त हो सकती हैं और वे मेरे पास स्थिर रह सकती हैं। मुझे ‘ऊर्क’ प्राप्त हो. बलप्राणप्रद अन्न मुझे मिले, जिससे मैं बलवान्, प्राणवान् और परिपुष्ट बनूं। मेरे शरीर की रचना परमेश्वर ने मांसभक्षी हिंसक जन्तुओं-जैसी नहीं बनायी है, अत: मांस-मदिरा के सेवन से अपने शरीर, मन और आत्मा को मलिन न करूं। मुझे रसीली वाणी प्राप्त हो। मैं दूसरों के प्रति मधुर-प्यारी वाणी बोलूं और अन्य जन भी मेरे प्रति मधुर-प्यारी वाणी बोलें। मुझे शुद्ध ‘गोदुग्ध’ प्राप्त हो, मैं गाय पालू, गोसेवा का पुरुषार्थ करूं। मुझे ‘रस’ प्राप्त हो, मैं द्राक्षारस, अङ्गों का रस, सन्तरों का रस, सेव का रस, इक्षुरस सेवन करूं, जिससे मुझे पुष्टि और  तीव्र बुद्धि मिले। मुझे ‘गोघृत’ प्राप्त हो, गोघृत से शरीर नीरोग और कान्तिमय तथा मन बुद्धि सात्त्विक होते हैं। मुझे ‘मधु मिले, मैं शहद का आस्वादन करूं। शहद कान्ति तथा पाचनशक्ति देता है तथा नेत्रज्योति बढ़ाता है। मुझे ‘सग्धि’ और ‘सपीति’ के अवसर प्राप्त हों। दूसरों के साथ मिलकर सहभोज और सहपान करके मुझे सङ्गति का आनन्द प्राप्त हो। मेरी ‘कृषि’ लहलहाये। बीज बोने के लिए धरती को तैयार करने से लेकर फसल काटने तक की सब क्रियाएँ मैं पुरुषार्थपूर्वक करूँ, जिससे मैं अन्नपति होकर दूसरों को अन्न खिला सकें। मुझे ‘वर्षा’ मिले, बादल की वर्षा भी मेरे ऊपर हो और विविध ऐश्वर्यों की वर्षा तथा प्रभुकृपा की वर्षा का भी मैं पात्र बनें।

मुझे जैत्र’ प्राप्त हो, मैं प्रतियोगिताओं में भाग लेकर विजयी बनूं, शत्रुओं से लोहा लेकर विजयी बनूं, आपदाओं। से लड़कर विजयी बनूं। मुझे ‘औद्भिद्य’ प्राप्त हो, मैं उत्कर्ष प्राप्ति में बाधक विघ्न-बाधाओं की परत फोड़ कर ऊपर उठें, ऊर्ध्वारोहण करूँ। उक्त सब सम्पदाएँ मुझे पारस्परिक मेल जोल और पुरुषार्थ के यज्ञ से प्राप्त हों और बढ़कर मुझे आनन्दित करती रहें।

मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

राजा से प्रजजनों की प्रार्थना-रामनाथ विद्यालंकार

राजा से प्रजजनों की प्रार्थना

ऋषिः अत्रिः । देवता इन्द्रः । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।

समिन्द्र णो मनसा नेषि गोभिः ससुरभिर्मघवन्त्सस्वस्त्या। सं ब्रह्मणा देवकृतं यदस्ति सं देवानासुतौ य॒ज्ञियानास्वाहा।

-यजु० ८।१५

( इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् राजन् ! आप ( नः ) हम प्रजाओं को ( मनसा ) मनोबल से और ( गोभिः) भूमि तथा गौओं से ( सं नेषि ) संयुक्त करते हो। ( मघवन् ) हे विद्याधनाधीश ! ( सूरिभिः ) विद्वानों से ( सं ) संयुक्त करते हो, ( स्वस्त्या ) स्वस्ति से (सं ) संयुक्त करते हो। ( सं ब्रह्मणा ) संयुक्त करते हो उस ज्ञान से ( यत् ) जो (ब्रह्मकृतम् अस्ति ) ईश्वरकृत तथा विद्वज्जनों से कृत है। ( सम्) संयुक्त हों हम (यज्ञियानां देवानां ) पूजनीय विद्वानों की ( सुमतौ ) सुमति में, (स्वाहा ) हमारी यह कामना पूर्ण हो।

हे ऐश्वर्यशाली राजन् ! हम प्रजाजनों ने मिलकर आपको राजा के पद पर आसीन किया है। हमारे उत्थान के लिए आप जो अनेक प्रशंसास्पद कार्य कर रहे हो, उनके लिए हम आपके प्रति कृतज्ञताप्रकाशन करते हैं। प्रथम कार्य तो आपने यह किया है कि हमें मनोबल से अनुप्राणित कर दिया है। हम समझ गये हैं कि जिस कठिन से कठिन कार्य का भी शुभारम्भ करेंगे, वह अवश्य पूर्ण होकर रहेगा। फिर आपने हमें निवासभवन, सार्वजनिक भवन तथा कृषि के लिए भूमि आबंटित की है और आपने अपनी राजकीय गोशाला से उत्तम जाति की गौएँ गोपालकों को दिलवायी हैं। तीसरा कार्य आपने हमारे लिए यह किया है कि राष्ट्र में उच्चकोटि के विद्वान्  उत्पन्न किये हैं, जो राष्ट्र के गौरव हैं। प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक की सम्पूर्ण व्यवस्था आपने देश के होनहार बालकों और युवकों को दिलवायी है। शिक्षा पर होनेवाला अधिकांश व्यय आपने राजकीय कोष से कराया है। आपने नगर नगर में विद्यालय, माध्यमिक विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्थापित किये हैं। चौथा कार्य आपने हमारे लिए यह किया है कि प्रत्येक प्रजाजन को *स्वस्ति’ से युक्त किया है। सब प्रजाओं का अपना विशेष अस्तित्व हो गया है, प्रत्येक मनुष्य विपुल धन-धान्य, समृद्धि, सुविधा, सद्गुण, वर्चस्व, देहबल, मनोबल, आत्मबल आदि से परिपूर्ण हो गया है। पाँचवा लाभ आपने हमें यह पहुँचाया है कि आपने हमें ‘ब्रह्मकृत’ ज्ञान से संयुक्त कर दिया है। ‘ब्रह्म’ नाम परमेश्वर का भी है और विद्वानों का भी। जो परमेश्वरकृत वेद हैं उनका ज्ञान भी आपने राष्ट्रवासियों को ग्रहण करने का अवसर दिया है और विद्वत्कृत ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, धर्मशास्त्र भौतिक विज्ञान, शिल्पशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद आदि की शिक्षा की भी व्यवस्था की है।

हमारा आपसे निवेदन है कि सदा ही पूजनीय विद्वानों की सुमति हमें प्राप्त होती रहे। हमारी यह कामना पूर्ण हो।  मनुष्य को सदा सरसता-सफलता प्राप्त कराता रहेगा। अत: जीवात्मा के लिए आवश्यक है कि वह मन की सदा रक्षा करता रहे। परन्तु जीवात्मा मन की रक्षा तभी कर सकता है, जब वह स्वयं काम, क्रोध आदि रिपुओं से अपराजित रहे । अत: जीवात्मा को भी सावधान किया गया है कि याद रख, तुझे कोई शत्रु दबा न सके। आगे मन रूप चन्द्र को कहते हैं-हे दिव्य मन-रूप चन्द्र! दृढ़ सङ्कल्पों की दीप्ति से जगमगाता हुआ तू सब प्रजाजनों को प्राप्त हुआ है, वैसा ही बना रह। यदि तू जीवात्मा का प्रकाश अपने ऊपर नहीं पड़ने देगा और निस्तेज हो जायेगा, तो तू मनुष्यों का कुछ भी उपकार नहीं कर सकेगा, अपितु उनके पतन का ही कारण बनेगा।

अब मन उत्तर देता है कि मुझे तुम्हारी बात स्वीकार है। मैं तुम पूज्यजनों को सर्वविध पुष्टि के साथ प्राप्त होता हूँ। अपने सङ्कल्प-बल से तुम्हारे अन्दर प्राण फूकता रहूँगा तथा सारथि जैसे लगाम द्वारा रथ के घोड़ों को नियन्त्रण में रखता है, वैसे ही मैं तुम्हारे इन्द्रिय-रूप अश्वों को नियन्त्रित करता रहूँगा, एवं अन्धाधुन्ध विषयों की ओर भागने नहीं दूंगा। परिणामत: तुम्हें सबल आध्यात्मिक और भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त होते रहेंगे। परन्तु मुझसे लाभ पाने के लिए आवश्यक यह है कि तुम भी मुझे ‘स्वाहा’ कहो, मेरा स्वागत करो। मैं मन भी यदि जीवात्मा के नियन्त्रण से बाहर होकर कुराह पर चलने चलाने लगूंगा, तो वरुण’ प्रभु के पाशों से बाँधा जाऊँगा। अतः मैं सावधान रहता हुआ ‘वरुण’ के पाशों से छूटा रहता हूँ। हे मानवो! तुम मुझसे जो आशा करते हो, उसे मैं पूर्ण करता रहूँगा और निरन्तर तुम्हारी उन्नति में संलग्न रहूँगा।

पादटिप्पणी

१. (दभन्) हिंस्युः । अत्र लिङर्थे लङ् अडभावश्व-द० ।

दभु दम्भे, दम्नोति, स्वादिः । दम्नोति वधकर्मा, निघं० २.१९।।

राजा से प्रजजनों की प्रार्थना