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हम नायकों को पुकारते हैं -रामनाथ विद्यालंकार

हम नायकों को पुकारते हैं -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः तापसः । देवताः मन्त्रोक्ताः सोमः, अग्निः, आदित्याः, विष्णुः,सूर्यः, ब्रह्म, बृहस्पति: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

सोमेश्राजानमवसेऽग्निमन्वारभामहेआदित्यान्विष्णुसूर्यं ब्रह्माणं च बृहस्पतिस्वाहा ।।।

 -यजु० ९ । २६

हम ( अवसे ) रक्षा के लिए ( सोमं राजानम् ) सौम्य तथा ज्योति से राजमाने परब्रह्म को, ( अग्निम्) अग्रनेता तेजस्वी जननायक को, ( आदित्यान्) सूर्यसदृश तेजस्वी वीर सैनिकों को, (विष्णुम्) अपने प्रभाव से सकल राष्ट्र में व्यापक राजा को, ( सूर्यम् ) विद्या और सदाचार के सूर्य उपदेशक को, ( ब्रह्माणम्) यज्ञ के नेता ब्रह्मा को, (बृहस्पतिं च) और वाक्पति आचार्य को (अन्वारभामहे ) स्वीकार करते हैं, ( स्वाहा) इनके प्रति हमारा समर्पण फलदायक हो ।

हम आत्मरक्षा और आत्मोन्नति के लिए केवल स्वयं पर ही नहीं, किन्तु अन्यों पर भी निर्भर रहते हैं। उनमें से सर्वप्रथम हम अपने ‘सोम राजा’ को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते हैं। ‘सोम राजा’ हमारा परम प्रभु है, जो अन्तरिक्षस्थ चन्द्रमा के समान सौम्य, रसमय, मधुर और मधुस्रावी है तथा सुखद ज्योति से राजमान है। वह निरन्तर हमें अपनी छत्रछाया में लेकर हमारी रक्षा कर रहा है, हमें आगे बढ़ना सिखा कर हमारी उन्नति कर रहा है। फिर हम ‘अग्नि’ अर्थात् अग्रनेता, तेजस्वी जननायक को पुकारते हैं। वह हमारे अन्दर मानवता, सहृदयता एवं प्रेम की ज्योति प्रज्वलित कर हमारी रक्षा करता है तथा पारस्परिक अभ्युत्थान के लिए हमें प्रेरित करता है। तदनन्तर हम आदित्यों अर्थात् वीर क्षत्रियों को पुकारते हैं, जोआदित्य की किरणों के समान तेजस्वी होते हुए हमारे राष्ट्र की रक्षा करते हैं तथा उच्च राष्ट्रों की श्रेणी में हमारे राष्ट्र को ले जाते हैं। तत्पश्चात् हम राष्ट्रोन्नायक विष्णु को अर्थात् राष्ट्र के राजा को पुकारते हैं, जो अपने प्रभाव से समग्र राष्ट्र में व्याप्त होता हुआ, समस्त प्रजा का रक्षक होता हआ राष्ट्र को उन्नति के शिखर पर पहुँचाता है। फिर हम सूर्य के समान तेजस्वी उपदेशक को पुकारते हैं, जिसकी वाणी में ओज है तथा जो अपनी प्रभावोत्पादक वाणी से राष्ट्रजनों को उद्बोधन देता है, उनके प्रसुप्त हृदयों को जगाता है एवं उन्हें कर्तव्योन्मुख करता है। साथ ही हम ब्रह्मा का भी आह्वान करते हैं, जो राष्ट्र में यज्ञों का सञ्चालन करे, वायु-जल आदि को तथा जनमानस को शुद्ध कर राष्ट्रवासियों के हृदयों को यज्ञसूत्रता में बाँध कर हमारा महान् उपकार करता है। अन्त में हम बृहस्पति अर्थात् वाचस्पति आचार्य को पुकारते हैं, जो गुरुकुल में प्रविष्ट बालकों को ब्रह्मचारी बनाकर ज्ञान तथा सदाचार की उच्च शिक्षा देकर सुयोग्य नागरिक बनाता है।

हम उक्त सब महान् नेताओं के प्रति स्वयं को समर्पित करते हैं-‘स्वाहा’। ये हमें महान् लक्ष्य के प्रति प्रबुद्ध एवं जागरूक करके हमारा अभ्युत्थान करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अवसे–अव रक्षणादिषु, असुन्, चतुर्थी विभक्ति।

२. अनु-आ-रभ राभस्ये, भ्वादिः ।

हम नायकों को पुकारते हैं -रामनाथ विद्यालंकार 

राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार

राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः तापसः । देवता मन्त्रोक्ता: । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।

प्रनों यच्छत्वर्यमा प्रपूषा प्र बृहस्पतिः। प्र वाग्देवी ददातु नः स्वाहा।।

-यजु० ९ । २९ |

( अर्थ्यमा ) न्यायाधीश ( नः ) हमें (प्रयच्छतु ) अपनी देन दे। ( प्र पूषा) पुष्टि, पशुपालन और यातायात का मन्त्री अपनी देन दे। ( प्र बृहस्पति:३) शिक्षामन्त्री भी अपनी देन दे। ( वाग् देवी ) दिव्य वेदवाणी भी (नः प्र ददातु ) हमें अपनी देन दे।

हम चाहते हैं कि राष्ट्र के सब अधिकारी हमें अपने-अपने अधिकार और सेवा से लाभ पहुँचाएँ।’ अर्यमा’ अपनी देन दे। जो ‘अर्यो’ अर्थात् श्रेष्ठों का मान करता है और अश्रेष्ठों को दण्डित करता है वह न्यायाधीश अर्यमा कहलाता है। उसका कर्तव्य है कि वह प्रत्येक अभियोग के दोनों पक्षों को ध्यान से सुनकर अपना निर्णय दे कि दोषी कौन है और उसे क्या दण्ड दिया जाए। अपराध का दण्ड मिलने पर अपराधी को यह शिक्षा मिलती है कि भविष्य में वह अपराध न करे और अन्य लोग भी सजग हो जाते हैं। इस प्रकार न्यायाधीश की समाज को यह देन है कि वह राष्ट्र में निरपराधता का वातावरण तैयार करता है। पूषा’ वेद में पुष्टि, पशुपालन और मार्गों का नियन्त्रण करता है, अत: वह इस विभाग का मन्त्री है। खेती और बागवानी की सब समस्याओं को वह देखेगी। वेद में ब्रीहि, यव, माष, तिल, मूंग, चने, किनकी चावल (अणु), साँवक चावल (श्यामाक), तृणधान्य (नीवार), गेहूँ, मसूर आदि अन्नों के नाम आते हैं। दूध, घी, रस, मधु का भी वर्णन आता है। पुष्ट और पुष्टि की प्रचुरता होने का भी उल्लेख है। पशुपालन के सूक्त भी हैं। इन सब विषयों की समस्याओं का समाधान करना और अपनी ओर से इन सबकी उन्नति करना पूषा मन्त्री की देन है। वह हमें प्रचुरता से प्राप्त होती रहे। ‘बृहस्पति’ शिक्षामन्त्री है। विश्वविद्यालयों की उन्नति, शिक्षा के विषयों की वृद्धि, उच्च शिक्षा का प्रबन्ध, वैज्ञानिक विषय कृषि, शिल्प आदि तथा अन्य विभिन्न विषयों की शिक्षा को सञ्चालित तथा उन्नत करना शिक्षा मन्त्री का कार्य है। वह इस कार्य को भलीभाँति करके अपनी देन देता रहे। |

‘वाग् देवी’ दिव्य वेदवाणी है, सरस्वती भी उसी का नाम है। वेदवाणी विभिन्न विद्याओं का सरस प्रवाह हमें देकर हमारा उपकार करती है। साथ ही उद्बोधन, आशावाद की उमङ्ग, शिवसङ्कल्प, आत्मा की अमरता, आत्मा की अद्भुत क्षमता, सन्मार्ग में प्रवृत्ति, बाधाओं और विघ्नों का क्षय एवं ऊध्र्वारोहण करा कर हमें समुन्नत करती है।

उक्त सब मन्त्रोक्त विभिन्न विभागों के राज्याधिकारी एवं वेदविद्या हम सबको अपनी बहुमूल्य देन देकर उपकृत करते रहें, यही हमारी कामना है।

पादटिप्पणियाँ

१. (अर्यमा) न्यायाधीश:-२० ।

२. पुष्टं च मे पुष्टिश्च मे । य० १८.१०, पूषा गा अन्वेतु नः पूषा रक्षत्वर्वतः ।।पूषा वाजं सनोतु नः । ऋ० ६.५४.५, पथस्पते ऋ० ६.५३.१

३. बृहत्याः वेदवाच:, बृहतो ज्ञानस्य शिक्षाशास्त्रस्य वा पतिः बृहस्पतिःशिक्षामन्त्री।

४.य० १८.१२ ५.

५.य० १८.९

६.अ० २.३४, ३.९८, ६.३१, ७.१०४ आदि ।

राज्याधिकारियों से निवेदन -रामनाथ विद्यालंकार 

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः देववातः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्ने सर्हस्व पृतनाऽअभिमतीरपस्य। दुष्टरस्तरन्नरातीर्वचधा यज्ञवहसि ॥

-यजु० ९ । ३७ |

( अग्ने) हे अग्रनायक वर्चस्वी परमात्मन्! आप (पृतना: ) सेनाओं को ( सहस्व ) पराजित करो, ( अभिमाती: ) अभिमानवृत्तियों को ( अपास्य ) दूर करो। ( दुष्टर: ) दुरस्तर आप ( अरातीः३) अदानवृत्तियों को एवं अदानी रिपुओं को ( तरन्) तरते हुए, तिरस्कृत करते हुए ( यज्ञवाहसि) यज्ञवाहक यजमान के अन्दर ( वर्चः धाः५) वर्चस्विता को धारण करो।

हे परमेश्वर ! आप अग्रनायक और जलती आग के समान जाज्वल्यमान, तेजस्वी, वर्चस्वी होने के कारण ‘अग्नि’ कहलाते हो। आप अपनी ज्वाला से मुझे भी प्रज्वलित कर दो। मुझे ऐसा बना दो कि कितनी ही शत्रु-सेनाएँ मुझसे लोहा लेने के लिए आयें, सब मुझसे पराजित हो जाएँ। अध्यात्म में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष, अनुत्साह, अकर्मण्यता आदि की सेनाएँ मझे दबोचना चाहती हैं और बाहर मुझे तथा मेर राष्ट्र को परास्त करके अपने अधीन करना चाहने वाली शत्रु सेनाएँ नीचा दिखाना चाहती हैं। आप मुझे ऐसी शक्ति दें कि मैं इन पर विजय प्राप्त कर सकें। अनेक अवसरों पर कठिनाइयों का पराजय तो मैं आपकी कृपा से करता हूँ, किन्तु अभिमान मुझे अपनी महत्ता का हो जाता है। इन अभिमातियों को, अभिमानवृत्तियों को भी आप चकनाचूर करके मुझमें विनय का बीजारोपण कीजिए। हे जगदीश्वर ! आप दुस्तर हैं, किसी से हारनेवाले नहीं हैं, अपितु जहाँ कहीं भी अमानवीयता दृष्टिगोचर होती है, उसे आप भस्मसात् करके राक्षस को मानव बना देते हो। अत: मेरे अन्दर भी जो अराति या अदान वृत्तियाँ पनप रही हैं, जिनके कारण मैं परोपकार में संलग्न नहीं होता हैं, उन्हें तिरस्कृत करके मुझे उद्भट दानी बना दीजिए। आप मुझे उदासीन, निस्तेज, बुझा हुआ भी मत रहने दीजिए, प्रत्युत मेरे अन्दर वर्चस्विता, उत्साह, अग्रगामिता, आशावादिता आदि उत्पन्न करके समाज में ऐसा उत्साही और तेजस्वी बना दीजिए कि जहाँ भी मैं अन्याय, अत्याचार आदि देखें, उसे कुचल डालँ।।

हे अन्तर्यामी ! मैं आज यजमान बना हूँ, यज्ञ का व्रती बना हूँ। यज्ञ शब्द देवपूजा, संङ्गतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से निष्पन्न होता है। अतः आप मुझे ऐसा आत्मबल दीजिए कि मैं देवपूजक बनूं, सत्कार्यों के सङ्गठन में भागीदार बनूं और अपने तन, मन, धन का दूसरों की भलाई के लिए दान कर सकें। हे प्रभु, मेरी इन सदिच्छाओं को पूर्ण कीजिए, मुझे सच्चे अर्थों में यज्ञवाहक बनाइये ।।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अप-असु क्षेपणे, दिवादिः ।

२. दुष्टर: दुःखेन तर्तुं शक्यः ।

३. अराती:-न रा दाने, क्तिन्, अराति: ।

४. यज्ञवाहस् सप्तमी एकवचन।।

५. धाः अधाः । बहुलं छन्दस्यमायोगेऽपि पा० ५.४.७५ से अडागमका निषेध। लिङर्थ में लुड्।

हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुणः । देवता क्षत्रपति: । छन्दः आर्षी पङ्किः।

सोमस्य त्वा द्युम्नेनाभिषिञ्चाम्यग्नेजसा सूर्यस्य वर्चसेन्द्र स्येन्द्रियेण क्षत्राणी क्षत्रपतिरेध्यति दिद्यून् पहि ॥

-यजु० १० । १७

हे नवनिर्वाचित राजन् ! ( सोमस्य द्युम्नेन ) सोम के यश से ( त्वी अभिषिञ्चामि ) तुझे अभिषिक्त करता हूँ, ( अग्नेः भ्राजसा ) अग्नि के तेज से, ( सूर्यस्य वर्चसा ) सूर्य के वर्चस् से, (इन्द्रस्य इन्द्रियेण ) इन्द्र के इन्द्रत्व से । तू ( क्षत्राणां क्षत्रपतिः) क्षात्रकुलोत्पन्नों का क्षत्रपति ( एधि) हो। ( दिद्युन् अति ) मारक शास्त्रास्त्रों को विफल करके, तू ( पाहि ) राष्ट्र की रक्षा कर।।

हे क्षत्रियश्रेष्ठ! आप मतदाताओं द्वारा बहुसम्मति से राष्ट्र के राजा निर्वाचित हुए हैं। इस अवसर पर हम राष्ट्रवासियों की ओर से हर्ष प्रकट करते हैं और आपको वधाई देते हैं। यह हम राष्ट्र का सौभाग्य मानते हैं कि आप जैसे सुयोग्य व्यक्ति के पक्ष में जनता ने मतदान किया है। अब विभिन्न स्थानों के जलों से आपका अभिषेक हो रहा है। प्रजा की ओर से आपका अभिषेक करने के लिए नियुक्त मैं पुरोहित आपको ‘सोम’ के यश से अभिषिक्त करता हूँ। सोम चन्द्रमा का और ओषधियों के राजा का नाम है। चन्द्रमा अपनी चाँदनी के यश से यशस्वी बना हुआ है। वह चान्द्र तिथियों, चान्द्र मासों तथा चान्द्र वर्षों का भी निर्माण करता है। आपका यश भी चाँदनी जैसा हो, आप पूनम के चाँद बनकर राष्ट्रगगन में चमकें। ‘सोम’ ओषधियों का राजा एक पौधा भी होता है, जिसका रस स्फूर्ति, उत्साह, मनीषा, वीरता आदि को बढ़ाता है, तथा जो रोगियों को नीरोग, निराशों की आशावादी और मृततुल्यों  को सजीव कर सकता है। उस जैसा यश भी आप प्राप्त करें। ‘अग्नि’ के तेज से आपको अभिषिक्त करता हूँ। यज्ञकुण्ड में अग्नि की ऊर्ध्वगामिनी ज्वालाएँ यजमान को तेजस्वी होकर ऊध्र्वारोहण करने का सन्देश देती हैं। अग्नि का वह यश भी आपको प्राप्त हो। फिर मैं सूर्य के वर्चस् से आपको अभिषिक्त करता हूँ। सूर्य का वर्चस् समस्त सौर मण्डल को प्राण प्रदान करता है, अपने आकर्षण की डोर से सबको अपने साथ बाँध कर अपने चारों ओर अपनी परिक्रमा करवाता है, प्रकाश देता है, अपने ताप से ओषधि-वनस्पतियों को उगाता, बढ़ाता, पुष्पित-फलित तथा परिपक्व करता है। आप अपने राष्ट्र की फुलवारी को सींचिए, सप्राण कीजिए, बढाइए, विकसित कीजिए, फलवती कीजिए। मैं आपको इन्द्र के इन्द्रत्व से अभिषिक्त करता हूँ। वैदिक इन्द्र के कर्म हैं वर्षा करना, वृत्रादि का वध करना तथा जो भी वीरता के कार्य हैं, उन्हें करना। आप भी प्रजा पर सुखसमृद्धि की वर्षा कीजिए, वैरियों का संहार कीजिए और अन्य भी वीरता के सेवाकार्य कीजिए। | हे राजन्! आप सच्चे अर्थों में क्षत्रपति बनिए, क्षात्र तेज को चारों ओर बखेरिए, चोरों से, आघातों से, शत्रु के आक्रमणों से राष्ट्र की रक्षा कीजिए। शत्रुओं की वाणवर्षा, बम-गोलों की वर्षा, तोप-गोलों की वर्षा विफल करके राष्ट्र की रक्षा कीजिए। हम आपका जयकार करते हैं, आपके सहयोगियों का जयकार करते हैं, आपके अभिषेक का जयकार करते हैं और आपसे आशा करते हैं कि आप अपने कार्यकाल में राष्ट्र को ऊँचा उठायेंगे।

पादटिप्पणियाँ

१. द्युम्नं द्योततेः, यशो वा अन्नं वा। निरु० ५.३४

२. दो अवखण्डने। द्यन्ति खण्डयन्ति ये ते दिद्यवो बाणाः। ‘इषवो वै दिद्यवः इषुवधमेवैनमेतदतिनयति’ श० ५.४.२.९ इति श्रुतेः । तानतक्रम्यशत्रुप्रयुक्तान् इष्वादीन् अपसार्य इमं यजमानं हे सोम पाहि पालय–म० |

३. अथास्य कर्म रसानुप्रदानं वृत्रवधः या च का च बलकृति: इन्द्रकमेवतत् । निरु० ७.१०

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार 

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले विमान -रामनाथ विद्यालंकार

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले  विमान-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः देववातः । देवता नावः । छन्दः विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

प्र पर्वतस्य वृषभस्य पृष्ठान्नावश्चरन्ति स्वसिचऽइयानाः । ताऽआर्ववृत्रन्नधुरागुक्ताऽअहिं बुध्न्युमनुरीयमाणाः । विष्णोर्विक्रमणमसि विष्णोर्विक्रान्तमसि विष्णोः क्रान्तमसि॥

-यजु० १० । १९

( वृषभस्य) वर्षा करनेवाले ( पर्वतस्य ) मेघ’ के ( पृष्ठात् ) पृष्ठ से ( स्वसिचः) स्वयं को मेघजल से सिक्त करनेवाली ( इयानाः३ ) गतिशील, वेगवती (नावः ) विमान रूपिणी नौकाएँ ( चरन्ति ) चलती हैं । ( ताः ) वे ( बुध्न्यम् अहिम् अनु रीयमाणाः५) अन्तरिक्षवर्ती मेघ में गति करती हुई ( अधराक् उदक्ताः ) नीचे से ऊपर जाती हुई (आववृत्रन्६ ) चक्कर काटती हैं। हे विमानरूप नौका की उड़ान ! तू (विष्णोःविक्रमणम् असि ) सूर्य का विक्रमण है, सूर्य की यात्रा के समान है, (विष्णोःविक्रान्तम् असि ) वायु का चरण-न्यास है, ( विष्णोः क्रान्तम् असि ) शिल्प-यज्ञ की क्रान्ति है। |

पर्वत शब्द निघण्टु कोष में मेघवाची शब्दों में पठित है। वेद में इसके पहाड़ और मेघ दोनों अर्थ होते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में मेघों के मध्य चलनेवाली नौकाओं का वर्णन है। मेघ अन्तरिक्ष में होते हैं । अन्तरिक्ष में नौकाएँ नहीं चल सकतीं, नौकाओं की आकृतिवाले विमान ही चल सकते हैं। नौका की आकृतिवाला होने से लक्षणा के प्रयोग से विमानों को नौका कह दिया गया है। अन्तरिक्ष में चलनेवाली नौकाओं की चर्चा वेद में अन्यत्र भी मिलती है। सामान्यतः जो विमान अन्तरिक्ष में उड़ते हैं, वे बादलों से नीचे उड़ते हैं। इस मन्त्र में बादलों में या बादलों से भी ऊपर उड़ान भरनेवाले विमानों का वर्णन है। ये विमान भूमि से अन्तरिक्ष में पहुँच कर मेघों में घुसकर  वर्षा करनेवाले मेघ के एक छोर से दूसरे छोर तक उडान भरते हुए चले जाते हैं। मेघ-जल से ये गीले भी होते रहते हैं, फिर भी इनमें कोई विकार नहीं आता। ये बहुत वेग से चलते हैं। ‘बुध्न्य अहि’ अन्तरिक्षवर्ती मेघ का ही नाम है। उसमें ये गतिशील होते हैं। नीचे से ऊपर की ओर भी उड़ान लेते हैं। बादल को पार करके उससे ऊपर भी पहुँच जाते हैं। बादलों के आर-पार, नीचे-ऊपर चक्कर काटते हैं। अन्त में विमानरूप नौका की उड़ान के विषय में कहा गया है कि तू विष्णु सूर्य के विक्रमण या उसकी यात्रा के समान है। जैसे सूर्य प्राची में उदित होकर उत्क्रमण करता-करता मध्याकाश में पहुँच जाता है, ऐसे ही विमान भी भूमि से ऊपर उठता उठता अन्तरिक्षवर्ती मेघों के बीच में पहुँच कर यात्रा करता है और कभी उससे भी ऊपर उठ जाता है। विष्णु का अर्थ सूर्य के अतिरिक्त वायु भी होता है। विमान की उड़ान वायु के चरण न्यास के समान है, जैसे वायु कभी पूर्व दिशा की ओर, कभी पश्चिम दिशा की ओर, कभी दक्षिण या उत्तर दिशा की ओर तथा कभी नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर, और कभी चक्रवात के रूप में चलता है, ऐसे ही विमान भी उड़ान भरता है। विष्णु का अर्थ यज्ञ भी होता है । शिल्प भी एक यज्ञ है। विमान का निर्माण और उसकी विविध दिशाओं में उड़ाने भरना शिल्पयज्ञ की एक क्रान्ति है। | आओ, हम भी विमानों में बैठकर मेघमण्डल की यात्रा का आनन्द लें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पर्वतळमेघ । निघं० १.१०

२. स्वं सिञ्चन्तीति स्वसिचः ।

३. इण् गतौ, चानश्=आन प्रत्यय।

४. अहि=मेघ, निघं० १.१०, अहिर्बुध्न्यः योऽहि: स बुध्न्यः , बुध्नम्।अन्तरिक्षं तन्निवासात् । निरु० १०.३०।।

५.रीयते= गच्छति । निघं० २.१४।

६. आ वृतु वर्तने, णिच्, लुङ्, रक् का आगम छान्दस।

७. निरु० २.२२ ।

८. नौभिरात्मन्वतीभिः अन्तरिक्षप्रद्भिः अपोदकाभि: । ऋ० १.११६.३

९. (विष्णो:) व्यापकस्य वायो:। -द० ।

१०.यज्ञो वै विष्णुः । –श० १.१.२.१३ 3 u

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले  विमान-रामनाथ विद्यालंकार 

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः देवरातः । देवता अग्न्यादयो मन्त्रोक्ताः । छन्दः आर्षी जगती ।

अग्नये गृहपतये स्वाहा सोमय् वनस्पतये स्वाहा मुरुतमोजसे स्वाहेन्द्रस्येन्द्रियाय स्वाहा पृथिवि मातुर्मा मा हिसीर्मोऽअहं त्वाम् ॥

-यजु० १० । २३

राज्याभिषेक के समय नवनिर्वाचित राजा आहुतियाँ दे रहा है—(अग्नयेगृहपतयेस्वाहा) गृहपति अग्नि के लिए आहुति हो। ( सोमाय वनस्पतयेस्वाहा) सोम वनस्पति के लिए आहुति हो। ( मरुताम् ओजसे स्वाहा ) सैनिकों के ओज के लिए आहुति हो। ( इन्द्रस्य इन्द्रियाय स्वाहा ) इन्द्र के इन्द्रत्व के लिए आहुति हो। ( पृथिवी मातः ) हे पृथिवी माता ! ( मा मा हिंसीः ) तू मेरी हिंसा न करना, ( मो अहं त्वाम् ) न मैं तेरी हिंसा करूंगा।

मुझे आप प्रजाजनों ने राजा के पद पर निर्वाचित और अभिषिक्त किया है। मैं यह जानता हूँ कि यह पद बड़े ही उत्तरदायित्व का है। जिन बड़ी-बड़ी आशाओं को लेकर आपने मेरा राजतिलक किया है, वे सब मुझे स्मरण हैं और मैं यह दृढ़ सङ्कल्प के साथ निवेदन करता हूँ कि उन सबको मैं भरसक पूर्ण करने के लिए उद्यत रहूँगा। आज अपने कार्यालय में जाने से पूर्व प्रथम दिन मैं यज्ञ रचा कर अपने कर्तव्य की कुछ बातें अपने और आपके सम्मुख रखने के लिए आहुतियाँ दे रहा हूँ। प्रथम आहुति ‘अग्नि’ के नाम पर देता हूँ। अग्नि गृहपति है, गृहों का रक्षक है। प्रत्येक गृह में अग्नि अनेक रूपों में आकर गृहों की कार्यसिद्धि करता है। अग्निहोत्र में हम अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। भोजन बनाने के लिए हम अग्नि का प्रयोग करते हैं। अन्धकार में प्रकाश  करने के लिए भी हम विद्युदग्नि को ही चमकाते हैं। सूर्य भी एक अग्नि ही है, जो सारे दिन आकाश में विद्यमान रहकर हमें प्राण प्रदान करता है। इस भौतिक अग्नि के अतिरिक्त श्रद्धा की अग्नि, ईशस्तुति, ईशप्रार्थना, ईशोपासना की अग्नि, महत्त्वाकांक्षा की अग्नि, दृढ़ता की अग्नि, राष्ट्रप्रेम की अग्नि, शत्रुसंहार की अग्नि, राष्ट्रहित बलिदान की अग्नि आदि अग्नियों की भी हमारे राष्ट्रगृह के रक्षार्थ आवश्यकता पड़ती है। यह अग्नि राष्ट्र के प्रत्येक गृह में और प्रत्येक राष्ट्रवासी के हृदय में प्रज्वलित रहे इसके लिए मैं सदा प्रयत्नशील रहूँगा।

दूसरी आहुति मैं सोम वनस्पति’ के नाम से देता हूँ। सोम को वेद में ओषधियों का राजा कहा गया है, अत: सोम के अन्तर्गत सभी ओषधियाँ आ जाती हैं। मैं राष्ट्रवासियों की पुष्टि और रोगनिवृत्ति के लिए सभी उपयोगी ओषधियों के संग्रहार्थ और पर्यावरणशुद्धि, वृष्टि आदि के लिए वनस्पतियों के आरोपणार्थ एवं संवर्धनार्थ भी उद्यत रहूंगा। तीसरी आहुति मैं ‘मरुतों के ओज’ के नाम से देता हूँ। मरुत राष्ट के वे वीर क्षत्रियजन हैं, जो सदा राष्ट्ररक्षार्थ कमर कसे रहते हैं। अतः राष्ट्र की सैन्यशक्ति के विकास द्वारा क्षात्रबल के संवर्धन का भी मैं व्रत लेता हूँ। चतुर्थ आहुति मैं इन्द्र के इन्द्रत्व के लिए देता हूँ। इन्द्र वेद में जिनका प्रतिनिधित्व करता है, उनमें ऐश्वर्य भी एक है। अतः इन्द्र के इन्द्रत्व का अभिप्राय है राष्ट्र की ऐश्वर्यशालिता। मेरा राष्ट्र ऐश्वर्य में किसी राष्ट्र से कम न। रहे, इसके लिए भी मैं सजग रहूँगा।

इसके अतिरिक्त पृथिवी हम सबकी माता है। वह प्रदूषित और विकृत होने पर हमारे विनाश का कारण भी बन सकती है, और पर्यावरणशुद्धि द्वारा तथा अपने धरातल पर और गर्भ में विद्यमान समस्त वस्तुओं के प्रदान द्वारा वह सच्चे अर्थों में हमारी माता भी बन सकती है। अतः पृथिवी की पर्यावरणशुद्धि के लिए भी मैं सदा सचेत रहुँगा, जिससे हम उसकी हिंसा न करें और वह भी हमारी हिंसा का कारण न बने ।

ईश्वर को साक्षी रख कर आप सब प्रजाजनों के सम्मुख इन व्रतों को ग्रहण करता हूँ। प्रभु मुझे इन व्रतों के पालन की शक्ति दें और प्रजाजनों को अधिकार है कि यदि मैं इन व्रतों को पालन करने में असफल रहूँ, तो मुझे राजगद्दी से उतार दें।

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार 

राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार

राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वामदेवः। देवता राजपत्नी। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्योनासि सुषदसि क्षेत्रस्य योर्निरसि स्यनामासद सुषदमासीद क्षत्रस्य योनिमासीद॥

-यजु० १० । २६

हे राजपत्नी! तू वेद की दृष्टि में (स्योना असि) सुखदायिनी है, ( सुषदा असि ) शोभन व्यवहार में स्थित है, ( क्षत्रस्य योनिः असि ) क्षात्रबल, राजन्याय तथा राजनीति का केन्द्र है, अत: (स्योनाम् ) सुखदान की विद्या को ( आसीद ) प्राप्त कर, ( सुषदाम् ) शोभन व्यवहार की विद्या को ( आसीद) प्राप्त कर, ( क्षत्रस्य योनिम् ) क्षात्रबल, राजन्याय तथा राजनीति की विद्या को ( आसीद) प्राप्त कर ।

हे राजपत्नी! आज आपके पति को प्रजा ने राजा के रूप में निर्वाचित किया है। राज्यसञ्चालन में राजपत्नी के भी कुछ कर्तव्य होते हैं। वेद की दृष्टि में राजपत्नी को प्रजा के लिए सुखकारिणी होना चाहिए। उसे व्यावहारिक विद्या में भी निपुण होना चाहिए, जिससे जब जिसके साथ जैसा व्यवहार या लोकाचार करना उचित हो, वैसा कर सके। उसे ‘क्षत्र की योनि’ भी होना चाहिए। क्षेत्र का अर्थ है। क्षात्रबल, क्षत्रिय धर्म, राजन्याय और राजनीति। यदि आपने पहले से ही ये विद्याएँ सीखी हुई हैं, तब तो आपका स्वागत है, आप अपनी इन विद्याओं से राष्ट्र को अपने पति के साथ मिलकर लाभान्वित करें। परन्तु यदि आप इन विद्याओं में निष्णात नहीं हैं, तो इनकी सुशिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिए। दयानन्द स्वामी अपने भाष्य में इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं कि ‘‘राजपत्नी को यजुर्वेद ज्योति चाहिए कि संब स्त्रियों का न्याय और उनकी सुशिक्षा वह करे। स्त्रियों के न्याय और सुशिक्षा पुरुषों से नहीं कराने चाहिये, क्योंकि पुरुषों के समीप स्त्रियाँ लज्जित और भययुक्त होकर यथावत् बोलकर अपनी बात नहीं कह सकतीं और न ही अध्ययन कर सकती हैं।” इससे ज्ञात होता है कि राजपत्नी स्त्रियों के न्यायविभाग और शिक्षाविभाग की अधिकारिणी होगी। उसके नीचे स्त्रियों को न्याय करनेवाली तथा कन्याओं को अध्यापन करनेवाली अन्य स्त्रियाँ होंगी। स्वामीजी का यह सुदृढ़ विचार है कि लड़कों की पाठशालाओं में सब पुरुष अध्यापक हों तथा कन्याओं की पाठशालाओं में सब स्त्रियाँ अध्यापिकाएँ हों।

राजनीति के अन्य कार्यों का उत्तरदायित्व भी राजपत्नी पर होगा तथा आवश्यकता पड़ने पर वह शत्रुओं के प्रति संग्राम का नेतृत्व भी करेगी। स्वामीजी लिखते हैं  संग्राम में राजा के अभाव में रानी सेनापति हो और जैसे राजा युद्ध कराने के लिए वीरों को प्रेरणा दे और उत्साहित करे, वैसे ही वह भी आचरण करे।”२

पादटिप्पणियाँ

१. कर्मकाण्डक व्याख्यानुसार इस कण्डका द्वारा खदिर की लकड़ी सेबना तथा रस्सी से बुनी आसन्दी (पीठिका) लाकर उस पर यजमान राजा को बैठाया जाता है। हमने दयानन्दभाष्य से दिशानिर्देश लेकर राजपत्नीपरक व्याख्या की है। २. ऋग्भाष्य ६.७५.१३ के संस्कृत भावार्थ का अस्मत्कृत अनुवाद ।

राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार

राजा का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

राजा  का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः शुन:शेपः । देवता यजमानः । छन्दः विराड् धृतिः ।

अभिभूरस्य॒तास्ते पञ्च दिशः कल्पन्तां ब्रह्नस्त्वं ब्रह्मासि सवितासि त्यप्रसव वरुणोऽसि सत्यौजाऽइन्द्रोऽसि विशौजा रुद्रोऽसि सुशेवः । बहुंकार श्रेयस्कर भूर्यास्करेन्द्रस्य वज्रोऽसि तेने मे रध्य ।।

-यजु० १० । २८ |

हे राजन् ! तू ( अभिभूः असि ) दुष्टों का तिरस्कर्ता है। (एताः ते ) ये तेरी (पञ्च दिशः ) पाँच दिशाएँ-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊध्र्वा ( कल्पन्ताम् ) प्रजा को सुख देने में समर्थ होवें । ( ब्रह्मन्) हे महिमामय ! ( त्वं ब्रह्म असि ) तू ब्रह्म है, चतुर्वेदवित् है, (सविता असि ) सविता है, प्रेरक है, ( सत्यप्रसवः ) सत्य को जन्म देनेवाला (वरुणःअसि ) पाप-निवारक, वरणीय है, ( सत्यौजाः इन्द्रः असि ) सच्चे ओजवाला इन्द्र है, ( विशौजाः ) प्रजाओं में ओज भरनेवाला ( सुशेवः ) उत्तमसुखकारी (रुद्रःअसि ) रुद्र है। ( बहुकार ) हे बहुत-से कार्य करनेवाले ! ( श्रेयस्कर ) हे प्रशस्यकारी ! ( भूयस्कर) हे प्रचुर धन-धान्य आदि उत्पन्न करनेवाले ! तू (इन्द्रस्यवज्रः असि) इन्द्र का वज्र है। ( तेन ) इस कारण ( मे ) मुझे, हम प्रजाजनों को, (रध्य ) कार्यसिद्धि या सफलता प्रदान कर ।

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा का प्रतिनिधि कह रहा है। हे वीर ! हम तुम्हें राज्यशासन के लिए सर्वगुणसम्पन्न मानकर प्रजा के बीच से चुनकर लायें हैं और बड़े उत्साह के साथ हमने तुम्हारा अभिषेक किया है। हे राजन् ! तुम ‘अभिभू’ हो, दुष्टों का तिरस्कार करनेवाले हो । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊध्र्वा इन पाँचों दिशाओं में तुम अपनी कीर्ति का विस्तार यजुर्वेद ज्योति करनेवाले हो। ये पाचों दिशाएँ तुम्हारी प्रजा के लिए सुखदायक हों। तुम्हारे राज्य की किसी भी दिशा में कोई सत्पुरुष चला जाए, तो उसे स्वागत-सत्कार प्राप्त हो, ठोकरें न खानी पड़े। हे राष्ट्रधुरन्धर ! तुम देवों का अंश लेकर बने हो। हे ब्रह्मन् ! हे परम वृद्धि को प्राप्त राजन् ! तुम ‘ब्रह्मा’ हो, चतुर्वेदवित् हो। अतः वेदानुकूल ही प्रजा पर शासन करो। हे देव! तुम ‘सविता’ हो, प्रजा को शुभ कार्यों की एवं शुभ योजनाओं की प्रेरणा देनेवाले हो। हे सम्मानास्पद ! तुम सत्यप्रसव हो, सत्य को जन्म देनेवाले हो। तुम वरुण हो, पापनिवारक तथा वरणीय हो, श्रेष्ठ हो, अनृताचरण करनेवाले को पाशों से बाँधो और सत्यव्रती को पुरस्कृत करो। हे प्रजापालक! तुम सच्चे ओज से ओजस्वी ‘इन्द्र’ हो, परमैश्वर्यवान् एवं शत्रुविदारक हो। सच्चा ओज प्रकट करके असत्यकर्मा आततायियों का दमन करो। हे राजप्रवर! तुम ‘रुद्र’ हो, दुष्टों को रुलानेवाले तथा सज्जनों के रोगादि सन्ताप को द्रावण करनेवाले हो। तुम अपने इस गुण को क्रियान्वित करो। हे सद्गुणनिधान! तुम ‘सुशेव’ हो, उत्कृष्ट सुख के दाता हो, अतः प्रजा को श्रेष्ठ सुख प्राप्त कराओ। तुम ‘बहुकार’ हो, बहुत से कार्य करने में समर्थ हो। तुम ‘श्रेयस्कर’ हो, तुम्हारे कार्य कल्याणकारक ही होते हैं। तुम ‘भूयस्कर’ हो, प्रचुर धनधान्यादि उत्पन्न करनेवाले हो। तुम इन कर्तव्यों का पालन करते रहना। तुम ‘इन्द्र’ के वज़ हो। जैसे वेद का इन्द्र अपने वज्र से रिपुओं का संहार करता है, वैसे ही तुम भी करते रहना ।

हे नर श्रेष्ठ ! क्योंकि तुम उक्त सब गुणों से सम्पन्न हो, अतः हम प्रजाजनों को सदा सफलताएँ प्रदान करते रहना। हम तुम्हारा भावभीना स्वागत करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. (अभिभू:) दुष्टानां तिरस्कर्ता।

२. (सुशेव:) शोभनं शेवं सुखं यस्य सः । शेव=सुख, निघं० ३.६।।

३. (रध्य) सं राध्नुहि । –द० । रध्य, रध हिंसासंराध्योः, दिवादिः ।

राजा  का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार

योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः शंकुमती गायत्री ।

युक्तेन मनसा यं देवस्य सवितुः सवे। स्वग्र्याय शक्त्या।

-यजु० ११।२

( युक्तेन मनसा ) योगयुक्त मन से ( वयम् ) हम योगी लोग ( देवस्य ) देदीप्यमान तथा प्रकाशक ( सवितुः३) प्रेरक सविता प्रभु की ( सवे ) प्रेरणा में रहते हुए (शक्त्या ) शक्ति से ( स्वग्र्याय ) ब्रह्मानन्द के अधिकारी हों ।।

यदि हम योगमार्ग का अवलम्बन करके यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान द्वारा सविकल्प तथा निर्विकल्पक समाधि को प्राप्त कर लेते हैं, तब तो हम योग के राही हैं ही। परन्तु यदि इस मार्ग को सूक्ष्मता से अपनाये बिना भी किसी विषय में मन को चिरकाल तक केन्द्रित किये रखने की क्षमता हमारे अन्दर है, तो भी हम कुछ अंशों में योगी कहला सकते हैं। कोई साहित्यस्रष्टा लेखक है और चार-पाँच-छह घण्टे तक लगातार उसका मन लेखन में केन्द्रित रहता है, तो वह भी योगी है। एक श्रोता किसी विद्वान् के भाषण को निरन्तर घण्टे भर दत्रचित्त होकर सुनता है और बाद में भाषण वैसा का वैसा सुना देता है, तो वह भी योगी है। अपने मन को किसी विषय में निरन्तर केन्द्रित रख सकना योग की सबसे पहली निशानी है। वह विषय सांसारिक भी हो सकता है और पारमार्थिक भी। वह विषय किसी की सेवा में मन लगाना भी हो सकता है और परमेश्वर में मन लगाना भी। परन्तु किसी दुर्व्यसन में मन लगाना योग की श्रेणी में नहीं आता, भले ही छह-सात घण्टे यजुर्वेद- ज्योति उस दुर्व्यसन में मन लगाने की क्षमता हमारे अन्दर हो । दुर्व्यसनी के मन का आराध्य बदलकर उसे योगी बनाया जा सकता है।

आओ, हम योग रचायें, ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को केन्द्रित करें। ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को जो रमाते हैं, उन्हें वह उत्कृष्ट प्रेरणाएँ ही करता है, उनके मन में शक्ति भरता है। जैसे किसी यन्त्र में बिजली द्वारा असीम कार्य करने की शक्ति भर दी जाती है, वैसे ही प्रभु का संस्पर्श साधक के अन्दर अपार शक्ति भर देता है। प्रभु से प्राप्त यह चुम्बकीय शक्ति साधक में इतनी कार्यक्षमता उत्पन्न कर देती है कि वह शुभ कार्यों को करते कभी थकता नहीं। साथ ही वह शक्ति साधक को आनन्द की दिव्य धारा में स्नान करा देती है, ब्रह्मानन्द की तरङ्गों से तरङ्गित कर देती है। आओ, हम भी योगी बनकर ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को केन्द्रित करके अथक शक्ति तथा दिव्य आनन्द के भागी बनें।

पादटिप्पणियाँ

१. (युक्तेन) कृतयोगाभ्यासेन ।

२. (वयम्) योगिनः-२० ।

३. सुवति प्रेरयति शुभकर्मसु यः स सविता । षु प्रेरणे, तुदादिः ।

४. स्व: दिव्यं ज्योतिः गम्यते प्राप्यते यत्र स स्वर्गः। तत्र भवः स्वर्यः दिव्यानन्दः ।

योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः।

युजे वां ब्रह्म पूर्घ्यं नमोभिर्वि श्लोकऽएतु पथ्येव सूरेः। शृण्वन्तु विश्वेऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि स्थुः ।।

 -यजु० ११ । ५

हे यजमान पति-पत्नी ! ( वाम् ) तुम दोनों के ( पूर्त्य ब्रह्म ) पूर्व योगियों से प्रत्यक्षीकृत ज्ञान को ( नमोभिः ) नमन के भावों से ( युजे ) जोड़ता हूँ। तुम्हें ( श्लोकः ) यश (विएतु) विशेषरूप से प्राप्त हो, ( सूरेः पथ्या इव ) जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है। इस धर्मोपदेश को ( शृण्वन्तु ) सुनें ( विश्वे) सब (अमृतस्य पुत्राः) अविनाशी सविता जगदीश्वर के पुत्र, ( ये ) जो ( दिव्यानि धामानि ) प्रकाशित धामों में ( आ तस्थुः ) आकर स्थित है

तुमने गुरुचरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया है, समस्त विद्याओं और कलाओं में तुम निष्णात हो चुके हो । समावर्तन संस्कार करा कर आचार्य से विदा लेकर अपने घर आकर विदुषी कन्या से विवाह करके गृहस्थाश्रम बसाकर आज तुम दोनों पति-पत्नी लोकोपकार-यज्ञ में प्रवृत्त हुए हो। पर यह क्या ! तुम्हारे अन्दर तो विद्वत्ता का अहङ्कार हिलोरें ले रहा है। तुम समझते हो कि तुम-जैसे विद्वान् और विदुषी संसार में दुर्लभ हैं, तुम्हारी विद्वत्ता की थाह पाना असम्भव है। परन्तु भले ही तुम चारों वेद, चारों उपवेद, छहों वेदाङ्ग, षड् दर्शन तथा इनसे अतिरिक्त भी इनकी शाखा-प्रशाखाओं सहित समग्र विद्याओं के धनी हो चुके हो, तो भी ये विद्याएँ तब तक किसी  काम आनेवाली नहीं हैं, जब तक तुम्हारे अन्दर नम्रता नहीं आती। अहङ्कार या अभिमान मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं। ज्ञान के साथ नमन, नम्रता या विनय का गठजोड़ होना अनिवार्य है। वह विद्या विद्या नहीं है, जो विनय को नहीं देती। कवि ने कहा है-‘विद्या विनय को देती है, विनय से मनुष्य पात्रता को प्राप्त करता है। पात्र बनने से उसे धन मिलता है। धन पाकर वह धर्माचरण करता है। इससे वह सुख पाता है।’४ अहङ्कारी होकर यदि तुम धर्मोपदेश करोगे, ज्ञानचर्चा करोगे, तो उसका कुछ फल नहीं होगा। तुम्हारे अन्दर विनय आते ही विद्या फलवती होने लगेगी। इसलिए तुम्हारे महान् ज्ञान को मैं विनय को भावों के साथ जोड़ता हूँ। विनय के आने से तुम्हें यश प्राप्त होगा, जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है।

विद्या और विनय के योग की बात मैं केवल तुम्हारे लिए ही नहीं कह रहा हूँ, किन्तु अविनाशी सविता प्रभु के सभी पुत्र-पुत्रियाँ इस उपदेश को सुनें, समझें, जीवन में लायें । किसी देश-विशेष के नर-नारियों के लिए ही यह विद्या विनय के सङ्गम का उपदेश नहीं है, किन्तु प्रभु से प्रकाशित सभी धामों में जो लोग स्थित हैं, उन सभी के लिए यह वेदोपदेश है। आओ, हम भी अपने अन्दर विद्या और विनय का सङ्गम करें।

पादटिप्पणियाँ

१. (पूर्व्यम्) पूर्वयोगिभिः प्रत्यक्षीकृतम्-२० । पूर्व शब्द से ‘पूर्वैःकृतमिनयों च, पा० ४.४.१३३ से कृत अर्थ में ये प्रत्यय।

२. (पथ्या) पथि साध्वी गति:-द० | पथोऽनपे ता पथ्याधर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते’, पा० ४.४.९२ से यत् प्रत्यय।।

३. (अमृतस्य) अविनाशिनो जगदीश्वरस्य-२० ।

४. विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।।पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद् धर्मं ततः सुखम् ॥

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार