Category Archives: आर्य समाज

ईश्वर निराकार है – एक तर्कपूर्ण समाधान

शंका निवारण :

पूर्वपक्षी : क्या ईश्वर के हाथ पाँव आदि अवयव हैं ?

उत्तरपक्षी : ये शंका आपको क्यों हुई ?

पूर्वपक्षी : क्योंकि बिना हाथ पाँव आदि अवयव ईश्वर ने ये सृष्टि कैसे रची होगी ? कैसे पालन और प्रलय करेगा ?

उत्तरपक्षी : अच्छा चलिए में आपसे एक सवाल पूछता हु – क्या आप आत्मा रूह जीव को मानते हैं ?

पूर्वपक्षी : जी हाँ – में आत्मा को मानता हु – सभी मनुष्य पशु आदि के शरीर में है – पर ये मेरे सवाल का जवाब तो नहीं – मेरे पूछे सवाल से इस जवाब का क्या ताल्लुक ? कृपया सीधा जवाब दीजिये।

उत्तरपक्षी : भाई साहब कुछ जवाब खोजने पड़ते हैं – खैर चलिए ये बताये शरीर में हाथ पाँव आदि अवयव होते हैं क्योंकि जीव को इनसे ही सभी काम करने होते हैं – पर जो आत्मा होती है उसके अपने हाथ पाँव भी होते हैं क्या ?

पूर्वपक्षी : नहीं होते।

उत्तरपक्षी : क्यों नहीं होते ?

पूर्वपक्षी : #$*&)_*&(*#$*$()
(सर खुजाते हुए – कोई जवाब नहीं – चुप)

उत्तरपक्षी : जब एक आत्मा जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के अधीन है – बिना हाथ पाँव अवयव आदि के – मेरे इस शरीर में विद्यमान रहकर – शरीर को चला सकती है – तो ईश्वर जो सर्वशक्तिमान है – वो ये सृष्टि का निर्धारण उत्पत्ति प्रलय सञ्चालन वो भी बिना हाथ पाँव आदि अवयव क्यों नहीं कर सकता ? इसमें आपको कैसे शंका ? कमाल के ज्ञानी हो आप ?

पूर्वपक्षी : #$*&)_*&(*#$*$()
(चुपचाप गुमसुम चले गए)

वेदो की कुछ पर अतिज्ञानवर्धक मौलिक शिक्षाये :

1. जीवन भर (शत समां पयंत) निष्काम कर्म करते रहना चाहिए। इस प्रकार का निष्काम कर्म पुरुष में लिप्त नहीं होता है। (यजु० ४०।२)

2. जो ग्राम, अरण्य, रात्रि-दिन में जानकार अथवा अजानकार बुरे कर्म करने की इच्छा है अथवा भविष्य में करने वाले हैं उनसे परमेश्वर हमें सदा दूर रखे।

3. हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर वा विद्वन आप हमें दुश्चरित से दूर हटावे और सुचरित में प्रवृत करे (यजु० ४।२८)

4. हे पुरुष ! तू लालच मत कर, धन है ही किसका। (यजु० ४०।१)

5. एक समय में एक पति की एक ही पत्नी और एक पत्नी का एक ही पति होवे। (अथर्व० ७।३७।१)

6. हमारे दायें हाथ में पुरुषार्थ हो और बायें में विजय हो। (अथर्व० ७। ५८।८)

7. पिता पुत्र, भाई-बहिन आदि परस्पर किस प्रकार व्यवहार करे – इसका वर्णन अथर्व० ३।३० सूक्त में हैं।

8. द्यूत नहीं खेलना चाहिए। इसको निंद कर्म समझे। (ऋग्वेद १०।३४ सूक्त )

9. सात मर्यादाएं हैं जिनका सेवन करने वाला पापी माना जाता है। इन सातो पापो को नहीं करना चाहिए। स्तेय, तलपारोहण, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान, दुष्कृत कर्म पुनः पुनः करना, तथा पाप करके झूठ बोलना – ये साथ मर्यादाये हैं। (ऋग्वेद १०।५।६)

10. पशुओ के मित्र बनो और उनका पालन करो। (अथर्व० १७।४ और यजु० १।१)

11. चावल खाओ यव खावो उड़द खाओ तिल खाओ – इन अन्नो में ही तुम्हारा भाग निहित है। (अथर्व० ६।१४०।२)

12. आयु यज्ञ से पूर्ण हो, मन यज्ञ से पूर्ण हो, आत्मा यज्ञ से पूर्ण हो और यज्ञ भी यज्ञ से पूर्ण हो। (यजु० २२।३३)

13. संसार के मनुष्यो में न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। सब एक परमात्मा की संतान हैं और पृथ्वी उनकी माता है। सबको प्रत्येक के कल्याण में लगे रहना चाहिए (ऋग्वेद ५।६०।५)

14. जो samast प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है उसे किसी प्रकार का मोह और शोक नहीं होता है। (यजु ४०।६)

15. परमेश्वर यहाँ वहां सर्वत्र और सबके बाहर भीतर भी है। (यजु० ४०।५)

श्री राम द्वारा वनवास के दौरान भरत को नीतिगत उपदेश

जब भरत राम को वन से अयोध्या लौटाने के लिए वन में गए तो श्री राम ने कुशल प्रश्न के बहाने भरत को राजनीति का उपदेश दिया, वह प्रत्येक राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के लिए सदैव स्मरणीय व अनुकरणीय है।

प्रभु राम भरत से पूछते हैं –

1. क्या तुम सहस्रों मूर्खो के बदले एक विद्वान के कथन को अधिक महत्त्व देते हो ?

2. क्या तुम जो व्यक्ति जिस कार्य के योग्य है उससे वही काम लेते हो ?

3. तुम्हारे कर्मचारी बाहर भीतर पवित्र है न ? वे किसी से घूस तो नहीं लेते ?

4. यदि धनी और निर्धन में विवाद हो, और वह विवाद न्यायालय में विचाराधीन हो, तो तुम्हारे मंत्री धन के लोभ में आकर उसमे हस्तक्षेप तो नहीं करते ?

5. तुम्हारे मंत्री और राजदूत अपने ही देश के वासी अर्थात अपने देश में उत्पन्न हुए हैं न ?

6. क्या तुम अपने कर्मचारियों को उनके लिए नियत वेतन व भत्ता समय पर देते हो ? देने में विलम्ब तो नहीं करते ?

7. क्या राज्य की प्रजा कठोर दंड से उद्विग्न होकर तुम्हारे मंत्रियो का अपमान तो नहीं करती ?

8. तुम्हारा व्यय कभी आय से अधिक तो नहीं होता ?

9. कृषि और गौपालन से आजीविका चलाने वाले लोग तुम्हारे प्रीतिपात्र है न ? क्योंकि कृषि और व्यापार में संलग्न रहने पर ही राष्ट्र सुखी रह सकता है।

10. क्या तुम वेदो की आज्ञा के अनुसार काम करने में सफल रहते हो ?

11. मिथ्या अपराध के कारण दण्डित व्यक्तियों के जो आंसू गिरते हैं, वे अपने आनंद के लिए शासन करने वाले राजा के पुत्र और पशुओ का नाश कर डालते हैं।

मर्यादा पुरोषत्तम राम दिग्विजयी थे, किन्तु सम्राज्य्वादी नहीं। कालिदास ने रघुवंश में रघुकुल की परंपरा का विवेचन करते हुए लिखा है –

“आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव”

अर्थात जिस प्रकार मेघ पृथ्वी से जल लेकर वर्षा द्वारा उसी को लौटा देते हैं, उसी प्रकार सत्पुरुषों का लेना भी देने = लौटाने के लिए होता है।

इसी नीति का अनुसरण करते हुए बाली से किष्किन्धा का राज्य जीत कर, अपने राज्य में न मिला कर, उसके भाई सुग्रीव को दे दिया और लंका पर विजय प्राप्त करके उसका राज्य रावण के भाई विभीषण को सौंप दिया।

मित्रो इस देश में ऐसे ही महापुरष उत्पन्न होते आये हैं, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, वीर शिवाजी आदि अनेक उदहारण अभी हाल के ही हैं,

फिर ये अकबर गौरी – जैसे चोर, डाकू, लुटेरे, कैसे इस देश में महान हो गए ?

ईसा मुक्तिदाता नहीं – बाइबिल

मुख्य रूप से मान्य ग्रन्थ तो ईसाइयो का ही है – पर कुछ भारतीय मुख्य रूप से हिन्दू भाई खासकर – आदिवासी – पिछड़ा वर्ग एवं हमारे अति प्रिय दलित भाई तथा कुछ ऐसे परिवार भी जो पढ़े लिखे समझदार हैं धनाढ्य भी पर फिर भी अपने सत्य सनातन शुद्ध वैदिक धर्म को त्याग – अन्धविश्वास पाखंड और अनाचार में न जाने क्यों प्रवत्त होते जा रहे है ?

शायद इसकी एक बड़ी वजह है – ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दुओ के मानस पटल पर अंकित देवी देवताओ की भाव भंगिमाओं रूपों आकृति से मिलते जुलते रूप आकार आदि से ईसा की लुभावनी मूर्ति फोटो आदि बना कर “हिन्दुओ” के देवी देवताओ में “सबसे बड़ा देवता” अथवा “ईश्वर पुत्र” घोषित करवाना और “इकलौता मुक्तिदाता” बताकर धर्मांतरण करवाना यदि इससे काम न बने तो हिन्दुओ खासकर गरीब, निर्बल, आदिवासी तथा दलित भाइयो को धन का लालच देकर उनको ईसाई बनाना।

आखिर हिन्दुओ के देवी देवताओ की शरण में इस मुक्तिदाता को क्यों जाना पड़ा ? ऐसी क्या मजबूरी ईसाइयो के लिए हो गयी की जिस ईसा को मुक्तिदाता बताते नहीं थकते उसे हिन्दू देवी देवताओ के जैसे रूप आकर आदि से हिन्दुओ को दिखाकर मुर्ख बनाकर ठगने का गोरखधंधा आखिर एक अन्धविश्वास नहीं तो क्या है ? यदि हिन्दुओ के देवी देवता मुक्ति नहीं दे सकते तो किस प्रकार ईसा उन्ही देव देवी के रूप आकार धारण कर मुक्ति करवाएगा ?

आइये एक नजर डाले आखिर ईसा अकेला मुक्तिदाता कैसे ? ये सवाल इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ईसा से भी बड़ा मुक्तिदाता था ईसा के ही समय पर फिर ऐसा क्या हुआ जो ईसा को ही मुक्तिदाता माना गया अथवा जबरदस्ती घोषित किया कहीं ऐसा तो नहीं एक समुदाय विशेष पर थोपा गया “तथाकथित मुक्तिदाता” ????

आइये एक नजर डाले ——-

हजरत यूहन्ना ने हजरत मसीह को शुद्ध किया अर्थात – बपतिस्मा देकर निष्पाप किया, दूसरे शब्दों में प्रायश्चित कराया। यथा –

1. तब यीशु यूहन्ना से बपतिस्मा लेने के लिए उसके पास गलील से यदन को गया। (मत्ती ३-१३)

2. और यीशु बपतिस्मा लेकर तुरंत पानी से ऊपर आया। (मत्ती ३-१६ )

3. बपतिस्मा जो इसका दृष्टांत है, और शरीर का मैल दूर करना नहीं, परन्तु परमेश्वर के साथ सीधे विवेक का अंगीकार है। (पितरस ३-२१)

4. यूहन्ना…………….. पापमोचन के लिए पश्चाताप के लिए बपतिस्मा का उपदेश करने लगा। (लूका ३-३)

केवल ईसा को अकेला मुक्तिदाता बताने वाले और हिन्दू भाइयो को अन्धविश्वास में गर्त करने वाले ईसाई मिशनरी के लोग कृपया बताये ईसा अकेले कैसे मुक्तिदाता हुआ ?

यदि ईसा अकेला मुक्तिदाता है तो फिर हजरत मसीह को हजरत यूहन्ना ने बपतिस्मा किसलिए दिया ?

1. ईश्वर के साथ सीधे विवेक के लिए।

2. पापमोचन के लिए।

3. प्रायश्चित के लिए।

अब पाठकगण स्वयं विचार करे की हजरत मसीह को तो खुद पाप से मुक्ति करवाने के लिए बपतिस्मा लेना पड़ा वो भी हजरत यूहन्ना से फिर ईसा अकेले “मुक्तिदाता” कैसे ?

खैर एक विचार इस पर भी कर लेवे की बपतिस्मा करवाने वाला (ईसा को पाप मुक्त बनाने वाला) हजरत यूहन्ना – बपतिस्मा लेना वाला हजरत मसीह जिसे मनुष्यो की शुद्धि करवाने वाला बताया जाता है – उसने स्वयं हजरत यूहन्ना को पाप क्षमा करवाने वाला (बपतिस्मा) देने वालो में सबसे बड़ा कहा है –

देखिये साक्षी स्वयं इंजील ही है – यथा

“में तुमसे सच कहता हूँ जो स्त्रियों से जन्मा है, उनमे से यूहन्ना बपतिस्मा देने हारे से बड़ा कोई नहीं।” (मत्ति ११-११)

यदि ईसाई भाई कहे की हजरत मसीह खुदा या खुदा के बेटे थे – तो भाई सवाल उठेगा की खुदा के बेटे के पाप स्वयं खुदा नहीं धो सका – उसके लिए हजरत यूहन्ना ही काम आये – इस लिहाज से तो हजरत यूहन्ना खुदा से बड़े सिद्ध हुए और ईसा से भी –

दूसरी बात की ईसा खुदा के अकेले बेटे नहीं थे – जैसे की ईसाई मिशनरी झूठ फैला रही हैं की ईसा ईश्वर के पुत्र थे – देखिये

हजरत मसीह भी स्त्री से जन्मे थे, अतः वह भी यूहन्ना से बड़े नहीं हो सकते जैसा की ईसा ने स्वयं अपने मुह से कहा फिर खुदा या खुदा के बेटे कैसे हो गए ?

यूहन्ना की माता बूढ़ा होने के कारण पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकती थी, और ईसाइयो के कथनानुसार हजरत मरियम कुंवारी होने से संतान उत्पन्न नहीं कर सकती थी।

अतः दोनों ही पवित्र आत्मा से उत्पन्न होने के कारण खुदा बेटे होने चाहिए। यदि हजरत यूहन्ना ईश्वर के बेटे नहीं तो फिर ईसा मसीह कैसे ?

तो अब ईसाई भाई जरा बतावे की ईसा अकेला मुक्तिदाता कैसे और साथ ही अकेला खुदा का बेटा भी सिद्ध नहीं होता – इसलिए प्रार्थना है ये अन्धविश्वास, पाखंड और अनाचार छोड़ – सत्य सनातन वैदिक धर्म में लौटिए – अपने शुद्ध रूप को अपनाये –

क्या ईसा मसीह कुंवारी से उत्पन्न हुए थे ?

यहूदी और ईसाई मत के सम्मिलित मजहबी ग्रन्थ प्राचीन और नवीन सुसमाचार आद्योपांत कई भाषाओ में पढ़े, परन्तु ईसाई मत की सर्वश्रेष्ठता के जितने दावे किये जाते हैं, उन सबका ही घोर खंडन प्रतिवाद इन्ही के माननीय ग्रंथो में स्थान स्थान पर पाया।

इनका सबसे प्रथम और आकर्षक दावा यह है की ईसा मसीह कुंवारी से उत्पन्न हुए थे, मरियम की युसूफ बढ़ई के साथ केवल मंगनी सगाई मात्र हुई थी, कि उसको गर्भवती पाया गया।

बाइबिल में मसीह के कई भाई बहिनो के नाम आते हैं। परन्तु कहीं उनके माँ बाप के परस्पर विवाह की चर्चा नहीं मिलती।

भाइयो ! इसलिए उनके सब भाई बहन कुंवारी और पवित्र आत्मा द्वारा उत्पन्न होने के कारण खुदा के बेटे और बेटियां क्यों नहीं माने जाने चाहिए ?

हजरत मसीह के भाई और बहन –

1. वह क्या बढ़ई का पुत्र नहीं है ? क्या उसकी माता का नाम मरियम और उसके भाइयो के नाम याकूब, योशी, शिमोन और जुदा नहीं हैं ? ।। ५५ ।।
और क्या उसकी बहन हमारे यहाँ नहीं हैं ?।। ५६ ।।

(बाइबिल का नया नियम)

2. जब वह (हजरत मसीह) भीड़ से बात कर ही रहा था तो देखो उसकी माता और भाई बाहर खड़े थे। (मत्ती १२:४६)

3. ये सब एकचित्त होकर स्त्रियों के यीशु की माता मरियम के संग और भाइयो संग प्रार्थना और विनती में लगे रहते थे। (प्रेरितों के काम १:१४)

4. खुदाबंद के भाई और केफस करते हैं। (१ करन्तीनियो को खत ९:५)

5. पर रसूलो में से किसी को नहीं देखा मगर खुदाबंद के भाई याकूब को। (गलैतियो को खत १:१९)

6. जेम्स मसीह का भाई। (पेज १८६ हैण्ड बुक टू दी न्यू टेस्टामेंट)

क्या इन ६ प्रमाणों से यह सिद्ध नहीं होता है की हजरत मसीह के कई भाई और बहन थे ? क्या ये सब बिना विवाह के ही हो गए ? केवल हमको ही नहीं प्रत्युत लंका के बड़े योरोपियन पादरी बैप्टिस्ट होवार्ड जे० चार्टर बी० ए० बी० डी० मिशनरी (Haward J. Charter, B.A.B.D. Baptist Missinary) स्वयं उस प्रश्न को उठाते हैं। यथा –

There has been much controversy on the question of Jame’s exact relation to jesus and opinions are still devided on there two views.
1. That jesus and his brothers Joses, Simon and Juda were the children of Joseph and Mary and younger of our Lord.

2. That they were the children of Joseph by a farmer marriage.
The first of these two views is the most naturat conclusion from the two verses which tell us of the relationship of Jesus to the rest of the family (Matt 13:55)

Is not this the carpenter’s son ? Is not his mother called Marry ? and his brothers, James and Joseph and Simon and Judas ? (Mark 6:2)
Is not this the carpenter, the son of Mary and brothers of James and Joses and Judas and Simon ? And are not his sisters here with us ? And they were offended in Him.

The secon view has some traditional support. P186.

It is said to have been derived from the Apocryphal Gaspels of the second century, and it became popular through Origen’s influence. P.186.

Hand book to the New Testoment by Rev. Haward Baptist.

रेवरेण्ड महोदय के लिखने का आशय यह है की –

“इस बात पर विशेष चर्चा होती है की – जेम्स का मुख्य सम्बन्ध मसीह से क्या था ?” इस विषय में दो सम्मतियाँ ठहराई गयी हैं –

1. जेम्स और उसके भाई जोसफ, सिमौन और जूड़े ये युसूफ और मरियम के पुत्र थे और हमारे प्रभु के भाई थे। यह सम्बन्ध तो वास्तिविक है।

2. यह की वे जेम्स आदि युसूफ की पहली पत्नी से उत्पन्न हुए थे। पहली सम्मति के विषय में तो यह स्वाभाविक परिणाम कई आयतो से मिलता है की युसूफ का सम्बन्ध उसी परिवार से था।

(देखो मत्ती १३:५५ और मार्क ६:२)

इन सभी आयतो में इनको मैरी और युसूफ के पुत्र और पुत्री कहा गया है।
दूसरी सम्मति की प्रचलित कथानक द्वारा – रिवायती दंतकथा के तौर पर पुष्टि होती है, वह अविश्वसनीय है। यानी गैर मुअतबिर है। यह दंतकथा गौस्पेल के नाम से “ओरिजन” के प्रभाव से दूसरी शब्दावली में सर्वसाधारण में फ़ैल गयी।

परिणाम यही निकलता है की मसीह के कई सगे भाई बहन विद्यमान थे, और युसूफ बढ़ई द्वारा मरियम के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। दो पत्नियों की कहानी मनगढ़ंत है।
नोट :- “पहलौटा” शब्द भी यही सिद्ध करता है की मसीह के और भी भाई बहन थे।

अंत में स्वयं रेवरेण्ड महोदय यह परिणाम निकालते हैं –

Many Christians hold this view why prefer to believe in the perpatual verginity of Mary. But of course we must remember that preference is not proof. P.186

अर्थात – बहुत से ईसाई मरियम के नित्यकुमारी रहने के विश्वास को विशेषता देते हैं, परन्तु उनको स्मरण रखना चाहिए की केवल विशेषता देना कोई प्रमाण नहीं है।

इन थोड़े प्रमाणों से ही जिज्ञासु गण इस परिणाम पर सहज ही में पहुँच सकते हैं की मसीह कुमारीपुत्र नहीं थे। हमारा दावा है की मसीह युसूफ के वीर्य से, कई बहन भाई सहित मरियम के गर्भ में उत्पन्न हुए।

बाइबिल की परस्पर विपरीत शिक्षा – विरोधाभासी वचनो का संग्रह – बाइबिल

ईसाई भाई बाइबिल को ईश्वर का पवित्र ग्रन्थ मानते हैं और हिन्दू भाइयो का धर्मांतरण इस बाइबिल के आधार पर करवाते हैं यह कहकर कि बाइबिल ईश्वर की वाणी है – और जो ईसा पर विश्वास ले आवे वो ही मुक्ति पायेगा क्योंकि ईश्वर की “पवित्र पुस्तक” बाइबिल ऐसा निर्देश करती है –

यदि ये बात सही है – तो बाइबिल जैसी पवित्र पुस्तक में कोई भी दोष न होना चाहिए और यदि दोष नहीं होगा तो परस्पर विरुद्ध बाते भी न होनी चाहिए क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ है – और ईश्वर अपनी एक बात से विपरीत बात कभी भी किसी पुस्तक में नहीं देता –

क्योंकि अपनी बात जो पहले बताई उससे विपरीत बात बोलना एक सामान्य मनुष्य का कार्य तो हो सकता है क्योंकि मनुष्य स्वार्थी है – कोई एक बात बोलकर बाद में विपरीत बात बोल सकता है – यदि ईश्वर भी ऐसा विपरीत बर्ताव करने लगे तो उसे ईश्वर नहीं एक सामान्य मनुष्य ही जानना चाहिए।

आइये एक नजर बाइबिल की विपरीत शिक्षाओ पर डालते हैं जिससे सिद्ध होगा की बाइबिल ईश्वर की पुस्तक नहीं महज एक मनुष्य की बनाई है जिसमे इतना विरोधाभास है की आप गिन नहीं सकते –

देखिये –

1. ईश्वर अपने कार्य से संतुष्ट हुआ (उत्पत्ति 1.31)

ईश्वर अपने कार्य से बहुत असंतुष्ट हुआ (उत्पत्ति 6.6)

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2. ईश्वर अपने द्वारा चुने मंदिर में बसता (रहता) है। (2 इतिहास 7.12, 16)

ईश्वर किसी मंदिर में नहीं बसता (रहता) है। (प्रेरितों के काम – 7.48)

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3. ईश्वर प्रकाश में बसता है। (1 तीमुथियुस 6.16)

ईश्वर अन्धकार में बसता है। (1 राजा 8.12) (भजन संहिता 18.11) (भजन संहिता 97.2)

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4. ईश्वर को देखा और आवाज़ सुनी।
(निर्गमन 33.11, 33.23) (निर्गमन 24.9,10, 11) (उत्पत्ति 3.9-10) (उत्पत्ति 32.30) (यशायाह 6.1)

ईश्वर को देखना और ईश्वर की आवाज़ सुनना असम्भव है
(यूहन्ना 1.18) (यूहन्ना 5.37) (निर्गमन 33.20) (1 तीमुथियुस 6.16)

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5. ईश्वर थक जाता है और विश्राम करता है।
(निर्गमन 31.17) (यिर्मयाह 15.6)

ईश्वर कभी नहीं थकता और न ही कभी विश्राम करता है।
(यशायाह 40.28)

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6. ईश्वर सर्वत्र उपस्थित है – सब कुछ सुनता और जानता है
(नीतिवचन 15.3) (भजन संहिता 139.7-10) (अय्यूब 34.21-22)

ईश्वर सर्वत्र उपस्थित नहीं है – न ही सब कुछ सुनता और न ही सब कुछ जानता है –
(उत्पत्ति 11.5) (उत्पत्ति 18.20-21) (उत्पत्ति 3.8) (प्रेरितों के काम – 1.24) (भजन संहिता 139.2-3)

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7. ईश्वर सब मनुष्यो के दिलो की बात और राज़ जानता है –
(प्रेरितों के काम – 1.24) (भजन संहिता 139.2-3)

ईश्वर मनुष्यो के दिलो की बात और राज़ जानने का प्रयास करता है –
(व्यवस्थाविवरण 13.3) (व्यवस्थाविवरण 8.2) (उत्पत्ति 22.12)

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8. ईश्वर सर्वशक्तिमान है –
(यिर्मयाह 32.27) (मत्ती 19.26)

ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है –
(न्यायियों 1.19)

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9. ईश्वर और उसके वचन कभी नहीं पलटते (अपरिवर्तनीय) हैं –
(यहोशू 1.17) (मलाकी 3.6) (यहेजकेल 24-14) (गिनती 23.19)

ईश्वर और उसके वचन पलटते (परिवर्तनीय) हैं –
(उत्पत्ति 6.6) (योना 3.10) (1 शमूएल 2.30-31) (2 राजा 20.1,4,5,6) (निर्गमन 33.1,3,17,14)

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10. ईश्वर निष्पक्ष और न्यायकारी है
(भजन संहिता 92.15) (उत्पत्ति 18.25) (व्यवस्थाविवरण 32.4) (रोमियो 2.11) (यहेजकेल 18.25)

ईश्वर पक्षपाती और अन्यायकारी है –
(उत्पत्ति 9.25) (निर्गमन 20.5) (रोमियो 9.11,12,13) (मत्ती 13.12)

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ये तो मात्र कुछ झलकियाँ हैं – पूरी बाइबिल एक कथन से सर्वथा विपरीत कथनो एवं शिक्षाओ से परिपूर्ण है – यदि ये ईश्वर की पुस्तक होती तो इसमें विरोधाभासी बाते लेशमात्र भी न होती –

इससे सिद्ध है बाइबिल ईश्वरीय ज्ञान नहीं –

कृपया सत्य को जानिए – वेद की और लौटिए – क्योंकि एकमात्र वेद ही – पक्षपात, वैरभाव, विरोधाभासी शिक्षाओ से रहित ईश्वरीय ज्ञान है –

नमस्ते

क्या ईसा मरकर अपना बलिदान दिया और पुनः जिन्दा भी हुए थे ?

विषय को पढ़कर आप सभी चौंक जरूर गए होगे की ये क्या लिखा – सभी ईसाई ऐसा मानते हैं – ईसाई भाई कुछ इस प्रकार कहते हैं कि ईसा ने अपना बलिदान मनुष्यो के लिए दिया जिससे अब जो ईसा को “खुदा का बेटा” माने तो निश्चित ही स्वर्ग जायेगा – ये भी मात्र कपोल कल्पना ही है – क्योंकि यदि ईसा ने अपने आप बलिदान दिया होता तो क्रॉस पर चढाने से पहले और क्रॉस पर भी अपने मारे जाने से दुखी न होता न ही अपनी जान बचाने को ईश्वर से प्रार्थना करता और न ही ईसा मरकर पुनः जिन्दा हो गए थे मगर हमारे ईसाई भाइयो को इसमें भी शायद कोई संदेह दिखलाई नहीं देता इसीलिए इस भ्रान्ति को बहुत बड़ा चमत्कार बताते हुए नासमझ और भोले भाले हिन्दू भाइयो को बहकाते हैं – उनको स्वर्ग का सब्जबाग दिखाते हैं – और हिन्दू भाई इस स्वर्ग के लालच में आकर इस भ्रान्ति को चमत्कार मान अंगीकार करते हुए अपना शुद्ध वैदिक धर्म छोड़ ईसाइयो के अन्धविश्वास और पाखंड रुपी चंगुल में फंस जाते है।

इस चंगुल में फंस कर न तो कभी स्वर्ग अथवा नरक को समझ पाता – और मुक्ति विषय तो पूछिये ही मत क्योंकि जो व्यक्ति अंधविश्वास और पाखंड में सदैव लिप्त रहेगा वो कभी इस जन्म मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो सकता – हाँ अपने किये कर्मो द्वारा स्वर्ग (सुख विशेष) और नरक (दुःख विशेष) प्राप्त अवश्य करता है और इस प्रकार के स्वर्ग नरक को प्राप्त करवाने हेतु कोई ईसा मूसा मुहम्मद आदि की गवाही और राह पर चलना जरुरी नहीं – क्योंकि जो व्यक्ति जैसे कर्म करता वैसे ही फल भोगता है – ये ईश्वरीय विधान है – इसमें कोई तथाकथित “ईश्वर का बेटा” या नबी अथवा रसूल कोई कुछ कम बढ़ती नहीं करवा सकता –

खैर हम विषय पर चलते हैं – विषय है क्या क्या ईसा मरकर अपना बलिदान दिया और पुनः जिन्दा भी हुए थे ?

पूरी बाइबिल (ओल्ड + न्यू टैस्टमैंट) को यदि आप ध्यानपूर्वक पढ़ लेवे तो आपकी शंका खुद ही खत्म हो जाएगी क्योंकि अलग अलग चैप्टर (अध्याय) में अलग अलग तरीके से बताया गया है – जिससे ईसा के मरने पर ही शंका हो जाती है –
दुबारा जिन्दा होने की तो बात ही छोड़िये – दुबारा जिन्दा तो तब होगा न भाई जब कोई मर गया हो – बाइबिल पढ़ने से तो यही ज्ञात होता है की ईसा साहब मरे ही नहीं थे – वे तो जिन्दा थे – इससे मरकर दुबारा जिन्दे होने का सवाल ही पैदा नहीं होता – और जब मरे ही नहीं तो बलिदान कैसा ?

जबकि सच्चाई यह है की अपनी जान बचाने के लिए ईसा ईश्वर से बार बार प्रार्थना करते नजर आये – यहाँ तक कि वो समय जिसमे ईसा को सूली पर चढ़ाया गया उस समय को टालने (अपने आप से हटाने) तक के लिए प्रार्थना की थी।

आइये सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं –

1. हे मेरे पिता ! जो हो सके तो यह कटोरा (सूली की मृत्यु) पास से टल जाए। (मत्ती २६:३९)

2. यदि हो सके तो यह घड़ी (मौत) उससे टल जाए। (मरकुस (मार्क) १४:३५)

3. यह बात कहकर यीशु आत्मा में घबराया। (यूहन्ना १३:२१)

4. उसने अपने शरीर के दिनों में ऊँचे शब्द से पुकारकर और रोकर, उससे जो मृत्यु से बचा सकता था, विनती की, निवेदन किये। (इब्रानियों को पत्र ५:७)

5. यीशु ने बड़े जोरो से पुकार कर कहा – “एलीएली लामा शवकतनी” अर्थात हे मेरे ईश्वर ! तूने मुझे क्यों त्यागा है ? (मत्ती २७:४)

उपरोक्त यीशु द्वारा की गयी प्रार्थनाओं और रुदन से स्पष्ट है की यीशु ने कोई बलिदान नहीं दिया – क्योंकि जो बलिदान होता है – उसमे ऐसे प्रार्थना और रुदन नहीं होता –

उदहारण के लिए शहीद भगत सिंह आदि वीरो को देखिये जब उन्हें फांसी के लिए ले जाया जा रहा था तो उन्हें कोई दुःख नहीं था – बल्कि वतन के लिए क़ुर्बान होने का सुख था – और वो “मेरा रंग दे बसंती चोला” गाकर जेलख़ानो में सुनाया गया – इसे कहते हैं बलिदान।

“सच्चा बलिदान”

अब हमारे ईसाई भाई कैसे इस “हत्या के षड्यंत्र” को ईसा का बलिदान सिद्ध करेंगे ? जबकि ईसा खुद स्वेच्छा से सूली पर नहीं चढ़ा – उसको तो मारने का षड्यंत्र किया गया क्योंकि ईसा ने अपने आप को “ईश्वर का बेटा” घोषित करने की मिथ्या चाल चली थी – जो की उस समय के कानून के हिसाब से दण्डित कृत्य था –

खैर जो भी हो अभी तो ईसाई भाई केवल यही बता देवे की जब ईसा ने अपना बलिदान ही नहीं दिया जैसे की बाइबिल खुद सिद्ध करती है – तो आप ईसाई ऐसा शोर क्यों मचाते हो की ईसा ने अपना बलिदान मनुष्यो के लिए दिया और जो ईसा को माने सो स्वर्ग का अधिकारी होगा ?

अभी भी समय है – पाखंड छोड़िये – और सत्य सनातन वैदिक धर्म को अपनाये – चाहे ईसा को मानो या न मानो – अपने कर्मो के आधार पर सभी स्वर्ग (सुख विशेष) के अधिकारी हैं –

इसलिए ये स्वर्ग का लालच छोड़ – शुद्ध और सात्विक कृत्य करे – वेदो की और लौटे
खैर अब आगे देखते हैं – क्या यीशु सूली पर मर गए थे और पुनः जिन्दा हो गए ?

अन्धविश्वास और पाखंड रुपी चंगुल

अगले भाग में …….

यहोवा का भूला बिसरा ज्ञान – ऊट पटांग विरोधी बातो से भरी बाइबिल

लगता है बाइबिल का लेखक नशे में टुन्न था – या फिर मदहोशी में बाइबिल लिखी गयी –

क्योंकि ईश्वर भूत भविष्य और वर्तमान सब जानता है – इसलिए वो अतीत की बातो का भी पूर्ण ज्ञान रखता है –

पर क्या बाइबिल का यहोवा इसी प्रकार का ज्ञान रखता है ? यदि हाँ तो “यहोवा” सब कुछ जानने वाला “सर्वज्ञ” है – नहीं तो वो ईश्वर नहीं – मात्र एक मनुष्य ही कहलायेगा – जिसे अपनी ही बनाई अतीत का पता तक नहीं ?

एक नजर बाइबिल में वर्णित इतिहास की बातो पर –

1. पशु आदि सभी जीवो की उत्पत्ति के बाद मनुष्य को बनाया (उत्पत्ति – १:२४,२५,२६,२७)

तब परमेश्वर ने कहा – “पृथ्वी हर एक जाती के जीव जंतु उत्पन्न करे बहुत से भिन्न जाती के जानवर हो ……. यही सब हुआ (२४)

तो, परमेश्वर ने हर जाती के जानवरो को बनाया। परमेश्वर ने जंगली जानवर, पालतू जानवर और सभी छोटे रेंगने वाले जीव ……. परमेश्वर ने देखा की यह अच्छा है (२५)

तब, परमेश्वर ने कहा, “अब हम मनुष्य बनाये। हम मनुष्य को अपने जैसा बनाएंगे। मनुष्य हमारी तरह होगा …………. जीवो पर राज करेगा।”

तो यहोवा द्वारा उत्पत्ति (gen) के पहले अध्याय में यह बताया जाना की पशु आदि सभी जीवो की उत्पत्ति के बाद मनुष्य को उत्पन्न किया – सिद्ध होता है –

चलिए अब दूसरे अध्याय में देखते हैं क्या वहां भी यहोवा यही बात कहता है ? कहीं ऐसा तो नहीं यहोवा भूल गया और कुछ का कुछ बोल दिया ?

आइये देखिये –

तब यहोवा परमेश्वर ने कहा, “में समझता हु कि मनुष्य का अकेला रहना ठीक नहीं है। में उसके (मनुष्य) के लिए एक सहायक बनाऊंगा जो उसके लिए उपयुक्त होगा।” (२:१८)

यहोवा ने पृथ्वी के हर एक जानवर और आकाश की हर एक पक्षी को भूमि की मिटटी से बनाया। यहोवा इन सभी जीवो को मनुष्य के सामने लाया और मनुष्य ने हर एक का नाम रखा। (२:१९)

मनुष्य ने पालतू जानवरो, आकाश के सभी पक्षियों और जंगल के सभी जानवरो का नाम रखा। मनुष्य ने अनेक जानवर और पक्षी देखे लेकिन मनुष्य कोई ऐसा सहायक नहीं पा सका जो उसके योग्य हो। (२:२०)

अब देखिये कितनी विचित्र बात है – यहोवा ने पहले अध्याय में बोला की पशु आदि सभी जीवो की उत्पत्ति के बाद मनुष्य को बनाया –

और दूसरे अध्याय में बता दिया की मनुष्य के लिए कोई सहायक होना चाहिए जिससे मनुष्य का अकेलापन दूर हो इसलिए मनुष्य उत्पन्न करने के बाद पशु आदि जीव उत्पन्न किये

अब इनमे से कौन सी बात सही माने ? कोई ईसाई भाई जरा शंका समाधान कर देवे।

नोट : एक विशेष बात नोट कीजिये – केवल यही विरोध नहीं है – दूसरा मसला है की जब यहोवा कुछ बनाता है उसके बाद ही उसे ज्ञात होता है की ये तो अच्छा है –
मतलब की पहले से नहीं पता होता की जो यहोवा बना रहा है – वो अच्छा ही बनेगा – कोई श्योरटी नहीं – पता नहीं कब बुरा बन जायेगा –

दूसरी बात जो ये पशु आदि जीव मनुष्य का अकेलापन दूर करने हेतु बनाये – उससे मनुष्य का अकेलापन दूर नहीं हुआ – और पशु आदि जीव उत्पन्न करने का कुछ प्रयोजन भी सफल नहीं हुआ – क्योंकि मनुष्य का एकाकीपन – इन पशुओ से दूर न हो सका – क्या यही यहोवा का ज्ञान है जो ये भी न जान सका की एक मनुष्य नहीं उसे भी जोड़े से ही उत्पन्न करना था जैसे की सभी पशु पक्षियों को जोड़ियों से उत्पन्न किया ?

शायद इसलिए आगे की आयत में एक अति विज्ञानं की बात यहोवा ने कर दी – मनुष्य को गहरी नींद में सुलाने के बहाने उसकी पसली चोरी की और हव्वा को बना दिया –

वाह क्या करामात है ! हैरत अंगेज – ये काम तो मनुष्य भी बुरा ही मानते हैं – किसी को सुला के या बेहोश कर उसकी किडनी आदि निकाल लेते – बताओ क्या ये ईश्वर के काम होंगे ?

ईश्वर होता तो जैसे मनुष्य और पशु आदि जीवो को मिटटी से बनाया – वैसे हव्वा को बनाने का विज्ञानं क्या यहोवा भूल गया था ? या हव्वा मिटटी से नहीं बन सकती थी ? और यदि मिटटी से ही बना दिया – तो जो शरीर है उसमे पानी अग्नि वायु आदि अवयव का करामात किसी और यहोवा ने किया ? यानी यहोवा का भी यहोवा ?

कुछ तो गड़बड़ जरूर रही होगी क्यों ईसाई मित्रो ?

क्या ये ईश्वर के कथन और गुण सिद्ध होते हैं ?

यहोवा तो शायद खुद कंफ्यूज है की पहले क्या बनाया ?

किसी ईसाई भाई को पता हो तो बताये – पहले किसकी उत्पत्ति हुई ?

मनुष्य की अथवा पशु आदि जीवो की ?

क्या वेदो को ऋषि वेद व्यास ने लिखा था ? मिथक से सच्चाई की ओर

वे पौराणिक मित्र जो ये कहते नहीं थकते की वेदो को “वेद व्यास” जी ने लिखा – वो या तो पूर्वाग्रह के शिकार हैं या फिर अपने पुराणो के ज्ञान को जानते नहीं हैं –

गरुण पुराण के अनुसार –

वेद व्यास जी ने वेद रूपी वृक्ष को अनेक शाखाओ में विभक्त किया
गरुण पुराण अध्याय १ (पृष्ठ १८)

अब जब वेद पहले ही विद्यमान थे जैसे की इस पुराण को पढ़कर पता चलता है – तब ये पौराणिक मित्र क्यों लोगो को भरमाते रहते हैं की वेद व्यास जी ने वेदो की रचना की ????? यहाँ स्पष्ट रूप से लिखा है की वेद व्यास जी ने वेदो की रचना नहीं की – तो कृपया उल जलूल तर्क देकर समय व्यर्थ न करे – अपना भी और मेरा भी

मेरा मानना है की वेदो की शाखा भी वेद व्यास जी से पहले ही विद्यमान थी – क्योंकि वेद व्यास जी के पिता ऋषि पराशर जी पराशर संहिता में बहुत जगह वेद और वेदो की शाखाओ की बात करते हैं –

अब यहाँ विचारणीय तथ्य ये है की यदि उपरोक्त वर्णित पुराण को प्रमाण माने तो वेदो को शाखाओ में विभक्त करने वाले वेद व्यास जी थे – तब कैसे पराशर जी ने अपने पराशर संहिता में वेद की शाखाओ का भी जिक्र किया ???

अब कुछ पौराणिक ये कहेंगे की व्यास उनके बेटे थे जब उन्होंने वेदो की शाखाये बना दी तब उन्होंने अपने ग्रन्थ में लिखा –

तो मेरा सुझाव उनको ये है की जाके पहले अपना मुंह गरम पानी से धो ले और अपनी नींद को उत्तर लेवे – तब बात करे –

क्योंकि जब पराशर संहिता लिखी गयी तब वेद व्यास जी उत्पन्न नहीं हुए थे – अगर आप पौराणिक फिर भी मानते हैं तो कृपया प्रमाण ले आये –

नमस्ते –

आखिर क्यों मैं एक ईसाई नहीं हु

यह लेख ईसाइयों के अनुरूप इस धारणा से प्रेरित है की यदि में ऐसा विश्वास करू की बाइबिल ही एक सच्ची ईश्वरीय किताब है तो मैं एक ईसाई बन जाऊंगा। मगर मेरे वैदिक धर्मी बने रहने के बहुत से अनेक कारण हैं जिन पर बाइबिल का ईश्वरी पुस्तक होने का विश्वास नहीं हो पाता। उनमे से कुछ मुख्य कारण हैं :

1. “सर्वोच्च शक्ति” मात्र एक “सनाई पर्वत” अथवा ७वे आसमान पर रहती है ? यह बात आज के आधुनिक विज्ञानं सम्मत तार्किक आधार युक्त नहीं।

जबकि दूसरी और वेद कहते हैं – कण कण में ईश्वर व्याप्त है और यही विज्ञानं का मूलभूत आधार है क्योंकि प्रत्येक अणु परमाणु को गति देने का काम ईश्वर करता है यदि ऐसा न हो तो ब्रह्माण्ड की गतिशीलता बंद होकर नाश का कारण होगा जबकि ईश्वर प्रत्येक अणु परमाणु में व्याप्त होकर उसे गति देता है जिससे ब्रह्माण्ड निरंतर नियमवत अपने कार्य में तल्लीन है

2. “सर्वोच्च शक्ति” का दयालु और प्रेम भाव बाइबिल के ईश्वर से नदारद रहना।

जबकि ईश्वर ने मनुष्यो को एक दूसरे से प्रेमभाव बरतने को कहा और सभी जीवो को अपने पुत्रवत समझकर अपना प्रेम एकसामान सभी जीवो पर लुटाया।

3. “सर्वोच्च शक्ति” का अर्थात बाइबिल के ईश्वर का बाइबिल अनुसार पूजा के लिए अधिकार न देकर एक मनुष्य की पूजा करवा पाखंड को बढ़ावा देना।

वेद में ईश्वर ने कहीं भी अपना गर्वगण्ड न करके मनुष्यो को स्वतंत्र कर्म करने को कहा – उस कर्म में ईश्वर की उपासना केवल उस ईश्वर का धन्यवाद स्वरुप है – जिसका स्वर्ग नरक से कुछ लेना देना नहीं

4. बाइबिल में “सर्वोच्च शक्ति” यानी बाइबिल के ईश्वर का अपनी कही बातो से मुकर जाना या फिर एक बात से दूसरी विरोधी बात करना।

वेद में ईश्वर की कल्याणमयी वाणी से सिद्ध है कहीं भी एक से उलट दूसरी बात वा शिक्षा नहीं पायी जाती

5. “सर्वोच्च शक्ति” का विज्ञानं सम्मत ज्ञान न होना।

वेद में तृण से लेके ब्रह्माण्ड पर्यन्त सब वस्तुओ का यथावत ज्ञान है

6. “सर्वोच्च शक्ति” का अपने बनाये मनुष्यो और उनके सद्भाव को देखकर, जलना, हिरस करना, चिढ़ना, द्वेष, घृणा और पक्षपात आदि करना।

वेद में ईश्वर ने कहा “मनुर्भव” अर्थात मनुष्य बनो – कहीं भी कोई सम्पर्दायी बात नहीं – ना ही कहीं – हिन्दू, मुस्लिम अथवा ईसाई बन जाने लालच या स्वर्ग नरक का डर।

7. “सर्वोच्च शक्ति” द्वारा महिलाओ के प्रति द्वेष, घृणा और नफरत आदि ज्ञान से उनका शोषण करवाना।

वेद ने महिलाओ को अबला नहीं सबला कहा, निर्मात्री कहा, ये सिद्ध करता है वेद नारियो को “देवी” पवित्र कहता है

8. “सर्वोच्च शक्ति” द्वारा भाई-बहन, माता पुत्र, पिता पुत्री, आदि अनेक रिश्तो की मर्यादाओ को तार तार करवाना।

पूरी सृष्टि जब से बनी तब से ही रिश्तो की मर्यादाओ का पूरा ध्यान वेद ने दिया है, इसीलिए सृष्टि की आदि में अनेक स्त्री पुरषो की उत्पत्ति ईश्वर करता है – ना की आदम हव्वा बना के भाई बहन का रिश्ता कलंकित करता है

9. “सर्वोच्च शक्ति” द्वारा उपलब्ध करवाई “ईश्वरीय पुस्तक” में ज्ञान, विज्ञानं की जगह, छल, कपट, धोखा, वैमनस्य, इतिहास, जादू, टोना, और अतार्किक अन्धविश्वास आदि भ्रम युक्त अज्ञान का समावेश होना।

वेद में केवल ज्ञान, विज्ञानं, और पदार्थविद्या का यथावत ज्ञान है, आडम्बर, ढकोसले, और पाखंड का वेद से दूर दूर तक कोई नाता नहीं

10. “सर्वोच्च शक्ति” द्वारा इस किताब पर बिना तर्क, प्रमाण आदि युक्तियों द्वारा सिद्ध किये केवल विश्वास ले आने पर ही स्वर्ग भेजने का प्रलोभन देना।

वेद कहता है – इसलिए ना मानो क्योंकि वेद है इसलिए मानो क्योंकि तुम्हारे पास बुद्धि है, सत्य को ग्रहण करो और असत्य का त्याग करो

कोई भी ऐसी पुस्तक जो अपने को ईश्वरीय होने का दम्भ भरती हो, लेकिन उसमे यदि ऐसी विवादास्पद बाते अथवा विषय पाये जाए तो क्या उसे ईश्वरीय पुस्तक का दर्ज़ा दिया जा सकता है ?

क्या कोई “सर्वोच्च शक्ति” ऐसी बेतुकी और निराधार बाते अपनी पुस्तक में लिखवा सकती है ?

में जानता हु अधिकांश लोग इन सभी बातो को ईश्वरीय होने से नकार देंगे – और यही वजह है की मेने भी बाइबिल को ईश्वरीय होने से इन्ही कारणों के मद्देनजर नकार दिया है। क्योंकि ये पुस्तक या ऐसी ही अन्य सम्प्रदायों की पुस्तके – ईश्वरीय होने का दम्भ तो भरती हैं मगर उनके सभी दावे जमीनी हकीकत पर खोखले सिद्ध होते हैं क्योंकि ईश्वरीय पुस्तक ज्ञान और विज्ञानं से भरी होनी चाहिए नाकि ऐसी बुद्धि विहीन बातो से।

जाहिर है इस लेख से सभ्य समाज सहमत होगा और इस पुस्तक को केवल कुछ मनुष्यो द्वारा अपने फायदे और स्वार्थ की पूर्ति हेतु बनाई गयी पुस्तको की संज्ञा देगा नाकि ईश्वरीय ग्रन्थ की।

अभी भी समय है, सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु, ब्रह्माण्ड की शांति हेतु, आइये लौटिए ईश्वर की सच्ची, कल्याणमयी वाणी की और, ज्ञान की और, न्याय और विज्ञानं की और

आओ लौट चले वेदो की और

नमस्ते

अभी पॉइंट तो बहुत उठ सकते हैं, मगर फिलहाल पोस्ट बड़ी न हो जाए इस हेतु मुख्यतया इन्ही १० बिन्दुओ पर विचार करेंगे।

शेष अगले भाग में –