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वेदों की विद्याओं में लगने वाले कर्मभेद (वाम प्रशस्य कर्म) -छैलबिहारी लाल

वेदों में मूर्तमान संसार को बनाने में जो कर्म लगे उनको कभी सूचीकृत करके दस प्रशस्य नाम भेदों में वर्गीकृत किया गया है। यह कर्म प्रसार (प्रैशर) देने वाले कर्मों के रूप में है। अस्त्रेमा। अनैमा। अनेद्यः। अनेभि-शस्त्यः। उक्थ्य। सुनीथः। पाकः। वामः। वयुनम। यहाँ पर हम वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्म का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।

            इन्दवा वामुशान्ति हि (ऋ. १।२।४) मधुछन्दा ऋषि, इन्द्र वायु देवता, गायत्री छनद, इस कर्म को महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी चतुर्वेद विषय सूची में मित्र लक्षण में कार्य करने वाला कर्म बतलाया है और विद्युत एवं वायु की मित्रता द्वारा उशान्ति रूपी कान्ति कर्मों को प्रसारित करने वाला वाम कर्म सिद्धान्त दिया है। हमारे वैदिक ग्रन्थों में इस स्थल का बहुत अधिक तरह-तरह से वर्णन किया गया है। तैत्तरीय संहिता १।४।४।१, शतपथ ब्राह्मण ४।१।३।१९, एतरेय ब्राह्मण २।४।२, ३।१।१, आदि में भी बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में शुक्ल नामक अन्न और अश्वनी उशमसि नामक क्रान्ति कर्म के १०९ भेदों में से एक भेद के साथ इसका प्रयोग दर्शाया गया है।

            ऋ. १।१७।३ में काण्डवो मेधातिथि ऋषि इन्दिरा वरूणो विज्ञान में गायत्री छनद भेद द्वारा विद्युत अग्नि और जल के मित्र लक्षणों में ‘‘ईम’’ नामक ज्वलनशील द्रव्य पदार्थ को वाम नामक प्रशस्य कर्म के द्वारा राये नामक धन को प्राप्त करने सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी सूक्त के ७ से ९ वाले तीन मंत्रों में भी तरह-तरह से प्रयोग करने के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है।

            ऋ. १।२२।३।४ में विमान विद्या के साथ शून्यता वृत्ति नामक ऊषा किरणों के रूप में वाम नामक प्रशस्य कर्मों के द्वारा आकाश में गमन आदि और हिरण्य-पाणिन नामक सुवर्ण आदि रत्न आदि को प्राप्त कराने में प्रयोग दर्शाया गया हैं। ऋ. १।३०।१८ में शुनशेप ऋषि के अश्विनो विज्ञान में समुद्र और अन्तरिक्ष में दस्त्रा अश्विनी द्वारा ऐसे अश्वों को खींचने में वाम कर्म सिद्धान्तों को दिया है जिसमें मनुष्य आदि प्राणी न लगे हों। इस प्रकरण को एतरेय ब्राह्मण ७।३।४ में भी दिया गया है। ऋ. १।३४।१, ५, १२ हिरण्य स्तूप ऋषि आगिरस सिद्धान्त के अश्विनों विज्ञान के युवम भेद द्वारा तीन बार (गेज प्रणाली) मे वाम कर्म का शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के लिए १२ मंत्रों में बहुत ही विस्तृत वर्णन किया गया है। इन विमान आदि को बनाने में कौन-कौन सी धातु लगेंगी इन सब के साथ तरह-तरह के ईंधन वलों और उनके साथ प्रयोग होने वाले अन्य वल लक्षणों का वर्णन करते हुए अन्तरिक्ष यानों के द्वारा ११ दिन में भूगोल पृथ्वी के अन्त को पहुंचाने वाले विमानों का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकरण को आजकल के अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों के साथ आधुनिक विज्ञान से समन्वय करके आगे का ज्ञान बड़ी अति सहजता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। ऋ. १।४६।१, ३, ५, ८, में प्रकण्व ऋषि सिद्धान्तों में दिव और उषा नामक प्रकाश और किरणों को मित्र गुणों द्वारा वाम कर्म द्वारा प्रयोग करने का विमान आदि सवारियों में प्रयोग करने के सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी प्रकरण से सम्बन्धित ऊषा और प्रकाश को विमान विज्ञान में प्रयोग करने में वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्मों के सिद्धान्त ४७ वें सूक्त में भी दिये गये हुए हैं। इन स्थलों को भिन्न-भिन्न वेद भाष्यकारों के भाष्यों से एवं चतुर्वेद व्याकरण पदसूचियों के माध्यम से प्राप्त करके संसार के विमान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है। ऋ. १।९३।२, ३, ४ में रहुगणपुत्रों गौतम ऋषि के अग्नि सोम सिद्धान्तों में भूरिक उष्णिक, विराट, अनुष्टुप और स्वराट पंक्ति छनद भेद द्वारा अग्नि और सोम के मित्र लक्षणों में वाम नामक प्रेशर देने वाले कर्म सिद्धान्तों को वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में भी विमान विद्या आदि में अग्नि के सोम से मित्र लक्षणों को विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। ऋ. १।१०८।१, ५, ६ में भी आगिरसकुत्स ऋषि के इन्द्राग्नि विज्ञान में त्रिष्टुप पंक्ति और विराट त्रिष्टुप छनद भेद द्वारा विमान विद्या में तरह-तरह के सिद्धान्तों का शिला सिद्धान्तों का शिल्प क्रियाओं के साथ वाम प्रशस्य कर्म के सिद्धान्त दिये हुए हैं। १०९ वाले सूक्त में भी इस विद्या का और अधिक विस्तार किया गया है। वहां पर अग्नि और विद्युत् के मित्र लक्षण द्वारा यवत अश्विनियों के साथ सूर्य और पवन का संयोग वाम नामक प्रशस्य कर्म में लगाने का सिद्धान्त दिया गया है।

            ऋ. १।११९।९ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनी विज्ञान सिद्धान्त में यम वायु और श्वेत प्रकाश के साथ वाम नामक प्रशस्य कर्म को विमान विज्ञान की शिल्प क्रियाओं के प्रयोग करने का सिद्धान्त दिया गया है। इसी सूक्त में ११ से १३ वाले मंत्रों में नश, नासत्या और पुम भुजा नामक अश्विनी के साथ वाम प्रशस्य कर्म का प्रयोग दर्शाया गया है। २१-२८वें मंत्र में भी इसको विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। इससे अगले सूक्त में छंद भेद से ५, २, ४, ९, १०, १५, १८, २२, २३, २५ (२। ३९।८) में भी वाम नामक प्रशस्य कर्म की विद्याओं का भिन्न-भिन्न प्रयोग सिद्धान्त दर्शाया गया है। ऋ. १।११८।१ (२।५८।३) ४, ५। १०। ११ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में (श्येनपत्या) बाज के समान उड़ने वाला, पवन के समान वेगवाला, मन के समान गति वाला रथ या यान ऊपर से नीचे  उतरने का वाम सिद्धान्त दिया है। भिन्न-भिन्न मंत्रों में त्रिष्टुप छन्दों के माध्यम से जलयानों की गति वायुयानों का ऊपर-नीचे आने जाने का सिद्धान्त दिया है। जैसे ऊषा धीरे-धीरे प्रकाशित होती है उसी प्रकार क्रम से गति को बढ़ाया घटाया जाने को दर्शाया है। इन मंत्रों में जवसा गति का सिद्धान्त महत्व रखता है।

            ऋ. १।११९।१; २; ४;५; ७; ९ में दीर्घतमसः कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में जगती तथा त्रिष्टुप छन्दों द्वारा विमान विद्या की भिन्न-भिन्न कार्य प्रणलियों को प्रकाश्ति किया गया है। प्रथम मंत्र में (जीराश्वम्) गति वाले अश्व (इंजन) का वर्णन है। अश्विनौ विद्या में प्रशस्य कर्म से एक ऐसे विशाल यान को दर्शाया गया है जिसमें सैकड़ों भंडारण हों, हजारों पताकाएँ लगी हों। यह जलयान का वर्णन है। (ऊध्र्वाधीतिः) समुद्र लहरों पर ऊपर-नीचे करने का सिद्धान्त है। यहाँ (धर्मं) और (ऊर्जानी) पदों से सौर ऊर्जा सिद्धान्त दिया गया है जिससे प्रकाश के लिए यानों में दूसरा प्रयोग हो सके।

            ऋ. १।१२०।१; ३; ५; में उशिक पुत्रः कक्षीवान ऋषि तथा अश्विनौ देवता हैं। छनद गायत्री व उष्णिक छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म सिद्धान्त दिए हैं। यानादि में प्रकाश की आवश्यकता होती है। यहाँ इन मंत्रों में प्रकाश विद्या का वर्णन है। (जोषे) कान्ति या प्रकाश के लिए विद्या-विज्ञान का विधान करने को कहा है। ऋ. १।१२२।७; ९; १५ मंत्रों के कक्षीवान ऋषि विश्वेदेवा हैं। इन मंत्रों में त्रिष्टुप, पंक्ति छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म का सिद्धान्त दिया है एवं मित्र-वरूण क्रिया (उठाने गिराने की क्रिया) से चलने वाले यन्त्र विशेषों का सिद्धान्त है। चार के स्थान पर तीन व्यवधानों को नष्ट करना चाहिए अर्थात् क्रम से ही यन्त्रों की कमी दूर करनी चाहिए। ऋ. १।१३५।४, ५; ६; मन्त्रों के परूच्छेय ऋषि दृष्टा, वायुदेवता व अष्टि छनद हैं। प्रशस्य कर्म के लिए इन्द्र + वायु के प्रयोग से वाम क्रिया का दिग्दर्शन कराया है। विद्युत् वायु के योग से अनेक शिल्प क्रियाऐं हुआ करती है। अतः विमान विद्या में इनके प्रयोग का सिद्धान्त दिया है।

            ऋ. १।१३७। १-३ मंत्रों के परूच्छेप ऋषि, मित्रावरूणौ देवते, शक्चरी छनद हैं। मित्र + वरूण विज्ञान से वाम् क्रिया द्वारा यन्त्रों की क्रियाशीलता प्रकट हो रही है। (इन्दवः) द्रव का बूंद-बूंद होकर टपकने से यंत्र में गति प्रदान होती है यह गति ही समस्त जगत के कार्यों का सम्पादन करती है। ‘अद्रिभि’ क्रिया से यन्त्रों में स्निग्ध अर्थात् चिकनाई पहुँचाने की विधि या सिद्धान्त दिया गया है। आगे सूक्त १३९ के मंत्र ३, ४, ५ के परूच्छेप ऋषि, अश्विनौ देवता। अष्टी, व जगती छनद हैं। ‘‘स्वर्ण-यान’’ भारत के प्राचीन वैभव को उजागर कर रहे हैं। अश्विनौ विज्ञान-विमान विद्या की अंगभूत इकाई है जो विमानों की गति को नियंत्रण में रखती है। (पवयः) पहियों को घूमने की दिशा व दशा को प्रदान करने की क्रिया विशेष जिससे यान दिशा परिवर्तन व गति परिवर्तन कर सकें। (दिविष्टषु) आकश मार्ग में ही अग्नि आदि पदार्थों को प्रयुक्त करके नीचे न गिरने वाले सिद्धान्त को दर्शाया गया है। अर्थात् ऊपर की ही ओर उड़ान भरने का सिद्धान्त जैसे (राकेट) ऊर्ध्वयान। इन यानों के विषय में पांचवें मंत्र में कहा कि ये यान दिन रात चलते रहें तो भी ये नष्ट नहीं हो सकते। ये रहस्यमयी वेदविज्ञान-विद्याएं मंत्रों में छिपी पड़ी हैं। इन्हें उजागर कर हम आर्यावर्त्त के प्राचीन गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करें, भगवान से यही प्रार्थना है।

            ऋ. १।१५१।२; ३; ६-९; मंत्रों के दीर्घतमा ऋषि, मित्रा वरूणौ देवता तथा जगती छनद भेद हैं। शिल्प क्रियाओं में प्रशस्य कर्म भेद से वाम क्रिया द्वारा ऋषि ने विज्ञान के सिद्धान्त निरूपित किए हैं। यहाँ पृथ्वीस्थ कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए मिस्त्रावरूणौ विज्ञान का समावेश है। ऋ. ६।१५२।३; ७ (३।६२।१६) प्रथम मंडल के सूक्त १५२ में दीर्घतमा ऋषि, मित्रावरूणौ देवते तथा त्रिष्टुप छनद भेद है। इन मंत्रों में वेद-विद्या के विभाग करने को कहा है जिससे विद्याओं को वर्गीकरण होकर उन-उन पर अलग-अलग क्रियाएँ की जा सकेंगे। अगले सूक्त के मंत्र १-४ तक मित्रा वरूणौ विज्ञान है। ऋषि दीर्घतमा, देवता मित्रावरूणौ छनद त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। १।१५४।२ के दीर्घतमा ऋषि, विष्णु देवता निचृत जगती छन्द हैं। मंत्र में इन्द्र विष्णु विद्या दी गई है। विद्युत् किसी कार्य-क्रिया को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती है। ऋ. १।१५७।६ दीर्घतमा ऋषि, अश्विनौ देवते, विराट् त्रिष्टुप छन्द विमानों में चिकित्सा आदि का प्रबन्ध का होना अनिवार्य हो।

            ऋ. १।१५८। १-४ दीर्घतमा ऋषि अश्विनौ देवता, त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। सूर्य और पवन के योग से जो कार्य सिद्ध होते हैं वह विद्या दर्शाई गई है। अगले सूक्त १।१८०।१; २-५; ७, १० के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते। त्रिष्टुप, पंक्ति छंद भेद। अश्विनौ विद्या एवं प्रशस्य कर्म से (द्याम् परि इयानम्) आकाश को सब ओर से जाते हुए रथ (विमान) को स्वीकार करें। अगले सूक्त १।१८१।१७-८९ के अगस्त्य ऋषि अश्विनौ देवते, त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। पूरा सूक्त वाम् क्रिया से संबंधित है यहाँ पूरे सूक्त में वाम कर्म द्वारा अश्विनौ-विज्ञान को सिद्ध किया है। ऐश्वर्य के लिए मन के समान वेगवाले यानों का होना दिखाया है। १।१८२।८ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता हैं, स्वराट् पंक्ति छन्द हैं। अश्विनौ विज्ञान से यंत्रों में बल (शक्ति) को किस प्रकार बढ़ाया जाता है इसके विषय में कहा गया है। ऋ. १।१८३।३, ४ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। यहाँ सर्वाग सुन्दर रथ (विमान) विद्या को दर्शाया है और ऐसा विमान बनाने का वर्णन है जिसे कोई चोर, ठग अपहरण न कर सके।

अर्थात् अपहरणकत्र्ता का जिसमें प्रवेश ही न होने पाये। ऋ. १।१८४।१; ३; ४; ५; ६; अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता। पंक्ति और त्रिष्टुप छन्द भेद् द्वारा अश्विनौ विद्या का विधान है। वाम कर्म द्वाराशिल्प क्रियाओं के सिद्धान्त दिये हैं। अन्तरिक्ष में दिशाओं का ज्ञान करके विमान चालन की क्रिया को दर्शाया गया है। ऋ. १।१८५।४ के अगस्त्य ऋषि द्यावा पृथिव्यौदेवते निचृत् त्रिष्टुप छंद हैं। पृथ्वी से सूर्यादि प्रकाशित लोकों तक का विज्ञान प्रशस्य कर्मों द्वारा कैसे सिद्ध किया जा सकता है इसके लिए अगस्त्य ऋषि ने मंत्र में कहा है कि यानों को किस प्रकार संतापरहित करके सुख पूर्वक विचरण कर सकते हैं। और भी वाम् नामक प्रशस्य कर्म के चारों वेदों में अनेक स्थल उपलब्ध हैं।

वेद विद्या अनुसंधान, बारहद्वारी,

पसरट्टा हाथरस (अलीगढ़)-२०४१०१

आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      कई लोग वेद की इन संहिताओं को आर्षी अर्थात् ऋषियों के क्रम से संग्रहीत की हुई मानते हैं। यथा ऋग्वेद के आरम्भ में शतर्ची, अन्त में क्षुद्रसूक्त वा महासूक्त और मध्य में मण्डल द्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र आदि ऋषियों वाले क्रमशः मन्त्र हैं। 

      हम वादी से पूछते हैं कि क्या जैसा क्रम ऋग्वेद में दर्शाया, वैसा अन्य संहितामों में दर्शाया जा सकता है ? कदापि नहीं। तथा ऋग्वेद में भी जो क्रम वादी बताता है वह भी असम्बद्ध है। यदि ऋग्वेद वस्तुतः ऋषि क्रमानुसार संगृहीत होता तो विश्वामित्र के देखे हुए मन्त्र उसके पुत्र ‘मधुच्छन्दाः’ और पौत्र ‘जेता’ से पहिले होने चाहिये थे, न कि पीछे। ऋग्वेद में विश्वामित्र के मन्त्र तृतीय मण्डल में और मधुच्छन्दाः व जेता के मन्त्र प्रथम मण्डल में क्यों रक्खे गये ? यदि वादी कहे कि प्रथम मण्डल में केवल शचियों का संग्रह है, विश्वामित्र शतर्ची नहीं अपितु माण्डलिक है, तो यह भी ठीक नहीं। प्रथम मण्डल के जितने ऋषि हैं, उनमें बहुत से शतर्ची नहीं हैं। सव्य आङ्गिरस ऋषि वाले (१।५१-५७) कुल ७२ मन्त्र हैं। जेता ऋषिवाले कुल (१।११) ८ ही मन्त्र हैं। ऐसे ही और भी अनेक ऋषि हैं। आश्चर्य की बात है कि शचियों में पढ़े हुए प्रस्कण्व काण्व के ८२ मन्त्र तो प्रथम मण्डल में हैं, १० मन्त्र आठवें और ५ मन्त्र नवम मण्डल में क्यों संगृहीत हुए? समस्त ९७ मन्त्र एक जगह क्यों नहीं संग्रहीत किये गये ? इसी प्रकार जिसके सूक्त में १० से कम मन्त्र हों वह क्षुद्रसूक्त और जिसके सूक्त में १० से अधिक हों वह महासूक्त कहाते हैं, तो क्या ऐसे ऋषि ऋग्वेद के दशम मण्डल से अतिरिक्त अन्य मण्डलों में नहीं हैं ? हम कह आये हैं कि जेता के केवल आठ ही मन्त्र हैं, क्षुद्रसूक्त होने से उसके मन्त्रों का संग्रह दशम मण्डल में न करके प्रथम मण्डल में किस नियम से किया? तथा जब विश्वामित्र माण्डलिक ऋषि है तो उसके समस्त मन्त्र तृतीय मण्डल में क्यों संगहीत नहीं किये ? कुछ मन्त्र नवम (६७।१३-१५) और दशम (१३७।५) मण्डल में किस आधार पर संगृहीत किये ? इत्यादि अनेक प्रश्न वादी से किये जा सकते हैं। 

      वस्तुतः वादियों के पास इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं है। वे तो 🔥”अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’- इस उक्ति के अनुसार स्वयं शास्त्र के तत्त्व को न समझकर अन्य साधारण व्यक्तियों को बहकाने की क्षुद्र चेष्टा[१] किया करते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. हमारी दृष्टि में वेद को अपौरुषेय न माननेवाले ही ऐसा मान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जनता के समक्ष कहने का साहस नहीं करते कि हम वेद को पौरुषेय (ऋषियों का बनाया) मानते हैं।] 

      वेदों की इन संहिताओं को आर्षी[२] संहिता कहने का तात्पर्य यह है ऋषि अर्थात् सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ जगदीश्वर से इन का प्रादुर्भाव हुआ है। वस्तुतः यह नाम ही इस बात का संकेत करता है कि वेद ईश्वर के रचे हुए है।

[📎पाद टिप्पणी २. अथर्ववेद पञ्चपटलिका ५।१६ में जो आचार्यसंहिता तथा आर्षीसंहिता का उल्लेख मिलता है, वह पुराने आचार्यों की एक संज्ञा मात्र है, ऐसा समझना चाहिये।]

      जो व्यक्ति आर्षी नाम होने से इन्हें ऋषियों द्वारा संग्रहीत मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि इन संहितानों में इन्द्रादि देवताओं के मन्त्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। अतः क्रमशः एक-एक देवता के समस्त मन्त्रों को संगृहीत करके एक दैवत संहिता बनानी चाहिये, जिससे अध्ययन में सुगमता होगी। 

      देवता-क्रम से संहिता के मन्त्रों को संग्रहीत करो से जिन मन्त्रों की आनुपूर्वी और देवता समान हैं, उन मन्त्रों का एक स्थान में संग्रह होने से पौनरुक्त्य तथा आनर्थक्य दोष आवेंगे। उन्हीं मन्त्रों को, जैसा वर्तमान संहिताक्रम में पढ़ा गया है, वैसा पाठ मानने में कोई दोष नहीं आता, क्योंकि वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद होने से अर्थ भेद की प्रतीति झटिति हो सकती है। उदाहरणार्थ पाणिनि के 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्र को उपस्थित किया जा सकता है। पाणिनि ने इस सूत्र को १४ स्थानों में पढ़ा है। इस सूत्र की वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद से अर्थ की भिन्नता होने के कारण सबकी सार्थकता रहती है। आनर्थक्य या पौनरुक्त्य दोष नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति सब 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्रों को उठाकर एक स्थान में पढ़ दे, तो क्या उससे कुछ भी लाभ या विशेष अर्थ की प्रतीति होगी? उलटी उस एक स्थान में पढ़नेवाले की ही मूर्खता सिद्ध होगी। भला इससे कोई पाणिनि की ही मूर्खता सिद्ध करना चाहे तो कभी हो सकती है ! कभी नहीं। ऐसे ही इस देवताक्रम से पढ़ी जानेवाली संहिता का होगा। इसमें और भी अनेक दोष हैं, जिनका विस्तरभिया यहाँ अधिक उल्लेख करना अनुपयुक्त होगा। 

      जिसका शास्त्रीयचक्षुः है वही इन बातों के रहस्यों को समझ सकता है। शास्त्र-ज्ञान विहीन क्या जाने शास्त्रों के रहस्य को –

      🔥पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः॥ ऋ० १।१६४।१६

      इस प्रकार हमने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि वेद की आनुपूर्वी सर्वकाल से नित्य मानी जाती रही है, और इस समय भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही निश्चित है कि हमें वही आनुपूर्वी प्राप्त हो रही है, जिसे सर्ग के आरम्भ में परमपिता परमात्मा ने आदिऋषियों के हृदयों में प्रकाशित किया था। 

[अगला विषय – वेद और उसकी शाखायें]

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों की आनुपूर्वी । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

[क्या प्राचीन ऋषियों के काल में वेद ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है?]

      वेद के मन्त्रों में आये पद, मण्डल[१], सूक्त तथा अध्यायों में आये मन्त्रों का क्रम सृष्टि के आदि में जो था, इस समय भी वही है, या उसमें कुछ परिवर्तनादि हुआ है, यह अत्यन्त ही गम्भीर और विचारणीय विषय है। इस विषय का सम्बन्ध वास्तव में तो हमारे आदिकाल से लेकर आज तक के भूतकाल के साहित्य तथा इतिहास के साथ है। दुर्भाग्यवश हमारा पिछला समस्त इतिहास तो दूर रहा, हमें दो सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास भी यथावत् रूप में नहीं मिल रहा, विशेष कर वैदिक साहित्य का। हाँ कुछ बातें हमें ठीक मिल रही हैं, जो संख्या में अत्यन्त अल्प है। ऐसी स्थिति में जो भी सामग्री हमें अपने इस प्राचीन साहित्य के विषय में मिलती है, उसी पर सन्तोष करना होगा। 

[📎पाद टिप्पणी १. इस विषय में ऋग्वेद में जो अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र तथा दूसरा मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र तथा तीसरा मण्डल, सूक्त और मन्त्र का अवान्तर विच्छेद है, वह आर्ष है। ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार वेङ्कटमाधव ने अष्टक ५ अध्याय ५ के आरम्भ (आर्षानुक्रमणी पृ० १३) में लिखा है।]

      वेद नित्य हैं, सदा से चले आ रहे हैं। इनका बनाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं। इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं इत्यादि विषय हम पूर्व प्रकरणों में भली-भान्ति स्पष्ट कर पाये हैं। सब ऋषि-मुनि तथा अन्य विद्वान् वेद को नित्य मानते चले आ रहे हैं, यह सब पूर्व ही विस्तार से दर्शा चुके हैं। प्राचीन ऋषियों के काल में वेद क्या ऐसा का ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है? प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह विचार उठना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, अत: इसकी विवेचना आवश्यक ही है। 

      ◾️(१) जहाँ तक हमें पता लगता है ब्राह्मणग्रन्थों के काल में ये ऋग, यजुः आदि वेद वही थे, जो इस समय हैं, क्योंकि गोपथब्राह्मण में लिखा –

      🔥”अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्’ इत्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते। .…’इषे त्वोजे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण’ इत्येदमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते। …’अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिषि’ इत्येबमादिं कृत्वा सामवेदमधीयते।” (गो० १।१।२९) । 

      इससे स्पष्ट है कि गोपथब्राह्मण के काल तक ऋग, यजुः, साम – इन तीनों वेदों की संहितायें वही थीं, जो इस समय वर्तमान में हैं। इनके आरम्भ के मन्त्रों की प्रतीके वही की वही हैं, जो इन तीनों संहिताओं में हैं। यही बात हम पीछे के काल में भी पाते हैं (देखो विवरण टिप्पणी पृ. ६)। 

      गोपथब्राह्मण के उपर्युक्त लेख से यद्यपि इनकी सारी वर्णानुपूर्वी का निर्णय नहीं हो सकता, पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि इन संहिताओं के आदि मन्त्र का स्वरूप वही है, जो उस काल में पूर्व काल की परम्परा से चला आ रहा था, और अब तक भी वैसा का वैसा चला आ रहा है। गोपथ के इस स्थल में जो अथर्ववेद का आरम्भ 🔥’शन्नो देवी०’ से कहा गया है, वह पैप्पलाद शाखा का पाठ माना जाता है। हम आगे विशदरूप में बतायेंगे कि पैप्पलाद शाखाग्रन्थ है, और वह ऋषिप्रोक्त है। महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने 🔥’तेन प्रोक्तम्’ (अ० ४।३।१०१) सूत्र के भाष्य में शाखाविषय में ‘पैप्पलादकन्’ ऐसा उदाहरण दिया है। सम्भव है गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद की उसी शाखा का हो, जिसका आदि मन्त्र “शन्नो देवी.” कहा है। ऐसी अवस्था में अथर्ववेद के नाम से 🔥’शन्नो देवी.’ आदि मन्त्र का उल्लेख करना अन्य विरोधी प्रमाण होने से विशेष महत्त्व नहीं रखता।

      ◾️(२) अब हम इस बात को एक अन्य रीति से भी स्पष्ट करते हैं। शतपथब्राह्मण में यजुर्वेद के मन्त्रों की प्रतीके बराबर आरम्भ से कुछ अध्याय तक निरन्तर (आगे भी यत्र-तत्र) देकर तत्तद् विषय में मन्त्रों का विनियोग दर्शाया गया है। १७ अ० तक के मन्त्रों के पाठ तथा आनुपूर्वी के विषय में इन प्रतीकों से हमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। यह आनुपूर्वी और पाठ वैसा का वैसा है, जैसा हमें यजुर्वेद में मिल रहा है। हाँ ! इतना अवश्य है कि कहीं-कहीं मन्त्रों के किसी प्रकरण को याज्ञिकप्रक्रिया के कारण कुछ क्रमभेद से भी विनियुक्त किया गया है, जैसा कि यजुर्वेद के प्रारम्भिक दर्शेष्टिसंबन्धी ४ मन्त्रों का विनियोग शतपथब्राह्मण में प्रारम्भ में न करके पौर्णमासेष्टि के अनन्तर किया है। क्योंकि याज्ञिकप्रक्रिया में प्रथम[२] पौर्णमासेष्टि करने का विधान है (अ० ७।८०।४)। इससे यह तो पता लग ही जाता है कि शतपथब्राह्मणकार के समय यजुर्वेद के कम से कम १७ अध्याय तक के मन्त्रों की आनुपूर्वी तो वही थी जो अब है। इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह का स्थान नहीं रह जाता। 

[📎पाद टिप्पणी २. “🔥पोर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥ अथर्व० ७।८०।४॥] 

      ◾️(३) ऋग्, यजुः, साम, अथर्व इन चारों वेदों की अनुक्रमणियाँ भी उनकी इस आनुपूर्वी को जो वर्तमान में मिल रही है, वैसी की वैसी सिद्ध करने में परम सहायक हैं, चाहे उनका निर्माणकाल कभी का रहा हो। कम से कम इनसे यह तो सिद्ध हो ही जाता है, कि उन-उन सर्वानुक्रमणियों के काल में वर्तमान चारों वेदों की आनुपूर्वी वही थी, जैसी कि अब है, इसमें यत्किञ्चित् भी भेद नहीं हुआ। उन सर्वानुक्रमणियों के टीका कार भी हमें इस विषय में पूरी-पूरी सहायता दे रहे हैं। वे सब के सब इसी बात का प्रतिपादन करते हैं। इन ग्रन्थों की तो रचना ही इस आनुपूर्वी (क्रम) की रक्षा के लिये हुई, इसमें क्या सन्देह है ? ऋक्सर्वानुक्रमणी से यह बात विशेष रूप में सिद्ध हो रही है। 

      ◾️(४) अब हम यह बताना चाहते हैं कि महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि वेद की आनुपूर्वी और स्वर दोनों को ही नित्य (नियत) मानते हैं – 

      🔥”स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दय। वर्णानुपूर्वी खल्वप्याम्नाये नियता…” (महाभाष्य ५।२।५६) 

      अर्थात-वेद में अस्यवामादि शब्दों का स्वर नित्य[३] होता है, और उनकी वर्णानुपूर्वी (क्रम) भी नित्य होती है। 

[📎पाद टिप्पणी ३. यहाँ नित्य और नियत पर्यायवाची शब्द हैं। 🔥’अव्ययात् त्यप्’ (अ० ४।२।१०४) पर वात्तिक है – 🔥”त्यब् ने वे”, नियतं ध्रुवम्। काशिकाकार आदि वैयाकरण इसकी यही व्याख्या करते हैं।]

      महाभाष्यकार का यह प्रमाण ही इतना स्पष्ट है कि इसके आगे और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसीलिये समस्त ऋषि-मुनि वेद को नित्य मानते हैं। 

      इस पर एक शङ्का हो सकती है कि महाभाष्यकार ने 🔥”तेन प्रोक्तम्” (अ० ४।३।१०१) के भाष्य में लिखा है –

      🔥’यद्यप्यर्थो नित्यः, या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति-काठकं, कालापकं, मौवकं, पप्पलादकमिति।’ 

      अर्थात्- यद्यपि अर्थ नित्य है, परन्तु वर्णानुपूर्वी अनित्य है। उसी के भेद से काठक, कालापक, मोदक, पैप्पलादक ये भेद होते हैं। इससे विदित होता है कि महाभाष्यकार वेद की वर्णानुपूर्वी को अनित्य मानते हैं। 

      इसका उत्तर यह है कि महाभाष्यकार ने यहाँ जितने उदाहरण दिये हैं, वे सब शाखाग्रन्थों के हैं, मूल वेद के नहीं। प्रवचन भेद से शाखाओं में वर्णानुपूर्वी की भिन्नता होनी स्वाभाविक है (शाखा के विषय में हम अगले प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे)। इतने पर भी यदि पूर्वपक्षी को सन्तोष न हो तो मानना पड़ेगा कि अपने ग्रन्थ में दो परस्पर विरोधी वचनों को लिखनेवाला पतञ्जलि अत्यन्त प्रमत्त पुरुष था, जो ठीक नहीं। 

      ◾️(५) निरुक्तकार यास्कमुनि भी वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि –

      🔥”नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति।” निरु० १।१६ 

      अर्थात्- वेद की आनुपूर्वी नित्य है। 

      यही बात जैमिनि, कपिल, कणाद, गौतमादि ऋषि-मुनि मानते हैं, यह हम पूर्व [४] कह आये हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ४. द्रष्टव्य – यजुर्वेदभाष्य विवरण भूमिका ( 📖 जिज्ञासु रचना मञ्जरी ) – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु]

      ◾️(६) इस विषय में सब से बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाणं तो उन ब्राह्मण कुलों के अनुपम तप और त्याग का है, जिससे अब तक वेद की आनुपूर्वी हम तक वैसी की वैसी सुरक्षित पहुंच रही है, जिन्होंने एक-एक मन्त्र के जटा-माला-शिखा-रेखा-ध्वज-दण्ड-रथ-घनपाठादि को बराबर कण्ठस्थ करके सदैव सुरक्षित रक्खा, और अब तक रख रहे हैं। उनके पाठ में किसी प्रकार का व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, न हो ही रहा है। यदि यह प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने न होता, तो सम्भव था कि किसी को कहने का अवसर होता कि न जाने वेद में किस-किस काल में क्या क्या परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे, इसको कोई क्या कह सकता है। पर ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण संसार भर में केवल भारतवर्ष में ही मिलेगा, जहाँ वेद के एक-एक अक्षर और मात्रा की रक्षा का ऐसा सुन्दर और सुनिश्चित प्रबन्ध सदा से निरन्तर चलता रहा हो। वेद की आनुपूर्वी को सुरक्षित रखने का यह ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है। 

[अगला विषय – आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता] 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदभाष्य (वेदार्थ) की कसौटियां । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      यह पहिले बतलाया जा चुका है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान, अपौरुषेय, नित्य तथा सृष्टिनियमों के अनुकूल है। अतः उसका अर्थ करते समय भी उन्हीं कसौटियों को यथार्थ समझना अनिवार्य है, जो कि इन पूर्वोक्त बातों का विरोध न करती हों, अतः वेदार्थ की दृष्टि से संक्षेपतः उनका निरूपण करते हैं –

      ▪️(१) वेद में सार्वभौम नियमों का प्रतिपादन होना चाहिये, जो मानव समाज में परस्पर विरोध उत्पन्न करनेवाले न हों। 

      ▪️(२) किसी देश या जातिविशेष का सम्बन्ध उस में न होना चाहिये। 

      ▪️(३) ईश्वर के गुण, कर्म तथा सृष्टि नियमों के विरुद्ध न हो। 

      ▪️(४) ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ वेद सब सत्य विद्यानों का पुस्तक है, उस से यह अवश्य विदित हो। 

      ▪️(५) मानवजीवन के प्रत्येक अङ्ग पर प्रकाश डालता हो, अर्थात् मानव की ज्ञानसम्बन्धी सभी आवश्यकताओं को पूरा करता हो। 

      ▪️(६) न्यायादि शास्त्रों के नियमों के विपरीत न हो, दूसरे शब्दों में तर्क की कसौटी पर ठीक उतरे, अर्थात् तर्कसम्मत हो। 

      ▪️(७) जिसमें किसी व्यक्तिविशेष का इतिहास न हो। 

      ▪️(८) त्रिविध अर्थों का ज्ञान कराता हो। 

      ▪️(९) आप्तसम्मत हो, ऋषि-मुनियों की धारणायें भी जिसके अनुरूप हों। 

      ▪️(१०) जिस की एक आज्ञा दूसरी आज्ञा को न काटती हो।

      अति संक्षेप से ये वेदार्थ की कसौटियाँ कही जा सकती हैं। इनके विषय में पूर्व(जिज्ञासु रचना मञ्जरी पृ॰ ३९-४०) संक्षेप से लिखा जा चुका है, यहाँ इस विषय में कुछ और प्रकाश डालना अनुपयुक्त न होगा –

      ◾️(१) सर्वतन्त्र-सिद्धान्त या सार्वभौम-नियम – 

      जो बातें सबके अनुकूल, सब में सत्य, जिनको सब सदा से मानते आये, मानते हैं और मानेंगे, जिनका कोई भी विरोधी न हो, जो प्राणिमात्र के कल्याणकारक हैं, ऐसे सर्वतन्त्र सर्वमान्य सिद्धान्त ही संसार में सुख और शान्ति के प्रतिपादक हो सकते हैं। वेद तो स्पष्ट ही कहता है –

      🔥…मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।       

      ……मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥ [यजु॰ ३६।१८] 

      प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखो। 🔥“यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः” [यजु० ४०।७], 🔥”भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीराः” [केनोप॰ २।५], 🔥”स्वस्ति गोम्यो जगते पुरुषेभ्यः” [अथर्व॰ १।३१।४], वेद के इन मन्त्रों तथा उपनिषद् के वचनों में स्पष्ट इस उपर्युक्त बात का प्रतिपादन हमें मिलता है। ऐसी अवस्था में यदि कोई वेद का अर्थ इसके विरुद्ध करता है, तो कैसे माननीय हो सकता है ! ईश्वर का ज्ञान वेद, फिर भी जाति जाति में, और देश-देश में फूट डलवाने वाली बात कहे, यह कैसे हो सकता है। वह तो समता का प्रतिपादक है, न कि विषमता का। मानवहृदय की विषमता दूर करना ही तो उसका ध्येय है। वेद का प्रत्येक मन्त्र किसी न किसी रूप में सर्वतन्त्र सिद्धान्त का प्रतिपादक है, यह हमारा कहना है। इस कसौटी को लेकर प्रत्येक को वेद के अर्थ का परीक्षण करना चाहिये। 

      ◾️(२) किसी देश या जातिविशेष का सम्बन्ध उसमें न होना चाहिये – 

      ऐसा होने से ईश्वर में पक्षपात सिद्ध होगा। दूसरे-जिस जाति वा देश का वर्णन वेद में होगा, वेद की उत्पत्ति उसके पीछे ही माननी पड़ेगी, इस प्रकार उसकी नित्यता नहीं रह सकती। ऋ॰ १।३।११, १२ में –

      🔥”चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्”। 

      🔥”धियो विश्वा वि रोजति”। 

      विश्व के लिये बुद्धियों वा ज्ञान के प्रकाश का उपदेश वेद करता है। योगदर्शन [२।३१] में भी 🔥’जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्’ ऐसा लिखा है। 

      इसके विरुद्ध जो शङ्का करते हैं, कि वेद में अमुक जाति वा अमुक व्यक्तियों का इतिहास है, इसके विषय में हम आगे लिखेंगे। 

      ◾️(३) ईश्वर के गुण, कर्म और सृष्टिनियमों के विरुद्ध न हो –

      ईश्वर सर्वज्ञ है, उत्पत्ति, स्थिति, संहार का कर्ता, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी आदि गुणों से युक्त है। यदि वेद के मन्त्रों के अर्थ इन गुणों के विपरीत हों तो यही कहना होगा कि वह वेद का ठीक अर्थ नहीं है, अन्यथा वेद ईश्वर की कृति नहीं माना जा सकता। वेद कहता है –

      🔥विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः॥ [ऋ॰ १०।८१।३] 

      🔥य इमा विश्वा भुवनानि चाक्लृपे॥ [अथर्व॰ ७।८७।१] 

      🔥प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम्॥ [अथर्व॰ १०।७।८] 

      🔥यस्मिन भूमिरन्तरिक्षं द्यौर्यस्मिन्नध्याहिंता। 

      यत्राग्निश्चन्द्रमाः सूर्यो वातस्तिष्ठन्त्यापिताः॥ [अथर्व॰ १०।१७।१२] 

      सब का स्रष्टा, धा, नियन्ता परमेश्वर है, इत्यादि मन्त्र उपयुक्त कसोटी के सर्वथा अनुरूप हैं। 

      ◾️(४) वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक हो – 

      जब वेद ईश्वरीय ज्ञान है, तो वह पूर्ण ज्ञान होना चाहिये, जो प्राणिमात्र को अपेक्षित है। अन्यथा उसकी अपूर्णता उसके वेदत्व का ही विघात करेगी। इसलिये ऋषि-मुनि ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ [मनु॰ २।७] वह समस्त विद्याओं का भण्डार है, ऐसा मानते हैं। यद्यपि यह बात अभी तक प्रायः साध्य कोटि में है, और तब तक रहेगी, जब तक सम्पूर्ण विद्याओं के ज्ञाता नहीं हो जाते। उससे पूर्व हमें इसका निर्बाध ज्ञान कैसे हो सकता है। पुनरपि हमें अंशतः इस का ज्ञान अवश्य हो रहा है। पर वेद में समस्त विद्यायें होनी चाहिये, इसका बाध तो कोई नहीं कर सकता। यह बात सर्वसम्मत है। स्वामी दयानन्दजी ने ही नहीं, स्वामी शङ्कराचार्य ने भी ऐसा ही माना है –

      🔥”महत ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म। नहीदृशस्य शास्त्रस्यर्ग्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः सम्भवोऽस्ति”। [वेदांत शाङ्करभाष्य १।१।३] 

      अर्थात्- अनेक विद्याओं के स्रोत ऋग्वेदादि का कर्ता विना सर्वज्ञ जगदीश्वर के कोई नहीं हो सकता।

      ◾️(५) मानव-जीवन के प्रत्येक प्रङ्ग पर प्रकाश डालता हो – 

      इस नियम से चारों वर्णों और चारों आश्रमों के सब धर्मों का मूलतः उपदेश वेद में होना अनिवार्य है। 🔥”ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्” [यजु॰ ३१।११] इत्यादि मन्त्र चारों वर्गों के कर्तव्यों का उपदेश करते हैं, इसी प्रकार चारों आश्रमों के कर्तव्यों का निरूपण करनेवाले ब्रह्मचर्यसूक्त [अथर्व॰ ११।५] तथा गृहस्थाश्रम (अथर्व॰ १४।२३] आदि के प्रकरण वेदों में अनेक स्थलों में हैं। 

     ◾️(६) तर्कसम्मत हो – 

     🔥”बुद्धि पूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे” (वैशे॰ ६।१।१) के अनुसार वेद में तर्क के विरुद्ध कुछ नहीं हो सकता। 🔥”तर्क एव ऋषिः” [निरु॰ १३।१२] ऋषियों के इन वचनों के आधार पर हमें मानना होगा कि वेद का कोई भी मन्त्र इसकी अवहेलना नहीं कर सकता। यह बात भी अभी वेद के मर्मज्ञ विद्वानों को छोड़कर अन्य साधारण जनता के लिये तो प्रायः साध्यकोटि में ही कही जा सकती है। 

     ◾️(७) व्यक्तिविशेषों का इतिहास न हो – 

      इन्द्र-कण्व-अङ्गिरः आदि शब्दों के आगे तरप-तमप (Comparative तथा Superlative degree) प्रत्यय हमें वेद में [ऋ॰ ७।७९।३ तथा ऋ॰ १।४८।४] स्पष्ट मिलते हैं। तरप्-तमप् प्रत्यय विशेषणवाची शब्दों के ही आगे प्रयुक्त होते हैं, न कि व्यक्तिविशेषों के नाम के आगे। इस से हम समझ सकते हैं कि ये विशेषणवाची शब्द हैं, न कि किन्हीं व्यक्तिविशेषों के नाम। स्थालीपुलाक-न्याय से यहाँ हम इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं। शेष ऐतिहासिक स्थलों के विषय में आगे लिखा जायगा। 

      ◾️(८) त्रिविध अर्थों का ज्ञान करानेवाला हो –

      निरुक्तकार यास्क मुनि के मत में वेद के प्रत्येक मन्त्र का तीन प्रकार का अर्थ होना चाहिये, ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार स्कन्दस्वामी ने (निरुक्त का प्रमाण देकर) कहा है [देखो भाष्यविवरण पृ॰ २१, ३३]। ऐसी दशा में हमें किसी का भी किया अर्थ सामने आने पर देखना होगा कि वह तीनों अर्थों को कहता है, या तीनों में से किसी एक को, या तीनों से भिन्न ही कुछ बोल रहा है। इस कसोटी से हमें वेदार्थ करनेवाले व्यक्ति की योग्यता का भी पता तत्काल लग जायगा कि उसको वेदार्थ के विषय में कहाँ तक गहरा ज्ञान है। 

      ◾️(९) ऋषि-मुनियों की धारणा के अनुकूल हो –

      जैसा हमने ऊपर यास्क का मत दिखाया, इसी प्रकार यास्कमुनि की अन्य धारणाओं तथा अन्य ऋषियों की वेदार्थ विषय में जो धारणाएं हैं, उनको लेकर वेदार्थ की परीक्षा करनी होगी। जब यास्क प्रत्येक मन्त्र के तीन अर्थ मानता है, तो हमें बाधित होकर वैसा ही वेद का अर्थ ग्राह्य समझना होगा, दूसरा नहीं। 

      ◾️(१०) जिसकी एक आज्ञा दूसरी प्राज्ञा को न काटती हो –

      विप्रतिषिद्ध बात या तो पागल कहता है, या अज्ञानी। सो ईश्वर से बढ़ कर ज्ञानी और कौन हो सकता है ! अतः उसका ज्ञान भी परस्पर विरुद्ध कभी नहीं हो सकता। यह बात वेद में पूरी लाग होती है। अतः वेद के अर्थ में ऐसी किसी विप्रतिषिद्धता की सम्भावना नहीं हो सकती।

      ये सब कसौटियाँ हमने अति संक्षेप से निर्देश-मात्र वर्णन की हैं। इस विषय में और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर यहाँ इतना ही पर्याप्त होगा। इन कसौटियों को लेकर ही हमें आगे वेदार्थविषय में विवेचना करनी होगी। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

यास्क और मन्त्रों के कर्ता ऋषि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

इस विषय में यास्क की क्या सम्मति है सो भी सुनिये –

🤨पूर्वपक्षी – 

      ◾️(१) देखो निरुक्त ३।११ – 

      🔥ऋषिः कुत्सो भवति, कर्त्ता स्तोमानाम् इत्यौपमन्यवः॥

      अर्थात्- कुत्स ऋषि होता है, स्तोमों (मन्त्रों) का कर्ता, ऐसा औपमन्यवाचार्य का मत है। इसमें 🔥”कर्ता स्तोमानाम्” का अर्थ मन्त्रों का बनानेवाला – कितना विस्पष्ट है। क्या इससे प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं कि यास्क ऋषियों को मन्त्रों का कर्ता (बनानेवाला) मानता है ? 

      ◾️(२) और देखिये- निरु० १०।४२ –

      🔥अम्यासे भूयांसमर्थ मन्यन्ते तत् परच्छेपस्य शीलम्। 

      यहाँ परुच्छेप ने मन्त्र बनाये, ऐसी झलक प्रतीत होती है। आगे का पाठ निम्न प्रकार है –

      🔥परुच्छेप ऋषिः पर्ववच्छेपः परुषि परुषि शेपोऽस्येति वा।

      यहाँ भी परुच्छेप को ‘ऋषि’ कहा गया है। क्या इन प्रमाणों से ऋषि मन्त्रों के कर्ता हैं, इसमें कुछ भी सन्देह रह जाता है ? 

🌺सिद्धान्ती –

      ◾️(१) सबसे प्रथम हम निरुक्त के 🔥“कर्ता स्तोमानाम्” का अर्थ स्वयं न करके आचार्य यास्क के अपने शब्दों में ही दर्शा देते हैं –

      देखिये निरुक्त ३।११ में 🔥”कर्ता स्तोमानामित्यौपमन्यवः” में जिस औपमन्यव आचार्य के मत से ‘कर्ता स्तोमानाम्’ ऐसा यास्क ने लिखा, उसी औपमन्यव आचार्य के मत से यास्क ने निरु० २।११ में ऋग्वेद दशम मण्डल के ९८ सूक्त के ५वे मन्त्र में आये हुये ऋषि शब्द का अर्थ दर्शाते हुए लिखा है –

      🔥ऋषिर्दर्शनात् स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः॥

      अर्थात् ऋषि-द्रष्टा होने से – स्तोमों (मन्त्रों) को देखा (न कि बनाया), ऐसा औपमन्यव आचार्य का मत है। 

      कितना विस्पष्ट लेख है। जिस औपमन्यव आचार्य के मत से 🔥“कर्ता स्तोमानाम्” लिखा, उसी का मत दिखाते हुये यास्क ने 🔥”स्तोमान् ददर्श” ऐसा लिखा। यदि दूसरे के मत से लिखा होता तो पूर्वपक्षी को यह कहने का अवसर भी मिल सकता था कि एक आचार्य ऋषियों को मन्त्रों का कर्ता मानता है, दूसरे द्रष्टा। परन्तु यहाँ पर तो दोनों स्थलों में वही एक ही औपमन्यव आचार्य है। अतः इसमें शङ्का का यत्किञ्चित् भी स्थान नहीं रह जाता। 

      ◾️(२) 🔥”परुच्छेपस्य शीलम्”- यहाँ दुर्गाचार्य का मत निम्न प्रकार है –

      🔥”परुच्छेपस्य मन्त्रदृशः शीलम्” स हि नित्यमभ्यस्तैः शब्दः स्तौति। मन्त्रदृशोऽपि, स्वभाव उपेक्ष्य इत्युपप्रदर्शनायेदमुक्तम्। 

      कैसी हृदयग्राही सङ्गति लग रही है। इसमें भी कोई खींचातानी का व्यर्थालाप करे तो अन्धेर है। 

      इस विषय में एतद्देशीय तथा विदेशीय विद्वान् कुछ आशङ्कायें उठाते हैं कि –

      ▪️(क) 🔥”नम ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यः …..॥ [ते० आ० ४।१।१ तथा- शा० आरण्यक।] 

      🔥आङ्गिरसो मन्त्रकृतां मन्त्रकृदासीत्॥ [ताण्डयमहाब्राह्मण १३।३।२४॥ तथैव आपस्त० श्रौतसूत्रे॥] 

      ▪️(ख) 🔥यावन्तो वा मन्त्रकृतः॥ [कात्यायनश्रौतसू० ३।२।८।। तथा च–बौधायन श्रौ० सू०]

      ▪️(ग) गृह्यसूत्रों में – 🔥श्रद्धाया दुहिता-स्वसर्षीणां मन्त्रकृतां बभूव॥ [काठक गृह्यसूत्र ४१।११॥] 

      🔥ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यः॥ [सत्याषाढ श्री. सू० ३।१॥] 

      इत्यादि प्रमाणों को लेकर ऋषियों को मन्त्रों के बनानेवाले बताते हैं । (विशेष देखो ऋग्वेद पर व्याख्यान पृ० ३४ से ३५)। 

      इस पर अधिक न लिख कर हम कुछ ही स्थलों का भाष्यकारों का अर्थ दर्शाये देते हैं –

      ◾️(१) तै॰आ० के भाष्य में महाविद्वान् भट्टभास्कर का निम्न लेख है –

      🔥अथ नम ऋषिभ्यो द्रष्टुभ्यः, मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्राणां द्रष्टभ्यः, दर्शनमेव कर्त्तृत्वम्॥

      ◾️(२) सायणाचार्य ने भी तै॰आ० के इसी स्थल पर लिखा है –

      🔥ऋषिरतीन्द्रियार्थद्रष्टा मन्त्रकृत करोतिधातुस्तत्र दर्शनार्थः॥ 

      इन दोनों उद्धरणों से सर्व श्रौतगह्यादि में इस शब्द के अर्थ की अवस्था समझ में आ जाती है। इस प्रकार वेद तथा इन गृह्य श्रौत आदि मन में कर्तत्व से द्रष्टृत्व ही यास्क और औपमन्यव सदृश ऋषियों को अभिमत है। तब हमें ‘मन्त्रकृतां’ का ऐसा अर्थ मानने में क्या विप्रतपत्ति हो सकती है। 

      यहाँ यास्क का प्रमाण सब प्रमाणों में सर्वत: उपरि है। 

      (३) आप कहेंगे कि “डुकृञ्” तो ‘करणे’ अर्थ में धातुपाठ में पढ़ा है। सो भी अज्ञान की बात है। देखिये महामुनि भगवान् पतञ्जलि ‘करोति’ का अर्थ क्या मानते हैं –

      महाभाष्य 🔥”भूवादयो धातवः” के भाष्य में –

      🔥बह्वर्था अपि धातवो भवन्ति। तद्यथा वपिः प्रकिरणे दृष्टः, छेदने चापि वर्तते केशश्मश्रु वपतीति…..। करोतिरभूतप्रादुर्भावे दृष्टः, निर्मलीकरणे चापि वर्तते पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु, उन्मृदानेति गम्यते। निक्षेपणे चापि वर्तते कटे कुरु, घटे कुरु, अश्मानमितः कुरु स्थापयेति गम्यते। [महाभाष्य अ० १।३।१]

      अर्थात्-धातु बहुत अर्थवाले भी होते हैं। जैसे वप् धातु बखेरने अर्थ में देखा जाता है। काटने के अर्थ में भी होता है। जैसे केशश्मश्रु को (वपति) काटता है, करोति अभूतप्रादुर्भाव (जो नहीं था और हो गया) अर्थ में देखा जाता है। निर्मलीकरण (धोने) अर्थ में भी होता है। जैसे पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु का अर्थ पृष्ठ को धोओ पाँवों को धोवो, यह है। ‘इतः कुरु’ का अर्थ इधर कर दो, रख दो या हटा दो, यही प्रतीत होता है इत्यादि। अकस्मात् यहाँ करोति का ही अपना अभिमत अर्थ पतञ्जलि ने दे दिया है। अब भी इसे कोई कल्पनामात्र ही समझता रहे तो परमात्मा ही उसकी बुद्धि को सुमार्ग= सीधे सरल मार्ग पर लावे। इससे अधिक और क्या कह सकते हैं। 

     ◾️(४) वर्तमान उपलब्ध आधुनिक वेदभाष्यकारों में सर्वप्रथम आचार्य स्कन्द स्वामी (जिसके हम बहुत कृतज्ञ हैं) की सम्मति देते हैं- 

      निरुक्त भा० २ पृ० ५८३ – 

      🔥क्रियासामान्यवचनत्वात् करोतिरत्र रक्षणार्थ उत्तारणार्थो वा। 

      धात्वर्थ पर हम पुनः किसी समय अवसर मिलने पर विचार करेंगे, यहाँ पर इतना ही पर्याप्त है। 

      अन्त में निरुक्त का एक स्थल और उपस्थित करते हैं –

      ◾️(५) निरुक्त ७।३ –

      🔥एवमुच्चावचैरभिप्रायैऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्ति। 

      ऋषियों को मन्त्रों का दर्शन होता है, न कि वह मन्त्रों के बनाने वाले होते हैं, यह इस लेख से विस्पष्ट है। 

      स्कन्दस्वामी (४।१९ पृ० २४६९) ऋषि का अर्थ स्तोता करते हैं। 

      🔥च्यवन इत्येतदनवगतम्। च्यावन इत्येव न्याय्यम्। ऋषिरभिधेयः, तदाह च्यावयिता स्तोमानाम्, देवानां प्रतिगमयिता स्तोतेत्यर्थः। 

      इसी प्रकार इस विषय में अन्य भी बहुत से प्रमाण हैं, परन्तु यहाँ पर इतने ही पर्याप्त हैं । अतः यास्क वेदों को अपौरुषेय मानते हैं, यह सर्वथा सिद्ध है। 

      ◼️यास्क और वेदों का नित्यत्व तथा प्रयोजनत्व – यह भी पूर्व निर्दिष्ट प्रमाण- 🔥”पुरुषविद्यानित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे” में पुरुष की विद्या अनित्य होने से- तद्भिन्न नित्य विद्या वाले (प्रभु) की नित्य विद्या होने से नित्यत्व सिद्ध है।

      🔥“कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे” इस वचन से वेद में सम्पूर्ण कर्त्तव्य कर्मों की सम्पत्ति (सम्पादन प्रकार) सम्पूर्णता प्रतिपादित है। इसी से वेद ज्ञान की प्रयोजनता प्रत्येक मनुष्य को स्वकल्याणार्थ अवश्य है, यह भी सुस्पष्ट है। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

ऋषिभाष्य की अध्ययनविधि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      अब हम यहाँ ऋषिभाष्य के अध्ययन विषयक कुछ विशेष निर्देश[१] कर देना भी आवश्यक समझते हैं, जिससे इस भाष्य का अध्ययन करनेवालों की बाधायें पर्याप्त दूर हो सकती हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. सामान्य निर्देश यह है कि श्री स्वामी जी महाराज अग्नि-वायु-इन्द्र आदि शब्दों से अभिधा (मुख्य) वृत्ति से ही परमेश्वर अर्थ लेते हैं, गौणीवृत्ति से नहीं। यह बात समझकर ही वेदभाष्य का अध्ययन करना चाहिये। जैसा कि हम पूर्व भी दर्शा चुके हैं।]

◼️(१) ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य का अध्ययन करनेवाले अनेक सज्जनों की एक ही जैसी शङ्कायें हमारे सम्मुख समय-समय पर आती रही हैं –

      ◾️(क) बिना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का सम्यक् अनुशीलन किये वेदभाष्य समझ में नहीं आ सकता। सर्वप्रथम इस पर अधिकार होना आवश्यक है। 

      ◾️(ख) संस्कृतपदार्थ देखने से मन्त्र का अभिप्राय कुछ भी समझ में नहीं आता। 

      ◾️(ग) संस्कृत और भाषा मेल नहीं खाती। 

      जिन महानुभावों को ऐसी शङ्का होती है, वह उनका भ्रममात्र है। मन्त्र का अभिप्राय अन्वय से ही ज्ञात हो सकता है। इसलिये मन्त्रोच्चारण के पश्चात् अर्थ समझने के लिए सब से प्रथम अन्वय को ही देखना चाहिए। तत्पश्चात् ही संस्कृतपदार्थ को देखने से ज्ञात होगा कि आचार्य ने उक्त अभिप्राय मन्त्र के किन-किन शब्दों से और कैसे-कैसे निकाला। इसका रहस्य आर्षशैली से संस्कृत पढ़े लिखे ही यथावत् रीति से अनुभव कर सकते हैं। 

      इस प्रक्रिया को न समझकर बहुत से संस्कृत पढ़े लिखे भी भूल करते देखे गये हैं। यह भी ज्ञात रहे कि भाषार्थ भाषा जाननेवालों की सुगमता को लक्ष्य में रखकर अन्वय के अनुसार ही किया गया है। “भ्रान्ति निवारण” पृ०६ में ऋषि का लेख निम्न प्रकार है –

      “भाषा में संस्कृत का अभिप्रायमात्र लिखा है। केवल शब्दार्थ ही नहीं, क्योंकि भाषा करने का तो यह तात्पर्य है कि जिन लोगों को संस्कृत का बोध नहीं, उनको बिना भाषार्थ के यथार्थ वेदज्ञान नहीं हो सकता”। 

      इस भाषार्थ को संस्कृत के पढ़े-लिखे अपनी संस्कृत के अभिमान में नही देखते, वास्तव में मन्त्र का अभिप्राय ‘अन्वय’ से याथातथ्य ज्ञात हो जाता है। भाषार्थ देखने से वह और भी स्पष्ट विदित हो जाता है, कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता। श्री स्वामी जी महाराज के उक्त अर्थ में प्रमाण क्या हैं, तथा सब प्रक्रियाओं को लक्ष्य में रखते हुए तत्तद पद का अर्थ क्या होगा, बस इसके लिये संस्कृत पदार्थ है। ऋषिभाष्य में यह विशेष रहस्य की बात है, जिसको साधारण संस्कृत पढ़े-लिखे समझ नहीं सकते। वास्तव में संस्कृतपदार्थ ही ऋषि दयानन्द का मुख्य वेदार्थ है, अन्वय उसका एक अंश है, इसी में आचार्य की अपूर्व योग्यता और अगाध पाण्डित्य का परिचय मिलता है। 

      आशा है विज्ञ पाठक इतने से समझ लेंगे कि संस्कृतपदार्थ और भाषार्थ के मेल न मिलने की बात सर्वथा अज्ञतापूर्ण है, तथा संस्कृत में पदार्थ देखने का क्या प्रकार है, यह भी उनकी समझ में आ जायेगा। जिनको इस विषय में सन्देह हो, वे सज्जन मिलकर समझ सकते हैं। 

◼️(२) श्री स्वामीजी के संस्कृतपदार्थ में सब प्रक्रियाओं का अर्थ विद्यमान है, यह समझना चाहिये। जहाँ दो प्रकार का अन्वय है, वहाँ भी कहीं तो अन्वय सबका सब समान है, केवल अर्थभेद दिखा दिया है। जैसे यजु० १।८ पृ० ५७, ५८। कहीं-कहीं तीन प्रकार का अन्वय दिखाया है जेसे १।११ पृ० ६६, ६७। यहाँ तीनों अन्वय भिन्न हैं।

◼️(३) महर्षिकृतभाष्य में जड़पदार्थों के सम्बोधन में सर्वत्र व्यत्यय मानकर विकल्प में प्रथमान्त में अर्थ किया गया है, यह बात प्रत्येक पाठक को ध्यान में रखनी चाहिये। वर्तमान भ्रान्त संसार को जड़पदार्थों की पूजा वा उपासना से अभीष्ट कामनायों की प्राप्ति होती है, इस मिथ्याविचार को दूर करने की भावना से ऋषि दयानन्द ने जड़पदार्थों के सम्बोधन में उपर्युक्त प्रकार वर्ता है, जो वर्तमान अवस्था में तो सर्वोत्कृष्ट प्रकार ही कहा जायगा। हाँ, वेदार्थ का सच्चा ज्ञान होने पर सम्बोधन मान कर भी अर्थ किया जा सकता है। जब हम वेदमन्त्रों का मुख्य अर्थ आध्यात्मिक मानते हैं (जो वास्तव में मुख्य ही है), तो आधिभौतिक अर्थ में स्वभावतः सम्बोधन पदों को प्रथमा में ही समझने से हमें वेद में सब सत्यविद्याओं का ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। नहीं तो जैसे विदेशी विद्वान् कहते हैं कि वेद जङ्गलियों की भौतिकपदार्थ सम्बन्धी प्रार्थना मात्र है, यही मानना पड़ेगा, चाहे इसके लिये उन्हें विग्रहवती (शरीरधारी) देवताओं की कल्पना ही करनी पड़ी, जैसा कि पिछले लगभग दो तीन सहस्र वर्ष से की जा रही है, जिन विग्रहवती देवताओं का मीमांसाशास्त्र के आचार्य कुमारिल भट्टादि ने भी स्पष्ट खण्डन किया है (देखो मीमांसा ९।१।५)। 

◼️(४) यजु० १।२ पृ० ३६ आदि में जहाँ-जहाँ “यज्ञो वै वसु” इत्यादि शतपथ तथा अन्य ब्राह्मणों के प्रमाणों में ‘व’ शब्द का प्रयोग है, वहां कोई कोई सज्जन शङ्का उठाया करते हैं कि यह ‘वै’ शब्द अर्थबोधक नहीं है। उनकी जानकारी के लिए हम यहाँ केवल एक ही स्थल उपस्थित करते हैं। लोगाक्षिगृह्यसूत्र का भाषयकार देवपाल पृ० -३२ में लिखता है ‘वैशब्दोऽवधारणार्थः’। 

◼️(५) ◾️(क) पाठकों को विदित होगा कि हमने भाषापदार्थ की सङ्गति, जो पूर्व संस्कृतसङ्गति के साथ ही थी, पाठकों की सुगमता के लिए भाषा पदार्थ से पहिले रखी है। इस विषय में यह विदित रहे कि तीन अध्याय तक की ‘क’ हस्तलेख कापी में भी भाषासङ्गति भाषा पदार्थ से पूर्व में ही है।

      ◾️(ख) भाषार्थ (पदार्थ) के स्थान में ‘पदार्थान्वय भाषा’ ऐसे बहुत से मन्त्रों में उपलब्ध होता है। अर्थात् भाषा ‘पदार्थ’ अन्वय के आधार पर है।

      ◾️(ग) संस्कृतपदार्थ में प्रत्येक व्याख्येय पद के अन्त में [।] इस प्रकार के विराम हैं। सो वे यजु० ५।३४ तक तो हैं, आगे ४०वें अध्याय के अन्त तक नहीं। हाँ, जहाँ प्रमाण पा जाता है, वहाँ तो प्रमाण के अन्त में विराम है। ऋग्वेदभाष्य के आरम्भ-आरम्भ में विराम हैं, आगे अन्त तक प्रमाणमात्र में हैं। भाषापदार्थ में भी यजु० ५।३५ से आगे विराम नहीं हैं। पाठकों को इसका ध्यान रहे। 

     ◾️(घ) द्वितीय अध्याय ६वें मन्त्र से लेकर २०वें मन्त्र तक आचार्य प्रदर्शित मन्त्र की सङ्गति विशेष देखने योग्य है।

◼️(६) वेदमन्त्रों में एक ही मन्त्र के अनेक अर्थ होने में यह हेतु है कि यह सृष्टि जीव के ज्ञान की अपेक्षा अनन्त है। कोई भी एक जीव इसका पारावार नहीं पा सकता, क्योंकि यह उसकी शक्ति से बाहिर है। इस अनन्त सृष्टि में अनन्त पदार्थ हैं, उनमें से यदि एक-एक का वर्णन होने लगे तो एक-एक ग्रन्थ बन जावे। केवल अग्नि, वायु, जल, मिट्टी, तुलसी की पत्ती वा आक (मदार) का ही वर्णन करने लगें तो एक-एक पृथक ग्रन्थ की रचना करनी पड़े। परमात्मा ने जीवों को ऐसा ज्ञान दिया कि एक ही मन्त्र में जिस ऋषि को जिस विषय की प्रौढ़ता प्राप्त थी, उस उस ने उस-उस विषय का ज्ञान उस-उस मन्त्र से उपलब्ध किया। इन्हीं से वेदाङ्ग तथा उपाङ्गों की रचना पृथक्-पृथक् हुई। 

      इस प्रकार ही ज्ञान देने से विश्वभूमण्डल का ज्ञान जीवों को दिया जा सकता था। यह बात तभी हो सकती है, जब एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हों। अन्यथा “सर्वज्ञानमयो हि सः” मनु के इस वचनानुसार सम्पूर्ण विद्यानों का समावेश वेद में हो ही कैसे सकता है। सब व्यवहार तथा सर्वविध ज्ञान का भण्डार तो वेद ही है। वेद का स्वाध्याय करने वालों को यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। 

◼️(७) वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधियज्ञपरक होता है, यह हम पृ० ४८-५० तथा ६७, ६८ पर सविस्तर निरूपण कर चुके हैं। याज्ञिक अर्थ मुख्य अर्थ नहीं, यह भी कह चुके हैं। यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने “यज्ञ” शब्द से देवपूजा, संगतिकरण और दान इन तीनों अर्थों के आधार पर अति विस्तृत अर्थ लिये हैं। संसार के समस्त शुभकार्य “यज्ञ” शब्द के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस भाष्य का स्वाध्याय करते हुये यह बात ध्यान में रखनी अनिवार्य है, तभी इस भाष्य का स्वरूप समझ में आ सकता 

◼️(८) भविष्य में वेदार्थगवेषण का कार्य बहुत ही योग्यता और गम्भीरता से होने की आवश्यकता है। इसके लिए विपुल सामग्री और प्रौढ़ पाण्डित्य चाहिये, तथा अनेक श्रद्धापूर्ण विद्वानों द्वारा निरन्तर परिश्रम से ही यह कार्य हो सकता है। भावी वेदार्थ की खोज में ऋषि का भाष्य प्रकाश का काम देगा, यह हमें पूर्ण विश्वास है। हमारा यह विवरण[२] इस ओर एक छोटा सा यत्न है। विज्ञ पाठक महानुभाव हमारे इस विवरण[२] को इसी दृष्टि से देखने का कष्ट करें, तभी इसकी उपयोगिता का ज्ञान हो सकता है। 

[📎पाद टिप्पणी २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण की भूमिका]

      आशा है पाठक ऋषि भाष्य का अध्ययन करते समय हमारे इन निर्देशों पर अवश्य ध्यान देंगे और उनसे अवश्य लाभ उठावेंगे। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

सर्गारम्भ में वेद का अर्थ । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      यह पूर्व कहा जा चुका है कि शब्द बिना अर्थ के नहीं रह सकता, और भाषा बिना ज्ञान के, ऐसी दशा में आदिज्ञान के साथ ही अर्थ[१] का प्रकाश भी उन आदि ऋषियों के हृदयों में हुआ। उनसे ही आगे भाषा का व्यवहार चला, और उन्हीं से अर्थ का ज्ञान आगे सबको हुआ। व्यवहार की भाषा वेद से ही चली, अर्थात् लौकिक भाषा का निर्माण वेद में वर्णित नियमों के आधार पर ही हुआ और वह वेद की भाषा से भिन्न थी। इतना तो ठीक है कि वेद से निकली होने के कारण देववाणी (संस्कृत) में वेद से लिये शब्दों का बाहुल्य रहा। यह भी कहा जा सकता है कि वेद के कुछ शब्दों को छोड़ कर लोक में उन्हीं शब्दों का व्यवहार हुआ, जो वेद में थे, अतः वेद के आधार पर निर्मित भाषा में जो शब्द मनुष्यों द्वारा बोले गये, वे लौकिक हैं और वेद में प्रयुक्त आनुपूर्वी से युक्त शब्द जो कभी किसी जाति विशेष के मनुष्यों द्वारा बोले नहीं गये, वे वैदिक हैं। इन लौकिक-वैदिक शब्दों का वर्णन महामुनि पतञ्जलि निम्न प्रकार करते हैं –

      🔥”केषां शब्दानां ? लौकिकानां वैदिकानां च। तत्र लौकिकास्तावद्गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति। वैदिकाः खल्वपि-शं नो देवीरभिष्टये। इषे त्वोर्जे त्वा। अग्निमीळे पुरोहितम्। अग्न आयाहि वीतये॥” (महाभाष्यारम्भे)। 

      यहाँ वैदिक शब्दों में एक भी शब्द ऐसा नहीं, जो लोक में न बोला जाता हो। उधर ‘अश्वो ब्राह्मणः’ आदि सभी शब्द वेद में आते हैं। तब स्वभावतः प्रश्न उठता है कि फिर लौकिक और वैदिक शब्दों में भेद क्या हुआ? इसका उत्तर यह है कि वेद की आनुपूर्वी (क्रम) नित्य होती है। 🔥”अग्निमीळे पुरोहितम्” ऐसा ही पाठ रहेगा, 🔥”पुरोहितमग्निमीळे” इत्यादि नहीं हो सकता, अर्थात् वेद में ये शब्द आगे-पीछे कभी नहीं हो सकते। लौकिक शब्दों में यह बात नहीं। मीमांसकों ने 🔥“य एव लौकिकास्त एव वैदिकाः” ऐसा सिद्धान्त निश्चय किया है, उसका अभिप्राय यही है कि सामान्यतया जो शब्द वेद में आये हैं, वही लोक में आते हैं। दूसरे शब्दों में वेदवाणी की पुत्री देववाणी का व्यवहार वेद के शब्दों को लेकर हुआ। यह बात ध्यान में रखने की है कि वेद में कुछ विशेष शब्द आते हैं, जो लोक में नहीं आते। यह ज्ञान सृष्टि के आदि में ही सब ऋषि-मुनियों को था, उन्हीं के द्वारा आगे भी सबको हुआ। 

[📎पाद टिप्पणी १. (ऋ॰ १०।७१।१) में “नामधेय दधानाः” से यह बात अवभासित होती है। ‘अन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्’ से यह अवभासित होता है कि वाणी (वैदिक वा लौकिक) ऋषियों द्वारा सबको बताई गई, पढ़ाई गई वा निर्धारित हुई।]

      लौकिक-वैदिक शब्दों के विषय में अर्थ के सामान्य, विशेष नियमों का ज्ञान आरम्भ में ही हुआ होगा। आगे अध्ययन-अध्यापन का व्यवहार कैसे चला होगा, इसमें सामान्य व्यवस्था तो वही हो सकती है, जो अब है अर्थात् बिना सिखाये कोई सीख नहीं सकता, किसी न किसी के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान और आगे लौकिक शब्दों के अर्थ-सम्बन्ध का ज्ञान भी होना ही चाहिये। अध्यापन की प्रक्रिया में उस समय कोई भेद रहा हो, ऐसा तो समझ में नहीं पाता। इतना भेद अवश्य रहा होगा कि अतः उस समय भाषा देववाणी थी, अतः उन्हें वेद का अर्थ समझने में अतीव सुगमता थी। आरम्भ में वेदार्थ ज्ञान की क्या शैली थी, इस विषय में निरुक्तकार केवल इतना सङ्कत करते हैं – 

      🔥”साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवः। तेऽवरेभ्योऽसाक्षावकृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः”॥ [निरु॰१।२०] 

      अर्थात्- साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने, जिनको ज्ञान नहीं था, उनको उपदेश के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान कराया। 

      🔥’अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ [ऋ॰ १।१।१] 

      🔥’विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव’॥ [यजु॰ ३०।३] 

      इनमें तथा इसी प्रकार वेद के अन्य मन्त्रों में अर्थ का ज्ञान तत्काल ही हो जाता रहा होगा। इस समय भी इनके अर्थ समझने में कोई विशेष कठिनाई नहीं, न ही लौकिक शब्दों से कोई विशेष भेद है, सिवाय इसके कि ‘अग्नि’ आदि शब्दों का अर्थ वेद में केवल इतना ही नहीं होता, जितना कि लोक में। मन्त्र उच्चारण करने के साथ ही उसका अर्थ हृदयङ्गम हो जाता होगा, जैसा कि इस समय भी हो रहा है। भेद केवल इतना ही कहा जा सकता है कि उस समय वैदिक शब्दों के व्यापक अर्थों का ज्ञान प्रायः करके सबको था, क्योंकि आरम्भ में वह ऋषियों के द्वारा सबको मिला था। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

अमृतसर में पौराणिक विद्वानों तथा श्रीशंकराचार्य के साथ नौ घण्टे तक महान् शास्त्रार्थ ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

[पौराणिक विद्वानों तथा श्री गोवर्धनपीठाधीश शंकराचार्य वा श्री स्वामी करपात्रीजी के साथ अमृतसर में मेरा १६, १७ नवम्बर को ६.५ घण्टे संस्कृत में और २.५ घण्टे हिन्दी में शास्त्रार्थ हुआ। यद्यपि यह शास्त्रार्थ मेरा व्यक्तिगत था, पुनरपि यतः मैं ऋषि दयानन्द प्रदर्शित वैदिक सिद्धान्तों में पूर्ण आस्था रखता हूँ अतः यह शास्त्रार्थ आर्यसमाज के साथ हुआ, ऐसा ही माना गया। इस शास्त्रार्थ का उल्लेख भी मुझे ही करना पड़ रहा है और यह मेरे स्वभाव के विपरीत है। पुनरपि इस शास्त्रार्थ में ऐसे कई आज तक अछूते प्रमाण, उनके गम्भीर अर्थ तथा युक्तियाँ दी गई जो आर्य जनता तथा आर्य विद्वानों के लिए भविष्य में कभी लाभप्रद हो सकते हैं। (विशेषकर १७ ता० के मध्याह्नोत्तर के शास्त्रार्थ के समय की)। अतः न चाहते हुए भी मैं इस शास्त्रार्थ की संक्षिप्त रूप रेखा उपस्थित कर रहा हूँ। इसमें एक शब्द भी ऐसा नहीं है, जो उस काल के वर्णन से बाहर का हो। हाँ, भाषान्तर अवश्य है। इसे वेदवाणी में शीघ्र ही प्रकाशित करना था, परन्तु श्री पूज्य गुरुवर के स्वर्गमन के कारण समय पर प्रकाशित नहीं कर सके। – युधिष्ठिर मीमांसक] 

      अमृतसर में ११ नवम्बर से १९ नवम्बर ६४ तक अखिल भारतवर्षीय सर्व वेदशाखा सम्मेलन का सप्तम अधिवेशन हुआ था। इसके अध्यक्ष गोवर्धन पीठाधीश (पुरी के शंकराचार्य) थे और श्री करपात्रीजी की अध्यक्षता में हुआ था। लगभग ५० वैदिक तथा अन्य विषयों के विद्वान् सम्मिलित हुए थे। सम्मेलन की ओर से प्रायः सदा ही कातपय आर्य विद्वानों को भी निमन्त्रण भेजा जाता है, मार्गव्यय आदि देने की व्यवस्था भी सम्मेलन की ओर से की जाती है।

      मुझे भी प्रायः सदा ही निमन्त्रण प्राप्त होता है। चार वर्ष पूर्व देहली के अधिवेशन में मैं सम्मिलित हुआ था और इस बार पुनः सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। 

      देहली के अधिवेशन में अन्तिम दिन अध्यक्ष श्री करपात्रीजी के मध्याह्न में उठ जाने पर किसी पौराणिक वक्ता ने आर्य समाज और ऋषि दयानन्द के प्रति पर्याप्त अनुचित बातें कहीं। मध्याह्नोत्तर सभा आरम्भ होने पर मैंने श्री करपात्रीजी से उनकी अनुपस्थिति में हुई अनुचित कार्यवाही के विषय में ध्यान आकृष्ट करके श्री स्वामी मेधानन्दनी सरस्वती के द्वारा पौराणिक वक्ता के द्वारा कही गई अनुचित-बातों का उत्तर दिलवा दिया। तत्पश्चात् मैंने ऋषि दयानन्द – के वेदभाष्य के वैशिष्टय के सम्बन्ध में विशिष्ट व्याख्यान दिया। उक्त आकस्मिक घटना के अतिरिक्त देहली अधिवेशन की कार्यवाही प्राय: संयत रूप से हुई। विद्वानों के विचार विमर्श चलते रहे। 

      इस बार श्री शंकराचार्यजी की ओर से निमन्त्रण प्राप्त होने पर मैंने उन्हें एक पत्र लिखा, जिसमें देहली में हुई अनुचित घटना का संकेत किया और लिखा कि जब आप लोग अपने से भिन्न विचार वाले विद्वानों को भी सम्मेलन में निमन्त्रित करते हैं, तब उनकी मान्यताओं का भी ध्यान रखना आप का कर्तव्य है। यदि हमें बुला कर हमारे सन्मुख ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के विषय में निरर्गल प्रलाप किया जाए तो उसका एकमात्र यही अभिप्राय होगा कि हमें बुलाकर अपमानित करने की आप की योजना है। यदि ऐसा है तो हमारा आना व्यर्थ है। मैं तो केवल शास्त्रीय चर्चा में ही भाग लेना चाहता हूँ। इत्यादि। 

      इस पत्र का जो उत्तर आया उसका पूर्वाध प्रायः प्रतिक्रियात्मक बातों से भरा था, परन्तु अन्त में लिखा था कि आप विश्वास रखें ऐसी कोई अनुचित कार्यवाही न होगी। आप आना चाहें तो आ सकते हैं। 

      यतः मुझे अमृतसर में कुछ अन्य भी कार्य था, अतः मैंने उत्तर दिया कि मैं १५ नवम्बर को मध्याह्नोत्तर पहुँचूंगा। तदनुसार सम्मेलन में १५ नवम्बर को सायं ५ बजे उपस्थित हुआ। 

      ◼️आर्यसमाज की उदासीनता – इस बार न मालूम मेरे पत्र के कारण अथवा उससे पूर्व आर्यसमाज अमृतसर के उत्सव में आर्यसमाज की ओर से हुए व्याख्यानों से कष्ट से होने के कारण आर्यसमान को नीचा दिखाने की सम्भवतः पूर्व से ही योजना बना रखी थी। मुझे इसका कुछ भी ज्ञान न था।

      अमृतसर नगर में आर्यसमाज का अच्छा जोर है। उन के सामने ही इस महान् आयोजन की तैयारी बहुत दिनों से चल रही थी। स्वयं शंकराचार्य महोदय तीन मास से डेरा लगाए बैठे थे, फिर भी अमृतसर आर्यसमाज के नेताओं ने इस सम्भावित आक्रमण के प्रतिरोध के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। ११ या १२ तारीख को सार्वदेशिक सभा को शास्त्रार्थ के लिए विद्वानों को भेजने के लिए तार देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गई।

      देहली के अधिवेशन में भी यही स्थिति थी। सार्वदेशिक सभा और स्थानीय लगभग ११० समाजों के होते हुए भी किसी ने भी आवश्यकता के समय उचित उत्तर देने के लिए दो चार विद्वानों को बुला कर तैयार नहीं रखा था। उसमें श्री पं० बुद्धदेवजी और श्री स्वामी रामेश्वरानन्दजी कुछ समय के लिए व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हुए थे। वस्तुतः आर्यसमाज की यह उदासीनता उसके लिए बहुत हानिकारक हो रही है, विपक्षियों के हौसले बहुत बढ़ गए हैं। 

      ◼️शास्त्रार्थ का आरम्भ – १६ नवम्बर को प्रातः मैं १० बजे अधिवेशन में उपस्थित हुआ। मुझे देखकर एक पौराणिक विद्वान् ने (पूर्व योजनानुसार) उठ कर कहा [१] –

      “वेद में विज्ञान है या नहीं” इस पर अब शास्त्रार्थ होगा। हमारा पक्ष है कि वेद में विज्ञान नहीं है, वेद केवल यज्ञ कर्म के लिए हैं। इसलिए याज्ञिक अर्थ ही प्रामाणिक है। स्वामी दयानन्द ने आधुनिक विज्ञान को देखकर तदनुसार वेद से विज्ञान निकालने की चेष्टा की है। उदाहरणार्थ- 🔥‘आयं गौः पृश्निरक्रमीत्’ मन्त्र से पृथिवी का सूर्य के चारों ओर घूमना सिद्ध किया है, जबकि वेद का सिद्धान्त है कि सूर्य घूमता है। जो कोई वेद में विज्ञान – मानता है वह स्वामी दयानन्द के अर्थ की प्रामाणिकता सिद्ध करे।[२]

[💡पाद टिप्पणी १. यह ध्यान में रहे कि सम्मेलन की सारी कार्यवाही प्रायः संस्कृत में ही हुई। अतः शास्त्रार्थ भी संस्कृत में ही हुआ।]

[💡पाद टिप्पणी २. यह ध्यान रहे कि पूर्वपक्षी ने मुख्य विषय का प्रतिपादन न करके ऋषि दयानन्द के मन्त्रार्थ पर ही सीधी आक्षेप मुझे शास्त्रार्थ में घसीटने के लिए ही किया था।]

      यद्यपि यह मुझे ही लक्षित करके कहा गया था, पुनरपि इस आशा से कि सम्भव है स्थानीय आर्यसामाजिक व्यक्तियों ने किन्हीं अन्य विद्वानों का प्रबन्ध किया हुआ होगा। वे आए होगे, ऐसा सोच कर मैं मौन रहा। एक मिनट पश्चात् पुनः घोषणा की गई कि जो कोई स्वामी दयानन्द के उपस्थापित मन्त्रार्थ की प्रामाणिकता सिद्ध करना चाहे करे अन्यथा यह समझा जाएगा कि स्वामी दयानन्द का उक्त मन्त्रार्थ अशुद्ध है। 

      इस द्वितीय घोषणा पर मैं उठा। उठ कर कहा कि वेद में विज्ञान है इतना ही नहीं, विज्ञान ही वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। भारतीय विज्ञान और यूरोपीय विज्ञान में भूतलोकाश का अन्तर है और यूरोपीय विज्ञान प्राय: परिवर्तित होता रहता है। अतः जो व्यक्ति आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार वेद से विज्ञान निकालने की चेष्टा करता है तो वह वस्तुत: निन्ध है, परन्तु स्वामी दयानन्द ने वेदार्थ में जिस पृथिवी भ्रमण विज्ञान का प्रतिपादन किया है वह भारतीय विज्ञान है। आर्यभट्ट ने अपने सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में पृथिवी भ्रमण का विस्तार से प्रतिपादन किया है। ऐतरेय और गोपथ ब्राह्मण में सूर्य के उदय और अन्त होने का निषेध किया है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय ऋषि मुनि और आचार्य पृथिवी का भ्रमण तात्विक रूप से मानते थे।[३] जहाँ-जहाँ सूर्य भ्रमण का प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख है यह स्थूल दृष्टि से किया गया है। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण श्रौत यज्ञ विज्ञान मूलक है वे सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय काल में होने वाले आधिदैविक यज्ञ के रूपक है (इस प्रकरण में कर्म काण्ड गत अग्न्याधान का पार्थिव अग्नि के आधान का रूपकत्व प्राचीन संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों से विस्तार से बताया)। इस कारण जब कर्म काण्ड गत यज्ञ मूलतः आधिदैविक विज्ञान मूलक है अतः वेद के याज्ञिक अर्थ की भी परिसमाप्ति आधिदैविक विज्ञान में होती है। इसलिए वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय विज्ञान ही है। साथ ही यह भी ध्यान रहे कि भारतीय परम्परा में यह बात सर्व सम्मत रूप से स्वीकृत है कि वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ तीन प्रकार का होता है। याज्ञिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक (इसमें स्कन्द स्वामी आदि के अनेक प्रमाण दिए) आधिदैविक अर्थ सारा विज्ञान मूलक ही है। अत: वेद का वैज्ञानिक अर्थ करना वस्तुतः ठीक है। 

[💡पाद टिप्पणी ३. इस विषय में जो महानुभाव विस्तार से जानना चाहे वे ऋषि दयानन्द कृत यजुर्वेद भाष्य के अस्मद् आचार्य श्री पं० ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु कृत भाष्य विवरण अ॰ ३ मं॰ ६ पृष्ठ २४९-२५६ तक देखें।] 

      मेरी इस स्थापना के पश्चात् पूर्वपक्षी पण्डित ने मुख्य विषय छोड़ कर मन्त्रार्थ तीन प्रकार का होता है या नहीं इस पर ही बल दिया और पूर्वाह्न का सारा समय इसी विषय में व्यतीत हुआ। अन्त में शंकराचार्य महोदय ने मुझे कहा कि आप तीन प्रकार का अर्थ होता है बार बार कहते हैं किसी एक मन्त्र का ही तीन प्रकार का अर्थ करके बतावे ‘अग्निमीळे’ का ही करें। यतः यह प्रश्न लगभग एक बजे किया गया था, सभा समाप्त होने को थी; अत: मैंने कहा कि कल प्रातः मैं उक्त मन्त्र के तीनों प्रकार के अर्थ बताऊँगा।[४] तत्पश्चात् सभा विसर्जित हुई। 

[💡पाद टिप्पणी ४. कार्यवश मुझे मध्याह्नोत्तर उपस्थित नहीं होना था।]

      १७ ता० को प्रातः ठीक १० बजे मैं सम्मेलन में उपस्थित हुआ और खड़े होकर पूर्व प्रतिज्ञानुसार ‘अग्निमीळे’ मन्त्र का तीन प्रकार का व्याख्यान आरम्भ किया। कुछ समय पश्चात् जनता की ओर से हिन्दी में बोलने के लिए आवाजें आनी शुरू हुई। अध्यक्ष श्री शंकराचार्यजी ने मुझे कहा कि आप के पक्ष के लोग कोलाहल मचा रहे हैं इन्हें शान्त करें। इसके उत्तर में मैंने कहा कि मेरे पक्ष का यहाँ कोई नहीं है, कारण मुझे यहाँ के किसी व्यक्ति ने नहीं बुलाया है। आप के निमन्त्रण पर आया हूँ। अतः जो कोई भी कोलाहल कर रहे हैं सब आप के ही पक्ष के हैं।

      इस प्रकार अन्त में कार्यवाही हिन्दी में आरम्भ हुई। मैंने यज्ञीय मन्त्रार्थ जो कि उभय पक्ष सम्मत था करके उसी – के आधार पर आधिदैविक व्याख्या की। आध्यात्मिक व्याख्या अभी पूरी तरह उपस्थित ही नहीं की थी कि अधिक काल हो जाने के बहाने अध्यक्ष महोदय के आदेश से मुझे बैठना पड़ा। इसके पश्चात् पूर्वपक्षी विद्वान् ने पुनः अपना पैतरा बदला। ब्राह्मण ग्रन्थ वेद है या नहीं इस पर प्रश्न किया। पूर्वाह्न में सारा वादविवाद इसी विषय में होता रहा।

      मैंने इस प्रकरण में कहा कि जिस 🔥मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् वचन के अनुसार ब्राह्मण की वेद संज्ञा मानी जाती है वह वचन केवल कृष्ण यजुर्वेद के श्रौत सूत्रों में ही मिलता है। ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद और सामवेद के श्रौत सूत्रों में नहीं है। इसका कारण यह है कि ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद और सामवेद की मन्त्र संहिताएँ स्वतन्त्र हैं और इनके ब्राह्मण स्वतन्त्र पृथक है, परन्तु कृष्ण यजुर्वेद की संहिताओं – (शाखाओं) में मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का सम्मिश्रण है, अतः प्राचीन परम्परा के अनुसार उनके एक देश मन्त्र की ही वेद संज्ञा प्राप्त थी ब्राह्मण भाग[५] की नहीं। इस प्रकार सम्पूर्ण संहिता का वेदत्व सिद्ध करने के लिए कृष्ण यजुर्वेद के श्रौतसूत्रकारों को ही ऐसा वचन बनाना पड़ा। इसीलिए इस सूत्र की व्याख्या में हरदत्त और धूर्त स्वामी ने स्पष्ट लिखा है 🔥कैश्चिन्मन्त्राणामेव वेदत्वमाश्रितम् अर्थात् किन्हीं व्यक्तियों ने मन्त्रों का ही वेदत्व माना है। इससे भी स्पष्ट है कि प्राचीन अनेक आचार्य मन्त्र को ही वेद मानते थे ब्राह्मण को नहीं। इतना ही नहीं, यदि इस वचन को प्रमाण भी मान लें तब भी आप स्तम्बादि श्रौत सूत्रों के परिभाषा प्रकरण में पठित होने के कारण यह पारिभाषिक संज्ञा है ऐसा मानना पड़ेगा। पारिभाषिक संज्ञा उसी शास्त्र में स्वीकार की जाती है जिसमें वह बताई गई है। यथा पाणिनि की अ ए ओ वर्णों की गुण संज्ञा पाणिनीय शास्त्र में ही स्वीकार की जाएगी। लोक वा न्याय आदि शास्त्रों में गुण शब्द से अ ए ओ का ग्रहण नहीं होगा। अतः 🔥’मन्त्रबाह्मणयोर्वेदनामधेयम्’ सूत्र से ब्राह्मण ग्रन्थों की सामान्य रूप से वेद संज्ञा नहीं हो सकती। मैंने इस सूत्र पर पूरा विस्तृत विचार १२ वर्ष पूर्व ‘मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् इत्यत्र कश्चिदभिनवो विचार:’ पुस्तिका में उपस्थित किया है। श्री करपात्रीजी (वहीं उपस्थित थे) ने उसका उत्तर देने का प्रयत्न तो किया, परन्तु इस बात का उत्तर नहीं दिया कि कृष्ण यजुर्वेदियों को ही ऐसा सूत्र बनाने की क्या आवश्यकता पड़ी, ऋग्वेदादि के श्रौत सूत्रकारों ने क्यों नहीं सूत्र बनाया। कारण स्पष्ट है ऋग्वेदादि में मन्त्र ब्राह्मण का पूर्णतया पार्थक्य है संमिश्रण नहीं, अतः उन्हें ऐसा वचन बनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, इसका कोई उत्तर नहीं दिया। इतना ही नहीं मेरी घोषणा है कि कोई भी पौराणिक विद्वान् इस विवेचना का सही उत्तर आकल्पान्त नहीं दे सकता। इसके साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थ के अनेक प्रमाण उद्धृत किये जिनसे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण वेद से पृथक हैं। इस प्रकार १ बजे यह प्रकरण समाप्त हुआ। 

[💡पाद टिप्पणी ५. यहाँ ब्राह्मण भाग में ‘भाग’ शब्द का प्रयोग कृष्ण यजुर्वेद की संहिता की दृष्टि से किया है। आर्यसमाज के अनेक विद्वान् प्रायः मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग शब्दों का प्रयोग करते हैं, वह अशुद्ध है क्योंकि यदि मन्त्र भाग भी वेद है ऐसा कहा जाएगा तो उसका दूसरा भाग भी वेद माना जाएगा। जो वृक्षत्व वृक्ष की कुछ शाखाओं में है वह उसकी दूसरी शाखाओं तथा मूल वा तने में भी है। अत: मन्त्र भाग वेद है ऐसा स्वीकार करने पर ब्राह्मण भाग को भी न्याय की दृष्टि से भी आपाततः वेद मानना पड़ जाएगा। अतः मन्त्र और ब्राह्मण के साथ भाग शब्द का भूल कर भी व्यवहार नहीं करना चाहिए।]

      मध्याह्नोत्तर पुन: ३:३० बजे से संस्कृत में शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ और अन्त तक संस्कृत में ही होता रहा। 

      प्रथम मैंने गोपथ ब्राह्मण पृ० २।१० का वचन उपस्थित किया – 🔥एवमिमे सर्वे वेदाः निर्मिताः सकल्पाः सरहस्याः सब्राह्मणाः सोपनिषत्काः (इतना ही उपस्थित किया शेष अगली बार के लिए छोड़ दिया)। इस वचन में रहस्य अर्थात् आरण्यक ब्राह्मण और उपनिषदों को वेद से पृथक् करके गिनाया है। यदि ये वेद के अन्तर्गत ही हैं तो पृथक् गिनाने की क्या आवश्यकता? इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मण आरण्यक और उपनिषदें वेद नहीं हैं। ऐसे प्रमाणों को उपस्थित करने पर पौराणिक विद्वान् कहा करते हैं कि यद्यपि ब्राह्मण ग्रन्थ वेद के अन्तर्गत है तथापि 🔥‘ब्राह्मण वसिष्ठ न्याय’[६] से ब्राह्मण ग्रन्थों का वैशिष्टय दिखाने के लिए पृथक् निर्देश किया है। पूर्वपक्षी यही बात न कह दे, इसलिए मैंने स्पष्ट कर दिया कि ब्राह्मण वसिष्ठ न्याय वहाँ लगता है जहाँ वक्ता और श्रोता दोनों यह मानते हो कि वसिष्ठ भी ब्राह्मण है। यदि इनमें से एक भी यह न जानता हो कि वसिष्ठ भी ब्राह्मण है तब यह न्याय नहीं लगता। यहाँ भी यह न्याय तभी लग सकता है जब दोनों पक्ष यह स्वीकार करलें कि ब्राह्मण ग्रन्थ भी वेद हैं। परन्तु ब्राह्मण ग्रन्थ वेद हैं यह तो अभी साध्य है। इतना ही नहीं 🔥सरहस्याः सब्राह्मणाः सोपनिषत्काः में स शब्द का प्रयोग है। इसका प्रयोग अप्रधान के साथ ही सदा होता है यथा 🔥देवदत्तः सपुत्र: समागतः (देवदत्त पुत्र सहित आया) यहाँ देवदत्त का आगमन मुख्य है पुत्र का गौण। इसलिए इस वचन में ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों को पृथक स्वीकार करते हुए (जैसे देवदत्त और उसका पुत्र पृथक् है) वेद से इनकी हीनता अप्रधानता ही व्यक्त की गई है। 

[💡पाद टिप्पणी ६. ब्राह्मणा आयाताः वसिष्ठोऽप्यायातः। यहाँ वसिष्ठ के ब्राह्मण होने से ‘बाहाणाः आयाताः’ कहने से कार्य चल सकता था फिर भी वसिष्ठ का पृथक् निर्देश इसलिए किया कि वह अन्य ब्राह्मणों से विशिष्ठ है, प्रधान है।]

      इस पर पूर्वपक्षी वक्ता ने यथार्थ उत्तर न देते हुए इधर उधर की बातें करके अपना समय बिताया। तदनन्तर मैंने पुनः कहा कि पूर्व आक्षेपों का कोई समाधान नहीं किया गया, इस के साथ ही उक्त वचन में आगे कहा है 🔥सेतिहासाः सपुराणाः क्या इतिहास (महाभारत) और पुराण आप के मतानुसार ( हमारे मत में नहीं ) जो व्यास कृत हैं वेद हैं? जैसे ब्राह्मण ग्रन्थ आदि। क्योंकि इनको भी उसी प्रकार स्मरण किया है। इतना ही नहीं अपौरुषेय वेद में (आप के मतानुसार) गोपथ में व्यास निर्मित महाभारत वा पुराणों का निर्देश कैसे हुआ? 

      इस पर पूर्वपक्षी ने कहा कि प्रतिद्वापर में व्यासजी पुराणों की रचना करते हैं अतः यह कर्म प्रवाह से नित्य है यथा सूर्य चन्द्रादि का निर्माण। इस पर मैंने कहा कि आप के पुराणों में यह नहीं लिखा कि प्रतिद्वापर व्यासजी पुराणों का प्रवचन करते हैं, बल्कि वेदों का प्रवचन करते हैं इतना ही लिखा है अतः आप का उक्त कथन ठीक नहीं। साथ ही मैंने पूछा कि 🔥मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् वचन से तो ब्राह्मण ग्रन्थों की वेद संज्ञा नहीं हो सकती, कोई ऐसा लक्षण बताइये जिस से ब्राह्मण ग्रन्थ भी वेद माने जाएँ। 

      इस पर पूर्वपक्षी ने कहा कि 🔥सम्प्रदायाविच्छिन्नत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृत्वं वेदत्वम् अर्थात् गुरु परम्परा का विच्छेद न होने पर भी जिस ग्रंथ का कर्ता स्मृत न हो वह वेद है। इस से जैसे मन्त्रों का कर्ता स्मृत नहीं वैसे ही ब्राह्मण ग्रंथों का कर्ता स्मृत न होने से दोनों समान रूप से वेद है। 

      पूर्वपक्षी के इस लक्षण पर ब्राह्मण ग्रन्थों के लेखकों का नाम उपस्थित किया जा सकता था परन्तु वैसा न करके मैंने उनके लक्षण में ही क्रमशः दो दोष उपस्थित किए।

      ◾️(१) आप के मत में जिन ग्रन्थों का गुरुशिष्य सम्प्रदाय नष्ट न हुआ हो वे वेद है। हम आपके ग्रन्थों से जानते है कि ब्राह्मण आरण्यक और उपनिषद् ग्रन्थ पहले सस्वर थे अब शतपथ और तैत्तिरीय ब्राह्मण को छोड़ कर सब स्वर-रहित हो गए। अतः स्वर के लुप्त होने से स्पष्ट है कि इन ब्राह्मण ग्रन्थों के पठनपाठन में गुरुशिष्य सम्प्रदाय का नाश हुआ है। क्योंकि जहाँ जहाँ गुरुशिष्य सम्प्रदाय का नाश नहीं हुआ, उन ग्रन्थों में अक्षर मात्रा वर्ण स्वर का एक भी पाठान्तर नहीं मिलता। यथा शाकल संहिता माध्यन्दिन संहिता, तैत्तिरीय संहिता आदि। जिन ब्राह्मण ग्रन्थों में स्वरों का लोप हो गया वह लोप विना सम्प्रदाय नाश के हो नहीं सकता, अतः जिन ब्राह्मणों के स्वरों का नाश हो चुका है अर्थात् सम्प्रदाय भंग हो चुका है वे आपके लक्षणानुसार ही वेद नहीं हो सकते। 

      इस अभूतपूर्व करारी चोट से सभी पूर्वपक्षी घबरा गए। पूर्वपक्षी विज्ञान ने पराजय से बचने के लिए स्वमत विरुद्ध ‘स्वर रहित भी ग्रन्थ वेद है’ मत स्वीकार किया। इस पर मैंने श्री शंकराचार्यजी से व्यवस्था मांगी कि क्या ऋग्वेद के मन्त्रों से स्वर हटा दिए जाएँ तो आप उन्हें वेद मानेगे। उनके पास भी कोई उत्तर नहीं था, अतः उन्होंने स्वीकार किया कि स्वर रहित भी मन्त्र वेद ही है। इस पर मैंने कहा कि आपका यह कहना ठीक नहीं।[७] स्वर रहित ग्रन्थ कदापि वेद नहीं हो सकते क्योंकि मीमांसा के कल्प सूत्राधिकरण में ‘कल्पसूत्र वेद हैं या नहीं’ पर विचार करते हुए इनके वेदस्व को हटाने के लिए युक्ति दी है 🔥असन्निबन्धनत्वात्। इसका टीकाकारों ने अर्थ किया है 🔥स्वररहितत्वात् स्वररहित होने से कल्पसूत्र वेद नहीं है। इससे स्पष्ट है कि स्वर रहित ब्राह्मण ग्रन्थ वेद नहीं हो सकते। इसी प्रसंग में मैंने कहा कि आरम्भ से ही उन ब्राह्मणों पर स्वर नहीं था, यह भी आप नहीं कह सकते क्योंकि पहले लौकिक भाषा भी सस्वर थी। पाणिनि का 🔥विभाषा भाषायाम् (६१) सूत्र इसमें प्रमाण है। इस पर श्री शंकराचार्य कहने लगे कि पाणिनि ने स्वर प्रक्रिया में सारे उदाहरण वेद के दिए है लौकिक भाषा में भी स्वर होता तो उसके भी उदाहरण देते। श्री शंकराचार्य के वक्तव्य के उत्तर में मैंने कहा कि पाणिनि ने कोई उदाहरण अपनी अष्टाध्यायी में नहीं दिए। जो उदाहरण मिलते हैं वे काशिका में वामन के हैं और सिद्धान्तकौमुदी में भट्टोजि दीक्षित के। इतना ही नहीं आप अपना कौमुदी ग्रन्थ भेजिए मैं पचासों सूत्रों के वे उदाहरण दिखाऊँगा जो वेद के नहीं है लौकिक भाषा के हैं। इस पर श्री शंकराचार्य जी को जो अपने को महावैयाकरण मानते हैं, निरुत्तर होना पड़ा। 

[💡पाद टिप्पणी ७. यहाँ से आगे प्रायः मध्यस्थ स्वरूप श्री शंकराचार्यजी से ही वादविवाद होता रहा।] 

      ◾️(२) इसके पश्चात् पूर्वपक्षी के वेद के लक्षण के दूसरे अंश पर दूसरा दोष उपस्थित किया । सम्प्रदाय के नाश न होने पर भी कई ग्रन्थ ऐसे हैं जिनके कर्ता का हमें ज्ञान नहीं परन्तु वे वेद नहीं माने जाते। यथा माध्यन्दिन संहिता का पदपाठ। ऋग्वेद के पदपाठ का कर्ता वा प्रवक्ता शाकल्य था, सामवेद का गार्ग्य, अथर्व का शौनक, तैत्तिरीय का आत्रेय। ऐसे माध्यन्दिन पदपाठ का कर्ता कौन है, यह किसी को ज्ञात नहीं और इसके गुरूशिष्य सम्प्रदाय का नाश भी नहीं हुआ। यदि सन्देश हो तो अपने वैदिकों से पूछ लें। अतः आपके लक्षण के अनुसार यह पदपाठ भी अपौरुषेय वेद होगा परन्तु पदपाठ को अपौरुषेय नित्य नहीं माना जाता। अत: आपका लक्षण उभयथा दोष युक्त है। 

      इस पर भी पूर्वपक्षी विद्वान् ने पुनः पराजय से बचने के लिए स्वमत विपरीत पदपाठ को भी नित्य अपौरुषेय वेद स्वीकार किया। इस पर मैंने पुनः मध्यस्थ श्री शंकराचार्यजी से व्यवस्था माँगी। श्री शंकराचार्य और श्री करपात्री जी दोनों ने पदपाठ को भी वेद स्वीकार किया। 

      इस स्वपक्ष विरुद्ध मत के स्वीकार करने पर मैं विशेष रूप से श्री शंकराचार्य और करपात्रीजी से ही सीधा जूझ पड़ा और पदपाठ अनित्य हैं पौरुषेय हैं, इस बात के सिद्ध करने के लिए एक पर एक प्रमाणों की कमशः झड़ी लगा दी। सबसे प्रथम यास्क का 🔥वनेन वायो न्यधायि चाकन मन्त्र के व्याख्यान में शाकल्य कृत पदपाठ के संबंध में लिखा वचन – 🔥वा इति च य इति च चकार शाकल्यः उदात्त त्वेषमाख्यालमभविष्यत् असुसमाप्तश्चार्थः (‘वाया’ को शाकल्य ने वा यः दो पद मानकर दो टुकड़े किए हैं ऐसा करने से यत् का योग होने से अधायि क्रिया उदात्त होनी चाहिए परन्तु वेद में अनुदात्त है और यत् के निर्देश से मन्त्रार्थ भी पूरा नहीं होता जब तक तत् का अध्याहार न किया जाए) उपस्थित करके कहा कि यास्क शाकल्य कृत पदपाठ को केवल अनित्य ही नहीं मानता अपितु उसमें दोष भी उपस्थित करता है। इस पर मध्यस्थ ने निरुक्त तथा उक्त मन्त्र का पता पूछा। स्थान निर्देश करने पर कई पण्डित उक्त ग्रन्थ निकाल निकाल कर पन्ने उलटने लगे लगभग १० मिनट पीछे करपात्रीजी ने इसका समाधान करने की चेष्टा की कि यास्क के चकार का अर्थ बनाना नहीं है प्रवचन करना है। व्याकरण के अनुसार तो वेद के अनेक पद अशुद्ध कहे जा सकते है पर उन्हें कोई अशुद्ध नहीं मानता। अतएव अर्थ की दृष्टि से वायः एक पद ही है परन्तु अध्ययन कृत अदृष्ट के लिए वा यः ऐसा ही परम्परा से स्वीकार किया जाता है इत्यादि। 

      इस पर मैंने उत्तर दिया कि यदि अर्थ की दृष्टि से वायः दो पद युक्त नहीं तो यास्क का शाकल्य पर दोष देना और उसे पौरुषेय कहना ठीक है। अन्यथा यदि आप पदपाठ को अपौरुषेय नित्य मानते हैं तो कह दीजिए कि यास्क का दोष दर्शन गलत है, मैं बैठ आता हूँ। इतना ही नहीं अब मैं अन्य प्रमाण देता हूँ जिसमें स्पष्टतया पदपाठ को अनित्य बताया है – कैयट महाभाष्य प्रदीप २*।१।१०९ [*अस्पष्ट] में लिखता है- 🔥संहिताया एव नित्यत्वं पदविच्छेदस्य तु पौरुषेयत्वम्। अतः पदपाठ अनित्य पौरुषेय हैं यह स्पष्ट है इस कारण पदपाठ अपौरुषेय वेद नहीं हो सकते। 

      इस पर भी करपात्रीजी कैयट के वचन पर विचार करके[८] कहने लगे कि वैयाकरण वेद विषय में प्रमाण नहीं। कैयट की अनेक बातों का नागेश ने खण्डन कर दिया है अत: कैयट का वचन प्रमाण नहीं। 

[💡पाद टिप्पणी ८. कैयट के वचन का पूरा पता देने पर भी जब शीघ्रता से पूर्वपक्षियों से न निकाला जा सका तो महाभाष्य मेरे पास भेजा, मैंने उक्त पृष्ठ निकाल कर उन्हें दिया।]

      इस पर मैंने उत्तर दिया कि यद्यपि नागेश ने कैयट के अनेक मतों का खण्डन किया है पुनरपि इस स्थल पर खण्डन नहीं किया, अत: यह उसे भी स्वीकृत है। इतना ही नहीं, नागेश ने तो महामाष्य ६।३ की टीका में पदपाठों में सम्प्रदाय भ्रंश भी माना है जिसे न आप स्वीकार करते है और न मैं। यह भी ध्यान रहे कि यदि कैयट ने पदपाठों के पौरुषेयत्व का विधान स्वयं अपने रूप में किया होता तब तो उसे कथंचित् अप्रमाण कहा जा सकता था। परन्तु कैयट ने उक्त मत तो महाभाष्यकार पतञ्जलि के 🔥न लक्षणेन पदकारा अनुर्क्त्याः पदकारैर्नाम लक्षणमनुवर्त्यम् (सूत्रकार को पदकारों का अनुसरण नहीं करना चाहिए पदकारों को सूत्रकारों के लक्षणों का अनुसरण करना चाहिए) वचन की व्याख्या में लिखा है। महाभाष्य के उक्त वचन का यह स्पष्ट अभिप्राय है कि पदपाठ पौरुषेय अनित्य है। यदि आप महाभाष्यकार पतञ्जलि के वचन को भी वैयाकरण होने मात्र से अप्रमाण कहें तो मैं बैठ जाता हूँ, मुझे ऐसी अवस्था में कुछ नहीं कहना। 

      इस पर पुन: कुछ समय परस्पर विचार विनिमय करके श्री करपात्रीजी बोले कि महाभाष्यकार का उक्त वचन प्रौढिवादमात्र (एक देशी जबरदस्ती का उत्तर) है सिद्धान्तरूप नहीं। महाभाष्यकार कई स्थानों पर प्रौढिवाद से उत्तर देते हैं वे उत्तर प्रामाणिक नहीं माने जाते। 

      इस वक्तव्य पर मैंने कहा कि यह सत्य है कि महाभाष्य में प्रौढिवाद से अनेक उत्तर दिए गए हैं परन्तु कौन सा उत्तर प्रौढिवाद से दिया गया है इसके परिज्ञान के लिए दो कसौटियों हैं। पहली – जिस उत्तर के विपरीत अन्यत्र लेख मिले उन परस्पर विरोधी उत्तरों में एक प्रौढिवाद का उत्तर होगा दूसरा सिद्धान्तरूप का। दूसरी – प्रौढिवाद का उत्तर एक स्थान पर ही मिलेगा उसका पुन: पुनः निर्देश न होगा। तदनुसार पदपाठ विषयक उक्त मन्तव्य का विरोधी वचन सम्पूर्ण महाभाष्य में उपलब्ध नहीं अतः यह प्रौढ़िवाद से कहा गया है यह कहना असत्य है। इतना ही नहीं यह वचन महाभाष्य में अध्याय ६ और ८ में दो स्थानों पर और भी आया है। इसलिए अनेक स्थानों में समानरूप से कहा गया उत्तर प्रौढ़िवाद का नहीं माना जा सकता। इतने पर भी यदि वैयाकरण होने से महाभाष्यकार के वचन से सन्तोष न हो तो मैं वैदिक विद्वान का मत उपस्थित करता हूँ – भृतहरि महाभाष्य की टीका में पृष्ठ २६८ पर लिखता है – 🔥एवं च कृत्वा वृको मासकृत इत्यवग्रहभेदोऽपि भवति। चन्द्रमसि प्रवृत्तो मासशब्दो अवगृह्यते वृके मासकृत् (वृको मासकृत मन्त्र में चन्द्रमा अर्थ में मास ऽकृत् ऐसा एक पद मानकर अवग्रह किया जाता है और वृक अर्थ में मा सकृत् दो पद माने जाते हैं)। यदि यह कहा जाए कि भर्तृहरि का वचन भी वैयाकरण होने से अप्रमाण है तो यह अशुद्ध है। भर्तृहरि वैयाकरण होते हुए भी परम वैदिक है। उसकी वैदिकता को गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान जैसे जैन आचार्य भी मुक्त कण्ठ से स्वीकार करते हैं। वर्धमान लिखता है- 🔥तत्र भवतां वेदविदामलंकारभूतेन भर्तृहरिणा। यास्क भी वैदिक है अतः यास्क भर्तृहरि पतञ्जलि कैयट आदि के उद्धृत वचनों से स्पष्ट है कि पदपाठ ग्रन्थ अनित्य पौरुषेय हैं, ये पढपाठ ग्रन्थ अपौरुषेय वेद नहीं हो सकते। इस प्रकार आपका वेद लक्षण उभयथा दोष दुष्ट होने से त्याज्य है। 

      इसके पश्चात् सादे पाँच बजे का समय हो जाने के कारण श्री शंकराचार्यजी ने अपने भाषण में – “यह शास्त्रार्थ जय पराजय के लिए नहीं किया गया ज्ञानवर्धन के लिए किया गया है अतः यहाँ पराजय का कोई प्रश्न नहीं, यहाँ तो वाद कथा हुई है। श्री मीमांसकजी मेरे पूर्वाश्रम के मित्रों में से हैं इनकी योग्यता मैं जानता हूँ। बड़ी विद्वत्ता से इन्होंने अपने पक्ष का पोषण किया है। अब अतिकाल होने से यह सभा समाप्त की जाती है। अगले दिन ज्योतिष सम्मेलन होगा……………” आदि कह कर लीपापोती करके सभा विसर्जित की। 

      श्री शंकराचार्यजी के उक्त भाषण के मध्य में ही जब आपने वादकथा का निर्देश किया तब मैंने बीच में टोकते हुए उनसे कहा कि इस वादविवाद को वादकथा कहना शास्त्रार्थ के नियमों के विरुद्ध है। आपने दो बार अस्थान में मेरे लिए निग्रह स्थान का प्रयोग किया था अर्थात् आप निग्रह स्थान में आ गए। उस समय मैंने जानबूझ कर कि कहीं यह कथा न्याय शास्त्र में न चली जाए, कुछ नहीं कहा। परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिए कि वाद कथा में प्रतिपक्षी के लिए निग्रह स्थान का प्रयोग नहीं होता। यत: आपने निग्रह स्थान का प्रयोग किया, अतः आपके वचनानुसार ही यह कथा वाद कथा न होकर जल्प वा वितण्डा कथा रही यह प्रमाणित होता है। 

      ◼️विशेष- जब से पदपाठों के अनित्यत्व का प्रकरण चला उस अन्तिम डेढ़ घण्टे में पौराणिक ३-४ विद्वान् बराबर अपनी पुस्तकों में से मेरे दिए गए उद्धरण निकाल निकाल कर श्री शंकराचार्यजी तथा श्री करपात्रीजी के हाथों में देते रहे। वे दोनों प्रतिवार ५-१० मिनट विचार करके उत्तर देते थे। इससे संस्कृत से अनभिज्ञ पौराणिक जनता पर भी आर्यसमाज का भारी प्रभाव पड़ा। प्रायः अनेक व्यक्ति कहते सुने गए कि आर्यसमाज का पण्डित बहुत तगड़ा रहा। वह अकेला मुँह जबानी २-३ मिनट ही बोलता था और उसका उत्तर देने के लिए कई कई पण्डित मिलकर पुस्तकों के पन्ने उलटते थे और दोनों ( श्री शंकराचार्य तथा करपात्रीजी) पुस्तकें देखकर और ५-७ मिनट सोच कर उत्तर देते थे। 

      इस प्रकार इस शास्त्रार्थ का पौराणिक मनता पर तो भारी प्रभाव पड़ा ही किन्तु अमृतसर की आर्यजनता भी कहने लगी कि आपने आर्यसमाज की लाज रख ली। मैंने आर्यसमाजियों के उक्त कथन पर कहा कि आप लोग इस भारी तैयारी को देखते हुए भी सोते रहे। मैं तो सम्मेलन द्वारा निमन्त्रित होकर आया था, आप लोगों ने क्या किया? यह उदासीनता आर्यसमाज को ले डूबेगी। 

      यह भी ज्ञात रहे कि सारे विवाद प्रकरण में कथन प्रतिकथन को टेप रिकार्ड मशीन से रिकार्ड किया गया परन्तु अनेक अवसरों पर मशीन बन्द होती थी ( मेरे पास ही मशीन थी अतः मैं देखता रहता था)। जहाँ तक मुझे शत है अन्तिम दृश्य का तो रिकार्ड किया ही नहीं गया। इस लेख में एक दो स्थान पर श्री करपात्रीजी और श्री शंकराचार्यजी के नामों में परिवर्तन हो सकता है क्योंकि प्रायः अन्तिम समय में दोनों ही महानुभाव उत्तर देने में प्रवृत्त हो जाते थे। 

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों का विभाग ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।

[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]

      ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें। 

      अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है? 

[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]

      स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है। 

      उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –

      🔥”तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति” मुण्डक १।१।५॥

      मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]

      महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)। 

      महाभाष्य पस्पशाह्निक में लिखा है –

      🔥”चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुषा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्त्रर्त्मा सामवेद एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः………” पृ॰ ६५॥ 

      रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८) 

जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है। 

      प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –

      🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।

      यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं। 

      इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –

      🔥”त्रयी वै विद्या ऋचो यजूंषि सामानि इति”॥ श॰ ४।६।७।१॥ 

      अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है। 

      मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –

      🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये। 

      🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। 

      🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये। 

      इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वर्तमान परमाणु (एटम) की उत्पत्ति और वेद -ब्रह्यचारी अग्निव्रत नैष्ठिक

जिस समय डाल्टन का परमाणुवाद संसार के सम्मुख प्रस्तुत हुआ उस समया एटम (परमाणु) को किसी भी पदार्थ का मूल कण माना जाने लगा परन्तु इलेक्ट्रोन आदि की खोज से डाल्टन का परमाणुवाद इतिहास की बात होकर रह गया। एटम को विखण्डित करते-करते आज मूल कण कहे जाने वाले कणों की संख्या दौ सौ के लगभग ही हो चुकी है। इन कणों को भी वैज्ञानिक उत्पन्न कर रहा है, दूसरों में परिवर्तित कर रहा है उदासीन पाई मैसोन की त्रिज्या १० से, मानी जा रही है तब इन्हें कैसे मूलकण माना जाये ?

            आज एटम का स्टेण्डर्ड मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रारूप में छः क्वार्क (u, d, c, b, t) तथा छः लैप्टोन (इलेक्ट्रॉन, म्यूऑन, टाऊन, इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो, म्यूऑन-न्यूट्रिनो तथा टाऊन-न्यूट्रिनो) ये मूल कण कहे जा रहे है। अन्य मूल कणों को इन्हीं से निर्मित माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है-

All evidences point to the fact that the leptons have no internal structure and are point particles. They are considered more elementary than handrons which have internal structure ¼quark-structure½ Leptons and quarks seem to be at the same level of elementriness.

            ¼Atomic & Nuclear Physics – Vol. II S.N. Ghoshal-New Delhi, P.९०५½

            अर्थात् लप्टोन तथा क्वार्क कणों की आन्तरिक संरचना नहीं होती इस कारण ये कण प्रोटीन, न्यूट्रोन आदि कणों की अपेक्षा अधि कमूल कण हैं। इसके आगे यही ग्रन्थकार लिखता है-

            Each type of Lepton is associated with a neutrino. The elementriness

            अर्थात् प्रत्येक लेप्टान के साथ लगभग शून्य द्रव्यमान का कण न्यूट्रिनों संयुक्त होता है। इस कण के बारे में ब्रिटिश वैज्ञानिक लिखते हैं-

            Every particles is accompanies by another particles called neutrino which mass in rest is zero. It is high energy particles. Its speed is equal to light speed.

            ¼Atomic energy-macmillon & Co.Ltd.-London-१९६२½

            अर्थात् विरामावस्था में शून्य द्रव्यमान वाला न्यूट्रिनो कण प्रत्येक कण के साथ संयुक्त होता है जिसमें उच्च ऊर्जा होती है तथा प्रकाश वेग गति करता है।

            प्रश्न यह है कि क्या न्यूट्रिनो तथा उसके संयोगी कणों का संयोग अनादि है? ऐसा हो ही नहीं सकता तब ये कण भी विशेषकर वे जिसके साथ न्यूट्रिनों का संयोग अनिवार्य है, मूलकण नहीं हो सकता तब सिद्ध है कि लेप्टोनों का निर्माण कभी न कभी हुआ है। इसी प्रकार क्वार्क कणों के साथ ग्लूऑन कणों की कल्पना की जाती है। जिस आधार पर लेप्टोनों का अनादित्व असिद्ध हुआ उसी प्रकार क्वार्कों का भी अनादित्व असिद्ध होगा। तब जो कण अनादि नहीं हो सकते वे मूल कण भी कैसे कहे जा सकते हैं? फिर वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक कण गतिशील ही होता है। वेद भी ऐसा स्पष्ट रूपेण कहता है। विज्ञान और वेद दोनों ही यह भी मानते हैं कि कणीय गति से ही कणों की सत्ता है।

            वायवायाहि दर्शते मे सोभा अरंकृताः तेषां पाहि-ऋग्वेद १/२/१

            मंत्र बतला रहा है कि गति गुण ने ही संसार भर के मूर्तिमान पदार्थों को सजा रखा है और वही इनकी रक्षा भी कर रहा है।

            विज्ञान के शब्दों में-

Only Few are stable, such as the proton, electron, neutrino, positron, photon, and poton, the rest are all unstable.

            ¼ Atomic & Nuclear Physics-S.N.GHOSHAL, P.९०१½

            निश्चित ही गति की सत्ता अनादि नहीं है तब वर्तमान में मूलकण कहे जाने वाले कणों में से कोई भी कण आद्य अवस्था में विद्यमान नहीं था। जब इनका अस्तित्व गति के अभाव में समाप्त हो जाता है तब ये कण किसमें परिवर्तित हो जाते हैं उस सत्ता को मूलावस्था क्यों न माना जाय? प्रश्न यह भी है कि बिना गति इन कणों की सत्ता रहती नहीं और वैज्ञानिक इन कणों का द्रव्यमान विराम अवस्था में ही मापते और बतलाते हैं तब क्यों कर इन्हें विराम में प्राप्त कर पाते हैं? फिर वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि गतिशील कण का द्रव्यमान अपेक्षाकृत वर्धमान होता जाता है। इससे सिद्ध है कि ऊर्जा में कुछ न कुछ द्रव्यमान अवश्य होता है।

            अब वैज्ञानिक सृष्टि की आदिम अवस्था में इन कणों का निर्माण स्वीकार करते हैं, वे मानते हैं कि प्रारम्भ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कल्पनातीत ताप था।

            Thus at the time + १०-४५ after zero time the temperature was about १०-३२ K. Between + १०-३५ s only rwo of the fundamental interactions were operative. These were the unfield strong weak force and the gravitati onal force. A type of very heavy particles are called the X-Bosons exited during the period, which  helped change the quarks into leptons and vikce weasa———-As we approached the time + १०-१०s there is defreezing of the strong plus electron weak interaction is and the two interactions now appear as Distinct. So there are now the there fundamental interaction – gravitational strong nuclear and electro weak in operation. W+ and Zo Bos appear at + १०-१० s The electron weak interaction begin to defreeze electro-megnetic and weak forces become seperated now we have all the four distinct interactions operative. Between १०-६s -१०-४s there is another transition. The neutrons and the protons being to take shape due to the combination of the quark. So that the fundamental particles are produed familiar to us in the present day universe begin to appear.

            At about + १०-३s the temp has fallen to ८*१० १० K. Hundrads of different elementry particles are produced by collisions at the available energy.

            At the time zero plus there minutes the temp is about to ७० times, that found in the core of the sun. This is when the protons and neutrons begin to combine to from the complet nueclai.

            The formation of the atoms came much later at the time zero plus ५००००० years. The universe cooled down sufficiently so that electrons and the nuclei could join together to from the atoms.

            { Atomic and Nuclear Physics – Page ९५१-५२}

            उपर्युक्त उदाहरण पर विचारने से निम्न तथ्य सामने आते हैं-

१.        आदिम अवस्था का ताप सूर्य के केन्द्रीय ताप का १ करोड़ अरब गुना था, जो वर्तमान में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं सम्भव नहीं होगा।

२.        उस ताप में अत्यन्त तेजी से गिरावट आती है।

३.        उस समय किसी भी प्रकार के कण नहीं होते हैं। कहा गया है कि सर्वप्रथम उत्पन्न बोसोन कण लेप्टोन को क्वार्क तथा क्वार्कों को लेप्टोनों में परिवर्तित करते हैं।

४.        लगभग ५ लाख वर्ष में एटम का निर्माण हो पाता है।

५.        पूर्व में दो ही बल थे जो बाद में चार बलों में विभक्त हो गये। उपर्युक्त बिन्दुओं की समीक्षा से निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं-

१.  वह उच्चतम ताप कैसे, किसमें तथा किसके द्वारा उत्पन्न हुआ? यदि ईश्वरीय सत्ता को भी यह प्रश्न शेष रहेगा कि ताप किस प्रकार तथा किस उपादान पदार्थ से उत्पन्न किया गया। यह ताप वाली स्थिति अनादि तो हो नहीं सकती तब उपर्युक्त प्रश्न अनुत्तरित रहेगे ही।

२.  उस ताप में इतनी तेजी से गिरावट आना भी कैसे हुआ? केवल ३ मिनट में ताप १० ३२ K से लगभग ३-४ अरब K तक पहुंच जाना अप्रत्याशित सा प्रतीत होता है। केवल तीन मिनट में नाभिकों का निर्माण हो जाना जबकि एटम के निर्माण में ५ लाख वर्ष, लगे, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती।

३.  बोसोनों की उत्पत्ति के पश्चात् क्वार्क से लेप्टान तथ लेप्टान से क्वार्क बनने के सिद्धान्त में अन्योन्य आश्रय का दोष आयेगा। इन दोनों में कौन प्रथम, इसका उत्तर कैसे दिया जायेगा? फिर जो प्रथम बना तो किससे और यदि दोनों एक साथ कैसे बने और जिससे भी बने उसी से फिर क्यों नहीं बने ?

            जैसा कि हम विचार कर चुके हैं कि अब तक मूलकण कहे जाने वाले कणों में से मूलकण कोई प्रतीत नहीं होता, हाँ ग्लूऑन, न्यूट्रिनों, फोटोन जैसे कुछ कण अवश्य ही ज्ञान कणों में प्राथमिक प्रतीत होते हैं।

                        -: अब हम वैदिक विचारधारा को प्रस्तुत करें:-

            सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि सृष्टि सृजन के पूर्व अर्थात् आदिम अवस्था क्या थी?

            गीर्णिभुवनं तमसापगूढ़म……………ऋग्वेद १०१/८८/२

            अर्थात् उस समय सब कुछ निगला हुआ सा और अंधकार से आवृत था।

            तम आसीत्तमसागूढ़मग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। ऋग्वेद १०/१२९/३

            अर्थात् सबको लीन किये हुये चिन्ह रहित तथा अंधकार से आवृत और सब ओर व्याप्त यह प्रकृति थी।

            नासदासीनों सदासीत्तदानीं नासीद्वजः ऋग्वेद-१०/१२९/१

            अर्थात् उस समय शून्य रूप असत् आकाश भी नहीं था क्योंकि उसका व्यवहार नहीं था और न ही सत् अर्थात् सत्व, रज, तम से बना प्रधान ही था अथवा उस समय अभाव रूप असत् तथा भावरूप व्यक्त जगत् दोनों ही नहीं थे। और न रजस् अर्थात् परमाणु ही थे। इसी को  भगवान मनु ने इस प्रकार कहा-

            आसीदिदं तमोभूतम प्रज्ञातम लक्षणम्।

            अग्रतक्र्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः।। मनु १/५

            अर्थात् उस समय की अवस्था पूर्णतः अन्धकारमय, न जानने योग्य, लक्षणविहीन, तर्क न करने योग्य प्रसुप्त जैसी थी। कोई ध्वनि, प्रकाश, गति आदि कुछ भी नहीं था।

            इसके साथ

            ऽस्वधया तदेकम्…………………..ऋ. १०/१२९/२

            अर्थात् वह परमात्मा स्वधा (प्रकृति ) के साथ रहता है क्योंकि

            योऽस्याधयक्षः………………………..ऋ. १०/१२९/७

            अर्थात् वह परमात्मा ही इस सृष्टि का अध्यक्ष है, वही इसकी रचना, पालन तथा धारण आदि करता है। वेद यह भी स्पष्ट करता है कि उपर्युक्त अवस्था न केवल स्थान विशेष में बल्कि…………..

            तिरश्र्वीनोक्तितो रश्मिरेषामधः रिवदासीदुपरि स्विदासीत्……………. -ऋ. १०/१२९/५

            उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार करने पर निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं-

१.        वह अवस्था पूर्णतः अंधकार व प्रसुप्त होने से अव्यक्त एवं अज्ञेय ही होती है। जिस प्रकार हम किसी वस्तु को निगल लेते हैं तब निगली हुई वस्तु का अभाव तो नहीं होता परन्तु वह छिप जाती है। इसी प्रकार उस समय सब कुछ अंधकार द्वारा निगला हुआ होता है। अंधकार, शांत, निष्क्रियता की सीमा इतनी कि उससे अधिक ब्रह्माण्ड में कहीं एवं कभी सम्भव नहीं हो सकती।

वैज्ञानिक प्रारम्भिक अवस्था को अत्यन्त तप्त, तेजस्वी बतलाते हैं जहां प्रकाश एवं ऊष्मा की चरम सीमा है जो कहीं तथा कभी उसके पश्चात् कल्पित भी नहीं की जा सकती जबकि वैदिक विचारधारा इसके ठीक विपरीत है अर्थात् उस समय इतना शैत्य जितना कभी और कहीं भी इस ब्रह्माण्ड में इस अवस्था के पश्चात् सम्भव नहीं है।

२.        उस समय एटम आदि नहीं होते हैं। यहां ‘परमाणु’ शब्द का अर्थ एटम या अणु (मॉलीक्यूल) आदि ही है न कि सबसे सूक्ष्म कण भगवान यास्क के शब्दों में-

अर्थात् प्रकाश एवंज ल का सूक्ष्मतम कण वा लोक को रजस् कहते हैं। प्रकाश का सूक्ष्म कण फोटोन जल का एक अणु अर्थात् किसी भी साधन से दृष्टि में आने योग्य कण वा लोक लोकान्तर। ये सभी उस समय अविद्यमान थे।

३.        उस समय जो भी मूलकण होते हैं, वे सलिल अवस्था जैसे होते हैं। ‘‘सलति गच्छति निम्नं देशं सलिलम्’’ अर्थात् जो नीचे की ओर सरकता है, फिसलता है ‘सलिल’ कहलाता है। इस का तात्पर्य यह नहीं कि उस समय ऐसी अवस्था वास्तव में होती है बल्कि यहां आशय मात्र यह है कि कण परस्पर किसी भी प्रकार के चिपचिपेपन से रहित अर्थात् एक दूसरे पर पूर्णतः फिसलने योग्य होते हैं। पूर्णतः पारस्परिक बन्धन (आकर्षण या प्रतिकर्षण) रहित। और यह सलिल भी कैसा था।-

आपं वा इयमग्रे सलिल…………………….मासीत् तै. १/१/३/५

अर्थात् प्रारम्भ में यह ‘आपस्’ ही सलिल था। और आपस् क्या है-

अिर्वाइदं सर्वमाप्तम्……………….शतपथ १/१/१/१४

अर्थात् ऐसा पदार्थ सर्वत्रव्याप्तथा और भी-

अगृता ह्यापः……………………..-शत. ३/९/४।१६

            अर्थात् वह आपस् अमृत था अर्थात् अनादि था ऊपर, नीचे, दांये, बांये सर्वत्र वह सलिल रूपी मूलपदार्थ भरा रहता है। इसी कारण आकाश अर्थात् अवकाश का अभाव बताया गया है।

४.        इस अवस्था को वेद ‘स्वधा’ नाम से सम्बोधित करता है।

स्वधा शब्द का अर्थ है- ‘‘स्वं दधातीति स्वधा’’ अर्थात् जो स्व को धारण करती है। अब स्व क्या है-

स्वरित्यसौ (द्यु) लोकः-शत. ८/७/४/५

अन्तो वै स्वः – ऐत. ५/२०

अर्थात् द्यु को धारण करने वाली। यहां ‘द्यु’ शब्द का अर्थ विद्युत् से है अर्थात् जो विद्युत को धारण करने वाली है।-

यजुर्वेद ३३/२२ के शब्दों में- ‘‘अमृतानि तस्थौ’’ अर्थात् विद्युत रूपी ‘स्वधा’ कहा।

            इस स्वधा को शतपथकार ने और भी स्पष्ट किया-

            स्वधाकांर पितरः (उपजीवन्ति) – शत. १४/८/१

            मत्र्याः पितरः – शत. २/१/३/४

            अर्थात् जो उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं, वे पदार्थ वा कण पितर कहलाते हैं तथा वे पितर स्वधा के कारण ही जीवित रहते हैं अर्थात् वह पदार्थ जिसके आश्रय पर विनाशी कण निर्भर हैं, स्वधा कहलाता है और इसी का अपर नाम प्रकृति है।

५.        इस अव्यक्त स्वधा प्रकृति के साथ परमात्मा चेतन तत्व सदैव रहता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता, नियन्त्रक व संचालक है। उसके बिना उस निष्क्रिय, शान्त, अन्धकारावृत मूलपदार्थ प्रकृति में क्रिया का होना सर्वथा असम्भव है।

अब प्रकृति की इस स्थिति के गुणों पर विचार करते हैं। वर्तमान विज्ञान इस स्थिति तक विचार नहीं पाया है। वेद उस अव्यक्त प्रकृति को ‘‘त्रितस्य धारया” -ऋ. ९/१०२/३ तथा ‘त्रिधातु’ – ऋ. १/१५४/४ कहकर तीन सत्व, रजस् तथा तमस् का बोध करा रहा है। वेद में अनेकत्र प्रकृति के त्रैत का उल्लेख है।

            इस त्रैत को भी ‘सलक्ष्मा’ ऋ. १०/१२/६ कहकर साम्यावस्था वाली सिव् कर रहा है प्रकृति के त्रैत और उसकी साम्यावस्था विषय में भगवत्कपिलर्षि ने लिखा-

            सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः – सांख्य दर्शन १/२६

            अर्थात् सत्व, रजस् तथा तमस् की साम्यावस्था का नाम, प्रकृति है। अब यह विचारणीय है कि सत्व, रजस् तथा तमस् क्या है? इनकी साम्यावस्था क्या है? कुछ आर्य विद्धान् प्रोटोन, इलेक्ट्रोन तथा न्यूट्रोन को क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् मानते रहे हैं परन्तु अब इलेक्ट्रोन को छोड़कर अन्य कणों की मौलिकता विज्ञान ने असिद्ध कर दी है। हमारीदृष्टि में इलेक्ट्रोन भी मूल कण नहीं है।

            अब क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् पर विचार करते हैं-

            ‘‘प्रीत्यप्रीति विषादाद्यैर्गुणाना मन्योन्य वैधम्र्यम्” – सां. द. १/९२

            ‘‘प्रकाशशीलं सत्वं क्रियाशीलं रजः स्थितिशीलं तमः” – यो. द. २/१८

            प्र व्यासर्षि भाष्य अर्थात् सत्व प्रीति आकर्षण एवं प्रकाश युक्त, रजस् अप्रीति (प्रतिकर्षण) तथा क्रियाशीलता युक्त तमस् विषाद् (उदासीनता) युक्त तथा स्थितिशील है। सांख्य सिद्धान्त में ख्यातिर्लब्ध आर्य विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इनके अतिरिक्त अन्य गुणों का भी वर्णन किया है। यथा-सत्व = लघु, रजस् = चल तथा प्रवर्तन, तमस् = उदासीन एवं अकर्मण्य।

            अर्थात् ऐसा कण जो प्रकाश तथा आकर्षण का अधिष्ठान होते हुये लघु हो, सत्व, ऐसा कण जो क्रियाशीलता गति तथा प्रतिकर्षण का अधिष्ठान हो, रजस् तथा ऐसा कण जो गुरूता तथा निष्क्रियता का अधिष्ठान हो तमस्, साथ में ये सभी आदि मूलकण होवें। वर्तमान में कहे जाने वाले मूलकणों में से न्यूट्रिनों, फोटोन तथा ग्लूऑन की स्थिति कुछ मूल प्रतीत होती है। फोटोन जैसा सत्व, न्यूट्रोन जैसा रजस् तथा ग्लूऑन जैसा तमस् हो सके परन्तु फोटोन में आकर्षण न्यूट्रोन में प्रतिकर्षण जब तक सिद्ध न हो तथा ग्लूऑन का स्वरूप पूर्ण स्पष्ट न हो तब तक ऐसी तुलना उचित नहीं कही जा सकती। विज्ञान जो भी सिद्ध वा प्राप्त करे, हमारी मान्यता है कि मूल प्रकृति उन मूलकणों का समूदाय है संयोग नहीं जो परस्पर पूर्णबन्धन सहित, शान्त एवं उपर्युक्त गुणों से युक्त होते हैं। इस पूर्ण शिथिल, शान्त अंधकार में-

            ‘‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति” (तै. उप.)

            ‘‘कामस्तदग्रे समवर्तताधि’’ -ऋ. १०/१२९/४

            अर्थात् परमात्मा सर्वप्रथम सृष्टि रचना करने की कामना करता है। किसी भी कार्य के लिये सर्वप्रथम इच्छा का होना अनिवार्य है परन्तु परमात्मा की इच्छा, ज्ञान व क्रिया सब स्वभाविक होते हैं।

            ‘‘स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च” – श्रे्व. उप.

            ळम जिस प्रकार की इच्छा करते हैं, उस प्रकार की इच्छा नहीं बल्कि जीवों के पालनार्थ ( भोग एवं मोक्ष हेतु) इच्छा करता है। भगवान मनु ने कहा-

            ‘‘व्यंजयत्रिदम्……………………….प्रादुरासीतमोनुदः।’’ -मनु. १/६

            अर्थात् उस अंधकारमयी प्रकृति का प्रेरक इस जगत् को प्रकटावस्था में लाता हुआ परमात्मा प्रकट हुआ। सर्वप्रथम उसने क्या किया-

            ‘‘यानि, त्रीणि बृहन्ति येषां चतुर्थं विनियुक्त वाचम्।’ – अथ. ८/९/३

            अर्थात् जो तीन (सत्व, रजस् तथा तमस्) हैं उनमें चैथा ब्रह्म वाक् नियुक्त कर देता है। यहां यह वाक् का अर्थ सामान्य नहीं होकर गूढ़ अर्थ है।

            ‘‘बाग्वै भर्गः।’’ -शतपथ १०/३/४/१०

            अर्थात् भर्ग (तेज) ही वाक् है, तब अर्थ हुआ कि वह परमात्मा तेजहीन इन तीनों को तेज युक्त कर देता है जगा देता है।

            ‘‘तस्मिन् प्रजापतौ सर्वाणि यानि त्रीणि’’ – अथर्व- १०/७/४०

            कहकर सत्व, रजस् तथा तमस् को परमात्मा की ज्योति रूप जड़ शक्तियां कहा है। इस तेज को ही ऋग्वेद में अग्नि नाम दिया है।

            ‘‘यस्मिन् देवा विदथे मादयन्ते’’ -ऋ. १०/१२/७

            ‘‘यस्मिन् देवा मन्मनि संचरन्ति’’ -ऋ. १०/१२/८

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि के शक्तिशाली एवं सक्रिय होने पर ही सभी दिव्य शक्तियां गति और क्रिया का संचार करती हैं। इस विद्युद्रूपाग्नि को मानव कभी जान भी सके परन्तु उस ईश्वरीय तेज को कभी परीखित वा निरीक्षित नहीं किया जा सकेगा। यजुर्वेद में……………….

            ‘‘द्यौरासीत्पूर्वचिति’’……………२३/५४ का भाष्य करते हुये भगवान् दयानन्द कहते हैं कि विद्युत पहिला संचय है। ऋ. ४/१/११ में कहा- स जायत प्रथमः अर्थात् वह विद्युद्रूपाग्नि सर्वप्रथम उत्पन्न होता है ऐसा प्रतीत होता है कि कारणावस्था में परमात्मा द्वारा तेज प्रदान करने से मूल उपादान में क्षोभ उत्पन्न होता है जिससे तीन तीनों गुणों का अन्तर्निहित भाव उत्पन्न होता है आकर्षण, प्रतिकर्णण, प्रकाशशीलता, क्रियाशीलता, गुरूता, लघुता आदि सभी गुण अस्तित्व में आ जाते हैं अथवा जो अन्तर्मुखी थे वे बहिर्मुखी हो जाते हैं। यहां विद्युत् की उत्पत्ति संकेत है परन्तु वास्तव में विद्युत् की उत्पत्ति नहीं होती। वेद विद्युत को ‘प्रत्ना’ (ऋ. ६/६२/५) अर्थात् पुरातन मानता है। यजुर्वेद ३/१६ में भी महर्षि के भाष्य में इसे प्राचीन और अनादि कहा है। त बवह प्रथम अवस्था अव्यक्त होना मात्र है।

            प्रश्न यह हो सकता है कि सभी गुण अव्यत्त वा साम्य कैसे रहते हैं? यह अत्यन्त रहस्यमय तथ्य है कि जिसका उद्घाटन सम्भव प्रतीत मुझे तो नहीं होता। हां इतना भी कहूंगा कि वर्तमान विज्ञान भी व्यक्त ऊर्जा के भी स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर सका है तब अव्यक्त को स्पष्ट कर देना क्यों कर सम्भव है? कोई बताये कि स्थितिज ऊर्जा के लिये कोई पिण्ड जब नीचे गिरने लगता है और उसकी स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन होता है। मान लें उस पिण्ड ने नीचे गिरकर किसी वस्तु को तोड़ दिया तब वह ऊर्जा कहां गयी? प्रोटोन तथा न्यूट्रोन की अधिकता वा न्रूवता से कोई वस्तु आवेशित हो जाती है। कोई बताये कि इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि में आवेश क्यों होता है आवेश का स्परूप क्या होता है, सर्वप्रथम इसे कौन उत्पन्न करता है, ये प्रश्न हैं जिनका समाधान नहीं हो सका है तब अव्यक्त को व्यक्त करवाना कैसे सम्भव है? आज तक इलेक्ट्रोन के स्वरूप को भी पूर्णतः जान नहीं पाये जबकि इसके प्रयोग से संसार में विराट् क्रान्ति खड़ी हो गयी तब मूलावस्था में गुणों की साम्यता का स्वरूप दर्शाना क्योंकर हो सकता है?

            कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रकृति का प्रत्येक कण तीनों गुणों (सत्व, रजस् तथा तमस्) का युग्म है जिनके संयोग विशेष से धन ऋण वा उदासीन कण अस्तित्व में आते हैं। मेरे विचार से इस मान्यता का यह दोष होगा कि आवेश का युग्म अनादि नहीं हो सकता तब प्रकृति का अनादित्व असिद्ध होगा, जो अनेक प्रश्नों को जन्म देगा। इस कारण प्रत्येक कण को स्वतंन्त्र ही मानना होगा और उन्हीं कणों को सत्यार्थ प्रकाश में परमाणु कहा है। कोई यह कहे कि विद्युत् का प्रथम प्राकट्य कैसे होता है? तो इसका उत्तर यह है कि चेतन कत्र्ता के रहते तो यह होना सम्भव है परन्तु इसके बिना अवश्य ही असम्भव रहेगा। मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि प्रारम्भ में अत्युच्च ताप के अस्तित्व को कैसे सम्भव मानते हैं? यह अवस्था तो नियन्त्रक एवं नियामक सत्ता परमात्मा के सहाय से भी सम्भव नहीं। हां कुछ कालोपरान्त अवश्य सम्भव है। मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नत होगा वैदिक प्रक्रिया को अवश्य स्वीकार करेगा। अब इसके पश्चात्

            ‘‘प्रकृतेर्महान्……………………………’’-सां.द. १/२६

१.        शब्द तन्मात्रा:- इस तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति मानी गयी है। शब्द तन्मात्रा शब्द ऊर्जा का सूक्ष्मतम रूप है जिसके स्वरूप का निर्धारण करना अति दुष्कर कार्य है। आकाश कोई पदार्थ विशेष न होकर शून्य वा अवकाश का ही नाम है। ऋषि दयानन्द जी का कहना है- ‘‘वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि बिना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें’’ (सत्यार्थ प्रकाश-अष्टम समुल्लास)

भगवान कणादर्षि ने शब्द को आकाश का गुण बतलाया है। इस आधार पर अनेक विद्वान् आकाश को शून्य न मानकर पदार्थ विशेष मानते हुए कहते हैं कि गुण शून्य नहीं तो गुणी शून्य क्योंकर हो सकता है? मेरे विचार से वे कणाद ऋषि का आशय नहीं समझते । आचार्य ने शब्द को आकाश का गुण उस प्रकार सहज भाव से नहीं माना है जिस प्रकार अन्य गुण-गुणियों के सम्बन्ध दर्शाये हैं बल्कि अन्य किसी भी भूत का गुण सम्भव न मानकर आकाश के ही शेष रह जाने पर -‘‘परिशेषालिंगमा-काशास्य’’ वै. द. २/१/२७

            इसके आगे आचार्य ने आकाश का समवाय वा असमवाय कोई कारण नहीं माना और न ही आकाश के वायु आदि के समान परमाणु ही स्वीकार किये हैं।

            भगवत्कणाद ने काल, दिशा के समान आकाश को भी निष्क्रिय माना है। मेरे विचार से इन तीनों का व्यवहारार्थ ही उपयोग है। यह न किसी का उपादान है और न उसका कोई उपादान है। इसका मुख्य लिंग आचार्य लिखते हैं-

            ‘‘निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिंगम्।’’ – वै. द. २/१/२०

            अर्थात् निकलना, प्रवेश करना, इस प्रकार की क्रिया का सम्भव होना, आकाश का लिंग है। ऐसे ही गुण कुछ सर आलीवर लाज ने ईथर रूपी आकाश के बताये हैं परन्तु वे इसे पदार्थ विशेष मानते हैं साथ ही ईथर को सर्वव्यापक, प्रसार संकुचन से पूर्णतः रहित मानते हैं, जो उचित नहीं।

२.        स्पर्श तन्मात्रा:- स्मर्तव्य है कि आकाश शून्य है परन्तु शब्द तन्मात्रा शून्य नहीं है। ऐसा अनुमान होता है कि सर्वप्रथम उस तामस् प्रधान अहंकार में शब्द (नाद) उत्पन्न होता है। वैसे महत् अवस्था से ही गति का प्रादुर्भाव मानना होगा अन्यथा अहंकार की उत्पत्ति भी सम्भव न हो परन्तु वह गति क्षेत्रीय सम्पीडन, अक्षीयचक्रण वा कम्पन के रूप में ही हो सकती है।

वायु की भांति उन कणों का स्वेच्छया गति करना, उस समय (प्रारम्भ में) सम्भव नहीं इसी कारण ‘‘आकाशाद्वायुः’’ – तै. उप.

            अर्थात् आकाश से वायु उत्पन्न होता है अर्थात् नाद से हलचल उत्पन्न होना ही वायु का उत्पन्न होना है। कणों की हलचल के समय ही अवकाश उत्पन्न हो जाता है, वहीं आकाश कहलाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार की स्थिति में ही वायव्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और उसी स्थिति में विभिन्न कणों का निर्माण होता है। तथा हाईड्रोजन आयनों के निर्माण तक की प्रक्रिया तक की प्रक्रिया स्पर्श तन्मात्रा निर्माण के अन्तर्गत माना जा सकता है। ये सभी कण विशाल गैसीय मेघ के रूप में परिवर्तित हुये। तदुपरान्त-

३.        रूप तन्मात्रा:- सम्भवतः दृश्य प्रकाश के सूक्ष्मतम फोटोन को रूप तन्मात्रा कहते हैं। अब तक जो ऊर्जा थी, उसे अदृश्य तरंगो के रूप ही माना जा सकता है। स्थान-स्थान पर हाईड्रोजन आयनों के संलयन से नेब्यूलाओं को निर्माण होने लगा इसे ही ‘‘वायोरग्निः’’ – तै. उप. कहा। और भी

‘‘अग्निना अग्निः समिध्यते’’ – ऋ. १/१२/६

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि से अग्नि प्रकट होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऊर्जा की उत्पत्ति का यह एक नया मार्ग खुल जाता है। जो अब तक जारी है। तब तक ऊर्जा का निरन्तर पतन हो रहा था अब इससे स्थायित्व वा वृद्धि का एक नया स्त्रोत खुल जाता है।

अर्थात् प्रकृति से महत् तत्व का निर्माण होता है इसी को भगवान मनु ने ‘मन’ कहा है। यह महत् तत्व सम्भवतः फोटोन, न्यूट्रिनों एवं ग्लूऑन से पूर्व की स्थिति हो क्योंकि साम्यावस्था भंग होने मात्र से ही महत् तत्व का निर्माण होता है इस कारण ये फोटोन आदि की पूर्वावस्था जिनमें उपर्युक्त सत्वादि गुण हों, होगी। इन तीनों को सात्विक, रजस् तथा तामस् महत् कह सकते हैं। तदुपरान्त- ‘‘महतोऽहंकारः’’ -सां. द. १/२६

            अर्थात् उस महत् तत्व तीन प्रकार का होता है विचारपूर्वक यह प्रतीत होता है कि फोटोन, न्यूट्रिनों तथा ग्लूऑन की स्थिति यहां बन जाती है सम्भव है एक्स वा गामा जैसी किरणों का निर्माण प्रथम होता है और इन्हीं के फोटोन प्रथम निर्मित होते हों। मेहता रिसर्च इन्सटीट्यूट प्रयाग में अन्तराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक डॉ. अशोक सेन का स्ट्रिंग सिद्धान्त यहां प्रारम्भ होता हो परन्तु यहां तक प्रकाश ऊष्मा तो है परन्तु दृश्य प्रकाश की उत्पत्ति अभी वैदिक विचारधारा से तो नहीं मानी जा सकती क्योंकि दृश्य प्रकाश-रूप तन्मात्रा का ही अपर नाम हो सकता है तथा इन से ही लेप्टानों विशेषकर इलेक्ट्रोन, पाजिट्रॉन को भी अहंकार के अन्तर्गत मान सकते हैं, की उत्पत्ति होती है। सात्विक अहंकार गौण तथा तामस की प्रधानता से क्वार्क आदि कणों का भी निर्माण होता है। पुनरपि क्वार्क आदि कणों को अहंकार के अन्तर्गत ही समाहित किया जायेगा। ‘ अहंकार शब्द का अर्थ है जो व्यक्त किया जा सके। अब से पूर्व यद्यपि अव्यक्त अवस्था कब की ही भंग हो गयी परन्तु ऐसी अवस्था जिसे विज्ञान वा बुद्धि द्वारा व्यक्त किया जा सके, वह अहंकार ही है।

            ऐसा प्रतीत होता है कि यहां तक उत्पन्न कण अपने प्रतिकणों से मिलकर अपार ऊर्जा पैदा करते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि फोटोन आदि की अधिकता ही उस ऊर्जा का कारण हो जो भी हो मन का वह स्वरूप दृश्य नहीं होगा। इन्हीं प्रक्रियाओं के चलते तन्मात्राओं की उत्पत्ति भी होती जाती है-

            ‘‘अहंकारात् पंचतन्मात्राणि’’ – १/२६ सां. द.

            अर्थात् अहंकार से पांच तन्मात्रायें उत्पन्न होती हैं जिनमें से शब्द तन्मात्रा की उत्पत्ति अहंकार के प्रथम चरण में ही हो जाती प्रतीत होती है।

            प्रश्न यह है कि सूक्ष्म तन्मात्रा क्या होती है अथर्ववेद १/३३/१, ३ में सूक्ष्म तन्मात्राओं के गुण निम्न प्रकार दर्शाये हैं।

            (हिरण्यवर्णाः) अर्थात् व्यापनशील और कमनीय गुणों वाली (यासु सविता यासु अग्निः जातः) जिनमें सूर्य और पार्थिव अग्नि उत्पन्न हुई (याः) जिन (आपः अग्नि द्धिरे) तन्मात्राओं ने विद्युद्रूपाग्नि को गर्भ के सामन धारण किया है (यासां देवाः दिवि भक्षम्) जिन तन्मात्राओं का सब प्रकाशमय पदार्थ आकाश में भोजन करते हैं।

            इससे निम्न तथ्य उद्घाटित होते हैं-

१.  तन्मात्रायें सम्पूर्ण अवकाश रूपी आकाश में फैली रहती हैं।

२.  तन्मात्रायें कमनीय स्वरूप वाली अर्थात् आकर्षण-प्रतिकर्षण आदि बलों से युक्त होती हैं। फोटोन से लेकर नाभिक वा एटम वा आयन इन सबको तन्मात्रायें कह सकते हैं।

३.  सूर्य और पार्थिव अग्नि उनमें होती हैं अर्थात् इनके अन्दर ही नाभिकीय संलयन आदि क्रियाओं के होने से प्रकाशमय पदार्थों द्वारा तन्मात्राओं का भोजन करना लिखा है।

            ‘तन्मात्रा’ शब्द का अर्थ है- उतना सा, सूक्ष्म सा अर्थात् जिसका अपना कोई वैशिष्ट्य हो उसके और सूक्ष्म होने से समाप्त हो जाये। प्रतीत होता है कि भगवत्कणाद का परमाणु है।

            तन्मात्राओं के भेदः

            पंच तन्मात्राओं की उत्पत्ति क्रमशः होती है।

            तन्मात्राओं को प्रकाश में भक्षण करने की बात यही कि हाईड्रोजन का भक्षण हीलियम तथा ऊर्जा की उत्पत्ति होती है इसके उपरान्त ब्रह्माण्ड में अनेकत्र नेब्यूलाओं का निर्माण हो जाता है-

            ‘‘यद्देवा यतयो यथा भुवनान्यपिन्वत।

            अत्रा समुद्र आ गुढ़हमः सूर्यमाजभर्तन।’’ – ऋ. १०/७२/७

            अर्थात् जब दैवी शक्तियां मेघों की तरह लोकों को अपने परमाणुओं से पूरित करती हैं, तब आकाश में निगूढ़ सूर्य को चमका देते हैं। अन्यच-

            ‘‘प्रसीमादित्यो असृजद्विधंर्ता ऋतं सिन्धवो वरूणस्य यन्ति’’        -ऋ. २/२८/४

            अर्थात् सभी ओर विविध लोकों का धारक सूर्य (हिरण्यगर्भ) उदक, नदी और मेघों को प्राप्त होते हैं। यहां उदक, नदी तथा मेघ जल के नहीं बल्कि वह सूर्य ही आग का विशाल समुद्र होता है

 जिसमें अनेक आग्नेय धारायें होती है। अन्दर होने वाली प्रक्रिया के विषय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय खगोलज्ञ डॉ. जयन्त विष्णु नार्लीकर का मानना है- हाईड्रोजन का संलयन होकर हीलियम के नाभिक पुनः कार्बन पुनः तारे के संकुचन से तारे के ताप में वृद्धि होकर कार्बन तथा हीलियम मिलकर ऑक्सीजन तथा अन्य तत्व नियॉन, सल्फर, नाईट्रोजन से लेकर लोहा आदि सभी तत्व बनते हैं-………………(विज्ञान, मानव और ब्रह्माण्ड, १९९९) इसी प्रक्रिया का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है-

            ‘‘तमिद्गर्भ प्रथमदध्र आपो यत्र देवा समगच्छन्त।।’’ – १०/८२/६

            अर्थात् उस विराट् में स्थित हिरण्यगर्भ को प्रकृति परमाणु पहिले धारण करते हैं जिसमें समस्त पदार्थ संगत होते हैं।

            इस प्रकार वर्तमान में कहे जाने वाले सभी तत्वों के परमाणुओं को निर्माण नेब्यूलाओं में होता रहता है। अब तक सम्पन्न प्रक्रिया में लाखों वर्ष लगते हैं।

            हम इस पर गम्भीरता से विचार करें तो प्रतीत होता है कि वर्तमान विज्ञान तथा वैदिक विचारधारा इस विषय में बहुत भिन्न नहीं है। हां वैदिक विचारधारा वर्तमान प्रचलित विज्ञान की विचारधारा से कुछ आगे है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करेगा, उसे अपनी अवधारणायें परिवर्तित वा स्पष्ट करके वैदिक विचारधारा के अनुकूल आने को विवश होना होगा। अन्त में विषय के अधिकारी विद्वानों की सेवा विनम्र निवेदन है कि लेखक सिद्ध नहीं बल्कि साधक है। न्यूनतायें सम्भव हैं। विद्धान उनको दूर करने का ही यत्न करेंगे ऐसी आशा है।

                                                            प्रधान, आर्य समाज भीनमाल

                                                                                    जनपद-जालौर (राजस्थान) ३४३०२९