भारतीय वर्णव्यवस्था
प्रो. ज्ञानचन्द्र रावल, यज्ञदेव…..
मैकाइबर और कूल आदि समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययन के आधर पर बताया है कि सामाजिक वर्ग विश्व के सभी समाज में किसी न किसी रूप में अवश्य पाये जाते हैं। कहीं पर सामाजिक वर्गों का निर्माण जन्म के आधार पर तो कहीं पर धन के आधर पर। इतना निश्चत है कि सामाजिक वर्ग प्रत्येक समाज में अवश्यमेव पाया जाता है। मनुष्य की प्रवृत्तियों तथा व्यवसायों के आधार पर समाज का विभाजन संसार के सभी देशों
में पाया जाता है। इग्लैण्ड के प्रसिद्ध् विद्वान् एच० जी० वैल्स के अनुसार-‘‘मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों के आधार पर समाज-विभाजन से समाज का श्रेष्ठ विकास होता है तथा उसकी शक्ति बढ़ती है।’’ किग्सले डविस और मूर के अनुसार-‘‘ समाज अपनी स्थिरता एवं उन्नति के लिए अपने व्यक्तित्व को उनकी योग्यता एवं प्रशिक्षण को ध्यान में रखते हुए विभिन्न वर्गों में बॉट देता है।’’
प्राचीन भारतीय सामाजिक विचारकों ने भी मनुष्य की मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों को ध्यान में रखते हुए सामाजिक स्तरीकरण को एक सुनियोजित नीति को अपनाया तथा कार्यात्मक दृष्टि से समाज को चार वर्गों में विभाजित किया। जिन्हें-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के नाम से जाना जाता है। वर्ण-व्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन के मौलिक तत्व के रूप में पायी जाती है। भारतीय संस्कृति में समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान तथा उससे सम्बंधित कार्य उसकी मूलभूत प्रवृत्तियों यानी गुणों के आधार पर निश्चित होता था।
१. वैविध्य के आधार पर वर्ण व्यवस्थाः
सब मनुष्यों में सब बातें एक समान नहीं हैं। फिर भी जो बातें सभी में समान भाव से पाई जाती हैं उनकी मात्रा समान नहीं है।हितोपदेश कार का कथन है- ‘‘आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्’’ अर्थात् भोजन, निद्रा, भय, और नर-मादा का सहवास-ये पशु और मनुष्यों में समान हैं।प्राणी-मात्र में जो सामान्य बातें पाई जाती हैं उनका यह अच्छा परिगणन है। किन्तु आहार तथा निद्रा आदि भी सब समान मात्रा में नहीं पाये
जाते। जहाँ प्रकार भेद नहीं होता वहाँ मात्रा-भेद अवश्य है। इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने मानव समाज के
संगठन के लिए जो संविधान तैयार किया था उसमें इस बात का विशेषध्यान दिया था। गणित शास्त्र में यह बात स्वयंसिद्ध् मानी गई है, कि विषम में सम जोड़ने से विषम उत्पन्न होता है। यथा- ७, ९,११ आदि विषम संख्याएं हैं।इस में २,२ जोड़ने से ७+२:९, ९+२:११, ११+२:१३ होते हैं। इसी तरह यदि विषम को सम बनाना हो तो उसमें विषम अंक तोड़ना पडेगा। जैसे- ७+३: १०, ७+९: १६, ११+५: १६;। आश्चर्य है कि समाजशास्त्रा के आधुनिक पंडित सामाजिक संगठन के समय पर इस स्वयं सिद्ध को भूल जाते हैं।
२. पॅूजीवाद, साम्यवाद और वर्णव्यवस्थाः
बस, अब हम पूँजीवाद, साम्यवाद और वर्णव्यवस्था का भेद भली प्रकार समझ सकेंगे। (१) भूखों का हक छीनकर भूखरहितों के पास जमा कर देना पॅूजीवाद कहलाता है।(२) सबको समान भाग देना साम्यवाद कहलाता है। (३)सबको भूख के अनुसार भोजन देना वर्णव्यवस्था है।
साम्यवाद अन्याय का विरोध करते हुए ईर्ष्या को बीच में मिला देता है। और कहता है कि बड़ा-छोटा कोई नहीं। सब समान हैं। वर्ण व्यवस्था इस बात को स्पष्टतया स्वीकार करती है, कि योग्यता और भूख में भेद होने के कारण अधिकारों में भेद का होना आवश्यक है, परन्तु इसका आधार योग्यता ही होना चाहिए, जन्म नहीं।
३. वर्ण का अर्थः वर्ण शब्द ‘वृज’ वरणे से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है वरण अथवा चुनाव करना। आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश के अनुसार-‘‘-रंग, रोगन, -रंग,रूप, सौन्दर्य, -मनुष्यश्रेणी, जनजातिया कबीला, जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र वर्ण के लोग )’’ इस प्रकार, व्यक्ति अपने कर्म तथा स्वभाव के आधार पर जिस व्यवस्था का चुनाव करता है, वही वर्ण कहलाता है।कुछ लोगों की मान्यता है कि वर्ण शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋगवेद में रंग अर्थात् काले और गौरे रंग की जनता के लिए किया गया है और प्रारम्भ में आर्य तथा दास इन वर्णों का ही उल्लेख है। डॉ० घुरिये ने ऐसा ही लिखा है कि-‘‘ आर्य लोगों ने यहाँ के आदिवासियों को
पराजित करके उन्हें दास या दस्यु नाम दिया और अपने तथा उनके बीच अन्तर प्रकट करने के लिए वर्ण शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ रंग-भेद से है।’’ वर्ण के इससे ऐसा आभास होता है कि इस शब्द का प्रयोग आर्यो तथा दस्युओं के बीच पाये जाने वाले प्रजातीय अन्तर को स्पष्ट करने के लिए ही किया गया है। लेकिन यथार्थ में डॉ० घुरिये आदि की यह मान्यता अमान्य एवं दोषपूर्ण है।
इसी तरह पाण्डुरंग वामन काणे की मान्यता है कि-‘‘प्रारम्भ में गौर वर्ण का प्रयोग आर्यों के लिए तथा कृष्ण वर्ण का दासों या दस्युओं के लिए किया गया जाता था। धीरे धीरे वर्ण शब्द का प्रयोग गुण तथा कर्मों के आधार पर बने हुए चार बड़े वर्गों के लिए किया जाने लगा। वास्तव में वर्ण शब्द का अर्थ शाब्दिक दृष्टि से नहीं समझा जा सकता। वर्ण का सम्बन्ध व्यक्ति के गुण तथा कर्म से पाया जाता है। जिन व्यक्तियों के गुण तथा कर्म एक से थे यानी जिनमें स्वभाव की दृष्टि से समानता थी, वे एक वर्ण के माने जाते थे। इस बात का पुष्ट प्रमाण श्रीमद्गीता में समुपलब्ध् होता है- ‘‘चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’’ अर्थात् मैने ही गुण और कर्म के आधर पर चारों वर्णों की रचना की है। इससे स्पष्ट होता है कि वर्ण-व्यवस्था सामाजिक
स्तरीकरण की एक ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्ति के गुण तथा कर्म पर आधरित है, जिसके अन्तर्गत समाज का चार वर्णों के रूप में कार्यात्मक विभाजन हुआ है।
४-वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्तिः वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति के सम्बन्ध् में भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किये गये
हैं। वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, मनुस्मृति तथा अन्य धर्म-ग्रन्थों में इस व्यवस्था पर विस्तृत चर्चा की
गई है। यहां इन्हीं ग्रन्थों में विद्वानों द्वारा प्रकट किए गए विचारों के आधर पर हम वर्णों की उत्पत्ति को
प्रस्तुत कर रहे हैं।
यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में वर्णों की उत्पत्ति के संबन्ध् में कहा गया है कि-‘‘ब्राह्मण वर्ण विराट पुरुष अर्थात् परमात्मा के मुख के समान हैं, क्षत्रिय उसकी भुजाये हैं, वैश्य उसकी जंघाएं अथवा उदर हैं और शूद्र उसके पांव हैं।’’ इसी तरह ऋगवेद मंडल-१०, सूक्त-९०, मंत्र-१२ लिखा है कि-‘‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहूराजन्यः कृतः। ‘‘ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।’’ यहाँ ब्राह्मण की उत्पत्ति विराट् पुरुष के मुख से हुई
है ऐसा कहने का अभिप्राय ब्राह्मण शरीर में मुखवत् सर्वश्रेष्ठ है। अतएव ब्राह्मणों का कार्य समाज में बोलना तथा अध्यापकों और गुरुओं की तरह अन्य वर्णस्थ स्त्री-पुरुषों को शिक्षित करना है। इसी प्रकार भुजाएं शक्ति की प्रतीक हैं, इसलिए क्षत्रियों का कार्य शासन-संचालन एवं शस्त्र धारण करके समाज से अन्याय को मिटाकर लोगों की रक्षा करना है। इसीलिए श्रीराम ने वनवासी तपस्वियों के सम्मुख प्रतिज्ञा की थी कि-‘‘निशिरहीन करूं मही भुज उठाय प्रण कीन्ह’ ’वाल्मीकि ने लिखा है-‘‘क्षत्रियाः धनुर्संध् त्ते क्वचित् आर्त्तनादो न भवेदिति’’ अर्थात् क्षत्रिय लोग अपने हाथ में इसीलिए धनुष धारण करते हैं कि कहीं पर किसी का भी दुःखी स्वर न सुनाई दे।जघांएं बलिष्ठता एवं पुष्टता की प्रतीक मानी जाती हैं, अतएव समाज में वैश्यों का कार्य कृषि तथा
व्यापार आदि के द्वारा धन संग्रह करके लोगों की उदर पूर्ति करना और समाज से पूरी तरह अभाव को मिटा
देना है। शूद्र की उत्पत्ति उस विराट् पुरुष के पैरों से मानी गयी है अर्थात् पैरों की तरह तीनों वर्णों के सेवा का भार अपने कंधे पर वहन करना है। विराट् पुरुष के शरीर के विभिन्न अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति का भाव यह है कि चारों वर्णों में यद्यपि स्वभावगत भिन्न-भिन्न विशेषताएं पायी जाती हैं, तथापि एक ही शरीर के
अलग-अलग भाग होने के कारण उनमें पारस्परिक अन्तर्निर्भरता पायी जाती है। स्पष्ट है कि पुरुष सूक्त के इन मंत्रों के आधार पर विभिन्न वर्गों के गुण, कर्म एवं स्वभाव कितनी सहजता तथा उत्तमता से समझाये गये हैं।
उत्तर वैदिक काल में रचित उपनिषदों में विशेषकर बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषद् में चारों वर्णों की उत्पत्ति पर विशेष प्रकाश डाला गया है। वहां ब्रह्मा के द्वारा सबसे पहले ब्राह्मण वर्ण पुनः क्षत्रिय, वैश्य तथा सबसे अन्त में शूद्र वर्ण की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।
इसी तरह महाभारत के शान्ति-पर्व में चारों वर्णों की उत्पत्ति के विषय में अपने शिष्य भारद्वाज को सम्बोधित करते हुए महर्षि भृगु कहते हैं कि-‘‘प्रारम्भ में केवल एक ही वर्ण ब्राह्मण था।यही वर्णवाद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के रूप में विभक्त हो गया। ब्राह्मणों का वर्ण श्वेत था जो पवित्रता-सतोगुण
का परिचायक था। क्षत्रियों का रंग लाल जो क्रोध् तथा राजस गुण का सूचक था, वैश्यों का पीला रंग था जो रजो गुण एवं तमो गुण के मिश्रण का सूचक था और शूद्रों का रंग काला था जो अपवित्रता एवं तमो गुण की प्रधानता का प्रतीक था। ’’इससे सुविदित होता है कि महाभारत काल तक वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म एवं स्वभाव के ही आधार पर थी। अन्यथा ब्राह्मण कुलोत्पन्न परशुराम क्षत्रिय,क्षत्रिय कुलोत्पन्न विश्वामित्र ब्रह्मर्षि, शूद्र कुलोत्पन्न पराशर एवं व्यास आदि को आज संसार ब्राह्मण न मानता।
५. वर्ण-व्यवस्था का आधार जन्म या कर्मः वर्तमान समय में वर्ण-व्यवस्था के विषय में मूलभूत प्रश्न यह हे कि यह जन्म पर आधरित हो या गुण, कर्म एवं स्वभाव के आधर पर? साधरणत वर्ण सदस्यता का आधार
जन्म के न मानकर गुण एवं कर्म का माना जाने लगा है, लेकिन इस विषय में विद्वानों में भी एकरूपता नहीं है। आधुनिक युग में वोटों की राजनीति ने इसे और अधिक बढावा दिया है। इस विषय में डॉ० राधकृष्णन् शब्द के हैं-‘‘ इस व्यवस्था में वंशानुक्रमणीय क्षमताओं का महत्व अवश्य था, परन्तु मुख्यतया यह व्यवस्था गुण तथा कर्म पर आधारित थी।’’
इन्होंने महाभारत कालीन एवं उससे प्राचीन के विश्वामित्र, राजा जनक, महामुनि व्यास, वाल्मीकि, अजमीड और पुरामीड आदि के अनेकों उदाहरणों से अपनी बात को प्रामाणित किया है।
डॉ० जी एस घुरिय ने भी वर्ण-व्यवस्था को गुण एवं कर्म के आधार को स्वीकार करते हुए लिखा है कि-‘‘प्रारम्भ में भारत में दो ही वर्ण थे-आर्य और दास अथवा दस्यु। आर्य भारत में विजेता के रूप में आया था उन्होंने अपने को श्रेष्ठ और यहां के मूल निवासियों द्रविडों को निम्न समझा, स्वयं को द्विज और द्रविडों को दास या दस्यु कहा। समय के साथ-साथ जैसे-आर्यों की संख्या में वृदि्ध् हुई- उनके कर्मों में विभिन्नता आती गई और द्विज वर्णों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों में विभक्त हो गया।’’
के.एम. पणिक्कर की मान्यतानुसार- ‘‘यदि जन्म ही वर्ण सदस्यता का आधार होता तो विभिन्न वर्णो के पेशों में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन सम्भव नहीं था। परन्तु प्राचीन साहित्य से उपलब्ध् प्रमाण यह प्रकट करते हें कि ब्राह्मण न केवल धर्म कार्य का सम्पादन एवं अघ्ययन ही करते थे बल्कि वे साथ ही औषध्,शस्त्र
निर्माण एवं प्रशासन सम्बन्धी कार्य में भी लगे हुए थे।……….वैदिक साहित्य में कहीं ऐसा वर्णन नहीं मिलता जिससे प्रकट हो कि लोगों के लिए जन्म के आधार पर व्यवसाय का चुनना अनिवार्य था। पवित्र ग्रन्थ‘ऐतरय ब्राह्मण’ की रचना एक ब्राह्मण ऋषि एवं उसकी दस्यु पत्नी से उत्पन्न और सपुत्र ने की थी। इस कथन से स्पष्ट है कि वर्ण की सदस्यता कर्म के आधर पर प्राप्त होती थी न कि जन्म के आधर पर’’
इस उपर्युक्त विवेचना से सुस्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकालीन वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म एवं स्वभाव के ही अनुसार थी। परन्तु महाभारत युद्ध के बाद योग्य राजा एवं योग्य विद्वानों के अभाव में सारी सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। यदि भारत को वह पुराना विश्वगुरु वाला गौरव पुनः प्राप्त करना है तो वही प्राचीन वर्ण-व्यवस्था दुबारा से लागू करनी होगी।
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AMIT ROY JI NAMASKAR,
ME BHI AAP HI KI TARAH HINDU SAMAAJ KO JODNE KA KAAM KAR RAHA HU VISHESH KAR NAKLI AMBEDKARWAADIO AUR COMMUNISTO NE JO BHRAM FAILAYA HAI USE VISHUDH SAHITYA KE DWARA DOOR KARNA CHAHTA HU. MERA AAPSE NIVEDAN HAI KI AAP MUJHE DIRECT MERI MAIL ID PAR SAHITYA BHEJ SAKTE HAI. DHANYWAAD
विजय कुमार जी
पहली बात की हमारे पास इतना समय नहीं की लेख भेज सके | हाँ आप एक काम कर सकते हैं आप आप हमारे ब्लॉग को सब्सक्राइब करे आपको बुधवार को ज्यादातर जो लेख होती है उसका लिंक आपको मेल के द्वारा मिल जाएगा | और आर्टिकल की कुछ जानकारी भी मेल में मिल जायेगी | क्षमाप्रार्थी हु | धन्यवाद |
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ARYAVAR, NAMASTE…
MERE KUCHH SAMSHAYA HAI, PAHALE IS LEKH KO POST KARKE ANTYA ME SAMSHAYA RAKHUNGAA:-
(372) शंका :- यदि यज्ञोपवीत न हो तो क्या हानि ?
समाधान कर्ता :- स्वामी दयानन्द सरस्वती , विषय :- यज्ञोपवीत
समाधान :-(शिवलाल वैश्य रईस डिबाई, जि० बुलन्दशहर से
प्रश्नोत्तरफरवरी १८६८) ठाकुर शिवलाल वैश्य रईस डिबाई जि० बुलन्दशहर ने वर्णन किया कि दूसरी बार स्वामी जी मुझे फागुन बदि १३ संवत् १९२४ तदनुसार २१ फरवरी, सन् १८६८ को कर्णवास में मिले । वहां पहुंचकर क्या देखता हूं कि आप दो—चार ठाकुरों और वैश्यों के लड़कों के उपनयन संस्कार कराने का यत्न कर रहे हैं । मैंने जाकर नमस्कार किया और प्रश्न किया । महाराज ! यदि यज्ञोपवीत न हो तो क्या हानि ?
स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का उपनयन
संस्कार होना अवश्यक है, क्योंकि जब तक उपनयन संस्कार नहीं होता तब तक मनुष्य को वैदिक कार्य करने का अधिकार नहीं ।
प्रश्नएक व्यक्ति उपनयन संस्कार करावे परन्तु शुभ कर्म्म न करे
और दूसरा उपनयन संस्कार नहीं करावे और सत्यभाषणादि कर्म में तत्पर हो, उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है ? स्वामी जी ने उत्तर दिया कि श्रेष्ठ वह है जो उत्तम कर्म करता है परन्तु संस्कार होना आवश्यक है क्योंकि संस्कार न होना वेद, शास्त्र के विरुद्ध
है और जो वेद—शास्त्र के विपरीत करना है वह ईश्वरीय आज्ञा को नहीं मानता और ईश्वरीय आज्ञा को न मानना मानो नास्तिक होने का लक्षण है । (लेखराम पृष्ठ ९४)
OUM..
ARYAVAR NAMASTE..
MERAA SAMSHAYA IS KATHAN SE HAI: –
“ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का उपनयन संस्कार होना अवश्यक है, क्योंकि जब तक उपनयन संस्कार नहीं होता तब तक मनुष्य को वैदिक कार्य करने का अधिकार नहीं।”
ISME SUDRA KAA ULLEKH KYUN NAHIN HAI?
ARYA SAMAJ KARMO KE ANUSAAR VARNA-VYAVASHTAA MAANTAA HAI..AUR VEDON ME BHI YAHI HAI..FIR SUDRA KO VEDAADHYAYAN KARNE KI VYAVSHTAA KAHAAN HAI?
AUR EK BAAT, JANMA SE SABHI SUDRA HOTE HAIN, FIR KARMA SE PAHALE YEH “ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य” KAISE BANGAE?
KRIPAYAA MERAA SAMSHAYA DUR KIJIE..
DHANYAVAAD…
शुद्र शिक्षित नहीं होने के कारण उपनयन नहीं कर सकता
उसके बच्चों का उपनयन गुरुकुल में होता है