All posts by Amit Roy

आत्मा को भुला देने से विश्व में अशान्ति आदि समस्त समस्यायें

ओ३म्

आत्मा को भुला देने से विश्व में अशान्ति आदि समस्त समस्यायें

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्यों द्वारा अपनी आत्मा व शरीर में भेद न करने व आत्मा व शरीर को एक मान लेने के कारण ही विश्व में अशान्ति व नाना प्रकार की समस्यायें हैं। इन सबका हल यही है कि संसार के सभी मनुष्य आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानें। इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यवस्था  से जुड़े शीर्षस्थ व्यक्ति सर्वसम्मति से शिक्षा में आत्मा विषयक यथार्थ ज्ञान के अध्ययन व अध्यापन की व्यवस्था करें। जो व्यक्ति आत्मा का कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेगा तो वह परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जाने बिना चैन से नहीं बैठ सकता। वेद, उपनिषद व योग-सांख्य-वेदान्त दर्शन से ईश्वर विषयक यथार्थ ज्ञान भी इसके अध्येताओं को अवश्य होगा जिससे वह वैराग्य को प्राप्त होगें। वैराग्य ज्ञान की पराकाष्ठा को कहते हैं। बच्चा बड़ा होकर खिलौनो से खेलना इसलिए बन्द कर देता है कि उसे इनकी वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। जिस मनुष्य को यह पता लग जाये कि उसे कुछ दिन बाद मरना है तो उसे नींद नहीं आती, स्वादिष्ट भोजन भी अच्छा नहीं लगता और धन ऐश्वर्य होते हुए भी जीवन नीरस, फीका व स्वादरहित हो जाता है। इस स्थिति के बनने पर अध्यात्मिक ज्ञान व ईश्वरोपासना आदि साधनों से जीवन को सुखी, आनन्दयुक्त व सरस बनाया जा सकता है। आज के व्यक्तियों को देखकर लगता है कि वह सभी आंखें बन्द कर मार्ग पर चल रहे हैं और, देर व सबेर, सभी एक बड़ी दुर्घटना का शिकार होंगे जिससे यदि कोई बचा सकता है तो वह वेदों व उपनिषदों का ज्ञान ही है। इसके लिए महर्षि दयानन्द का लघुग्रन्थ आर्याभिविनय व सत्यार्थप्रकाश आदि के प्रथम, सप्तम, अष्टम, नवम व दशम समुल्लास भी उपयोगी हो सकते हैं। वैदिक विद्वानों ने वेदमन्त्रों की आध्यात्मिक व्याख्याओं के संग्रह प्रकाशित किये हुए हैं, वह भी मनुष्य का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

 

आत्मा का ज्ञान क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न का उत्तर है कि आत्मा का गहरा सम्बन्ध मुझसे व सभी प्राणियों का अपने आप से है। कुछ भी जानने से पहले मुझे स्वयं को जानना अनिवार्य है अन्यथा हम भोग पदार्थों को अर्जित कर उनके भोग का विवेकपूर्ण निर्णय नहीं कर पायेंगे। यदि किसी शिक्षित व्यक्ति से पूछा जाये कि वह अपने आप व स्वयं को जानता है तो वह कुछ न कुछ उत्तर अवश्य देगा। वह उत्तर ठीक हो सकता है परन्तु वह अपूर्ण ही होगा। आत्मा व मैं एक हैं। मेरे जीवन में मैं ही आत्मा और आत्मा ही मैं हूं। इस आत्मा का इतिहास व जन्मादि कब, कैसे, कहां व किससे हुआ, यह प्रश्न जानने पर जो स्थिति हमें अवगत होती है, उससे बड़े बड़े ज्ञानी भी अनभिज्ञ व अपरिचित हैं। हमारा आत्मा एक चेतन पदार्थ है। चेतन का अर्थ है कि इसमें सुख व दुःख की संवेदनायें, जिज्ञासायें व ज्ञान तथा क्रिया करने की सामथ्र्य होती है। इसके विपरीत जड़ पदार्थ होते हैं जिनमें किसी प्रकार की संवेदनायें व सुख व दुःख की अनुभूति, ज्ञान व स्वयं उद्देश्य प्रधान क्रिया करने की सामर्थ्य नहीं होती। सभी भौतिक पदार्थ जड़ पदार्थों की श्रेणी में आते हैं। हमारा व सभी प्राणियों का शरीर भौतिक पदार्थों से मिलकर बना है। हम अन्न के रूप में जिन पदार्थों का सेवन करते हैं उसी से हमारा शरीर बना व बनता है। इस शरीर का निर्माण स्वतः नहीं होता अपितु ईश्वर के विधान व उसके द्वारा ही होता है। इस शरीर का एक-एक अंग कितना महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान तब पता चलता है कि जब कोई अंग विकारयुक्त हो जाता है या कार्य करना बन्द कर देता है। वर्तमान में विकसित चिकित्सा विज्ञान इन विकारों का उपचार करता है, कुछ स्वस्थ हो जाते हैं और कुछ परलोक सिधार जाते हैं। मनुष्य, वैज्ञानिक व चिकित्सक शरीर व उसके किसी भाग को बनाते नहीं, उस ईश्वर के नियमों द्वारा बने शरीर का अध्ययन कर केवल रोग व विकार के कारणों को हटाने का काम करते हैं जिसमें उन्हें आंशिक सफलता व विफलतायें दोनों ही मिलती हैं। जीवात्मा शरीर से पृथक एक चेतन तत्व है जबकि हमारा शरीर जड़ पदार्थों से मिलकर बना व बनाया गया है। इस शरीर को तो विज्ञान ने काफी हद तक जान लिया है परन्तु आत्मा का ज्ञान उपलब्ध होने पर भी सभी लोग जिनमें शिक्षित, ज्ञानी एवं वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं, अपने संस्कारों, स्वभाव व सांसारिक पदार्थों से आकर्षित होकर भ्रमित रहते हैं जिसका परिणाम सुख व दुःख व यदा-कदा कम आयु में व अधिकांश की 60 से 80 वर्ष की आयु के बीच मृत्यु का होना है।

 

जीवात्मा शरीर से भिन्न चेतन पदार्थ है, यह जानने के बाद जीवात्मा की उत्पत्ति से जुड़े प्रश्नों पर विचार करना भी आवश्यक है। प्रत्येक कार्य का एक कारण होता है परन्तु मूल कारण का कारण नहीं होता। जीवात्मा प्रकृति में उपलब्ध किसी भौतिक पदार्थ के द्वारा निर्मित नहीं है। यह अनादि व अनुत्पन्न है। हम देखते हैं कि भौतिक पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन होता रहता है। विज्ञान भी मानता है कि पूर्ण नाश व समाप्ती किसी पदार्थ की कभी नहीं होती। दर्शन के आधार पर विचार करें तो भाव से भाव उत्पन्न होता है, अभाव से भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार भाव का अभाव भी नहीं हो सकता। अतः आत्मा यदि है, जो कि प्रत्यक्ष अनुभव से जानी जाती है, तो यह आत्मा भाव पदार्थ है, इसका अभाव व पूर्ण नाश कदापि नहीं हो सकता। इस लिए आत्मा को अविनाशी स्वीकार किया जाता है। अमरता अर्थात् न मरना भी आत्मा का गुण है। शरीर की मृत्यु होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा तो ईश्वर के नियमों से शरीर से निकल कर अपने कर्मानुसार अन्य किसी योनि में जन्म ग्रहण करने के लिए चला जाता है। इसी नियम का पालन करते हुए हम अपने पूर्वजन्म के स्थान से अपने वर्तमान के पिता व माता के शरीरों से होते हुए जन्में हैं। जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृतक का जन्म होना भी एक सत्य शास्त्रीय सिद्धान्त होने के साथ तर्क व युक्तियों से भी सिद्ध है। अतः हमारी कालान्तर में मृत्यु अवश्य होनी है। यह शाश्वत् सत्य है परन्तु सभी मनुष्य लोग सारा जीवन इस सत्य से अनजान बने रहते हैं। यदि यह सत्य है तो क्यों न हम अपने जन्म और मृत्यु के सत्य को अधिक न सही, प्रातः व सायं ही स्मरण कर मृत्यु के भय पर विजय पाने की चेष्टा व अभ्यास करें। यदि हम मृत्यु को स्मरण रखेंगे और इससे होने वाले दुःख पर विजय पाने के लिए आत्मा के सत्यस्वरूप को जानकर उससे इस संसार के रचयिता को जानने सहित उसकी पूर्ण तर्क व युक्तिपूर्वक स्तुति, प्रार्थना व उपासना करेंगे साथ हि सदाचारयुक्त जीवन व्यतीत करेंगे तो हम निश्चय ही मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

 

मृत्यु के स्वरूप को जानकर व उसके दुःख पर उस ज्ञान से मोह व अहंकारयुक्त जीवन का त्याग कर हम अवश्य ही अपने बुरे कर्मों जिनसे समाज व देश के निर्दोष लोगों को हमारे स्वार्थों के कारण दुःख होता है, उनसे बचने का अवश्य प्रयत्न करेंगे क्योंकि हमें यह ज्ञान हो जायेगा कि संसार का सर्वव्यापक रचयिता, पालक, धारणकर्ता व सभी जीवात्मा के प्रत्येक शुभ व अशुभ कर्मों का नियन्ता व न्यायाधीश हमारे किसी कर्म को क्षमा नहीं करेगा और उसका उचित दण्ड जन्म व जन्मान्तरों में हमें अवश्य देगा। आत्मा पर विचार करते रहने व इस विषयक सत्साहित्य पढ़ने से आत्मा के अन्य गुणों व स्वरूप जिसमें इसका सूक्ष्म होना, एकदेशी होना, कर्म करने में स्वतन्त्र और उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होना, पूर्वजन्मों के कर्मानुसार हमें इस मनुष्य योनि व सामाजिक परिवेश, माता, पिता आदि का मिलना व भविष्य में इस जन्म के कर्मों के आधार पर भावी मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि किसी योनि में जन्म मिलना, अज्ञान से दुःखों को प्राप्त होना व सत्य ज्ञान से दुःखों के स्वरूप को जानकर उनसे मुक्त व सुखी होना, आत्मा आकाररहित है, अल्पशक्ति वाला, अल्पज्ञ है, आदि जीवात्मा के स्वरूप व इसके विविध गुणों का ज्ञान होता है। जीवात्म अनादि व अनुत्पन्न होने से यह कभी बना व जन्मा नहीं है। इसी कारण इसकी मृत्यु, नाश व अभाव भी कभी नहीं होगा। यह जीवात्मा सदा-सर्वदा अपने अस्तित्व को विद्यमान रखते हुए जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहेगा, इसका ज्ञान स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व सच्चे गुरू के उपदेश से होता है।

 

जीवात्मा का अच्छा व बुरा पूर्वजन्म समाप्त हो चुका है, उसके बारे में कुछ करना करणीय नहीं है। वर्तमान जीवन सुखी, समृद्ध व यशस्वी हो तथा परजन्म भी इस जन्म से अधिक उन्नत हो, यह सभी जीवात्माओं वा मनुष्यों का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये। इसके लिए प्रथम जीवात्मा व परमात्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। यह ज्ञान वेद, उपनिषद, योग, सांख्य व वेदान्त दर्शन सहित सत्यार्थप्रकश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों में सुलभ है। श्री कर्मनारायण कपूर का ग्रन्थ जीवात्मा का स्वरूप और पं. राजवीरशास्त्री सम्पादित दयानन्दसन्देश पत्रिका का तीन खण्डीय जीवात्मज्योतिविशेषाक का अध्ययन कर उनमें निहित आत्मा विषयक ज्ञान को आत्मसात किया जाना समीचीन है। इस ज्ञान के अनुसार जहां मनुष्यों को पुरूषार्थमय जीवन व्यतीत करते हुए अशुभ कर्मों का त्याग कर समस्त शुभ कर्म ही करने हैं वहीं वैदिक विधि से ईश्वर की उपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र अनुष्ठान, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों की सेवा-सत्कार सहित परोपकार व यथाशक्ति आर्ष-गुरूकुल-प्रणाली व वेदविद्या के प्रचार व प्रसार में सहयोग भी करना है। इन शुभकर्मों का लाभ हमें इस जीवन व परजन्म में मिलता है। आत्मा के सत्यस्वरूप को जाने बिना यह सभी कार्य नहीं किये जा सकते। इन कर्मों को करने से हमारा वर्तमान व परजन्म दोनों ही सुधरेंगे और हम इससे मुमुक्षत्व को प्राप्त होकर और अधिक त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत कर मुक्ति के अधिकारी भी बन सकते हैं।

 

जीवात्मा व ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर मनुष्य अशुभ कर्मों का त्याग कर देता है। स्वार्थ से ऊपर उठकर देश व समाज के हित की कामना से शुभ कर्मों को करता है। वह असत्य व अशुभ कर्मों के परिणामों को जानकर उनका सर्वधा त्याग व निषेध कर देता है। वेदाध्ययन करने से उसे अपने कर्तव्यों का बोध बना रहता है जिससे उसकी अशुभ प्रवृत्तियां नियंत्रण में रहती है। ऐसा करके वह मृत्यु को भी यथार्थरूप में जानकर उसके भय से मुक्त हो जाता है और देश व समाज के सभी लोग उससे लाभान्वित होते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद, स्वामी दर्शनानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी आदि का जीवन इसी प्रकार का जीवन था। यह श्रेय का मार्ग है। सरकार का कर्तव्य एवं दायित्व है कि वह जीवात्मा व ईश्वर सहित वेदों का सत्य ज्ञान सभी देशवासियों को कराये और उसके विरोध में उठने वाले अज्ञानता व स्वार्थान्धता के स्वरों की चिन्ता न करे। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो शायद यह देश सुरक्षित नहीं रह सकेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द के मुख्य कार्य वेदभाष्य का उनके द्वारा प्रस्तुत नमूना

ओ३म्

महर्षि दयानन्द के मुख्य कार्य वेदभाष्य का उनके द्वारा प्रस्तुत नमूना

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन के प्रारम्भिक 38 वर्ष धार्मिक व आध्यात्मिक तथ्यों के अन्वेषण व अध्ययन सहित योग विद्या को जानने व उसका अभ्यास करने में व्यतीत किए। सौभाग्य से उन्हें वेद एवं आर्ष ज्ञान के अद्भुत श्रद्धालु एवं मर्मज्ञ विद्वान प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती का शिष्यत्व प्राप्त हुआ। इन गुरुजी से मिलने से पहले स्वामीजी अनेक विषयों के अच्छे विद्वान व जानकार होने के साथ सफल योगी बन चुके थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक व प्रभावशाली था तथा उनकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमतायें भी असामान्य व असाधारण थी। इस गुण के कारण वह स्वामी विरजानन्द जी से आर्ष व्याकरण सहित समस्त वैदिक ज्ञान मात्र लगभग 3 वर्षों में ग्रहण कर पाने में सफल हुए। गुरु विरजानन्द जी से स्वामी दयानन्द ने सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा प्रकाशित चार वेदों का ज्ञान वा उनके सभी मन्त्रों के सत्य अर्थ करने की योग्यता भी प्राप्त की। अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों आग्नि, वायु आदित्य व अंगिरा को ईश्वर ने चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद का ज्ञान उनकी आत्मा में अन्तःप्रेरणा द्वारा प्रदान किया था। इस ज्ञान से संबंधित सभी शंकाओं का समाधान स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से प्राप्त किया था व अपने शिक्षणकाल के बाद आवश्यकता पड़ने पर गुरुजी से उनके जीवनपर्यन्त प्राप्त समाधान प्राप्त करते रहते थे। गुरुजी की प्ररेणा व आज्ञा से ही स्वामी दयानन्द जी ने अपना समस्त जीवन भारत व विश्व की अज्ञानी व अबोध  जनता से अन्धविश्वासों व रूढि़यों को हटाकर इस मिथ्या ज्ञान के स्थान पर ईश्वर के ज्ञान वेद को स्थापित करने का कार्य किया। उन्होंने गुरू जी को दिए अपने वचनों को गुरूजी से विदाई के दिन से लेकर जीवन की अपनी अन्तिम श्वांस तक निभाया। स्वामी जी ने अनेक कार्य किये। उपदेशों द्वारा प्रचार के साथ उन्होंने ग्रन्थ लेखन, वार्तालाप, शंका-समाधान, लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ, आर्यभाषा-हिन्दी और गोरक्षा के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान व देशवासियों को पत्र व लघु ग्रन्थों द्वारा प्रेरणा आदि कार्य किए। चार वेदों के संस्कृत व हिन्दी में अपूर्व भाष्य के लेखन का कार्य उनका एक प्रमुख कार्य था। इस कार्य का शुभारम्भ करते हुए उन्होंने सबसे पहले अपने करिष्यमाण वेदभाष्य का स्वरूप जनता पर प्रकट करने के लिये सन् 1875 (विक्रमी संवत् 1931) में ऋग्वेद के प्रथम सूक्त का भाष्य नमूने के रूप में प्रकाशित कराया था। इस सम्बन्ध में स्वामीजी के एक जीवनीकार पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने लिखा है कि ‘‘स्वामी जी ने ऋग्वेद के पहले सूक्त का भाष्य, जिसमें गुजराती और मराठी अनुवाद भी था, वेदभाष्य के नमूने के तौर पर प्रकाशित किया। जिसमें ऋग्वेद के पहले मन्त्रअग्निमीळे पुरोहितम् आदि के दो अर्थ किये थे। एक भौतिक दूसरा पारमार्थिक। उसकी भूमिका में लिखा था कि मैं सारे वेदो का इसी शैली पर भाष्य करूंगा। यदि किसी को इस पर कोई आपत्ति हो तो पहले ही सूचित कर दे, ताकि मैं उसका समाधान करके ही भाष्य करूं। यह नमूना स्वामी जी ने काशी के पण्डित बालशास्त्री, स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती प्रभृति तथा कलकत्ता और अन्य स्थानों के पण्डितों के पास भेजा था, परन्तु किसी ने भी उसकी आलोचना उस पर शंका नहीं की।

 

इसके बाद ही महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों की भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (लेखन आरम्भ तिथिः 20 अगस्त, 1976) से आरम्भ कर यजुर्वेद व इसके साथ-साथ ऋग्वेद का भाष्य किया। यजुर्वेद का पूर्ण भाष्य करने में वह सफल हुए तथा मृत्युपर्यन्त ऋग्वेद के सातवें मण्डल के 62 वें सूक्त के दूसरे मन्त्र तक (ऋग्वेद के कुल 10552 मन्त्रों में से 5649 मन्त्रों का) भाष्य किया। स्वामीजी ने अपने ग्रन्थों के प्रकाशन के लिए प्रयाग में एक मुद्रणालय वा प्रेस भी स्थापित किया था। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित यजुर्वेद भाष्य और ऋग्वेदभाष्य क्रमशः मासिक अंकों में प्रकाशित होता था और इस वेदभाष्य को देश-देशान्तर के ग्राहकों को भेजा जाता था।  इंग्लैण्ड के प्रोसेफर मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स भी वेदभाष्य के नियमित ग्राहक थे। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के मासिक अंक संख्या 7 पर ग्राहकों के नामों की सूची प्रकाशित की गई थी जिनमें यह दोनों प्रसिद्ध विदेशी विद्वान व हस्तियां भी सम्मिलित थी। सूची में इस बात का भी उल्लेख है कि विदेशी ग्राहकों से साढ़े चार रूप्या वार्षिक शुल्क प्राप्त हुआ था।

 

अब हम पाठकों की सेवा में महर्षि दयानन्द के ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के नौ मन्त्रों के भाष्य के नमूने के अंक से प्रथम मन्त्र का पारमार्थिक अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। मन्त्र है-ओ३म्। अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।1।। मन्त्र को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द ने इस मन्त्र में प्रयुक्त अग्नि आदि शब्दों के उनके द्वारा किये जाने वाले अर्थों के संस्कृत में अनेक प्रमाण दिये हैं और उसके पश्चात संस्कृत व हिन्दी में भाष्य किया है। मन्त्र का हिन्दी भाष्य इस प्रकार है–‘(अग्निमीळे) इस मन्त्र का ईश्वर के अभिप्राय से जो अर्थ है सो प्रथम किया जाता है। इस मन्त्र में अग्नि शब्द से परमेश्वर का ग्रहण होता है। इसके ग्रहण से इन्द्र मित्रं वरुण इत्यादि यथालिखित प्रमाण का आधार है। सब जगत् को उत्पन्न करके, संसार के पदार्थों का और परमात्मा का जिससे यथार्थ ज्ञान होता है, उस सनातन अपनी विद्या का सब जीवों के लिए आदि सृष्टि में परमात्मा ने उपदेश किया है। जैसे अपनी संतानों को पिता उपदेश करता है, वैसे ही परम कृपालु पिता जो परमेश्वर है, उसने हम सब जीवों के हित के लिए सुगमता से वेदों का उपदेश किया है जिससे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष और सब पदार्थों का विज्ञान और उनसे यथावत् उपकार लेवें, इसलिए अत्यन्त हित से हम लोगों को उपदेश किया है सो हम लोग भी अत्यन्त प्रेम से इसको स्वीकार करें। अब जैसा उपदेश परमात्मा को करना है सो सब जीवों की ओर से परमेश्वर करता है, कि जीव जब इस वेद को पढ़े, पढ़ावे, पाठ करें और विचारेंगे तब यथावत् कत्र्ता, क्रिया और कर्म का सम्बन्ध हो जाएगा। जो एक जानने-वाला, शुद्ध, सब विकारों से रहित, सनातन, जो सब काल में एकरस बना रहता है, जो अज है, जिसका कभी जन्म नहीं होता, जो अनादि है, जिसका आदि कारण कोई नहीं, जो अनन्त है, जिसका अन्त कोई नहीं जान सकता, जगत् में जो परिपूर्ण हो रहा है, सब जगत् का आदिकारण और जो स्वप्रकाशस्वरूप है, ऐसा जो परमेश्वर जिसका नाम अग्नि है, उसकी मैं स्तुति करता हूं। इससे भिन्न कोई दूसरा ईश्वर नहीं है, और उसको छोड़के दूसरे का लेशमात्र भी आश्रय मैं कभी नहीं करता। किस प्रयोजन के लिए? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनकी सिद्धि के लिए। अत्र्जु गतिपूजनयोः इत्यादि धातुओं से अग्नि शब्द सिद्ध होता है, अत्र्चतीत्यादि0 जो सबको जानता है, जो सब वेदादिक शास्त्रों से जाना जाता है, जो सबमें गत नाम प्राप्त हो रहा है, जो सर्वत्र प्राप्त होता है, जो सब धर्मात्माओं का सत्कार करता है, जिसका सत्कार सब विद्वान लोग करते हैं, जो सब सुखों को प्राप्त कराता है और जो सब सुखों के अर्थ प्राप्त किया जाता है, इस प्रकार व्याकरण निरुक्त आदि के प्रमाणों से अग्नि शब्द से परमेश्वर के ग्रहण में कोई भी विवाद नहीं है।

 

पूर्वोक्त अग्नि कैसा है कि (पुरोहितः) सब देहधारियों की उत्पत्ति से प्रथम ही सब जगत् और स्वभक्त धर्मात्माओं के लिए सब पदार्थों की उत्पत्ति जिसने की है और विज्ञानादि दान से जो जीवादि सब संसार का धारण और पोषण करता है, इससे परमात्मा का नाम पुरोहित है। पुरःपूर्वक क्त प्रत्ययान्त डुधाञ्ज धातु से पुरोहित शब्द सिद्ध हुआ है। इसी से सबका धारण और पोषण करने वाला एक परमात्मा ही है। अन्य कोई भी नहीं । इस पुरोहित शब्द में पुर एनं0 इत्यादि निरुक्त का भी प्रमाण है। (यज्ञस्य देवम्) यज् धातु से यज्ञ शब्द सिद्ध होता है। इसका यह अर्थ है कि अग्निहोत्र से लेके अश्वमेघपर्यन्त विविध क्रियाओं से जो सिद्ध होता है, जो वायु और वृष्टि जल की शुद्धि द्वारा सब जगत् को सुख देनेवाला है उसका नाम यज्ञ है, अथवा परमेश्वर के सामथ्र्य से सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों गुणों की जो एक अवस्थारूप कार्य उत्पन्न हुआ है जिसका प्रकृति अव्यक्त और अव्याकृतादि नामों से वेदादि शास्त्रों ने कथन किया है, उससे लेके पृथिवी पर्यन्त कार्य कारण संगति से उत्पन्न हुआ जो जगत् रूप यज्ञ है, अथवा सत्यशास्त्र सत्यधर्माचरण सत्पुरुषों के संग से जो उत्पन्न होता है, जिसका नाम विद्या, ज्ञान और योग है, उसका भी नाम यज्ञ है, इन तीनों प्रकार के यज्ञों का जो देव है, जो सब सुखों का देनेवाला, जो सब जगत् का प्रकाश करने वाला, जो सब भक्तों को आनन्द करानेवाला, जो अधर्म अन्यायकारी शत्रुओं का और काम क्रोधादि शत्रुओं का विजिगीषक नाम जीतने की इच्छा पूर्ण करनेवाला है, इससे ईश्वर का नाम देव है।

 

(ऋत्विजम्) जो सब ऋतुओं में पूजने योग्य है, जो सब जगत् का रचने वाला और ज्ञानादि यज्ञ की सिद्धि का करनेवाला है, इससे ईश्वर का नाम ऋत्विज् है। ऋतु शब्दपूर्वक क्वन् प्रत्ययान्त यज् धातु से ऋत्विज् शब्द सिद्ध होता है। (होतारम्) जो सब जगत् के जीवों को सब पदार्थों को देनेवाला है। जो मोक्ष समय में मोक्ष को प्राप्त हुए जीवों का ग्रहण करने वाला है तथा जो वर्तमान और प्रलय में सब जगत् का ग्रहण और धारण करनेवाला है, इससे परमात्मा का नाम होता है। हु दानादनयोः। आदाने चेत्येके। इस धातु से तृच् प्रत्यय करने से होता शब्द सिद्ध हुआ है। (रत्नधातमम्) जिनमें रमण करना योग्य है, जो प्रकृत्यादि पृथिवीपर्यन्त रत्न यथा विज्ञान, हीरादि जो रत्न और सुवर्णदि जो रत्न हैं, जिनके यथावत् उपयोग करने से आनन्द होता है, उन रत्नों का सब जीवों को दान के लिए जो धारण करता है, वह रत्नधा कहाता है, और जो अतिशय से पूर्वोक्त रत्नों का धारण करनेवाला है, इससे परमेश्वर का नाम रत्नधातम है। रत्न शब्दपूर्वक किप् प्रत्ययान्त डुधाञ्ज धातु से तमप् प्रत्यय करने से यह शब्द सिद्ध हुआ है। इस मन्त्र को निरुक्तकार यास्क मुनि ने जिस प्रकार की व्याख्या की है सो इस वेदमन्त्र के संस्कृत भाष्य में लिखी है, उसको वहीं देख लेना।

 

हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य के नमूने के रूप में प्रकाशित अंक से एक मन्त्र का केवल हिन्दी में एक ही अर्थ प्रस्तुत कर वैदिक ज्ञान व वेदभाष्य का नमूना पाठको के लाभार्थ प्रस्तुत किया है। पाठक सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न इस ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रथम मन्त्र व उसके हिन्दी अर्थ को जानकर इसमें निहित विचारों व व्याख्या से लाभान्वित होंगे और जीवन कल्याण के स्रोत वेदों को अपने भावी जीवन में स्वाध्याय व अध्ययन का अंग बनायेंगे, इस भावना के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

वेद सार्वभौमिक मानव धर्म के अधिकारिक प्रतिनिधि व आदिस्रोत

ओ३म्

वेद सार्वभौमिक मानव धर्म के अधिकारिक प्रतिनिधि आदिस्रोत

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

संसार के सभी मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों पर ध्यान केन्द्रित करें तो यह सभी एक बहुत ही बुद्धिमान व सर्वव्यापी कलाकार की रचनायें अनुभव होती हैं। संसार भर में सभी मनुष्य की दो आंखे, दो कान, नाक, मुंह, गला, शिर, वक्ष, उदर, कटि व पैर प्रायः एक समान ही हैं। सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह अपने बनाने वाले को जाने, उसका धन्यवाद करें, उससे कृतज्ञ एवं अनुग्रहीत हों। यही मनुष्यता वा मानवधर्म का आधार व मुख्य सिद्धान्त है। आज का मनुष्य अनेक प्रकार के ज्ञान से सम्पन्न है। विज्ञान तो अपनी चरम अवस्था पर आ पहुंच है परन्तु यदि धार्मिक व सामाजिक ज्ञान की बात करें तो आज भी संसार में इस क्षेत्र में अधिकांशतः कृपणता ही दृष्टिगोचर होती है। संसार मे प्रमुख मत जिन्हें रूढ़ अर्थों में धर्म कह देते हैं, 5 या 6 हैं। इन सभी मतों वा धर्मों के लोग वा विद्वान ईश्वर के स्वरूप, स्वभाव व कृतित्व आदि पर समान विचार नहीं रखते अर्थात् इनमें परस्पर कुछ समानतायें व कुछ भिन्नतायें है। मनुष्य का आत्मा अल्पज्ञ है अतः विचारों में अन्तर व भिन्नता होना स्वाभाविक है। इसके साथ मनुष्य का यह भी कर्तव्य है जिन विषयों में परस्पर भिन्नता हो, उस पर सदभावपूर्वक परस्पर संवाद करें और युक्ति व तर्क से सत्य का निर्णय कर उसे स्वीकार करें। परन्तु हम देखते हैं कि सभी मतों के विद्वान व आचार्य न तो भिन्न-भिन्न विचार वाले विषयों पर परस्पर संवाद कर चर्चा व निर्णय ही करते हैं और न ही अपने ही मत व पन्थ के भीतर विचार, चिन्तन कर अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों को सत्य की कसौटी पर कसते हैं। अनुपयोगी, अप्रसांगिक व मिथ्या मान्यताओं के सुधार व संशोधन की उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसके विपरीत यही देखा जाता है कि प्रत्येक मत व सम्प्रदाय का अनुयायी अथवा विद्वान अपनी सत्य व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आंखें बन्द कर विश्वास करता है व वैसा ही आचरण करता है। इसी को अन्धविश्वास, मिथ्याविश्वास एवं मिथ्याचार कह सकते हैं। मतों के इस व्यवहार से उनके अपने अनुयायी मनुष्यों का उपकार होने के स्थान पर अपकार ही होता है। मनुष्य का जन्म सत्य असत्य को जानकर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए ही हुआ है। सत्य के ग्रहण से मानव की सर्वांगीण उन्नति होती है और ऐसा न करने से भौतिक उन्नति कोई कितनी ही कर ले परन्तु, धन, सम्पत्ति व भौतिक साधनों से, आध्यात्मिक व परलोक की उन्नति कदापि सम्भव नहीं है। जिस प्रकार विज्ञान में सभी मान्यतायें तर्क, युक्ति तथा क्रियात्मक प्रयोग के परिणामों के आधार पर अपनायी व स्वीकार की जाती है जिन्हें सभी देशों के वैज्ञानिक व सामान्यजन सार्वभौमिक रूप में स्वीकार करते हैं, इसी प्रकार से मनुष्यों के धर्म के सभी सिद्धान्त भी तर्क, युक्ति व प्रमाणों के आधार पर निर्धारित होने के साथ समस्त संसार में एक व समान होने चाहिये। धार्मिक, सामाजिक, संस्कृति व सभ्यता विषयक सत्य सिद्धान्तों का सार्वभौमिक रूप से निर्धारण होकर मनुष्य कब इनको अपनायेगा, कहा नहीं जा सकता। वह मनुष्यमात्र के सार्वभौमिक सत्य धर्म के निर्णय में जितना विलम्ब करेगा उसके इस कार्य से दोह व्यक्तिगत व सामाजिक हानि होना निश्चित है। अतः मनुष्य को मननशील होकर सत्य का निर्धारण करना व उसी सत्य मार्ग का अनुकरण व अनुसरण करना ही उसका मुख्य कर्तव्य वा धर्म होने के साथ उसके लिए लाभकारी है।

 

संसार के सभी मतों व धर्मग्रन्थों में वेद सर्वाधिक प्राचीन है। वेद किसी विषय व वस्तु आदि को जानने अर्थात् ज्ञान को कहते हैं। यदि वेद धर्मग्रन्थ हैं तो हमारा मुख्य धर्म सत्य व ज्ञान ही कहा जा सकता है। प्रश्न है कि ज्ञान की उत्पत्ति किससे होती है? इसका उत्तर है कि ज्ञान की उत्पत्ति मनुष्यों से नहीं अपितु ईश्वर के द्वारा संसार की रचना को करने से होती है। मनुष्य वा वैज्ञानिक तो सृष्टि में कार्यरत नियमों व ज्ञान की खोज करते हैं। विज्ञान में जितने भी नियम हैं उनका ज्ञान व वह सभी नियम हमारी सृष्टि की आदि से ही संसार में विद्यमान हैं व कार्य कर रहे हैं। इनमें से अनेक नियमों का बीज रूप में ज्ञान वेद में सृष्टि के आरम्भ काल से ही विद्यमान है। हमारे ऋषियों ने वेदों का अध्ययन कर संसार में कार्यरत सभी नियमों को जाना था और इसके साथ ही जीवात्मा और परमात्मा के स्वरुप को भी जाना व समझा था। वह जानते थे कि जीवात्मा को सत्य का आचरण करने के साथ ईश्वरोपासना व पर्यावरण की शुद्धि के लिए यज्ञ आदि कार्यों को करना है जिससे अर्जित कर्माशय से वह मृत्यु पर विजय प्राप्त कर जन्म मरण के दुःख रूपी अभिविनेश क्लेश पर विजय प्राप्त कर सके। एकांगी विज्ञान को विकसित कर, उससे सुख-सुविधा की वस्तुएं और युद्ध की विध्वंशक सामग्री बनाकर यह लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता था। अतः उन्होंने सन्तुलित जीवन के महत्व को जानकर अपने जीवन व कार्यों में न्याय किया था। यदि गति के नियमों की बात करें तो हमारे पूर्वजों को खगोल ज्योतिष का उच्च कोटि का ज्ञान था। इसके आधार पर वह वर्षों पूर्व ही भविष्य में होने वाले सूर्य व चन्द्र ग्रहण की त्रुटिरहित गणना के साथ खगोल के अनेकानेक रहस्यों से परिचित थे। आयुर्वेद रोगों से मानव जीवन की रक्षा का शास्त्र व विद्या है। इसका भी प्राचीन काल में पूर्ण विकास हुआ था। प्राचीन काल में अकाल व अल्पायु में मृत्यु बहुत कम हुआ करती थीं। प्राचीन काल से महाभारत काल के बाद का समय अपेक्षित न होकर उससे पूर्व का समय अभिप्रेत है। इसी प्रकार से अनेकानेक तीव्र गति से चलने वाले रथ वा यान भी हुआ करते थे। हमारे पूर्वज समुद्र की यात्रायंे भी करते थे। अर्जुन की पत्नी उलोपी तो पाताल वा अमेरिका की निवासी थी। वैदिक विद्वान पाराशर अमेरिका में काफी समय तक रहे, इसका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। अतः प्राचीन काल से महाभारत काल तक आध्यात्मिक व भौतिक विज्ञान का विकास अपनी चरम अवस्था में रहा है, इसका अनुमान प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन से मिलता है। इन परा व अपरा विद्याओं का विकास वेदों के आधार पर हमारे ऋषियों ने किया था। अतः वेद मानव धर्म सहित सभी सत्य विद्याओं का भी प्रकाश करते हैं और अपने अध्येता को यह सामथ्र्य व बौद्धिक क्षमता प्रदान करते हैं कि व्यक्तिगत व संगठित रूप से अनेक विद्याओं व विज्ञान को विकसित कर सकें।

 

धर्म का सम्बन्ध मनुष्यों के आचरण से होता है। आचरण यदि सत्य पर आधारित है तो वह धर्म और इसके विपरीत अधर्म कहलाता है। सत्य की परीक्षा के लिए लक्षण व प्रमाणों के आधार पर निर्णय किया जाता है। वेदों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह परा व अपरा विद्याओं सहित मानव के सभी प्रकार के कर्तव्यों का शास्त्र भी है जिसकी प्रत्येक बात ईश्वर प्रदत्त होने से सत्य की कसौटी पर भी खरी है। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में संसार के सभी मतों के आचार्यों व विद्वानों को खुली चुनौती दी थी कि वह उनसे मिलकर किसी भी धार्मिक विषय में शंका समाधान सहित शास्त्रार्थ कर सकते है। किसी मत व उसके आचार्य में उनसे शास्त्रार्थ करने का उत्साह व साहस नहीं हुआ। जिन लोगों ने उनसे वार्तालाप व चर्चायें कीं, उनको उन्होंने पूर्ण सन्तुष्ट किया था। यह मानव जीवन की अपनी विशेषता ही है कि अनेक विद्वान भी तर्क युक्ति से सिद्ध सत्य बातों को मानकर उसके विपरीत असत्य तर्कहीन बातों को ही मानते आचरण में लाते हैं। इस मानव स्वभाव को पूर्णतः बदलना अर्थात् सुधार करना शायद् सम्भव नहीं है। यदि ऐसा होता तो संसार में केवल एक मत होता और लोगों में जिन विषयों पर भ्रान्तियां होती, उसका समाधान परस्पर वार्तालाप व गोष्ठी करके सद्भाव पूर्वक हो जाता। परीक्षा करने पर वेद ईश्वर प्रदत्त एवं सत्य ज्ञान से पूर्ण सिद्ध होते हैं। अन्य मतों की स्थिति यह है कि उनकी बहुत सी बाते सत्य हैं व अनेक सत्य नहीं हैं। नाना मतों में विद्यमान इन असत्य व अज्ञान की बातों पर उन-उन मतों के आचार्यों को विचार व चिन्तन कर उनका सुधार व संशोधन करना चाहिये। इसका संकेत व दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में किया था और उनमें से कुछ का संकलन नमूने के तौर पर सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में किया है। महाभारत काल से पूर्व भी यह परम्परा समस्त विश्व में विद्यमान रही है। इसी कारण महाभारतकाल तक वैदिक मान्यतानुसार 1.96 अरब वर्षों में कोई वेदों से इतर नया मत अस्तित्व में नहीं आया था। भारत का बौद्ध, जैन व पौराणिक मत हो या विदेश के अन्य सभी मत, यह सभी अज्ञान व अन्धकार के उस काल मध्यकाल में आये जब वेदों का ज्ञान अस्त व विलुप्त हो गया था। महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वेदों के सत्य ज्ञान की खोज की और उसे देश-देशान्तर के लोगों के लिए उपलब्ध करा दिया। व्यवहारिक रूप से वर्तमान में वेद ही संसार के सभी मनुष्यों का सार्वभौमिक एक मात्र धर्म है। वेद में अज्ञानमूलक भ्रान्तिपूर्ण कोई बात नहीं है। किसी कुरीति व असमानता का प्रचलन वेद से नहीं हुआ और न ही वेद में ऐसी कोई बात है। देश-विदेश के सभी अन्धविश्वास व कुरीतियां मनुष्यों के वेद ज्ञान से दूर होने व उनके अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुईं हैं। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य सत्य को जानकर उसका ग्रहण कर व आचरण में लाकर ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, परसेवा, भलाई के काम करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करना वा जन्म मरण से छूटकर मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति करना है। यह केवल वैदिक धर्म की शरण में आने व उसके अनुरुप आचरण व व्यवहार करने से ही सम्भव हो सकता है। संसार के सभी लोग, मुख्यतः सभी धर्माचार्य, निष्पक्ष भाव से वेदों का अध्ययन कर अपने जीवन को सत्य मार्ग पर चलाने के साथ अपने अनुयायियों को प्रेरणा कर सभी धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष की प्राप्ति करें, यही धर्म का प्रयोजन है। यह स्पष्ट है कि वेद सार्वभौमिक मानव धर्म के ग्रन्थ है। आईये, वेदों की शरण में चले और कृतकार्य हों।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्वामी दयानन्द प्राचीन ऋषियों की परम्परा वाले सच्चे ऋषि, संसार के सर्वोच्च गुरु एवं अपूर्व वेद-धर्म प्रचारक हैं

ओ३म्

स्वामी दयानन्द प्राचीन ऋषियों की परम्परा वाले सच्चे ऋषि,

संसार के सर्वोच्च गुरु एवं अपूर्व वेदधर्म प्रचारक हैं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमारे लेख के शीर्षक से आर्यसमाज के अनुयायी तो प्रायः सभी सहमत होंगे परन्तु इतर बन्धु इस तथ्य को स्वीकार करने में संकोच कर सकते हैं। अतः अपने ऐसे बन्धुओं से हम प्रश्न करते हैं कि वह महर्षि दयानन्द से अधिक प्रतिभावान व योग्य ऋषि का नाम बतायें? दूसरा प्रश्न यह है कि महर्षि दयानन्द से उच्च कौन सा गुरु है जिसने संसार को धार्मिक विषयों सहित सभी प्रकार का सत्य ज्ञान दिया है? गुरु, ज्ञान व विद्या में पराकाष्ठा व उसका लाभ संसार के अधिक से अधिक लोगों में निःस्वार्थ भाव से वितरित करने वाले को कहते हैं। अज्ञानी, अल्पज्ञान व जिसकी बातें, विचार व सिद्धान्त भ्रान्तिपूर्ण हो वह विश्व गुरू तो क्या एक साधारण गुरु भी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार से महाभारत काल के बाद के पांच हजार वर्षों में ऐसा कौन सा विद्वान हुआ जिसकी तुलना महर्षि दयानन्द से कर सकते हैं, जिसने उनकी तरह से वेदों की खोज की हो और उनके सत्य अर्थों को प्राप्त कर उसको अधिकतम लोगों तक पहुंचाने का पुरजोर प्रयास किया है। महर्षि दयानन्द जी का एक गुण और है जो उनके पूर्व व बाद के महापुरुषों सहित धार्मिक विद्वानों व धर्मगुरुओं में नहीं पाया जाता। वह उनका बाल ब्रह्मचारी होने के साथ सिद्ध योगी होना भी है। इन सब व अन्य अनेक गुणों के कारण वह संसार के सर्वश्रेष्ठ मानव व सर्वोच्च विश्व गुरु सिद्ध होते हैं।

 

महर्षि दयानन्द गुरु, ऋषि व वेदप्रचारक कैसे थे? इसका उत्तर है महर्षि दयानन्द के समय चार वेदों की मन्त्र संहितायें हिन्दुओं वा आर्यों के आलस्य प्रमाद के कारण लुप्त प्रायः हो चुकी थीं। उनके जीवन काल में वेदों की मुद्रित मन्त्र संहितायें व सायण आदि भाष्य आदि देश भर में कहीं उपलब्ध नहीं होते थे। सायण ने जो मन्त्र भाष्य किया वह भी प्राचीन वेद परम्परा व अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति के अनुरुप व उनसे पोषित नहीं था। उन्होंने सभी वेद मन्त्रों का प्रयोजन यज्ञार्थ बताकर उनके याज्ञिक अर्थ ही किये थे। इसके विपरीत महर्षि दयानंद अपने समय व महाभारत काल के बाद पहले विद्वान थे जिन्होंने चुनौती के स्वरों में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। अपनी इस मान्यता को वेदों का भाष्य आरम्भ करने से पूर्व उन्होंने चारों वेदों की भूमिका के रूप में लिखी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया है। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों के भाष्यों के लेखन का उपक्रम आरम्भ किया था। यदि उनके विरोधियों ने उन्हें विष देकर मारा न होता तो वह चारों वेदों का अपूर्व भाष्य करते। सारे देश में घूम-घूम कर वेदों का प्रचार, प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ व वार्तालाप व अन्य अनेक ग्रन्थों का लेखन, आर्यसमाजों की स्थापना, गोरक्षा आन्दोलन, हिन्दी रक्षा आन्दोलन आदि कार्यो को करते हुए भी उन्होंने यजुर्वेद का सम्पूर्ण और ऋग्वेद के कुल 10 मण्डलों में से 6 मण्डलों का पूर्ण और सातवे मण्डल का आंशिक भाष्य किया है। उनके द्वारा किया गया भाष्य आकार व परिमाण की दृष्टि से समस्त चार वेदों का 33 प्रतिशत से कुछ अधिक है। वेदों का यह भाष्य संस्कृत व हिन्दी दोनों में है। सभी मन्त्रों के ऋषि व देवताओं सहित स्वर व छन्द भी दिये गये हैं और मन्त्रों का पदच्छेद, अन्वय, पदों के संस्कृत व हिन्दी में अर्थ सहित इन दोनों भाषाओं में प्रत्येक मन्त्र का भावार्थ भी दिया गया है। मण्डल, सूक्त आदि के अन्त में पूर्व के सूक्त की बाद के सूक्त के साथ संगति कैसे लगती है, यह भी दर्शायी गई है। कई स्थलों पर सायण भाष्य की न्यूनता व त्रुटियों को बताया गया है। इस प्रकार से महर्षि दयानन्द द्वारा किया गया भाष्य संसार के इतिहास में अपूर्व व महत्ता में सर्वोपरि उत्कृष्ट है।

 

महर्षि दयानन्द के जीवन चरित से ज्ञात होता है कि उन्होंने चारों वेदों के प्रत्येक मन्त्र को जाना व समझा था तभी वह वेदों पर अनेक घोषणायें कर सके थे जिनमें चारों वेदों में मूर्तिपूजा का विधान कहीं नहीं है, घोषणा भी सम्मिति है। उनकी इस चुनौती को देश भर के बड़े से बड़े किसी पण्डित ने स्वीकार नहीं किया और काशी में इस विषय में जो शास्त्रार्थ हुआ उसमें भी पूरी काशी व देश के शीर्ष पण्डित वेदों में मूर्तिैपूजा का विधायी एक मन्त्र भी नहीं दिखा पाये थे और न ही उस शास्त्रार्थ के 14 वर्ष बाद तक उनके जीवन काल में व आज तक दिखा सके हैं। इस प्रकार से महर्षि दयानन्द चारों वेदों के मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा वा विद्वान थे। इस कारण उनको न केवल ऋषि=वदों के मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा ही अपितु अपूर्व ऋषि व महर्षि भी कह सकते हैं। भारत में वेदों का पहली बार मुद्रण उन्हीं के प्रयासों से हुआ जो उनका इतिहास में अन्यतम कार्य है। अतः स्वामी दयानन्द सच्चे व अपूर्व ऋषि सिद्ध होने के साथ चारों वेदों के ज्ञाता व व्याख्याता की दक्षता रखने के कारण महर्षि भी सिद्ध होते हैं।

 

मनुष्यों को शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। संसार की आदि से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत, विवरण व कुछ इतिहास रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है। महाभारत काल के बाद भी यह क्रम जारी है परन्तु महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आईं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों में मूक पशुओं की हिंसा का क्रम जारी हुआ व बढ़ता रहा। सामाजिक विषमता व अनेक कुरीतियां प्रचलित हुई जिनका आधार अज्ञान व अन्धविश्वास थे जो अज्ञान व अविद्या से ही उत्पन्न होते हैं। उस समय में ऐसे किसी सुधारक का विवरण नहीं मिलता जिसने यज्ञों में हिंसा सहित अज्ञान, अन्धविश्वास तथा कुरीतियां का पूर्ण निवारण करने का बीड़ा उठाया हो और इन समस्याओं के सत्य समाधान प्रस्तुत किये हों। वेदों के सत्य अर्थों को तो इस अवधि में विलुप्त हुआ ही पाते हैं। महात्मा बुद्ध ने अवश्य यज्ञों में पशु हिंसा का विरोध किया परन्तु यह हिंसा जिस अज्ञान व स्वार्थ आदि के कारण अस्तित्व में आई थी उसका कोई समाधान नहीं किया। वेदों के सत्य अर्थ भी हमें उनसे नहीं मिलें। हम जानते हैं कि दूषित जल पीने योग्य नहीं होता परन्तु उसे छान कर, अशुद्धियों को हटाकर स्वच्छ व निर्मल बनाकर प्रयोग में लाया जा सकता है। यही विधि ग्राह्य होती है। यज्ञों का विरोध करने से यथार्थ हिंसारहित यज्ञों से होने वाले लाभों से भी मनुष्य समाज वंचित हो गया। नास्तिकता को बढ़ावा मिला। ईश्वर की यथार्थ उपासना भी विकृत वा बन्द हो गई। यह हमें कोई समाधान नहीं लगता। बाद में स्वामी शंकराचार्यजी हुए। वह विद्या की दृष्टि से महाभारत काल के बाद सर्वाधिक योग्य व शीर्ष स्थान पर थे। उन्हें समाज से ईश्वर की अवहेलना करने वाले नास्तिक मतों को हटा कर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के साथ वैदिक धर्म को प्रवृत्त करना था। परन्तु उन्होंने जिस अद्वैतवाद का सिद्धान्त दिया, वह उनसे पूर्व के इतिहासादि, वेद, दर्शन व उपनिषदों में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। वेद से लेकर महाभारत काल व उसके बाद के साहित्य में सर्वत्र त्रैतवाद अर्थात् ईश्वर, जीव व प्रकृति की पृथक-पृथक सत्ता का वाद ही प्रचलित पाया जाता है जो कि पूर्णतया व्यवहारिक एवं यथार्थ है।

 

आज का सारा संसार सृष्टि के अस्तित्व व महत्व को स्वीकार करता है। यह संसार व इसके दिन प्रतिदिन होने वाले आविष्कार एवं घटनायें स्वप्नवत न होकर वास्तविक व यथार्थ हैं। भारत में रेलें चलती हैं और हम उनका उपयोग करते हैं, यह स्वप्नवत नहीं, हकीकत व यथार्थ हैं। स्वामी शंकराचार्य जी के बाद जो मत देश व विदेश में उत्पन्न हुए वह एंकागीं व अपूर्ण थे। उनमें यदि बहुत सी बातें अच्छी, सत्य व उचित थी तो बहुत सी अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त अविवेकपूर्ण भी हैं। अतः अज्ञान, अन्धविश्वास व अविवेकपूर्ण बातों को मानने वाले व प्रचार करने वाले सच्चे व सर्वोच्च गुरु की उपमा व उपाधि से अभिहित नहीं कहे जा सकते। महर्षि दयानन्द महाभारत काल के बाद इतिहास में पहले महापुरुष हुए हैं जिन्होंने सत्य की कसौटी को पकड़ा और चाहे ईश्वर का अस्तित्व व उसकी उपासना हो या कुछ अन्य भी, सभी को सत्य की कसौटी पर कसा और उसका ऐसा प्रचार किया जिसकी इतिहास में दूसरी मिसाल नहीं है। उन्होंने सभी मतों के अज्ञान, अन्धविश्वासों व मिथ्याचारों पर दृष्टि डाली और उन्हें मनुष्यजाति के सुख शान्ति के लिए हानिकर जानकर उसके निवारण का अपूर्व प्रयास व पुरुषार्थ किया। ऐसा करने में उनका अपना कोई निजी प्रयोजन, हित व स्वार्थ नहीं अपितु केवल ईश्वर की आज्ञा का पालन व लोकोपकार की भावना ही थी। महर्षि दयानन्द ज्ञान की दृष्टि से महाभारत काल के बाद उत्पन्न हुए सर्वोच्च व शीर्ष पुरुष तो थे ही, उन्होंने वेद की सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के लेखन व मौखिक प्रचार का भी कीर्तिमान स्थापित किया है। इसके लिए उन्होंने कितने कष्ट सहे, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। वह शायद इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने संसार से धार्मिक व सामाजिक अज्ञान, अन्धविश्वास, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न को दूर कर ईश्वर की सच्ची उपासना, यज्ञ के सत्य स्वरुप का प्रचार व उसके क्रियात्मक पक्ष की विधि आदि का निर्माण व प्रचार किया। उनके द्वारा किए गये एक नही ऐसे अनेकानेक काम हैं जिस पर बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। मानवता की सेवा व सुधार का उन्होंने अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसके कारण हम स्वामी दयानन्द को विश्व का सर्वोच्च गुरु पाते है। ऐसा करके हम किसी अन्य गुरु की अवहेलना नहीं कर रहे हैं। अन्य सभी गुरु भी देश काल व परिस्थिति के अनुसार महान थे व हो सकते हैं परन्तु महर्षि दयानन्द का कार्य अन्यों की तुलना में अधिक महान व समाज सुधार व श्रेष्ठ समाज के निर्माण की दृष्टि से अतुलनीय है।

 

स्वामी दयानन्द मुत्यु के उपाय व सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले थे। पूरे देश का भ्रमण कर उन्हें मिले सभी गुरुओं की संगति व सेवा कर तथा अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान व वैदुष्य प्राप्त किया था। योग में वह सिद्ध योगी बने और ज्ञान की पराकाष्ठा को उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण, उपनिषदों, दर्शनों, वेदांगों व वेद के ज्ञान सहित दण्डी गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती के शिष्यत्व से प्राप्त किया। स्वामी दयानन्द के अनेक गुरुओं में स्वामी विरजानन्द सरस्वती उनके सर्वोच्च गुरु थे। उनकी प्रेरणा व आज्ञा से व अपने विवेक से उन्होंने अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानता व विषमता, देश सुधार व देशोन्नति का कोई कार्य छोड़ा नहीं अपितु सभी कार्यों को प्राणपन से किया। इन सब कार्यों का आधार उनका वैदिक ज्ञान था। सभी सुधारों का सुधार वेदाध्ययन, वेदाचारण व वेद प्रचार ही है। स्वामी दयानन्द ने वेद प्रचार के लिए ही मुख्यतः सर्वाधिक प्रयत्न किये। उनके मौखिक प्रचार के अतिरिक्त वेदों का भाष्य, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि अन्यान्य ग्रन्थ वेद प्रचार के ही अंग-प्रत्यंग हैं। वह महाभारत काल के बाद अपूर्व वेद प्रचारक हुए हैं। ऐसा वेद प्रचारक सृष्टि की आदि से वर्तमान युग तक होने का वर्णन नहीं मिलता और न हि अनुमान ही होता है। उनका वेद प्रचार का कार्य संसार के कल्याण की दृष्टि से सर्वोत्तम कार्य है। मनुष्य जीवन में वेद प्रचार का कार्य करना एक प्रकार से ईश्वर का ही कार्य व साधना है। अपने कल्याण की इच्छा करने वाले सभी मनुष्यों को वैदिक साधना के साथ वेदाध्ययन व वेद प्रचार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिये। सभी सरकारों को योग्य वेद प्रचारकों को सर्वाधिक सम्मान व उनकी आर्थिक आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिये। देश व संसार में जितना अधिक वेदप्रचार होगा, जिसकी दशा व दिशा महर्षि दयानन्द अपने जीवन के उदाहरण से निर्धारित कर चुके हैं, उतना ही मानवता का हित होगा। यह कार्य ईश्वर का कार्य होने के साथ मानव जाति की समग्र उन्नति व सुख शान्ति का कार्य है। इसको समाज में मुख्य स्थान मिलना चाहिये। लेख को विराम देते हुए हम आशा करते हैं पाठक लेख को पसन्द करेंगे।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्वर्ग व मोक्ष का यथार्थ स्वरूप

ओ३म्

स्वर्ग मोक्ष का यथार्थ स्वरूप

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रायः सभी मतों के अनुयायी व विद्वान किसी न किसी रूप में स्वर्ग की चर्चा करते हैं और मानते हैं कि इस पृथिवी से अन्यत्र किसी स्थान विशेष पर स्वर्ग है जहां ईश्वर की कृपा से मनुष्य जीवन में अच्छे व श्रेष्ठ काम करने वाले मनुष्य जाकर सुखपूर्वक निवास करते हैं। इस मान्यता में कितनी सच्चाई है, इसकी खोज शायद ही कोई करता हो। स्वर्ग के प्रति यह मान्यता भिन्न-भिन्न मतों के आचार्यों, विद्वानों व उनके अनुयायियों ने अपने-अपने धर्म को महिमा-मण्डित करने व अपनी भ्रान्तियों के कारण की है। भ्रान्तियां न हो, इसके लिए यथार्थ ज्ञान की आवश्यकता होती है। यथार्थ ज्ञान का साधन ईश्वरीय ज्ञान वेद है। वेदों के आधार पर स्वर्ग का जो सत्य स्वरुप सामने आता है वह यह है कि ‘‘स्वर्ग नाम सुख विशेष भोग और उस की सामग्री की प्राप्ति का है। स्वर्ग की यह परिभाषा वेदों के मर्मज्ञ विद्वान महर्षि दयानन्द प्रदत्त है। स्वर्ग की इस परिभाषा पर विचार करने पर स्वर्ग का यथार्थ स्वरुप ज्ञात होता है। स्वर्ग मनुष्य वा उसकी जीवात्मा द्वारा सुख विशेष का भोग और सुख विशेष की सामग्री को कहते हैं। सुखों का भोग हम अपनी पांच ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा करते हैं। हमारी यह इन्द्रियां सुखों का भोग कराने में उपकरण हैं जबकि सुखों का भोग जीवात्मा करता है। आंखों से हम दृश्यों को देखते हैं, कानों से शब्दों को सुनते हैं, नाक से गन्ध संघूते है, जिह्वा से रस का ज्ञान प्राप्त करने के साथ उसका भोग करते हैं एवं त्वचा से स्पर्श को करके सुख व दुःख का अनुभव करते हैं। इन पांच प्रकार के भोगों में जो सुख व प्रसन्नता देने वाले भोग होते हैं वह सब स्वर्ग की सामग्री कहलाते हैं। जिन भोगों को भोगने से मनुष्यों को सुख के स्थान पर दुःख होता है, उसे स्वर्ग न कहकर नरक की संज्ञा दी जाती है। अतः मनुष्य जीवन में जिसकी सभी इन्द्रियां बलवान हैं और जिसके पास सभी इन्द्रियों को सुख प्रदान करने की प्रचुर सामग्री है, वही व्यक्ति सुखी व स्वर्ग में है, कहा जाता है। इससे ज्ञात हुआ कि स्वर्ग मनुष्य जीवन में सुख की स्थिति को कहा जाता है।

 

संसार या ब्रह्माण्ड में सुखी मनुष्य, स्वर्ग में है, माना जा सकता है। इस व ब्रह्माण्ड की अन्य ऐसी पृथिवी से भिन्न कहीं कोई ऐसा स्थान नहीं है जिसे स्वर्ग की संज्ञा दी जा सके। स्वर्ग की यह स्थिति मनुष्य को कुछ तो अपने प्रारब्ध से प्राप्त होती है और कुछ उसे इस जीवन में ज्ञानपूर्वक वेद विहित शुभ कर्मों को करके प्राप्त होती है। इसके दो भाग किये जा सकते हैं। पहला भाग तो यह कि सुखों का भोग करने के लिए हमें अपनी इन्द्रियों व शरीर को स्वस्थ, निरोग व बलवान बनाना है। यदि हमारा शरीर निरोग, स्वस्थ व बलवान नहीं होगा तो फिर सुख की असीमित सामग्री भी हमारे लिए स्वर्ग नहीं हो सकती। एक मधुमेह के रोगी के लिए रसगुल्ला, चावल, आलू के व्यंजन, नाना प्रकार के मीठे फल, हलुआ व खीर स्वाद में सुख अवश्य पहुंचा सकते हैं परन्तु परिणाम में यह दुःख व नरक का कारण बनते है। इसी प्रकार से अन्य रोगों की भी स्थिति है। अतः स्वर्ग वा सुख भोगने के लिए शरीर का स्वस्थ, निरोग व बलवान होना आवश्यक है। इसके लिए मनुष्य को कुछ नियमों का पालन करना होता है। रात्रि 10 बजे सोना व प्रातः 4 बजे जागना आवश्यक है। जागने के बाद भी शौच से निवृत्त होकर संक्षिप्त ईश्वरोपासना कर शुद्ध वायु में भ्रमण, पश्चात व्यायायम, प्राणायाम करना व इसके बाद स्नान कर सन्ध्या व अग्निहोत्र करना सुख का भोग करने के लिए आवश्यक है। इन्हीं कर्मों का परिणाम वस्तुतः सुख होता है। इसके पश्चात उचित मात्रा में प्रातराश लेकर ज्ञानार्जन व व्यवसायिक कार्यों को पूर्ण मनोयोग से करना भी सुखी मनुष्य की दिनचर्या का भाग है। यथासमय उचित मात्रा में शुद्ध शाकाहारी पौष्टिक भोजन करना जिसमें रोटी, दाल, सब्जी, चावल, दही आदि पदार्थ लिये जा सकते हैं। कुछ घंटे बाद फलाहार करना भी स्वास्थ्य के लिए हितकर रहता है। सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व अग्निहोत्र व सन्ध्या कर भोजन करना वैदिक धर्म में विहित है। पारिवारिक जनों से वार्तालाप व गृह कार्यों के लिए भी समय देकर रात्रि को समय पर विश्राम व शयन करना उचित व आवश्यक है। इससे शरीर स्वस्थ बनेगा और इन्द्रियों की कार्य क्षमता में वृद्धि होने से मनुष्य सुखों का भोग करने में समर्थ हो सकता है। यही सुख की स्थिति है। अनाप-शनाप व सामिष भोजन, मादक द्रव्यों का सेवन व इन्द्रिय सुख के असंयमित कार्यों को करके सुख की अनुभूति करना स्वर्ग का भोग नहीं है। इसका परिणाम तो शीघ्र ही दुःख के रूप में उत्पन्न होता है। इसको जानकर स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों का उचित मात्रा में उचित समय पर भोजन के रूप में ग्रहण करना व पूर्ण संयमित जीवन सहित शरीर को स्वस्थ रखने के सभी उपाय करना ही स्वर्ग व उसके भोग में सम्मिलित हैं। ऐसा करके अनुमान कर सकते हैं कि मनुष्य का वर्तमान जीवन सुखी होगा और इसके परिणामस्वरूप कोई दुःख नहीं भोगना होगा। ऐसा मनुष्य ही अपने आप को स्वर्ग के सुखों से युक्त अनुभव कर सकता है। यही स्थिति स्वर्ग की स्थिति है।

 

वैदिक संस्कृति वा जीवन पद्धति धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की अनुगामिनी है। यह जीवन पद्धति मनुष्य जीवन में अभ्युदय व मृत्यु होने पर मोक्ष को प्राप्त कराने वाली है। यह मोक्ष भी एक प्रकार से स्वर्ग की उच्चतम परिणति ही है जहां मनुष्य का जीवात्मा दुःखों से सर्वथा मुक्त होता है। मोक्ष में जीवात्मा जन्म व मरण से 1 परान्तकाल की अवधि तक के लिए छूट जाता है। इस परान्तकाल की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। मोक्ष की अवधि में जीवात्मा का अस्तित्व बना रहता है और यह शरीररहित अपने यथार्थ अस्तित्व से ही ईश्वर के सान्निध्य में रहकर मोक्ष का सुख भोगता है। मोक्ष के यथार्थ स्वरूप का वर्णन महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में किया है। दर्शन में भी इसका विवेचन हुआ है। इसको जानने के लिए यह समझना है कि मनुष्य का जन्म उसके पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर मिलता है। जन्म लेकर मनुष्य व प्राणी अपने पूर्व जन्मों के शुभ व अशुभ वा पाप व पुण्यरूपी कर्मों के सुख व दुःख रूपी फलों को भोगते हैं। शुभ कर्मों का फल सुख व अशुभ का दुःख होता है। यदि मनुष्य कोई अशुभ कर्म न करें तो उसे दुःख मिलने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार से यदि वह शुभ कर्मों को ही करे और उसमें आसक्त न हो अर्थात् उनके फल की इच्छा न करे, अपने सभी शुभ कर्मों के फलों को ईश्वर को समर्पित कर दे, उसी प्रकार जिस प्र्रकार हम सुपात्रों को दान करते हैं और परिणाम में दान लेने वाले से किसी फल की इच्छा नहीं करते, तो इन सब कर्मों के परिणाम से मनुष्य पुर्नजन्म का भागी न होकर मोक्ष का पात्र बन जाता है। मोक्ष का अर्थ छूटना होता है। यह छूटना जन्म वा मरण तथा दुःखों से होता है। मोक्ष के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य व कर्मों का कर्त्ता ईश्वरोपासक हो, यज्ञ व अग्निहोत्र का करने वाला हो, माता-पिता-आचार्यों का सेवक व सत्कार करने वाला, अन्य सभी शुभ कर्मों को भी करनेवाला और इसके साथ ईश्वरोपासना के प्रमुख फल सम्यक ध्यान व समाधि को सिद्ध किये हुए हो। समाधि में ईश्वर का साक्षात्कार व प्रत्यक्ष होता है। इससे मनुष्य को विवेक की प्राप्ति होती है। यह स्थिति अनुमानतः तब आती है जब मनुष्य के प्रायः सभी अशुभ कर्मों का भोग समाप्त हो गया हो। ईश्वर साक्षात्कार के बाद मृत्यु तक के जीवन को जीवन्मुक्त अवस्था कहा जाता है। मृत्यु होने के समय तक ऐसी जीवात्मा के जिन किन्हीं शुभ व अशुभ कर्म का भोग शेष रह जाता है उनके परिणामस्वरूप एक परान्तकाल की अवधि बीत जाने पर नये सर्गारम्भ वा सृष्टि की उत्पत्ति में मुक्त जीवात्मा का मनुष्य जन्म होता है। यह मोक्ष की अवस्था स्वर्ग नहीं अपितु स्वर्ग से भी ऊंची व सर्वोच्च उन्नत जीवन की अवस्था है। यह मोक्ष केवल ईश्वरभक्तों, ऋषियों वा योगियों, वेदभक्तों वा वेदाचार्यों तथा सद्कर्मों को करने वाले मनुष्यों को ही प्राप्त होता है। वेदेतर संसार की ऐसी कोई भी जीवन प्रणाली नहीं जिसमें मोक्ष प्राप्ति की संभावना हो। अतः जीवनोन्नति, स्वर्ग वा मोक्ष की प्राप्ति के लिए मनुष्य का वेद व वैदिक धर्म की शरण में आना परमावश्यक है। अनेक तर्कों से मोक्ष के स्वरूप व मोक्ष में जीवात्मा के सुख व आनन्द के भोग की अवस्था को सिद्ध किया जाता सकता है। विस्तार भय से इसे इस लेख में सम्मिलित नहीं कर पा रहे हैं। इतना कहना ही समीचीन है कि आनन्द से परिपूर्ण ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त मुक्त जीवात्मा सुखी व आनन्दित होगा, दुःखी किंचित नहीं हो सकता। यदि मनुष्य जीवन व जीवात्मा की परमगति है।

 

स्वर्ग व मोक्ष के बारे में समाज में मिथ्या धारणायें प्रचलित हैं। इसका निराकरण करने के लिए हमने इस संक्षिप्त लेख में प्रकाश डालने का प्रयास किया है। आशा करते हैं कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

ईश्वर का साक्षात्कार समाधि अवस्था में ही सम्भव

ओ३म्

ईश्वर का साक्षात्कार समाधि अवस्था में ही सम्भव

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

संसार के अधिकांश मत-सम्प्रदाय और लोग ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और यह भी स्वीकार करते हैं कि इस संसार को उसी ने बनाया है। यह बात अलग है कि सृष्टि रचना के बारे में वेद मत के आचार्यों व अनुयायियों के अतिरिक्त अन्य मत के आचार्यों व अनुयायियों को वैसा यथार्थ ज्ञान नहीं था व है जैसा कि तर्क व युक्ति संगत यथार्थ मत वेदों व वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि ईश्वर है तो वह अन्य पदार्थों की भांति हमें आंखों से दिखाई क्यों नहीं देता? इसके अनेक कारण हैं। यह प्रश्न वैदिक मत के अनुयायियों से उत्तर व समाधान की अधिक अपेक्षा रखता है। जो मत व सम्प्रदाय ईश्वर को एकदेशी अर्थात् एक स्थान पर रहने वाला मानते हैं, वह कह सकते हैं कि ईश्वर यहां पृथिवी पर है ही नहीं तो उसके दिखने का प्रश्न ही नहीं होता। वैदिक धर्म ईश्वर को सर्वव्यापक मानता है। अतः ईश्वर हमारे अन्दर व बाहर दोनों स्थानों पर हमारे समीपस्थ है। अब यदि ईश्वर हमारे समीपस्थ है तो वह हमें अवश्य दिखना चाहिये। ईश्वर वैदिक धर्मियों व अन्यों को दिखाई नहीं देता तो इसका एक कारण तो उसका सर्वव्यापक न होना वा एकदेशी होना ही ठीक प्रतीत होता है। यह बात कहने व सुनने में उचित लगती है परन्तु यह सत्य नहीं है। ईश्वर वस्तुतः सर्वव्यापक है जो कि हमारे सम्मुख, पीछे, दायें, बायें, ऊपर नीचे आदि सभी दशों दिशाओं में होने पर भी इस कारण दिखाई नहीं देता कि वह सर्वातिसूक्ष्म है। हम वायु के कणों वा परमाणुओं को क्यों नहीं देख पाते? इसका कारण होता है कि वह परमाणु इतने सूक्ष्म हैं कि वह आंखों से दिखाई नहीं देते। सभी मनुष्यों के शरीर में एक चेतन जीवात्मा होता है जो हमें अपनी आंखों से दूसरों के शरीर से पृथक दिखाई नहीं देता परन्तु शरीर में प्राणों व अन्य क्रियाओं से ही उसका साक्षात् व प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। ईश्वर जीवात्मा व वायु के परमाणु से भी कहीं अधिक सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता। यह तर्क व युक्तिसंगत स्वीकार करने योग्य प्रमाण है। इसका दूसरा कारण है कि अति दूर व अति समीपस्थ वस्तुयें भी दिखाई नहीं देती हैं। हम अपने से 1 किमी. दूर की वस्तु भी नहीं देख पाते। इसी प्रकार हम आंखों में पड़े तिनके को भी अपनी ही आंख से नहीं देख पाते जिसका कारण होता कि आंखों का तिनका आंख के अति निकटस्थ है। ईश्वर दूरतम भी है और समीपतम भी है। इस कारण भी वह दिखाई नहीं देता। अन्य कारणों में से एक प्रमुख कारण ईश्वर का अभौतिक होना भी है। हम आंखों से केवल भौतिक पदार्थ जो एक सीमा से आकार में अधिक बड़े होते है, उन्हें ही देख पाते हैं। उससे छोटे पदार्थों को देखने के लिए हमें माइक्रोस्कोप की सहायता की आवश्यकता होती है। ईश्वर इन सूक्ष्मतम भौतिक पदार्थों से भी अत्यन्त सूक्ष्म अभौतिक पदार्थ होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता। अतः ईश्वर का आंखों से दिखाई न देना आंखों की सीमित दृष्य शक्ति के कारण है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ईश्वर नहीं है।

 

हम पुस्तकें पढ़ते हैं तो बहुत सी बातों का ज्ञान हमें हो जाता है जिन्हें हम पहले से जानते नहीं हैं। हमने सन्ध्या व हवन के मन्त्र व उसकी विधि को पुस्तक पढ़कर ही जाना व समझा है। उपदेशों को सुनकर भी हमें नाना विषयों का ज्ञान होता है। ईश्वर विषयक ज्ञान भी हमें वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने वा वेदानुकूल अन्य पुस्तकें मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय तथा महर्षि दयानन्द का वेदभाष्य पढ़कर हो जाता है। वैदिक विद्वानों के उपदेश भी ईश्वर का ज्ञान कराने में सहायक होते हैं। ग्रन्थों को पढ़कर उपदेशों की बातों पर विचार चिन्तन कर हम ईश्वर के सत्य स्वरुप से परिचित होते हैं हुए हैं। हमें यह ज्ञान अनुभव हुआ है कि ईश्वर सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी है। इस कारण वह हमारी आत्मा में निहित विद्यमान है। यदि हम उसका ध्यान व चिन्तन करते हैं वा उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं अथवा यज्ञ अग्निहोत्र व अन्य शुभ-अशुभ कर्मों को करते हैं, तो संसार में होने वाले प्रत्येक कार्य का साक्षी ईश्वर हमारी उस क्रिया को अपनी सर्वव्यापकता व सर्वान्तर्यामित्व के गुण से जान लेता है, यह ज्ञान, प्रतीती व अनुभूति हमें ईश्वर के विषय में होती है। यह जानकर, अपने आप से तर्क-वितर्क करने व इस ज्ञान को स्थिर व दृण कर लेने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ईश्वर निराकार है अतः उसकी पूजा, उपासना एवं सत्कार आदि कार्य केवल उस ईश्वर का अपनी जीवात्मा में ध्यान, चिन्तन, स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि के द्वारा ही हो सकता है। अन्य कार्य यथा मूर्तिपूजा, कुछ ग्रन्थों का पाठ व नाना प्रकार के आसन आदि क्रियायें करके हम उसे प्राप्त व प्रसन्न नहीं कर सकते। ईश्वर के गुणों स्वरूप का ध्यान तथा प्रार्थना आदि करने से हमारे अन्तःकरण के दोष मल दूर होने आरम्भ हो जाते हैं। यह कार्य मुख्यतः ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।। द्वारा भली प्रकार किया जा सकता है जिसमें ईश्वर से जीवात्मा के सभी दुर्गुण, दुव्र्यसन व दुःखों को दूर करने तथा जीवात्मा के लिए जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव व पदार्थ हैं, वह प्रदान करने की प्रार्थना की जाती है। जैसे-जैसे व जितने समय तक हम ईश्वर की उपासना आदि कार्यों को करते हैं, उसे विधिपूर्वक करने से उसके प्रभाव से हमारा अन्तःकरण शुद्ध, पवित्र व निर्मल हो जाता है और उसमें ईश्वर का ज्ञान व प्रकाश का आभास होने लगता है। वेदों व ऋषियों के वचनों के सत्य होने के कारण ईश्वरोपासना के हमारे साधनों व उपायों में दृणता व स्थिरता उत्पन्न होती है व उसके सत्य होने से निभ्र्रान्त अनुभव होता है। यह उपासना वा योगाभ्यास नियत समय पर करते रहने से समाधि की अवस्था उत्पन्न होकर ईश्वर साक्षात्कार ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है। इसके लिये योगदर्शन के अध्ययन के साथ निष्कपट व निर्लोभी अनुभवी योग गुरू की शरण ली जा सकती है। सच्चा व सिद्ध योगी ही गुरु हो सकता है। ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन अवश्य है।

 

ईश्वर साक्षात्कार को विस्तार से जानने व समझने के लिए महर्षि पतंजलि रचित योगदर्शन का अध्ययन आवश्यक है। इसके लिए महात्मा नारायण स्वामी व दर्शनाचार्य पं. उदयवीर शास्त्री जी के योगदर्शन पर हिन्दी में भाष्य उपलब्ध हैं, उन्हें देखा जा सकता है। इसके साथ ही आर्यजगत के विख्यात संन्यासी व दर्शनों के विद्वान स्वामी सत्यपति जी के प्रवचनों पर तीन खण्डों में आचार्य श्री सुमेरू प्रसाद, सम्प्रति स्वामी ब्रह्मविदानन्द, द्वारा सम्पादित वृहती ब्रह्म मेधा ग्रन्थ भी उपयोगी है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए सिद्ध योगी थे। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में उन्होंने ईश्वर साक्षात्कार का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिस समय इन (योग, ध्यान उपासना के) सब साधनों से परमेश्वर की उपासना करके उस (ईश्वर) में प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर से ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार का वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने (ध्यान, चिन्तन, धारणा, स्तुति, प्रार्थना आदि करने) से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है। यहां आनन्दस्वरूप परमेश्वर मिल जाता है से महर्षि दयानन्द का अभिप्राय समाधि अवस्था में योगी व उपासक को ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, से ही है।

 

आजकल ईश्वर वा सृष्टिकर्त्ता को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न मतों में जो कर्मकाण्ड व उपासना पद्धतियां हैं, वह योगदर्शन की वैदिक उपासना प़द्धति के अनुरूप न होने के कारण उनसे ईश्वर की प्राप्ति व साक्षात्कार होने की संभावना नहीं है। यम व नियमों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान ये युक्त जिस आचरण की अपेक्षा योगी से की गई है, वह भी अन्य मत-मतान्तरों के अनुयायी व आचार्य पूरी नहीं करते। अतः वह ईश्वर साक्षात्कार व ईश्वर का प्रत्यक्ष होने का अनुभव प्राप्त नहीं कर सकते। यदि किसी को ईश्वर का साक्षात्कार करना है और इससे जीवन का लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार सहित मोक्ष प्राप्त करना है तो वेद व वैदिक साहित्य के ज्ञान सहित योग व वैदिक उपासना पद्धति को अपनाना ही होगा। वैदिक उपासना पद्धति ही ईश्वर साक्षात्कार की एकमात्र वह प़्रद्धति है जो ईश्वर का साक्षात्कार कराने के साथ मनुष्य जीवन के लक्ष्य ‘‘मोक्ष को प्राप्त कराती है। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज

ओ३म्

पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का अस्तित्व सत्य है। किसी भी विषय में सत्य केवल एक ही होता है। जिस प्रकार दो व दो को जोड़ने से चार होता है, कुछ कम व अधिक नहीं हो सकता इसी प्रकार ईश्वर, जीव, प्रकृति, सृष्टि, धर्म, समाज, मानवीय आचार व विचार आदि सिद्धान्त व मान्यतायें भी भिन्न-भिन्न न होकर सर्वत्र एक समान ही होनी चाहिये। यदि यह पूछा जाये कि वेद पर आधारित वैदिक धर्म और आर्यसमाज संगठन की प्रमुख विशेषता क्या है तो इसका एक वाक्य में उत्तर है कि यह धर्म संगठन सत्य पर आधारित है। दूसरा उत्तर यह है कि वैदिक धर्म आर्य समाज का संगठन प्राणीमात्र के हित कल्याण के लिए हैं। यह कभी किसी के अकल्याण की बात सोचता है और ही करता है। एक अन्य उत्तर यह भी हो सकता है कि यह दोनों ज्ञान पर आधारित है तथा अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीति, रूढि़, मिथ्या परम्परा आदि से पूर्णतः रहित हैं। आर्यसमाज की मान्यता है कि वेद मन्त्रों के अर्थ वही स्वीकार्य होंगे जो सत्य हों व मानव सहित प्राणीमात्र के हित के लिए हों। यदि कहीं कोई भ्रान्ति हो तो उसे इस कसौटी पर कस कर संशोधित कर लेना चाहिये। अन्य मतों, सम्प्रदायों वा धर्मों में सत्य, तर्क व युक्ति को वैदिक धर्म की भांति महत्व नहीं दिया जाता। तर्क व युक्ति से सिद्ध बातें ही सत्य हुआ करती हैं। इसी से ज्ञान की उन्नति व अज्ञान की निवृत्ति होती है और यही मनुष्य के सुख व उन्नति का मुख्य कारण व आधार है।

 

वैदिक धर्म का आरम्भ कब, किसने व क्यों किया? इस प्रश्न पर विचार करना भी समीचीन है। इसका उत्तर है वैदिक धर्म का आरम्भ चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के ज्ञान से सृष्टि के आरम्भ में हमारे पहली पीढ़ी के ऋषियों ने किया। यह सभी ऋषि ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का साक्षात व यथार्थ ज्ञान रखने के साथ-साथ वेदों के पूर्ण वेत्ता व विद्वान थे। वेदों में जो मन्त्र व उनमें अलौकिक ज्ञान है वह किसी मनुष्य व ऋषि द्वारा रचित, निर्मित व उत्पन्न नहीं है अपितु यह वेद, इसके मन्त्र व ज्ञान इस सृष्टि के रचयिता व संचालक ईश्वर का निज ज्ञान है जो वह सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न आदि मनुष्यों, स्त्री व पुरूषों को, उनके कल्याणार्थ देता है। चार वेदों का यह ज्ञान सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ ईश्वर ने सृष्टि के आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा की आत्माओं में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया था। ईश्वर ने ही जीवात्मा को मनुष्य शरीर दिये, इन शरीरों में व्यवहार के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां व बुद्धि आदि प्रदान करने सहित सृष्टि के आरम्भ में वेदमन्त्रों का उच्चारण, परस्पर संवाद एवं व्यवहार करना भी सिखाया है। तर्क व विवेचन से यह सिद्ध है कि यदि ईश्वर इस सृष्टि के आदि मनुष्यों को वेदों का ज्ञान न देता, जिससे कि वह परस्पर संवाद आदि कर सके और सत्य व असत्य में भेद कर सकें, तो उनका जीवन व्यतीत करना संभव नहीं था। मान लीजिए हमें बोलना नहीं आता और हमारे आसपास के अन्य मनुष्यों को भी नहीं आता। हममें ज्ञान भी नहीं है। ऐसी स्थिति में हम क्या कोई व्यवहार कर सकते हैं? इसका उत्तर है कि हम परस्पर किसी प्रकार का कोई व्यवहार नहीं कर सकते। व्यवहार के लिए किसी न किसी भाषा सहित उठने, बैठने, चलने, फिरने, सोचने, समझने, खाद्य-अखाद्य पदार्थों का ज्ञान, भोजन की विधि, मल-मूत्र विसर्जन आदि सभी आवश्यक क्रियाओं का ज्ञान आवश्यक है। अतः सृष्टि की रचना के बाद अमैथुनी सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति के साथ ही उनको ईश्वर से ज्ञान मिलना तर्क संगत है। यही ज्ञान उसे परमात्मा से मिलता है और इसी का नाम वेद है।

 

परमात्मा प्रदत्त इसी ज्ञान से प्रथम चार ऋषियों से अध्ययन, अध्यापन, शिक्षा, प्रचार, प्रवचन व उपदेश की परम्परा आरम्भ हुई और सभी लोग ज्ञान सम्पन्न हुए। यह वेद ज्ञान आज भी अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित है। महाभारत के बाद यह ज्ञान लुप्त हो गया था जिसके कारण देश व विश्व में अज्ञान का घोर अन्धकार फैला और अज्ञान पर आधारित अनेक मत व मतान्तर उत्पन्न हुए। महर्षि दयानन्द, जो कि वेदों के उच्च कोटि के मर्मज्ञ विद्वान थे, उन्होंने चारों वेदों की परीक्षा कर घोषणा की कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी मनुष्यों वा आर्यों का परम धर्म है। अपनी इस घोषणा को उन्होंने सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों को लिखकर पुष्ट किया। उन्होंने वेदों के सभी मन्त्रों का भाष्य करना आरम्भ किया था। ऋग्वेद आंशिक व यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य उन्होंने किया है। आकस्मिक मृत्यु के कारण वह वेदों के भाष्य को पूर्ण नहीं कर सके। उन्होंने जितने ग्रन्थ लिखे और उनकी जो शिक्षायें, उपदेश, पत्र, पुस्तकें, शास्त्रार्थों के विवरण आदि उपलब्ध हैं, उनसे वैदिक धर्म का विस्तृत सत्य स्वरूप प्रकट होता है। इस पर विचार करने पर यह पूर्व व पश्चात प्रचलित सभी धर्मों में श्रेष्ठ सिद्ध होता है। अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने प्रमुख सभी मतों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है जो वेद को विश्व के सभी मनुष्यों के धर्म की उनकी मान्यता को पुष्ट करता है।

 

वेद धर्म की पहली विशेषता तो यह है कि वेद की सभी मान्यताओं तर्क व युक्ति की कसौटी पर सत्य सिद्ध होती हैं। वेद, तर्क व युक्तियों से डरता नहीं अपितु उनका स्वागत करता है। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य सिद्ध हैं। ईश्वर, जीव व प्रकृति का जो स्वरूप वेदों में उपलब्घ होता है वह अपूर्व व आज भी सर्वोत्तम हैं एवं विवेक पर आधारित है। अन्य मतों में यह बात नहीं है। वेदाधारित ईश्वरोपासना वा पंचमहायज्ञ विधि में भी मुनष्यों के सर्वोत्तम कर्तव्यों का विधान किया गया है जिससे मनुष्य की व्यक्तिगत व सामाजिक उन्नति होने के साथ सभी प्राणियों का कल्याण होता है। कर्म-फल सिद्धान्त भी वेद प्रदत्त ज्ञान के अन्र्तगत ही सत्य सिद्धान्त है जिसके अनुसार मनुष्य जो शुभ व अशुभ कर्म करता है उसका फल उसे जन्म व जन्मान्तरों में अवश्य ही भोगना होता है। अशुभ कर्मों का त्याग व शुभ कर्मों को करके तथा साथ हि वेदविहित ईश्वरोपासना, यज्ञादि कार्य, मातृ-पितृ-आचार्यों की सेवा, परोपकार व विद्यायुक्त कर्मों को करने से ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। यह वैदिक धर्म की विशेषता व युक्तिसंगत सिद्धान्त है।

 

आर्यसमाज वेदों के सत्य ज्ञान को संसार में फैलाने के लिए स्थापित किया गया एक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में की थी। इस संगठन की स्थापना का मुख्य उद्देश्य महर्षि दयानन्द के समय में वैदिक धर्म का संगठित रूप से प्रचार करना था और उनके बाद भी कृण्वन्तो विश्वमार्यम् (संसार को श्रेष्ठ बनाओ) के लक्ष्य की प्राप्ति तक संसार में वेदों का प्रचार अबाधित रूप से हो, यह मुख्य प्रयोजन था। महर्षि दयानन्द ने पृथिवी के सभी मनुष्यों के कल्याणार्थ वेदों की सार्वभौमिक व सार्वजनीन मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद आंशिक व यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य आदि ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों के अनेक भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध हैं। ग्रन्थ लेखन के इस स्थाई कार्य के अतिरिक्त महर्षि दयानन्द ने देश के प्रमुख स्थानों पर जाकर वैदिक विचारधारा का प्रचार किया और सभी मतों को अपनी-अपनी धर्म व समाज विषयक मान्यताओं पर शंकाओं का निवारण करने का अवसर दिया। प्रतिपक्षी मतों के आचार्यों को उन्होंने शंका समाधान का अवसर देने के साथ शास्त्रार्थ करने की चुनौती भी दी और अनेक प्रमुख मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ कर वैदिक मत की श्रेष्ठता, ज्येष्ठता, ज्ञानसम्पन्नता व सत्यता को प्रतिपादित व सम्पादित किया। इसके साथ ही महर्षि दयानन्द ने उदयपुर, शाहपुर, जोधपुर आदि अनेक देशी रियासतों के शासकों को भी अपना शिष्य व अनुगामी बनाया और वहां वैदिक मत की स्थापना में आंशिक सफलतायें प्राप्त कीं। अनेक पादरी व मुस्लिम विद्वान भी उनकी मित्र मण्डली में थे जो उनकी सभी मतों के अनुयायियों के प्रति सदाशयता के उदाहरण हैं। स्वामी दयानन्द जी ने अनेक अवसरों पर हिन्दी के प्रचार व प्रसार सहित गोरक्षा आदि आन्दोलनों का सूत्रपात भी किया जबकि ऐसे कार्य व उदाहरण पूर्व इतिहास में कहीं उपलब्ध नहीं होते। इस प्रकार से प्रचार करते हुए उन्होंने वेदों के ज्ञान को फैलाकर विश्व के मनुष्यों को प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी वैदिक धर्म की स्थापना व विश्व समुदाय में इसकी स्वीकृति में यथाशक्ति योगदान किया।

 

ईश्वर इस सृष्टि के सभी मनुष्यों व पूर्वजों का आदि गुरू है। इस सृष्टि में अब तक उत्पन्न हुए सभी आचार्य, विद्वान व ऋषि-मुनि ईश्वर के शिष्य सिद्ध होते हैं जिन्होंने अपने-अपने काल में ईश्वर द्वारा आदि ऋषियों को प्रदत्त वेद ज्ञान को ही जाना, समझा व प्रचारित किया। जिस प्रकार सृष्टि की आदि में ईश्वर अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों का उपदेश देने से उनका गुरू व चारों ऋषि ईश्वर के शिष्य सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार से चार ऋषियों से आरम्भ आचार्य-शिष्य परम्परा के अनुसार उनके बाद के सभी आचार्य उसी ईश्वरीय ज्ञान के प्रचारक व प्रसारक सिद्ध होते हैं। सच्चा आचार्य माता-पिता के समान होता है। इस प्रकार से संसार में जितने भी सच्चे उपदेशक, ज्ञानी व ऋषि आदि हुए हैं वह-वह ज्ञानदाता व ज्ञानप्रसारक होने से अपने शिष्यों के मातृ-पितृ तुल्य ही रहे हैं। उसी परम्परा व ज्ञान प्रवाह का परिणाम ही आज का अन्यान्य विषयक ज्ञान-विज्ञान है। यदि उन्होंने वैदिक ज्ञान को सुरक्षित रखते हुए उपदेश आदि से उसका देश-देशान्तर में प्रचार न किया होता तो आज का मानव ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न न हो पाता। संसार के सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह ज्ञान विज्ञान का क्षेत्र हो या मत-मतान्तरों का, उनकी सभी मान्यताओं वा सिद्धान्तों की परीक्षा कर उनमें विद्यमान सत्य को ही अपनायें और मिथ्या का त्याग करें। मत-मतान्तरों में निहित अज्ञान व भ्रम की बातें कि जिससे मनुष्यों में समरसता में बाधा पहुंचती है, उनका त्याग करें। सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग ही वैदिक धर्म आर्यसमाज का मुख्य प्रयोजन है। आर्यसमाज सत्य का पोषक व प्रचारक है और विश्व के सभी मनुष्यों में वेदों के सत्य ज्ञान का प्रचार कर उनका कल्याण करना चाहता है। वैदिक ज्ञान ही एकमात्र मनुष्य के अभ्युदय व निःश्रेयस क कारण है, यह निर्विवाद सत्य है। आर्यसमाज के संगठन में कुछ दुर्बलतायें हो सकती हैं परन्तु विश्व के कल्याण की दृष्टि से आर्यसमाज की अवधारणा व उसका प्रभावशाली सशक्त रूप ही मानवता के हित में है। वेद और आर्यसमाज विश्व में मानवता को विद्यमान रखने की गारण्टी है। इसके साथ विश्व के सभी मनुष्यों को अभ्युदय व निःश्रेयस के मार्ग पर अग्रसर करने का एकमात्र संगठन हैं। इसके महत्व को जानकर सभी मनुष्यों को इसे सहयोग देना चाहिये और अपनी सर्वांगीण उन्नति करनी चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पाप दूर करने का वैदिक साधन अघमर्षण के तीन मन्त्र व उनके अर्थ

ओ३म्

पाप दूर करने का वैदिक साधन अघमर्षण के तीन मन्त्र उनके अर्थ

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य जाग्रत अवस्था में कोई न कोई कर्म अवश्य करता है। यह कर्म दो प्रकार के होते हैं जिन्हें शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कह सकते हैं। मनुष्य का जन्म ही पूर्वजन्मों के शुभ व अशुभ कर्मों के फलों के भोग के लिए हुआ है। शुभ व सत् कर्मों का फल सुख व विपरीत कर्मों का फल दुःख होता है। संसार में मनुष्य अन्य प्राणियों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसके पास निश्चयात्मक बुद्धि होती है जिससे निर्णय करके वह किसी कर्म को करता है। मनुष्येतर अन्य प्राणियों में बुद्धि होती तो है परन्तु वह अपने स्वभाविक ज्ञान के अनुसार ही कार्य करती है। वह सत्य व असत्य का निर्णय नहीं कर सकती। यदि वह विचार व चिन्तन कर सकते तो सम्भव था कि वह मनुष्य की तुलना में अधिक अच्छे व श्रेष्ठ कर्म करते। वर्तमान में भी गाय, बैल, घोड़ा, भैंस, भेड़, बकरी आदि पशु मनुष्यों से कहीं अधिक मनुष्यों का उपकार करते हुए दिखते हैं। मनुष्य तो इन पशुओं का उपयोग व दुरुपयोग ही करता है। मनुष्य योनी उभय-योनी है। इसमें मनुष्य पूर्व व वर्तमान जन्मों के कर्म भोगने के साथ नये शुभ-अशुभ कर्म भी करता है। अशुभ कर्मों का परिणाम दुःख होता है जिससे मनुष्य बच सकता है यदि दुःखों का कारण अशुभ कर्मो वा पाप को हटा दे अर्थात् अशुभ कर्म न करे। अतः मनुष्य को शुभ व अशुभ कर्मों का ज्ञान होना चाहिये और भविष्य में दुःखों से बचने के लिए उसे केवल शुभ कर्म ही करने चाहिये। बुरे कर्मों को विवेक पूर्वक रोक देना चाहिये। इन पाप कर्मों से बचने के लिए महर्षि दयानन्द ने अपनी वैदिक सन्ध्या पद्धति में अघमर्षण मन्त्र को लिखकर कर व इनकी व्याख्या करके शुभ व अशुभ कर्मों के परिणाम व फलों को जानकर पाप कर्मों के त्याग करने का विधान किया है जिससे हमारा भविष्य सुरक्षित व सुखी हो।

 

जिन अघमर्षण मन्त्रों की चर्चा हमने की है वह वैदिक सन्ध्या पद्धति का एक भाग है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के सम्यक् ध्यान के लिए की जाने वाली वैदिक सन्ध्या में गायत्री मन्त्र से शिखा बन्धन, आचमन मन्त्र, इन्द्रियस्पर्शमन्त्र, मार्जनमन्त्र, प्राणायाममन्त्र, अघमर्षणमन्त्र, मनसापरिक्रमामन्त्र, उपस्थानमन्त्र, समर्पणमन्त्र और समाप्ती पर नमस्कारमन्त्र के मन्त्रों का पाठ करने का विधान किया है। महर्षि दयानन्द के यह विधान बहुत ही युक्तिसंगत हैं और साधक व उपासक को सन्ध्या के फल प्राप्त कराने में पूर्णतः समर्थ हैं। सन्ध्या करने का प्रयोजन है कि ईश्वर से हमें मनोवांछित आनन्द अर्थात ऐहिक सुख-समृद्धि, हम पर सर्वदा सुखों की वर्षा और पूर्णानन्द की प्राप्ति वा मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति हो। इन लाभों के अतिरिक्त सन्ध्या में शरीर की रक्षा व इसको स्वस्थ रखने आदि की अनेक प्रार्थनायें निहित हैं। अघमर्षण के सन्ध्या में सम्मिलित तीन मन्त्र हैं-ओ३म्। ऋतं सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽअर्णवः।।1।। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।2।। सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।3।। अपने जीवन से पापों को दूर करने के लिए इन मन्त्रों का पाठ करने के बाद इनके यथार्थ अर्थों पर विचार करना व उससे मिलने वाली शिक्षा का पालन करना आवश्यक है। पहले मन्त्र का अर्थ है कि सब जगत का धारण और पोषण करनेवाला और सबको वश में करनेवाला परमेश्वर, जैसा कि उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत् की रचना थी और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्रलोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में रचा है तथा जैसी भूमि प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से यथापूर्वमकल्पयत् इस पद का ग्रहण किया है। इस मन्त्र व मन्त्रार्थ में सृष्टि रचना, उसका प्रयोजन, जीवों के पूर्व कर्मों के अनुसार मनुष्यादि देह बनाने पर प्रकाश डाला है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस सृष्टि का स्वामी ईश्वर है और जीवों के कर्मों के फल, दण्ड-दुःख व सुख, देने के लिए उसने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये है।

 

अघमर्षण के दूसरे मन्त्र का अर्थ है कि उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व थे वैसे ही रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि ईश्वर ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सब जगत् को रचा है। ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित होता और सब जगत के बनाने की सामग्री ईश्वर के अधीन है। उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को प्रकाशित किया है जैसाकि पूर्व सृष्टि में प्रकाशित था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज और तमोगुण से युक्त है, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी कार्यरूप होके पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुआ है। उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे एक हजार चुतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि–‘‘जब जब विद्यमान सृष्टि होती है, उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है, उसी का नाम महारात्रि है। तदनन्तर उसी सामर्थ्य से पृथिवी और मेघ मण्डल=अन्तरिक्ष में जो महासमुद्र है, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है। तीसरे मन्त्र में ईश्वर ने मनुष्यों को शिक्षा देते हुए कहा है कि उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर, अर्थात् क्षण, मुहुर्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामथ्र्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सबको उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़के सत्यन्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है।

 

इन अर्थों को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि कि ऐसा निश्चित जान के ईश्वर से भय करके सब मनुष्यों को उचित है कि मन, वचन और कर्म से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम अघमर्षण है अर्थात् ईश्वर सबके अन्तःकरण के कर्मों को देख रहा है, इससे पापकर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें। महर्षि दयानन्द के इस सत्परामर्थ और प्रातः व सायं दोनों समय सन्ध्या करते समय अघमर्षण मन्त्रों के अर्थों पर विचार करते हुए मनुष्य जान लेता है कि वह जैसे पाप व पुण्य कर्म करेगा, ईश्वर की व्यवस्था से उसको उन कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल वा दण्ड आदि यथायोग्य अवश्य मिलेगा। इससे वह पाप व अशुभ कर्मों को छोड़ देता है। अतः सन्ध्या के यह तीन मन्त्र एवं इनके अर्थ पर विचार करने से मनुष्य पापों को करना छोड़ देता है। इस पर भी यदि कोई पाप करता रहता है तो उसे बुद्धिहीन व मलिन मन व आत्मा वाला मनुष्य ही कह सकते हैं जो अन्धकार में पड़कर दुःख का भागी होता है। यदि मनुष्य व संसार को पापों से बचाना है तो उसे वेदों की शरण में लाकर वेदों का अध्ययन कराकर अटल कर्म-फल सिद्धान्त को जनाकर अशुभ व पाप कर्मों को करने से छुड़ाना ही होगा। पाप कर्मों को छोड़ने व सन्ध्यादि करने से मनुष्य व जीवात्मा को अनेकानेक लाभ होंगे जिसमें इहलौकिक उन्नति सहित परजन्मों में उन्नति होने के साथ मोक्ष की सिद्धि भी हो सकती है। हम आशा करते हैं पाठक पाप त्याग के लिए इन मन्त्रों का प्रातःसायं पाठ करने के साथ इनके अर्थों पर भी गम्भीरता से विचार करेंगे और वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपने-अपने जीवन को वेदानुकूल बनायेंगे।

 

मनुष्य बुरे कर्मों के कठोर दण्ड के भय से ही बुराईयों व पापों से दूर रहता है। देश व समाज में जो लोग अपराध नहीं करते उनका एक कारण यह है कि वह ईश्वर व सरकारी दण्ड व्यवस्था दोनों से डरते हैं। महर्षि दयानन्द ने सन्ध्या में विधान किये अघमर्षण मन्त्रों में भी ईश्वर की सर्वोपरि सत्ता व उसके दण्ड विधान कर्मफल सिद्धान्त का उल्लेख किया है जो अनादि काल से चला आ रहा और अनन्त काल यथापूर्व चलता रहेगा। ज्ञानी व सज्जन पुरूष ईश्वर के दण्ड व मोक्ष विधान को जानकर अपने समस्त जीवन में अपराध, पाप व अशुभ कर्मों से बचे रहते हैं व सुख-शान्ति-समृ़िद्ध का अनुभव व भोग करते हैं। अतः महर्षि दयानन्द द्वारा अघमर्षण मन्त्रों का विधान सर्वथा उपयुक्त व समाज को अपराध मुक्त बनाने की दिशा में एक प्रशंसनीय कार्य है। अन्य मतों में तो संख्या बढ़ाने के लिए पाप क्षमा का विधान किया गया है जो कि सत्य नहीं हो सकता क्योंकि पापों को क्षमा करना एक प्रकार पाप को बढ़ावा देना है जिसे ईश्वर कदापि नहीं करेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

ओ३म्

ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महाभारत काल के बाद भारत में ज्ञान का लोप होने से अन्धकार फैला। ऐसे ही समय में वेद व वैदिक साहित्य से अनेक प्रसंगों में अज्ञान व कल्पनाओं का मिश्रण कर संस्कृत व काव्य रचने में प्रवीण विद्वानों ने पुराणों आदि ग्रन्थों की रचना की। ऐसे ही समय में, देश, काल व परिस्थितियों व बौद्ध-जैन मत के प्रभाव के कारण, ईश्वर के अवतार की भी कल्पना की गई जो आज भी प्रचलित है। अवतार सृष्टि की रचना व पालन करने वाले अजन्मा, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ ईश्वर के मनुष्य जन्म लेने को कहा जाता है। महाभारत काल के बाद जिन लोगों ने ईश्वर के अवतार लेने की कल्पना की है, वह ईश्वर को पूर्णतया जानते ही नहीं थे और न हि वह पूर्णतः निष्कपट व स्वार्थहीन थे, ऐसा आभास मिलता है। यदि वह वेदों को जानते होते तो उन्हें ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान अवश्य होता और वह अवतारवाद की अज्ञानपूर्ण व मिथ्या कल्पना न करते। अवतार पर चर्चा करने से पूर्व ईश्वर के वैदिक व यथार्थ स्चरूप को जानना आवश्यक है। ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप, अनादि, अजन्मा, शरीर-नस-नाड़ी-बन्धन-से-रहित, नित्य, अनन्त, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय और सृष्टि का रचयिता है। हर कार्य का कारण होता है। ईश्वर का यदि अवतार मानेंगे तो उसका स्वीकार्य कारण भी बताना ही होगा। अवतारवाद मानने वालों के पास ऐसा कोई ठोस कारण नहीं है जिससे ईश्वर के अवतार लेने का प्रयोजन सिद्ध हो सके। अवतारवाद के पोषक कहते हैं कि दुष्टों का दमन व हनन करने के लिए ईश्वर मनुष्य का जन्म लेता है। यह कथन हास्यापद ही लगता है। यह इसलिए कि जो ईश्वर अपनी अनन्त सामथ्र्य से निराकार रूप से इस सृष्टि व जड़-जंगम जगत का निर्माण करता है, क्या वह अपने द्वारा उत्पन्न रावण व कंस जैसे क्षुद्र प्राणियों को अपने अनन्त बल व शक्ति से धराशायी व नष्ट नहीं कर सकता? यदि श्री रामचन्द्र जी का जन्म रावण को मारने के लिए ही हुआ था तो वह युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होकर सीधे रावण के पास जाकर उसका वध कर देते और वहां के सभी धार्मिक लोगों को उपदेश देते कि मैंने रावण को इसके दुष्ट स्वभाव के कारण मारा है क्योंकि मैं स्वयं भी सर्वव्यापक रूप से ऐसा नहीं कर सकता था और न हि संसार का कोई मनुष्य ऐसा कर सकता था। ईश्वर या रामचन्द्र जी ने ऐसा नहीं किया और न रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी ने ऐसा लिखा है, अतः यह मान्यता वाल्मीकि, ईश्वर व रामचन्द्रजी की नहीं है। देश काल व परिस्थितियों के अनुसार ही यह सब कार्य हुए हैं जैसे कि आजकल विश्व धरातल पर यत्र तत्र हो रहे हैं। श्री रामचन्द्र जी एक राज परिवार में जन्में होने से एक राजा था। वैदिक राजा का दायित्व होता है कि वह वेद धर्म के अनुयायियों, ऋषि, मुनियों व विद्वानों की आतंकियों व दुष्टों से रक्षा करे। श्री रामचन्द्र जी ने वैदिक राजा होने का अपना कर्तव्य निभाया। रावण क्योंकि अपने बुरे कार्यों को करता रहा, उसने छोड़ा नहीं, अतः परिस्थितियों के अनुसार ही उसका वध हुआ। यह सारा वर्णन वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध है। वाल्मीकि जी श्री रामचन्द्र जी को अवतार नहीं मानते थे। यह मान्यता तो विगत दो से ढ़ाई सहस्र वर्ष पूर्व ही प्रचलित हुई है। यही स्थिति महाभारत में श्री कृष्ण जी की है। एक सर्वव्यापक व निराकार सत्ता जो असंख्य जीवों को मनष्यादि जन्म देती है और उनका नियमन करती है, अब भी कर रही है, वह किसी एक जीवात्माधारी मनुष्य को मारने के लिए यदि स्वयं मनुष्य का जन्म लेती है, यह विजय नहीं पराजय है व युक्ति-तर्क से सिद्ध नहीं होती। यदि श्री रामचन्द्र जी को ईश्वर मान भी लें तो सर्वशक्तिमान होने के कारण उन्हें न तो सुग्रीव, न हनुमान, न अंगद न अन्य महावीरों की आवश्यकता पड़ती। भारत व विश्व में केवल रावण और कंस दो ही कू्रर शासक नहीं हुए अपितु इन, इनके जैसे व इनसे भी अधिक क्रूर अमानुष शासक हुए हैं। परन्तु अवतार केवल दो ही महापुरूषों को माना जाता है। इससे भी अवतारवाद का सिद्धान्त अप्रमाणिक सिद्ध होता है। क्या महाभारतकाल के बाद औरंगजेब व उससे पूर्व व पश्चात के मानवीयता के शत्रुओं के हनन के लिए ईश्वर के अवतार की आवश्यकता नहीं थी? यदि थी तो ईश्वर का अवतार क्यों नहीं हुआ? ऐसे अमानुषों को ईश्वर ने अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से ही उनकी जीवन ज्योति को बुझा दिया, यह सर्वज्ञात व सिद्ध है। अतः अतवारवाद प्रमाणों के अभाव में सत्य सिद्ध नहीं होता।

 

हमारे देश में और वह भी केवल हिन्दुओं में ही अवातारवाद का सिद्धान्त पाया जाता है जिसका प्राचीन साहित्य वेद व वैदिक साहित्य में कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। हमें भी अपने पौराणिक परिवारों में बाल्यकाल से ही बताया गया कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी और योगेश्वर श्री कृष्ण जी ईश्वर थे। बचपन में जो बताया जाता है उस पर स्वतः विश्वास हो जाता है। युवावस्था में हम वेद व वैदिक साहित्य के सम्पर्क में आये और हमने महर्षि दयानन्द के विचारों को पढ़ा, समझा व जाना तथा अनेक विद्वानों के उपदेश व ग्रन्थों को पढ़ा तो इस विषयक पूर्व का हमारा विश्वास अन्धविश्वास सिद्ध हुआ। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वदेशी है अतः वह सिकुड़ कर एक अत्यन्त सीमित आकर का एकदेशी पदार्थ नहीं बन सकता। यदि बनेगा तो वह ईश्वर नहीं जीवात्मा ही होगा। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर विषयक प्रश्न करते हुए बताया है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो क्या वह दूसरा ईश्वर बना सकता है? क्या वह स्वयं को नष्ट कर सकता? इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द जी कहते हैं कि सर्वशक्तिमान का अर्थ यह है कि वह अपने सभी कार्य अपने-आप, अकेले, बिना किसी अन्य की सहायता आदि के कर सकता है परन्तु वह सत्य व सत्य नियमों के विरुद्ध न कोई कार्य करता है और न कर सकता है। ईश्वर न तो दूसरा ईश्वर ही बना सकता है और न स्वयं को नष्ट ही कर सकता है। इसी प्रकार से वह सदैव ही अपने सत्यस्वरूप सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक, अनादि, अजन्मा, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, अजर आदि स्वरूप में विद्यमान रहता है। अवतार लेना उसके स्वरूप, स्वभाव व सामर्थ्य में नहीं है और न सम्भव है। अतः वह कभी अवतार नहीं लेता। यदि ऐसा होता तो महाभारत काल के बाद उत्पन्न अल्प व स्वार्थ बुद्धि वालों से कहीं अधिक विद्वान, ज्ञानी, ईश्वर के साक्षात्कर्ता ऋषि व योगी महाभारत व उससे पूर्व काल रचित अपने वैदिक साहित्य में अवतारवाद का वर्णन अवश्य करते। लगभग साढ़े दस हजार मन्त्रों वाले चार वेदों में भी इसका कहीं न कहीं उल्लेख अवश्य होता। और नहीं तो ईश्वर साक्षात्कार करने के ज्ञान के लिए रचे गये योगदर्शन जिसमें ईश्वर प्राप्ति विषयक सभी साधनों का युक्ति व तर्कसंगत सत्यज्ञान प्रस्तुत किया गया है, ईश्वर के अवतार का भी अवश्य उल्लेख किया जाता। क्योंकि यह मिथ्या ज्ञान है, इसी कारण न वेद, न उपनिषद और न दर्शन आदि प्राचीन वैदिक ग्रन्थों और न हि ईश्वर का साक्षात्कार कराने वाले योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने इसका उल्लेख किया। वैदिक ज्ञान, युक्ति व तर्क के आधार पर केवल यही कहा जा सकता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी व योगेश्वर श्री कृष्ण जी आदि जो ऐतिहासक युगपुरूष हुए हैं वह ईश्वर के अवतार न होकर अपने समय के महापुरूष, युगपुरूष, महामानव, महात्मा, दिव्य व श्रेष्ठ पुरूष थे। गीता में स्वयं योगेश्वर कृष्ण जी कहते हैं कि जातस्य हि धु्रवो मृत्यु धु्रवं जन्म मृत्यस्य अर्थात् जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म निश्चित होता है। इस आधार पर जन्म लेना मृत्यु को प्राप्त होना और फिर जन्म लेना यह कार्य केवल जीवात्मा का होता है परमात्मा का नहीं। श्री कृष्ण जी का माता देवकी व पिता श्री वसुदेव जी से जन्म हुआ, भगवान (ऐश्वर्यवान) श्री रामचन्द्र जी का भी माता कौशल्या और पिता दशरथ से जन्म हुआ था और इनकी मनुष्यों की ही तरह एक सौ व एक सौ पचास वर्ष की आयु में मृत्यु होने से यह सृष्टि को रचने व चलाने वाले परमात्मा न होकर एक श्रेष्ठ व परमश्रेष्ठ जीवात्मा ही सिद्ध होते हैं। ऐसे ही अन्य अवतार माने जाने वाले ऐतिहासक महापुरूषों व देवियों के बारे में कहा जा सकता है।

 

वैदिक सनातन धर्मी भाग्यशाली हैं कि इन्हें सृष्टि संवत् का ज्ञान है। इस समय यह सृष्टिसंवत एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष चल रहा है। लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत से पूर्व का हमारा इतिहास व इतर वैदिक साहित्य अनेक कारणों से सुरक्षित नहीं रखा जा सका। इस काल में श्री राम व श्री कृष्ण जी के समान सहस्रों महान दिव्य विभूतियों ने जन्म लिया होगा जिनके शुभ कर्मों को जानकर उनकी पूजा व अनुसरण किया जा सकता था परन्तु उन पर रामायण व महाभारत समान ग्रन्थ विलुप्त होने के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। सौभाग्य से हमें श्री राम व श्री कृष्ण जी, महर्षि दयानन्द आदि के सत्य इतिहास वाल्मीकि रामायण, महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत व इतर ग्रन्थों से उपलब्ध होते हैं। अपनी विवेक बुद्धि से इन ग्रन्थों में मिथ्या प्रक्षेपों को छोड़कर हम इन महापुरूषों के सत्य इतिहास को जानकर इनके अनुसार आचरण कर व वैदिक ग्रन्थों के प्रमाणों के अनुसार कर्मकाण्ड व योगयुक्त जीवन व्यतीत कर अपने मानव जीवन को सफल सिद्ध कर सकते हैं। ऐसा करके ही हमारा जीवन श्रेष्ठ बनेगा व सफल होगा, देश भी संगठित सशक्त हो सकता है और विश्व का कल्याण भी इससे हो सकता है।

 

ईश्वर ईश्वर है जिसका कभी जन्म वा अवतार नहीं होता। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु और पुनर्जन्म अवश्य होता है और वह मनुष्य वा जीवात्मा ही होता है। श्री राम व श्री कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द हमारे आदर्श महापुरूष हैं। वैदिक शिक्षाओं सहित इन महापुरूषों के जीवनों की सत्य शिक्षाओं का आचरण व अनुकरण कर ही हम अपने जीवन को सही अर्थों में उन्नत व सफल कर सकते हैं। सत्य का आचरण व मिथ्या का त्याग ही मनुष्य जीवन की उन्नति का कारण हुआ करता है, इसके विपरीत आचरण मनुष्य की इस जन्म व परजन्म में अवनति ही करता है, यह सुनश्चित वैदिक सिद्धान्त है। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों पर ईश्वर व महापुरूषों वा महान आत्माओं का भेद स्पष्ट हो सकेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121