ओ३म्
हमारे आर्यनेता और फूल मालायें
आज कल हम आर्यसमाज के संगठन के लोगों को अपने आर्यनेताओं का बात-बात पर फूल मालाओं से सम्मान करते हुए तथा नेताओं को फूल मालाओं को गले में पहनकर सम्मान कराते हुए देखते हैं तो मन में विचार आते हैं कि क्या ऐसा करना व कराना महर्षि दयानन्द की मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुरुप है। क्या युग परिवर्तन करने वाले महर्षि दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द आदि ने कभी फूलमालायें पहन कर अपना सम्मान होने दिया होगा व अपने गले में फूल मालायें पहनी होंगी? यह सभी ऋषिभक्त आर्यसमाज के महान विद्वान एवं वैदिक सिद्धान्तों को धारण करने वाले साक्षात वेदमूर्ति व धर्ममूर्ति थे। इन ऋषिभक्तों ने वैदिक धर्म की वर्तमान सभी नेताओं से कुछ अधिक ही देश, समाज व आर्यसमाज की सेवा की है। क्या उनका कोई फोटो आजकल के नेताओं की तरह गले में फूलमालायें पहने हुए मिल सकता है? हमें तो अभी तक ऐसा कोई चित्र देखने को मिला नहीं है, यदि किसी भाई के पास हो या उसने कभी कहीं देखा हो तो हमें कृपा करके अवश्य सूचित करें। कम से कम इससे हमारी जानकारी तो अद्यतन हो ही जायेगी।
महर्षि दयानन्द जी के जीवनचरित में मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में हमनें मूर्ति पर फूल चढ़ाने सम्बन्धी विवरण पढ़ा है। महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पर फूल चढ़ाने की आलोचना करते हुए कहा था कि परमात्मा ने फूल वायु में सुगन्ध फैलाने के लिए बनाये हैं न कि मूर्ति पर चढ़ाने के लिए। यदि यह फूल न तोड़ा जाता तो यह कई दिनों तक, मुरझाने व सूखने से पूर्व, वायु को सुगन्धित कर उसे प्रदुषण से मुक्त करता। मूर्ति पर चढ़ा देने से ईश्वर की व्यवस्था को भंग करने का दोष फूल तोड़ने वाले व उसका दुरुपयोग करने वालांे पर लगता है। फूल को तोड़कर उसे मूर्ति पर चढ़ा देने से वायु को सुगन्ध मिलने की प्राकृतिक प्रक्रिया बाधित होती है। फूल तोड़ने से वायु उन फूलों की सुगन्ध से वंचित हो जाती है। मूर्ति पर चढ़ाया गया फूल कुछ समय बाद सड़ जाता है जिससे दुर्गन्ध उत्पन्न होकर वायु में विकार होता है और साथ हि वह मनुष्यों व अन्य प्राणियों के दुःख व रोगों का कारण भी बनता है। मन्दिर में चढ़ाये गये फूलों से जल भी प्रदूषित हाता है। यदि मूर्ति व फूल मालाओं के लिए तोड़े जाने वाले यह फूल वृक्ष पर रहकर ही मुरझाते व सुख जाते तो भूमि पर गिर कर खाद बन जाते जिससे उसी वृक्ष व निकटवर्ती पौधों को लाभ होता। हमारी दृष्टि में आर्यसमाज के एक नेताजी का चित्र उपस्थित हो रहा है। उनका यह गुण है कि वह फूल माला नहीं पहनते व इसके विरोधी हैं। हां, यह बात अलग है कि वह अपने मित्रों को इसका प्रयोग करने की छूट देते हैं। दूसरे के निजी अधिकार और नीति के कारण ऐसा करना भी होता है।
हम समझते हैं कि आर्य होने का अर्थ मनुष्य होना अर्थात् मननशील होना है। कोई भी कार्य करने से पहले मनन अवश्य करना चाहिये। हम अपने सभी प्रिय आर्य बन्धुओं से निवेदन करते हैं कि वह इस विषय में विचार कर हमारा मार्गदर्शन करें। यदि हम गलत हैं तो हम अपना सुधार कर लेंगे। हम केवल यह चाहते हैं कि आर्यसमाज में कुरीतियां न बढ़े और हमारे सभी कार्य देश, समाज व प्राणीमात्र का हित साधन करने वाले हों जिससे आर्यसमाज का गौरव व कीर्ति बढ़े, अपकीर्ति न हो।
–मनमोहन कुमार आर्य
196 चुक्खूवाला 2
देहरादून-248001
क्या करें, आर्यनेताओं के पास वेदविद्या को आधुनिक समय में प्रकाशित करने की तो कोई योजना है ही नहीं, वश वो इस संसार की मोह—माया में ही संलिप्त रह कर फूल मालायें पहनना चाहते हैं,,, बस!!!!! मंच पर जा कर बस कार्यक्रम की तारीफ ही करते रहते हैं, सम्बोधन में ही सारा समय समाप्त कर देते हैं। भाषण में कोई नई बात होती ही नहीं है।
श्री शिव देव आर्य जी का हार्दिक धन्यवाद इन यथार्थ एवं प्रेरणादायक विचारों के लिए। माला पहनना वा माला पहनाना मुझे एक प्रकार का मानसिक रोग लगता है। शनिवार को मैं आर्यसमाज नथनपुर देहरादून के वार्षिकोत्सव पर गया। वहां संचालक महोदय ने हमारा परिचय दिया और प्रधान जी को सम्मान स्वरुप हमें फूल माला पहनाने को कहा। हमने प्रधान जी को मना किया, इस बारे में अपने विचार भी बताएं परन्तु उन्होंने फिर भी प्रेम वा आदरपूर्वक गले में माला दाल ही दी. ईश्वर हम आर्यों को इन रोगों से छुड़ाए और हमें वेद प्रचार करने की प्रेरणा करे।