आदि सृष्टि का वैदिक सिद्धान्त सर्वविदित है। परोपकारी के गत अंकों में बताया जा चुका है कि एक समय था कि हमारी इस मान्यता का (अमैथुनी सृष्टि) का कभी उपहास उड़ाया जाता था परन्तु अब चुपचाप करके अवैदिक मत पंथों को ऋषि दयानन्द की यह देन स्वीकार्य है। परोपकारी में बाइबिल के प्रमाण देकर इस वैदिक सिद्धान्त की दिग्विजय की चर्चा की जा चुकी है। हमारे इस सिद्धान्त के तीन पहलू हैंः-
- आदि सृष्टि के मनुष्य बिना माता-पिता के भूमि के गर्भ से उत्पन्न हुए।
- वे सब युवा अवस्था में उत्पन्न हुए।
- उनका भोजन फल, शाक, वनस्पतियाँ और अन्न दूध आदि थे।
इस सिद्धान्त की खिल्ली उड़ाने वाले आज यह कहने का साहस नहीं करते कि आदि सृष्टि के मनुष्य शिशु के रूप में जन्मे थे। इसके विपरीत बाइबिल में स्पष्ट लिखा है कि परमात्मा भ्रमण करते हुए उद्यान में आदम उसकी पत्नी हव्वा की खोज कर रहा था। उनको आवाजें दी जा रही थी कि अरे तुम कहाँ हो? स्पष्ट है कि पैदा हुये शिशु आवाज सुनकर, समझ ही नहीं सकते। वे उत्तर क्या देंगे? उन्होंने लज्जावश अपनी नग्नता को पत्तों से, छाल से ढ़का। लज्जा शिशुओं को नहीं, जवानों को आती है।
निर्णायक उत्तरः– बाइबिल से यह भी प्रमाणित हो गया है कि अब ईसाई भाई एक जोड़े की नहीं, अनेक स्त्री-पुरुषों की उत्पत्ति मान रहे हैं। अब वैदिक मान्यता पर उठाई जाने वाली आपत्तियों का निर्णायक उत्तर हम पूज्य पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय के शदों में आगे देते हैं सृष्टि के आदि के मनुष्यों का, ‘‘आमाशय बच्चों के समान होता तो उनके जीवन-निर्वाह के लिए केवल माता का दूध ही आवश्यक था क्योंकि बच्चों के आमाशय अधिक गरिष्ठ (पौष्टिक) भोजन को पचा नहीं सकते परन्तु यह बात असभव है कारण? उनकी कोई माता नहीं थी जो उन्हें दूध पिलाती परन्तु यदि उनके आमाशय अन्न को पचा सकते थे तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनके आमाशय युवकों के समान स्वस्थ व सशक्त थे। युवा आमाशय केवल युवा शरीर में ही रह सकते हैं। यह असभव है कि आमाशय तो युवा हो और अन्य अंग शैशव अवस्था में हों।’’
आर्य दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने अपने अनूठे, सरल, सबोध तर्क से विरोधियों के आक्षेप का उत्तर देकर आर्ष सिद्धान्त सबको हृदयङ्गम करवा दिया।
आर्य मन्तव्य की विचारधारा वैदिक तथ्यों पर आधारित है जिसे कभी भी झुठलाया नहीं जा सकता क्योंकि यह सत्य पर आधारित है जो पूर्णतया वैज्ञानिक है । पॉप कल्पित धर्मावलंबियों को भी इन बातों को मान लेनी चाहियें जो वेदानुकूल महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती नें उद्धृत की हैं ।
।।ॐ।। हरिचन्द स्नेही प्रधान आर्य समाज शान्ति नगर सोनीपत हरियाणा ।।