एक करणीय कार्यः– गुजरात यात्रा में हम लोगों ने महर्षि की गुजरात यात्रा तथा महर्षि के जीवन पर तो व्यायान दिये ही, इनके साथ सैद्धान्तिक व आध्यात्मिक व्यायान तथा प्रवचन भी देते रहे। एक नगर में महर्षि दयानन्द की वैचारिक क्रान्ति तथा विश्वव्यापी दिग्विजय पर बोलते हुए मैंने मत पन्थों के नये-नये ग्रन्थों के उद्धरण देकर ऋषि दयानन्द की दिग्विजय व अमिट छाप के प्रमाण दिये तो आदरणीय आचार्य नन्दकिशोर जी ने यात्रा की समाप्ति तक बार-बार यह अनुरोध किया कि अपनी इस नवीन खोज व चिन्तन पर कुछ लिख दें। अधिक नहीं तो 36-48 पृष्ठ की एक पुस्तक अतिशीघ्र लिखकर छपवा दें।
मैंने उनकी प्रेरणा को स्वीकार करते हुए इस करणीय कार्य को अतिशीघ्र करने को कहा। श्रीमान् आनन्द किशोर जी की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वह दिन-रात धर्म प्रचार व साहित्य के लिये सोचते रहते हैं।
मैंने उस व्यायान में कहा क्या? इस पर कुछ लिखना नई पीढ़ी व पुराने आर्यों सबके लिए लाभप्रद रहेगा। उ.प्र. के गोरखपुर जनपद से भी आर्य बन्धु श्री लल्लनसिंह का एक ऐसा ही पत्र मिला है। ऋषि जी ने सृष्टि नियमों को अनादि, अटल व नित्य माना है। महर्षि ने तीन पदार्थों को अनादि व नित्य माना है। धर्म को सार्वभौमिक माना है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के विपरीत कुछ भी ऋषि को मान्य नहीं है। यह है ऋषि की मूलभूत विचारधारा जिसका आज संसार में डंका बज रहा है। आर्यसमाज महर्षि दर्शन की दिग्विजय के प्रचार को पूरी शक्ति से, ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पा रहा। मैंने कहा, इस्लाम का दृष्टिकोण यह रहा कि अल्लाह ने ‘कुन’ कहा तो सृष्टि रची गई। ‘कुन’ कहा किस से? श्रोता जब कोई था ही नहीं तो यह आदेश जड़ को दिया गया या चेतन को? बिना उपादान कारण के सब सृष्टि जब रची गई तो फिर अल्लाह अनादि काल से पालक, मालिक, न्यायकारी, दाता व स्रष्टा कैसे माना जा सकता है? कुरान में अल्लाह के इन नामों की व्याया तो कोई करके दिखावे?
आज उपादान कारण के बिन ‘कुन’ कहकर कोई सूई, मेज, चारपाई, चाय की प्याली तो बनाकर दिखा दे। चाँद-सूरज तो भगवान् ही बना सकता है। यह हमें मान्य है परन्तु जीव अपने वाला कोई कार्य तो करके दिखा दे।
इरान, जापान, मिश्र, पाकिस्तान व अमरीका, बंगला देश के सब वैज्ञानिक यह मानते हैं कि Matter can neither be created nor it can be destroyed. अर्थात् प्रकृति को न तो कोई उत्पन्न कर सकता है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है। बाइबिल व कुरान की किसी आयत से ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता। वहाँ तो ‘कुन’ मिलेगा अथवा। बाइबिल की पहली आयत ‘पोल’ की चर्चा करती है। बाइबिल के नये संस्करणों में VOID (पोल) का लोप हो जाना वैदिक धर्म की दिग्विजय माननी पड़ेगी।
ÒÒand the spirit of God was howering over the waters.ÓÓ अर्थात् परमात्मा का आत्मा जलों पर मंडरा रहा था। हम बाइबिल के इस कथन पर दो प्रश्न पूछने की अनुमति माँगते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व जल कहाँ से आ गये? सृजन का कार्य तो अभी आरभ ही नहीं हुआ। जलों को किसने बना दिया? जल ईश्वर द्वारा बनाने की बाइबिल में कहीं चर्चा ही नहीं। ईश्वर के अतिरिक्त प्रकृति (जल) का होना बाइबिल की पहली आयत से ही सिद्ध हो गया। फिर यह भी मानना पड़ेगा कि बाइबिल का ईश्वर यहाँ शरीरधारी नहीं। वह निराकार है। आगे बाइबिल 3-8 में हम पढ़ते हैं ÒÒThen the man and his wife heard the sound of the Lord God as he was walking in the garden in the cool of the day.ÓÓ अर्थात् तब आदम व उसकी पत्नी ने परमात्मा की आवाज सुनी। वह (परमात्मा) दिन की ठण्डी में वाटिका में सैर कर रहा था।
यहाँ परमात्मा देहधारी के रूप में उद्यान में विचरण करते हुए उन दोनों की खोज करता है। आवाजें लगाता है कि तुम कहाँ हो? परमात्मा का शरीर कब बना? किस ने बनाया? किससे बनाया? मनुष्य तो भक्ति भाव से मक्का, मदीना, काशी व यरुशलम में ईश्वर को खोजते फिरते हैं। यहाँ ईश्वर अपनी बनाई जोड़ी को खोजने निकला है। उसकी सर्वज्ञता पर ही पानी फेर दिया गया है। ऐसे-ऐसे कई प्रश्न श्री हरिकिशन जी की पूना से छपी पुस्तक ‘बाइबिल-ईश्वरीय सन्देश।’ में पाठक पढ़ें तो। हमनेाी इसके प्राक्कथन में एक प्रश्न उठाया है। अब बाइबिल में ‘उत्पत्ति’ पुस्तक में दो बार ÒHuman BeingsÓ शब्दों का प्रयोग किया गया है अर्थात् एक जोड़ा नहीं कई जोड़े सृष्टि के आदि में बिना माता-पिता के (अमैथुनी) उत्पन्न किये गये।
क्या यह सब कुछ महर्षि दयानन्द जी की दिग्विजय नहीं है? गत 50-60 वर्षों में आर्य लेखकों की पुस्तकों की सूचियाँ बनाकर प्रचारित करने को ही शोध समझ लिया गया। पं. लेखराम जी से लेकर उपाध्याय जी पर्यन्त सैद्धान्तिक दृष्टि से बाइबिल कुरान आदि पर समीक्षा व शोध करना छूट गया। फिर भी आप इसे पं. लेखराम जी, पं. चमूपति जी की परपरा के विद्वानों की तपस्या का चमत्कार मानेंगे कि बाइबिल के भाव तो बदले सो बदले, पाठ के पाठ बदल दिये गये हैं। ऋषि की इस दिग्विजय पर श्री नन्दकिशोर जी ‘कुरान सत्यार्थ प्रकाश के आलोक में’ जैसा एक ग्रन्थ मुझसे चाहते हैं। बड़ा ग्रन्थ न सही 48 पृष्ठ का ही हो जाये। उनका यह अनुरोध मुझे मान्य है।