अजमेर विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ
राज्यपाल की घोषणा
इस मास के प्रथम दिन एक अगस्त को समपन्न हुये दीक्षान्त समारोह में राजस्थान के राज्यपाल महामहिम कल्याणसिंह जी ने अपने दीक्षान्त भाषण में महर्षि दयानन्द के कार्यों की चर्चा करते हुए कहा कि ऋषि दयानन्द वेदों के प्रचारक और समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों को झकझोरने वाले थे, उस समाज सुधारक की स्मृति में स्थापित इस महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय में महर्षि के कार्य और जीवन पर अनुसन्धान करने के लिये एक शोधपीठ की स्थापना होनी चाहिए।
राज्यपाल, जो पदेन राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं, उनके आग्रह को आदेश मानते हुए विश्वविद्यालय ने शोधपीठ स्थापित करने का निर्णय ले लिया है। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. कैलाश सोडानी ने इस बात की घोषणा की और निर्णय की जानकारी देते हुए बताया कि इसके लिये विश्वविद्यालय की ओर से एक करोड़ रुपये की राशि प्रदान की जायेगी। इसी सत्र से शोधपीठ की स्थापना कर दी जायेगी तथा अगले सत्र से शोधपीठ का कार्य प्रारमभ हो जायेगा।
जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बने और अजमेर को विकसित करने और यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करने की घोषणा हुई, तभी से परोपकारिणी सभा ने अजमेर को महर्षि के स्मारक के रूप में स्थापित करने के अनेक सुझाव सरकार और जिलाधीश के मार्गदर्शन में स्थापित समिति के सममुख रखे थे। विश्वविद्यालय के कुलपति से भेंट कर विश्वविद्यालय में शोधपीठ स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। जब गत वर्ष अनेक महापुरुषों की स्मृति में शोधपीठ स्थापित हुए, तब भी सभा ने प्रयास किया था, परन्तु बात निर्णय तक नहीं पहुँच सकी। सभा द्वारा शोधपीठ की स्थापना के लिये प्रधानमन्त्री मोदी जी को पत्र लिखा गया, उनका निर्देश भी विश्वविद्यालय को मिला, परन्तु प्रस्ताव क्रियान्वित नहीं हो पाया। इस वर्ष मोदी जी के साथ-साथ महामहिम राज्यपाल की सेवा में भी निवेदन किया गया और उनसे अनुरोध किया कि आप राज्यपाल होने के नाते विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं तथा आप ऋषि दयानन्द की मान्यता और सिद्धान्तों के मर्मज्ञ और मानने वाले हैं, आप द्वारा यह शुभ कार्य किया जाना चाहिए। यह एक सुखद संयोग है कि महामहिम ने पत्र का उत्तर दीक्षान्त समारोह में पीठ की स्थापना का परामर्श देकर दिया। मान्य कुलपति ने उनके निर्देश को स्वीकार करते हुए, उसी दिन विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ की स्थापना का निर्णय लेकर शोधपीठ प्रारमभ करने की घोषणा कर दी। सभा के प्रयास को सफलता मिली। सारा आर्यजगत् मोदी जी, महामहिम राज्यपाल कल्याणसिंह जी तथा विश्वविद्यालय के कुलपति कैलाश सोडानी जी का हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता है।
किसी व्यक्ति विशेष के सामाजिक, शैक्षणिक एवं शोधपरक योगदान को देखते हुए, उनके जीवन एवं कार्य को समाज के सामने लाने के लिये तथा उनके कार्यों का महत्त्व और उपयोगिता को समझाने के लिये, उनके नाम पर शोधपीठ स्थापित करने की परमपरा है। विश्वविद्यालयों में शोधपीठ की स्थापना जहाँ व्यक्ति के कार्य और महत्त्व का मूल्यांकन के लिये की जाती है, वहीं किसी भी विभाग में अध्ययन के लिये किसी व्यक्ति विशेष के नाम से भी पीठ की स्थापना की जाती है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपने या किसी के नाम से विशेष अध्ययन के लिये शोधपीठ की स्थापना कराते हैं, जैसे ऑक्सफोर्ड में वोडन चेयर है, जिस पर रहकर मैक्समूलर ने वेद भाष्य के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य किया। ऋषि दयानन्द का समाज- सुधार, देश, संस्कृति, इतिहास, शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनके विचारों और कार्यों से देश का गौरव बढ़ा है। समाज की विषमताओं पर चोट पहुँची है। इस देश के निवासियों में स्वाभिमान और देश के प्रति गौरव का भाव बढ़ा है।
ऋषि दयानन्द की शिक्षा पद्धति और विचार का प्रसार करने के लिये ऋषि के जीवन काल से ही प्रयास प्रारमभ हो गये थे, पण्डित गुरुदत्त जी के नेतृत्व में डी.ए.वी. संस्थान की स्थापना हुई, परन्तु स्वयं गुरुदत्त को ही इससे निराशा हाथ लगी। दूसरा प्रयास गुरुकुल कांगड़ी के रूप में हुआ। बहुत वर्षों तक यहाँ वेद के विद्वान् तैयार हुये, परन्तु आज वेद और आर्ष पद्धति दोनों ही गौण हैं व वर्तमान पाठ्यक्रमों की भरमार है तथा ऋषि दयानन्द कहीं बहुत पीछे छूट गये प्रतीत होते हैं। आर्य समाज के संगठन की आपसी लड़ाई ने संस्था को व्यर्थ कर दिया है।
ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों, कार्य और जीवन पर अनुसन्धान करने के लिये आर्य वैदिक विद्वान् एवं गुरुकुल कांगड़ी के कुलाधिपति डॉ. रामप्रकाश जी के प्रस्ताव से सर्वप्रथम पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में दयानन्द पीठ की स्थापना डिपार्टमेण्ट ऑफ वैदिक स्टडीज के नाम से की गई, जिसमें डॉ. रामानाथ वेदालंकार तथा डॉ. भवानीलाल भारतीय जी के माध्यम से अच्छा कार्य हुआ। आजकल वहाँ कोई स्वतन्त्र अध्यक्ष नहीं है। संस्कृत विभाग के प्रो. वीरेन्द्र अलंकार उस शोधपीठ का कार्य सभाल रहे हैं, गतिविधियों के माध्यम से सक्रियता बनाये हुए हैं।
दूसरा प्रयास कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हुआ था, वहाँ जब तक विद्यानिवास मिश्र रहे, उनके निर्देशन में भी अच्छा कार्य हुआ। उनके जाने के बाद वहाँ कार्य समाप्त प्रायः है। यह शोधपीठ बाद में रोहतक में स्वामी दयानन्द विश्वविद्यालय में स्थानान्तरित कर दी गई। महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक में भी दयानन्द शोधपीठ है, परन्तु वहाँ भी कोई स्वतन्त्र अध्यक्ष नहीं है। संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष डॉ. सुरेन्द्र कुमार ही इसको समभाल रहे हैं। जहाँ विश्वविद्यालय के कुलपतियों के लिये यह कार्य उनकी प्राथमिकता का नहीं है, वहीं आर्यसमाज में संगठन नहीं है, ना ही उनकी इस प्रकार की सोच है, अतः इस दिशा में जो कार्य होना चाहिए था, वह नहीं हुआ।
पुराने विद्वानों ने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को लगवाने का प्रयास किया। इसमें आधुनिक समझे जाने वाले तथा पौराणिक लोगों ने यथासम्भव विरोध किया। यह एक प्रकार से ज्ञान से शत्रुता का ही उदाहरण है, फिर भी अनेक विश्वविद्यालयों में वेद के पाठ्यक्रम में सहायक ग्रन्थों में ऋषि दयानन्द की ‘वेद भाष्य भूमिका’ लगाई जा सकी है, इसमें मेरठ, अजमेर और कानपुर विश्वविद्यालयों के नाम उल्लेखनीय हैं। रोहतक विश्वविद्यालय में वेद वर्ग में भूमिका और वेदभाष्य लगाये गये हैं तथा रामानुज तथा दयानन्द दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन कराया जाता है। कर्मकाण्ड की पुस्तकों में संस्कार विधि को भी स्थान दिया गया है। ऋषि दयानन्द के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उनका दार्शनिक चिन्तन है। उसको जितना प्रकाश में लाने की आवश्यकता है, उतना कार्य नहीं हुआ, तो भी नये-पुराने विद्वानों ने इस पर प्रशंसनीय कार्य किया है- आचार्य उदयवीर शास्त्री, आर्यमुनि, तुलसीराम स्वामी, गंगाप्रसाद उपाध्याय, स्वामी सत्यप्रकाश। वर्तमान में डॉ. जयदेव वेदालंकार ने इस पर पर्याप्त कार्य किया है। कुछ विश्वविद्यालयों ने दयानन्द दर्शन को अपने पाठ्यक्रम में स्थान भी दिया है, परन्तु जो मौलिकता और प्रखर चिन्तन ऋषि दयानन्द ने किया है, उसका यथार्थ स्वरूप विश्वविद्यालयों के लेखन और विचारों में परिलक्षित नहीं होता। ऋषि दयानन्द के सर्वांगीण व्यक्तित्व एवं विचार पर अनुसन्धान करने के लिये अधिकाधिक विश्वविद्यालयों में शोधपीठ की स्थापना और दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का पाठ्यक्रम में समावेश कराने की आवश्यकता है।
विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में आर्ष पद्धति को स्थान दिलाने के लिये प्रथम पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ने प्रयास करके समपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में आर्ष विभाग को स्थापित कराया था, यह पाठ्यक्रम प्राचीन व्याकरण के नाम से अष्टाध्यायी पद्धति से पढ़ाया जाता है। इसी प्रकार स्वामी ओमानन्द जी के प्रयास ने महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक में आर्ष पाठ विधि को स्वीकृति दिलाकर उसके पाठ्यक्रम और उपाधियों को मान्यता दिलाई। इस विश्वविद्यालय में यह पाठ्यक्रम गुरुकुल स्कीम नाम से चलता है।
विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्वामी दयानन्द के विचार तथा अधिक-से-अधिक शिक्षा संस्थानों में ऋषि दयानन्द के कार्य एवं विचारों पर शोध कार्य हो, ऐसा प्रयास आर्यसमाज को करना चाहिए। ऋषि दयानन्द ऐसे महापुरुष हैं, जो मनुष्य मात्र को विद्या का अधिकारी मानते हैं। सबको विद्या का अधिकार देते हैं तथा अपने विवेक से निर्णय करने का सामर्थ्य उत्पन्न करने की प्रेरणा करते हैं।
वेद का सन्देश है- मनुष्य को सदा ज्ञान के अनुसार ही आचरण करना चाहिए तथा कभी भी ज्ञान विरोधी नहीं होना चाहिए। वेद का अधिकार ज्ञान का अधिकार है। वेद कहता है-
सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन विराधिषि।।
– धर्मवीर