प्रलय का क्रम
षं॰ स्वा॰ – एवं क्रमेण सूक्ष्मं सूक्ष्मतंर चानन्तरमनन्तरं कारणमपीत्य सर्वं कार्याातं परमकारणं परमसूक्ष्म च ब्रह्माप्यतीति वेदितव्यम् ।
(षां॰ भा॰ 2।2।14 पृश्ठ 295)
इस प्रकार क्रम पूर्वक सूक्ष से सूक्ष्मतर, एक काय्र्य से उसके कारण मंे, फिर उसके कारण में, फिर उसके कारण में अन्त को सभी जगत् अन्त्य कारण परमसूक्ष्म ब्रह्म मंे लय हो जाता है ऐसा जानना चाहिये ।
हमारी आलोचना – यदि सृश्टि मिथ्या और अविद्या जन्य होती तो क्रम कैसे हो सकता था? क्रम विद्या का सूचक है न कि अविद्या का । क्रम – भंग के कारण ही तो स्वप्न विष्वसनीय नहीं होते । स्वप्नों मंे कहीं न कहीं कोई न कोई क्रम भंग ऐसा होता है जिससे स्वप्न का अतत्यत्व प्रकट हो जाता है । सृश्टि – रचना की प्रक्रिया में तो अविद्या और माया को स्थान दिया गया है परन्तु प्रलय की प्रक्रिया में नहीं । यह क्यों ? वहाँ तो केवल यह कह दिया गया:-
भूतानामुत्पत्तिप्रलयावनुलोम प्रतिलोम क्रमाभ्यां भवतः
(षां॰ भा॰ 2।3।15 पृश्ठ 275)
भूतों की उत्पत्ति और प्रलय अनुलोम प्रतिलोम क्रम से होती है । यहाँ प्रतिलोम में न कहीं अविद्या है न माया न अभ्यास । उपनिशद् में भी जहाँ उत्पत्ति का उल्लेख है वहाँ अनुलोम क्रम मंे कहीं अविद्या या माया का उल्लेख नहीं । देखोः-
‘तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाषः सम्भूतः’ (तै॰ 2।1)
यहाँ एक बात और याद रखनी चाहिये । यद्यपि माया द्वारा सृश्टि की उत्पत्ति में यह कहा जा सकता है कि कुछ क्रम तो होता है चाहे वह उलटा ही हो परन्तु यह बात प्रलय में कैसे घट सकती है? ‘माया – वाद’ से प्रलय की व्याख्या कठिन है । प्रलय और सृश्टि में क्या भेद है? यदि सृश्टि को स्वप्न माना जाय तो क्या प्रलय भी स्वप्न मंे ही षामिल है? यदि स्वप्न ही है तो भेद क्या हुआ? और यदि स्वप्न नहीं, जागृत अवस्था है तो क्रम कैसा? कल्पना कीजिये कि मैंने स्वप्न में देखा कि मैंने व्यापार किया, धन कमाया, गाय खरीदी, दूध दूहा, दही जमाया, रायता बनाया । यह था स्वप्न का क्रम । आँख खुल गई तो व्यापार, धन, गाय, दूध, दही, रायता रूपी सृश्टि एक क्षण मंे समाप्त हो गई । वहाँ प्रतिलोम प्रलय के लिये स्थान ही नहीं । यदि सृश्टि और प्रलय वास्तविक है तो अनुलोम और प्रतिलोम क्रम ठीक है । परन्तु यदि सृश्टि माया या अविद्या के कारण है तो अनुलोम प्रतिलोम क्रम का प्रष्न ही नहीं उठ सकता ।