Advairwaad Khanadan Series 2 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

पर और अपर ब्रह्म

एतावानस्य महिमाता ज्यायाँष्च पूरूशः। पादोऽस्य विष्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।

(यजुर्वेद 31।3)

अर्थः-इस ब्रह्म की इतनी महिमा हुई। ब्रह्म तो इससे भी बड़ा है। उसके एक पाद में सब भूत (जगत्) आ जाते हैं। और इसके अमृत रूपी तीन पाद द्यौ में अर्थात् इस लोक के परे हैं।

तात्पर्य यह है कि सृश्टि को देख कर ब्रह्म का पार नहीं पा सकते। यह सृश्टि तो ब्रह्म की छोटी सी कृति है। ब्रह्म का पूर्णस्वरूप तो इससे भी परे है। अपार है, अनन्त है, और अचिन्त्य भी।

यह उपचार की भाशा है गणित की नही। अर्थात् इसका यह तात्पर्य नहीं कि ईष्वर के चार पाद है एक पाद सृश्टि है और तीन पाद द्यौलोक। ईष्वर अखंड है। उसके पाद कैसे? वैदिक साहित्य की षैली है कि पूर्ण वस्तु को चतुश्पात् कह कर पुकारा जाय। मनुश्य जब ईष्वर की महिमा पर विचार करता है तो केवल थोड़े से ही अंष को देख सकता है। जैसे अपने घर के आँगन में खड़े होकर भी अनन्त क्षितिज की भावना हो जाती है। जिस क्षितिज को हम देखते हैं वह सान्त है। परन्तु उसकी सान्तता ही अनन्तता की द्योतक है। मुण्डक उपनिशद में इस सान्तता के भाव को अपरा विद्या और अनन्तता के भाव को परा विद्या कहा गया है।

द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च। तत्रापरा ऋग्वेदों यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः षिक्षा कल्पो व्याकरणं निरूक्तं छन्दो ज्योतिशमिति। अथ परा यया तद्क्षरमधिगम्यते।

(मुण्डक उप॰ 1।1।5)

वेद-वेदांग अपराविद्या हैं क्योंकि इस लोक की बात बताते हैं। सान्त है। अनन्त नहीं। परन्तु इनकी सान्तता ईष्वर की अनन्तता की बोधक हे। यह नहीं कि वेदादि षास्त्र अविद्यावत् हों और उनसे ईष्वर के जानने में सहायता न मिले। केवल कहना इतना है कि ईष्वर को इतना ही मत समझो। वह उससे कहीं बड़ा है। उसकी जो कृतियाँ हमको दीखती हैं वह सान्त हैं अपर है। वह पर हैं। महान् है।

परन्तु याद रखना चाहिये कि विद्या या ज्ञान के दो भेद हुये एक पर और दूसरा अपर। ईष्वर के दो भेद नहीं। वह तो एक ही है। जितने षास्त्र हैं वे सब परिमित हैं और मनुश्य की बुद्धि की अपेक्षा से है। फूल में रंग भी है और आकार भी। रंग रसायन का विशय है और आकार गणित का। परन्तु फूल के दो भेद नहीं कर सकते एक रासायनिक फूल और दूसरा गणित-सम्बन्धी फूल। केवल रासायनिक फूल तो संसार में देखने में नहीं आता। न केवल गणित सम्बन्धी ही।

जब हम ‘विष्वाभूतानि’ अर्थात् ईष्वर रचित सृश्टि पर विचार करते हैं तो ईष्वर के अनेको गुणों का बोध होता है। परन्तु जब हमारी बुद्धि सान्तता को पार करके आगे बढ़ना चाहती है तो कहना पड़ता है ‘नेति नेति’। अर्थात् इतना ही नहीं। तब तो कालिदास के षब्दों में उपासक के मुहँ से अनायास निकल उठता हैः-

तितीर्शुर्दुस्तरं मोहा दुडुपेनास्मि सागरम्।

अरे मैं तो छोटी सी डोंगी से महान् समुद्र को तैरना चाहता हूँ। यह है रहस्य ईष्वर की सगुणता और निर्गुणता का। ईष्वर सगुण भी है और निर्गुण भी। जब गुणो का विचार किया तो सगुण विचार हुआ और जब अचिन्तनीयता का विचार किया तो ‘नेति नेति’ कहने से निर्गुण विचार हो गया।

परन्तु भूल से लोगों ने पर ज्ञान और अपर ज्ञान के स्थान में परब्रह्म और अपरब्रह्म दो भेद कर दिये। इसी प्रकार सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म। मानो ब्रह्म दो प्रकार का है। या दो ब्रह्म है। मेरी समझ में यह अन्याय था और इसने अनेकों भ्रान्तियाँ उत्पन्न कर दी। हमने न केवल धार्मिक क्षेत्र में किन्तु दार्षनिक क्षेत्र में भी दो सम्प्रदाय उत्पन्न कर दिये। और मनुश्य जीवन को अकारण ही अषान्त बना दिया।

यहाँ हम इसका प्रभाव केवल शांकर -भाश्य पर देखना चाहते हैं। शांकर -मत में ब्रह्म के दो भेद हैं। एक तो परब्रह्म जो सर्वथा निर्गुण है। यह सत्ता मात्र है। और दूसरा अपरब्रह्म जो माया की उपाधि के कारण बन जाता है। इसका नाम ईष्वर है। अर्थात् ईष्वर ब्रह्म का एक निचला स्वरूप है जो माया के कारण हो जाता है। यह माया ब्रह्म को किस प्रकार अपने उच्च स्थल से गिरा देती है यह एक अलग प्रष्न है। हम यहाँ केवल एक बात पर विचार करना चाहते है वह यह कि क्या परब्रह्म और अपरब्रह्म का भेद जो शांकर -भाश्य में सर्वत्र ओत-प्रोत है वादरायण के वेदान्त सूत्रों में भी है और क्या उपनिशद् भी उसकी पुश्टि करती हैं।

वेदान्त का आरम्भ ‘ब्रह्मजिज्ञासा’ से होता है अर्थात् वेदान्त-दर्षन सबका सब ब्रह्मजिज्ञासा का निरूपण करता है। यहाँ यह प्रष्न नहीं उठाया गया कि जिस ब्रह्म की जिज्ञासा है वह अपरब्रह्म है या परब्रह्म। दूसरे और तीसरे सूत्रों में ब्रह्म के लक्षण दिये है। जन्माद्यस्यतः अर्थात् ब्रह्म वह है जिससे सृश्टि उत्पन्न स्थित और विलीन होती है। और ‘षास्त्रयोनित्वात्’ जो षास्त्र अर्थात् ज्ञान के स्त्रोत की योनि है। शांकर -भाश्य में तो यह अपर-ब्रह्म हुआ। परब्रह्म न तो सृश्टि को उत्पन्न करता न षास्त्र आदि के बखेड़े में पड़ता। समस्त वेदान्त सूत्रों में कोई एक भी ऐसा षब्द नहीं जिससे पता चल सके कि ब्रह्म दो प्रकार का है परब्रह्म और अपरब्रह्म। कहीं कहीं ‘पर’ षब्द तो आया है (परात् तु तच्छु ªतेः, 2।3।41) जिसका अर्थ ब्रह्म है। परन्तु उससे विभाग का द्योतन नहीं होता। यदि वादरायण दो प्रकार का ब्रह्म मानते होते तो आरम्भ में ही अपरब्रह्म का लक्षण न करते। या स्पश्ट कह देते।

यदि आप कहें कि अपरब्रह्म तो वास्तविक ब्रह्म नहीं। माया की उपाधि से अध्यस्त ब्रह्म है जैसे रज्जु का सर्प। तो दो प्रष्न उठते हैं। प्रथम तो ब्रह्म-जिज्ञासा को अध्यस्त ब्रह्म के बताने से क्या लाभ? और वादरायण ने यह क्यों किया? जल के प्यासे को मृगतृश्णिका की ओर संकेत कर देना या तो धोखा है या उपहास। दूसरे अतात्विक अध्यस्त ब्रह्म सृश्टि को उत्पन्न नहीं कर सकता। जैसे सीप की चाँदी का कोई कड़ा नहीं बनवा सकता, न मृगतृश्णिका के जल की बर्फ जमाई जा सकती है। पहले परिणाम होकर फिर विवर्त हो सकता है। जैसे सन की रस्सी बनाई, वह साँप प्रतीत होने लगी। या जल की बर्फ जमाई। वह दूर से रूई प्रतीत होने लगी। परन्तु पहले विवर्त हो और फिर गुण-परिणाम इसका तो कोई दृश्टान्त ही नहीं मिलता। यदि ऐसा हो तो उसे विवर्त न कहेंगे। रस्सी का साँप बच्चे उत्पन्न नहीं करता। न बिल खोदता है, न किसी को काटता है, न चूहों को खा सकता है।

केवल एक दृश्टान्त दिया जा सकता है। वह है स्वप्न का। स्वप्न में देखे हुये जल की स्वयं बर्फ भी बन सकती है। और उससे स्वप्न की प्यास भी बुझाई जा सकती है। परन्तु यह दृश्टान्त ठीक नहीं। स्वप्न में जागरित के देखे हुये जल, जागरित में देखे हुये जल से बर्फ बनना और जागरित अनुभूत प्यास का बुझना, इन सब की स्मृतियाँ ही तो रहती हैं। स्वप्न का देखा हुआ जल स्वप्न में लगी हुई प्यास को नहीं बुझाता। वस्तुतः वास्तविक प्यास को वास्तविक जल ने जागरित में बुझाया था उसकी स्मृति मात्र है।

दूसरे अध्याय के पहले पाद में छठे सूत्र के भाश्य में श्री शंकर स्वामी लिखतेः-

दृष्यते हि लोके चेतनत्वेन प्रसिद्धेभ्यः पुरूशादिभ्यो विलक्षणानां केषनखादीनामुत्पत्तिः। अचेतनत्वेन च प्रसिद्धेभ्यो ग्रोमयादिभ्यो वृष्चिकादीनाम्।

अर्थात् लोक के देखा जाता है कि पुरूश आदि चेतन से विलक्षण केष, नख आदि की उत्पत्ति होती है और अचेतन गोबर आदि से बिच्छू आदि की।

महाँष्चर्य पारिणामिकः स्वभावविप्रकर्शः पुरूशादीनां केषनखादीनां च स्वरूपादि भेदात्।

अर्थात् इतना बड़ा परिणाम हो जाता है कि पुरूश के षरीर से विचित्र-विचित्र रंग रूप वाले केष नख आदि उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार ब्रह्म से विचित्र सृश्टि उत्पन्न होती है।

यहाँ प्रष्न यह है कि क्या यह भाशा विवर्दवाद की है, या सांख्य के परिणामवाद की? पुनः यदि परब्रह्म सृश्टि का उपादान माना जाता तो यह कहना ठीक था कि चेतन ब्रह्म से अचेतन सृश्टि उत्पन्न हो गई। अपरब्रह्म के तो दो भाग हैं। एक चेतन ब्रह्म और दूसरी जड़ माया। अपर ब्रह्म के चेमनत्व से तो आप सृश्टि की रचना मानते नहीं। माया रूपी जड़त्व से मानते हैं। फिर तो आपकी युक्ति संगति नहीं खाली। हाँ यदि माया का अर्थ सांख्य का प्रधान मानों जैसा ष्वेताष्वतर उपनिशद में हैः-

मायां तु प्रकृति विद्यात्।

(4।10)

तो ठीक है। परन्तु उस दषा में परब्रह्म और अपरब्रह्म का प्रष्न उठ जायगा। इसी पाद के 9वें सूत्र में

अपीतिरेव हि न संभवेद् यदि कारणे कार्य स्वधर्मर्गावावतिश्ठेत्।

(षां॰ भा॰ 2।1।9 पृश्ठ 190)

अर्थात् प्रलय मे भी कार्य अपने धर्म से कारण में लय नहीं होता। यहाँ भी वही बात है अर्थात् यदि यहाँ परब्रह्म को माना जाय तो आपकी युक्ति का कुछ अर्थ है अन्यथा नहीं। इससे अपरब्रह्म अर्थात् निचले ईष्वर की कल्पना मान कर षं॰ स्वा॰ स्वयं अपनी बात को सूत्रों के आधार पर निबाह नहीं सकते।

‘क्षीरवद् हि’ और ‘देवादिवदपि’ लोके (वेदान्त 2।1।24-25) के भाश्य में भी शंकर स्वामी ने संसार को मिथ्या या आभासवत् नहीं माना। दूध से दही बनान विवर्त का दृश्टान्त तो है नहीं। इसी प्रकार

यथा लाके देवाः पितर ऋशय इत्येवमादयो महाप्रभावाष्चेतना अपि सन्तोऽनपेक्ष्यैव किंचिद्वाह्यं साघनमैष्वर्य विषेश योगादिभिध्यानमात्रेण स्वत एव बहूनि नानासंस्थानाननि षरीराणि प्रासादादीनि च रथादीनि च निर्मिमाणा उपलभ्यन्ते मंत्रार्थवादेतिहासपुराण प्रामाण्यात्।

(षां॰ भा॰ 2।1।25 पृश्ठ 211)

देव ऋशि आदि बिना किसी की सहायता के मन्त्र के बल से राजभवन आदि बना देते हैं।

यहाँ क्या षं॰ स्वा॰ देवों के बनाये हुये राजभवनों को जादू के भवन समझते हैं? यदि नही तो यह दृश्टान्त व्यर्थ ही हुआ। यहाँ तो असत्य सृश्टि की ओर संकेत नहीं प्रतीत होता।

वेदान्त 1।4।26 (परिणामात्) से भी यही बात प्रकट होती है। तीसरे अध्यास के दूसरे पाद में कई सूत्रों के शांकर -भाश्य से यह

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नोट-यहाँ ‘लोके’ षब्द से स्पश्ट है कि देवों से ऋशि देवता आदि अभीश्ट नहीं है। क्योंकि यह तो लोक की बात नहीं। अलौकिक बात है। अग्नि, वायु आदि भौतिक देवों की तो हो भी सकती है। सांख्य के गुण परिणाम का यह अच्छा दृश्टान्त है।

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प्रतीत होता है कि परब्रह्म सर्वथा निर्गुण है। अर्थात् उसमे कोई गुण नहीं है। जैसेः-

(1) न स्थानतोऽपि परस्योळायलिंग सवत्र हि।

(वे॰ 3।2।11)

इसका छेद शांकर -मत मे इस प्रकार हैः-

स्थानोऽपि परस्य उभय लिंग न, सर्वत्र हि।

‘न तावत् स्वत एव परस्पर ब्रह्मण उभयलिंगत्वमुपपद्यते। न ह्येकं वस्तु स्वत एव रूपादि विषेशोपेतं तद् विपरीत चेत्यवधारयितु षक्यं विराधात्।

(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 356)

परब्रह्म में स्वतः ही उभय लिंगत्व नहीं हो सकता। यह नहीं हो सकता कि एक वस्तु ही स्वतः रूप आदि विषेशता वाली भी हो और इसके विपरीत भी हो।

अस्तु तर्हि स्थानतः पृथिव्यादि उपाधि योगदिति। तदपि नोपपद्यते। न ह्यृपाधियोगादप्यन्यादृषस्य वस्तुनोऽन्यादृषः स्वभावः संभवति। न हि स्वच्छत् सन् स्फटिकोऽलक्ताद्युपाधियोगादस्वच्छो संभवति भ्रममात्रत्वादस्वच्छताभिनिवेषस्य। उपाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात्। अतष्वन्यतरलिंगपरिग्रहेऽपि समस्तविषेशरहित निर्विकल्पकमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतं। सवत्र हि ब्रह्मस्वरूपप्रतिपादनपरेशुवाक्येशु। अषब्दमस्पषम रूपमव्ययम्’ (क॰ 3।15। मुक्तिको॰ 2।17) इत्येवमादिश्वपास्तसमस्तविषेशमेव ब्रह्मोपदिष्यते।

(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 356)

यदि स्वतः उभयलिंग न हो तो क्या पृथिवी आदि की उपाधि के कारण होता है? नहीं। उपाधियाँ किसी के स्वभाव को नहीं बदल सकतीं। स्फटिक लाख की उपाधि से मैला नहीं हो जाता। मैलापन भ्रम मात्र है। उपाधियाँ तो अविद्या के द्वारा स्थापित होती हैं। इस लिये चाहे अन्यथा प्रतीति होगी तो भी ब्रह्म तो सब विषेशणों से रहित निर्विकल्प ही है। यही उपनिशदों ने माना है।

इससे सिद्ध है कि ब्रह्म न सगुण है न सगुण हो सकता है। परब्रह्म उपाधि भेद से भी अपरब्रह्म नहीं हो सकता।

श्री रामानुजाचार्य ने इस सूत्र का छेद भी अन्यथा किया हैः-

न स्थानतोऽपि परस्य, उभयलिंग सर्वत्र हि।

अर्थात् षं॰ स्वा॰ अर्द्धविराम लगाते हैं उभयलिंग के पष्चात। और उभयलिगत्व का प्रतिशेध करते है। रा॰ स्वा॰ लगाते है उभयलिंग से पहले। और उभयलिंगत्व को स्वीकार करते है। ‘उभयलिंग’ का अर्थ भी दोनों आचार्य भिन्न भिन्न ही करते है। शंकर स्वामी उभय लिंग का अर्थ लेते हैं ‘निरस्तनिखितदोशत्व कल्याणगुणाकरत्व लक्षणोपेतम्’ अर्थात् ब्रह्म में बुरे गुणों का अभाव और अच्छे गुणों का भाव है। जैसे ‘अपहतपाप्मा विजरो विमृत्यु विषोको विजिघत्सोपिपासः’ और ‘सत्यकामः सत्यसंकल्पः’। (छा॰ 8।1।5)

दोनों आचायों द्वारा उद्धृत उपनिशद् वचनों को मिलाने से शंकर स्वामी के अपरब्रह्म का तो लवलेष भी नहीं रहता। हाँ रामानुजाचार्य कथित उभयलिंगत्व सिद्ध हो जाता है क्योंकि ब्रह्म षुभ-गुण सहित (सगुण) और अषुभ-गुण रहित (निर्गुण) है। दो ब्रह्म (परब्रह्म और अपरब्रह्म) नहीं। स्वतः भी नहीं और उपाधि से भी नहीं। ब्रह्म एक ही है अर्थात् परब्रह्म। हाँ उसको दो प्रकार से सोच सकते हैं, उपस्थित-गुणों के सहित और अनुपस्थित अवगुणों से रहित।

(2) प्रकृतैतावत्त्वं हि प्रतिशेधति ततो ब्रवीति च भूयः।

(वेदान्त 3।2।22)

इस सूत्र का षाब्दिक अर्थ तो इतना ही है कि ‘प्रसंग में केवल इतने का ही प्रतिशेध है।’

‘केवल इतने का’ (एतात्वं) का क्या अर्थ है?

उपनिशद में ‘नेति नेति’ आया है (वृह॰ 2।3।6) ‘नेति’ का अर्थ है ‘इतना नहीं’। इसके सम्बन्ध में प्रष्न है।

शंकर स्वामी कहते हैंः-

न तावदुहायप्रतिशेध उपपद्यते षून्यवादप्रसंगत्। किंचिद्धि परमार्थामालम्ब्यापरमार्थः प्रतिशिध्यते यथा रज्ज्वादिशु सर्पादयः।

(षां॰ भा॰ 3।2।22 पृश्ठ 364)

अर्थात् परब्रह्म और अपरब्रह्म दोनों का प्रतिशेध तो हो नहीं सकता। अन्यथा षून्यवाद सिद्ध हो जायगा। कुछ लोग ‘नेति नेति’ से यह समझते है कि उपनिशद् ब्रह्म के अस्तित्व को ही अस्वीकार करती है। यह बात नहीं। यहाँ परमार्थ को स्वीकार और अपरमार्थ का प्रतिशेध किया गया है।

श्री रामानुजाचार्य ने ‘नेति नेति’ का अर्थ लिखा है ‘इयत्ता नहीं’। अर्थात् कोई कहे कि ब्रह्म इतना ही है। यह नहीं। ब्रह्म तो अनन्त है।

ये ब्रह्मणो विषेशा प्रकृतास्तद्विषिश्टतया ब्रह्मणः प्रतीयमानेयत्ता नेति नेति (वृ॰ 2।3।6) इति प्रतिपिध्यते।

(रा॰ भा॰ 3।2।22)

यहाँ भी दोनों भाश्यों के अर्थाें में भेद होते हुये भी परब्रह्म और अपरब्रह्म दो ब्रह्म सिद्ध नहीं होते।

(3) मायामात्रं तु कात्स्न्र्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वात्।

(वे॰ 3।2।3)

यहाँ यह बताया गया है कि स्वप्न की सृश्टि माया मात्र है। वेदान्त दर्षन में ‘माया’ षब्द केवल इसी स्थान पर आया है। शांकर  भाश्य में तो प्रायः हर पृश्ठ पर मिलेगा। ‘माया’ के बिना तो षं॰ स्वा॰ ने माया का अर्थ परमार्थ षून्य किया हैः-

मायैव संध्ये सृश्टिर्न परमार्थगन्धोऽप्यस्ति।

यहाँ यह बताया गया है कि स्वप्न की सृश्टि माया मात्र है। वेदान्त दर्षन में ‘माया’ षब्द केवल इसी स्थान पर आया है। शांकर  भाश्य में तो प्रायः हर पृश्ठ पर मिलेगा। ‘माया’ के बिना तो षं॰ स्वा॰ की लेखनी भी नहीं उठती। यहाँ षं॰ स्वा॰ ने माया का अर्थ परमार्थ षून्य किया हैः-

मायैव संध्ये सृश्टिर्न परमार्थगन्धोऽप्यसि।

रामानुजाचार्य कहते हैं ‘मायाषब्दो ह्याष्चर्यवाची’।

अर्थात् स्वप्न की सृश्टि आष्र्चयमय है।

‘माया’ षब्द के संस्कृत साहित्य में दोनों अर्थ ही मिलते है। परन्तु यहाँ हमको षं॰ स्वा॰ का अर्थ ठीक जँचता है। क्योंकि स्वप्न की सृश्टि और जागरित की सृश्टि की तुलना की गई है। परन्तु इससे एक बात स्पश्ट हो जाती है। अर्थात् स्वप्न माया मात्र है न कि जागरित। यदि जागरित को मायामात्र न मानो तो अपरब्रह्म के लिये स्थान ही नहीं रहता। क्योंकि माया की उपाधि से ही तो ब्रह्म ईष्वर के पद तक उतारा जाता है। इस सूत्र की समस्त व्याख्या पढ़ जाइये और स्पश्ट हो जायगा। कि यह सृश्टि मात्र परमार्थतः सत्य है। स्वप्न ही माया है।

अब चैथे अध्याय के दूसरे, तीसरे तथा चैथे पाद को लीजिये। इनमें जीवनमुक्ति तथा मुक्ति का वर्णन है। अर्थात् मुक्त जीव का मुक्ति के पहले और उपरान्त क्या होता है।

यहाँ भी षं॰ स्वा॰ ने बिना सूत्रों के आधार के दो भाग कर दिये। एक वह आत्मा जो अपरब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुये। व्यास-सूत्रों से ऐसा गन्ध नहीं मिलता और न उपनिशदों के उद्धरणों मे ही ऐसा ज्ञात होता है। परब्रह्म का ज्ञान होना और अपरब्रह्म हो भी जाय परन्तु मुक्ति तो तभी होगी जब अविद्या हटेगी। अविद्या हटने पर अपरब्रह्म का ज्ञान होना और परब्रह्म का ज्ञान न होना क्या अर्थ रखता है।

दूसरे पाद के 12-14 सूत्रों में षं॰ स्वा॰ ने निरूपण किया है कि

न तदस्ति यदुक्तं  परब्रह्मविदोऽपि देहादस्त्युत्क्रान्तिरूत्क्रान्ति प्रतिशेधस्य देह्यपादानत्वात् इति।

(षां॰ भा॰ 4।2।13 पृश्ठ 484-485)

अर्थः-परब्रह्म को पहचानने वाले भी देह को छोड़ते है ऐसी बात नहीं। देही के साथ नहीं (षारीरात् न तु षरीरात्)। अतः देही से प्राणों की उत्क्रान्ति का निशेध है, (यतः षारीरादात्मन एश उत्क्रन्तिप्रतिशेधः प्राणानां षरीरात्-षां॰ भा॰ 4।2।12 पृश्ठ 484)

यह हुआ पूर्व पक्ष। इसका उत्तर देते हैंः-

देहापादानैव सा प्रतिशिद्धाभवति, देहादुत्क्रान्तिः प्राप्ता न देहिनः।

अर्थात् देह के साथ अपादान का भाव मान कर ही निशेध किया है।

न च ब्रह्मविदः सर्वगतब्रह्मात्मभूतस्य प्रक्षीणकामकर्मण उत्क्रान्तिर्गतिर्वोपपद्यते निमित्ताभावात्।

अर्थः-जो ब्रह्मज्ञानी हैं, जिनमें कामनायें नहीं रहतीं उनकी उत्क्रान्ति या गति का कोई कारण नहीं अतः उनकी उत्क्रान्ति नहीं होती।

यहाँ यह तो कहा जा सकता है कि ब्रह्मज्ञान इसी षरीर में हो सकता हे जिसको जीवन्मुक्ति कहते हैं, परन्तु यह कैसे हो सकता है कि षरीर से कभी वियोग न हो।

इसी प्रकार चैथे अध्याय के चैथे पाद के 7वें सूत्र में वादरायण का मत प्रदर्षित करते हुए श्री षं॰ स्वा॰ लिखते हैं।

एवमपि पारमार्थिकचैतन्यमात्रस्वरूपाभ्युपगमेऽपि व्यवहारपेक्षयापूर्व स्याप्युपन्यासादिभ्योऽवगतस्य ब्राह्मस्यैष्वर्यरूपस्या प्रत्याख्यानादविरोधं वादरायण आचार्यो मन्यते।

(षं॰ भा॰ 4।4।7 पृश्ठ 506)

यद्यपि यह मान लिया गया है कि आत्मा का स्वरूप पारमार्थिक रूप से चैतन्य मात्र है फिर भी व्यवहार की अपेक्षा से ब्रह्म सम्बन्धी ऐष्वर्य का भी खंडन नहीं किया। यह कोई विरोध नहीं हैं।

यहाँ ‘व्यवहारापेक्षा’ अपनी ओर से मिलानी पड़ी। न सूत्र मंें है न उपनिशद् के वाक्यों में।

परन्तु जब षं॰ स्वा॰ परब्रह्म और अपरब्रह्म मान चुके तो जहाँ कहीं उनके सिद्धान्तों से और सूत्रों या उपनिशद् के वाक्यों से मेल न खाता हो वहाँ एक ही उपाय है अर्थात् ‘व्यवहारापेक्षा’ ऐसा कह दिया जाय। उन सूत्रों के शांकर  भाश्य पर अन्य भाश्यकारों ने आपत्ति उठाई है। यद्यपि इस स्थान पर यह मीमांसा नहीं की जा सकती कि कौन भाश्यकार किस अंष तक ठीक है परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि षं॰ स्वा॰ का परब्रह्म और अपरब्रह्म दो भेद करना सबको खटकता है।

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