अदीना स्याम शरदः शतम्
-श्री गजानन्द आर्य, संरक्षक परोपकारिणी सभा
यह मंत्र का हिस्सा है, प्रसिद्ध मन्त्र इस प्रकार है-
ओम् तत् चक्षुःदेवहितं पुरस्तात् शुक्रं उच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं।
शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतं।
अदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।।
– यजु. 36/24
बचपन से इस मन्त्र को पढ़ता तथा बोलता आया हूँ। घर में बच्चों का जन्मदिन होता है तो इस मन्त्र के साथ उनको आशीर्वाद भी देते रहे हैं। इस मन्त्र में प्रार्थना है कि सौ वर्ष तक हमारे सभी अंग-प्रत्यंग स्वस्थ रहें। हम स्वस्थ और आत्म निर्भर जीवन बिता सकें।
जैसे-जैसे मेरी आयु बढ़ती गयी, मेरी शारीरिक अवस्था क्षीण होती चली गयी। शरीर को कई शल्य चिकित्साएँ भोगनी पड़ीं। हर ऑपरेशन शरीर में कुछ जटिलताएँ ठीक करता है, तो कुछ नयी समस्याएँ बढाता भी है। शरीर की सभी इन्द्रियाँ शिथिल होती चली गयीं। कानों से सुनना कम हो गया, आँखों से दिखना बंद-सा हो गया। या यह कहूँ कि मेरा लिखना-पढ़ना सब बंद हो गया। एक नया अनुभव हुआ। मुझे ऐसा लगता है कि जब तनुष्य का अपने बाह्य माध्यमों से विचारों का आदान-प्रदान कम हो जाता है, तब उसका आंतरिक चिंतन-मनन बढ़ने लगता है। उसका सपूर्ण मस्तिष्क विचारों के मंथन में लगा रहता है।
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 2011 की बात है। मैं उन दिनों बैंगलोर में था। बीमारियों के कारण जीवन के बहुत सारे उतार चढ़ाव देख लिए थे। जीवन की सबसे भयावह स्थिति वह थी, जब बीमारियों का शिकार मेरा मस्तिष्क हो गया। मेरी स्मृति प्रायः चली गयी। मेरी बातों का कोई आधार या तारतमय नहीं रहा। यहाँ तक कि मेरा व्यवहार भी मेरी आयु के अनुरूप नहीं रहा। ये सब बातें मुझे मालूम भी नहीं पड़ती, यदि मेरे पुनः ठीक हो जाने के बाद परिवार के सदस्य मुझे नहीं बताते। ईश्वर की कृपा से मैं मस्तिष्क में छाये उस अंधकार काल से बाहरनिकला। धीरे-धीरे मैं अपने पुराने बौद्धिक स्तर पर पहुँचा।
मानसिक द्वंद्व के उस दौर में उपरोक्त मंत्र ने मुझे बहुत उद्वेलित किया। जीवन की इस घटना ने मुझे हर बात को, हर मंत्र को दोबारा सोचने के लिए प्रेरित किया। उसी काल में मैं उपरोक्त मंत्र की व्याया को समझने की कोशिश में लग गया। शबदों के आधार पर मंत्र बहुत दुरूह नहीं है- पश्येम शरदः शतं। यानी हम सौ वर्षों तक देखें, जीवेम शरदः शतं यानी सौ वर्ष तक जीवित रहे, शृणुयाम शरदः शतं अर्थात् सौ वर्षों तक सुनने की शक्ति रहे; प्रब्रवाम शरदः शतं यानी सौ वर्ष तक बोलने की शक्ति बनी रहे; अदीनाः स्याम शरदः शतं यानी सौ वर्षों तक हम अदीन भाव से जिएँ। हमारे अंदर दीनता न हो; हमारे अंदर अधीनता न हो। यहाँ आकर मेरे चिंतन की सुई अटक गई । यह कैसे संभव है कि सौ वर्षों की आयु में कोई क्षीणता न हो; दीनता न हो? सौ वर्षों की आयु पाने वाला मनुष्य निश्चित रूप से परिजनों के सहयोग से ही जीवित रह सकता है। जब मानव जीवन की अवधि सौ वर्ष की है, तो क्या मृत्यु के समय तक कोई व्यक्ति बिना दीनता के रह सकता है? मुझे ऐसा लगने लगा कि इस मंत्र में ऋषियों का आशय यह नहीं रहा होगा। निश्चित रूप से ईश्वर की प्रार्थना में कहीं कोई गहरी बात छुपी हुई है। मेरा यह प्रश्न मेरे मस्तिष्क में बार-बार आता रहा।
एक बार बैंगलोर में मुझसे मिलने के लिए कई मित्र और विद्वत्गण मेरे निवास स्थान पर आए। मैंने अपना प्रश्न एक विद्वान् मित्र के सामने रखा। मैंने कहा- मुझे मंत्र के इस खंड में कोई छुपी हुई बात लगती है; मुझे ऐसा लगता है कि इसमें ‘अदीना’ शबद शारीरिक दीनता के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है, बल्कि इसमें हमारे अंदर छिपे हुए किसी खजाने की तरफ इंगित है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता? विद्वान् मित्र ने मेरी बात को गमभीरता से नहीं लिया, उन्होंने कहा-मंत्र बहुत स्पष्ट है। इसमें किसी दूसरे अर्थ की कोई गुंजाइश नहीं है। फिर उन्होंने विनोद में मुझसे कहा कि आप चाहें तो अपने खजाने को खोजते रहिए।
विद्वान् मित्र ने शायद बहुत ही सहज भाव से, विनोद में मुझे उत्तर दिया था, फिर भी न जाने क्यों मुझे उनका विनोद मेरी गंभीरता के प्रति एक उपहास का भाव लगा। यह बात मन में कहीं खल गयी। मुझे लगा कि भले ही मैं उनके जैसा विद्वान् नहीं हूँ, फिर भी उन्हें मेरे 80 वर्ष के स्वाध्यायी जीवन को थोड़ा बहुत महत्त्व देना चाहिए था। इन सब बातों में संभवतः विद्वान् मित्र की तरफ से कुछ गलत नहीं हुआ था, लेकिन मुझे अपने प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाने के कारण मेरे मन में यह खिन्नता आई थी। इसके बाद मैंने किसी विद्वान् से अपने प्रश्न का उत्तर नहीं माँगा।
जैसे बुझी हुई आग के ऊपर भले ही राख की परतें पड़ जाती हैं, लेकिन उसके नीचे की सतह पर अग्नि बनी रहती है, उसी तरह सतही रूप से भले ही मैंने अपनी जिज्ञासा को अपने मन में कहीं दफना दिया था, लेकिन मेरा प्रश्न मेरे मस्तिष्क के अंदर कहीं कुलबुला रहा था। अब मैं 86 वर्ष का हो गया हूँ, शारीरिक अक्षमता 2011 के बनिस्बत और अधिक बढ़ी है। देखना एक आँख में सिर्फ 10 प्रतिशत बचा है, उसी तरह सुनना भी सिर्फ एक कान में उतना ही बचा है। चलने-फिरने के लिए सहारा लेना पड़ता है, फिर भी मस्तिष्क का चिंतन-मनन कम नहीं हुआ, शायद और अधिक बढ़ गया है। अंतर इतना है कि पहले मैं अपने विचारों को लिख दिया करता था, अब वह भी संभव नहीं रहा।
मेरा पुराना प्रश्न मेरे मस्तिष्क पर फिर हावी हो गया। मैंने बेटे महेन्द्र से फोन पर बात की। मैंने उससे कहा- देखो मेरे दिमाग में कुछ बातें हैं, जिन्हें मैं लिखवाना चाहता हूँ। क्या तुम कोई ऐसी व्यवस्था कर सकते हो कि कोई मेरे पास बैठक र मेरी बातों को सुने और फिर उन बातों को लिपिबद्ध कर दे? महेन्द्र ने कहा- मैं कुछ दिनों के लिए आपके पास आ जाता हूँ, आप अपनी सारी बातें मुझे कह दें, ताकि मैं उन्हें लिख सकूँ। महेंद्र कलकत्ता आ गया। अपने साथ एक नोट-बुक भी लाया है, जिसमें वह मेरी बातें लिखना चाहता है। हमारी पहली ही बैठक में उसने कहा-पिताजी आपके मन में विचारों का प्रवाह इतना तेज चल रहा है कि आपके बोलने की गति के साथ मेरा लिख पाना संभव नहीं है। फिर उसने एक तरकीब निकाली, उसने कहा कि उसके स्मार्टफोन में आवाज रिकॉर्ड करने का यंत्र है, इसलिए मैं अपनी बात धारा प्रवाह बोल सकता हूँ और वह बाद में उनको सुन-सुनकर लिख लेगा। महेन्द्र की तरकीब काम आ गई। उसने 30 मिनट में मेरा धारा प्रवाह भाषण रिकॉर्ड किया। उसके चार दिनों के प्रवास में मैं बार-बार उसे कुछ छुटी हुई बातें फिर बताता रहा, लेकिन अब उसे बार-बार रिकॉर्ड करने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि वह मेरा मुखय आशय समझ गया था।
संध्या का एक मंत्र है जिसमें शरीर के सभी अंगों के लिए प्रार्थना की गई है-
ओं भू्ः पुनातु शिरसि, ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः ओं स्वः पुनातु कण्ठे, ओं महः पुनातु हृदये,
ओं जनः पुनातु नायां, ओं तपः पुनातु पादयोः, ओं सत्यं पुनातु पुनः शिरसि, ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र।
सिर, नेत्र, कंठ, हृदय, नाभि, पैर और पुनः सिर की चर्चा-इन अंगों के स्वस्थ रहने के लिए प्रार्थना की गयी है, लेकिन मेरी चर्चा के विषय में इनमें से आते हैं सिर्फ नेत्र, नासिका, मुँह और सिर। शरीर के किसी हिस्से में ईश्वर ने हमें कोई ऐसा खजाना दिया है, जिसकी रक्षा की प्रार्थना अदीनाः स्याम शरदः शतं में करते हैं।
ईश्वर ने विशेष ताकतें हर प्राणी को दी हैं। मनुष्य को सबसे अधिक दी हैं। जब मैंने प्राणियों के बारे में सूक्ष्मता से विचार करना शुरू किया तो मुझे बहुत ही दिलचस्प उदाहरण मिले। कभी आपने सोचा है कि अगर आप किसी मिठाई का छोटा-सा कण भूमि पर गिरा दें तो किस प्रकार चीटियों की कतार वहाँ पहुँच जाती हैं? न जाने कितनी दूर होती हैं वे चीटियाँ, लेकिन उन्हें इस मिठास का आभास कहीं से भी हो जाता है और फिर वे सही दिशा में चल पड़ती हैं। अगर हम उनके शरीर की बनावट को मनुष्य के समकक्ष तुलना करें तो मनुष्य का आकार उनसे लाखों गुना बड़ा होता है। इसका मतलब यह है कि वह जितनी दूरी अपने नन्हें-नन्हें पाँवों से चलकर आती है, वह दूरी मनुष्य के पाँव के आकार के अनुपात में शायद कई मीलों का सफर होगा। चींटी को ऐसी घ्राण शक्ति ईश्वर ने प्रदान की है।
बकरी के नवजात बच्चे को अगर पानी के तालाब में फें क दिया जाए तो वह डूबता नहीं। वह हाथ-पैर मार कर थोड़ी देर में तैरना सीख जाता है और किनारे तक पहुँच जाता है। गाय का बछड़ा जन्म लेने के साथ अपनी माँ को पहचानने लगता है, गायों के झुंड में वह अपनी माँ तक अपने-आप पहुँच जाता है।
इसी प्रकार प्रत्येक जीव के पास ईश्वर प्रदत्त कोई न कोई विशेष शक्ति होती है। पक्षियों की एक प्रजाति है जो एशिया के उत्तर भाग में- जिसे साइबेरिया भी कहते हैं, वहाँ पाई जाती है। वह भूभाग अत्यंत ठंडा है, लेकिन साल के कुछ महीनों में जब ठंड बहुत अधिक बढ़ने वाली होती है, तो वे पंछी झुंड के झुंड बनाकर उड़ते-उड़ते दक्षिण एशिया तक पहुँच जाते हैं। भारत में भी ये पक्षी मेहमान के रूप में आते हें, फिर अपनी नैसर्गिक समय सीमा पूरी करके स्वदेश लौट जाते हैं। जब जीव-जंतुओं के पास ऐसी दैवीय शक्तियाँ होती हैं तो क्या मनुष्य के पास ऐसी शक्तियों का भंडार नहीं होगा? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए मैंने उन मनुष्यों के बारे में सोचना शुरू किया जो अपना बहुमूल्य खजाना खो चुके थे।
मेरे गाँव में एक प्रौढ़ व्यक्ति थे। बहुत समझदार माने जाते थे। एक बार अचानक उनके मस्तिष्क में कोई बहुत बड़ी विकृति हो गयीा वह अपनी समझ पूरी तरह से खो बैठे। कपड़े उतार कर फेंक दिए, नग्न घूमते रहे। कहीं भी शौच कर दिया, कहीं भी मूत्र त्याग कर दिया। लोक-लाज से उनका कोई संबंध नहीं रहा। घरवालों ने परेशान होकर उन्हें जंजीरों से बाँधकर घर में कै द कर दिया। वहाँ भी उनकी हरकतें असह्य हो गईं। आखिरकार उन्हें एक पागलखाने में भेजा गया।
एक अन्य उदाहरण हमारे ही एक रिश्तेदार का याद आता है। एक बार अचेत होकर गिर गए। पता चला, उन्हें बहुत गंभीर पक्षाघात हो गया है। उनका पूरा शरीर शिथिल हो गया, साँसों का आना-जाना चलता रहा, लेकिन मुँह से बोलना संभव नहीं रहा। आँखें अपलक देखती रहीं। घर के लोग अपनी इच्छा अनुसार उनके मुँह में कुछ भोजन डाल देते। इस अवस्था में उनका जीवन कई वर्षों तक चला। शायद उनका भी वह खजाना चला गया था, ईश्वर की दी गई शक्ति चली गई थी।
एक और उदाहरण हमारे देश के पूर्व रक्षामंत्री जसवंत सिंह का है, जिनके साथ भी ऐसा ही हुआ। इसी प्रकार एक दिन वे भी ऐसी ही दशा में चले गए। जो व्यक्ति पूरे देश की रक्षा के लिए सक्षम था, वह अपने शरीर की रक्षा करने के काबिल भी नहीं रहा।
देश के सबसे लोकप्रिय और समझदार प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जिनका 6 दशकों का राजनैतिक जीवनएक मिसाल माना जाता रहा है, एक दिन पक्षाघात के फलस्वरूप इसी प्रकार की स्थिति में पहुँच गए। आज भी जीवित हैं, लेकिन उनके साथ किसी प्रकार का संवाद संभव नहीं। इन सभी उदाहरणाों से मुझे ऐसा अनुभव होता है, जैसे सौ वर्ष की आयु होना ही पर्याप्त नहीं है। इतनी आयु तक पहुँचते-पहुँचते शारीरिक दुर्बलता तो आएगी ही। जीवन को चलाने के लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी ही, लेकिन शरीर होकर भी व्यक्ति का अपने कार्य स्वयं करने के योग्य न होना- यह कोई शतायु नहीं है। कम से कम मुझे तो ऐसी शतायु नहीं चाहिए।
ऐसी अवस्था में व्यक्ति या तो घरवालों पर बोझ बना रहता है या फिर घर के लोग किसी समय ऐसे व्यक्ति को पागलखाने में छोड़ आते हैं। अस्पताल भी ऐसे व्यक्तियों को लंबे समय तक नहीं रखना चाहता। इसी तरह शरीर की एक और स्थिति होती है, जिसे अंग्रेजी में कोमा कहते हैं। कोमा की स्थिति में पूरा शरीर चेतना शून्य हो जाता है, लेकिन साँस चलती रहती है। ऐसे व्यक्ति को जीवित रखने के लिए नलियों द्वारा कुछ भोजन शरीर में दिया जाता है। व्यक्ति एक शव की तरह पड़ा रहता है, लेकिन उसमें श्वास का आवागमन होता रहता है। यह सबसे बुरी दशा है। परिवार के लोग उसके ठीक होने की प्रतीक्षा में उसका पालन करते रहते हैं। कितने ही उदाहरण देखे गए हैं, जिसमें व्यक्ति को वर्षों तक इसी अवस्था में जीवित रहना पड़ता है। ऐसे लोगों को मेडिकल साइंस में क्लीनिकली डेड कहा जाता है, यानी कि चिकित्सा की दृष्टि से मृत। ये सारी स्थितियाँ इंगित करती हैं उन अवस्थाओं की तरफ जिनके न होने की इच्छा व्यक्त की गई है मंत्र के इस खंड में-अदीनाः स्याम शरदः शतम् प्रार्थना है।
शेष भाग अगले अंक में…..
Good explanation of Mantra & experience.
Very thankful to you Sir for explaining correct meanings by personal experiences. We pray to Almighty to grant all the wishes of the shrolok to all of us.
please send remaining part of the narration
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् । पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ॥