आत्मा का स्थान-3
– स्वामी आत्मानन्द
चरक सुश्रुत आदि आयुर्वेद के सिद्धान्त ग्रन्थों में आत्मा का तथा उस के निवास स्थान का वर्णन नहीं किया गया। उन्हें उस के वर्णन की आवश्यकता भी न थी, क्योंकि आत्मा की चिकित्सा उन के शास्त्रों का विषय नहीं। आत्मा की चिकित्सा तो अध्यात्म शास्त्रों का विषय है। इन शास्त्रकारों ने चेतना का वर्णन अवश्य किया है। क्योंकि चेतना की वृद्धि तथा रक्षा के उपाय बतलाना और उस के विकृत हो जाने पर उस से उत्पन्न हुए प्रमाद आदि रोगों की चिकित्सा करना उनके शास्त्रों का विषय है।
अपनी अयुगत इस चेतना की सत्ता वे सारे ही शरीर में मानते हैं। क्योंकि शरीर में जितने आयन्तर अथवा बाह्य कार्य हो रहे हैं वे सब चेतना के प्रताप से ही हो रहे हैं ऐसा वे मानते हैं।
परन्तु हृदय का वर्णन करते समय इन आचायरें ने भी लिखा है ‘‘चेतना स्थानमुत्तमम्’’ (यह चेतना का उत्तम स्थान है)। यद्यपि ये आचार्य सारे शरीर को ही चेतना का स्थान मानते हैं परन्तु फिर भी इन का हृदय को चेतना का मुय स्थान मानना एक विशेष लक्ष्य की ओर ध्यान को आकर्षित करता है। इस से यह ध्वनित होता है कि चेतना का प्रधान आधार आत्मा है, और मुखय रूप से चेतना का स्थान वह ही होना चाहिये जहाँ आत्मा रहता हो। इसप्रकार इन ग्रन्थकारों ने हृदय को चेतना का मुखय स्थान कह कर प्रकारान्तर से हृदय को आत्मा का स्थान मान लिया है।
आयुर्वेद के एक संहिताकार आचार्य भेल ने चेतना का मुखय स्थान मस्तिष्क को माना है। उन का मन्तव्य है कि प्रमाद रोग मस्तिष्क का रोग है। इस रोग में चेतना ही दूषित होती है। यदि चेतना मुखय रूप से मस्तिष्क में न रहती हो तो मस्तिष्क के तन्तुओं में होने वाला प्रमाद चेतना को दूषित कर मनुष्य को पागल नहीं बना सकता।
उन के इस मन्तव्य की और आचार्यों के साथ इस प्रकार सङ्गति लग सकती है कि चेतना के एक साधन बुद्धि का निवास स्थान हमारा मस्तिष्क है। बुद्धि के विकार का नाम ही प्रमाद रोग है। क्योंकि मनुष्य के सब ही निर्णयों में बुद्धि का प्रधान भाग रहता है। और पागल हो जाने पर उस का कोई निर्णय भी व्यवस्थित नहीं रहता। अतः समभव है उन्होंने चेतना के मुखय साधन बुद्धि के मस्तिष्क में निवास को ही वहाँ चेतना का मुखय निवास कहा है और साधारणतया वे भी हृदय को ही चेतना का मुखय स्थान मानते हों।
हम पहिले लिख आये हैं कि उपनिषद्कार ऋषियों ने आत्मा का स्थान हृदय कहा है ‘‘वह हृदय हमारे शरीर में कहाँ है’’ इस विषय का स्पष्टीकरण हम आगे के प्रसङ्ग में उपनिषदों के आधार पर ही करेंगे उपनिषदों में हृदय शबद बहुधा शरीर के किसी विशेष स्थान के अर्थ में ही आता है। परन्तु उपनिषदों में ही कतिपय स्थानों में यह शबद, मन और चित्त के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है।
उपनिषदों के उन प्रसङ्गों का हम पहिले उल्लेख करेंगे जहाँ यह शबद मन के अर्थों में आया है।
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते।।
कठ 6/14
(जब ये कामनाएँ छूट जाती हैं जो इसके हृदय में वर्तमान हैं, उस समय मनुष्य अमर हो जाता है, और यहाँ ही ब्रह्मानन्द का उपयोग करने लग जाता है, जीवनमुक्त हो जाता है।)
यहाँ हृदय शबद मन का वाचक है, आत्मा अथवा मन के आश्रय, किसी स्थान विशेष का वाचक नहीं क्योंकि कामनाओं का आश्रय मन है न कि कोई स्थान विशेष। इसी प्रकार
यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम््।।
कठ. 6/15
(जब वे सब गांठे खुल जाती हैं जो इस के हृदय में हैं, फिर मनुष्य अमर हो जाता है, यह इतना ही उपदेश है।)
यहाँ संस्कारों तथा अविद्या की गांठे मन के ही एक भाग चित्त में हैं, शरीर के किसी स्थान विशेष मे नहीं अतः यहाँ हृदय शबद चित्त का वाचक है। बृहदारण्यक के निम्न प्रसङ्ग से यह विषय और भी स्पष्ट हो जाता है।
कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धाधृतिरधृति र्हेर्धी र्भीरित्ये तत्सर्वं मन एव।
(कामनाएँ, सङ्कल्प, सँशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, अधीरता, लज्जा, बुद्धि, भय यह सब मन ही है)
यहाँ कामनाएँ और सशंय आदि अविद्या की ग्रन्थियाँ सब मन के ही धर्म कहे हैं। किसी हृदय नामक स्थान विशेष को इन का आधार नहीं माना।
इसी प्रकार कोषकार अमरसिंह ने भी हृदय को मन का वाचक स्वीकार किया है।
‘‘चित्तन्तु चेतो हृदयं स्वान्त हृन्मानसं मनः’’
(चित्त, चेतस् हृदय, स्वान्त, हृत् मानस और मन ये सब एकार्थक हैं)
इन प्रसङ्गों से स्पष्ट है कि हृदय शबद मन के अर्थों में भी आता है इस के अतिरिक्त उपनिषदों में हृदय शबद शरीर के एक प्रदेश अर्थ में भी आता है। और वह प्रदेश ही आत्मा का निवास स्थान माना जाता है। हमारे शरीर में वे प्रदेश दो हैं । उन में से एक हमारी छाती के बाएं भागों में स्तन के नीचे है। और दूसरा शिर में ब्रह्मरन्ध्र में । इन दोनों हृदयों का परिचय हम पाठकों को उपनिषत्कार महर्षियों की समतियों के आधार पर ही देंगे। पहिले हम छाती के वाम वाले हृदय का साधक प्रमाण उपस्थित करते हैं।
‘‘अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाऽक्षिणी प्राविद्दिशः श्रोतं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चन्दमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन्’’।
ऐतरेय 1/2/4
(अग्नि वाणी बन कर मुख में प्रविष्ट हो गया। वायु प्राण बन नासिका में प्रविष्ट हो गया। आदित्य चक्षु बन कर नेत्रों में प्रविष्ट हो गया। दिशाएँ श्रोत्र बन कर कानों में प्रविष्ट हो गई। औषधि वनस्पतियाँ रोम बन कर त्वचा में प्रविष्ट हो गई। चन्द्रमा मन बन कर हृदय में प्रविष्ट हो गया। मृत्यु अपान बन कर नाभि में प्रविष्ट हो गया। जल वीर्य बन कर जननेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गया)
यहाँ इस प्रसङ्ग में शरीर-रचना की प्रक्रिया चल रही है। शरीर में इन्द्रियों के प्रवेश तथा उन के उपादान कारणों का उल्लेख किया जा रहा। आरमभ में वाणी का मुख में, प्राण का नासिका में, चक्षु का नेत्रों में श्रोत्र का कानों में रोम अथवा त्वच इन्द्रिय का त्वचा में प्रवेश दिखला कर फिर मन हृदय में प्रवेश दिखलाया गया है। और इस के अनन्तर फिर अपान का नाभि में और वीर्य का जननेन्द्रिय में प्रवेश कहा गया है। इस प्रकार यहाँ ऊपर मुख से लेकर नीचे के क्रमिक स्थानों में इन्द्रियों के प्रवेश का वर्णन है । इस प्रसङ्ग में अपान के नाभि में प्रवेश से प्रथम मन के हृदय में प्रवेश का उल्लेख है। हमारी नाभि से ऊपर के भाग में वह ही स्थान है जो हमारे स्तन के नीचे वाम भाग में है। इसलिये मन के प्रवेश के लिए यहाँ इसी शरीर के भाग को हृदय नाम से कहा गया है। अतः यह सिद्ध है कि मन का निवास इस हृदय में है। कभी इन्द्रियों का अधिष्ठाता यक्षमन इस हृदय में रहता है इस का विस्तार से वर्णन ‘‘मनो विज्ञान तथा शिव संङ्कल्प’’ में पढ़िये।
हमारा हृदय हमारे शिर में है उस के लिये भी हम उपनिषद् से ही प्रमाण उद्धृत करते हैं।
क्रमश…….