वेद कहता है कि पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थ विद्या का ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य है। पदार्थ विज्ञान के ज्ञाता इधर-उधर नहीं घूमते। पदार्थ विज्ञान से विद्या की वृद्धि-शुभकर्मों में प्रवृत्ति तथा निरन्तर सुख एंव ऐश्वर्यानन्द की प्राप्ति होती है १ ४/३ ऋक्।।
मनुष्यों को चाहिये वे भू-जल-सूर्य-पवन -विद्युत् आदि पदार्थों के विशेष ज्ञान से शिल्प विद्या द्वारा उत्तम-उत्तम क्रियाएं प्रकाश में लाएं और उनका प्रयोग करें १ १/२ ऋक्।।
इसीलिए विद्वानों को पदार्थ विद्या की खोज करनी चाहिए ५ २२/३ ऋक्।।
वेद यह भी कहता है कि सूर्यरूप पदार्थ विद्या के ज्ञाता सदा श्रीमान् व सुखी होते हैं ५ ४५/२ ऋक्।। सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुः- सूर्य जगत् का एकमात्र चक्षु है १३ १/४५ अथर्व. ।। सूर्यो वै सर्वेषां देवानात्मा- सूर्य सब देवों की आत्मा है शत. १४-३-२-९।। युवा कविः तिग्मेन ज्योतिषा विभाति- यह सदा तरूण रहता है- इसका तेज प्रखर है १३ १/११ अथर्व. ।। ‘‘इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरूत्तम विश्वजित्- सूर्य संसार की श्रेष्ठतम-पवित्र-विश्व-विजेता -सभी दिव्य तेजों की ज्योति है- उषः काल में यज्ञ कराने वाली दीप्ति है १० १७०/३ ऋक्।।’’ अतन्द्रः यास्यन् हिरतः यदा आस्थात्-यह आलस्य न करने वाला दीर्घव्रत का पालन करने वाला है १३ २/२२ अथर्व.।।
सूर्यः आत्मा जगतस्तरथुषश्व- सूर्य स्थावर और जंगम पदार्थों का जीवन है १३ २/३४ अथर्व.।। उत्तम किरणों वाला-निर्भय-उग्र एवं अलौकिक तेज का भण्डार-द्युलोक वासी है १९ ६५/१ अथर्व.।। अदृशत्रस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा- सूर्य की किरणें दहकते हुए अंगारों के समान दिखाई देती हैं साम. ६३४।। सूर्य राष्ट्र का भरण-पोषण करने वाला है १३ १/३४ अथर्व.।। इसमें बढ़ाने की शक्ति है १३ १/२२ अथर्व.।। इससे ही जगत् को सुन्दर रूप मिला है तथा राष्ट्र को घी-दूध से भरपूर करता है १३ १/८ अथर्व.।। सूर्य को कोई लांघ नहीं सकता है १० ६२/९ ऋक्।। शरीर में प्राण-अपान को जोड़ने वाला भी सूर्य ही है १० २७/२० ऋक्।।
पृथिवी पर द्युलोक का प्राण सूर्य किरणों द्वारा ही आता है। अन्तरिक्ष का प्राण वृष्टि द्वारा पृथिवी पर पहुंचता है वृष्टि का कारण सूर्य ही है ११-४ अथर्व.।। सूर्य ही दृढ़ता व आर्यत्व का प्रतीक है सविता इव आर्यः च ध्रुवः तिष्ठसि १९ ४६/४ अथर्व।। इसी हेतु प्रलयावस्था में परमात्मा ने ईक्षण (तप) किया तो सर्वप्रथम सूर्यलोक को ही बनाया। सः इमालोकानसृजत। अम्भोमरीचीमरमापो। अर्थात् ईश्वार ने अम्भस्-मरीची-मर और आप-इन (४) लोकों को रचा-ऐतरेयोपनिषद् प्रथमखण्ड।। सूर्य अपनी किरणों से जलों को खींचता है इसलिए वही अम्भस् है। मरीचि=किरणों को कहते हैं उनका आना जाना आकाश द्वारा ही होता है इसलिए मरीचि से अन्तरिक्ष अभिप्रेत है। मर-मरणधर्मा प्राणियों के रहने से ‘‘मर” नाम पृथिवी का है। आपः-नीचे की ओर बहने की प्रवृत्ति होने से जल को पृथिवी के नीचे होने की बात कही गई है। पृथिवी और सूर्य के मध्य में अन्तरिक्ष का होना स्वाभाविक है।
तैत्तिरीयोपनिषद् की ब्रह्मानन्द वली प्रथमाध्याय के छठे अनुवाक में सूर्य को अनिलयन (निराश्रित) तथान्यग्रहों को निलयन (आश्रित) कहा है। सूर्य को किसी अन्य ग्रह के आधार की अपेक्षा नहीं है क्योंकि वह अनिलयन है। चन्द्रादिक-पृथिवी आदि दूसरे ग्रह सूर्य के आधार व आकर्षण से ही अन्तरिक्ष में ठहरे हुए हैं इसलिए वे निलयन कहे गये हैं।
ईश्वर ने ही अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्यादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं- इनमें सूर्य मुख्य है क्योंकि इसके धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं १ ६/७ ऋक्।। ततो विराडजायत विराजोऽधिपूरूषः साम. ६२२ वें मंत्र में भी सौरमण्डल के जन्म वर्णन में पृथिवी-सूर्य-मंगल-बुध-बृहस्पति आदि की उत्पत्ति प्रभु के अधिष्ठातृत्व में ही सम्पन्न हुई। अयं विश्वानि तिष्ठति पुनानो भुवनोपरि। सोमो देवो न सूर्यः-निर्दोष किरणों वाला सूर्य सौरमण्डल का अधिष्ठाता है साम. ७५७।। यह सब लोकों से बड़ा है ३ २/१४ ऋक्।। आज के वैज्ञानिक सूर्य का व्यास १,३९,९६० कि.मी. बताते हैं। यह प्रकाशमान सूर्य ब्रह्माण्ड के मध्य में विराजित है, इसके चारों ओर बहुत भूगोल सम्बन्धयुक्त हैं। पृथ्वी और चन्द्रमा एक साथ चारों ओर घूमते हैं ४ ४५/१ ऋक्।। यह अपने चक्र को छोड़कर इधर-उधर नहीं जाता है, अपनी कक्षा में स्थिर रहता है इसी के आधार से पृथिवी आदि लोक सूर्य के चारों तरफ लगाते हैं २ २७/११ ऋक्।। यह अपनी परिधि में स्थिर व दिखाने वाला न हो तो तुल्य आकर्षण तथा किसी को कुछ भी देखना न बने २ ४१/१० ऋक्।। बण्महाँ असि सूर्यः बडादित्य महाँ असि। महस्ते सतो महिमा पनिष्टम मन्हा देव महाँ असि-सूर्यमहान् है, परिणाम में महान् है क्योंकि उसकी परिधि ८ कोस की लम्बाई से अधिक है। कर्म में भी महान् है क्योंकि सब ग्रहों-उपग्रहों का प्रकाशक और जीवनाधार है। गुरूत्वाकर्षण में भी महान् है क्योंकि सब आकाशीय पिण्डों को अपने आकर्षण से धारण किये हुए है। ज्योति में महान् है क्योंकि ज्योति का पुंज है साम, १७८८, १७८९+अथर्व १३ २/२९।। सूर्यलोक प्रकाशलोक है, पृथिवी प्रकाशरहित लोक है, तीसरा परमाणु आदि अदृश्य जगत्, इन्हें आकाश में स्थापित किया है ५-१५ यजु.।।
सूर्यलोक समुद्र में भी प्रकाशता है १३२/३० अथर्व।। इसकी सुषुम्णा नामक रश्मियाँ चन्द्रमा में प्रकाश धारण कराने वाली हैं साम १४७+यजु. १८-४०।। सूर्य ईश्वर की भी आंख है इसी के द्वारा वह ब्रह्माण्ड को देखता रहता है १० ७/३३ अथर्व।। द्युलोक में अग्नि से उत्पन्न होने वाली ‘नवग्व और दशग्व’ नामक अग्नि की लहरें समस्त किरणों के साथ रहकर उन्हें शक्ति प्रदान करती हैं। ये अग्नि की शक्तियां अथवा आग्नेय आगार द्युलोक में सूर्य सृष्टि नियमानुसार स्थापित करते हैं। सब भूतों की माता पृथिवी को फैलाते हैं। ये यज्ञीय हवि को भी ग्रहण करते है १० ६२/३६ ऋक्।। इसलिए आग्नेय पदार्थों का मुख्य केन्द्र सूर्य को माना है। अपनी पृथिवी पर जो भौतिक अग्नि है वह सूर्य का पोता है। विद्युत्सूर्य का पुत्र है क्योंकि सूर्य की उष्णता से मेघमण्डल में विद्युत् बनती है, यह विद्युत् सूखे घास पर या वृक्ष पर गिरकर अग्नि उत्पन्न करती है। अतः यह अग्नि का ही अंश है। अग्नि तत्व में जो उष्णता है, वह सूर्य के ही सम्बन्ध से है। वृक्षादि में उष्णता सूर्य किरणों से ही तो प्राप्त है इसलिए सब आग्नेय पदार्थ सूर्य के ही विभिन्न रूप हैं। सूर्य के अतिरिक्त कोई भिन्न पदार्थ नहीं है जो उष्णता दे सके। सूर्य ही रूपान्तरित होकर अग्नि और विद्युत है। एक ही सूर्य ३ रूपों में दिखाई देता है-सः एव सविता.। सोऽअग्निः। सः इन्द्रः ४ २/५ अथर्व।। अग्नि-विद्युत्-आदि विभिन्न देव सूर्य के ही एक रूप होकर रहते हैं सर्वे देवा अस्मिन् एकवृत्तो भवन्ति १३ ५/२१ अथर्व।।
सूर्य कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है उसी के साथ चन्द्रमा-ग्रह-नक्षत्र-दिनरात-ऋतु-संवत्सर सभी मर्यादा पर चल रहे हैं। इन सबको मर्यादित करने वाला सूर्य ही है १३ २/४-५ अथर्व।। इसका मुख सर्वत्र है, वैसे ही इसके हाथ-पांव और भुजाएं सर्वत्र हैं। सबका पोषक यही एक देव पृथिवी से द्युलोक तक के सब पदार्थमात्र का उत्पत्तिकर्ता है १३ २/२६ अथर्व।। यह दुःखी मनुष्य का मार्गदर्शक है- सामथ्र्यशाली है। सुख का मार्ग बताता है। पृथिवीपालक है १३ ३/४४ अथर्व।। सूर्य लोक के समान कोई दूसरा श्रेष्ठ लोक नहीं है क्योंकि सूर्य की ही कृपा से चोर-डाकू अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो जाते हैं। इसे पाकर प्राणिजगत निशक-निडर होकर सुख का अनुभव करते हैं तथा प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने व्यापार में लग जाते हैं ४-३५, ३६ यजु.।।
सूर्य अपनी आकर्षण शक्ति से पृथिवी आदि लोक लोकान्तरों को धारण किये है १२-२१ यजु.।। सः वरूणः सायं अग्निः भवति, सः इन्द्रः भूत्वा मध्यतः दिवं तपति। वह वरूण है सायंकाल में अग्नि, प्रातः उदय होने के समय सबका मित्र, सविता बनकर अन्तरिक्ष में भी संचार करता हुआ-इन्द्र होकर द्युलोक के मध्य में तपता है १३ ३/१३ अथर्व, सूर्य के रूद्र-इन्द्र-चन्द्र-महेन्द्र-सविता-आदित्य-धाता-विधाता-पतग-अर्यमा-वरूण-यम-महायम-देव-महादेव-एक-एकवृत्त-रोहित-सुपर्ण-अरूण-केशी-हरिकेश-सप्ताश्रव्-सप्तरश्मि आदि नाम गिनाये है अथर्व काण्ड १३।। श्रीमद्भागवत में भी प्रातः काल के सूर्य का नाम ब्रह्मा, मध्याह्न के सूर्य का नाम विष्णु और रात्री के समय का नाम शिव कहकर त्रिमूर्ति को सूर्य में ही बताया है। सूर्य की महान् शक्ति का वर्णन ‘‘अन्तश्रव्रति रोचनास्यं प्राणदयानती व्यख्यन्महिषो दिवम्’’ अर्थात् सूर्य की रोचमान दीप्ति से शरीरों में प्राणवायु के ऊपर-नीचे-आने-जाने आदि का व्यवहार होता है १० १८९/२ ऋक्।। सूर्य में तप-हर-अर्चि-शोचि एवं तेज जो क्रमशः प्रतापशक्ति-नाशशक्ति-दीपनशक्ति-शोधनशक्ति व तेजनशक्ति के नाम से पुकारी जाती है काण्ड-२ अथर्व।। सूर्य ही काल है समय है क्योंकि दिन-रात उसी से होते हैं १३ १/२२ अथर्व।। सूर्य जिस समय जिस भूभाग के सम्मुख होता है वहाँ दिन होता है दूसरे भूभाग में रात्रि होती है १३ ३/४३ अथर्व।।
योगीजन मरण से ऊपर उठकर सूर्य की तेजोमय रश्मियों पर आरूढ़ होकर जाते हैं और अमृतमय मोक्षधाम को प्राप्त हो जाते हैं साम. ९२।। मुण्डकोपनिषद् में भी ‘सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति’- अर्थात् सूर्य की किरणें उन्हें अमर-अविनाशी पुरूष के पास ले जाती हैं १-२-११।।
इसी सूर्य की एक प्रकार की किरणें ‘‘आपः” नामकी हैं जिनमें जलीय तत्वों का समूह वेग से चमकता है १० ४३/४ ऋक्-जल रस को पीकर मेघ के अंकरूप जल बिन्दुओं को बरसा कर सब औषधि आदि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती हैं, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं क्योंकि सूर्य क्षण-क्षण में जल को ऊपर खींचकर संसार में बरसाता है इसी से यह वर्षा का कारण है १ ६/१० ऋक्।। यह अपनी कक्षा में स्थिर रहता हुआ, अपने समीप के लोकों को चुम्बक-पत्थर और लोहे के समान खींचने को समर्थ रहता है २ ७/६८ ऋक्।। इसी से समय के विभाग उत्तरायण-दक्षिणायन तथा ऋतु-मास-पक्ष-दिन-घड़ी और पल आदि हो जाते हैं १ ११/५ ऋक्।। रात्रि में ग्रह-नक्षत्र-चन्द्रादि लोक इनमें अपना प्रकाश नहीं है-ये सूर्य के प्रकाश से प्रकाशमान होते हैं। न ये कहीं जाते हैं किन्तु ढके हुए दीखते नहीं हैं। रात्रि में सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होकर दीखते हैं १ २४/१० ऋक्।।
सूर्य की ऊपरी अथवा बीच की किरणों मेघ की निमित्त हैं उनमें जो जल के परमाणु रहते हैं वे अति सूक्ष्मता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते हैं १ २४/७ ऋक्।। यह अग्निमय सूर्य लोक अपने स्वाभाविक गुणों से वर्षा की उत्पत्ति के निमित्त काम दिनरात करता है। और जगत् को जीवन देता है सूर्य निर्मित मेघ के जल से नदियां वहती हैं जिनके जल प्रवाहों में औषध भरा पड़ा है। यह सूर्य मेघ को पिता है। मेघ की उत्पत्ति को सूर्य से भिन्न कोई निमित्त नहीं है। मेघ के बिजली और गर्जना आदि गुणों से भय होता है, उस भय को भी दूर करने वाला भी सूर्य है। पृथिवी और अन्तरिक्ष सूर्य की दो स्त्री के समान हैं। वह पदार्थों से जल को वायु के द्वारा खींचकर जब अन्तरिक्ष में फेंकता है, तब वह पुत्र रूप मेघ प्रमत्त के सदृश बढ़कर उठता है और सूर्य के प्रकाश को ढक लेता है, तब सूर्य उसको मारकर भूमि में जल के रूप में गिरा देता है। जल की रूकावट को तोड़कर उसे अच्छी प्रकार बरसाता है। इसी से यह सूर्य समुद्रों के रचने को भी हेतु होता है तथा इस चराचर शान्त-अशान्त संसार में प्रकाशमान होकर, सब लोकों को अपनी-अपनी कक्षा में चलाता है।
सूर्य के बिना अति निकट मूर्तिमान लोक की धारणा-आकर्षक-प्रकाश और मेघ की वर्षा आदि कार्य किसी से नहीं हो सकते हैं १-३२ वां सूक्त ऋक्।। यह पृथिवी सूर्य के ऊपर-नीचे और उत्तर-दक्षिण को जाती है इसीलिये इसके परले आधे भाग में सदा अन्धकार और उरले आधे भाग में प्रकाश वर्तमान रहता है १ १६४/२ ऋक्।। उषा का निमित्त भी सूर्य है ४ ४०/१ ऋक्।। पृथिवी सूर्य के भय से ही चलती है ५ ५९/२ ऋक्।। सूर्य पृथिवी और द्युलोक से रस लेता है ६ ५७/२ ऋक्। सूर्य पदार्थों से ८ मास रस ग्रहण करके-मेघमण्डल में स्थापित करके, वर्षा ऋतु में बरसा के प्रजा को सुखी करता है। पृथिवी और पृथिवीस्थ पदार्थों को नष्ट नहीं करता-रक्षा करता है ६ ३०/२३ ऋक्।। सूर्यताप से अन्तरिक्ष स्थित वायु उत्तप्त होती है और वह ताप दूर भूमि तक पहुंचकर जहाँ-तहाँ की आर्द्रता को वाष्प को बदलकर मेघ रूप में एकत्र करता है और फिर वही बादल छिन्न-भिन्न हो वर्षा में परिणित होकर अन्न उत्पादन का कारण बनता है इसीलिए अन्तरिक्षस्थ अग्नि ‘वयोधा’ अन्न प्रदाता है ८ ७२/४ ऋक्।। सूर्य हमें विद्युत् प्रदान करता है जो अन्न-जल देने वाली एवं सब रोगों को दूर करने वाली है, जलवृष्टि में भी सहयोगी है। उस वृष्टि से शान्ति-सुख एवं कल्याण प्राप्त होते हैं क्योंकि वर्षा से ही अन्नादि उपजते हैं। यज्ञों में ऐसी समिधाएं समर्पित करनी चाहिए जो जल को ग्रहण करें। मेघविद्या मेंपारगत यज्ञों आदि के द्वारा भूमि पर बरसाने में सहायक होते हैं।
यज्ञकर्म मेघ को विद्युत् रूपी वाणी देता है। देव विज्ञान का ज्ञाता वृष्टिज्ञानी पुरूष जब यज्ञ करे-तो सर्वदिव्य गुणों से समपुष्ट होकर अग्नि तथा सूर्य जलप्रद मेघ को पुकारता है १०-९८ वां सूक्त ऋक्।। अनावृष्टि काल में बादल सूर्य के प्रकाश और जल को नीचे से रोककर भूमि पर अन्धकार और अवर्षण उत्पन्न कर देता है, तब इस मेघरूप वृत्र को मारकर यह सूर्य अपने प्रकाश तथा वर्षा जल को निर्बाध गति से भूमि के प्रति प्रवाहित करता है ११९ साम.।। सूर्य की स्थानान्तर गति नहीं है वह अपनी धुरी पर ही घूमता है। पृथिवी की २ प्रकार की गति है- पहली वह अपनी धुरी पर, जिससे अहोरात्र बनते हैं, दूसरी अपनी नियत कक्षा में सूर्य के चारों ओर, जिससे संवत्सर चक्र चलता है ६२० साम.।।
यह पृथिवी अण्डाकृति मार्ग से सूर्य की परिक्रमा करती है और चन्द्रमा पृथिवी की परिक्रमा करता हुआ, पृथिवी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है। सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथिवी के आ जाने से प्रतिदिन चन्द्रमा के सम्पूर्ण गोलार्ध पर सूर्य का प्रकाश नहीं पड़ता। चन्द्रमा का जितना अंश पृथिवी की ओट में आ जाता है उतने अंश में सूर्य का प्रकाश न पड़ने से वह अंश अन्धकार से आच्छन्न ही रहता है। चन्द्रमा की ह्नास-वृद्धि का यही रहस्य है। अमावस्या को सम्पूर्ण चन्द्र के पृथिवी से ढ़क जाने के कारण पूरा ही चन्द्रमा अन्धकार से आवृत्त रहता है और पूर्णिमा को सम्पूर्ण चन्द्रमा के पृथिवी से छूटे रहने के कारण पूरा ही चन्द्रमा प्रकाशित रहता है साम. ९१५।।
सूर्य जलों को आदान करता है अतः वह आदित्य कहलाता है। वह आंख से प्रत्यक्ष दिखाई देता है अतः वह विश्वदृष्ट कहलाता है। वह अदृष्ट दोषों का नाश करता है। जगत् में जो रोग बीज, हारिकारक रोगमूल हैं सूर्य किरण उन्हें नष्ट करती हैं अतः वह अदृष्टा कहलाता है। नंगा शरीर सूर्य प्रकाश में रखने से शरीर के रोग क्रीमी दूर होंगी-अतः वह विश्वभेषजी कहलाता है। सूर्य किरणों में भ्रमण करने वाली गौ का दूध पीने से लाभ होता है। सूर्य किरणें जिन वनस्पतियों पर गिरती हैं उनके खाने से भी आरोग्य लाभ होता है ६ ५२/३ अथर्व।। अथर्ववेद के २२वें काण्ड के मंत्र ३ के अनुसार ‘‘रोहिणीगाव’’ गौवें श्वेत-काले-लाल-भूरे-बादामी तथा विविध रंग के धब्बेवाली होती हैं। सूर्य किरणें उनकी पीठ पर पड़ती है। किरणों के रंगभेद के अनुसार दूध पर भी भिन्न-भिन्न परिणाम होता है। श्वेत गौ के दूध का गुणधर्म भिन्न होगा, काले रंग वाली गाय के दूध का गुणधर्म भिन्न तथा लाल रंग वाली गाय के दूध का गुणधर्म भिन्न होगा। लाल गौवों के दूध का तथान्य गोरसों का उपयोग हृदयरोग और ह्नमिला पीलिया रोग की चिकित्सा का विधान है। ते ह्नदद्योतः च हरिमा सूर्यमनु उदयताम् १-२२-१ अथर्व।।
सूर्य की लाल किरण दीर्घायु-सौन्दर्य और बल को भी देने वाली होती है। मनुष्य का पीलियारोग और ह्नदयरोग बड़ा कष्टदायक होता है। पेट के अपचन-मद्यपान आदि से ह्नदय के दोष पैदा होते हैं। जवानी में वीर्य के दोष के कारण भी ह्नदय में विकार पैदा होते हैं। जिनसे मनुष्य कृश-निस्तेज-फीका-दुर्बल और दीन होता है। सूर्य किरणों द्वारा चिकित्सा करने से ये दोष दूर होते हैं। उत्तम स्वास्थ्य मिलता है। सूर्य किरणों में शुक्ल-नील-पीत-रक्त-हरित-कपिश-चित्र ७ रंग होते हैं। सूर्य किरण चिकित्सा में परिधारण विधि का बड़ा महत्व है रोहितैः वर्णैः त्वा दीर्घायुत्वाय परिदध्मसि १-२२-२ अथर्व।। अथर्ववेद के २२ वें सूक्त में परिदध्मसि शब्द ४ बार तथा निदध्मसि शब्द १ बार, दध्मसि शब्द एक बार आया है, जिसका अर्थ है चारों ओर से धारण करना। सूर्य की रक्तवर्ण की किरणों का स्नान शरीर का सौन्दर्य-शरीर का रंग तथा शरीर की सुकुमारता का दायक है। किरण स्नान रोगी के रंग-रोगी की आयु-रोगी का पेशा तथा शरीर के बल के अनुसार होना चाहिए।
सूर्य-किरणों में पित्त बढ़ाने की शक्ति है। सूर्य किरणों द्वारा यह पित्त वनस्पतियों में संचित होता है। ये वनस्पतियां रूप रंग का सुधार करने में सहायक हैं १-२४-१ अथर्व।। ये वनस्पतियां कुष्ठ रोग के लिये उत्तम औषध हैं। इससे शरीर की त्वचा समान रूपरंगवाली बनती हैं। श्यामा वनस्पति शरीर की चमड़ी शरीर का रंग ठीक करने वाली है १ २२/४ अथर्व।।
सूर्य में नाना प्रकार के वीर्य हैं। ये वीर्य किरणों द्वारा वनस्पतियों में जाते हैं। वनस्पतियों से वीर्य प्राप्त होते हैं। सूर्य भेदन व्यायाम तथा सूर्यभेदी प्राणायाम द्वारा पेट के स्थान में रहने वाली आदित्य शक्ति जागृत हो जाती है। सूर्य किरणों से तपी हुई वायु प्राणायाम से अन्दर लेने के अभ्यास से क्षयरोग में भी बड़ा भारी लाभ पहुंचता है १-३०-१ अथर्व।। सूर्य की किरणों से सिरदर्द-अंगों के रोग-कर्णरोग आदि रोग दूर होते हैं ९ ८/२२ अथर्व।।
मेघाच्छादित आकाश के पश्चात् जब सूर्य दर्शन होता है, हवा साफ हो जाती है तब मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द होता है। वह सूर्य अपनी सीधी गति से रोगों को दूर करता हुआ शरीर का आरोग्य बढ़ाता है। सूर्य का १ तेज तीन प्रकार से कार्य करता है। मस्तिष्क में मज्जारूप में, ह्नदय में पाचन शक्ति के रूप में तथा सब शरीर में उष्णता के रूप में सूर्य का तेज प्रकाशता है १ १२/१ अथर्व।।
अंगे-अंगे शिश्रियमाणं शोचिषा- शरीर के प्रत्येक अंग में तेज के अंश से सूर्य रहता है १ १२/२ अथर्व।। सूर्य के इस तेज से अपना तेज बढ़ाना चाहिये। चर्मरोग-दमा-खांसी तथा क्षयरोग उन्हीं को होते हैं जो नंगे शरीर पर सूर्य किरण नहीं लेते तथा तंग मकानों में जो लोग वस्त्रों से वेष्टित रहते हैं। पर्वतों पर औषधियों का सेवन निरोग रहकर दीर्घायु जीवन का कारण है १ १२/४ अथर्व।।
कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति ६-२२-१ अथर्व। सूर्य की किरणें पृथिवी से जल लेकर आकाश में हरण करती हैं इसी से इनका नाम ‘‘हरिः” ‘‘हरयः” मिला है। ये किरणें सब स्थानों को पूर्ण करती हैं इसलिए इन्हें ‘‘सुपर्णाः” ‘‘सुपूर्णाः” कहते हैं। जल के स्थान अन्तरिक्ष में रहकर, वहाँ मेघ रूप में परिणित होकर उन मेघों से पृथिवी पर फिर वही जल आता है। यह कार्य सूर्य किरणों का सदा होता रहता है। वे समुद्र से पानी ऊपर खींचते हैं, मेघ बनाते हैं और वृष्टि होती है। इस प्रकार जल की शुद्धि होती है। पृथिवी पर का जल फिर अन्तरिक्ष में वाष्परूप से खींचा जाता है। वह वहाँ से शुद्ध बनकर फिर वृष्टिरूप में पृथिवी पर गिरता है-मानो मीठे शहद की वर्षा होती है। इस वृष्टि से औषधियाँ बनती हैं। जो रोगों को धोती हैं और दोषः धीः कहलाती हैं। वृष्टि के बिना पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती है और अकाल होता है। सूर्य ही इस अकाल व भुखमरी को दूर करता है व भोग्य पदार्थों का स्वामी है १० ४३/३ ऋक्।।
पर्जन्य का स्वातिजल मध्य नक्षत्रों से प्राप्त किया जा सकता है जो बड़ा आरोग्यप्रद है। वृष्टिजल से शरीर के शुष्क खुजली आदि का निवारण होता है। अन्तरिक्ष में शुद्ध प्राणवायु विराजमान है वह वृष्टि जल के साथ भूमि पर आता है ११-४ अथर्व सूक्त।। वृष्टि जल का स्नान आरोग्यवर्धक है इस जल के पान करने से मूत्र द्वारा शरीर के दोष बाहर हो जाते हैं १ ३/१५ अथर्व।। जो मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करना चाहता है वह सूर्य के प्रकाश में रहे क्योंकि वहाँ अमृत रहता है- इहायमस्तु पुरूषः सहासुना सूर्यस्य भागे अमृतस्य लोके ८ १/१ अथर्व।। सूर्य तेरे कल्याण के लिये तपता है इसके प्रकाश को न छोड़ो-सूर्यस्ते शं तपाति ८ १/५ अथर्व।।
सूर्य की ‘‘वृष्टिवनि’’ नामक किरणों से वर्षा होती है १० ४३/५ ऋक्।। इसकी ‘‘अरूण’’ नामक किरण दिन की उत्पत्ति करता है। इसका तेज द्युलोक में भरा पड़ा है। इस किरण से वास्तोष्पति नामक अग्नि की उत्पत्ति होती है। यह वास्तोपति अग्नि यज्ञहवि को देवों की तरफ फेंकता है। पदार्थों के संयोग-वियोग का कारण यही अग्नि है १० ६१/६ ऋक्।।
सूर्य के बिना भूमण्डलों में अनेक व्याधियां पैदा हो जाती हैं। सारा भूमण्डल शुष्क एवं वृक्ष-औषधि-लता आदि से विहीन हो जाता साम. ९१३।। ये सूर्य की किरणें समुद्र व भूगर्भ में पहुंचकर अपने तेजस्वी ताप से स्वर्णादिधातु हीरे-रत्न उत्पन्न कर देती हैं ये अद्भुत शक्ति की राशि होती हैं सा. १०१४+ अथर्व १९ २६/१ + १३ २/१४।। सूर्य अपने वृष्टिजल से फलों में मिठास प्राप्त कराता है २१ २/१८ अथर्व-लिखकर निरन्तर सूर्य दर्शन होने की प्रार्थना की है।
वैदिक भाषा व साहित्य के मर्मज्ञ महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश के प्रथम सूर्य की महत्ता और जीवन दर्शन का रूप स्वीकारते हुए कहा है ‘‘सहस्त्र गुणमुत्सृष्टु मादत्ते हि रसं रविः” – सूर्य हजारों गुणा अधिक बरसाने के लिये पृथिवी से जल ग्रहण करता है।
इसीलिए सूर्यादि पदार्थ विद्याओं के यथार्थज्ञाता शिल्पविद्या के ज्ञाता होकर विमानादि शीघ्रगामी पदार्थों की रचना कर विश्व विजयी होते हैं ५ १०/६ + ५ ३२/५ ऋक्।। सूर्य की श्रेष्ठता के कारण ही और इसीलिए दिव्य पदार्थों की माता द्योतमान प्रकृति भी इस प्राणदाता सूर्य को पृथक् उत्पन्न करती है = असावन्यो असुर सूयत द्यौः १० १३२/४ ऋक्।।
शाहपुर, मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश