विश्व में जिन महापुरुषों ने इस धरा को धन्य किया, उनमें स्वामी दयानन्द सरस्वती का स्थान बहुत ऊँचा है। सामान्यतया लोग उन्हें समाज-सुधारक के रूप में ही याद करते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि उनका व्यक्तित्व बहु-आयामी था। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया। उस युग में स्वतन्त्रता, स्वराज्य और जनतान्त्रिक व्यवस्था की बात करने वाले तो वे सर्वप्रथम और एकमात्र महापुरुष थे। इसी कारण महात्मा गाँधी ने निम्रलिखित शब्दों में उनका योगदान स्वीकार किया-‘‘जनता से सम्पर्क, सत्य, अहिंसा, जन-जागरण, लोकतन्त्र, स्वदेशी-प्रचार, हिंदी, गोरक्षा, स्त्री-उद्धार, शराब-बंदी, ब्रह्मचर्य, पंचायत, सदाचार, देश-उत्थान के जिस-जिस रचनात्मक क्षेत्र में मैंने कदम बढ़ाए, वहाँ दयानन्द के पहले से ही आगे बढ़े कदमों ने मेरा मार्गदर्शन किया।’’ सत्य को सत्य कहना और असत्य को असत्य कहना महापुरुषों का चरित्र होता हैं। स्वामी जी का उद्देश्य मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाना (मनुर्भव) था, इसलिए उन्होंने धर्म के नाम पर प्रचलित पाख्ंाड, आडम्बर, अत्याचार, शत्रुता, मार-काट को रोकने का साहसिक कार्य किया।
भारत में राष्ट्रीयता का उदय दो शब्दों से संभव हो सका-एक बंकिमचन्द्र चटर्जी का ‘वन्दे मातरम्’, दूसरा स्वामी दयानन्द का ‘स्वराज्य’। आज की राजनैतिक स्वतन्त्रता इन्हीं शब्दों के कारण मिली है। महर्षि दयानन्द का समस्त चिंतन राष्ट्रीयता से ओतप्रोत रहा। एक भाषा, एक धर्म और एक राष्ट्र के लिए दयानन्द ने अथक परिश्रम किया था। स्वयं गुजराती होते हुए भी उन्होंने हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा। भारतीय नवजागरण के आन्दोलन में स्वामी दयानन्द की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही।
स्वामी जी ने अपने समय में एकता स्थापित करने के लिए तीन ऐसे कार्य किये, जिन्हें इतिहास में उचित स्थान न मिल सका। प्रथम, हरिद्वार कुम्भ मेले में संन्यासियों के मध्य वेदों पर आधारित धार्मिक विचार रखे, ताकि मतभेद दूर होकर एकता स्थापित हो सके, परन्तु संन्यासीगण अपने स्वार्थों, अखाड़ों की परम्पराओं और व्यवहारों के कारण स्वामीजी के विचारों से सहमत न हो सके। दूसरा, शास्त्रार्थ द्वारा सत्य और असत्य का निर्णय कर विद्वानों को संगठित करना, ताकि सत्य को ग्रहण और असत्य को त्यागा जा सके, परन्तु विद्वानों का अहंकार और रोजी-रोटी का लालच इस प्रयास में बाधा बना। स्वामीजी का यह मानना था कि विद्वानों के संगठित होते ही राष्ट्र जीवित हो उठेगा। तीसरा, सन् १८७७ ई. में हुए दिल्ली दरबार के समय समाज-सुधारकों (सर सय्यद अहमद खाँ, केशवचन्द्र सेन आदि) को आमंत्रित कर सर्वसम्मत कार्यक्रम बनाकर समाज-सुधार किया जाए, परन्तु समाज-सुधारक कोई सर्वसम्मत कार्यक्रम न बना सके।
स्वामी जी चाहते थे कि धर्म, समाज और राष्ट्र के लिए संन्यासी, विद्वान् एवं सुधारक मिलकर कार्य करें। संन्यासियों, विद्वानों और समाज-सुधारकों से मिलकर भी अच्छे परिणाम न मिले तो स्वामी जी ने सीधे जनता से लोक-सम्पर्क करना प्रारम्भ कर दिया। उनके प्रवचन एवं उपदेशों से जनता जाग्रत हो गयी। जो काम संन्यासी, विद्वान् और सुधारक न कर सके, वह काम जनता ने अपने हाथ में ले लिया। स्वामी दयानन्द की सफलता लोक-सम्पर्क के कारण संभव हो सकी। किसानों को राजाओं का राजा कहने वाले दयानन्द जन सामान्य के हृदय में स्थान बना गए।
भारतीय इतिहास में १९ वीं शताब्दी का समय पुनर्जागरण का काल माना जाता है। दयानन्द इसी काल के ऐसे महापुरुष हैं, जिन्होंने धर्म, समाज, संस्कृति तथा राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में नवचेतना का संचार किया। नवजागरण काल का नेतृत्व उन्होंने भारतीय तत्त्व चिंतन तथा वैदिक-दर्शन के आधार पर किया। स्वामी दयानन्द आधुनिक युग के प्रकांड विद्वान् तथा महान् ऋषि थे। वेदों क ा हिंदी में भाष्य करने का महान् श्रेय स्वामीजी को जाता है।
वे वेद-शास्त्रों के गंभीर विद्वान्, महान् समाज सुधारक, राष्ट्रवादी और प्रगतिशील चिन्तक होने के साथ-साथ अपने समय के श्रेष्ठ साहित्यकार थे। १९ वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में उन्होंने विशाल साहित्य का सृजन किया। उनका गद्य संस्कृतमय है जिसमें ओज, हास्य एवं व्यंग्य पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है। उनका मानना था ‘हितेन सह सहितं, तस्य भाव: साहित्यं’ अर्थात् साहित्य के भीतर हित की भावना प्रबल होती है, इसलिए उन्होंने अपने लेखन और प्रवचन में प्राणी मात्र का हित सर्वोपरि रखा। उन्होंने हिंदी को फारसी सहित विदेशी भाषाओं के प्रभाव से मुक्त कर संस्कृत से जोड़ दिया, इससे हिंदी सशक्त एवं नए शब्दों की जननी बन सकी। हिंदी के स्वरूप को साहित्यिक स्तर और स्थिरता प्रदान करना स्वामीजी का अद्भुत कार्य था।
ऋषि दयानन्द ने प्राचीन, किन्तु जो हिंदी भाषा में नहीं थे, ऐसे शब्दों का प्रचलन किया-जैसे आर्य, आर्यावर्त, आर्यभाषा तथा नमस्ते। सर्वप्रथम स्वामी जी ने ‘नमस्ते’ का शब्दरत्न भारतीय समाज को दिया, जो आज भारत का राष्ट्रीय अभिवादन बन चुका है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचना ‘भारत भारती’ में तो ऋषि दयानन्द के सभी सुधारों का प्रबल समर्थन किया है। द्विवेदी युग, भारतेंदु युग और छायावादी युग के हिंदी साहित्य में दयानन्द की सुधारवादी भावना का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। स्वामी जी का समस्त साहित्य समाजवाद, राष्ट्रवाद, मानववाद, यथार्थवाद और सुधारवाद से पूर्ण है।
स्वामीजी ने उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे, जो मानव मात्र के लिए सदैव उपयोगी रहेंगे। इनमें प्रमुख हैं-संस्कार विधि, पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेद-भाष्य का नमूना, चतुर्वेद विषय सूची, यजुर्वेद भाष्य, आर्योद्देश्यरत्नमाला, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि, संस्कृत वाक्य प्रबोध, वर्णोच्चारण शिक्षा, अष्टाध्यायी भाष्य, वेदांग प्रकाश…..आदि। स्वामी जी की सर्वोत्तम कृति है ‘सत्यार्थप्रकाश’, जिसे क्रन्तिकारियों की गीता भी कहा गया। अंडमान की सेल्युलर जेल (कालापानी) से लेकर विदेशी जेलों तक में बंद हमारे देशभक्त क्रान्तिकारी इस ग्रन्थ से मार्गदर्शन पाते रहे। यह पुस्तक जीवन के हर क्षेत्र में आने वाली समस्याओं के स्थिर एवं सकारात्मक समाधान खोजने में सहायक सिद्ध हुई है।
स्वामीजी की स्पष्ट घोषणाएँ
सब मनुष्य आर्य (श्रेष्ठ) हैं। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, अत: वेदों की ओर लौट चलो। ईश्वर निराकार और सर्वशक्तिमान है। श्रेष्ठ कर्म, परोपकार तथा योगाभ्यास से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। मूर्तिपूजा वेद-विरुद्ध है, जो भारत की पराधीनता का कारण भी बनी। जन्मजात जाति-व्यवस्था गलत, परन्तु कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था उचित है। कोई वर्ण ऊँचा या नीचा नहीं है, अपितु सारे वर्ण समान हैं। स्त्री, शूद्रों सहित सभी को वेद पढऩे-पढ़ाने का अधिकार स्वयं वेद देता है-यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:। (यजुर्वेद) स्वराज्य सर्वोत्तम होता है। विदेशी राजा हमारे ऊपर कभी शासन ना करें। हिंदी द्वारा सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है। गणित ज्योतिष सत्य लेकिन फलित ज्योतिष असत्य है। मनुष्य का आत्मा सत्य और असत्य का जानने वाला है। अपनी भाषा, संस्कृति और भारतीयता पर गर्व होना चाहिए। संसार का उपकार करना आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है। मनुर्भव अर्थात् मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनना चाहिए।
स्वामी जी के योगदान को देश-विदेश के महापुरुषों ने अलग-अलग रूप में देखा। जहाँ लोकमान्य तिलक उन्हें ‘स्वराज्य का प्रथम संदेशवाहक’ मानते हैं, वहीं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ‘भारत का निर्माता’। लाला लाजपत राय ‘पिता तुल्य’ दयानन्द के उपकारों का अनुभव करते हैं तो सरदार पटेल ‘भारत की स्वतन्त्रता की नींव’ रखने वाले दयानन्द को उसका पूरा श्रेय देते हैं। पट्टाभि सीतारमैय्या को वे राष्ट्र-पितामह लगे, मैडम ब्लेवेट्स्की को ‘आदि शंकराचार्य के बाद बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक’, परन्तु बिपिनचन्द्र पाल को तो वे ‘स्वतन्त्रता के देवता तथा शान्ति के राजकुमार’ प्रतीत हुए। जब स्वामी जी ने ‘भारत भारतीयों के लिए’ की घोषणा की तो श्रीमती एनी बेसेन्ट को ऐसी घोषणा करने वाला प्रथम व्यक्ति मिल गया। फ्रैंच लेखक रोमा रोलां ने ‘राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में’ स्वामी दयानन्द को सदैव प्रयत्नशील पाया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी अपने हृदय के भाव व्यक्त करते हुए कहा- ‘मेरा सादर प्रणाम हो उस महान् गुरु दयानन्द को, जिसकी दृष्टि ने भारत के इतिहास में सत्य और एकता को देखा’। सर सैयद अहमद खाँ के लिए ‘वे ऐसे व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे’। कस्तूरी बाई इससे भी एक कदम आगे बढक़र, उन्हें आर्यसमाजियों के लिए ही नहीं वरन सारी दुनिया के लिए पूज्य मानती रहीं। सद्गुरुशरण अवस्थी मानते हैं कि ‘सामाजिक, दार्शनिक तथा राजनैतिक विषयों पर सबसे पहले स्वामी जी की लेखनी खुली।’ प्रो. हरिदत्त वेदालंकार हिंदी सेवा की दृष्टि से स्वामी दयानन्द का स्थान ‘सर्वप्रथम’ मानते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र, विष्णु प्रभाकर, मुंशी प्रेमचन्द, प्रताप नारायण मिश्र, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ और पंडित राहुल सांकृत्यायन जैसे पूज्य विद्वान् लेखक दयानन्द के सुधारवादी और प्रगतिवादी विचारों से ऊर्जा लेकर साहित्य सेवा में जुटे रहे। डॉ. रघुवंश के अनुसार कुछ समन्वयवादियों और अंतर्राष्ट्रवादियों ने दयानन्द को कट्टरपंथी और ख्ंाडन-मंडन करने वाले सुधारक के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि उनके जैसा उदार मानवतावादी नेता दूसरा नहीं रहा है। यह दयानन्द की उदारता ही थी कि उनके अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द दिल्ली की जामा मस्जिद में ‘त्वं हि न: पिता वसो त्वं माता’…. इस वेद मन्त्र का उच्चारण कर सके और मुस्लिम विद्वान् गुरुकुल काँगड़ी की यज्ञशाला के पास नमाज़ पढ़ सके।
जीवन में दो पक्ष होते हैं-सत्य एवं स्वार्थ। दयानन्द सत्य के साथ और सत्य दयानन्द के साथ था। वे अपनी ‘विजय’ के लिए नहीं, अपितु सत्य की स्थापना के लिए तत्पर रहे। उनकी कठोरता बुराइयों को नष्ट करने के लिए थी। जिस प्रकार एक सच्चा डॉक्टर मरीज को स्वस्थ रखने के लिए कठोर किन्तु उचित निर्णय लेता है, उसी प्रकार दयानन्द भी सत्य के मंडन के लिए असत्य का खंडन अनिवार्य समझते थे। मानव मात्र के उत्थान और राष्ट्र के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले ऋषि दयानन्द के मंतव्य और उद्देश्य आज भी हम सब के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।