आर्यसमाज द्वारा पुराणो की अश्लीलता पर प्रकाश डालने का फायदा यह हुवा की आज पौराणिक भी वहा छीपी नग्न अश्लीलता से शरमा कर उसे अच्छे शब्दो के आवरणमें ढांक देना शुरु कर दिया। ऐसा ही कुछ हाल भविष्यपुराण प्रतिसर्गपर्व ४ अध्याय १८ का है।
अध्याय का मूल विषय
यह अध्यायमें विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के स्वयंवर का वर्णन है। जहां उसका अपहरण हो जाता है। विवस्वान् सूर्य उसकी रक्षा कर के उसके पिता विश्वकर्मा को सोंपते है। संज्ञा जो सूर्य की भतीजी है। सूर्यने एक पति की तरह संज्ञा की रक्षा करी थी इसीलिये संज्ञाने उनसे विवाह करने का कहाँ। भतीजी के साथ विवाह कैसे किया जाय उसका समाधान देते हुवे यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिवका उदाहरण दिया है जिन्होने क्रमशः अपनी पत्नी, माता और भगीनी का वरण किया था। यह सुनकर विवस्वान् संज्ञा से विवाह कर लेते है तथा सन्तान उतपन्न करते है।
अध्याय का मूल विषय अपनी भतीजी के साथ विवाह करने का है जीस पर पौराणिक मौन साध लेते है।
यह लेखमें शब्दो का मायाजाल रचकर यह कुकर्म पर परदां डालने की कोशिश करी है। आइये यह पाखण्ड का खण्डन करते है।
पौराणिक – आर्यसमाजीयोने २६वा श्लोक बदल दिया है। उसके स्थान पर २८वां श्लोक २६वा श्लोक कहकर प्रस्तुत किया है।
वैदिकधर्मी (हमारा उत्तर) – हमने यह पाठ भविष्यपुराण – अनुवादक पण्डित बाबुराम उपाध्याय की पुस्तक से लिया है, जीसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा २०१२में प्रकाशीत किया था। क्यां यह आर्यसमाजी संस्था है? आप स्वयं पाठ देख लिजीये। हमने अपने ट्वीटर पर यही पाठ दिया था। कृपया दूसरो का लेख कोपी करने से पहले देख तो लिजीये की हम जीस पुस्तक का संदर्भ दे रहे है वह आर्यसमाज द्वारा प्रकाशीत है की नहीं।
तमोभूता च सा कन्या तस्यै देव्यै नमो नम। यह पद २४वे श्लोक के उत्तरार्धमें है तथा बहवः पुरुषा ये वै निर्गुणाश्चैकरूपिणः। यह पद २५ वे श्लोक के पूर्वाध में है। पौराणिक इसे २६ वा श्लोक दिखा रहे है। अगर आप को पाठ से आपत्ति है तो आप पण्डित बाबुराम उपाध्याय अथवा हिन्दी साहित्य सम्मेलन को लिखे। बिना कारण आर्यसमाज को क्युं बीच में ला रहे है?
पौराणिक – शास्त्रका अर्थ निर्णय करने की एक शास्त्रीय पद्धति होती है। जीस को यह पद्धति का ज्ञान नहीं होता वह ऐसा ही अशुद्ध अर्थ करते है जैसा आर्यसमाज ने किया।
वैदिकधर्मी – चलो अच्छा है की पौराणिकोने शास्त्रका अर्थ करने की पद्धति का स्वीकार तो किया। अन्यथा पौराणिक समाज वेदोमें प्रतिमा शब्द देखकर ठूमके लगाने लगता था। फिर चाहे वह प्रतिमा शब्द का कोइ और अर्थ क्यों ना हो। वानर अर्थात् वनवासी का अर्थ बन्दर करने वाला पौराणिक समाज आज अशुद्ध अर्थ का दोष आर्यसमाज पर देना चाहता है वह ॑उलटा चौर कोटवाल को दण्ड दे॑ ऐसी बात है।
पौराणिक – पौराणिक मुनियोने स्त्रीयों को रत्न समजा है तथा ऐसी स्त्री का कोइ बलात्कार भी कर दे तो उसका मूल्य समाप्त नहीं होता। नारी के पति ऐसा सन्मान देनेवाला भविष्यपुराण पर ऐसा आक्षेप करनेवाले भविष्यपुराण पर ऐसे आक्षेप लगाने वाले लोग किस स्तर के है हमे कहने की आवश्यकता नहीं।
वैधिकधर्मी – आज तो कौंआ भी कोयल की तरह मधूर बोलने का प्रयत्न कर रहा है ना। पौराणिक समाजने नारी को रत्न नहीं वस्तु समजा है। जरा बतायीये? सतीप्रथा का समर्थन कौन कर रहा है? आठवर्ष की कन्या का विवाह करने का आदेश कौन दे रहा है? विधवाविवाह का विरोध किसने किया? स्त्रीओ को वेदकी पढाई करने का निषेध कौन कर रहा है? स्त्रीयों को केवल दासी मान के उसका शोषण करनेवाला पौराणिक समाज आज उसका हितेषी बनने का दावा करे ये तो हँसने की बात है। आर्यसमाजने हम्मेशा स्त्रीयो के हीत की बात की। उनहे जनेऊं तथा वेदाध्यन कराया। विवधाविवाह अथवा नियोग की बात की। बालविवाह का विरोध किया। जब आर्यसमाज यह सब कर रहा था तब पौराणिक उसका विरोध करते थे। आज खुद सारा श्रेय लेना चाहते है?
पौराणिक – यह श्लोक का सही अर्थ है ‘पूर्वश्लोक में सुता, माता व भगीनीरूपेण अभिहित कार्यात्मक सत्वगुण, रजोगुण व तमोगुण को ग्रहण करके ही ब्रह्मा, विष्णु और शम्भु श्रेष्ठता को प्राप्त हुवे।
वैदिकधर्मी – आप का अर्थ गलत है। उसके अनेक कारण है।
१. हम पहले ही बता चूके की हमने जो पाठ दिया था उस पाठमें आप जीसे २६वा श्लोक बता रहे है वह श्लोक २४वे तथा २५वे श्लोक का भाग है। इस लिये उसे २वे श्लोक का पूर्वश्लोक मानना स्वयं पौराणिक समाज ही नहीं स्वीकार रहा।
२. हम मूल संस्कृत श्लोक उद्बोधित कर उसकी व्याख्या करते है।
आलोके पापजास्तर्वे देवब्रह्मसमुद्भवाः।
या तु ज्ञानमयी नारी वृणेद्यं पुरुषं शुभम्।।
कोऽपि पुत्रः पिता भ्राता स च तस्याः इतिर्भवेत्।। २६॥
स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम्।
भगीनीं भगवाञ्छम्भ्उर्गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात्॥
पदविन्यास – या तु ज्ञानमयी नारी अद्य शुभं पुरषं वृणे। स तस्याः पुत्रः पिता भ्राता च कोऽपि इति भवेत्।
ध्यान देने की बात यह है कि वृणे शब्द का प्रयोग हुवा है जीसका अर्थ है पसन्द करना। क्यां स्त्री पिता, भ्राता या पुत्र का चयन करती है? नहीं। चयन सिर्फ पति का किया जाता है।
तथा यह अध्यायमें यह श्लोक किस परिपेक्षमें प्रयोग हुवा उसे भी ध्यान देना जरुरी है। प्रश्न यह था की सूर्य को अपनी भतीजी से विवाह करना चाहीये की नहीं चाहीये। उसके उत्तरमें लिखा गया है की ब्रह्मा स्वकीयां सुतां, विष्णुदेवः स्वमातरं, भगवान् शम्भु भगीनीं गृहित्वा श्रेष्ठम् गात्।
अगर प्रश्न भतीजी को पत्नी बना सकते है या नहीं उसका उत्तर यह कैसे हो सकता है की ब्रह्माने पुत्री से सत्वगुण, विष्णुने माता से रजोगुण तथा शिवने भगीनी से तमोगुण ग्रहण किया। यह तो पसंग के विरुद्ध होता। लेकिन पुराणकारने यहाँ वह आचरण का भतीजी को पत्नी स्वीकारने के विषयमें सन्दर्भ दिया उसका यही तात्पर्य है की जैसे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवने अपनी पुत्री, माता और बहन (यानी नीकट सम्बन्धी) को पत्नी बनाया वैसा ही तुम करो(तथा अन्य नीकट सम्बन्धी भतीजी को पत्नी बनावो)। तथा यह सुन के सूर्यने संज्ञा को अपनी पत्नी बना लिया। यानी त्रिदेव के अनुसार उसने भी नीकट सम्बन्धी से विवाह करने का आचरण किया।
यहां श्लोकमें सत्व, रजो तथा तमोगुण की चर्चा ही नहीं है। लेकिन पौराणिकने लोगो को गुमराह करने के लिये तथा नीकट सम्बन्धी से विवाह देने वाले यह श्लोक से शरमाते हुवे उसका अर्थ ही बदल देने का प्रयास किया। इस से यह भी सिद्ध होता है कि पुराणोमें दिये गये वर्णनो से पौराणिक समाज भी लज्जित होता है। लेकिन अपने स्वार्थवश उसे त्यागना नहीं चाहता।
तथा यहां पौराणिकने प्रयत्नपूर्वक अपने अर्थमें सत्वगुण पुत्री से, रजोगुण माता से तथा तमोगुण भगीने के साथ जोडा है। हम इसी अध्याय का २३वा और २४वा श्लोक उद्बोधित करते है।
ध्यान से पढे। मूल संस्कृत श्लोकमें सत्वगुण भगीनी के साथ, रजोगुण गृहिणी के साथ तथा तमोगुण कन्या के साथ जोडा है। माता को नित्य सनातन प्रकृति कहा गया है। तो लेखक ने किस आधार पर अपने अर्थमें सत्वगुण पुत्री से, रजोगुण माता से तथा तमोगुण बहन के साथ जोडा?
यह सब छल तब चल जाता था जब लोग शास्त्र नहीं पढते थे तथा संस्कृत का ज्ञान सामान्य नहीं था। आर्यसमाज के प्रयत्नो से शास्त्र सब पढ रहे है तथा संस्कृत का भी प्रसार हो रहा है। इस लिये अर्थ को बदलने वाला छल अब ज्यादा नहीं चल सकता।
भतीजी के साथ विवाह करने के विषय पर मौनपौराणिक समाजने माता, पुत्री तथा बहन आदि से विवाह करने कि बात तो अर्थ को तोडमरोड के बचा ली। लेकिन यह जो मूल प्रश्न था जहाँ से यह चर्चा शुरु हुइ उसपे तो अभी तक मौन ही है। वह है सूर्य का अपनी भतीजी के साथ विवाह।
क्यां पौराणिक समाज भतीजी के साथ विवाह को मान्यता देता है? हमने तो अभीतक मुस्लिम समाज में चाचाभतीजी के बीचमें विवाह का सूना था। लेकिन यहां तो आप का पुराण उसकी मान्यता दे रहा है तथा प्रमाणमें त्रिदेव का आचरण उद्बोधीत कर रहा है।
अब इस के उत्तरमें यह तर्क ना लाना की सूर्य और विश्वकर्मा के बीच खुन का रिश्ता नहीं था इस लिये वह सगे चाचाभतीजी नहीं थे आदि। अगर ऐसा होता तो सूर्य को यह सन्देह क्युं उतपन्न होता की भतीजी के साथ विवाह करे या न करे। तथा पुराणकार भी उत्तरमें यह रक्तसम्बन्ध का ही तर्क देते। लेकिन यह तर्क न दे कर उन्होने अन्य नीकट सम्बधी से विवाह करनेवाले लोगो का आचरण प्रमाण के रूपमें दिया यही बात सिद्ध करता है की संज्ञा और सूर्य नीकट सम्बन्धी थे।
उपसंहार
आर्यसमाज ब्रह्मा, विष्णु और शिव को महान् मानता है तथा वह ऐसा घृणित आचरण नहीं कर सकते यह भी मानता है। लेकिन उनके चरित्र पे डाघ हमारे पुराणोने लगाया है। हमारे पुराणोमें वर्णित ऐसी घृणित तथा अश्लील बातो का आर्यसमाजने हम्मेशा विरोध किया है। इसी लिये आर्यसमाज पुराण को प्रमाण नहीं मानते। अब पौराणिक समाज भी इसमें वर्णवीत अश्लीलता से शरमा रहा है तथा शब्दो का जाल रचकर उसे छीपाने का प्रयत्न कर रहा है। लेकिन जब आकाश फटा हो तब एकाद जोड करने से क्यां फायदा? एक अश्लीलता को छूपावोगे हजारो अन्य बहार आयेगी।
इस लिये उपर्युक्त यही होगा की माता, पुत्री, बहन, भतीजी से विवाह करने की बात करनेवाले पुस्तको को मानना बन्ध कर परमात्मा की दिव्यवाणी वेद का पठन करे।
॥ओ३म॥
ता.क.
पौराणिक का हाल छछुन्दर निगल गये साँप जैसा हो गया है। वह यह श्लोक को स्वीकार नहीं सकते ना ही नकार सकते। यह श्लोक का अर्थ बदलने के लिये कुछ नयां तर्क लेके आये है। उसका भी खण्डन कर देते है।
पौराणिक – यह सब बात मनुष्यों की नहीं रही है। यह बात देवो की हो रही है। इस लिये हमे यह सब विषय पर आपत्ति नहीं उठानी चाहिये।
वैदिकधर्मी – देव शब्द का अर्थ पहले ठीक से पढ लेते। लेकिन अभी बह चर्चा का विषय नहीं है। अगर एक क्षण के लिये मान भी ले की देवयोनी मनुष्ययोनी से अलग है तो आप क्यां यह कहना चाहते हो कि देवता अपनी माता, पुत्री, बहन और भतीजी आदिसे विवाह कर सकते है? क्यां ऐसा आचरण करनेवाले को देव मानना योग्य रहेगा? अगर देव ही ऐसा अधर्म आचरण करे तो मनुष्य से क्यां अपेक्षा रखनी चाहीये।
पौराणिक – सूर्यने संज्ञा को ग्रहण किया लेकिन मैथुन नहीं किया। यम और यमी अमैथुनी है।
वैदिकधर्मी – अगर मैथुन न करे तो यानी भतीजी से शादि करना आप को स्वीकार्य है? हमने तो दोनो के बिच मैथुन की बात ही नहीं करी। हमने तो केवल उन के विवाह का उल्लेख किया था। आप यह प्रतिज्ञा लिख दो की ॑पौराणिकधर्म के अनुसार भतीजी से विवाह कर सकते है लेकिन मैथुन नहीं करते तो कोइ दोष नहीं लगता॑। यह व्यवस्था देने को तैयार हो?
और रहा सवाल दोनो के बिच मैथुन होता था या नहीं। तो पौराणिक अपने पुराण तो ठीक से पढे। अब तो परिस्थ्तिति यह हो गई है कि हमे बताना पड रहा है की आप के पुराणमें क्यां लिखा है क्युं की आप पुराण का भी स्वाध्याय नहीं करते।
यह श्लोक ३८ से ३९ पढो। यहां स्वयं लिखा है कि संज्ञा को देखकर सूर्य कामातुर हुवा तथा दोनो एक साथ रमण करने लगे। तत्पश्चात् संज्ञाने गर्भधारण किया। अगर वह सूर्य और संज्ञा मैथुन करे बिना पुत्र उत्पन्न कर लेते थे तो कामातुर होने की जरूरत क्यां थी? या फिर पौराणिक का तर्क है कि रमण यानी मौजमजा करने के लिये मैथुन करते थे लेकिन जब सन्तान उत्पन्न करथी होती थी तब अमैथुनी उत्पन्न कर देते थे। धन्य हो!
पौराणिक – ब्रह्मा, विष्णु और शिव रजवीर्य से उत्पन्न नहीं हुवे। वह दिव्यगुणी थी। इस लिये सत्व, तमो और रजस् गुण की बात की।
वैदिकधर्मी – गुण की बात करने से पहले यह तो उत्तर दे दो की आपने अपनी व्याख्यामें पुत्री को सत्यगुणी, माता को रजोगुणी और भगीनी को तमोगुणी किस आधार पे बोला। क्युं की पुराणमें तो अन्य व्याख्या दि गइ है।
रही बात रजवीर्य से उत्पन्न नहीं होने की। वैसे भी पौराणिक कहाँ प्राकृतिक तरीके से सन्तान पैदा करते है। वे तो घडे से, चरु से, लोटे से, दृष्टि से, खीर से सन्तान पेदा करते थे। एक क्षण के लिये मान भी ले की ब्रह्मा, विष्णु और शिव अमैथुनी सृष्टि के थे तो फिर उनकी माता और बहन कहां से आ गई? क्युं की अमैथुनी सृष्टिमें तो कोइ रजवीर्य से पैदा नहीं होता। माता और बहन होना तभी सम्भव है जब आप में रजवीर्य का सम्बन्ध हो। तो क्यां यह पुराणमें ब्रह्मा की पुत्री, विष्णु की माता और शिव की भगीनी आदिका जो उल्लेख है वह पुराणकारने गलती से किया है? यहाँ स्वमाता, स्वकीयां सुतां आदि पद का प्रयोग हुवा है जो यह स्पष्ट करता है की यहाँ खुद की माता और पुत्री की बात हो रही है, कोई रजोतमो आदि गुणोयुक्त माता, पुत्री, बहन आदि के सम्बन्ध की नहीं। क्युं कि यहां माता और पुत्री शब्द से सामान्य अर्थमें माता और पुत्री का अर्थ करना होता तो उसके आगे ॑स्व॑ शब्द नहीं लगाते।
उपसंहार
हमे भी पता है की आप यह अश्लीलता से लज्जीत है। तो उसे नकारने का साहस रखे। जो गलत है वह गलत है। उसे शब्दो का मायाजाल पहना के सही साबित करने का प्रयत्न न करे।
Respected Sir, I wish to know your opinion on astrology and it’s ability to predict future. Thanks
No one can predict future