छान्दोग्य उपनिषद् पर पुराण शब्द की मीमांसा से हार चुका पौराणिक समाज अपने अष्टादशपुराणो को वेदानुकूल सिद्ध करने like a headless chicken यहाँ से वहाँ मारामारा फिर रहाँ है। हालत ऐसी हो गई है की कहीं पे भी शास्त्रोमें पुराण शब्द मिल जाये तो उस शब्द का अर्थ अष्टादशपुराण ही है वह सिद्ध करने के लिये उतावला हो रहा है।
यही प्रक्रीया के अन्तर्गत ‘डूबते को तिनके का सहारा’ इस मुताबित बृहदारणकोपनिषद् में पुराण शब्द ढूंढ लाया। देख कर ठूमके लगा कर नाँचने लगा। यह भी समजने की कोशिश नहीं करी के यह शब्दका अर्थ क्यां है।
बृहदारण्यक उपनिषद का जो मन्त्र पौराणिको ने दिया उसे हम उद्बोधित करते है।
स यथार्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानीष्ट हुतमाशितं पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि॥ ४.५.११॥
स यथाऽऽर्द्रैधाग्नेरभ्याहितात्पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येव वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानन्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि॥ २.४.१०॥यह दो मन्त्रमें पुराणं शब्द है। लेकिन यहाँ प्रयोग हुवे पुराण शब्द का अर्थ १८ पुराण तो बिलकुल नहीं है। आर्यसमाज के पुस्तक को तो प्रमाण मानोगे नहीं। आप कम से कम शाङ्करभाष्य ही देख लेते। मन्त्र ४.५.११ के भाष्यमें शङ्कराचार्यने लिखा है की इस का अर्थ हम २.४.१० में समजा चूके है। इस लिये अब मन्त्र २.४.१०में पुराण शब्द का क्यां अर्थ है वह समजना जरुरी है।
पुराण शब्द की व्याख्या में शङ्कराचार्यने तैत्तिरीय उपनिषद् का उदाहरण दिया है। अर्थात् वह उसे पुराण मानते थे। १८ पुराण को नहीं। यह व्याख्या से सिद्ध होता है की बृहदारण्यक उपनिषद् से १८ पुराण शास्त्रोक्त सिद्ध नहीं होते।
अब पौराणिको का तर्क है की शङ्कराचार्य ने कभी १८ पुराणो का खण्डन ही नहीं किया। इस लिये वह उनको मान्य थे। मूर्ख! सारे पुराण शङ्कराचार्य के पश्चात् लिखे गये थे। तो वह उनका खण्डन कैसे कर सकते है? शङ्कराचार्यने तो रविन्द्र नाथ टैगोर की गीताञ्जली का भी खण्डन नहीं किया। तो क्यां उससे गीताञ्जली उनहे मान्य है ऐसा सिद्ध हो गयाँ? यह तर्क करना ही मूर्खता है।
यहाँ पर ध्यान देनेवाली बात है की उनहोने इतिहास शब्द की व्याख्यामें ‘उर्वशीहाप्तसराः’ आदि ब्राह्मणग्रन्थो को इतिहास माना है। महर्षि दयानन्दने भी सत्यार्थ प्रकाशमें ब्राह्मणग्रन्थो का इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी इत्यादि पाञ्च नाम है ऐसा कहाँ था। तब पौराणिक उसे नहीं मान रहे थे। लेकिन यहाँ शङ्कराचार्यने स्पष्ट तरीके से ब्राह्मणग्रन्थ को इतिहास बतायाँ है। हमे देखन है की पौराणिक समाज अब क्यां उत्तर देता है!
छान्दोग्य उपनिषद् के भाष्यमें शङ्कराचार्यने जो अर्थ किया है हम उससे सहमत नहीं है और उसका जवाब हम उपरोक्त लेखमें दे चूके है। महाभारत केवल ५००० वर्ष पूर्व की धटना है। जब की सनातनधर्म की वर्तमान परम्परा पाञ्च हजार वर्षो से भी अनेक हजार वर्ष पहले से है।। और यह प्राचीन इतिहास हमारे उपनिषद्, ब्राह्मणग्रन्थ तथा गाथा में लिखा गया है। अब हजारो वर्ष पुराने इतिहास की तुलनामें ५००० वर्ष पुराना महाभारत आधुनिक ही माना जायेगा ना। इसमें हमने क्यां गलत कहाँ? महाभारत तो रामायण की तुल्नामें भी आधुनिक है। यह तुल्नात्मक वचन है।
क्यां पौराणिक समाज भारतीय इतिहास का आरम्भ केवल रामायण और महाभारत से मानता है? इस का उत्तर दे।
उपसंहार
पुराण को वेदानुकूल सिद्ध करने के लिये पौराणिक जीतना प्रयत्न करते है उतना स्वयं मूर्ख सिद्ध होते है। लेकिन अपनी मुर्खता छीपाने के लिये काशी शास्त्रार्थ की कपोळकल्पित कहानी लिख देते है। जो पौराणिक समाज हमारे जैसे अल्पमति के सामने अभी तक जीत नहीं सका वह ऋषि दयानन्द के सामने कहाँ टीक पाते होंगे?॥ ओ३म्॥
Chutiya arya samaji
Puraan ko puran nahi swikar sakta
Puran likha hai fir bhi andho waali waani bol raha hai .
“Chutiya arya samaji”
apen pita ji ko bhee aise hee bolte ho kya