कुछ समय पहले श्री भावेश मेरजा द्वारा लिखीत ‘काशीनो शास्त्राथ’ पुस्तक पढने का मौका मिला। मूर्तिपूजा पर हुवे यह शास्त्रार्थमें पौराणिक समाज मूर्तिपूजा के समर्थनमें कोई प्रमाण देने में विफल रहाँ था।
शास्त्रार्थमें पुराण शब्द के विषयमें चर्चा हुइ थी। चर्चामें स्वामी दयानन्दनें पुराण शब्द को इतिहास का विशेषण बताया तथा छान्दोग्य उपनिषद् का पाठ ‘इतिहासः पुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः’ पाठ उद्बोधित किया। तब पौराणिक समाजने कहां की ‘इतिहासपुराणम्’ यही पाठ सर्वत्र है। तब स्वामीजीने घोषणा करी के यदी ‘इतिहासः पुराणः’ यह पाठ ना मिले तो उनकी पराजय हो तथा मिल जाये तो पौराणिक मत की पराजय हो। पौराणिक समाज हम्मेशा की तरह मौन साधे रहाँ।
हमने जिज्ञासावश छान्दोग्य उपनिषद् का स्वाध्याय किया। उसमें दोनो पाठ थे। दोनो मन्त्र यहा प्रस्तुत करते है।
ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यँ राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्याँ सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि ॥ ७.१.२ ॥
नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः पित्र्यो राशिर्दैवो निधिर्वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्या भूतविद्या क्षत्रविद्या नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्या नामैवैतन्नामोपास्स्वेति ॥ ७.१.४ ॥
अब फिर से पौराणिक समाज ७.१.२ का पाठ दिखा के अपने व्याकरण का ज्ञान दे रहा है की स्वामीजी गलत थे। ‘पुराणम्’ जो नपुसंकलिङ्ग शब्द है वह ‘इतिहासः’ जो पुल्लिङ्ग शब्द का विशेषण नहीं हो सकता। और यही तर्क से वह इतिहास तथा पुराण को पृथक साबित करते है तथा पुराण शब्द से अष्टादश पुराण को मानते है।
लेकीन यहाँ पर उन का व्याकरण का ज्ञान कितना अल्प है वह सिद्ध होता है।
जिज्ञासा तो यह होनी चाहीये थी के एक ही अध्यायमें ‘इतिहासपुराणम्’ तथा ‘इतिहासपुराणः’ ऐसे दो पाठ क्युं है? इस का हम समाधान देते है।
मन्त्र ७.१.२में ‘अध्येमि’ पद के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हुवा है। आप देखे तो ऋग्वेदं, यजुर्वेदं आदि सर्व पद द्वितिया विभक्तिमें है। इसको अगर सरल संस्कृतमें पढे तो अर्थ होगा की (अहं) ऋग्वेदम् अध्येमि, (अहं) यजुर्वेदं अध्येमि, (अहं) इतिहासपुराणं अध्येमि। यानी हम ऋग्वेद पढते है, हम यजुर्वेद पढते है, हम इतिहासपुराण पढते है।
यहाँ इतिहासपुराण एक शब्द है क्युं की अगर दो शब्द होते ‘इतिहासः तथा पुराणम्’ तो उनकी द्वितीया विभक्ति होती ‘इतिहासपुराणे’। लेकिन मन्त्रमें ‘इतिहासपुराणम्’ पाठ ही है। जो यह सिद्ध करता है की दोनो शब्द अलगअलग नहीं परन्तु एक शब्द है।
कुछ मूर्खोने द्वितीया विभक्ति का प्रयोग तो स्वीकार लिया लेकिन यह तर्क दिया कि ‘इतिहासंपुराणम्’ यह पाठ होना चाहीये। अब इनके संस्कृत के ज्ञान को क्यां कहना। विशेषण और विशेष्य को जब एक शब्द कर के समास बना देते हो तो बीच में विभक्ति संज्ञा नहीं आती।
उदाहरण देखिये –
अहं मूर्खं बालकं पश्यामि। यहाँ पर मूर्ख और बालक शब्द अलग अलग है इसलिये दोनो पर विभक्ति का प्रयोग हुवां।
अहं मुर्खबालकं पश्यामि। यहाँ पर मूर्खबालक को एक शब्द बना दिया गयां। तो उसकी विभक्ति ‘मूर्खंबालकं’ नहीं होती परन्तु ‘मूर्खबालकम्’ होती है।
अब प्रश्न यह है कि इतिहास और पुराण के समास में कौन किस का विशेषण और कौन किस का विशेष्य है। उसका उत्तर मन्त्र ७.१.४ का पाठ देखने से मिलेगा।
मन्त्र ७.१.४में सभी पद प्रथमा विभक्तिमें है। ऋग्वेदः नाम इति। यजुर्वेदः नाम इति। इतिहासपुराणः नाम इति। अर्थात् (वह विद्या का) ऋग्वेद नाम है, यजुर्वेद नाम है, इतिहासपुराण नाम है।
यहाँ पर उसका उत्तर आपको ‘इतिहासपुराणः’ शब्द से मिलेगा। अगर पुराण शब्द विशेष्य होता तो बाकी सारे पदों की तरह वह भी प्रथमा विभक्तिमें आता और सर्व को पता है की पुराण शब्द की प्रथमा विभक्ति पुराणम् होती है। लेकिन यहां पर ‘पुराणः’ पाठ है। वह तभी सम्भव है जब पुराण शब्द इतिहास का विशेषण हो। ‘इतिहासः’ यह पुल्लिङ्ग शब्द का विशेषण भी ‘पुराणः’ होगा तभी ‘इतिहासपुराणः’ पाठ सिद्ध होता है।
अतः सर्व प्रकार से यह सिद्ध होता है की दोनो मन्त्रोमें पुराण शब्द इतिहास का विशेषण है।
शाङ्करभाष्यमें भी इतिहासपुराण को एक शब्द माना गया है। शाङ्करभाष्य स्पष्ट कहता है की ऋग्वेदादि चार वेद और इतिहासपुराण नाम का ‘पाञ्चवाँ वेद’ (यह केवल मन्त्र का भाष्य किया गया है। वेद केवल चार ही है।) । अगर इतिहास और पुराण दोनो अलग अलग होता तो शाङ्करभाष्यमें चारवेद तथा इतिहास और पुराण आदि कुल छः ‘वेद’ हो जाते। लेकिन मन्त्रमें तथा शाङ्करभाष्यमें कुल पाञ्च वेद का उल्लेख है। यह तभी शक्य है जब ‘इतिहासपुराण’ एक शब्द माना जाये। अर्थात् शाङ्करभाष्य भी महर्षी दयानन्द के तर्क का समर्थन करता है।
तथा शाङ्करभाष्यमें ‘इतिहासपुराण’ शब्द का जो उदाहरण दिया है वह भारत अर्थात् महाभारत का दिया गया है। महाभारत इतिहासग्रन्थ है, पुराणग्रन्थ नहीं। अगर पुराणशब्द का सम्बन्ध अष्टादशपुराण से होता तो शङ्कराचार्य वहा उदाहर के रूपमें कोई एक पुराण का नाम लिखते। लेकिन उनहोने इतिहासग्रन्थ का नाम लिखा। अर्थ स्पष्ट है की वे भी ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द से इतिहास को ही ग्रहण करते थे।
लेकिन शाङ्करभाष्यमें एक क्षति है। इतिहास के उदाहरणमें महाभारत शब्द का उपयोग अयोग्य है क्युं की छान्दोग्य उपनिषद् का काल महाभारत से अनेकवर्ष पूर्व का है। तो फिर छान्दोग्य उपनिषद् के कर्तानें वहाँ महाभारत आदि के लिये ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द का प्रयोग कैसे किया होता? यह असभ्मव है। महाभारत तो आधूनिक इतिहास है। लेकिन सनातनधर्म का इतिहास अनेक साल पुराणा है। महाभारत से पहले भी सनातनधर्म था। इसलिये इतिहास शब्द से महाभारत को ग्रहण करना योग्य नहीं है। लेकिन यह अलग विषय है।
हम सर्वप्रकार से सिद्ध कर चूके है कि ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द प्राचीन इतिहास के सन्दर्भ में प्रयोग हुवा है, अष्टादशपुराण के लिये नहीं। दयानन्दजी का मत आज भी अजेय है तथा पौराणिको के पास आज भी इसका कोई उत्तर नहीं।
||ओ३म॥