अवतारवाद भाग १
ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष व काल विशेष मे नही रहता बल्कि वह तो संसार के प्रत्येक स्थान मे विद्यमान है उसने तो कोई कोना रिक्त स्थान खाली छोड़ ही नही रखा वह हर जगह पूर्ण हो रहा है जहा कुछ नही है वहा भी ईश्वर है ।
हम इस बात को बलपूर्वक कह सकते है कि वेदो मे एक मंत्र भी इस प्रकार का नही है जो ईश्वर के अवतार अथवा साकार होने का वर्णन करता हो, अपितु इस प्रकार के सैकड़ो मंत्र वेदो मे मौजूद है जो ईश्वर को निराकार, अजन्मा, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, तथा शरीररहित बताते है रहा आपका यह हेतु की भक्तो की रक्षा करने के लिए ईश्वर अवतार धारण करता है यह भी सत्य नही है क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञा अनुसार चलते है उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर मे है क्या ईश्वर के पृथ्वी सूर्य चंद्रादि जगत् को बनाने धारण और प्रलय करने रूप कर्मो से कंस रावणादि का वध बड़े कर्म है?
यह अवतारवाद का सिध्दांत संसार मे पुरूषार्थ का नाश करके आलस्य प्रमाद का फैलानेवाला है क्योंकि अवतारवादी लोग इस आशा मे कि हमारे कष्ट को दूर करने के लिए भगवान स्वंय अवतार लेकर आएंगे स्वंय कोई पुरूषार्थ ना करके हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते है
शिव पुराण मे लिखा है कि वन्दा के शाॅप से श्री राम का जन्म हुआ वह कथा इस प्रकार है विष्णु ने माया से दो बंदरो कि सहायता से वन्दा के साथ छलपूर्वक मैथुन करके उसका पतिव्रत धर्म भंग कर दिया मैथुन के अंत मे वन्दा को पता चला कि यह तो विष्णु है वन्दा ने क्रोध मे आकर विष्णु को श्राप दिया ।
शिव○ रूद्र○ २, युध्दखंड ५, अध्याय २३
रे महाधम दैत्यारे परधर्मविदूषक ।
गृह्मीष्व शठ मद्दतं शापं सर्वविषोल्बणम ॥४३॥
यौ त्वा मायया ख्यातौ स्वकोयौ दर्शितो मम ।
तावेब राक्षसौ भूत्वा भार्या तव हरिष्यतः ॥४४॥
त्वं चापि भार्यादुःखात्तो बने कपिसहायवान् ।
भ्रम सर्पेश्वरणायं यस्ते शिष्यत्व मागतः ॥४५॥
भावार्थ :- रे महापापी राक्षसो के शत्रु दूसरो के धर्म का नाश करनेवाले मेरे दिए हुए तीक्ष्ण विष के समान शाॅप को ग्रहण कर ॥४३॥
जो तूने अपनी माया से प्रकट किए अपने दो साथी मुझे दिखाए वही दोनो राक्षस बनकर तेरी पत्नी को हरेंगे॥४४॥
और तू भी पत्नी के दुःख मे व्याकुल हुआ जंगल मे बंदरो कि सहायता लेकर अपने इस शिष्य शेषनाग के साथ भ्रमण करेगा ॥४५॥
पुराण के इस लेख से स्पष्ट है कि राम का जन्म भक्तो की रक्षा के लिए नही हुआ अपितु वन्दा के शाॅप के कारण हुआ ।
इसी प्रकार से कृष्ण के विषय मे ब्रह्मवैवर्त्त पुराण मे लिखा है कि गोलोक मे कृष्ण को राधा ने क्रोध मे आकर शाॅप दिया —
ब्रह्मवैवर्त्त○ कृष्णजन्म खण्ड ४ पूर्वार्ध अध्याय ३
हे कृष्ण वृजाकान्त गच्छ मृत्युरतो हरे ।
कथं दुनोषि मां लोल रतिचौरातिलम्टा ॥५९॥
शीघ्र पद्मांवती गच्छ रलमालां मनोरमाम् ।
अथवा बनमालां का रूपेणाप्रतिमां व्रज ॥६०॥
हे नदीकान्त देवेश देवानां च गुरोगुरों।
मया ज्ञातोउसि भद्रं ते गच्छगच्छ ममाश्रमात् ॥६१॥
शश्वत्ते मानुषाणां च व्यवहारस्य लम्पटा ।
मानुषीं योनिं गोलोकाद् ब्रज भारतम् ॥६२॥
हे सुशीले शशिकले हे पद्मांवती माधवि ।
निवार्चतां च द्यूत्तोउयं किम स्यात्र प्रयोजनम् ॥६३॥
अर्थ :- हे कृष्ण हे हरे हे वृजा के प्यारे मेरे सामने से चला जा हे चंचल मुझे क्यो दुख देता है हे अति लम्पट और कामचोर मुझे क्यो कष्ट देता है ॥५९॥
शीघ्रता से पद्मांवती के पास जा अथवा सुन्दरी रत्नमाला के पास जा अथवा अनुपम रूपवाली वनमाला के पास जा ॥६०॥
हे वृजा के प्यारे हे देवेश हे देवो के गुरू के गुरू मैने आपको जान लिया है तेरा कल्याण हो जा जा मेरे आश्रम से चला जा ॥६१॥
हे चूंकि आप मनुष्यो की भांति मैथुन करने मे लम्पट है अतः आपको मनुष्य योनि मिले आप गोलोक से भारतलोक मे चले जावें ॥६२॥
हे सुशीले हे शक्तिकले हे पद्मांवती हे माधवि यह धूर्त है इसको यहा से दूर करो इसका यहा क्या प्रयोजन है ॥६३॥
इससे सिध्द है कि कृष्ण का जन्म भक्तो की रक्षा के लिए नही अपितु राधा के शाॅप के कारण हुआ था ।
दूसरे स्थान पर इस प्रकार से वर्णन मौजूद है कि गोलोक मे एक बार राधा की श्रीदामा से लड़ाई हो गई तब श्रीदामा ने राधा को श्राप दिया कि तू पृथ्वी पर मनुष्य योनि को प्राप्त हो राधा ने कृष्ण के पास जाकर पूरी घटना बताई तब कृष्ण ने उत्तर दिया तू चिंता मत कर मै भी भूतल पर जाकर तुम्हारे पास आउंगा देखिए—
ब्रह्मवैवर्त्त कृष्णजन्म ४ पूर्वा○अ○ २
अतो हेतोर्जगन्नाथो जगाम नन्दगोकुलम् ॥१६॥
कि वा तस्य भयं कंसाध्दयान्तकारकस्य च ।
मयाभयाच्छलेनैव जगाम राधिकान्तिकम् ॥१७॥
अर्थ :- इस कारण से जगत के नाथ कृष्ण नन्द के गोकुल मे गए ॥१६॥
उनको कंस से क्या भय हो सकता था क्योंकि वह तो भय का स्वंय अंत करनेवाले है वह तो माया और भय का छल करके वास्तव मे राधा के पास ही गए थे ।
कहिए महाराज अब तो स्पष्ट हो गया राम तथा कृष्ण का जन्म भक्तो की रक्षार्थ नही अपितु शाॅप के कारण हुआ था अतः पुराणो के लेखानुसार भी भक्तो की रक्षार्थ ईश्वर का अवतार होना मिथ्या ही है–
आज सूर्योदय से पहले ही हजारो गायो बकड़ीयो की गर्दन पर छुड़ा चल जाता है कोई अवतार इनकी रक्षा के लिए क्यो नही आता? तो इससे यह सिध्द हुआ की यह अवतारवाद ढ़कोसला ही है कि परमात्मा अपने भक्तो की रक्षा के लिए जन्म धारण करता है अथवा अवतार लेता है ईश्वर न्यायकारी है पर वो अवतार लेकर या शरीर धारण कर एकदेशी अल्पज्ञ अल्पसामर्थवान और साकार नही बनता यदि किसी दुष्ट को मारना हो तो ईश्वर को अवतार लेने की क्या आवश्यकता वह तो सर्वशक्तिमान है ।
अवतारवाद भाग २
वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है वेदानुकूल सभी शास्त्रो मे परमात्मा को सर्वव्यापक कहा है एक स्थान विशेष पर परमेश्वर को कोई सिध्द नही कर सकता ना ही शद प्रमाण और ना ही युक्ति तर्क से हाॅ ईश्वर शद प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु=सर्वत्र व्यापक तो सिध्द हो रहा है हो सकता है ।वेद मे कहा है
एतावानस्य महिमातो ज्या याॅश्च पुरूषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्या मृतं दिवि ॥
पु○ ३१.३
भावार्थ :- इस पुरूष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्राह्मंड परमेश्वर के एक अंश मे है । अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड मे समाया हुआ अनन्त है एक समस्त जगत परमात्मा के एक भाग मे है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप मे प्रकाशित है । अर्थात् परमात्मा अनंत है । अर्थात् सर्वत्र विद्यमान है उसको किसी एक स्थान पर नही कह सकते ।
नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः ।
जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मयं धूनुहि॥
ऋ○१.१०.८
भावार्थ :- इस मंत्र के भावार्थ मे महर्षि दयानंद लिखते है -“जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उसको यही उत्तर देना कि जिसको सब आकाश तथा बड़े बड़े पदार्थ भी घेरे मे नही ला सकते है क्योंकि वह अनंत है इससे सब मनुष्यो को उचित है की उसी परमात्मा को सेवन उत्तम उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थो की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहे जब जिसके गुण और कर्मो की गणना कोई नही कर सकता तो अंत पाने का सामर्थ्य भला कैसे हो सकता है ।
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं
शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्
व्यदधाच्छाश्वतीश्यः समायः ॥
–य○४०.८
भावार्थ :- इस मंत्र मे परमेश्वर को सब मे व्याप्त कहा है इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नही अपितु सर्वत्र है इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्रोक्त अनेक प्रमाण दिए जा सकते है किंतु कोई प्रमाण ऐसा उपलब्ध नही होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिध्द करता हो
पौराणिको द्वारा ईश्वर के अवतार को मानने के मुल आधार यें दो श्लोक है
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजायहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दृष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
भावार्थ :- जब जब धर्म की हानि होगी तब तब धर्म के उत्थान और अधर्म के नाश के लिए तथा श्रेष्ठो के परित्राण/रक्षा और दुष्टो के नाश के लिए मै अवतार/शरीर धारण लेता हु ।
समीक्षा :- यदि इस श्लोक का ऐसा अर्थ करोगे तो यह वेद विरूद्ध होने के कारण प्रमाण नही रह जाएगा अब यहा विचारणीय है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के सब ब्रम्हांडो को रच डाला हम सब प्राणियो के शरीर की रचना की उस परमात्मा को कुछ दुष्ट राक्षसो को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े यह बात बुध्दिमानी की नही है इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व ना रहकर लघुत्व सिध्द हो रहा है यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है —-हाॅ इस श्लोक मे शायद श्रीकृष्ण ये कहना चाहते हो कि युगो युगो तक धर्म की हानि होने पर भारत मे ही जन्म लेकर मै दुष्टो का नाश और श्रेष्ठो की रक्षा करू तब कोई दोष नही क्योकि परोपकाराय संता विभूतयः परोपकार के लिए सतपुरूषो का तन,मन,धन होता है तथापि इसमे श्रीकृष्ण ईश्वर नही हो सकते ।
यथार्थ मे तो ईश्वर के किसी भी रूप मे जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नही चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का परमेश्वर अपने सब काम करने मे समर्थ है उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नही वेदो मे ईश्वर को “अकायमव्रणमस्नाविरम्” कहा है वह परमात्मा अकायम सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बंधन से रहित नित्य, शुध्द, बुध्द, और मुक्त है अर्थात् वह इन सांसारिक बंधनो मे नही पड़ता ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् मे ऋषि ने कहा है —
वेदाहमेत मजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्म निरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हिप्रवदन्ति नित्यम् ॥४.२१॥
अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन सनातन है सर्वन्तर्यामी है, विभु और नित्य है, ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते है वह कभी जन्म नही लेता
उपरोक्त सभी प्रमाणो से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान समुदाय आदि देता है ना कि अपनी इच्छा से किसी का नाश व रक्षा के लिए उसको भेजता है और इसी प्रकार स्वंय भी अवतार लेकर कुछ नही करता अर्थात् स्वंय शरीर धारण करके किसी की रक्षा व नाश नही करता ।