यीशु
मुहम्मद को यीशु में एक प्रकार की आस्था थी। वस्तुतः इस आस्था को तथा साथ ही मूसा और इब्राहिम की पैगम्बरी में उनकी आस्था को बहुधा मुहम्मद की उदार तथा सहिष्णु दृष्टि के प्रमाण के रूप में उद्धृत किया जाता है। पर यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो पायेंगे कि इस आस्था में उनका स्वार्थ निहित था। इसका आंशिक उद्देश्य था। अपनी पैगम्बरी की परम्परा को प्रमाणित करना तथा अंशतः यह आस्था यहूदियों और ईसाईयों का मतान्तरण करने के आशय से प्रेरित थी। बहरहाल यीशु के प्रति उनका अभिमत अधिक वजनदार नहीं है। उन्होंने यीशु को अपने काफिले का एक मुजाहिद मात्र बना डाला। यीशु का पुनरुत्थान या पुनरावतरण, मुहम्मद की एक धुंधली छाया के रूप में होगा। वे और लोगों के साथ ईसाइयों के खिलाफ युद्ध छेड़ रहे होंगे। मुहम्मद का उद्घोष है-”मरियम का बेटा तुम्हारे बीच एक न्यायशील न्यायाधीश के रूप में जल्द ही आयेगा। वह सलीबों को तोड़ डालेगा, सुअरों को मारेगा और जजिया खत्म कर देगा“ (287)। कैसे ? अनुवादक समझाते हैं-”सलीब ईसाइयत का प्रतीक है। मुहम्मद के आगमन के बाद यीशु इस प्रतीक को तोड़ देंगे। इस्लाम अल्लाह का दीन (मजहब) है और कोई और मजहब उसे मंजूर नहीं। इसी तरह, सुअर का मांस ईसाइयों का प्रिय आहार है। यीशु इस गंदे और घृणित जानवर का अस्तित्व ही समाप्त कर देंगे। सम्पूर्ण मानवजाति इस्लाम अपना लेगी और कोई जिम्मी नहीं बचेगा और इस तरह जजिया खुद-ब-खुद खत्म हो जायेगा“ (टि0 289-290)। यीशु को एक न्यायशील न्यायाधीश माना गया है, पर इसका मतलब सिर्फ यह है कि वह मुहम्मद की शरह के मुताबिक न्याय करेगा। जैसा कि अनुवादक ने स्पष्ट किया है-”मुहम्मद की पैगम्बरी के बाद, पहले के पैगम्बरों की शरह निरस्त हो जाती है। इसीलिए यीशु इस्लामी कानून के मुताबिक न्याय करेंगे“ (टी0 288)।
लेखक : राम स्वरुप