जिज्ञासा– मैं आपसे अपनी ही नहीं अपितु आम व्यक्तियों की जिज्ञासा हेतु कुछ जानना चाहता हूँ। कृपया समाधान कर कृतार्थ करें-
(क) तमाम कथावाचक, उपदेशक, साधु व सन्त नरक, स्वर्ग व मोक्ष की बातें करते हैं। आप इन को विस्तृत रूप से समझायें और अपने विचार दें।
समाधन– (क) वेद विरुद्ध मत-सम्प्रदायों ने अनेक मिथ्या कल्पना कर, उन कल्पनाओं को जन सामान्य में फैलाकर पूरे समाज को अविद्या अन्धकार में फँसा रखा है, जिससे जगत् में दुःख की ही वृद्धि हो रही है। ये मत-सम्प्रदाय ऊपर से अध्यात्म का आवरण अपने ऊपर डाले हुए मिलते हैं। यथार्थ में देखा जाये तो जो वेद के प्रतिकूल होगा वह अध्यात्म हो ही नहीं सकता। कहने को भले ही कहता रहे। महर्षि दयानन्द के काल में व उनसे पूर्व और आज वर्तमान में इन मत-सम्प्रदायों की संख्या देखी जाये तो हजारों से कम न होगी। उन हजारों में शैव, शाक्त, वैष्णव, वाममार्ग, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि प्रमुख हैं। महर्षि दयानन्द के समय से कुछ पूर्व स्वामी नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय, गुसाईं मत आदि और महर्षि के बाद राधास्वामी मत, ब्रह्माकुमारी मत, हंसा मत, सत्य सांई बाबा पंथ (दक्षिण वाले), आनन्द मार्ग, महेश योगी, माता अमृतानन्दमयी, डेरा सच्चा सौदा, आर्ट ऑफ लिविंग, निरंकारी, विहंगम योग, शिव बाबा आदि कितनों के नाम लिखें। ये सब अवैदिक मान्यता वाले हैं। इन्होंने अपने-अपने मत की पुस्तकें भी बना रखी हैं। इन पुस्तकों में इन मत वालों ने अपनी मनघड़न्त कल्पनाओं के आधार पर ही अधिक लिख रखा है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष, आकाश में देवताओं का निवास स्थान, यमराज, यमदूत आदि की व्याख्याएँ अविद्यापरक ही हैं।
आपने स्वर्ग, नरक, मोक्ष के विषय में जो आज के तथाकथित उपदेशक, कथावाचक, साधु-सन्त कहते-बतलाते हैं, उसके सम्बन्ध में जानना चाहा है। यहाँ हम महर्षि की मान्यता को लिखते हैं व इन तथाकथित कथावाचकों की इन विषयों में क्या दृष्टि है उसको भी लिखते हैं। ‘‘स्वर्ग- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है वह स्वर्ग कहाता है। नरक- जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है उसको नरक कहते हैं।’’ आर्योद्दे. १४-१५ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में महर्षि इनके विषय में लिखते हैं- ‘‘स्वर्ग- नाम सुख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति का है। नरक- जो दुःख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति को प्राप्त होना है।’’ सत्यार्थप्रकाश ९वें सम्मुल्लास में महर्षि लिखते हैं- ‘‘…….सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फँसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है, स्व सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः, अतो विपरीतो दुःखभोगो यस्मिन् स नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति में आनन्द है, वही विशेष स्वर्ग कहाता है।’’
महर्षि की इन परिभाषाओं के आधार पर (परमेश्वर की प्राप्ति रूप विशेष स्वर्ग को छोड़) स्वर्ग-नरक किसी लोक विशेष या स्थान विशेष पर न होकर, जहाँ भी मनुष्य आदि प्राणी हैं, वहाँ हो सकते हैं। जो इस संसार में सब प्रकार से सम्पन्न है अर्थात् शारीरिक स्वस्थता, मन की प्रसन्नता, बन्धु जन आदि का अनुकूल मिलना, अनुकूल साधनों का मिलना, धन सम्प िा पर्याप्त मिलना आदि है, जिसके पास ये सब हैं वह स्वर्ग में ही है। इसके विपरीत होना नरक है, नरक में रहना है। वह नरक भी इसी संसार में देखने को मिलता है।
नरक के विषय में किसी नीतिकार ने लिखा है
अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।
अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दारिद्र्य, अपने स्वजनों से वैर-भाव, नीच-दुर्जनों का संग और कुलहीन की सेवा, ये चिह्न नरकवासियों की देह में होते हैं। ये सब चिह्न इसी संसार में देखने को मिलते हैं। इस आधार पर स्वर्ग अथवा नरक के लिए कोई लोक पृथक् से हो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा। यह काल्पनिक ही सिद्ध हो रहा है।
जिस स्वर्ग लोक की कल्पना इन लोगों ने कर रखी है, वह तो इस पृथिवी पर रहने वाले एक साधन सम्पन्न व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है।
मोक्ष निराकार परमेश्वर को प्राप्त कर, उसके आनन्द में रहने का नाम है अर्थात् जब जीव अपने अविद्यादि दोषों को सर्वथा नष्ट कर, शुद्ध ज्ञानी हो जाता है तब वह सब दुःखों से छूट कर परमेश्वर के आनन्द में मग्न रहता है, इसी को मोक्ष कहते हैं। वहाँ आत्मा अपने शरीर रहित अपने शुद्ध स्वरूप में रहता है। कथावाचकों के मोक्ष की कल्पना और उसके साधनों की कल्पना सब मिथ्या है। किन्हीं का मोक्ष गोकुल में, किसी का विष्णु लोक क्षीरसागर में, किसी का श्रीपुर में, किसी का कैलाश पर्वत में, किसी का मोक्षशिला शिवपुर में, तो किसी का चौथे अथवा सातवें आसमान आदि पर। इस प्रकार के मोक्ष के उपाय भी मिथ्या एवं काल्पनिक हैं। जैसे-
गङ्गागङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।
– ब्रह्मपुराण. १७५.९२/पप.पु.उ. २३.२
अर्थात् जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहे, तो उसके पाप नष्ट होकर वह विष्णु-लोक अर्थात् वैकण्ठ को जाता है।
हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्।।
अर्थात् हरि इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पापों को हर लेता है, वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का महात्म्य है।
इसी तरह
प्रातः काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति।
आजन्म कृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।
अर्थात् जो मनुष्य प्रातः काल में शिव अर्थात् लिंग वा उसकी मूर्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ, मध्याह्न में दर्शन से जन्मभर का, सायङ्काल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है।
इस प्रकार के उपाय पाप छूटाने मोक्ष दिलाने के मिथ्या ग्रन्थों में लिखे हैं और इन्हीं प्रकार के उपाय आज का तथाकथित कथावाचक बता रहा है। पाठक स्वयं देखें, समझें कि ये उपाय पाप छुड़ाने वाले हैं या अधिक-अधिक पाप कराने वाले। भोली जनता इन साधनों से ही अपना कल्याण समझती है, जिससे लोक में अविद्या अन्धकार, अन्धविश्वास, पाखण्ड और अधिक फैल रहा है।
वेद व ऋषियों द्वारा मुक्ति व उसके उपाय ऐसे नहीं हैं। वहाँ तो सब बुरे कामों और जन्म-मरण आदि दुःख सागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होकर सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है। और ऐसी मुक्ति के उपाय महर्षि दयानन्द लिखते हैं ‘‘…..ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का करना, धर्म का आचरण और पुण्य का करना, सत्संग, विश्वास, तीर्थ सेवन (विद्याभ्यास, सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्य का संग, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियतादि उत्तम कर्मों का सेवन), सत्पुरुषों का संग और परोपकारादि सब अच्छे कामों का करना तथा सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना, ये सब मुक्ति के साधन कहाते हैं।’’ इन मुक्ति के साधनों को देख पाठक स्वयं विचार करें कि यथार्थ में मुक्ति के साधन, उपाय ये महर्षि द्वारा कहे गये हैं वा उपरोक्त मिथ्या ग्रन्थों व तथाकथित कथावाचकों द्वारा कहे गये हैं वे हैं। निश्चित रूप से ऋषि प्रतिपादित ही मुक्ति के उपाय हो सकते हैं, दूसरे नहीं।
मिथ्या पुराणों जैसी ही मुक्ति ईसाइयों व मुसलमानों की भी है। ईसाइयों के यहाँ खुदा का बेटा जिसे चाहे बन्धन में डलवा दे। ईसाई जगत् में तो जीवितों को मुक्ति के पासपोर्ट मिल जाते हैं। समय से पूर्व अपना स्थान सुरक्षित कराया जाता है। जितना कुछ चाहिए उससे पूर्व उतना धन चर्च के पोप को पूर्व में जमा कराया जाता है।
मुसलमानों के यहाँ भी ‘नजात’ होती है और वहाँ पहुँच कर सब सांसारिक ऐश परस्ती के साधन विद्यमान हैं, मोहम्मद की सिफारिश के बिना उसकी प्राप्ति नहीं है अर्थात् उन पर ईमान लाये बिना। कबाब, शराब, हूरें, गितमा आदि सभी ऐय्याशी के साधन मिलते हैं। क्या यह भी कभी मुक्ति कहला सकती है? अर्थात् ऐय्याशी करना कभी मुक्ति हो सकती है? इस मुक्ति पर मुसलमानों का विश्वास भी है। वे कहते हैं-
अल्लाह के पतले में वहदत के सिवाय क्या है।
जो कुछ हमें लेना है ले लेंगे मोहम्मद से।।
इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि जो वेद व ऋषि प्रतिपादित नरक, स्वर्ग व मोक्ष की परिभाषाएँ हैं, वही मान्य हैं इससे इतर नहीं। स्वर्ग व मोक्ष के उपाय भी वेद व ऋषियों द्वारा कहे गये ही उचित हैं। इन मिथ्या पुराणों व इनके कथावाचकों द्वारा कहे गये नहीं।
स्वर्ग नर्क मोक्ष जन्नत बहुत उलझने पैदा करते है। साधारण जिज्ञासु झूठे पाखंडी संतों के चक्र में पढ़ कर धक्के खाते हैं। ऐसे विचार पढ़ कर सही समाधान मिलता है । ऐसे विचार सुनने वालेश्रोता भी नहीं मिलते । धन्यवाद।
आपको मेरा प्रणाम ! क्या आप इसे वेद या अन्य ग्रन्थो से साबित कर सकते है?
@Acharya Ji
Kirpya bataye ye kis puran me likha hai
“प्रातः काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति। आजन्म कृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।”
तो मनुष्य को क्या करना चाहिए ? वर्तमान समय मे वेद मत पर चलना भी संभव नही है।
sambhav kyon naheen ha mahoday
kya jain samudaye ke guru hi moksh ki prpti kar sakte hai baaki samudaye main moksh nahi hai kya
kya sansar ki sukh suvidha ko chod sant banne per hi moksh milega
Ishwar ne apani shrishti men logon ko samuday men vibhakt naheen kiya hia
jo ishwar ki aagya ka palan karega use moksh ki prapti hogee chahe wo kisee ko kisee bhee samuday men manta ho
namaste