दिनांक २३ अक्टूबर २०१४ को रामलीला मैदान, नई दिल्ली में प्रतिवर्ष की भांति आर्यसमाज की ओर से महर्षि दयानन्द बलिदान समारोह मनाया गया। इस अवसर पर भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित थे। उन्होंने श्रद्धाञ्जलि देते हुए जिन वाक्यों का प्रयोग किया वे श्रद्धाञ्जलि कम उनकी अज्ञानता के प्रतीक अधिक थे। वी.के. सिंह ने अपने भाषण में कहा- ‘इस देश के महापुरुषों में पहला स्थान स्वामी विवेकानन्द का है तथा दूसरा स्थान स्वामी दयानन्द का है।’ यह वाक्य वक्ता की अज्ञानता के साथ अशिष्टता का भी द्योतक है। सामान्य रूप से महापुरुषों की तुलना नहीं की जाती। विशेष रूप से जिस मञ्च पर आपको बुलाया गया है, उस मञ्च पर तुलना करने की आवश्यकता पड़े भी तो अच्छाई के पक्ष की तुलना की जाती है। छोटे-बड़े के रूप में नहीं की जाती। यदि तुलना करनी है तो फिर यथार्थ व तथ्यों की दृष्टि में तुलना करना न्याय संगत होगा।
श्री वी.के. सिंह ने जो कुछ कहा उसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जाता, आने वाला व्यक्ति जो जानता है, वही कहता है। यह आयोजकों का दायित्व है कि वे देखें कि बुलाये गये व्यक्ति के विचार क्या है। यदि भिन्न भी है तो उनके भाषण के बाद उनकी उपस्थिति में शिष्ट श दों में उनकी बातों का उ ार दिया जाना चाहिए, ऐसा न कर पाना संगठन के लिए लज्जाजनक है। इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानन्द के जीवन के कुछ तथ्य वी.के. सिंह की जानकारी के लिए प्रस्तुत है।
‘मेरठ में वे २५९ नंबर, रामबाग में, लाल नन्दराम गुप्त की बागान कोठी में ठहरे। अफगानिस्तान के आमीर अ दुर रहमान के किसी रिश्तेदार ने उस बार साधुओं को पुलाव खिलाने के लिए कुछ रुपये दिए थे। स्वामी जी ने उत्साहित होकर रसोई का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। और दिनों में भी स्वामी जी बीच-बीच में रसोई में मदद किया करते थे। स्वामी तुरीयानन्द को खिलाने के लिए वे एक दिन खुद ही बाजार गये, गोश्त खरीदा, अंडे जुगाड़ किये और कई लजीज पकवान पेश किए।’ (वही पृ. ९२)
‘मेरठ में स्वामी जी अपने गुरुभाइयों को जूते-सिलाई से लेकर चण्डीपाठ और साथ ही पुलाव कलिया पकाना सिखाते रहे। एक दिन उन्होंने खुद ही पुलाव पकाया। मांस का कीमा बनवाया। कुछेक सींक-कबाब भी बनाने का मन हो आया। लेकिन सींक कहीं नहीं मिली। तब स्वामी जी ने बुद्धि लगाई और सामने के पीच के पेड़ से चंद नर्म-नर्म डालियाँ तोड़ लाए और उसी में कीमा लपेट कर कबाब तैयार कर लिया। यह सब उन्होंने खुद पकाया, सबको खिलाया, मगर खुद नहीं खाया। उन्होंने कहा ‘तुम सबको खिलाकर मुझे बेहद सुख मिल रहा है।’ (वही पृ. ९२)
‘स्वामी जी ने अमेरिका से एक होटल का विवरण भेजा ‘‘यहाँ के होटलों के बारे में क्या कहूँ? न्यूयार्क में मैं एक ऐसे होटल में हूँ, जिसका प्रतिदिन का किराया ५००० तक है। वह भी खाना-पीना छोड़कर। ये लोग दुनिया के धनी देशों में से हैं। यहाँ रुपये ठीकरों की तरह खर्च होते हैं। होटल में मैं शायद ही कभी रुकता हूँ, ज्यादातर यहाँ के बड़े-बड़े लोगों का मेहमान होता हूँ।’’विदेश में ग्रेंड-डिनर कैसा होता है, इसका विवरण विवेकानन्द ने खुद दिया है ‘‘डिनर ही मुख्य भोजन होता है। अमीर हैं तो उनका रसोइया फ्रेंच होता है और चावल भी फ्रांस का। सबसे पहले थोड़ी सी नमकीन मछली या मछली के अण्डे या कोई चटनी या स जी। यह भूख बढ़ाने के लिए होता है। उसके बाद सूप। उसके बाद आजकल के फैशन के मुताबिक एक फल। उसके बाद मछली। उसके बाद मांस की तरी! उसके बाद थान-गोश्त का सींक कबाब! साथ कच्ची स जी! उसके बाद आरण्य मांस-हिरण वगैरह का मांस और बाद में मिठाई। अन्त में कुल्फी। मधुरेण समापयेत्।’’ प्लेट बदलते समय कांटा चम्मच भी बदल दिये जाते हैं। खाने के बाद बिना दूध की काफी।’ (वही पृ. ९५)
‘एक दिन भाई महेन्द्र से विवेकानन्द ने पूछा ‘क्या रे, खाया क्या?’ अगले पल उन्होंने सलाह दे डाली ‘रोज एक जैसा खाते-खाते मन ऊब जाता है। घर की सेविका से कहना, बीच-बीच में अण्डे का पोच या ऑमलेट बना दिया करे, तब मुंह का स्वाद बदल जाएगा।’ (वही पृ. ९७)
‘एक और दिन करीब डेढ़ बजे स्वामी जी ने अपने भक्त मिस्टर फॉक्स से कहा ‘ध ा तेरे की’! रोज-रोज एक जैसा उबाऊ खाना नहीं खाया जाता! चलो अपन दोनों चलकर किसी होटल में खा आते हैं।’ (वही पृ. ९७)
‘एक दिन शाम के खाने के लिए गोभी में मछली डालकर तरकारी पकाई गई थी। उनके साथ उनके भक्त और तेज गति के भाषण लेखक गुडविन भी थे। गुडविन ने वह स जी नहीं खाई। उसने स्वामी जी से पूछा ‘आपने मछली क्यों खाई?’ स्वामी जी ने हंसते-हंसते जवाब दिया ‘अरे वह बुढ़िया सेविका मछली ले आई। अगर नहीं खाता तो इसे नाली में फेंक दिया जाता। अच्छा हुआ न मैंने उसे पेट में फेंक दिया।’ (वही पृ. ९८)
‘मेज पर स्वामी जी की पसन्द की सारी चीजें नजर आ रही हैं- फल, डबल अण्डों की पोच, दो टुकड़े टोस्ट, चीनी और क्रीम समेत दो कप काफी।’ (वही पृ. १०३)
‘पारिवारिक भ्रमण पर निकलते हुए स्वामी जी का आदिम तरीके से क्लेम या सीपी खाना। गर्म-गर्म सीपी में उंगली डालकर मांस निकालने के लिए एक खास प्रशिक्षण की जरूरत होती है। लेकिन कीड़े-मकोड़े-केंचुओं के देश से सीधे अमेरिका पहुँचकर, यह सब सीखने में स्वामी जी को जरा भी वक्त नहीं लगा।’ (वही पृ. १०३)
‘उसी परिवार में स्वामी जी के दोपहर-भोजन का एक संक्षिप्त विवरण- मटन (बीफ या गाय का गोश्त हरगिज नहीं) और तरह-तरह की साग-स िजयाँ, उनके परमप्रिय हरे मटर, उस वक्त डेजर्ट के तौर पर मिठाई के बजाय फल-खासकर अंगूर।’ (वही पृ. १०३)
‘विवेकानन्द ही एकमात्र ऐसे भारतीय थे, जिन्होंने पाश्चात्य देशों में वेदान्त और बिरयानी को एक साथ प्रचारित करने की दूरदर्शिता और दुस्साहस दिखाया।’ (वही पृ. ११०)
‘इससे पहले लन्दन में भी स्वामी जी ने पुलाव-प्रसंग पर भी अपनी राय जाहिर की है। प्याज को पलाशु कहते हैं- पॅल का मतलब है मांस। प्याज को भूनकर खाया जाए, तो वह अच्छी तरह हजम नहीं होता। पेट के रोग हो जाते हैं। सिझाकर खाने से फायदेमंद होता है और मांस में जो ‘कस्टिवनेस’ होता है वह नष्ट हो जाते हैं।’ (वही पृ. ११२)
‘पुलाव पर्व का मानो कहीं कोई अन्त नहीं। पहली बार अमेरिका जाने से पहले, स्वामी जी बम्बई में थे। अचानक उनके मन में इच्छा जागी कि अपने हाथ से पुलाव पकाकर सबको खिलाया जाय। मांस, चावल, खोया खीर वगैरह, सभी प्रकार के उपादान जुटाये गये। इसके अलावा यख्नी का पानी तैयार किया जाने लगा। स्वामी जी ने यख्नी के पानी से थोड़ा-सा मांस निकाल कर चखा। पुलाव तैयार कर लिया गया। इस बीच स्वामी जी दूसरे कमरे में जाकर ध्यान में बैठ गये। आहार के समय सभी लोगों ने बार-बार उनसे खाने का अनुरोध किया। लेकिन उन्होंने कहा ‘मेरा खाने का बिल्कुल मन नहीं है। मैं तो पकाकर तुम लोगों को खिलाना चाहता था। इसलिए १४ रुपये खर्च करके हंडिया भर पुलाव बनाया है। जाओ तुम लोग खा लो और स्वामी जी दुबारा ध्यानमग्न हो गये।’ (वही पृ. ११२)
‘मिर्च देखते ही स्वामी का ब्रेक फेल हो जाता।’ (वही पृ. ११४)
‘अमेरिका में एक बार स्वामी जी फ्रेंच रेस्तराँ में पहुँच गये। वहाँ की चिंगड़ी मछली खाने के बाद घर आकर उन्होंने खूब-खूब उल्टियाँ की। बाद में ठाकुर रामकृष्ण को याद करते हुए, उन्होंने कहा ‘मेरे रंग-ढंग भी अब उस बूढ़े जैसे होते जा रहे हैं। किसी भी अपवित्र व्यक्ति का छुआ हुआ खाद्य या पानी उनका भी तन-मन ग्रहण नहीं कर पाता था।’ (वही पृ. ११६)
‘विद्रोही विवेकानन्द की उपस्थिति हम उनके खाद्य-अभ्यास में खोज सकते हैं और पा सकते हैं। शास्त्र में कहा गया है कि दूध और मांस का एक साथ सेवन नहीं करना चाहिए। लेकिन स्वामी जी इन सबसे लापरवाह दूध और मांस दोनों ही विपरीत आहारों के खासे अभ्यस्त हो गये थे।’ (वही पृ. ११८)
‘इसी तरह एक बार आईसक्रीम का मजा लेते हुए उच्छवासित होकर कहा- ‘मैडम, यह तो फूड फॉर गॉड्स है। अहा सचमुच स्वर्गोयम्’ (वही पृ. १२०)
‘शिष्य शरच्चन्द्र की ही मिसाल लें। पूर्वी बंगाल का लड़का। स्वामी जी का आदेश था। ‘गुरु को अपने हाथों से पकाकर खिलाना होगा।’ मछली, स जी और पकाने की अन्यान्य उपयोगी सामग्रियाँ लेकर शिष्य शरच्चन्द्र करीब आठ बजे बलराम बाबू के घर में हाजिर हो गया। उसे देखते ही स्वामी जी ने निर्देश दिया, तुझे अपने देश जैसा खाना पकाना होगा। अब शिष्य ने घर के अन्दर रसोई में जाकर खाना पकाना आरम्भ किया। बीच-बीच में स्वामी जी अन्दर आकर उसका उत्साह बढ़ाने लगे। कभी उसे मजाक-मजाक में छेड़ते भी रहते- ‘देखना मछली का ‘जूस’ (रंग) बिल्कुल बांग्लादेशी जैसा ही हो।’
‘अब इसके बाद की घटना शिष्य की जुबानी ही सुनी जाए- ‘भात, मूंग की दाल, कोई मछली का शोरबा, खट्टी मछली, मछली की ‘सुक्तिनी’ तो लगभग तैयार हो गया। इस बीच स्वामी जी नहा-धोकर आ पहुँचे और खुद ही प ो में ले-ले कर खाने लगे। उनसे कई बार कहा भी गया कि अभी और भी कुछ-कुछ पकाना बाकी है, मगर उन्होंने एक न सुनी। दुलरुवा बच्चे की तरह कह उठे ‘जो भी बना है फटाफट ले आ, मुझसे अब इन्तजार नहीं किया जा रहा। मारे भूख के पेट जला जा रहा है।’ शिष्य कभी भी पकाने-रांधने में पटु नहीं था, लेकिन आज स्वामी जी उसके पकाने की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। कलक ाा के लोग मछली की सुक्तिनी के नाम पर ही हंसी-मजाक करने लगते हैं। लेकिन स्वामी जी ने वही सुक्तिनी खाकर कहा ‘यह व्यञ्जन मैंने कभी नहीं खाया।’ वैसे मछली का जूस जितना मिर्चदार है, इतनी मिर्चदार बाकी सब नहीं हुई। ‘खट्टी’ मछली खाकर स्वामी जी ने कहा ‘यह बिल्कुल वर्धमानी किस्म की हुई है।’ अब स्वामी जी ने अपने शिष्य से बेहद मह वपूर्ण बात कही, ‘जो अच्छा पका नहीं सकता, वह अच्छा साधु हरगिज नहीं हो सकता।’ (वही पृ. १२२)
‘अपनी महासमाधि के कुछ दिनों पहले स्वामी जी ने इसी शिष्य को कैसे खुद पकाकर खिलाया था, यह जान लेना भी बेहतर होगा।’ (वही पृ. १२२)
‘उन दिनों स्वामी जी का कविराजी इलाज जारी था। पाँच-सात दिनों से पानी-पीना बिल्कुल बन्द था, वे सिर्फ दूध पर चल रहे थे। ये वही शख्स थे जो घण्टे-घण्टे में पाँच-सात बार पानी पीते थे। शिष्य मठ में ठाकुर को भोग लगाने के लिए एक रूई मछली ले आया। मछली काट-कूट ली जाए, तो उसका अगला हिस्सा ठाकुर के भोग के लिए निकाल कर थोड़ा-सा हिस्सा अंग्रेजी पद्धति से पकाने के लिए स्वामी जी ने खुद ही मांग लिया। आग की आँच में उनकी प्यास बढ़ जाएगी, इसलिए मठ के लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि वे पकाने का इरादा छोड़ दें। लेकिन स्वामी जी ने उन लोगों की एक न सुनी। दूध, बर्मिसेली, दही वगैरह डालकर उन्होंने चार-पाँच तरह से मछली पका डाली। थोड़ी देर बाद स्वामी जी ने पूछा, क्यों कैसी लगी? शिष्य ने जवाब दिया ‘ऐसा कभी नहीं खाया।’ शिष्य ने बर्मिसेली कभी नहीं खाई थी। उसने जानना चाहा कि यह कौन सी चीज है? स्वामी जी को मजाक सूझा। उन्होंने हंसकर कहा- यह विलायती केंचुआ है। इन्हें मैं लन्दन से सुखाकर लाया हूँ।’ (वही पृ. १२२-१२३)
‘समयः- मार्च १८९९ स्थान बेलुड़ मठ। इस लञ्च के कुछेक दिन पहले ही बिना किसी नोटिस के सिस्टर निवेदिता को उन्होंने वेलुड़ में ही सपर खिलाया था। उस दिन का मेन्यू था- कॉफी, कोल्ड मटन, ब्रेड एण्ड बटर। स्वयं स्वामी जी ने सामने बैठकर परम स्नेह से निवेदिता को खिलाया और नाव से कलक ाा वापस भेज दिया।’
‘अगले इतवार के उस अविस्मरणीय लञ्च का धारा-विवरण वे मिस मैक्लाइड को लिखे गए एक पत्र में रख गए हैं। ‘वह एक असाधारण सफलता थी। काश तुम भी वहाँ होतीं, स्वामी जी ने उस दिन अपने हाथ से खाना पकाया था, खुद ही परोसा भी था। हम दूसरी मंजिल पर एक मेज के सामने बैठे थे। सरला पूर्व की तरफ मुंह किए बैठी थी, ताकि उसे गंगा नजर आती रहे। निवेदिता ने इस लञ्च को नाम दिया था ‘भौगोलिक लञ्च’ क्योंकि एक ही मेज पर समूचे विश्व के पकवान जुटाये गये थे। सारे व्यञ्जन स्वामी जी ने खुद पकाये थे। खाना पकाते-पकाते ही, उन्होंने निवेदिता को एक बार तम्बाकू सजा लाने को कहा, आइए, इस अतिस्मरणीय मेन्यू का विवरण सुनाएँ-
१. अमेरिकी या यांकी-फिश चाउडर।
२. नार्वेजियन- फिश-बॉल या मछली के बड़े- ‘यह व्यञ्जन मुझे मैडम अगनेशन ने सिखाया था’ स्वामी जी ने मजाक-मजाक में बताया। यह मैडम कौन हैं, स्वामी जी वे क्या करती हैं? मुझे भी उनका नाम सुना-सुना लग रहा है। उ ार मिला, ‘और भी बहुत कुछ करती हैं, साथ में फिश-बॉल भी पकाती हैं।’
३. इंग्लिश या यांकी- बोर्डिंग हाउस हैश। स्वामी जी ने आश्वस्त किया कि यह ठीक तरह से पकाया गया है और इसमें प्रेक मिलाया गया है। लेकिन प्रेक? इसके बजाय हमें उसमें लौंग मिली, अहा रे! प्रेक न होने की वजह से हमें अफसोस होता।’
४. कश्मीरी- मिन्सड पाई आ ला कश्मीरा। बादाम और किशमिश समेत मांस का कीमा।
५. बंगाली- रसगुल्ला और फल। पकवान का विवरण सुनकर विस्मित होना ही चाहिए।’ (वही पृ. १२६)
४ जुलाई १९०२ शुक्रवार को स्वामी जी ने क्या दोपहर का, आखरी भोजन ग्रहण किया था? अलबत खाया था। इलिश मछली, जुलाई का महीना, सामने ही गंगा नदी। इलिश मछली के अलावा अगर और कुछ पकाया गया तो दुनिया के लोग कहते- यह शख्स निहायत बेरसिक है। नितान्त रसहीन। आसन्न वियोगान्त नाटक की परिणति का आभास किसी को भी नहीं था। ४ जुलाई की सुबह। स्वामी प्रेमानन्द का विवरण पढ़ने लायक है। ‘इस वर्ष पहली बार गंगा की एक इलिश मछली खरीदी गई। उसकी कीमत को लेकर कितने ही हंसी-मजाक हुए। कमरे में एक बंगाली लड़का भी मौजूद था। स्वामी जी ने उससे कहा- ‘सुना है नई-नई मछली पाकर तुम लोग उसकी पूजा करते हो, कैसे पूजा की जाती है, तू भी कर डाल।’ आहार के समय बेहद तृप्ति के साथ रसदार इलिश मछली और अम्बल की भुजिया खाई। आहार के बाद उन्होंने कहा ‘एकादशी व्रत करने के बाद भूख काफी बढ़ गई है। लोटा-कटोरी भी चाट-चूटकर मैंने बड़ी मुश्किल से छोड़ी।’
‘उन्हें एक और चीज भी पसन्द थी- कोई मछली। शिमला स्ट्रीट की द ा-कोठी में यह मजाक मशहूर था- कोई मच्छी दो तरह की होती है, सिख कोई और गोरखा कोई। सिख कोई लम्बी-लम्बी होती है और गोरखा कोई बौनी, लेकिन काफी दमदार।’ (वही पृ. १२८)
पहली बार अमेरिका जाने के लिए बम्बई में जहाज पर सवार होने से पहले स्वामी जी का अचानक कोई मछली खाने का मन हो आया। उस समय बम्बई में कोई मछली मिलना मुश्किल था। भक्त कालीपद ने ट्रेन से आदमी भेजकर काफी मुश्किलें झेलकर विवेकानन्द को कोई मछली खिलाने का दुर्लभ सौभाग्य अर्जित किया।’ (वही पृ. १२८)
‘किसी-किसी भक्त के यहाँ जाकर वे खुद ही मेन्यू तय कर देते थे। कुसुम कुमारी देवी बता गई हैं, ‘मेरे घर आकर उन्होंने उड़द की दाल और कोई मछली का शोरबा काफी पसन्द किया था।’ (वही पृ. १२८)
स्वामी जी की पसन्द-नापसन्द के मामले में मटर की दाल और कोई मछली का दुर्दान्त प्रतियोगी है- इलिश और पोई साग। स्वामी जी की महासमाधि के काफी दिनों बाद भी एक स्नेहमयी ने अफसोस जाहिर किया ‘पोई साग के साथ चिंगड़ी मछली बनती है, तो नरेन की याद आ जाती है।’ (वही पृ. १२९)
‘जैसे चाबी और ताला, हांडी और आहार, शिव और पार्वती की जोड़ी बनी है, उसी तरह स्वामी जी के जीवन में इलिश मछली और पोई साग की जोड़ी घर कर गई थी। कान खींचते ही जैसे सिर आगे आ जाता है। उसी तरह घर इलिश आते ही स्वामी जी पोई साग की खोज करते थे। अब सुनें, इलाहबाद के सरकारी कर्मचारी, मन्मथनाथ गंगोपाध्याय का संस्मरण।
एक बार स्वामी जी स्टीमर से गोयपालन्द जा रहे थे। एक नौका पर सवार मछेरे अपने जाल में इलिश मछली बटोर रहे थे। स्वामी जी ने अचानक कहा ‘तली हुई इलिश खाने का मन हो रहा है।’ स्टीमर चालक समझ गया कि स्वामी जी सभी खलासियों को इलिश मछली खिलाना चाहते हैं। नाविकों से मोलभाव करके उसने बताया, ‘एक आने में एक मछली, तीन-चार मछलियां काफी होंगी।’ स्वामी जी ने छूटते ही निर्देश दिया ‘तब एक रुपइया की मछली खरीद ले। बड़ी-बड़ी सोलह इलिश ले ले और साथ में दो-चार फाव में।’ स्टीमर एक जगह रोक दिया गया।’
स्वामी जी ने कहा ‘पोई साग भी होता, तो मजा आ जाता। पोई साग और गर्म-गर्म भात। गांव करीब ही था। एक दुकान में चावल तो मिल गया। मगर वहाँ बाजार नहीं लगता था। पोई साग कहाँ से मिले? ऐसे में एक सज्जन ने बताया, ‘चलिए, मेरे घर की बगिया में पोई साग लहलहा रहा है। लेकिन मेरी एक शर्त है, एक बार मुझे स्वामी जी के दर्शन कराने होंगे।’ (वही पृ. १२९)
रोग सूची- (वही पृ. १५८, १८९)
‘दूसरी बार विदेश-यात्रा के समय उन्होंने मानसकन्या निवेदिता से जहाज में कहा था- ‘हम जैसे लोग चरम की समष्टि हैं। मैं ढेर-ढेर खा सकता हूँ और बिल्कुल खाये बिना भी रह सकता हूँ। अविराम धूम्रपान भी करता हूँ और उससे पूरी तरह विमुख भी रह सकता हूँ। इन्द्रियदमन की मुझमें इतनी क्षमता है, फिर भी इन्द्रियानुभूति में भी रहता हूँ। नचेत दमन का मूल्य कहाँ है।’ (वही पृ. १६०)
‘उनके शिष्य शरच्चन्द्र चक्रवर्ती पूर्वी बंगाल के प्राणी थे। स्वामी जी ने उनसे कहा था- ‘सुना है पूर्वी बंगाल के गांव-देहात में बदहजमी भी एक रोग है, लोगों को इस बात का पता ही नहीं है। शिष्य ने जवाब दिया- ‘जी हाँ, हमारे गाँव में बदहजमी नामक कोई रोग नहीं है। मैंने तो इस देश में आकर इस रोग का नाम सुना। देश में तो हम दोनों जून मच्छी-भात खाते हैं।’
‘हाँ, हाँ, खूब खा। घास-प ो खा-खाकर पेट पिचके बाबा जी लोग समूचे देश में छा गये हैं। वे सब महातमोगुण सम्पन्न हैं? तमोगुण के लक्षण हैं- आलस्य, जड़ता, मोह, निद्रा, यही सब।’ (वही पृ. १६४)
‘हमने यह भी देखा कि उनका धूम्रपान बढ़ गया था। उसमें नया आकर्षण भी जुड़ गया, नई-नई आविष्कृत अमेरिका की आइसक्रीम…..।’ (वही पृ. १८८)
‘किसी भक्त ने सवाल किया ‘स्वामी जी, आपकी सेहत इतनी जल्दी टूट गई, आपने पहले से कोई जतन क्यों नहीं किया।’ स्वामी जी ने जवाब दिया- ‘अमेरिका में मुझे अपने शरीर का कोई होश ही नहीं था।’ (वही पृ. १८८)
‘दोपहर ११.३० अपने कमरे में अकेले खाने के बजाय, सबके साथ इकट्ठे दोपहर का खाना खाया- रसदार इलिश मछली, भजिया, चटनी वगैरह से भात खाया।’ (वही पृ. २०५)
‘शाम ५ बजे- स्वामी जी मठ में लौटे। आम के पेड़ तले, बैंच पर बैठकर उन्होंने कहा- ‘आज जितना स्वस्थ मैंने काफी अर्से से महसूस नहीं किया।’ तम्बाकू पीकर पाखाने गऐ। वहाँ से लौटकर उन्होंने कहा- ‘आज मेरी तबियत काफी ठीक है।’ उन्होंने स्वामी रामकृष्णानन्द के पिता श्री ईश्वरचन्द्र चक्रवर्ती से थोड़ी बातचीत की।’
रात ९ बजे-इतनी देर तक स्वामी जी लेटे हुए थे, अब उन्होंने बाईं करवट ली। कुछ सैकेण्ड के लिए उनका दाहिना हाथ जरा कांप गया। स्वामी जी के माथे पर पसीने की बूंदें। अब बच्चों की तरह रो पड़े।
रात ९.०२ से ९.१० बजे तक गहरी लम्बी उसांस, दो मिनट के लिए स्थिर, फिर गहरी सांस, उनका सिर हिला और माथा तकिये से नीचे लुढ़क गया। आंखें स्थिर, चेहरे पर अपूर्व ज्योति और हँसी।’ (वही पृ. २०६)
इस सारे विवरण को पढ़ने के बाद यदि कोई कहता है कि स्वामी विवेकानन्द इस देश के सर्वोच्च महापुरुष थे और ऋषि दयानन्द सरस्वती दूसरे पायदान पर आते हैं तो मेरा उनसे आग्रह होगा कि वे अपने वक्तव्य में संशोधन कर लें और कहें – स्वामी विवेकानन्द इस देश के महापुरुषों में पहले पायदान पर हँ और ऋषि दयानन्द सीढ़ी के अन्तिम पायदान पर हैं तो हम बधाई देंगे। हमारे वन्दनीय तो फिर भी ऋषि दयानन्द ही होंगे क्योंकि इस इस देश के ऋषियों ने महानता का आदर्श धन, बल, सौन्दर्य, विद्व ाा, वक्तित्व आदि को नहीं माना, उन्होंने बड़प्पन का आधार सदाचार को माना है। इसलिए मनु महाराज कहते हैं-
यह देश सच्चरित्र लोगों के कारण सारे संसार को शिक्षा देता रहा है। जैसा कि
ऐतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।
टिप्पणी
पुस्तक का नाम – विवेकानन्द- जीवन के अनजाने सच
प्रकाशक – पेंग्विन प्रकाशन, नई दिल्ली
– धर्मवीर
or more articles u may visit
http://www.aryamantavya.in/2014/hindi-articles/myth-busters-hi/swami-vivekanand-meat-eating/
http://www.aryamantavya.in/2014/hindi-articles/myth-busters-hi/vivekananda-supports-that-vedas-support-animal-sacrifice/
http://www.aryamantavya.in/2014/download/swami-dayanand-vs-swami-vivekanand/
NEVER GIVE A CHANCE THE PEOPLE LIKE V K SINGH,ON STAGE.
स्वामी विवेकानंद बंगाली थे…मासाहार के बावजूद उनके भीतर अहंकार और कठोरता जरा भी नहीं थी। विद्वता के मामले में उनका कोई सानी नहीं। स्वामी दयानंद को ऊपर दिखाने के लिए इस तरह की बुराई उनके शिष्य ही फैला सकते हैं।
WO AISE VIDWAAN THE KI UNHE VEDOm ME GOMAANS KHANE KA VARNAN DIKHATA THA
🙂
soban ji
नमस्ते हमारा उद्देश्य यह कभी नहीं रहा की किसी एक की वाह वाही के लिए दुसरे को नीचा दिखाया जाए, स्वामी विवेकानन्द का विरोध उनके केवल मांसाहार के लिए ही नहीं है, अपितु उन्होंने वेदों का जो उलटा सीधा अर्थ लोगों के सामने प्रस्तुत किया है उसके लिए है, उनका विरोध है संत नाम की परिभाषा को दूषित करने के लिए
आप हमें गलत कहे या सही यह बात मायने नहीं रखती है
मायना यह रखता है की आपने इस लेख की सत्यता जांचने के लिए क्या किया, लेख की सत्यता की जांच कीजिये जवाब आपको स्वतः मिल जाएगा
नमस्ते
स्वामी विवेकानंद ने मांस भक्षण वास्तव में कभी किया ही नहीं।कैसे! जैसे महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने किसी को नहीं मारा।
कैसे!
अभी समझाता हूँ–
श्री कृष्ण गीता के 18 वे अध्याय के 17 वे श्लोक में अर्जुन से कहते हैं,”जिसमें अहंकृत भाव नहीं है,जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं है वो सम्पूर्ण प्राणियों (ध्यान दो-सम्पूर्ण प्राणियों को) को मारकर भी न मारता है और न ही बंधता है।”
वही श्री कृष्ण गीता के 8 वे अध्याय के 7 वे श्लोक में अर्जुन से कहते है,”तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युध्द भी कर (यानी हत्यायें कर)।मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करने वाला तू मुझे ही प्राप्त होगा।”
उपरोक्त श्लोकों से ये सहज ही ज्ञात हो जाता है कि हमारा शरीर क्या करता है इसका मुल्य आध्यात्मिक जगत में कुछ नहीं बल्कि हमारा मन क्या करता है इसी का मूल्य है।इसलिये अगर मन भगवान में लगा रहता हो तो चाहे कुछ भी करो (चाहे मांस खाओ)आध्यात्मिक पतन हो ही नहीं सकता।
और ये मैं नहीं कहता ये बात तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 9 वे अध्याय के 30 वे श्लोक में कही है,”अगर कोई दुराचारी से भी दुराचारी मेरी अनन्य भक्ति करे तो उसे साधू ही समझो।”इससे अगले श्लोक (9/31) में वही श्री कृष्ण फिर कहते हैं,”मेरे भक्त का पतन नहीं होता।”
इसलिये कहता हूँ कि स्वामी विवेकानंद मांस खाते थे या नहीं इसकी ओर ध्यान देने से कोई लाभ नहीं होगा।
क्योंकि मांस भक्षण मेरे स्वामी विवेकानंद का कुछ बिगाड ही नहीं सका जैसे जहर मीरा बाई का कुछ नहीं बिगाड पाया था।
स्वामी विवेकानंद के इस छोटे से भक्त का whatsapp No. याद कर लो – 9568344790(शेखर प्रताप सिंह)
jo swami vivekanand jaisa hai usae waisa hee to kaha jayega
स्वामी विवेकानंद के दोष या किसी भी महापुरुष के दोष देखने से पहले हमे अपने स्वयं के दोष देखने चाहिए। हम उनके गुण देख कर उन्हे अपना सकते हैं। उन्होने अपना जीवन जिया और वो स्वतंत्र थे। और इस तरह के लेख लिख कर आप केवल देश को गर्त मे डाल रहे हैं, कोई भारत और हिन्दू धर्म का भला नहीं कर रहे हैं। आप कौन हैं और कितने महान हैं नहीं पता, पर कहीं आप मुसलमानो और इसाइयों के एजेंट तो नहीं हैं। एक और बात भारत के लोग स्वामी विवेकानंद के वचनो से शक्ति पाते हैं, कृपया लोगों को उनके दोष न दिखाएँ।
महाशय काली ,
आप स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों से शक्ति पाते हैं . उनमें देश प्रेम देखते हैं .
जरा कृपया करके स्वामी विवेकानन्द जी का भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम में कोई एक योगदान गिनाएं ?
श्री मन स्वामी विवेकानंद का योगदान देखने की लिए वैसी दृष्टि चाहिए। मेरी विनम्र प्रार्थना है की कृपया उनके दोष न दिखाएँ। क्या आप अपने आपको उनसे महान समझते हैं? किस तरह से आप उनके दोष देख सकते हैं? देश की आजादी की लड़ाई छोड़ कर तो श्री औरोबिंदो भी चले गए थे, तो आप तो उनके भी दोष दिखा सकते हैं। दोष रहित केवल ईश्वर है, और संसार मे जो भी है , कोई न कोई दोष तो होगा ही। क्या आपके आलेख से देश और हिन्दू धर्म का भला हो रहा है? भ्राता हमारी एकता ही भारत का कल्याण कर सकती है। विवाद नहीं।
स्वामी विवेकानंद बंगाली थे और बचपन से उनका आहार वही था। काश आप समझ पाते की अमेरिका मे इतनी प्रसिद्धि पाने के बाद भी वो अपने देश के लिए तड़पते रहे और वापस लौट कर आए। उनके जीवन का उद्देश्य मनुष्य की खोई हुई आत्मा को जगाना था। उनका एक कथन की गीता पढ़ने की जगह फुटबाल खेलो, गीता तब अच्छे से समझ आएगी, काफी है। आप जैसे लोगों के लिए स्वामी दयानन्द और विवेकानंद अलग होंगे। हमारे जैसे देशभक्तों के लिए दोनों एक समान हैं और प्रेरणा स्रोत हैं। शत शत नमन है दोनों विभूतियों को। धन्यवाद।
” एक कथन की गीता पढ़ने की जगह फुटबाल खेलो, गीता तब अच्छे से समझ आएगी”
क्या गीता किसी प्राणी को मार कर खाने की आज्ञा देता है ?
क्या वेदान्त, जिसे स्वामी विवेकानन्द जी प्रचारित करते रहे, किसी प्राणी को उदार पूर्ति के लिए मार कर खाने की आगया देता है ?
श्री मन स्वामी विवेकानंद का योगदान देखने की लिए वैसी दृष्टि चाहिए। मेरी विनम्र प्रार्थना है की कृपया उनके दोष न दिखाएँ। क्या आप अपने आपको उनसे महान समझते हैं? किस तरह से आप उनके दोष देख सकते हैं? देश की आजादी की लड़ाई छोड़ कर तो श्री औरोबिंदो भी चले गए थे, तो आप तो उनके भी दोष दिखा सकते हैं। दोष रहित केवल ईश्वर है, और संसार मे जो भी है , कोई न कोई दोष तो होगा ही। क्या आपके आलेख से देश और हिन्दू धर्म का भला हो रहा है? भ्राता हमारी एकता ही भारत का कल्याण कर सकती है। विवाद नहीं।
भ्राता, मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है उसके अतिरिक्त किसी भी वस्तु का कोई मूल्य नहीं है। भारत की संस्कृति के हर नियम का उद्देश्य ईश्वर का साक्षात्कार है। जिस तरह एक बिन्दु से अनंत रेखाएँ खिची जा सकती हैं उसी तरह हर कोई अपने बुद्धि से अर्थ निकाल सकता है। वेद, पुराण, उपनिषद किसी की बपौती तो नहीं हैं। मेरा पुनः विनम्र निवेदन है की देश हित मे क्रिकेट और सिनेमा की बुराई बताएं। महापुरुषों की नहीं। क्यूंकी हम अपने माता-पिता-भाई-बहन-पति-पत्नी-संतान को समस्त दोषो के साथ स्वीकारते हैं।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि – “जब मैं स्वयं में इतनी कमियाँ होते हुए स्वयं से प्रेम करता हूँ तो फिर दूसरों में थोडी-बहुत कमियाँ होने पर उनसे प्रेम क्यों नहीं कर सकता!”
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि – “यदि दिन-रात यही चिंता लगी रही कि ये क्या कह रहा है; वो क्या लिख रहा है तो याद रखना कि जीवन में कोई भी महान कार्य नहीं कर सकोगे.”
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि – “किसी से बहस करने की आवश्यकता नहीं है. तुम्हें जो कुछ सिखाना है, सिखाओ. दूसरों की बातों में मत उलझो; उन्हें अपनी ही धुन में मस्त रहने दो. जब सत्य की ही विजय होती है तो फिर वाद-विवाद से क्या मतलब?”
कुछ बेवकूफ लोग कहते हैं कि दयानंद के सामने विवेकानंद कहीं नहीं टिकता तो ऐसे लोगों को मेरी सलाह ये है कि द्वेषी के सामने प्रेमी नहीं टिका करता क्योंकि अगर उसके सामने प्रेमी टिकेगा तो द्वेषी और अधिक द्वेष करेगा. इसलिये उनका ये कहना बिलकुल ठीक है कि विवेकानंद दयानंद के सामने कहीं नहीं टिकता. ऐसे लोगों से मैं कहता हूँ कि – तुम तो बुद्धिमान हो. अगर तुम्हें कोई पागलखाने में छोड़ आये तो क्या तुम वहाँ टिक सकोगे?
स्वामी विवेकानंद के इस छोटे से भक्त का whatsapp No. याद कर लो – 9568344790 (शेखर प्रताप सिंह)
jo swami vivekanand jaisa hai usae waisa hee to kaha jayega
कुछ मूर्ख आर्य समाजी लोग स्वामी विवेकानंद को पाखण्डी कहते हैं; तम्बाकू पीने वाला कहते हैं और दयानंद सरस्वती को ‘महापुरुष’ समझते हैं!
अरे!
स्वामी दयानंद सरस्वती ‘भांग’ पीते थे; नशा करते थे, कभी-कभी नग्न भी रहते थे.
अरे!
स्वामी दयानंद सरस्वती की असलियत तो एक बेवकूफ भी बता सकता है! और वो भी ‘पक्के’ प्रमाण के साथ. मैं यहाँ पर एक video का link share कर रहा हूँ; इस video को देख लेने के बाद किसी आर्य समाजी की तो हैसियत ही नहीं रह जायेगी मेरे स्वामी विवेकानंद को पाखण्डी कहते की.
स्वामी विवेकानंद के इस छोटे से भक्त का No. याद कर लो – 9568344790 (शेखर प्रताप सिंह)
jo swami vivekanand jaisa hai usae waisa hee to kaha jayega
कुछ मूर्ख आर्य समाजी लोग स्वामी विवेकानंद को पाखण्डी कहते हैं; तम्बाकू पीने वाला कहते हैं और दयानंद सरस्वती को ‘महापुरुष’ समझते हैं!
अरे!
स्वामी दयानंद सरस्वती ‘भांग’ पीते थे; नशा करते थे, कभी-कभी नग्न भी रहते थे.
अरे!
स्वामी दयानंद सरस्वती की असलियत तो एक बेवकूफ भी बता सकता है! और वो भी ‘पक्के’ प्रमाण के साथ. मैं यहाँ पर एक video का link share कर रहा हूँ और वो link है – https://youtu.be/sebefBKqtsU
इस video को देख लेने के बाद किसी आर्य समाजी की तो हैसियत ही नहीं रह जायेगी मेरे स्वामी विवेकानंद को पाखण्डी कहने की!
स्वामी विवेकानंद के इस छोटे से भक्त का No. याद कर लो – 9568344790 (शेखर प्रताप सिंह)
jo swami vivekanand jaisa hai usae waisa hee to kaha jayega
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि – “दूसरों के हित के लिये हर वस्तु का त्याग कर देना ही वास्तव में संन्यास है.”
कपडा रंग लेना; घर छोड़कर भाग जाना – ये संन्यास नहीं है. अगर यही संन्यास होता तो फिर तो सब लोग संन्यासी होकर भगवान को पा लिये होते!
संन्यास ‘भीतर’ से लिया जाता है; बाहर से नहीं. लेकिन बेचारे अल्पज्ञ-जीव भीतर की चीज को देख ही नहीं सकते; इसलिये बाहर की ही चीजों को देखते है और नाक-भौ सिकोडते रहते हैं-“ये संन्यासी होकर ऐसा-ऐसा करता है, और लोग इसको ‘महापुरुष’ कहते हैं – ऐसा होता है, महापुरुष!” — नहीं तो फिर कैसा होता है, महापुरुष? जैसा-जैसा ‘तुम’ चाहो, वैसा-वैसा हो महापुरुष? तुम्हारा गुलाम हो महापुरुष?अरे, मूर्ख! वो “महापुरुष” हो गया है; बंधनों से परे हो गया है वो. जो बंधनों से परे हो गया है, तुम ‘उसको’ बंधनों में बाधने की बेवकूफी कर रहे हो. अरे, मूर्ख! जिसने एक बार ‘अमृत’ पी लिया; वो सदा के लिये अमर हो गया; अब वो चाहे ‘जहर’ ही क्यों न पी ले; उसके मरने का सवाल ही पैदा नहीं होता.
स्वामी विवेकानंद के इस छोटे से भक्त का whatsapp no. याद कर लो – 9568344790 (शेखर प्रताप सिंह)