. उपवास और तीर्थयात्रा (साॅम और हज)
छठी और सातवीं किताबें क्रमशः उपवास (अल-साॅम) और तीर्थयात्रा (अल-हज) से संबंधित है। ये दोनों ही इस्लाम के ”आधार-स्तम्भों“ में गिने जाते हैं।
उपवास
इस्लाम में अनेक तरह के उपवास हैं। मगर रमज़ान के महीने में उपवासों का सबसे ज्यादा महत्त्व है। कुरान में इसका आदेश है, अतः यह अनिवार्य है। ”जब रमज़ान का महीना आता है, कृपा के द्वार खोल दिये जाते हैं और नरक के दरवाज़ों पर ताला लग जाता है और शैतानों को जंज़ीरों से जकड़ दिया जाता है“ (2361)।
मुस्लिम परम्परा में उपवास, अन्य धर्म-परम्पराओं के उपवास से अपेक्षाकृत भिन्न है। इस्लाम में किसी निरन्तर उपवास (साॅम-विसाल) का स्थान नहीं है, क्योंकि मुहम्मद ने इसे मना किया था (2426-2435)। मना करने की वजह थी अपने साथियों के प्रति ”कृपा-दृष्टि“ (2435)। उपवासों के दौरान दिन में खाना मना है, रात में खाने की इजाज़त है। इस विधान की अपनी अनुशासनात्मक भूमिका है। फिर भी कोशिश यही की गई है नियमपालन आसान हो जाए। सलाह दी गई है कि सूरज उगने के पहले तक जितने अधिक विलम्ब से खाना सम्भव हो, उतने विलम्ब से खाया जाए और सूर्यास्त के बाद जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी उपवास समाप्त किया जाए। ”सूर्यास्त के तनिक पहले खाना खा लो, क्योंकि उस वक़्त खाने के लिये आर्शीवाद है“ (2412); और ”लोग तब तक समृद्ध होते रहेंगे, जब तक कि ये रोज़ा खोलने में जल्दी करते रहेंगे“ (2417)।
इस प्रकार मुसलमानों की यहुदियों और ईसाईयों से अलग पहचान बनी। क्योंकि यहूदी तथा ईसाई जल्दी ही खा लेते थे और नक्षत्रों के दिखने की प्रतीक्षा करते हुए विलम्ब से उपवास तोड़ते थे। मुहम्मद कहते हैं-”दूसरे किताबी लोगों में और हम में सूर्योदय के थोड़ा पहले खा लेने का फर्क है“ (2413)। यह फर्क़ बना रखने से मिल्लत को जो फायदे हुए, उन्हें अनुवादक स्पष्ट करते हैं। इससे ”इस्लाम की मिल्लत दूसरी मिल्लतों से अलग पहचान में आ जाती है“ और मुसलमानों की चेतना में ”अपनी अलग हस्ती“ का एहसास ”जमा देती“ है जोकि ”किसी भी मुल्क की समृद्धि की दिशा में पहला कदम है।“ साथ ही ”सुबह देर से खाने से और सूर्यास्त होते ही जल्दी से रोज़ा खोलने से इस तथ्य का संकेत मिलता है कि आदमी को भूख की हूक उठती है …… यह एहसास व्यक्ति में तितीक्षा के गर्व की बजाय विनम्रता का भाव जगाता है“ (टि0 1491)।
author : ram swarup