तलाक़शुदा के लिए गुज़ारा-भत्ता नहीं
फ़ातिमा बिन्त क़ैस को उसके पति ने “जब वह घर से बाहर था“ तलाक़ दे दिया। वह बहुत नाराज हुई और मुहम्मद के पास पहुंची। उन्होंने उससे कहा कि ”अटल तलाक़ दे दिये जाने पर औरत को आवास और गुजारे के लिए कोई भत्ता नहीं दिया जाता।“ लेकिन पैग़म्बर ने कृपा करके उसके लिए दूसरा खाविंद खोजने में उसकी मदद की। उसके सामने दो दावेदार थे-अबू जहम और मुआविया। मुहम्मद ने दोनों के खि़लाफ राय दी। कारण, पहले वाले के ”कंधे से लाठी कभी नहीं उतरती थी“ (अर्थात् वह अपनी बीवियों को पीटता रहता था) और दूसरा ग़रीब था। उन दोनों की जगह उन्होंने अपने गुलाम और मुंह-बोले बेटे ज़ैद के लड़के उसाम बिन ज़ैद का नाम पेश किया (3512)।
बाद में एक अधिक उदार भावना उभरी। उमर ने व्यवस्था दी कि पतियों को अपनी तलाक़शुदा बीवियों के लिए इद्दा की अवधि में गुजारा-भत्ता देना चाहिए, क्योंकि फक़त एक औरत होने के कारण पैग़म्बर के लफ्जों का सच्चा मक़सद फातिमा ने गलत समझा। ”हम अल्लाह की किताब और अपने रसूल के सुन्ना को एक औरत के लफ्ज़ों की खातिर नहीं छोड़ सकते“ (3524)।
इद्दा इंतजार की वह अवधि है, जिसमें औरत दूसरी शादी नहीं कर सकती। सामान्यतः वह चार महीने और दस दिन की होती है। लेकिन उस बीच औरत अगर बच्चे को जन्म दे दे तो वह अवधि तुरन्त खत्म हो जाती है। एक बार इद्दा खत्म हो जाने पर औरत दूसरी शादी कर सकती है (3536-3538)।
चार महीने के लिए भत्ता देना बहुत मुश्किल नहीं था। इस प्रकार पतियों को भविष्य में किसी बोझ का कोई डर न होने से वे अपनी बीवियों से आसानी के साथ छुटकारा पा जाते थे। फलस्वरूप तलाक़ का डर मुस्लिम औरतों के सिर पर बुरी तरह छाया रहता था।
author : ram swarup