हदीस : तलाक़ की पसन्द तलाक़ नहीं

तलाक़ की पसन्द तलाक़ नहीं

ऐसा लगता है कि घरेलू कलह के अन्य मौके भी आते रहते थे, जिनमें से कुछ रुपए-पैसे को लेकर होते थे। ये मदीना-प्रवास के शुरू के दिनों में हुए होंगे, जबकि मुहम्मद के पास धन की कमी थी। एक बार अबू बकर और उमर मुहम्मद के पास गये और देखा कि वे “अपनी बीवियों से घिरे मायूस और खामोश बैठे हैं।“ उन दोनों पिताओं से उन्होंने कहा-“ये (पैग़म्बर की बीवियां और उन दोनों की बेटियां) मुझे घेरे हुए हैं, जैसा कि आप लोग देख ही रहे हैं, और मुझ से ज्यादा रुपये-पैसे मांग रही हैं।“ तब अबू बकर ”उठे और आयशा के पास गये और उसकी गर्दन पर थप्पड़ जमाया और उमर उठे और हफ़्जा को झापड़ लगाया“ (3506)।

 

इस अवसर पर पैग़म्बर ने अपनी बीवियों के सामने विकल्प रखा कि अगर वे ”दुनिया की जिंदगी और उसकी आराइशों की ख़्वास्तगार हों, बनिस्बत अल्लाह और उसके पैग़म्बर के और बनिस्बत बहिश्त के, तो वे (मुहम्मद) अल्लाह के रसूल उनको अच्छी तरह से रुख़सत कर देंगे“ (कुरान 33/28/29)। बीवियों ने पैग़म्बर और बहिश्त को चुना।

 

अनुवादक के अनुसार इस अहादीस (3498-3506) से यह सबक़ मिलता है कि “औरत की ओर से तलाक़ की पसंद जाहिर होने से ही तलाक़ लागू नहीं माना जाता। वह तभी मान्य होता है, जब सचमुच तलाक़ का इरादा हो।“

 

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