वर्ष 1993 में मुबई में बम विस्फोट द्वारा सैकड़ों लोगों की हत्या करने वाले जघन्य अपराधी और कट्टर आतंकी याकूब अदुल रजाक मेमन को 30 जुलाई 2015 दिन बृहस्पति वार को फांसी दी गयी। यह बड़ा विचित्र संयोग है कि एक ही दिन में दो विपरीत-दुःखद और सुखद घटनाएँ भारत में घटीं। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अदुल कलाम का अन्तिम संस्कार इसी दिन हुआ। राष्ट्र के लिए यह बहुत दुःखद घटना है। एक योग्य वैज्ञानिक, उच्चकोटि का शिक्षक और प्रखर राष्ट्रवादी हमसे छिन गया। यह तो हानि ही हानि है।
दूसरी घटना याकूब मेनन को फांसी दिया जाना है। मृत्यु चाहे स्वाभाविक हो या हत्या हो या फांसी हो, दुःखद होती है। तथापि किसी किसी की मृत्यु (जैसे याकूब को फांसी) पर न्यायप्रिय देशवासी राहत की सांस लेते हैं। वर्ष 1993 में जिस दिन मुबई में सीरियल बम लास्ट हुए, उस दिन मैं (इन पंक्तियों का लेखक) वहीं पर था। वर्ष 1990 से 1998 की अवधि में मैं भारतीय स्टेट बैंक की सेवा में वही पदस्थापित था और नरीमन पाइण्ट क्षेत्र में मन्त्रालय के ठीक सामने एस.बी.आई. के केन्द्रीय कार्यालय में मेरी नियुक्ति थी। मेरे कार्यालय से लगभग डेढ सौ गज की दूरी पर एयर इण्डिया की बहुमंजिली बिल्डिंग में दोपहर के समय भंयकर विस्फोट हुआ। आस पास के भवनों में खिड़कियों के शीशे टूट गये। कुछ लोग पता करने नीचे गए तो ज्ञात हुआ कि अन्य भी कई स्थानों पर और लोकल ट्रेनों में सीरियल (लगातार क्रम में) बम लास्ट हुए हैं और सैकड़ों लोग मारे गए हैं। नगर के वातावरण में अजीब बदहवासी और भयावहता व्याप्त हो गयी । महानगर में लाखों कर्मचारी अपने घरों से बीस से पचास साठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित कार्यालयों में काम करने जाते हैं और यातायात का साधन लोकल ट्रेन ही है। उसी में लास्ट हो रहे थे तो सबके सामने समस्या यह थी कि आज घरों तक कै से पहुंचें। लास्ट होने की सभावना के चलते लोकल ट्रेन से जाने में सभी घबरा रहे थे। उस सीरियल बम लास्ट की घटना में सैकड़ों लोग मारे गए। अरबों रुपये की सपत्ति नष्ट हुई और सारे महानगर में बदहवासी का वातावरण पसर गया। उस जघन्य हत्याकाण्ड का अपराधी यह याकूब मेमन था जिसे टाडा कोर्ट ने मृत्युदण्ड की सजा सुनाई थी। भारत में न्यायपालिका का सिद्धान्त है कि चाहे सौ अपराधी सजा पाने से बच जाएं परन्तु किसी निरपराध को सजा न दी जाए। इसमें भाव तो यह है कि दण्ड अपराधी को ही मिले, किसी निरपराध को दण्डित न किया जाय। परन्तु भारत में आतंकी, हत्यारे, बलात्कारी, माओवादी, नक्सली भारतीय न्याय व्यवस्था के इस सदाशयतापूर्ण प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए दण्ड से बचने का सफल उपाय करते हैं। मानवाधिकार का झण्डा उठाये रखने वाले संगठन (वास्तव में अपराधियों को दण्ड से बचाने हेतु एड़ी से चोटी तक का जोर लगाने वाले अन्तराष्ट्रीय गिरोह) और स्वामी अग्निवेश, सलमान (फिल्मी सितारा), ओबेसी हैदराबाद जैसे समाजसेवी? और एक एक करोड़ रुपये फीस के रूप में लेने वाले उच्चतम न्यायालय के अधिवक्तागण ऐसे आतंकियों को दण्ड से बचाने की जी-तोड़कोशिश करते हैं। गणतंत्रीय शासन प्रणाली का यह बेहद कुरूप चेहरा है। 1993 के इस सीरियल बम लास्ट के पश्चात् इस काण्ड के सूत्रधार और कर्त्ताधर्ता दाऊद, टाइगर मेमन, याकूब मेमन आदि और उनके सहयोगी भारत से भाग गए थे। भारत के ऐसे शत्रुओं के लिए पाकिसतान सुरक्षित आश्रय-स्थली है। उन अपराधी हत्यारों में से यह याकूब नाम का एक आतंकी कानून की पकड़ में आ गया औरउसे मृत्युदण्ड का निर्णय सुना दिया गया। जघन्य अपराधी कानूनी दांव पेंचों को जानता है और वह बारी-बारी से उच्च न्यायालय में, उच्चतम न्यायालय में, राज्यपाल के यहाँ और राष्ट्रपति के यहाँ अपील करके सजा को टालने का प्रयत्न करता है। उसके पास इतने साधन होते हैं कि अपने बचाव के लिए महंगे से महंगे वकीलों की फौज न्यायालय में तैनात रख सकता है परन्तु उन सफेद पोश तथाकथित न्यायवादियों ? को क्या कहा जाए जो 29जुलाई की रात्रि को (वास्तव में अर्द्धरात्रि को) भारत के मुय न्यायाधीश के निवास परपहुँच कर रात्रि में उच्चतम न्यायालय को खुलवाएँ औरउस आतंकी को बचाने के लिए कानूनी दांव पेंच चले और तर्क के स्थान पर कुतर्कों पर उत्तर आएँ। ऐसे लोग तो राष्ट्र-द्रोही और जन-द्रोही हैं। देशवासियों को इनकी निन्दा करनी चाहिए।
माननीय न्यायालय एवं भारत सरकार वास्तव में साधुवाद क पात्र हैं जिन्होंने न्याय किया और न्याय होते हुए भी दिखाई पड़ा। घृणित और दूषित मानसिकता वाले जिन मुस्लिम लोगों ने यह आरोप लगाया कि याकू ब को मुसलमान होने के कारण दण्डित किया है वे भी आपराधिक मानसिकता को पाल पोस रहे हैंऔर इसीलिए निन्दा के पात्र हैं। भारत के आम आदमी के मन में ऐसी संकीर्ण बातें होतीं तो पूर्व राष्ट्रपति अदुल कलाम के महाप्रयाण पर वे आँसू न बहाते। देशभर की शिक्षण संस्थाओं में, संगठनों में, सभाओं में अदुल कलाम पर शोकसभाएं की गयीं, समाचार पत्रों में एवं मीडिया में उन्हें बेहद समान के साथ याद किया गया। क्या बूढ़े, क्या युवा, क्या बच्चे- सभी ने उन्हें याद करके आँसू बहाए। अन्तर केवल इतना है कि एक व्यक्ति उसी आस्था के साथ जीते हुए देश-विदेश में समान का अधिकारी बना और उसके निधन पर राष्ट्रवासी दुःखी हुए। उसी आस्था वाला याकूब मेमन सैकड़ों लोगों की हत्याओं का दोषी सिद्ध हुआ। उसे सजा मिलने पर राष्ट्रवासियों ने राहत की साँस ली। – मेरठ, उ.प्र.