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‘वैदिक धर्म में पिता का गौरव’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय प्रदत्त ज्ञान के ग्रन्थ हैं। इन वदों का सर्वाधिक प्रमाणित भाष्य महर्षि  दयानन्द सरस्वती एवं उनके द्वारा निर्दिष्ट पद्धति द्वारा उनके ही अनुवर्ती विद्वानों का किया हुआ है जिनमें पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. जयदेव विद्यालंकार, पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी,  पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य पं. रामनाथ वेदालंकार आदि का प्रमुख स्थान है। हमारा सौभाग्य है कि हमें पं. विश्वनाथ विद्यालंकार एवं आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी सहित अनेक विद्वानों का सान्निध्य प्राप्त रहा है। महर्षि दयानन्द ने स्त्रियों सहित जन्मना व कर्मणा शूद्रों को भी वेदाध्ययन का अधिकार दिया था। आर्यसमाज ने गुरूकुल खोलकर इन दोनों ही वंचित वर्गों को वेदाध्ययन कराया और अनेक वेद विदुषी एवं वैदिक विद्वान बनाये परन्तु पुरूषों में तो अनेक वेद भाष्यकार हुए परन्तु स्त्रियों में से किसी ने वेदों का भाष्य नहीं किया। हमने इसके लिए श्रद्धेय विदुषी बहन डा. आचार्या सूर्यादेवी वेदालंकृता जी से प्रार्थना की थी। अभी अपनी अनेक व्यस्तताओं के कारण वह इस ओर ध्यान नहीं दे सकी हैं। भविष्य में क्या होना है कोई नहीं जानता। वेदों में ईश्वर, माता, पिता, आचार्य, विद्वान संन्यासियों के गौरव से सम्बन्धित अनेक वचन व मन्त्र आते हैं। इन्हीं से प्रेरणा पाकर हमारे ऋषियों व विद्वानों ने भी अपने ग्रन्थों में इनके गौरव को विस्तार दिया है। इस लेख में हम आचार्य ब्रह्मचारी नन्द किशोर जी की पुस्तक पितृ गौरव के आधार पर पिता के गौरव विषयक कुछ शास्त्रीय वचनों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

पिता शब्द पा रक्षणे धातु से निष्पन्न होता है। यः पाति पिता  जो रक्षा करता है, वह पिता कहलाता है। कई बार हमारे अनेक मित्र, सामाजिक बन्धु, चिकित्सक, अधिवक्ता, रक्षाकर्मी व अनेक पारिवारिक संबंधी हमारी रक्षा की भूमिका में होते हैं। इससे वह पिता अर्थात् हमारी रक्षा की भूमिका में होते हैं। अतः पिता एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है। इसे केवल रूढ़ अर्थों में ही नहीं लिया जाना चाहिये अपितु चिन्तन-मनन कर इसके अनेक प्रयोगों पर विचार किया जाना व उन अर्थों को भी ग्रहण करना चाहिये। ऋषि यास्काचार्य प्रणीत ग्रन्थ निरुक्त के सूत्र 4/21 में कहा गया है-‘‘पिता पाता वा पालयिता वा निरुक्त 6/15 में कहा है –‘‘पितागोपिता अर्थात् पालक, पोषक और रक्षक को पिता कहते हैं।

 

मनुस्मृति वेदमूलक अति प्राचीन ग्रन्थ है। इसके 2/145  सूत्र में पिता के गौरव का वर्णन मिलता है। श्लोक है-उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते।। श्लोक का अर्थ है कि दस उपाध्यायों से बढ़कर आचार्य, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता और एक हजार पिताओं से बढ़कर माता गौरव में अधिक है, अर्थात् बड़ी है। मनुस्मृतिकार ने जहां आचार्य और माता की प्रशंसा की है, उसी प्रकार पिता का स्थान भी ऊंचा माना है। मनुस्मृति के श्लोक 2/226 में ‘‘पिता मूर्त्ति: प्रजापतेः कहकर बताया गया है कि पिता पालन करने से प्रजापति (राजा व ईश्वर) का मूर्तिरूप है।

 

महाभारत के वनपर्व में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी माता व पिता के विषय में प्रश्नोत्तर हुए हैं जिसमें इन दोनों मूर्तिमान चेतन देवों के गौरव का वर्णन है। यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न करते हैं कि का स्विद् गुरुतरा भूमेः स्विदुच्चतरं खात्। किं स्विच्छीघ्रतरं वायोः किं स्विद् बहुतरं तृणात्।। अर्थात् पृथिवी से भारी क्या है? आकाश से ऊंचा क्या है? वायु से भी तीव्र चलनेवाला क्या है? और तृणों से भी असंख्य (असीम-विस्तृत) एवं अनन्त क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि माता गुरुतरा भूमेः पिता चोच्चतरं खात्। मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्।। अर्थात् माता पृथिवी से भारी है। पिता आकाश से भी ऊंचा है। मन वायु से भी अधिक तीव्रगामी है और चिन्ता तिनकों से भी अधिक विस्तृत एवं अनन्त है। महाभारत में पिता को आकाश से भी ऊंचा माना है, अर्थात् पिता के हृदयआकाश में अपने पुत्र के लिए जो असीम प्यार होता है, वह अवर्णनीय है।

 

माता-पिता का अपने पुत्र के प्रति कितना प्रेम, स्नेह, मोह वा त्याग भाव होता है यह भारतीय इतिहास में माता-पिता के आज्ञाकारी पुत्र श्रवण कुमार व अयोध्या नरेश राजा दशरथ के पुत्र राम के उदाहरणों से ज्ञात होता है। इन दोनों उदाहरणों में पुत्र का वियोग होने व दूर हो जाने पर दोनों पिताओं ने अपने प्राण त्याग दिये। इससे पिता के गौरव का अनुमान किया जा सकता है। महाभारत शा. 266/21 में कहा गया है कि पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवता।। अर्थात् पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

 

पद्मपुराण के 47/12-14 श्लोकों में भी पिता का गौरवगान मिलता है। ग्रन्थकार ने कहा है कि सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता। मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्।।12।।  मातरं पितरं चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्। प्रदक्षिणीकृता तेन सप्त द्वीपा वसुन्धरा।।13।।  जानुनी करौ यस्य पित्रोः प्रणमतः शिरः। निपतन्ति पृथिव्यां सोऽक्षयं लभते दिवम्।।14।। इन श्लोकों का तात्पर्य है कि माता सर्वतीर्थमयी (दुःखों से छुड़ानेवाली तीर्थ) है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है, अतएव प्रयत्नपूर्वक सब प्रकार से मातापिता का आदरसत्कार करना चाहिए। जो मातापिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपों से युक्त सम्पूर्ण पृथिवी की परिक्रमा हो जाती है। मातापिता को प्रणाम करते समय जिसके हाथ, घुटने और मस्तक पृथिवी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है।

 

महाभारत के आदि पर्व के 3/37 श्लोक में तीन पिताओं का वर्णन है। श्लोक आता है कि शरीरकृत् प्राणदाता यस्य चान्नानि भुंजते। क्रमेणैते त्रयोऽप्युक्ताः पितरो धर्मशासने।। इस श्लोक में बताया गया है कि जो गर्भाधान द्वारा शरीर का निर्माण करता है वह प्रथम, जो अभयदान देकर प्राणों की रक्षा करता है वह द्वितीय और जिसका अन्न भोजन किया जाता है वह तृतीय, यह तीनों पिता होते हैं।

 

पिता के गौरव से सम्बन्धित समस्त वैदिक साहित्य में अनेकानेक महत्वपूर्ण वचन भरे पड़े हैं। वेद और वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करने वालों को यह रत्न प्राप्त होते हैं। आज की युवा पीढ़ी वैदिक साहित्य के अध्ययन से विरत व दूर है जिससे आज अनेकों माता-पिता अपनी ही सन्तानों से सेवा व मात-पिता की पूजा के स्थान पर उनसे अवहेलना, उपेक्षा, निरादर व अनेक प्रकार से उत्पीड़न झेल रहे हैं। इस बुराई को केवल वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन व वैदिक विद्वानों की संगति व उपदेशों से ही दूर किया जा सकता है। आज की शिक्षा भी बच्चों व बड़े विद्यार्थियों को माता-पिता व आचार्य के यथार्थ गौरव को बताने में कोषों दूर है। जब तक संसार में वेद और वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि ग्रन्थों का प्रचार व आदर नहीं होगा और संसार के लोग मत-मतान्तरों की आधी-अधूरी व अनेकशः परस्पर विरोधी बातों से ऊपर नहीं उठेंगे, संसार का कल्याण होना दुष्कर है। संसार के सभी विद्वानों व शिक्षाविदों को अपने पूवाग्रहों व मत-मतान्तरों के मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठकर सभी विद्यार्थियों को वैदिक शिक्षाओं से दीक्षित करने पर विचार करना चाहिये जिससे विश्व को भविष्य में कर्तव्यपरायण, देशप्रेमी, चरित्रवान्, परोपकारी, निष्पक्ष व सत्य न्यायाचरण करने वाली युवा पीढ़ी प्राप्त हो सके।

मनमोहन कुमार आर्य

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