पुराण और गप्प दोनों शब्द अन्योन्याश्रित हैं। जब गप्पे अधिक हो जायें तो पुराण बन जाता है। पुराण है तो गप्पों की भरमार होनी है। सामान्य रूप से सभी धार्मिक लोग धर्म में चमत्कार बताने के लिये गप्पों का आश्रय लेते ही हैं। इसी कारण धर्मग्रन्थों में गप्पों की कमी नहीं मिलती। पुराण और जैन ग्रन्थ तो गप्पों में एक से एक बढ़कर हैं। गरुड़ पुराण में भी गप्पों की कमी नहीं है। गरुड़ पुराण में यमलोक के मार्ग का वर्णन करते हुए मार्ग में पड़ने वाली वैतरणी नदी की चौड़ाई शत योजन विस्तीर्ण अर्थात् सौ योजन चौड़ी बताई है, एक योजन में चार कोस होते हैं, एक कोस में दो मील होते हैं। यह नदी कोई पानी की नदी नहीं है, यह नदी पूय शोणित वाहिनी अर्थात् जिसमें खून और पस बहती है। ऐसी कोई नदी संसार में है नहीं परन्तु पुराणकार के नक्शे में तो है। एक आर्यसमाजी को गरुड़ पुराण का परिचय सत्यार्थप्रकाश की निन पंक्तियों से मिलता है, जो अन्यों के लिए भी उतना ही सटीक है-
प्रश्न- क्या गरुड़ पुराण भी झूठा है?
उत्तर- हाँ, असत्य है।
प्रश्न- फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?
उत्तर- जैसे उनके कर्म हैं।
प्रश्न- जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उसके बड़े भयङ्कर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं, पाप-पुण्य के अनुसार नरक-स्वर्ग में डालते हैं। उसके लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि वैतरणी नदी तारने के लिये करते हैं। ये सब बात झूठ क्योंकर हो सकती हैं।
उत्तर- ये सब बातें पोपलीला के गपोड़े हैं। जो इस लोक से भिन्न लोकों के जीव वहाँ जाते हैं, उनका धर्मराज, चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो यदि यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहाँ के न्यायाधीश उनका न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरनेवाले जीव को लेने में छोटे द्वार में रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बड़े-बड़े हाड़ पोपजी विना अपने घर के कहाँ धरेंगे? जब जङ्गल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उनको पकड़ने के लिये असंय यम के गण आवें तो वहाँ अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उनके शरीर ठोकरें खा जायेंगे तो जैसे पहाड़ के बड़े-बड़े शिखर टूटकर पृथिवी पर गिरते हैं, वैसे उनके बड़े-बड़े अवयव गरुड़पुराण के बाँचने-सुनने वालों के आँगन में गिर पड़ेंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे? श्राद्ध, तर्पण, पिण्ड-प्रदान उन मरे हुए जीवों को तो नहीं पहुँचता, किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोपजी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है। जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं, वह तो पोपजी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुँचता है। वैतरणी पर गाय नहीं जाती, पुनः किसकी पूँछ पकड़ कर तरेगा? और हाथ तो यहीं जलाया वा गाड़ दिया गया, पूँछ को कैसे पकड़ेगा? यहाँ एक जाट का दृष्टान्त इस बात में उपयुक्त है-
एक जाट था। उसके घर में बीस सेर दूध देनेवाली गाय थी। दूध बड़ा स्वादिष्ट होता था। कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था। उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा थ कि जब जााट का बुड्ढा बाप मरने लगेगा तब इस गाय का सङ्कल्प करा लेंगे। दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया। जीभ बन्द हो गई और खाट से नीचे उतार सुवाया। बहुत से जाट के सबन्धी उपस्थित थे। उस समय पोपजी पुकारा- ‘‘लो यजमान! इसके हाथ से गोदान कराओ।’’ जाट ने दश रुपया निकाल, पिता के हाथ में रखकर बोला- ‘‘पढ़ो सङ्कल्प!’’ पोपजी बोले- ‘‘वाह! बाप वारवार मरता है? साक्षात् गाय लाओ, वह दूध भी देती हो, बुड्ढी न हो और सब प्रकार उत्तम हो।’’
जाट- एक गाय हमारे है, उसके विना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह नहीं हो सकता, उसको न दूंगा। लो ये बीस रुपये का सङ्कल्प। तुम दूसरी गाय ले लेना।
पोपजी- वाहजी वाह! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? अपने पिता को वैतरणी में डुबा, दुःख देना चाहते हो? तुम अच्छे सुपुत्र हुए! तब तो पोपजी की ओर सब कुटुबी हो गये, क्योंकि उन सबको पहिले ही से पोपजी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान पोपजी को दिला दिया। उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया। पोपजी गाय, बछड़ा और दूध दोहने की बटलोही लेकर, घर में जा, गाय-बछड़े को बांध, बटलोही को धर, यजमान के घर आया, श्मशान में ले जा, दाह किया। वहाँाी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई। पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा। महाब्राह्मणों ने भी लूटा, भुक्खड़ों ने भी बहुत-सा माल पेट में भरा। जब सब हो चुका, तब जाट ने जिस-किसी के घर से दूध माँग-मूंग निर्वाह किया। चौदहवें दिन प्रातःकाल पोपजी के घर पहुँचा। देखा तो गाय को दुह, बटलोई भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी। इतने ही में जाटजी पहुँचे। पोपजी ने कहा आइये बैठिये!
जाटजी- तुम भी इधर आओ।
पोपजी- अच्छा दूध धर आऊँ।
जाटजी- नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ। पोपजी जो, बटलोई सामने धर, बैठे।
जाटजी- तुम बड़े झूठे हो।
पोपजी- क्या झूठ किया?
जाटजी-गाय किसलिये ली थी?
पोपजी- तुहारे बाप के वैतरणी तरने के लिये।
जाटजी- फिर तुमने वैतरणीके किनारे क्यों न पहुँचाई? हम तुहारे भरोसे पर रहे। न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे?
पोपजी- नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बन गई। तुहारे बाप को पार उतार दिया।
जाटजी- वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है?
पोपजी- अनुमान तीस क्रोड़ कोश दूर है। क्योंकि उनञ्चास कोटि योजन पृथिवी है और दक्षिण नैर्ऋत दिशा में वैतरणी नदी है।
जाटजी- इतनी दूर से तुहारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहाँ पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ?
पोपजी- हमारे पास ‘गरुड़पुराण’ के लेख के विना डाक वा तारवर्की दूसरी कोई नहीं।
जाटजी- इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें?
पोपजी- जैसे सब मानते हैं।
जाटजी- यह पुस्तक तुहारे पुरुखाओं ने तुहारी जीविका के लिये बनाया है। क्योंकि पिता को विना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं। जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी के किनारे गाय पहुँचा दूँगा और उनको पार उतार, पुनः गाय को घर में ले आ, दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ! दूध की भरी हुई बटलोई, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला।
पोपजी- तुम दान देकर लेते हो, तुहारा सत्यनाश हो जायगा।
जाटजी- चुप रहो! नहीं तो तेरह दिन तक दूध के विना जितना दुःख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूँगा। तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले, अपने घर पहुँचे।
जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले।
सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 11, पृ. 408-411
इसी प्रकार इक्कीस प्रकार के नरकों का वर्णन किया गया है। गरुड़ पुराण अन्य पुराणों की भांति यज्ञों में पशु हिंसा का भी उल्लेख करता है, वेदोक्त यज्ञ की हिंसा के अतिरिक्त अपने लिये पशु मारता है, ऐसा ब्राह्मण वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में शूद्र द्वारा वेद पढ़े जाने पर दण्ड विधान है, वेद पढ़ने वाला शूद्र भी वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में लिखा है जो शूद्र होकर वेद पढ़ता है, जो शूद्र कपिला गाय का दूध पीता है, यज्ञोपवीत धरण करता है, ब्राह्मणों से संसर्ग करता है, ऐसा वेद पढ़ने वाला शूद्र वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में लिखा है- दूसरी नदियाँ स्नान करने से पापी पुरुष को पवित्र करती हैं। यह गंगा नदी दर्शन तथा स्पर्श से, पान करने से, गंगा शब्द के उच्चारण मात्र से हजारों पापी पुरुषों को पवित्र कर देती है। यदि प्राण कण्ठ में आ गये हों फिर भी यदि मनुष्य गंगा-गंगा ऐसा उच्चारण करे तो वह विष्णु लोक को प्राप्त होता है। इसी प्रकार गरुड़ पुराण में सती-प्रथा का भी महत्व बताते हुए कहा गया है- यदि पतिव्रता स्त्री पति के साथ परलोक जाने की इच्छा करे, तब वह पति के मरने के बाद स्नानकर, रोली, केसर, अंजन, सुन्दर वस्त्र, आभूषण धारण कर ब्राह्मण व बन्धु वर्ग को यथायोग्य दान करे। गुरुजनों को नमस्कार करे, मन्दिर में देवता के दर्शन करे, पहने हुए आभूषण उतारकर विष्णु को अर्पित कर दे। श्रीफल लेकर सब मोह छोड़ श्मशान पहुँचे। सूर्य को नमस्कार कर चिता की परिक्रमा कर चिता को पुष्प शय्या समझकर उस पर बैठकर पति को अपनी गोदी में लिटाये। हाथ का श्रीफल सखि को दे अग्नि जलाने का आदेश दे और इस अग्निदाह को गंगा-स्नान समझे। स्त्री गर्भवती हो तो पति के साथ शरीर दाह न करे। पति के साथ चिता में जलने वाली स्त्री का शरीर तो जल जाता है परन्तु आत्मा को कुछ भी कष्ट नहीं होता, सती होने पर नारी के पाप वैसे ही दग्ध हो जाते हैं, जैसे अग्नि में धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं। पतिव्रता स्त्री को अग्नि उसी प्रकार नहीं जलाती जैसे सत्य बोलने वाले मनुष्य को अग्नि नहीं जलाती। पुराणकार कहता है- यदि स्त्री पति के साथ दग्ध हो जाती है तो वह फिर कभी स्त्री शरीर धारण नहीं करती, अन्यथा हर जन्म में वह स्त्री ही बनती है। सती होने वाली स्त्री अरुन्धती सदृश होकर स्वर्ग लोक में पूजनीय बन जाती है। स्वर्गलोक में चौदह इन्द्र के राज्य करने तक अपने पति के साथ आनन्द मनाती हुई, अप्सराओं के द्वारा स्तुति को प्राप्त होती है। सती होने होने वाली स्त्री माता-पिता-पति तीनों कुलों का उद्धार करती है। मनुष्य के शरीर पर साढ़े तीन करोड़ रोम हैं, इतने वर्षों तक सती स्त्री स्वर्ग में रहती है, सूर्य-चन्द्र के रहने तक पतिलोक में निवास करती है। सती स्त्री अपनी इच्छा से पुनः लक्ष्मीवान कुल में जन्म धारण करती है। पुराण गप्पकार अन्त में कहता है- जो स्त्री क्षणमात्र अग्निदाह के दुःख से भयभीत अपने को नहीं जलाती, वह जन्मपर्यन्त वियोग अग्नि में जलती है और दुःखी होती है। अतः स्त्री को उचित है कि पति को रुद्र रूप जानकर उसके साथ अपने शरीर का दाह करे।
गरुड़ पुराण में सोलह अध्याय हैं परन्तु इस पुराण का मन्तव्य नौवें अध्याय से तेरहवें अध्याय में पूर्ण हो जाता है। प्रारभ के अध्यायों में यम मार्ग की चर्चा है। यमालय, वैतरणी का वर्णन है। आगे किस पाप को करने से मनुष्य कौनसी योनि को प्राप्त करता है, बताया गया है। गर्भ के दुःख किस प्रकार के हैं, यह बताकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करने की भूमिका में कहा गया है- मनुष्य पाप करके भी कैसे पाप के दुःखों से बच सकता है, उसके उपाय के रूप में पुत्र-प्राप्ति और पुत्र द्वारा किया श्राद्ध मनुष्य को सभी दुःखों से छुड़ा देता है, यहाँ भूमिका के रूप में एक कथा कही गई है, जो राजा एक प्रेत का और्ध्व दैहिक कर्म करके उसे दुःखों से मुक्ति दिला देता है।
मनुष्य मरने लगे तो उसे शैय्या से उतार कर तुलसी दल के पास गोबर से लिपे स्थान पर लिटा दे। पास में शालीग्राम रखे। इससे निश्चित मुक्ति होती है। तिलदान, दर्भ का स्पर्श, शालीग्राम का जल पिलाना, गंगाजल मुख में डालना। जो मनुष्य धर्मात्मा होता है, उसके प्राण शरीर के उपरि छिद्र से निकलते हैं। जो पापी होता है, उसके प्राण देह के निन छिद्रों से निकलते हैं। विष्णुलोक से विमान आकर उस आत्मा को विष्णु लोक ले जाता है।
दसवें अध्याय में मृत्यु के बाद, पुत्र मुण्डन कराये, गंगा की मिट्टी का शरीर पर लेप करे, शव को स्नान कराकर चन्दन का लेप करे, नवीन वस्त्र से ढककर पिण्डदान करे, परिवार के लोग शव की प्रदिक्षणा कर सर्वप्रथम पुत्र अर्थी को कन्धा देवे। अग्नि की प्रार्थना कर श्मशान में चिता बनावे, पिण्ड बनाकर चिता में रखे, सपिण्ड श्राद्ध करे। जो पञ्चक में मरता है, उसकी सद्गति नहीं होती, पञ्चक पांच नक्षत्रों को कहते हैं। इनमें मरने पर पहले नक्षत्रों की पूजा करे, पत्नी सती होना चाहे तो सती हो जाये। शव का दाह कर कपाल क्रिया करे। स्त्रियाँ स्नान कर तिलाञ्जलि देवें। घर आकर स्नानकर गो ग्रास दे, जो भोजन अपने घर न पका हो, उसका पत्तल में भोजन करे। बारह दिन तक मृतक के स्थान पर घृत का दीपक जलाये। चौराहे पर दूध पानी रखे। तीसरे या चौथे दिन श्मशान जाकर अस्थि का चयन करे। दूध का जल छिड़क कर अग्नि को शान्त करे। तीन दिशा में तीन पिण्ड दान करे। चिता भस्म को इकट्ठा कर उसपर पानी भरा घड़ा रखे, श्मशान में प्रथम गड्ढे में अस्थि-पात्र रखे फिर जलाशय में ले जावे, फिर यथाविधि गंगा में प्रक्षेप करे। जिसकी अस्थियाँ जितने वर्ष गंगा में रहती हैं, वह उतने वर्ष स्वर्ग लोक में रहता है। संन्यासियों को जल में बहा दे या भूमि में गाड़ दे।
ग्यारहवें अध्याय में दशगात्र विधि का वर्णन है। मरे व्यक्ति का पाक्षिक, मासिक, फिर वार्षिक श्राद्ध करे। दशरात्रि प्रेत के नाम पर दूध, दीप, नैवेद्य, सुपारी, पान, दक्षिणा, दूध, पानी आदि देवे, जो प्रेत के नाम से देते हैं, वह प्रेत को प्राप्त हो जाता है। इस में पहले दिन से दसवें दिन तक प्रतिदिन क्या करे, इसका वर्णन है। दसवें दिन सब परिवार वाले मुण्डन कराके स्नान कर ब्राह्मणों को दसों दिन तक मिष्टान्न भोजन कराये, गो ग्रास दे कर भोजन करें।
ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग करे, शय्यादान करे, शय्या में विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर दान करें, प्रेत के लिये गौ, वस्त्र, वाहन, आभूषण, घर जो भी जितना देने में समर्थ हो, उतना ब्राह्मणों को दान करे। ब्राह्मणों के चरण धोये, लड्डू मिष्टान्न आदि देवें। वृषोत्सर्ग करने से मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें अड़तालीस प्रकार के श्राद्ध बताये गये हैं।
अगले तेरहवें अध्याय में सूतक का वर्णन है। किस दुर्घटना से किस सबन्ध को कितने दिन का सूतक होता है, यह विस्तार से बताया गया है। हर स्थान पर शय्या दान, पददान का विधान है। पददान में छाता, जूता, वस्त्र, अंगूठी, कमण्डल, आसन, पञ्चपात्र, इन सात वस्तुओं का नाम पद है। इसके बाद तेरह ब्राह्मण को भोजन करावें। फिर तीर्थ-श्राद्ध, गया-श्राद्ध, पितृ-श्राद्ध करने का विधान है। इस प्रकार श्राद्ध करने से पितर तृप्त और प्रसन्न होते हैं।
गरुड़ पुराण में बहुत सारी बाते प्रसंगवश उद्धृत हैं, उनपराी दृष्टि डालना उचित होगा। एक लबी सूची दी गई है, क्या-क्या करने से मनुष्य नरक को प्राप्त होते हैं, पूरा चौथा अध्याय ऐसा है, जिसका शीर्षक है- ते वै नरक गामिनः। ब्राह्मण यदि यज्ञ न करे, अखाद्य खाये तो अगले जन्म में व्याघ्र बनेगा। पाँचवें अध्याय में क्या करने से कौन-सी योनि प्राप्त होती है, इसका वर्णन किया गया है। जैसे जो बाहर से ब्राह्मण वेषधारी है, सन्ध्या नहीं करता, वह अगले जन्म में बगुला बनता है। मनुष्य के शुभाशुभ कर्म समान होने पर पुनः मनुष्य जन्म मिलता है- ‘‘मानुषं लभते पश्चात् समी भूते शुभाऽशुभे। 5/52’’ छठे अध्याय में मनुष्य के तीन ऋण की चर्चा की गई है। गर्भ में वृद्धि किस प्रकार होती है, इसकी प्रसंग से चर्चा की गई है। जीवन की नश्वरता बताते हुए धर्माचरण करने की प्रेरणा दी गई है। कर्मफल के अनुसार मनुष्य पुनर्जन्म को प्राप्त करता है। ग्यारहवें अध्याय में शरीर की अनित्यता का सुन्दर वर्णन है। मरने वाले के लिये रोना व्यर्थ है, वह कभी लौटकर नहीं आता। चौदहवें अध्याय में स्वर्ग की धर्मसभा का वर्णन है, इसमें लबी चौड़ी गप्पें लगाई गई हैं। उस धर्म सभा में वेद-पुराण का पारायण करने वालों को स्थान मिलने की चर्चा है। इसी अध्याय में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासियों का भी उल्लेख मिलता है। नवीन वेदान्त की चर्चा में अध्यारोप अपवाद से ब्रह्म चिन्तन करने का विधान किया गया है। शरीर के पारमार्थिक और व्यावहारिक दो रूपों का वर्णन किया गया है। शरीर के अन्दर सात लोक कौनसे हैं? इस की चर्चा है। मोक्ष प्राप्ति के लिये अजपा गायत्री जप का विधान किया है। धर्मात्मा स्वर्ग का सुख पाकर पुनः गर्भ में कैसे आता है, इसका वर्णन करते हुए सुन्दर शदों में मनुष्य के शरीर का महत्त्व बताया गया है।
गरुड़ पुराण मुय रूप से और्ध्व दैहिक क्रियाओं के विधि विधान का ग्रन्थ है। जिसमें ब्राह्मणों ने अपने काल्पनिक भय दिखा कर मनुष्य को मृतक के निमित्त से भोजन, दानादि कराने की व्यवस्था है, जिससे परपरा से ब्राह्मणों के अधिकारों का संरक्षण देखने को मिलता है, जैसा कहा गया है-
यह संसार देवताओं के आधीन है, देवता मन्त्रों के आधीन है, मन्त्र ब्राह्मण के आधीन है, अतः सारा संसार ब्राह्मणों के आधीन होता है।
देवाधीनं जगत्सर्वं, मन्त्राधीनाश्च देवताः।
ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनाः, तस्मात् ब्राह्मण दैवतम्।।
– धर्मवीर