दिल्ली से स्वामी अग्निवेश के साप्ताहिक समाचार-पत्र वैदिक सार्वदेशिक में भवानीलाल जी का एक लेख ‘आर्यसमाज में उच्चतर शोध की स्थिति सन्तोषप्रद नहीं’ शीर्षक से अंक २९ जनवरी से ४ फरवरी, पृष्ठ संख्या ०६ पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख के शीर्षक से लेखक के पीड़ित होने का तो पता लग रहा है, परन्तु पीड़ा आर्यसमाज के शोध को लेकर है या परोपकारिणी सभा को लेकर है, क्योंकि भारतीय जी सभा के सम्मानित सदस्य और अधिकारी भी रहे हैं, इस प्रकार यह बात पाठक को पूरा लेख पढ़ने के बाद ही स्पष्ट हो पाती है।
लेख में जिन-जिन शोध संस्थाओं की तथा शोध विद्वानों की चर्चा की है, उन संस्थाओं के विद्वान् दिवंगत हो चुके हैं या फिर उन संस्थाओं का वर्तमान में शोध कार्यों से कोई विशेष सम्बन्ध देखने में नहीं आता। डॉ. भारतीय जी की पीड़ा को समझने के लिए उन्हीं की शब्दावली को पहले देख लेने से पीड़ा का कारण समझने में सहायता मिलेगी, वे व्यथापूर्ण श द इस प्रकार हैं- ‘‘इधर अजमेर में परोपकारिणी सभा ने कुछ वर्ष पूर्व करोड़ों रुपये व्यय कर ऋषि उद्यान में विशाल बहुमंजिला भवन तो खड़ा कर लिया, परन्तु रिसर्च के नाम पर शून्य है। केवल ऋषि मेले के समय चार दिनों के लिये यह भवन काम में आ जाता है, अन्यथा शोध के नाम पर यह सब आडम्बर ही है। यह अवश्य हुआ है कि सत्यार्थप्रकाश के संशोधित ३७वें संस्करण ने एक नया विवाद अवश्य खड़ा कर दिया है। पं. मीमांसक तथा पं. रामनाथ वेदालंकार की उपेक्षा की गई और विसंवाही स्थिति बनी। तो संस्थाओं द्वारा प्रारम्भ किये गये शोध प्रकल्पों का अन्ततः यह हश्र देखा गया।’’
इन पंक्तियों के उत्तर में सभा ने क्या शोध कार्य किये, कराये हैं और करा रही है? यह सब परोपकारी पत्रिका के माध्यम से सर्वविदित है। फिर उस विवरण से भारतीय जी की पीड़ा तो शान्त होने से रही, क्योंकि पीड़ा के कारण दूसरे हैं जिनका इस प्रसंग में उल्लेख करना उचित होगा।
भारतीय जी को करोड़ों रुपये व्यय करके विशाल बहुमंजिला भवन रिसर्च के नाम पर शून्य लगता है और शोध के नाम पर आडम्बर। भारतीय जी को पता नहीं कि भवन में क्या होता है, कोई बात नहीं, किन्तु जिस जनता ने करोड़ों रुपये सभा को दान दिये, डॉ. जी की दृष्टि में तो उन बेचारों ने गलती ही की होगी। भवन की भव्यता पर एक आर्यसमाज प्रेमी ने वास्तुकार माणकचन्द राका जी से कहा- आपने ऋषि उद्यान में इतना विशाल भवन बनाकर पैसों का अपव्यय ही किया है, तब राका जी ने उस प्रेमी से पूछा- क्या सैंकड़ों और हजारों करोड़ों रुपये लगाकर जब एक भव्य होटल बनाया जाता है और जिसमें शराब की बोतल आधी नंगी लड़कियाँ पीती हैं, क्या वहाँ कभी इस अपव्यय का विचार आपके मन में आया है? फिर यहाँ कुछ साधु, संन्यासी, ब्रह्मचारी, विद्वान् लोग शास्त्रों को पढ़े-पढ़ायेंगे तो आपके मन में अपव्यय जैसी बात कैसे आई? वह बेचारा तो चुप रह गया, परन्तु भारतीय जी की पीड़ा उस भवन को लेकर अभी तक शान्त नहीं हुई। भारतीय जी की दानशीलता के सभा पर कितने उपकार हैं, उनको स्मरण किया जाना अनुचित नहीं होगा। जब महर्षि की बलिदान शताब्दी मनाई गई तो आर्यजनों ने सभा व समारोह के लिए लाखों रुपये का दान एकत्रित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण लोगों को रसीद बुक दी हैं। समारोह सम्पन्न हुआ। समारोह की दक्षिणा लेने के पश्चात् भारतीय जी ने एक भी रसीद बिना काटे कोरी रसीद बुक सभा को लौटाने का कार्य किया, फिर भी करोड़ों रुपये का भवन बन गया, इस शोध का बोध है या नहीं, पता नहीं।
अजमेर, चण्डीगढ़, जोधपुर रहते हुए अपनी प्रतिदिन भेजी जाने वाली व्यक्तिगत डाक के पैसे वे अजमेर निवास के समय से सभा से निरन्तर माँगते और लेते रहे हैं, जिनके बन्द कर दिये जाने से ‘सभा का शोध कार्य रुक गया’, यह अनुभूति होना बहुत स्वाभाविक है। भारतीय जी को सभा द्वारा अपनी तथाकथित उपेक्षा का दुःख बहुत दिनों से व्यथा दे रहा है, सभा की निन्दा करने जैसा शुभ कार्य आपने अपनी आत्मकथा में भी किया है।
नवजागरण के पुरोधा पुस्तक लिखकर सार्वदेशिक सभा में रखी गई, वहाँ नहीं छप सकी तो सभा मन्त्री श्रीकरण शारदा जी को शताब्दी के अवसर पर छपवाने के लिये प्रार्थना की और उन्होंने वह छाप दी तथा छपने के बाद स्वामी सत्यप्रकाश जी के माध्यम से रॉयल्टी की माँग की और कुछ सौ पुस्तकें लेकर माने। ऊपर से कलम में यह भी कहने का दम रखते हैं कि जिस सभा के संस्थापक का मैंने शोध पूर्ण जीवन लिखा है, उस सभा को मेरा कृतज्ञ होना चाहिए, इसके विपरीत यह सभा मेरी उपेक्षा करती है। यह शोध सभा में आजकल सच में नहीं हो रहा।
परोपकारी के सम्पादन का भार तो डॉ. जी ने उठाया और उसमें शोधपूर्ण लेख तो कभी भी देखे जा सकते हैं। इस प्रसंग में शोध की बात यह है कि समीक्षा के नाम पर आई पुस्तकों की समीक्षा करके पुस्तक बेचकर पैसे जेब में रखने से अच्छा शोध और क्या हो सकता है? इस क्रम में एक प्रसंग याद आ रहा है। भारतीय जी की चण्डीगढ़ से भेजी समीक्षा नहीं छपी। भारतीय जी द्वारा कारण पूछने पर उन्हें बताया गया कि समीक्षा के लिए पुस्तक की दो प्रतियाँ आती हैं- एक समीक्षक को मिलनी चाहिए, एक सभा को, तो मान्य भारतीय जी ने अपना शोध कौशल दिखा दिया। एक फर्जी बिल भारतीय साहित्य सदन के नाम से बनाया और समीक्षा के लिए आई पुस्तकों के सभा से ही पैसे वसूल कर लिए, इसे कहते हैं शोध। वह बिल बुक भारतीय जी के काम आज भी आ रही होगी। बिल सभा के संग्रह में शोभायमान है।
भारतीय जी जानते हैं, संस्था समाजों से अभिनन्दन कराने से प्रतिष्ठा भी मिलती है और इस बहाने धन भी मिल जाता है। भारतीय जी ने अपने शिष्यों, मित्रों के माध्यम से अभिनन्दन समारोह का उपक्रम किया। प्रश्न था अभिनन्दन ग्रन्थ छपवाने का। वे सभा के सम्मान्य सदस्य भी थे, उन्होंने सभा से कहा- ग्रन्थ प्रकाशित कर दें। मेरे शिष्य लोग इसका व्यय दे देंगे। सभा ने अभिनन्दन ग्रन्थ तो छाप दिया, ग्रन्थ भी छप गया, भेंट का पैसा भारतीय जी को मिल गया, है न कमाल का शोध। सम्भवतः आजकल सभा ऐसा शोध न कर पा रही हो।
आर्यसमाज के एक प्रतिष्ठित विद्वान् थे, वे अपने बड़े पुस्तकालय की सदा चर्चा करते थे। पं. जी के अन्तरंग मित्र जो उनसे परिहास में पूछ लिया करते थे कि पं. जी इनमें से खरीदी हुई कितनी हैं और कबाड़ी हुई कितनी? लगभग वही कहानी भारतीय जी के शोध पुस्तकालय की है। सभा में शोधार्थी आते रहते हैं, एक बार एक छात्रा दयानन्द विश्वविद्यालय अजमेर से ऋषि दयानन्द विषयक शोध कार्य कर रही थी, उसे सभा के कार्यकर्ताओं ने परामर्श दिया, जोधपुर जाकर भारतीय जी के पुस्तकालय की भी सहायता तुम्हें लेनी चाहिए, वहाँ आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द विषयक प्रचुर सामग्री है। उस छात्रा ने जोधपुर जाकर पुस्तकें देखीं, उसे सामग्री भी मिली परन्तु शोध की बात यह है कि छात्रा ने कहा– परोपकारिणी सभा के पुस्तकालय की दुर्लभ पुस्तकें तो भारतीय जी के संग्रहालय में हैं, तब सभा के कार्यकर्ता को कहना पड़ा कि वहाँ भी सभा का ही पुस्तकालय है। इस बहुचर्चित पुस्तकालय के नाम पर एक और संस्था भी भारतीय जी के शोध का शिकार हो गई। उस संस्था के संचालक ने भारतीय जी से कहा- आपके बाद तो कोई इनका उपयोग करने वाला नहीं हैं, आप अपना पुस्तकालय हमारी संस्था को बेच दें जैसा सुना जाता है भारतीय जी डेढ़ लाख रुपये माँग रहे थे और संस्था वालों ने उन्हें ढाई लाख रुपये दिये। इसमें शोध की बात यह है कि इस सौदे में महत्वपूर्ण पुस्तकें फिर बचाली गईं। हो सकता है फिर कोई शोध करने का अवसर मिल जाये। आज वहाँ के पुस्तकालय में जाकर सभा की मोहर लगी पुस्तकें देखी जा सकती हैं।
यदि कोई व्यक्ति सभा का अधिकारी होकर दुर्लभ पुस्तकें निकाल कर ले जाये तो यह शोध प्रेम ही कहा जायेगा। दुनिया में पैसे से तो सभी प्रेम करते हैं। उलटे-सीधे बिल बनाते हैं, यह तो समाज की मान्य परम्परा है, इसप्रकार शोध प्रेमियों को किसी भी प्रकार खरीदकर, उधार लेकर (बाई, बोरो एण्ड स्टील) पुस्तक प्राप्त करने का अधिकार पुराने ज्ञान मार्गियों ने दिया है। यह शोध कार्य का ही प्रमाण है।
स्वामी सर्वानन्द जी महाराज ने दयानन्द आश्रम के भवन में भारतीय जी को जिन शब्दों से सम्बोधित किया था वे शायद आज भी उन्हें स्मरण होंगे। भारतीय जी ने रामनाथ जी वेदालंकार और युधिष्ठिर मीमांसक जी की उपेक्षा करने का आरोप लगाया है, सत्यार्थप्रकाश में जो भी कार्य किया गया है, वह सब विद्वानों के सामने है, और इनको जाँचने का सबको अधिकार है। इसमें आप भी शोध कार्य कर सकते हैं। सभा की दृष्टि में जो सर्वोत्तम हो सकता है उसे ही प्रस्तुत करने का प्रयास रहा है। पुस्तक आपके सामने है, आप जो भी त्रुटि बतायेंगे उसपर सभा अवश्य विचार करेगी। सभा ने सदा ही सुझावों को आमन्त्रित किये हैं, प्राप्त सुझाओं का स्वागत भी किया है। यदि विवाद हुआ है तो उस मण्डली के सदस्य भी डॉ. साहब थे।
इसके आगे भी यदि सभा के शोध कार्य के विषय में कोई प्रश्न भारतीय जी उठायेंगे तो उनका सप्रमाण उत्तर दिया जा सकेगा। अब तक सभी प्रश्नों और आरोपों का उत्तर दिया जा चुका है।
– ब्यावर अजमेर