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‘रक्षा बन्धन अन्याय न करने और अन्याय पीढि़तों की रक्षा करने का संकल्प लेने का पर्व है’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बन्धन का पर्व सभी सुहृद भारतीयों द्वारा विश्व भर में सोत्साह मनाया जाता है। समय के साथ प्रत्येक रीति रिवाज व परम्परा में कुछ परिवर्तन होता रहता है। ऐसा ही कुछ परिवर्तन रक्षा बन्धन पर्व में हुआ भी लगता है। भारत में मुस्लिम काल में जब आक्रमण, मन्दिरों की लूट, देशवासियों का अपमान, अन्यायपूर्ण व बलपूर्वक धर्मान्तरण और निर्दोषों की हत्यायें होने लगीं तो इन अन्यायों से रक्षा की आवश्यकता हिन्दू समाज को अनुभव होने लगी। इसका उपाय यही हो सकता था कि वह संगठित होते ओर सामाजिक स्तर पर परस्पर रक्षा के सात्विक व पवित्र सम्बन्ध में बंधते। ऐसा ही हुआ होगा, इसी कारण हमारी आर्य जाति आज भी संसार में विद्यमान है अन्यथा जितने आक्रमण, अन्याय, शोषण व अत्याचार इस हिन्दू जाति पर विदेशियों व विधर्मियों ने मध्यकाल व बाद के वर्षों में हुए हैं, उनके कारण यदि इस जाति का अस्तित्व समाप्त भी हो जाता, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। अतः आज का दिन हमें अपने इतिहास को स्मरण करने व उससे शिक्षा लेने का है। अपना अज्ञान दूर कर ज्ञान व सत्य के आधार पर मनुष्य समाज को संगठित करना ही संसार के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। यह यद्यपि अतीत का भी धर्म व कर्तव्य था, परन्तु इसके विपरीत हमें अमानवीय कृत्य से भरा इतिहास प्राप्त हुआ है। हम वर्तमान और भविष्य को बदल सकते हैं। अतः अतीत की घटनाओं को स्मरण कर अपनी निजी व सामाजिक कमियों व त्रुटियों को दूर कर दूसरों पर अन्याय व अत्याचार न करना और न ही सहन करना की भावना का प्रचार होना ही रक्षा बन्धन पर्व का यथार्थ सन्देश विदित होता है।

 

रक्षा बन्धन में बहिनें भाइयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं। इसमें क्या सन्देश है जो आज भी प्रासंगिक है। इस पर विचार करने से यह तथ्य सामने आता है कि अतीत में जब स्त्री जाति पर दुष्ट व अमानुष पुरूषों के अत्याचार हुए तो उन्हें रक्षा की आवश्यकता अनुभव हुई। ऐसा कौन सा व्यक्ति हो सकता था जो उनकी रक्षा करता और यदि प्राणों को भी न्योछावर करना पड़ता तो उसमें भी वह पीछे न हटता। इसका एक ही उत्तर है कि यह कार्य किसी भी बहिन का भाई ही कर सकता है। माता पिता वृद्ध होने के कारण शक्ति सम्पन्न युवा दुष्ट पुरुषों को उनके दुष्कृत्यों का सबक नहीं सिखा सकते। यह काम सदाचारी व धार्मिक प्रवृत्ति के युवक ही कर सकते थे और वह उनके भाई ही हो सकते थे। इसी आधार पर रक्षा बन्धन पर्व की नींव पड़ी। हमें यह भी अनुभव होता है कि इस पर्व व प्रथा से हमारे देश की न केवल स्त्री जाति की ही रक्षा हुई अपितु हमारे धर्म व संस्कृति की रक्षा भी हुई है। यद्यपि आज हमारे सामने इतिहास उपलब्ध नहीं है परन्तु हमें यह स्पष्ट अनुभव होता है कि अनेक भाईयों ने इस कार्य के लिए अपने प्राणों की आहुतियां भी दी होगी। अतः रक्षा बन्धन पर्व बनाते हुए हमें जहां अपनी सहोदर बहिनों की रक्षा का संकल्प लेना है वहीं समाज की समस्त स्त्री जाति के प्रति रक्षा की भावना अपनी आत्मा में उत्पन्न करनी है। यह संकल्प रूपी संस्कार ही रक्षा बन्धन पर्व को मनाने को सार्थकता प्रदान करता है। दूसरा संकल्प यही है कि हमें न तो अन्याय सहना है और न ही दूसरों पर किसी प्रकार का अन्याय करना है। इसी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि हमें समाज के उच्च व श्रेष्ठ विचार के लोगों को संगठित कर एक ऐसा सामाजिक कवच तैयार करना है कि दुष्ट लोग किसी अबला, स्त्री व असहाय व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार का अत्याचार व अन्याय न कर सके। आर्य समाज को स्थापित करने के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी रहा।

 

रक्षा बन्धन के पर्व से कुछ ऐतिहासिक घटनायें भी जुड़ी हुई हैं। आर्य जगत के प्रख्यात विद्वान पं. भवानी प्रसाद जी ने इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है। उसको स्मरण कर लेना भी इस अवसर पर उचित प्रतीत होता है। उनके अनुसार राजपूत काल में अबलाओं के अपनी रक्षार्थ सबल वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ है। जिस किसी वीर क्षत्रिय को कोई अबला राखी भेजकर अपना राखी-बन्द भाई बना लेती थी, उस की आयु भर रक्षा करना उस का कत्र्तव्य हो जाता था। चित्तौड़ की महारानी कर्णवती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के बादशाह से अपनी रक्षार्थ राखी भेजी थी, जिससे उस ने चित्तौड़ पहुंचकर तत्काल अन्त समय पर उस को सहायता की थी और चित्तौड़ का बहादुरशाह के आक्रमण से उद्धार किया था। तब से बहुत से प्रान्तों में यह प्रथा प्रचलित है कि भगिनियां और पुत्रियां अपने भ्राताओं और पिताओं के हाथ में श्रावणी के दिन राखी बांधती हैं और वे उन से कुछ द्रव्य और वस्त्र पाती हैं। यदि यह प्रथा पुत्री और भगिनी-वात्सल्य को दृढ़ करने वाली मानी जाए तो उस के प्रचलित रहने में कोई क्षति भी नहीं है।

 

वह आगे कहते हैं कि आजकल की श्रावणी को प्राचीन काल के उपाकर्म-उत्सर्जन, वेद स्वाध्याय रूप ऋषि तर्पण और वर्षाकालीन वृहद् हवन-य़ज्ञ (वर्षा चातुर्मास्येष्टि) का विकृत तथा नाममात्र शेष स्मारक समझना चाहिए और प्राचीन प्रणाली के पुनरुज्जीवनार्थ उस को बीज मात्र मानकर उस को अंकुरित करके पत्रपुष्पसफल समन्वित विशाल वृक्ष का रूप देने का उद्योग करना चाहिए। आर्य पुरुषों को उचित है कि श्रावणी के दिन बृहद हवन और विधिपूर्वक उपकर्म करके वेद तथा वैदिक ग्रन्थों के विशेष स्वाध्याय का उपाकर्म करें और उस को यथाशक्ति और यथावकाश नियमपूर्वक चलाते रहें।

 

आज ही के दिन आर्यसमाज के गुरूकुलों में नये ब्रह्मचारियों के प्रवेश कराने के साथ उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार किये जाते हैं जिसमें आर्य जनता सोत्साह भाग लेती है और नये ब्रह्मचारियों को उनके वेदाध्ययन के व्रत में सहायक बन कर सहयोग देने के साथ उनसे वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा की अपेक्षा करती है। आज के दिन गुरूकुल के संचालकों, आचार्यों एवं अन्य अधिकारियों को गुरूकुल शिक्षा पद्धति पर गोष्ठी करनी चाहिये और गुरूकुल शिक्षा प्रणाली को अधिक प्रासंगिक व प्रभावशाली बनाने के साथ इससे राम-कृष्ण-चाणक्य-दयानन्द बनाने व तैयार करने की योजना बनानी चाहिये जिससे हमारी धर्म व संस्कृति न केवल सुरक्षित रह सके अपितु यह विश्ववारा धर्म व संस्कृति संसार में अपना गौरवपूर्ण स्थान ग्रहण कर सके, उसका प्रयास किया जाना चाहिये। रक्षा बन्धन पर्व की सभी देशवासियों को बधाई।

मनमोहन कुमार आर्य

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